बेजबान / द्रोणवीर कोहली

Gadya Kosh से
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लालामूसा जंक्शन पर वैसा ही गदर मच गया जैसा वाह कैम्प से गाडियाँ चलने पर मचा था। लोग इस गाडे से सामान उतारते हुए साथ वाले प्लेटंफार्म पर खड़ी खाली गाड़ी की तरफ भागे जा रहे थे।

मेरी बर्तनों की बोरी ट्रंकों और पेटियों के अम्बार के ऊपर रखी थी। नीचे का सारा सामान उसी दम्पति का था जिसने डेढ़ रोटी देकर मुझे भूखे मरने से बचाया था। अब भी वे मेरी मदद को आये। तत्काल उन्होंने बोरी उतार कर नीचे खिड़की में रखी, मैं छलाँग लगाकर गाड़ी से उतरा और बोरी सिर पर रखवा कर नई गाड़ी की तरफ भागा और जो भी डिब्बा सामने पड़ा, उसमें सवार हो गया। डिब्बा क्या था, कूड़ादान था। फर्श, पर और सीटों पर ढेर विष्ठा, कै, खायी-अधखायी रोटियाँ,मीट से निकली हड्डियाँ, छिलके वंगैरह पड़े थे और भयंकर दुर्गन्ध थी। जरूर ही किन्हीं रिंफ्यूजियों को लेकर यह गाड़ी आयी होगी, तभी इसमें इतनी गन्दगी भरी है। मगर इस डर से कि कहीं जगह न मिले, मैंने उसी डिब्बे में ऊपर बोरी जमायी और सीट को बुहार कर बैठ गया। बैठते ही मैंने देखा सामने वाली खिड़की के साथ वह सम्भ्रान्त महिला बैठी थी जो वह कैम्प में अपने पामेरिनियन झबरे के साथ टहलने निकला करती थी। मुझे बड़ा अचरज हुआ यह देखकर कि महिला पालथी मारे बैठी थी और एक-एक बरस के दो बालक उसकी एक-एक छाती पी रहे थे। साथ ही उसकी आया-सी लगनेवाली एक लड़की खड़ी थी और झबरा सीट के नीचे मुँह मार रहा था।

“हो न हो, इसके जुड़वाँ बच्चे हैं!” मैं बैठा-बैठा सोच रहा था, “बिलकुल एक जैसी शक्ल-सूरत है!”

एकाएक मुझे उस दम्पति का खयाल आया, जिन्होंने पहले मुझे रोटी दी थी, फिर मेरी बर्तनों की बोरी मेरे सिर पर रखवायी थी। मैं उचक-उचककर देख रहा था कि कहीं दिखाई पड़ जाएँ, मगर इस अंफरा-तंफरी में माँ बेटे को नहीं सँभाल रही थी। बैठे-बैठे मेरा मन कचोट रहा था कि मैं इतना अकृतज्ञ और स्वार्थी हँ कि अपनी बोरी उठाकर भाग आया और उनकी जरा भी मदद नहीं की। क्या सोचते होंगे वे मेरे बारे में?

एक स्त्री-पुरुष को गाड़ी में चढ़ने में थोड़ी दिक्कत हो रही थी। स्त्री की गोद में सात-आठ मास की लडक़ी थी। पुरुष ने चार-पाँच बरस के बच्चे का हाथ थाम रखा था। मैंने उन्हें सामान चढ़ाने में मदद की, तो आदमी ने ऊपर बैठते हुए कृतज्ञता प्रकट की, “शुक्रिया, बेटे!”

लगता था, स्त्री की गोद में बालिका अस्वस्थ थी और बेहोश-सी लेटी थी।

“पिस्ता!” सामने बैठी सम्भ्रान्त महिला ने एकाएक अपने पारमेनियन को डाँटा, जो गन्दगी में मुँह मार रहा था। 'विहेव योरसेल्फ !' पामरेनियन एकदम सहम गया और जो मुँह में था, वहीं फेंककर सीट के नीचे दुबक गया।

“मेरी! इसे बिस्कुट दे, नहीं तो गन्दगी चाटता रहेगा।” और मेरी नामक आया टोकरी में से बिस्कुट निकालकर 'पिस्ता' नामक पारमेनियन को खिलाने लगी।

