बेचना डोमिन के हाथों बाभन के बेटे को! / बुद्धिनाथ मिश्र

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बेच दिया है लाल बचाने

डोमिन को कीमत, दो आने

छत्तीसगढ़ राज्य के सुदूर वन-प्रांतर में स्थित अम्बिकापुर के सुकवि अनिरुद्ध नीरव के नवगीत की इन पंक्तियों में अपने देश की एक बेशकीमती ग्रामीण परम्परा जीवित है, जिसे वे लोग आसानी से समझ पायेंगे, जिनका जन्म आज़ादी से पहले भारत के किसी साधारण-से गाँव में हुआ हो। यह एक टोना-टोटका था, जिसे देश के हर भाग में माताएँ जानती थीं और जरूरत पड़ने पर इसका प्रयोग करती थीं। यह परम्परा अपने भीतर एक विचित्र लोकविश्वास पाले हुए है। एक ऐसा लोकविश्वास, जिसका बौद्धिकता से दूर का भी सम्बंध नहीं है, मगर जिसमें माँ की ममता के समक्ष जाति-पाँति का सारा दम्भ, सारी ग्रंथियाँ तिरोहित हो जाती हैं। उन दिनों न इतने अस्पताल होते थे और न ही आज की तरह के रक्तपिपासु नर्सिंग होम ही। इसलिए बच्चे का जन्म किसी अस्पताल या नर्सिंग होम मंँ न होकर घर में ही होता था। वह घर चाहे किसी रैयत की झोपड़ी हो या किसी मालिक का महल। एक छोटे-से कमरे को साफ़-सुथरा कर, गोबर से लीप-पोत कर ‘प्रसूति घर’ बना दिया जाता था। नर्स और डाक्टर दोनों का दायित्व उस चमाइन दाई को सौंपा जाता था, जो खानदानी हुनर से प्रसूति कराने में माहिर मानी जाती थी। वह केवल शिशु उत्पन्न करने में ही सहयोग नहीं करती थी, बल्कि बाद में महीने भर घर आकर नव-प्रसूता के अंग-अंग की मालिश भी करती थी। उस मालिश की गुणवत्ता की बराबरी हज़ारों रुपये खर्च कर रिजार्ट और स्पा में कराया जानेवाला मसाज़ नहीं कर सकता ।

नस-नस की ऐसी तेल-मालिश कि एक मास के बाद सद्यःप्रसूता कुटिया-पिसिया सब करने लगती थी। मेरे गाँव में भी ऐसी ही एक संकटमोचक थी, जिसका नाम पलटनियाँ था। वह शरीर से इतनी तन्दुरुस्त थी कि हँसी-मजाक में जिस मर्द की गर्दन पकड़ ले, वह घिघियाने लगे। यहाँ तक कि बड़े-बड़े पहलवान भी उससे टकराने से डरते थे। इसीलिए शायद किसी ने चिढ़कर उसका नाम पल्टन रख दिया और लोग उसी नाम से उसे पुकारने लगे। पलटनियाँ हालाँकि इस्पात की बनी थी, मगर जब किसी नववधू को वह प्रसव कराती थी, तब उसके अंदर की सारी कोमलता उसके हाथों को कमल की पंखुड़ी की तरह मुलायम बना देती थी। वह उसकी सारी पीड़ा को ऐसे अपना लेती थी, जैसे वही बच्चा जन रही हो। सामान्यतः नयी बहू को प्रसव के समय नैहर बुला लिया जाता है, मगर जो नैहर नहीं भी जाती थी, उसे किसी प्रकार का भय नहीं होता था--पास में पलटनिया जो थी, सौ माँ की एक माँ। वह खुद कहती थी कि कोई सालों में एक बच्चा पैदा करता है, मै तो रोज बच्चा जनती हूँ। उसे पारिश्रमिक देने की औकात किसी में नहीं थी, हज़ारों बीघे खेत जोतनेवाले ज़मींदारों में भी नहीं। वह अपने हुनर से जच्चा-बच्चा दोनों की जान बचाती थी। दो जानों की तो बात छोड़िये, एक जान की भी कीमत कौन चुका सकता है! इसलिए पलटनिया नेग लेती थी। नेग में जिससे जो जुड़ा, वह खुशी-खुशी दे देता था। सोने की सिकड़ी से लेकर पसेरी भर धान तक। हाँ, नेग देने से पहले उसे नई साड़ी जरूर पहनाया जाता था। पलटनिया को नेग-वेग से ज्यादा इस बात की खुशी थी कि गाँव के हर बच्चे का जन्म उसके हाथों हुआ। सृजन का सुख शायद यही होता है।

