बुलबुल / हैंज़ क्रिश्चियन एंडरसन / द्विजेन्द्र द्विज

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज
हैंज़ क्रिश्चियन एंडरसन »

अनुवाद: द्विजेन्द्र द्विज


बुलबुल

चीन में , आप जानते हैं , सम्राट एक चीनी है, और उसके आसपास के सब लोग भी चीनी ही हैं। कहानी जो मैं आपको सुनाने जा रहा रहा हूँ ,वर्षों पहले घटी थी,इसलिए अच्छा रहेगा कि इसे भूल जाने से पहले ही सुन लिया जाए । विश्व में सबसे सुन्दर था सम्राट का महल । यह राजभवन समूचा चीनी-मिट्टी का बना था, और बेशकीमती था , परन्तु इतना नाज़ुक और भुरभुरा कि जो भी इसे एक बार छू लेता था , दूसरी बार के लिए सावधान हो जाता था। उद्यान में अत्यन्त अद्भुत फूल थे जिन पर आकर्षक चांदी की घंटियाँ बँधी हुई थीं जो बजती रहती थीं ताकि उधर से गुज़रने वाले का ध्यान फूलों की ओर अवश्य जाये । वास्तव में सम्राट के उद्यान में सब कुछ दर्शनीय था और यह इतना फैला हुआ था कि स्वयं माली को भी इसके दूसरे छोर का पता नहीं था । इसकी सीमाओं से आगे निकल कर जाने वाले यात्री जानते थे कि आगे विशाल वृक्षों वाला एक भव्य जंगल था जिसकी ढलान गहरे नीले सागर तक जाती थी और बड़े विशाल जहाज़ उन वृक्षों की छाया तले होकर गुज़रते थे । ऐसे वृक्षों में ही किसी एक पर एक बुलबुल रहती था जो इतना सुरीला गाती थी कि बेचारे मछुआरे, जिन्हें ढेरों काम करने को होते , उसे सुनने के लिए रुक जाते, और कहते "क्या यह बहुत सुरीली नहीं है?" परन्तु जब फिर से मछलियाँ पकड़ने लगते तो अगली रात तक इस पंछी को फिर भूल जाते फिर अगली बार इसे गाते हुए सुनकर चकित होते, "कितना विलक्षण है बुलबुल का गाना!"

सुदूर देशों से यात्री सम्राट के शहर में आए ; शहर , राजभवन और उद्यानों की प्रशंसा की परंतु जब उन्होंने बुलबुल को सुना तो यही कहा कि बुलबुल सबसे बढ़िया है। और अपने -अपने घरों को लौट कर अपने देखे हुए का वर्णन किया ,विद्वान लोगों ने किताबें लिखीं जिनमें शहर, राजभवन और उद्यानों का वर्णन किया ,परंतु वे बुलबुल का वर्णन करना नहीं भूले थे जो कि वास्तव में एक महान आश्चर्य था । कवियों ने गहरे सागर के निकट जंगल में रहने वाली बुलबुल के बारे में पद्य रचे । किताबें समूचे विश्व तक पहुँचीं और कुछ सम्राट के हाथ भी आईं; अपनी सोने की कुर्सी में बैठा सम्राट इन किताबों में अपने शहर, राजभवन और उद्यानों के भव्य वर्णन को पढ़ता हुआ, प्रशंसा भाव में झूमने लगा परंतु जैसे ही उसने पढ़ा " बुलबुल सबसे सुन्दर है" वह चकित हो कर बोला," यह क्या है। मैं तो बुलबुल के बारे में कुछ नहीं जानता। क्या ऐसा कोई पंछी मेरे साम्राज्य में है? और वह भी मेरे उद्यान में? मैंने तो कभी इसके बारे में नहीं सुना।लगता है कुछ किताबों से सीखा जा सकता है। "तब उसने अपने एक सामंत को बुलाया जो इतना कुलीन था कि अगर उससे निम्न दर्ज़े का अधिकारी बात करता या कुछ पूछता तो वह कहा करता था "उँह" जिसका अर्थ कुछ भी नहीं होता। "इन किताबों में बुलबुल नाम के एक अद्भुत पंछी का वर्णन है।" सम्राट ने कहा, " कहते हैं मेरे विशाल साम्राज्य में पाई जाने वाली सर्वोत्तम वस्तु वही है।मुझे इसके बारे में क्यों नहीं बताया गया?"