गाड़ी बदलने का बड़ा लाभ हुआ। वाह कैम्प से चलने वाली गाड़ी में हम गोदाम में बोरों की तरह ठुसे थे, यह गाड़ी खाली-खाली लगती थी, क्योंकि आधे रिंफ्यूजी कटकर जानेवाली गाड़ी से निकल चुके थे। अभी तक हमारा डिब्बा एक-चौथाई भी नहीं भरा था। जगह इतनी खाली थी कि चाहें तो लेटकर जाएँ। इक्का-दुक्का रिंफ्यूजी थोड़े-बहुत सामान के साथ आता और खाली जगह देखकर बैठ जाता या गन्दगी देखकर लौट जाता।

तभी उस दम्पति का पाँचेक बरस का बालक माँ की ठुड्डी पकड़ते हुए रोनी सूरत बनाकर बोला, “गाड़ी कब चलेगी? हम दिल्ली कब जाएँगे?”

“बस बेटे, चलने वाली है।” पिता ने उसे दिलासा दिया, “कहते हैं, कहीं से रिंफ्यूजियों का एक कांफिला आ रहा है। उन्हें भी लेकर जाएगी।” यह बात कहते-कहते एकाएक उसका ध्यान बालिका की तरफ गया। उसके गाल को छूकर पत्नी से व्याकुल स्वर में कहा, “बुख़ार उतर ही नहीं रहा। क्या करें?”

“पापा, गाड़ी कब चलेगी?” बालक रिरियाते हुए पूछ रहा था।

आदमी थोड़ी तुर्श आवांज में बोला, “कहा न, थोड़ी देर में चलेगी ! देख, रो नहीं, दीदी को बुख़ार है।”

माँ ने बालक को अपने साथ सटाकर चुप कराने की चेष्टा की, “अरे, रोएगा तो हमला करने वाले सुन लेंगे। चुप करके सो जा।”

बालक इतना डरा कि माँ के साथ चिपककर चुपचाप रिरियाता रहा। जिस गाड़ी को हम छोड़ आये थे, वह एकदम खाली हो गयी थी और इंजिन उसे खींचकर ले जा रहा था।

तभी वह कुत्ता, जिसका नाम 'पिस्ता' था, खा-पीकर सीट से नीचे कूदा और गाड़ी में चलते-चलते हमारी सीट के निकट आया और टाँग उठाकर उसने नीचे रखे ट्रंक पर दो कतरे पेशाब के गिराये।

“हट!” देखते ही ट्रंक के मालिक ने, जिसका नाम रोशन था, पैर पटक कर उसे भगाया। 'पिस्ता' दौड़कर अपनी मालकिन की सीट के नीचे दुबक गया।

“यह क्या बदतमींजी है!” रोशन ने भड़ककर सम्भ्रान्त महिला से कहा, “तेरा कुत्ता मेरे ट्रंक पर पेशाब कर गया है।”

“भाइया ! जानवर है...” यह बात उस सम्भ्रान्त महिला के मुख से निकलने की देर थी कि रोशन भड़का, “जानवर है तो इसे बाँधकर रख। किसी का सामान तो ख़राब न करे!”

वह जैसे क्षमा माँगते हुए बोली, “आदमी को तो समझाया जा सकता है, कुत्ते को क्या समझ है!”

इस बात पर रोशन बिगड़ गया, “अभी तो इसे कह रही थी बिहेव योर सेल्फ, और अब कहती है कि जानवर है!”

उनका यह वार्तालाप सुन मैं मन-ही-मन मुस्करा रहा था। कोई और वक्त होता तो शायद लोग ताना मारते मेमसाहब का कुत्ता है, अँग्रेंजी समझता है, हिंदी-हिंदुस्तानी नहीं जानता।

'पिस्ता' सीट के नीचे दुबक कर बैठ गया था और निरीह आँखों से देख रहा था, जैसे लज्जित हो कि उसके कारण उसकी मालकिन को इस आदमी के आगे शर्मसार होना पड़ रहा है। रोशन बोलता तो वह उसकी तरफ देखने लगता। उसकी मालकिन बोलती तो सीट के नीचे से ऊपर देखने का जतन करता, जहाँ से वह दिखाई नहीं पड़ती थी। मैं सोच रहा था कि अगर जानवर को समझ होती कि उसकी कारस्तानी से यह कलह हुआ तो अवश्य ही वह माफी माँग लेता।

