बुध्दिभेद─ लट्ठ हमारा जिंदाबाद / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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सन 1937 की फरवरी में चंपारन जिला कांग्रेस कमिटी ने एक प्रस्ताव के द्वारा यह तय किया कि स्वामी सहजानंद सरस्वती का जो दौरा चंपारन में होनेवाला है वह रोका जाए,उसमें कोई कांग्रेसी भाग न ले और स्वामी जी को लिखा जाए कि आपके दौरे से यहाँ के लोगों में'बुध्दि भेद'पैदा होने का डर है। अत: यहाँ दौरा न करें! मेरे पास वहाँ से कोईपत्रतो न आया। मगर मेरे दौरे को विफल करने में वहाँ के कांग्रेसियों ने सारी शक्ति लगा दी! असल में चंपारन ने तो पथ-प्रदर्शन मात्र किया। मगर यह बात प्रांत के कांग्रेस के लीडर नहीं चाहते थे कि किसान-सभा कायम रहे। इसीलिए चंपारन के बाद ही सारन में भी यही बात हुई और मुंगेर की तथा प्रांत की कांग्रेस कमिटी ने भी ऐसा ही किया। यह तो पहले ही लिखा जा चुका है।

चंपारनवालों ने गीता के'न बुध्दिभेदजनयेद' का अच्छा अर्थ लगाया। उन लोगों ने चाहा कि गाँधीवाद के सिवाय वहाँ कोई आवाज सुनाई न पड़े, जैसी कि तब-तक हालत थी। मगर मेरे पहले-पहल होनेवाले दौरे के बाद किसान-सभा स्थापित हो जाने पर उसमें खतरा था।

मगर मेरा प्रोग्राम तो रुकता नहीं। अत: शुरू मार्च से चौबीस मीटिंगें जिले भर में करने का प्रोग्राम शुरू हो गया! विरोध भी सारी ताकत लगा कर किया गया! न सिर्फ लोगों को रोका गया, वरन काले झंडे का प्रदर्शन भी जगह-जगह किया गया! अजीब चहल पहल थी! मगर मेरी तो हालत है कि'रोके भीम होय चौगुना'। जहाँ तक याद है,चौबीस में बाईस मीटिंगें तो हुईं! तीन मीटिंगें न हो सकीं और एक अन्य नई मीटिंग हो गई। ऐसा भी हुआ कि लौरिया जैसी जगहों में केवल 25-50 आदमी ही रहे। बाकी दूर खड़े तमाशा देखते थे,गोया मीटिंग में जाने से पाप लगेगा! कुछ मीटिंगों में तो हजारों लोग आए,खासकर शहरों में और कई देहातों में भी। मोटे अंदाज से फिर भी 40-50 हजार लोगों ने मेरी बातें सुनीं। तारीफ थी हमारे नए कार्यकर्ताओं और प्रबंधकों की।'जिमि दशनन महँ जीभ बेचारी'की दशा में भी उनने सारी ताकत लगा दी। पीछे हम मीटिंगें करते थे,और आगे वे लोग बढ़ते जाते थे।

भित्तिहरवा में तो जगह तक न मिल सकी! तब नूरमुहम्मद नामक एक मुसलमान जवान ने, जो मुझे जानता तक न था अपने खेत की कच्ची मटर उखाड़ डाली और वहीं सभा करने को कहा! उस पर कितना दबाव पड़ा था वह पीछे पता चला। बायकाट की धमकी के सिवाय उसके भाई के जो कुछ रुपए कहीं पड़े थे,उन्हें हड़प लेने तक की धमकी हुई,पर,उसने एक न सुनी। उसके तैयार होने पर तो पीछे सड़क के ही पास जमीन मिली और शामियाना भी। मैंने वहीं सभा भी की। मगर सभा के बाद सभी के साथ मैं उस खेत पर गया और उसकी मिट्टी सिर पर लगा कर कहा कि किसान-सभा के इतिहास में यह खेत और यह मुसलमान जवान अमर रहेंगे। ऐसे ही लोग इसकी जड़ दृढ़ करेंगे। वह जवान उसके बाद इस साल मोतीहारी में कॉन्फ्रेंस के समय मिला।