"मैंने तो कभी नाम भी नहीं सुना" अश्वारोही सामंत ने उत्तर दिया, "उसे कभी आपके दरबार में प्रस्तुत ही नहीं किया गया।" "आज शाम को हम उसे अपने दरबार में हाज़िर चाहेंगे। "सम्राट ने कहा, "सारी दुनिया मुझसे बेहतर जानती है कि मेरे पास है क्या!" अश्वारोही सामंत ने कहा "मैंने कभी उसके बारे में नहीं सुना,फिर भी मैं उसे ढूँढने का प्रयास करूँगा।" परंतु बुलबुल मिलती कहाँ? सामंत सीढ़ियाँ चढ़ा-उतरा , राजभवन के गलियारों में घूमा;सबसे पूछा लेकिन बुलबुल को कोई नहीं जानता था । सामन्त ने वह वापिस लौट कर सम्राट को बताया कि बुलबुल तो किताब लिखने वालों की मात्र कपोल-कल्पना है ।" महाराजाधिराज को किताबों में लिखी हर बात पर विश्वास नहीं कर लेना चाहिए ;कई बार ये किताबें कल्पित होती हैं या काली कला।" "परन्तु जिस किताब में मैंने उसका वर्णन पढ़ा है," सम्राट ने कहा "मुझे जापान के महान शक्तिशाली सम्राट ने भेजी है और इसलिए इसमें झूठ तो हो ही नहीं सकता। हम बुलबुल का गाना सुनेंगे, उसे आज शाम हमारे दरबार में होना चाहिए। वो आज हमारी कृपा-पात्र है और अगर वह नहीं आई तो सारे दरबारी रात्रि-भोज के शीघ्र बाद कुचल दिए जाएँगे।" "जो आज्ञा" सामंत चिल्लाया,और वह फिर राजदरबार की तमाम सीढ़ियाँ चढ़ा-उतरा सभी कक्षों व गलियारों को फलाँगता हुआ; और उसके पीछे-पीछे भागे आधे दरबारी जिन्हें कुचला जाना पसन्द नहीं था। अद्भुत बुलबुल जिसे दरबार के इलावा सारा संसार जानता था के बारे ज़ोरदार पूछताछ हुई।

अंतत: पाकशाला(रसोई) में उन्हें एक नन्ही निर्धन बालिका मिली,जिसने कहा, "हाँ,मैं बुलबुल को अच्छी तरह जानती हूँ;वह वास्तव में अच्छा गाती है हर शाम मुझे अपनी ग़रीब बीमार माँ के लिए मेज़ों पर बचा हुआ खाना ले जाने की अनुमति है; वह सागर-तट पर रहती है । लौटते हुए मैं थक जाती हूँ और जंगल में विश्राम करने बैठती हूँ और बुलबुल को गाते हुए सुनकर मेरी आँखों में आँसू आ जाते हैं यह मुझे अपनी माँ के चुंबन-सा लगता है।" " नन्ही नौकरानी," सामन्त ने कहा, " मैं तुम्हें रसोईघर में पक्की नौकरी दिला दूँगा तुम्हें सम्राट को रात्रिभोज करते हुए देखने की अनुमति होगी अगर तुम हमें बुलबुल के पास ले चलो; क्योंकि बुलबुल को राजदरबार में गाने के लिए बुलवाया गया है।" वह जंगल को चल दी जहाँ बुलबुल गाती थी और आधा दरबार उसके पीछे-पीछे चल दिया। जैसे ही वे आगे बढ़े एक गाय के रँभाने की आवाज़ आई। " ओह!" एक युवा दरबारी ने कहा," अब हमें बुलबुल मिल गई है,छोटे -से प्राणी में कितनी अद्भुत शक्ति है; मैंने अवश्य इसे पहले भी गाते हुए सुना है ।"