रोशन बैठा-बैठा भुनभुना रहा था। उसकी पत्नी उसे समझाने की चेष्टा कर रही थी, “अब बात खत्म भी करो। घर जाकर धो लेंगे।”

“कमाल करती हो!” रोशन ने पत्नी को डाँट दिया। तिरछी निगाहों से सम्भ्रान्त महिला की तरफ देखते हुए बोला, “कुत्ते ने बक्से पर पेशाब कर दिया और इस औरत को इतनी तमींज नहीं कि कम-से-कम 'सॉरी' ही बोल दे!” सम्भ्रान्त महिला ने एकाएक चौंककर देखा।

इस सारे झगड़े टण्टे के बीच रोशन का बेटा, जिसका नाम भद्दी या मदन था, 'पिस्ता' को स्नेहिल दृष्टि से देख रहा था, जैसे सोच रहा हो कि उसके पास भी ऐसा कुत्ता क्यों नहीं है।

“भाई साहब!” कोई बोल उठा, “मिट्टी डालो सारी बात पर! वंक्त देखो।”

“नहीं जी,” रोशन को यह स्वीकार नहीं था, “इस औरत ने वाह कैम्प में रहनेवालों का जीना हराम कर रखा था। वहाँ भी कुत्ते को बाँधकर नहीं रखती थी। हर किसी के बर्तन में मुँह मारता फिरता था।”

“बस!” सम्भ्रान्त महिला इस तरह बोली, जैसे उसका धीरज जवाब दे रहा था, “नाओ, शट अप! तब से मैं बरदाश्त किये जा रही हूँ और यह शख्स है कि जबान चलाये जा रहा है। कुत्ता है, जानवर है, आदमी तो नहीं कि...”

महिला इस आक्रोश से बोली थी कि उसका एक बच्चा जाग गया था और रोने लगा था। वह रोया तो दूसरा भी रोने लगा। एक को मेरी ने उठाया। दूसरे को स्वयं गोद में लेते हुए उसने अपना वाक्य पूरा किया, “...आदमी हो तो कोई समझाये। कुत्ते को कौन समझाये! समझते हो, मैं अकेली हूँ, इसलिए जो मुँह में आता है, बकते जा रहे हो! जानते नहीं, मैं कौन हूँ...”

रोशन कुछ बोले कि विपरीत दिशा से एक गाड़ी के आने की धड़धड़ाहट सुनाई पड़ी। इंजिन सीटी देते हुए तूंफान की तरह चला आ रहा था और जब हमारे डिब्बे की बंगल से होकर निकला, तो सचमुच कलेजा ही दहल गया। बीमार बच्ची इतनी डरी कि पहले तो आँखें फाड़े देखती रही, बौरायी-सी, फिर एकदम गला फाड़कर रो पड़ी। गाड़ी धीमी पड़ती जा रही थी और खुली खिड़कियों में से हम ने देखा कि हिन्दुस्तान से पाकिस्तान लेकर आनेवाली रिंफ्यूजियों की गाड़ी थी। ये लोग भी वैसे ही ठुसे-ठुसे बैठे थे, जैसे कि वाह कैम्प से चलने वाली गाड़ियों में हम लोग बैठे थे। फिर एक अद्भुत बात यह देखी कि इस गाड़ी की छत पर लोग गठरियों की तरह बैठे थे। गाड़ी में ब्रेक लग रहे थे और ऐसा प्रतीत होता था, जैसे किसी लोहे की चीज को सान पर चढ़ाया जा रहा था। गाड़ी रुकने की देर थी कि दोनों गाड़ियों के बीच लोहे के जंगले के साथ मिलिटरी वाले गश्त लगाने लगे।

खिड़कियों में बैठे लोगों की आकृतियों पर जैसे विवशता और उदासीनता की मोटी परत चढ़ी थी। वे हमें देख रहे थे। हम उन्हें देख रहे थे। दोनों की स्थिति भिन्न नहीं थी।

रोशन ने अपना झगड़ा-टंटा भूल खिड़की में से सिर निकाल कर उस गाड़ी के मुसाफिरों को सम्बोधित किया, “कहाँ से तशरींफ ला रहे हैं?”