एक सभा में तो जब विरोधियों की कुछ न चली तो मीटिंग में ही शोरगुल करते रहे और बोलना चाहा। मैं बोलना बंद करके चला आया। पीछे न जाने क्या-क्या बक गए।

इसी दौरे में जिला किसान-सभा का जन्म हुआ। दस दिन में दौरा खत्म हुआ। इसके बाद दूसरा दौरा सन 1938 के गर्मियों में हुआ। तब तक तो हमारे आदमी मजबूत हो चुके थे। कांग्रेस के लोगों ने भी वैसा विरोध न किया। फिर भी मोटरें दौड़ीं। मुकाबले में दूसरी सभाएँ की गईं। लोगों को धमकियाँ दी गईं। मगर सुनता कौन था? पहली बार जो न आए वह पीछे पछताते रहे। अत: इस बार उन्होंने प्रायश्चित्त किया। उसके बाद तो जब मैं आश्विन में विजयदशमी के समय बेतिया मेले के समय सभा करने गया तो सभा में ही वहाँ के नेता श्री प्रजापति मिश्र ने पूर्व की भूलों के लिए क्षमा माँग ली। फिर तो झमेला ही खत्म हुआ। उनकी माफी ने किसान-सभा की धाक जमा दी। उन्होंने गाँधीवाद के सिध्दांत के अनुसार क्षमा माँग ली थी। ठीक ही था। मैं भी पिछली बातें भूल ही गया!

चंपारन के पहले दौरे के बाद सारन (छपरा) जिले में भी दौरा हुआ। वहाँ भी कांग्रेस के नेताओं ने खासा विरोध किया। राजेंद्र बाबू और प्रांतीय कांग्रेस कमिटी का हुक्म छपवा कर बाँटा गया और इस तरह लोग रोके गए। काले झंडे भी कई जगह दिखाए गए! भैरवा में तो उनके साथी मारपीट पर उतारू थे। फलत: सभा छोड़ देनी पड़ी। आगे-आगे मोटर पर कांग्रेस के नेता लोग दौड़ते जाते, सभा स्थान पर हुक्मनामा सुनाते और मना करते थे। मगर उनके जाने के बाद फिर लोग जमा हो जाते और मेरे जाने पर मेरी बात सुनते थे। कटया में काले झंडे ले कर लड़के लोग नाकों (रास्ते की मोड़ों) पर खड़े थे। मगर जब लोग टूट पड़े तो वे भी शामिल हो गए। वहीं'स्वामी जी लौट जाइए'सुनाई पड़ा। मगर पहली बार के दौरे में भी हमारा काम बन गया। जब1938 की फरवरी में हम दोबारा गए तोविरोधका वह तरीका छोड़ दिया गया! मगर शराबबंदीवाली सरकारी लौरी पर चढ़कर उसी के प्रचार के बहाने नेता लोग गए और हमारे चले आने पर एक-दो सभाओं में ऊलजलूल बोले भी। पहले तो नहीं। मगर पीछे हमें मालूम हुआ, फिर तो तीसरी या चौथी सभा में ही उनकी दुर्दशा हुई। भैरवा में भी इस बार उन्हें मुँह की खानी पड़ी। सिवान में तो वे लोग बोलने ही न पाए। लोग मेरे बाद उनकी सुनने को तैयार न थे। गोपालगंज में मेरी सभा के बगल में ही सभा करके मेरे ही साथ जिला कांग्रेस कमिटी के सभापति चिल्लाते थे। पर,नतीजा कुछ न हुआ।