" नहीं, यह तो बस गाय के रँभाने की आवाज़ है" नन्ही बालिका ने कहा " अभी तो हमें राजभवन से बहुत दूर जाना है।" तभी दलदल में कुछ मेंडकों के टर्टराने की आवाज़ आई। "सुन्दर!" युवा दरबारी ने कहा, "अब मैं बुलबुल को गाते हुए सुन पा रहा हूँ,यह गिरजे की घंटियों की-सी टन-टन है।"

"सुनो,सुनो! वो रही बुलबुल,"लड़की ने कहा "वो बैठी है बुलबुल,"टहनी से चिपके हुए धूसर रंग के एक पंछी की ओर इशारा करते हुए उसने कहा। "क्या यह संभव है?" सामंत बोला," मैंने तो कभी कल्पना भी नहीं की थी कि छोटी-सी, सादा-सी साधारण-सी यह चीज़ बुलबुल होगी। ज़रूर इसने इतने राजसी लोगों को अपने आस-पास देख कर अपना रंग बदल लिया होगा।" "नन्ही बुलबुल" ऊँची आवाज़ में लड़की ने उसे पुकारा " हमारे अत्यन्त कृपालु सम्राट चाहते हैं कि तुम उनके सामने गाओ।" "मैं बड़ी ख़ुशी से गाऊँगी।" कहते हुए बुलबुल ने आनंदित होकर गाना आरंभ कर दिया। यह तो छोटी-छोटी कांच की घंटियों के बजने की आवाज़ है।" सामंत ने कहा, " और देखो उसका छोटा-सा गला काम कैसे करता है। हैरानी की बात तो यह है कि हमने इसे कभी पहले क्यों नहीं सुना; आज दरबार में यह बहुत कामयाब होगी।" "क्या मैं एक बार फिर सम्राट के सामने गाऊँ?" यह समझते हुए कि शायद सम्राट भी वहीं है, बुलबुल ने पूछा। "मेरी श्रेष्ठ नन्ही बुलबुल," सम्राट ने कहा, "मुझे तुम्हें आज शाम को दरबारोत्सव के लिए आमंत्रित करते हुए हार्दिक प्रसन्नता हो रही है। तुम्हें दरबार में अपने मोहक गाने से राजकृपा की प्राप्ति होगी।" "मेरे गीत हरे जंगल में अधिक सुंदर गूँजते हैं।" बुलबुल ने कहा; लेकिन फिर भी वह राजदरबार में स्वेच्छा से गई जब उसे सम्राट की इच्छा का पता चला।

अवसर के लिए महल को बहुत सुरुचि-सम्पन्न ढंग से सजाया गया हज़ारों दीयों के प्रकाश से चीनी-मिट्टी की दीवारें चमचमा उठीं। गलियारे फूलों से सजे थे , फूलों के इर्द-गिर्द छोटी-छोटी घंटियाँ बँधी थी यह अलग बात है कि गलियारों चहल-पहल और लोगों भाग-दौड़ में ये घंटियाँ इतनी ज़ोर-से टनटना रही थीं कि किसी का बोला हुआ कूच्च भी सुनाई नहीं दे रहा था। बड़े कक्ष के बीचो-बीच बुलबुल के बैठने के लिए सोने का चक्कस लगवाया गया था।सब दरबारी उपस्थित थे। रसोईघर की नन्ही नौकरानी को भी दरवाज़े के पास खड़े होने की अनुमति मिल गई थी।उसे रसोई घर में बावर्ची नहीं बनाया गया था।सब अपनी राजसी वेश-भूषा में थे, हर आँख नन्हें धूसर पंछी पर जमी थी अब सम्राट ने उसे गाने के लिए इशारा किया। बुलबुल ने इतना मधुर गाया कि आँसू सम्राट की आँखों से निकल कर उसके गालों तक बह गए। बुलबुल का गाना और भी मर्मस्पर्शी हो उठा। सम्राट इतना आनन्दित हो उठा कि उसने अपनी सोने की कण्ठी बुलबुल को पहनाने की घोषणा कर दी परन्तु बुलबुल ने इस सम्मान के लिए धन्यवाद सहित मना कर दिया। उसे पहले ही पर्याप्त सम्मान मिल चुका था। "मैंने सम्राट की आँखों में आँसू देखे हैं।" उसने कहा ,"यही मेरे लिए सबसे बड़ा सम्मान है।अद्भुत शक्ति होती है सम्राट के आँसुओं में और यही मेरे सम्मान में पर्याप्त है।और उसने एक बार फिर और भी मन्त्र-मुग्ध करने वाला गाना गाया।