मैं जिस टोने-टोटके की बात कर रहा था, वह भी पहली बार मैने पलटनिया के मुँह से ही सुना था। हुआ यह कि मेरे पड़ोस में एक औरत को बच्चा होता था, पर ज़िन्दा नहीं रहता था। कोई एक सप्ताह तो कोई एक मास तक जीकर विदा हो जाता था। बच्चे के जन्म के अवसर थाली बजाकर जतायी गयी पारिवारिक खुशी चंद दिनों के बाद मातम में बदल जाती थी। घर के लोग बेहद दुखी और उनसे ज्यादा पलटनिया दुखी। बच्चा किसी का भी मरे, चाहे बाभन का या दुसाध का, जितना कष्ट अभागे माँ-बाप को होता था, उतना ही पलटनिया को। सो जब दो बेटियाँ और दो बेटे कुछ-कुछ दिन जीकर मर गये, तो पलटनिया ने दुखिया माँ को यह टोटका बताया। उसने कहा कि अगला बच्चा होने पर उसे बेच दो । बच्चे को बेचने से जो पैसा मिले, उसकी मिठाई खरीदकर खा जाओ। फिर उस बच्चे को एक धाई की तरह पालो।

वही हुआ। अगली बार जब उस घर में सन्तान के रूप में एक बालक आया तो एक नाइन के हाथों उसे आठ आने में बेच दिया गया। उस अठन्नी से सामने की हलवाई की दुकान से पेड़ा खरीदा गया जिसे सन्तान बेचने वाली माँ को खाना पड़ा। वह बच्चा नाइन का था और उसकी माँ धाई के रूप में उसे दूध पिलाकर रखती थी। संयोग से या उस टोटके के चमत्कार से वह बच्चा जी गया। पलटनिया ने राहत की साँस ली। उसका टोटका अचूक जो था। कई बार का आजमाया हुआ। इस टोटके से उसने गाँव की कई माओं को मातृत्व-सुख से वंचित होने से बचाया। मजे की बात यह कि इस लेन-देन से किसी ओर के पिता को कोई लेना-देना नहीं था।घर के लाल को बेचा गया और उससे मिले पैसे से माँ ने मिठाई भी खा ली, मगर पिता को खबर तक नहीं, क्योंकि आँगन की दुनिया अलग होती थी, जिसपर एकछत्र राज्य माँ का था। इस दुनिया के बारे में जिन्हे पता नहीं है, वही स्त्री-विमर्श का मजमा लगाकर पुरुषों को गालियाँ देते हैं।

हिन्दी में कम से कम तीन ऐसे साहित्यकार हैं जिनको इस टोटके से अकालमृत्यु से बचाया गया। वे हैं काशी के पांडेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ और इलाहाबाद के हरिवंश राय बच्चन और मुजफ़्फ़रपुर के आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री। तीनो साहित्यकारों ने अपनी आत्मकथा में इस प्रसंग का विधिवत् जिक्र किया है। सबसे पहले उग्र जी की ‘अपनी खबर’ (प्रकाशन वर्ष 1960) उठाते हैं, जो अपने ढंग की अनोखी आत्मकथा है। उग्र जी रूसी कथाकार चेखव की तरह बहुत कम शब्दों में अधिक से अधिक बात कहने के आग्रही हैं। गागर में सागर जैसा। कुल 138 पृष्ठों की पतली-सी इस आत्मकथा में 60 वर्षीय उग्र अपनी खास शैली में अपना जीवनवृत्त प्रस्तुत करते हैं। उनके जन्म का वृत्तान्त उन्हीं के शब्दों में: ‘विक्रमीय संवत के 1957वें वर्ष के पौष शुक्ल अष्टमी की रात साढ़े आठ बजे मेरा जन्म यू.पी. के मिर्जापुर जिले के सद्दपुर मुहल्ले में बैजनाथ पांडे नामक कौशिश गोत्रोत्पन्न सरयूपारी ब्राह्मण के घर हुआ। मेरी माता का नाम जयकली है जिसे बिगाड़कर लोग जयकल्ली पुकारते थे। मेरे पिताजी सतोगुणी, वैष्णव-हृदय के थे।