एक जरूरी बात, मेरे सामने एक भीषण समस्या इधर कुछ वर्षों से खड़ी थी। मैं समझने लगा था कि कांग्रेस के नेता अंत में किसानों को धोखा देंगे। नतीजा होगा कि कांग्रेसी होने के नाते हम किसान-सभावालों पर भी किसानों का अविश्वास हो जाएगा। फलत: इसका उपाय होना चाहिए। मगर रास्ता सूझता न था। यदि किसान-सभा को कांग्रेस से अलग किसानों की खास संस्था कहते तो वे लोग खामख्वाह कांग्रेस की अपेक्षा सभा में ज्यादा प्रेम करते! फलत: कांग्रेस कमजोर होती! अगर ऐसा कुछ न कहते तो अंत में गड़बड़ी का खतरा था। अजीब पहेली थी। मेरी परेशानी तथा मनोवेदना बेहद्द थी।

इसी बीच सारन,चंपारन और मुंगेर में उक्त घटनाएँ हुईं,जिन पर प्रांतीय कांग्रेस ने एक प्रकार से मोहर लगा दी! फलत:,कुछ रास्ता साफ हुआ। लेकिन मेरे ऊपर हिंसा का इल्जाम लगा कर सन 1938 की फरवरी में जो मेरी और किसान-सभा की निंदा का प्रस्ताव प्रांतीय कार्यकारिणी ने खास राजेंद्र बाबू कीअध्यक्षता में पास कर दिया उससे मेरा रास्ता कतई साफ हो गया! उन लोगों ने ही किसान-सभा को कांग्रेस से अलग सिध्द कर दिया! इसका खूब प्रचार भी किया। उनके ही आदमी कहने लगे कि अमुक व्यक्ति किसान-सभावाले हैं और अमुक कांग्रेसी।

मैंने उस प्रस्ताव के बाद प्रांतीय कार्यकारिणी से इस्तीफा दे दिया। बात यह थी कि मैं उसका मेंबर था। फिर भी बिना मुझे एक मौका दिए ही मेरी अनुपस्थिति में ही वह प्रस्ताव पास किया गया। अत: वह अक्षम्य था। मेरे पास उस मीटिंग की खबर तक न पहुँची! फलत:,मैं पूर्वोक्त दौरे के लिए छपरा चला गया। शायद ठीक मीटिंग के दिन वह नोटिस बिहटा गई हो। मगर इससे क्या? मुझे तो खबर नहीं ही मिली। यदि ऐसी ही जरूरत थी तो मुझे तार क्यों न दिया गया?मैं जानता हूँ कि और मेंबरों को तार दिया गया था और पीछे यह खबर छपी थी। चाहे जो भी हो,मुझे तो खास तौर से खबर देना जरूरी था। मीटिंग टल नहीं सकती थी क्या?क्या इतना जरूरी था कि 13 फरवरी को ही प्रस्ताव पास हो?क्या बिगड़ रहा था?क्या छपरेवाले मेरे प्रोग्राम को जानबूझ कर चौपट करना था,क्योंकि उसकी खबर पहले से ही छपी थी? किसी भी हालत में मैं उस घोर अन्याय को बर्दाश्त क्यों करता? मेरा स्वाभिमान मुझे कहता था कि ऐसी कमिटी से फौरन हटो।

अब जरा'लट्ठ हमारा जिंदाबाद'या डंडा कल्ट (Danda cult) की बात सुनिए। वह मेरेसंबंधमें एक ऐतिहासिक चीज हो गई है। उसकी ओर न सिर्फ कार्यकारिणी के उक्त प्रस्ताव में इशारा था। प्रत्युत कानपुर में एक लंबा वक्तव्य दे कर स्वयं बाबू राजेंद्र प्रसाद ने मेरेसंबंधमें उसका स्पष्ट उल्लेख किया था! कहा गया कि मैं किसानों से कहता फिरता था कि जमींदारों से साफ कह दें कि'कैसे लोगे मालगुजारी,लट्ठ हमारा जिंदाबाद'। मगर मेरी सभी स्पीचों की शार्टहैंड रिपोर्ट तो बराबर दो सी.आई. डी. के इंस्पेक्टर लिखा करते थे। अत: मैंने ललकारा कि उसे पढ़ कर यह चीज सिध्द कीजिए तब जानूँ। श्री महादेव देसाई ने'हरिजन'में इसी बारे में लंबा लेख मेरे हीसंबंधमें लिखा था। मैंने उनका जवाब भी करारा दिया था। वह हरिपुरा कांग्रेस के समय अखबारों में निकला था। न जाने यह चीज कहाँ से और कैसे गढ़ी गई! मिथ्याप्रचार की हद की गई! वाह रे सत्य! धन्यरे अहिंसा!