"यह गान तो बहुत सुन्दर उपहार है; " दरबार की औरतों ने आपस में कहा । वे भी वे भी अपने मुँह में पानी भरकर अपनी आवाज़ में बुलबुल के सुर जैसी गड़गड़ाहट निकालने की कोशिश में मन ही मन स्वयं के भी बुलबुल होने की कल्पना करने लगीं उनकी बातचीत का लहज़ा भी बदल गया । वे भी बुलबुल-सा सुरीला गाने का प्रयास करने लगीं और इसपर महल के वर्दीधारी नौकरों और नौकरानियों ने भी संतोष प्रकट किया जोकि एक ‘बड़ी बात’ थी,जैसे कि कहावत भी है कि ‘उन्हें’ प्रसन्न करना बहुत ही कठिन है। वास्तव में बुलबुल का राजमहल का यह दौरा बहुत ही सफल रहा था। अब उसे दरबार में ही रहना था,अपने ही पिंजरे में। उसे दिन में दो बार और रात को एक बार बाहर जाने की आज़ादी थी। इन अवसरों पर उसकी सेवा में बारह नौकर तैनात थे जो बारी-बारी से बुलबुल की टाँग में बँधी रेशमी डोर को थामे रहते थे।बेशक ऐसे उड़ने में ज़्यादा मज़ा भी नहीं था।

अद्भुत पंछी की सारे शहर भर में चर्चा थी। जब भी दो लोग मिलते, पहला कहता,"बुल..." और दूसरा ...बुल" कह कर शब्द को पूरा कर देता और इसी से स्पष्ट हो जाता कि बात बुलबुल की ही होगी क्योंकि और तो कोई बात थी ही नहीं करने के लिए।" यहाँ तक कि फेरी वालों ने भी अपने बच्चों के नाम बुलबुल के नाम पर ही रख लिए यह अलग बात है कि वे एक भी स्वर गा नहीं पाते थे।

एक दिन सम्राट को एक पेकेट मिला जिस पर लिखा था "बुलबुल।" "ज़रूर,इसमें हमारी यशस्वी बुलबुल के बारे में ही कोई किताब होगी। " सम्राट ने कहा। लेकिन यह किताब नहीं एक सन्दूकची में रखी हुई कलाकृति ,एक नकली बुलबुल थी जो हू-ब-हू असली की तरह दिखाई देती थी जिसपर हीरे जवाहरात और नीलम जड़े थे। चाबी भरने पर यह नकली पंछी , असली बुलबुल की तरह गाते, दुम ऊपर नीचे करते हुए सोने चांदी-सा चमचमा उठता था। इसके गले में एक रिबन बँधा था जिसपर लिखा था "जापान के सम्राट की बुलबुल चीन के सम्राट की बुलबुल की तुलना में बहुत तुच्छ है।"

"लेकिन यह तो बहुत सुन्दर है!" सब देखने वालों ने हैरान होकर कहा, और इस कृत्रिम पंछी को जापान से लाने के लिए "शाही बुलबुल को लाने वाले प्रमुख" की उपाधि से अलंकृत किया गया।