खिड़की में बैठा खिचड़ी दाढ़ी वाला विषण्ण दृष्टि से देख रहा था, जैसे बोलने के लिए हिम्मत जुटा रहा हो।

“भाई साहब!” रोशन ने अपना प्रश्न दुहराया, “कहाँ से तशरींफ ला रहे हैं?”

वह मरी-मरी आवाज में बोला, “जिला अम्बाला।”

“अच्छा!” जैसे आगे बात बढ़ाने के लिए रोशन गुन रहा हो, “किस गाँव से?”

अब के उसने जरा गला साफ करते हुए जवाब दिया, “सढोरा।”

“अच्छा!” रोशन जैसे उस उत्तर को आत्मसात करते हुए अगला प्रश्न पूछने की तैयारी कर रहा था, “जा कहाँ रहे हैं?”

वह आदमी और उसके इर्द-गिर्द बैठे लोग बगलें झाँकने लगे थे। फिर जैसे अनिच्छा से क्लान्त स्वर में बोला, “खुदा जाने!”

अचानक छत पर बैठे किसी आदमी ने ऊँची आवांज में पूछा, “बाश्शाहो! तुस्सी कित्थे चल्ले?”

हमने झाँककर देखा। छत पर बैठा एक नौजवान खीसें निपोरते हुए नीचे देख रहा था। उसके उच्चारण से स्पष्ट था कि हमें गुदगुदाने के लिए ही उसने पंजाबी बोली थी।

रोशन खिल गया था। खिलन्दड़े स्वर में उसने भी जवाब दिया, “हम तो भाई हिन्दुस्तान जा रहे हैं!”

“मंजिले-मकसूद क्या है?”

रोशन का चेहरा एकदम उतर गया। वह पत्नी का मुँह देख रहा था।

“तशरीफ कहाँ से ला रहे हैं?” रोशन को लाजवाब और उदास देखकर उसने पूछा।

रोशन ने फीकी आवाज में जवाब दिया, “बन्नू-कोहाट से।”

हिन्दुस्तान से पाकिस्तान आनेवाली गाड़ी की ब्रेकें ढीली पड़ीं, इंजिन ने सीत्कार किया और गाड़ी सरकने लगी।

“खुदा हाफिज!” रोशन ने हाथ हिलाया, जिसमें कोई उत्साह नहीं था।

खिड़कियों में बैठे लोग, जिनके चेहरों पर अचिन्त्य उदासी थी, बिटर-बिटर देख रहे थे। फिर जैसे एक साथ कइयों के मुख से निकला, “खुदा हाफिज...”

गाड़ी निकलती जा रही थी। वे हमें देखते जा रहे थे। हम उन्हें देख रहे थे। वे नहीं जानते थे कि कहाँ जा रहे हैं। हम नहीं जानते थे कि हम कहाँ जा रहे हैं।

गाड़ी के निकल कर जाने की देर थी कि रोशन का बेटा बोला उठा, “हमारी गाड़ी कब चलेगी?” वह बैठा-बैठा उकता गया था और अँगड़ाई ले रहा था।

“बताया न, थोड़ी देर में चलेगी। अब चुपचाप बैठ जा। देख, दीदी सो रही है।”

बालक बैठा-बैठा झुँझलाता रहा।

सबको घबराहट इस बात की थी कि अगर गाड़ी काफिला आने की राह देख रही है, तब तो पता नहीं कब चलेगी। मालूम नहीं, काफिला कब आएगा।

लेकिन मुझे घबराहट इस बात की थी कि मैं अकेला पड़ गया था। पिताजी और बांकी लोग कटकर जाने वाली आधी गाड़ी से जा चुके थे। मेरा क्या होगा? मेरी गिरह में तो धेला तक न था। फिर पिता जी और बाकी लोग पता नहीं, किधर निकल गये होंगे? अब कहाँ ढूँढँगा उन्हें। वे कहाँ खोजेंगे मुझे?

“कहीं नल दिखाई पड़े, तो पानी ले आओ।” रोशन की पत्नी कह रही थी।

कई दूसरे लोग भी बोल उठे, “हाँ, कहीं पानी हो तो कम-से-कम होंठ तो तर कर लें!”

रोशन ने सिर खिड़की से निकाल कर नीचे गश्त करते फौजी से पूछा, “भाई साहब, कहीं पानी का नलका-वलका है?”