मेरी माता ब्राह्मणी होने के बावजूद परम उग्र, कराल, क्षत्राणी स्वभाव की थीं। मेरे एक दर्जन भाई-बहन थे जिनमें अधिकतर पैदा होते ही या साल दो साल के होते-होते प्रभु के प्यारे हो गये थे। पहले भाई के नाम उमाचरण, देवीचरण, श्रीचरण, श्यामचरण, रामचरण आदि थे। इनमें अधिकतर बच्चे दगा दे गये थे। अतः मेरे जन्म पर कोई खास उत्साह नहीं प्रकट किया गया। शायद थाली भी न बजाई गई हो। नौबत और शहनाई तो दूर की बात। मैं भी कहीं दिवंगत अग्रजों की राह न लगूँ, अतः तय यह पाया गया कि पहले तो मेरी जन्म-कुंडली न बनाई जाए, साथ ही जन्मते ही मुझे बेच दिया जाए। सो जन्मते ही यारों ने मुझे बेच डाला। और किस कीमत पर? महज टके पर एक। उसका भी गुड़ मँगाकर मेरी माँ ने खा लिया था।अपने पल्ले उस टके में से एक छदाम नहीं पड़ा था, जो मेरे जीवन का सम्पूर्ण दाम था। अलबत्ता ‘जन्मजात बिका’ का बिल्ला जैसा नाम तौक की तरह गले मढ़ गया--बेचन ।’

उग्र जी को तो उनकी माँ ने एक रुपये में बेचा था, तब तो अपना दाम कम आँके जाने पर इतने नाराज थे। बच्चन जी तो महज पाँच पैसे में बिके थे, फिर भी शान्त रहे। अपनी चार जिल्दी लम्बी आत्मकथा के पहले खंड ‘क्या भूलूँ क्या याद करूँ’ में वे इस वाकया को विस्तार के साथ पेश करते हैं: ‘मैं अपने माता-पिता की छठी संतान था। मेरा जन्म २७ नवम्बर, १९०७ को हुआ। भगवानदेई मुझसे सात वर्ष बड़ी थीं। मेरा नाम हरिवंश राय रखा गया, घर पर मुझे बच्चन नाम से पुकारा जाता। मेरे होने और जीने के लिए मेरी माता ने बहुत से दाय-उपाय आदि किये। मुहल्ले की किसी बड़ी-बूढ़ी ने उन्हें सलाह दी थी कि तुम्हारे लड़के नहीं जीते तो अब जब लड़का हो तो उसे किसी चमारिन -धमारिन के हाथ बेच देना और मन से उसे पराया समझकर पालना-पोसना।

उन दिनों बच्चा जनाने के लिए हमारे घर लछमिनिया चमारिन आती थी। मै पैदा हुआ तो मेरी माँ ने पाँच पैसे में मुझे लछमिनिया चमारिन के हाथों बेच दिया और उनके बतासे मँगाकर खा लिए। कहते हैं, चसाल भर पहले लछमिनिया का एकमात्र लड़का कुछ महीने का होकर गुजर गया था और उसका दूध सूख गया था। पर जैसे ही उसने मुझे अपनी गोद में लिया, उसकी छाती कहराई और उसने बारह दिन तक मुझे अपना दूध पिलाया। मै उसे चम्मा कहता था, अपनी माँ को अम्मा।

वह मुझे अपनी माँ से अधिक सुन्दर लगती थी। बोली उसकी पतली, सुरीली-सी, दैन्य-विनम्र; आँखें उसकी किसी भीतर-ही-भीतर की वेदना से आर्द्र। अब मै उसकी वेदना की कल्पना कर सकता हूँ। मुझे मोल लेने के बाद चम्मा के कोई संतान नहीं हुई--उसके मन में कहीं यह बात तो नहीं बैठ गयी थी कि उसने पाँच पैसे में अपनी निःसन्तानता खरीदी थी! किसी रूप में यदि उसकी वत्सलता का कोई आधार हो सकता था, तो एक मैं--उसका होकर भी कितना न उसका। ऐसी स्थिति में मैं यह अनुमान सहज कर सकता हूँ कि वह मुझे किस भाव-अभाव भरी दृष्टि से देखती होगी; और इसे सोचकर मेरा मन भर आता है।

चम्मा की मृत्यु मेरे लड़कपन में ही हो गयी थी। वह बीमार पड़ी और उसकी बीमारी बढ़ती ही गयी तो उसने इच्छा प्रकट की कि अंत समय पर मेरे हाथों ही उसके मुँह में तुलसी-गंगाजल डाला जाए। मुझे इस कार्य के लिए कोई लिवा ले गया। दूसरे दिन चम्मा की अर्थी उठी तो किसी ने मुझे कमर से उठाकर मेरा कंधा उसकी अर्थी से छुला दिया और ‘राम नाम सत्य है’ कहते हुए उसके भाई-बंद उसे लेकर चले गये। चम्मा की शायद सबसे पहली मौत थी जो मैंने अपनी आँखों देखी।’

इसी तरह का टोटका निराला जी के समानधर्मा कवि आचार्य जानकी वल्लभ शास्त्री के जन्म के समय भी किया गया।अपने अद्भुत संस्मरण ग्रंथ ‘हंसबलाका’ में अपने जन्म के बारे में वे स्वयं लिखते हैं‘ जल्दी-जल्दी मुझे चमारिन के हाथों बेचा गया, नाक छेदी गयी और ढेर सारे टोटके किये गये, तब कहीं मैं चमारिन की अमानत की तरह पोसने-पालने के लिए माँ को सौंप दिया गया।’