"अब दोनों बुलबुलों को इकठ्ठे गाना चाहिए। " दरबारियों ने कहा, " यह तो बहुत सुन्दर जुगलबन्दी होगी।" परन्तु वे लोग यह नहीं समझ पाए कि असली बुलबुल सहजता से गाती थी जबकि नकली बुलबुल का गाना भी नकली था। "लेकिन यह कोई त्रुटि नहीं है," संगीताचार्य ने कहा। "मुझे तो इसका गाना बहुत ही कर्ण-प्रिय लगता है।" फिर नकली पंछी को अकेले गाना पड़ा , यह असली पंछी की तरह ही सफल भी हुई और फिर यह देखने में भी तो बहुत सुन्दर थी क्योंकि यह कंगनों और गहनों की तरह चमचमा भी तो रही थी। बिना थके उसने तैंतीस बार लगातार गाया, लोग उसे और भी सुनते लेकिन सम्राट ने कहा कि अब असली बुलबुल को भी अवश्य कुछ गाना चाहिए। परन्तु वह थी कहाँ ? उसे खुली खिड़की से निकलकर अपने हरे जंगल की ओर जाते किसी ने नहीं देखा था। "यह तो विचित्र व्यवहार है ! " और जब पता चल ही गया कि असली बुलबुल वहाँ नहीं थी,सब दरबारियों ने उसे कोसा, उसे कृतघ्न प्राणी कहा।

"परन्तु अब तो हमारे पास सर्वोत्तम पंछी है" किसी ने कहा और उन्होंने बार बार उसे सुना, भले ही वे लोग एक ही धुन को चौंतीसवीं बार सुन रहे थे,फिर भी वह धुन सीखना उनके लिए कठिन था, उन्हें वह धुन याद ही नहीं हो पा रही थी। परन्तु संगीताचार्य ने नकली पंछी की और भी अधिक प्रशंसा की और यह घोषणा भी कर डाली कि यह तो असली बुलबुल से भी बेहतर है, न केवल अपनी सुन्दर पोषाक और हीरों के कारण अपितु अपने आकर्षक संगीत के कारण भी। "क्योंकि महाराजाधिराज, देखने वाली बात तो यह है कि असली बुलबुल के साथ हमारी समस्या यह है कि वह एक धुन के बाद आगे क्या गाएगी, हमें पता ही नहीं चलता, जबकि यहाँ सब कुछ निश्चित है इसे खोल सकते हैं ,इसकी व्याख्या कर सकते हैं ताकि लोगों को पता चले धुनें बनती कैसे हैं और कैसे एक के बाद दूसरी धुन बजती है?

" हम भी तो यही सोच रहे थे।" उन सबने कहा और तभी संगीताचार्य को अगले रविवार लोगों के लिए बुलबुल की प्रदर्शनी लगाने की अनुमति मिल गई। और सम्राट ने आदेश जारी किया कि सब लोग नई बुलबुल का गाना सुनने के लिए हाज़िर हों। जब लोगों ने उसे सुना तो वे सब नशे में झूम रहे लोग थे; बेशक यह नशा बुलबुल के गाने का कम, पारंपरिक चीनी चाय का ज़्यादा था। सब ने हाथ उठा कर दाद दी लेकिन एक ग़रीब मुछुआरे जिसने असली बुलबुल को गाते हुए सुना था, कहा,"यह काफ़ी अच्छा गाती है, सब मधुर धुनें भी एक ही जैसी हैं; फिर भी इसके गाने में कुछ कमी ज़रूर है मगर मैं आपको सही-सही नहीं बता सकता कि वह कमी क्या है ।"