फौंजी ने ठिठककर देखा और जवाब दिया, “है तो सही, लेकिन प्लेटफार्म के उस सिरे पर है। वहाँ हम लोग नहीं जा सकते...” फिर इंजिन की तरफ देखकर बोला, “गार्ड हरी झण्डी दिखा रहा है।”

“मैंने क्या कहा था?” एकाएक भीतर से कोई बोल उठा, “यह गाड़ी हिन्दुस्तान से आनेवाली गाड़ी की राह देख रही थी। देखा, उसके जाते ही चल पड़ी।”

सम्भ्रान्त महिला बच्चों को सुलाकर अब बैठी कोई पत्रिका बाँच रही थी। मैं उसकी तरफ देखते हुए सोच रहा था कि यह कैसी रिंफ्यूजी है! वाह कैम्प में थी तो हर रोज सुबह-शाम कैनवस के जूते पहन कर कुत्ता घुमाने निकलती थी। फिर अकेली लगती है, मात्र आया साथ है। वाह कैम्प में भी शायद अकेली रहती थी और इस विकट स्थिति में भी अकेली यात्रा कर रही है। लेकिन है कौन? इसके आचार-व्यवहार से तो नहीं लगता कि किसी मुसीबत से निकलकर आयी है, जैसी मुसीबत हम झेलकर निकले हैं। करीने से सिले इसके वस्त्रों से तो यही आभास होता है, किसी ऐसे व्यक्ति की पत्नी है जो किसी दूसरे शहर में बड़ा अफसर या व्यापारी है और यह स्त्री किसी दूसरे शहर में रहती है और जैसा कि साधारण वक्तों में होता है, पति से मिलने जा रही है। सामान भी इसके पास नाममात्र को है। टोकरी में बच्चों के लिए दूध के डिब्बे और थर्मस हैं। फिर कुत्ता भी साथ है...

मैं दुविधा में एकटक उसकी तरफ देख रहा था। खिड़कियाँ खुली थीं और ट्रेन भागी जा रही थी। लालामूसा से निकलते ही गाड़ी ने ऐसी रफ्तार पकड़ी कि लगता था कि अब हिन्दुस्तान जाकर ही रुकेगी। रास्ते में देखते-ही-देखते ओझल होते रेलवे स्टेशन एकदम उजाड़ और सुनसान लगते थे। किसी-किसी पर कोई ऊबा हुआ स्टेशन मास्टर झंडियाँ हाथ में पकड़े दिखाई पड़ता या फिर फौंज के सिपाही या इक्का-दुक्का ख़लासी। गुंजरात आया। वजीराबाद आया। फिर गुंजराँवाला गुजरा, फिर कामोकी आया। फिर कालाशा काकू, फिर शाहदरा निकला और फिर बाढ़ के मटमैले पानी से उफनती रावी भी आ गयी।

ट्रेन रावी के पुल पर चढ़ी तो अनायास ही मुझे उस अनाम, अज्ञात, अदृष्ट कन्या का स्मरण हो आया जिसने गोलड़ा शरीफ में जेहलम नदी देखने और उसमें पैसे डालने की अभिलाषा व्यक्त की थी। पता नहीं, अब वह किस डिब्बे में बैठी होगी? सो रही होगी, तो दरिया-ए-जेहलम की तरह रावी के दर्शनों से भी वंचित रह जाएगी। जाग रही होगी तो अवश्य ही रावी में पैसे फेंक रही होगी। पैसे फेंककर पता नहीं क्या मन्नत माँगी होगी उसने?

धड़धड़ाधड़-धड़, धड़धड़ाधड़-धड़...भारी गर्डरों के नीचे से निकलती ट्रेन के पहिये गड़गड़ाहट पैदा कर रहे थे, जिसमें पानी के तेज बहाव का शोर बिलकुल सुनाई नहीं पड़ता था।

“हो न हो उस लड़की ने दरिया में पैसे फेंक कर यह मन्नत माँगी होगी कि हम सब सकुशल हिन्दुस्तान पहुँच जाएँ। या हो सकता है, अपनी माँ के कहने पर यह मन्नत माँगी होगी कि उसे कोई अच्छा-सा वर मिले या घर में सुघड़ मामी आये...”

“खिड़कियाँ बन्द कर लो, भाइयो!” रोशन लाल कह रहा था, “अब लाहौर दूर नहीं है...”