मनोवैज्ञानिक दृष्टि से इस टोटके के बाद बचे बच्चे के प्रति दोनो माताओं की स्थिति वही होती थी, जो आजकल किराये की कोख से उत्पन्न दोनो माताओं की होती है। जिसने बच्चा जना और जिसने बच्चा खरीदा (भले ही टोकन मनी देकर) दोनों के मन में भाव-अभाव का अजीब फ़्य़ूजन होता था। नकारात्मक पक्ष यह था कि एक माँ बच्चे को जनकर भी उसकी माँ नहीं थी, सिर्फ़ धाई यानी सेविका थी और दूसरी माँ बच्चे को खरीदकर भी उसपर अधिकार जताने की स्थिति में नहीं थी। सकारात्मक पक्ष यह था कि इसी बहाने दो परिवार एक आत्मीय रिश्ते में जुड़ते थे। एक ऐसा ममत्वपूर्ण रिश्ता जिसमें न तो जातिगत ऊँच-नीच का भाव होता था, न वह जातिगत वैमनस्य, जिसे तिल का ताड़ बनाकर बहुत-से अयोग्य व्यक्ति आज कलमकारों की पंक्ति में घुस गये हैं। दुर्भाग्य यह है कि इस परम-स्वतंत्र, अनुशासन-हीन लोकतंत्र में तमाम राजनीतिक लोग तो जहर फैलाने के लिए प्रतिबद्ध हैं ही, बहुत-से कलमकार भी विषवमन में उनसे पीछे नहीं हैं। और देशों की बात मैं नहीं करता, मगर हमारे देश में समाज विगत हजारों वर्षों से साहित्य की परिकल्पनाओं के अनुसार चला है और इसीलिए इतिहास के तमाम झंझावातों के बावजूद, टहनियाँ भले ही टूटी हों, इसकी जड़ कभी नहीं हिली। वह जड़ क्या थी? वह जड़ थी हमारे ग्रामीण लोक-जीवन की वह बुनावट, जो कालीन के तानों-बानों से भी ज्यादा मजबूत और ज्यादा गुँथी हुई थी। हमें वे ताने-बाने क्यों दिखाई नहीं देते?

हमें वे रिस्म-रिवाज़ क्यों नहीं दिखाई देते, जो एक दूसरे को जोड़ते हैं। एक दो उदाहरण और देना चाहूँगा। मैं ब्राह्मण परिवार में जन्मा था, बल्कि कहूँ कि दिग्गज पंडितों के परिवार में। जिस दिन मेरा जनेऊ हो रहा था, उससे एक-दो दिन पहले मुझे मेरे घर में काम करनेवाली धनुकाइन के घर खाने के लिए भेजा गया। यह रिवाज़ शायद अब न हो, क्योंकि बिहार में कुछ दशकों से अगड़ा-पिछड़ा का जो विषबीज बोया गया है, उसने इस तरह की पुनर्नवा वनस्पतियों को बेदखल कर दिया है। एक और रस्म है धोबिन से सुहाग लेने की । विवाह से पहले गाँव की हर बिटिया धोबिन से सुहाग माँगती है, क्योंकि न जाने क्यों उसकी सुहाग अजर-अमर मानी जाती है। इसके एवज में उसे अच्छा-खासा नेग परिवार की ओर से दिया जाता था। ग्रामीण समाज जातियों में भले बँटा रहा हो, मगर एक जाति दूसरे की पूरक थी।एक के बिना दूसरे का काम नहीं चल सकता था। एक दूसरे से जुड़ा हुआ, एक दूसरे पर निर्भर ‘अन्योन्याश्रित’ समाज। सूचना प्रौद्योगिकी और उद्योगीकरण के इस दौर में भारतीय समाज का वह ताना-बाना टूट गया है। अब हम अपने को तभी सुखी पाते हैं, जब हमारा पड़ोसी दुखी दीखता है। दूसरे को नीचे गिराकर ऊपर उठने की यह सत्यानाशी प्रवृत्ति हमारे समाज में आधुनिकता के नाम पर यूरोपीय जीवन-शैली के अन्धानुकरण से आयी है। हमने उन बहुमूल्य लोकतत्वों को पिछड़ापन मान कर दूर फेंक दिया, जो हमें साथ-साथ रहने की शक्ति और प्रेरणा देते थे। जरूरत है, जंगल की प्राणदायिनी जड़ी-बूटियों की तरह गाँवों से उन लोकतत्वों को तलाश कर निकालने की, जो हमारे समाज को तोड़ने की नहीं, जोड़ने की ऊर्जा दे।