और इसके बाद असली बुलबुल को साम्राज्य से बाहर निकाल दिया गया और नकली बुलबुल को सम्राट के निकट रेशमी गद्दे पर स्थान मिल गया। सोने और बहुमूल्य हीरों के जो उपहार नकली बुलबुल के साथ आए थे, उसके पास ही रख दिए गए और इसे नन्ही शाही शौचालय गायिका की और भी उन्नत उपाधि से अलंकृत किया गया, और सम्राट के बायीं तरफ़ सर्वोत्तम स्तर प्रदान किया गया क्योंकि राजा को अपनी बायीं तरफ़ बहुत पसंद थी, जहाँ हृदय का वास होता है,श्रेष्ठ स्थान, और राजा का हृदय भी वहीं होता है जहाँ प्रजा का हो । संगीताचार्य ने नकली बुलबुल पर पच्चीस भागों वाला विद्वतापूर्ण और लम्बा ग्रंथ लिखा जो कलिष्टतम चीनी शब्दों से अटा पड़ा था फिर भी मूर्ख समझे जाने और अपने शरीरों के कुचले जाने के भय से लोगों ने कहा कि उन्होंने इसे अच्छी तरह पढ़ और समझ लिया है।

एक वर्ष बीत गया और सम्राट सहित सब दरबारियों और चीनी लोगों को नकली बुलबुल के गाने की हर बारीकी का पता था और इसीलिए उन्हें यह अधिक पसन्द भी थी। वे प्राय: पंछी के साथ गा सकते थे। गली के लड़के भी "ज़ी-ज़ी-ज़ी,क्लक क्लक,क्लक" गाया करते थे; सम्राट भी इसे गा लेता था। यह सब बहुत मज़ेदार था। एक शाम जब नकली बुलबुल अपनी स्वर-लहरियों का जादू बिखेर रही थी और सम्राट स्वयं बिस्तर में लेटा इसे सुन रहा था, पंछी के भीतर कहीं से ‘विज़’ जैसी कोई ध्वनि सुनाई दी, तभी एक स्प्रिंग चटक गया। " वर्रर्रर करके पहिए घूमते रहे और संगीत बन्द हो गया। सम्राट उछल कर बिस्तर से बाहर निकल आया और अपने वैद्यराज को बुलवा भेजा, लेकिन यहाँ उसका भी क्या काम था? तब उसने घड़ीसाज़ को बुलवाया जिसने कुछ गंभीर बातचीत और परीक्षण के बाद बुलबुल को काफ़ी ठीक कर दिया लेकिन साथ ही यह भी कहा कि इसे बहुत सावधानी से प्रयोग करना होगा, क्योंकि इसके भीतर की एक विशेष नली घिस गई है , नई बदलने की कोशिश में संगीत को क्षति पहुँच सकती है। बहुत दु:ख की बात थी क्योंकि अब वर्ष में केवल बार ही इस बुलबुल से गाना सुना जा सकता था, हालाँकि यह भी बुलबुल के भीतर के संगीत के लिए हानिकारक हो सकता था। और फिर संगीताचार्य ने बहुत ही कठोर शब्दों में भाषण दिया और घोषणा की , "बुलबुल हमेशा की तरह ठीक-ठाक है।" भले ही उसकी यह बात काटने का साहस किसी में नहीं था।

पाँच वर्ष बीत गये, और अचानक देश पर वास्त्विक दु:ख के बादल मँडराते दिखाई देने लगे। चीनी सचमुच अपने सम्राट से प्रेम करते थे और वह अचानक इतना बीमार हो गया कि उसके बचने की कोई आशा न रही। पहले ही नया सम्राट चुन लिया गया था और गलियों में खड़े लोग जब मुख्य सामंत से सम्राट का कुशल-क्षेम पूछते तो वह "उँह" कह कर सिर हिला देता था।

सम्राट अपने शाही बिस्तर में ठण्डा और निस्तेज पड़ा था जबकि दरबारी उसे मृत समझ रहे थे। हर दरबारी उसके नए उत्तराधिकारी को सम्मान देने के प्रयास में था। विशेष कक्षों की नौकरानियाँ इस विषय पर चर्चा के लिए ‘बाहर’ चली गईं और दरबार की औरतों की नौकरानियों ने काफ़ी पर कम्पनी के लिए अपने विशेष मित्रों को बुलवा लिया।