अरे, यह तो वही लाहौर आ रहा है, जिसकी गलियों में रहने वाली एक कौम ने दूसरी कौम को प्यासा मार डालने के लिए पानी की लाइनें काट डाली थीं...

वही लाहौर आ रहा है, जिसकी पुरानी तंग गलियों में फँसे लक्षाधिक लोगों को चारों तरफ से घेरकर उनके घरों, मकानों, दुकानों के भीतर जलाया गया था...

वही लाहौर आ रहा है, जिसमें शाह आलमी दरवांजा है, जिसके निकट धू-धू जलते गुरुद्वारे में स्त्रियों-पुरुषों और बच्चों की चीखों को डुबोने के लिए खुशी के शादियाने बजाये गये थे...

वही लाहौर आ रहा है, जिसके रेलवे स्टेशन पर आठ बोगियों में भरी लाशों को अमृतसर भेजा गया था और एक डिब्बे के पीछे यह लिख दिया गया था कि यह हमारी तरफ से नेहरू-पटेल को आजादी का तोहफा है...

यह सब करने वाले कौन थे? कम-से-कम वे लोग तो नहीं थे जो लालामूसा जंकशन पहुँची रेलगाड़ी के भीतर ठुँसे-ठुँसे या छत पर गठरियों की तरह उदास-उदास बैठे थे। आखिर, वे कौन लोग थे, जिन्हें न खुदा का डर था, न आदमी का?

वही लाहौर आ रहा है, जिसके बारे में मोहनदास करमचन्द गाँधी ने सलाह दी थी कि अगर यह शहर मरता है तो इसके साथ तुम लोग भी मर जाओ, लेकिन अपने बाप-दादा की जमीन छोड़कर मत जाओ।

हाँ, वही लाहौर आ रहा है जिसे देखने की तमन्ना हर पंजाबी नौजवान दिल में बसाये आहें भरता है और कभी भूलता नहीं कि, “जिसने लाहौर नहीं देखा, वह पैदा ही नहीं हुआ।”

हाँ, वही लाहौर आ रहा है, जिसकी गलियों-सड़कों पर टहलने की मेरी तमन्ना-तमन्ना ही रह गयी थी। भइया की बारात के साथ अवश्य आया था, लेकिन एक ट्रेन से उतर कर दूसरी ट्रेन में सवार होकर ननकाणा साहब रवाना हो गये थे और जब लौटे थे तो दूसरी गाड़ी पकड़ कर सीधे रावलपिंडी चले गये थे और लाहौर देखने की हसरत दिल में ही रह गयी थी!

हाँ, आज मैं तीसरी बार उसी लाहौर के निकट पहुँच रहा हँ जिसे देखने की आकांक्षा की जगह अब दिल में आतंक भरता जा रहा है। जलवे वालों का लाहौर आज जल्लादों का शहर बन गया है।

गाड़ी धीरे-धीरे आकर एकदम सुनसान जगह पर खड़ी हो गयी थी। सब डरे-डरे दुबके बैठे थे। शायद कोई खिड़की उठाकर झाँकने की तैयारी कर रहा था कि किसी ने फटकारा, “ओय, सबको मरवाओगे क्या?”

बेचारा हतप्रभ-सा देखता रह गया था। रोशन ने उसे समझाते हुए कहा था, “भइया बाहर कोई बन्दरिया का तमाशा तो नहीं हो रहा! क्यों खोल रहे हो?”

वह मुँह लटकाये लज्जित स्वर में बोला, “प्यास लगी थी। बहते नल की आवांज सुनी, तो...”

“गाड़ी यहाँ से सही-सलामत निकल गयी तो हिन्दुस्तान जाकर जितना चाहो पानी पी लेना। तुम्हीं प्यासे नहीं हो, सभी प्यासे हैं।”

बाहर कोई ऐलान-सा सुनाई पड़ रहा था।

“खामोश !” किसी ने कहा, “सुनो, बाहर क्या कह रहे हैं?”

हमने धड़कते दिलों से सुना, “खिड़की-दरवाजा कोई न खोले। गाड़ी चलने वाली है, खिड़की-दरवाजे मजबूती से बन्दकर लो।”

किसी ने कहा, “गाड़ी रोकी ही क्यों इन्होंने? सीधी निकालकर ले जाते। जब पता है कि यहाँ ख़तरा है, फिर रोकी क्यों?”