लेकिन यह जरूर है कि मैं किसानों को आत्मरक्षार्थ लाठी या डंडा चलाने को कहता था। करता भी क्या?किसान थर्राते रहते,जमींदार के अमले जूतों तथा डंडों से उन्हें दुरुस्त करते और घर की चीजें लूट लेते थे! यहाँ तक कि बहू-बेटियों की इज्जत नहीं बच पाती थी! मैंने हजारों सभाओं में उन्हें समझाया सही कि यह गैरकानूनी काम है। इसे बंद कीजिए। नहीं तो ठीक न होगा। मगर सुने कौन? किसान तो मुकाबिला करेंगे नहीं। वे गरीब हैं,कमजोर हैं,इसलिए केस में भी पार पाएँगे नहीं। फिर क्या परवाह,यही वे सोचते थे।

तब मैंने आत्मरक्षार्थ डंडे आदि का प्रयोग किसानों को खुलेआम बताना शुरू किया। जाब्ता फौजदारी कानून इसका समर्थन करता है यह भी उन्हें समझाया। फिर तो किसानों की आँखें खुलीं। दो-एक जगह शैतानों को उनने दुरुस्त भी किया। फलत: यह शैतानियत और वह आतंक राज्य सदा के लिए खत्म हुआ। यही है मेरा डंडावाद या डंडाकल्ट। इससे गाँधीवादी बिगड़े जरूर। यहाँ तक कि मेरे साथी लोग भी काँय-काँय करने लगे कि अब इसे बंद करें। मगर मैंने साफ कह दिया कि यह उपदेश तो किसानों के लिए अमृत है। इसे क्यों छोडे?यह तो कानूनी हक है। फिर क्या बात?लोगों ने कहा,कांग्रेस इसे रोकती है। मैंने जवाब दिया कि वह अहिंसा केवल आजादी की लड़ाई के लिए ही है।

मगर इधर कुछ ऐसा हो गया था कि सर्वत्र अहिंसा के नाम पर नामर्दी का पाठ पढ़ाया जाने लगा था कि कहीं मत बोलो। हालाँकि, गाँधी जी ने ही अहिंसा के नाम पर नामर्दी की अपेक्षा हिंसा को अच्छा कहा है। सो भी बार-बार। मगर सुनता कौन था?लेकिन खुशी है कि इसी जून सन 1940 ई. में पुन: वर्किंग कमिटी ने साफ कह दिया है कि अहिंसा का प्रयोग सिर्फ आजादी के युध्द के ही लिए है,न कि और जगह के लिए भी। आज हमारे आका लोग भी इसे पसंद करते हैं। क्योंकि उन्हें जर्मनी के विरुध्द सशस्त्र युध्द की जरूरत है न?

यही है मेरा डंडाकल्ट और डंडावाद। असल में मैं तो दंडी संन्यासी कहाता ही हूँ। मेरे पास बाँस का एक दंड सदा रहता है। मगर वह अब तक धार्मिक था। लेकिन अब वह राजनीतिक और आर्थिक हो गया! इसीलिए उसी बुध्दि से मैंने उसे अभी तक अपना रखा है। इस डंडावाद ने उसमें मेरा नया प्रेम और मेरे लिए नया महत्त्व पैदा कर दिया है। इसी के संबंध से शायद यह डंडावाद मेरे नाम से प्रसिध्द होने को था!