कक्षों और गलियारों में कपड़ा बिछवाया गया था ताकि कदमों की आहट बिलकुल भी सुनाई न दे सके; बहुत शांत था सब कुछ परन्तु सम्राट अभी मरा नही था; वह श्वेत और अकड़ा हुआ लम्बे मख़मली पर्दों और सुनहरी रस्सियों वाले अपने शाही बिस्तर पर लेटा हुआ था। एक खिड़की खुली थी, चाँदनी सम्राट और नकली बुलबुल को नहला रही थी। लाचार सम्राट ने अपने सीने पर एक अजीब-सा बोझ महसूस किया, उसने अपनी आँखे खोलीं और उसने मृत्युदेव को अपने पास बैठा हुआ पाया। मृत्यु्देव ने राजा का सुनहरी मुकुट पहन लिया था , एक हाथ में उसकी शाही तलवार थी, दूसरे हाथ में उसका सुन्दर ध्वज था । बिस्तर के चारों ओर लम्बे मख़मली पर्दों में से झाँकते हुए कुरूप, सुन्दर और दयालु दिखाई दे रहे बहुत -से अजनबी चेहरे थे। ये सम्राट के सब अच्छे बुरे कामो के चेहरे थे जो उसे घूर रहे थे जबकि मृत्युदेव उसके हृदय पर सवार हो चुके थे।

"तुम्हें याद है यह?" "क्या यह याद आ रहा है तुम्हें?" चेहरे बारी-बारी से सम्राट से पूछ कर सम्राट को पुरानी वे परिस्थितियाँ याद दिला रहे थे जिनके कारण उसके माथे पर पसीना आ चुका था । " मैं इसके बारे में कुछ नहीं जानता।" सम्राट ने कहा,"संगीत, संगीत!" वह चिल्लाया," बड़ा ढोल बजाओ, ताकि मैं उनकी(चेहरों की) आवाज़ें न सुन सकूँ। परन्तु वे पूछे जा रहे थे और मृत्युदेव एक चीनी की तरह चेहरों के अनुमोदन में सर हिला रहे थे।


"संगीत! संगीत!" सम्राट चिल्लाया। "नन्ही कीमती सुनहरी बुलबुल, तुम गाओ! मैंने तुम्हें सोना और कीमती उपहार दिए हैं; मैंने तो अपनी सोने की कण्ठी भी अब तुम्हारे गले में डाली है, गाओ, गाओ।" लेकिन नकली बुलबुल चुप थी, उसमें चाबी भरने वाला कोई नहीं था, वह गाती कैसे?

मृत्युदेव सम्राट को अपनी क्रूर, धँसी आँखों से निरंतर घूरे जा रहे थे और कमरे में भयानक सन्नाटा था। तभी खुली खिड़की से मधुर संगीत सुनाई दिया। बाहर एक पेड़ की टहनी पर असली बुलबुल बैठी थी। उसने सम्राट की बीमारी के बारे में लोगों से सुना था और और वह सम्राट के लिए आशा और विश्वास का गीत गाने आई थी। काले साये प्रकाश में बदलने लगे, सम्राट की शिराओं में रक्त का संचार तेज़ होने लगा; उसके क्षीण अंग स्फूर्त हो उठे; मृत्युदेव ने स्वयं सुना और कहा, "गाती रहो नन्ही बुलबुल, गाती रहो।"

"मैं गाउँगी, और बदले में आप मुझे सुन्दर सुनहरी तलवार और अपना कीमती ध्वज देंगे और साथ ही सम्राट का मुकुट भी।" बुलबुल ने कहा। और मृत्युदेव ने एक -एक करके बुलबुल के गाने के बदले में ये सब कीमती चीज़ें लौटा दीं; और बुलबुल गाती रही। उसने शांत चर्च जहाँ सफ़ेद गुलाब होते हैं, जहाँ बूढ़े पेड़ अपनी सुगन्धि हवा पर लुटाते हैं, और ताज़ा मख़मली घास जो शोकग्रस्त लोगों के आँसुओं से नम रहती है, के बारे में गाया। तब मृत्यु देव अपने उद्यान में लौट जाने के लिए लालायित हो उठे और सर्द सफ़ेद धुन्ध के आकार में खिड़की के रास्ते से अपने उद्यान को लौट गए।

"धन्यवाद ,धन्यवाद, नन्हीं बुलबुल! मैं जानता हूँ तुम्हें। मैंने तुम्हें एक बार अपने साम्राज्य से निकाल दिया था और फिर भी तुमने उन बुरे चेहरों को अपने संगीत के जादू से मेरी शैय्या से दूर भगा दिया है। और मेरे हृदय पर आन बैठे मृत्युदेव को निकाल दिया है, मैं तुम्हें कैसे पुरस्कृत करूँ?"

"आपने मुझे पहले ही पुरस्कृत कर चुके हैं । मैं कभी नहीं भूलूँगी वे क्षण जब मेरे गाने से आपकी आँखों में अश्रु आ गए थे। यही वे मोती हैं जो एक गायक को सबसे प्रिय होते हैं । अब आप सो लीजिए और फिर से स्वस्थ हो जाइए मैं फिर आपके लिए ज़रूर गाऊँगी।" वह फिर गाने लगी और सम्राट गहरी मीठी नींद सो गया। कितनी तरो-ताज़ा करने वाली थी यह नींद!

स्वस्थ-प्रसन्न हो कर जब सम्राट जागा खिड़की में से ताज़ा धूप आ रही थी, लेकिन कोई भी नौकर वहाँ नहीं आया था- वे सब यही सोच रहे थे कि सम्राट मर चुका था; सिर्फ़ बुलबुल उसके पास बैठी गा रही थी।

"तुम्हें मेरे ही पास हमेशा के लिए रहना चाहिए।" सम्राट ने कहा। "तुम तभी गाना जब तुम्हारा मन करे; और मैं इस नकली बुलबुल के हज़ार टुकड़े कर दूँगा।"

" नहीं,ऐसा मत कीजियेगा।" बुलबुल ने कहा, "जब तक यह गा सकती थी इसने अच्छा गाया । इसे अभी यहीं रहने दीजिए। मैं राजभवन में अपना घोंसला बना कर नहीं रह सकती। हाँ, जब चाहूँ तब आ सकूँगी। मैं हर शाम खिड़की के पास एक टहनी पर बैठ कर आपके लिए गाऊँगी, ताकि आप प्रसन्न रहें और आनन्ददायक विचारों से भरे रहें। मैं आपके लिए उनके बारे में गाऊँगी जो प्रसन्न हैं, जो दु:खी हैं, अच्छे-बुरे, आपके आसपास छिपे हुए लोगों के बारे में गाऊँगी। मैं आपसे बहुत दूर उड़कर चली जाती हूँ, आपके दरबार से बहुत दूर मछुआरों और किसानों के घरों तक। मुझे आपके मुकुट से अधिक आपके हृदय से प्रेम है; आपके मुकुट में भी बहुत पवित्रता है। मैं गाऊँगी, आपके लिए गाऊँगी लेकिन आप मुझे एक वचन दीजिए।"

"कुछ भी माँग लो।"सम्राट ने कहा। सम्राट अपनी राजसी वेशभूषा धारण कर चुका था और हाथ में अपनी तलवार थामे हुए था।

"बस एक चीज़।" बुलबुल ने कहा "किसी को पता न चले कि आपके पास एक नन्ही बुलबुल है जो आपको सब कुछ बता देती है। यह बात बिल्कुल गुप्त रखिए।"और यह कहकर बुलबुल उड़ गई। नौकर आए, मृत सम्राट को देखने, लेकिन चौंक उठे जब सम्राट ने कहा, "शुभ प्रभात!"