उसकी इस बात पर उसका पड़ोसी हँस रहा था। “लाला जी, गाड़ी रेल की पटरी पर चलती है। जहाज तो है नहीं उड़कर निकल जाए।” फिर आश्वासन-सा देते हुए कहा, “अब हिन्दुस्तान दूर नहीं। यहाँ से मुश्किल से चालीसेक मील का फासला है। अभी चले तो घंटे-डेढ़ घंटे में बार्डर पार कर जाएँगे।”

कुत्ते वाली महिला इस सारे परिवेश से जैसे उदासीन होकर अपनी पत्रिका में तल्लीन थी। उसके दोनों बच्चे माँ का दूध पीने से तृप्त होकर किलक रहे थे। एक बालक को माँ ने अपनी गोद में बिठा रखा था, दूसरे को मेरी ने उठा रखा था। बीच-बीच में दोनों एक-दूसरे की तरफ झपटकर हाथापाई-सी करते हुए हँसने-किलकने लगते थे।

उन्हें इस तरह हँसते-खेलते देख आसपास बैठे लोग प्रसन्न हो रहे थे। रोशन का बेटा मद्दी, जो अभी तक घुग्गू-सा बना बैठा था, बालकों की तरफ बड़ी दिलचस्पी से देखे जा रहा था।

इन आनन्द के क्षणों में व्याघात पड़ा रोशन की पत्नी के अचानक घबराकर बोलने से, “जरा बच्ची को तो देखो!” वह कभी बालिका के पेट को, कभी माथे को,कभी गालों को छूकर विकल हो रही थी।

“तू तो खाहमखाह रौला मचाने लगती है!” रोशन ने पत्नी को बुरी तरह डाँटते हुए कहा और बालिका के गालों और माथे पर उलटा हाथ रखकर बुख़ार का अंदाजा लगाया।

“थोड़ा बुख़ार है। इस वंक्त सो रही है। इसे छेड़ मत। अगर बुखार है भी, तो हाय-तौबा मचाने से कोई उतर थोड़े जाएगा । वक्त को देख!”

रोशन की बीवी ने भीगी आँखों से बच्ची को निहारते हुए कहा, “मुई ने ऐसा बुखार पकड़ा है, छोड़ती ही नहीं। हाय, कोई दवाई भी तो नहीं रखी कि दें...”

“माई जीवे तेरा !” रोशन ने एकदम शान्त स्वर में पत्नी को सान्त्वना देने को चेष्टा की, “कुछ नहीं होगा। गाड़ी चलने की देर है, हिन्दुस्तान पहुँचते ही सब ठीक हो जाएगा। अभी चल पड़ी, तो लाहौर पार करके अँधेरा होने से पहले पहुँच जाएँगे।”

कुत्ते वाली महिला के जुड़वाँ बच्चे अब चुपचाप माँ की गोद में बैठे थे। मैं यह देख-देखकर चकित और उल्लसित हो रहा था कि दोनों अपने-अपने अँगूठे चूस रहे थे। क्या जुड़वाँ बच्चों की आदतें एक जैसी होती हैं?

रोशन की पत्नी बीच-बीच में स्वस्थ बालकों की तरफ ईष्या भरी नजर से देख लेती थी और फिर अपनी रुग्ण बेटी की तरफ देखकर आह भर उठती थी। शायद अपनी स्थिति और उस महिला की स्थिति की तुलना करते हुए उद्विग्न हो रही थी।

साँझ को कहीं चार बजे गाड़ी चली। सबने अपनी-अपनी मान्यता के अनुसार ईश्वर का धन्यवाद किया कि गाड़ी चल पड़ी है। सबके लिए सन्तोष की बात यह थी कि गाड़ी बिना किसी वारदात के लाहौर स्टेशन से रुख़सत हो रही थी। जब तक गाड़ी स्टेशन पर खड़ी रही, यही डर लगता रहा था कि कहीं इस गाड़ी का भी वही हश्र न हो जो पन्द्रह अगस्त वाली गाड़ी का हुआ था। ज्यों-ज्यों गाड़ी रफ्तार पकड़ रही थी, हमारे मन बल्लियों उछल रहे थे। अगर इसी रफ्तार से चलती रही,तो देखते-ही-देखते अटारी पहुँच जाएँगे।

मगर, यह क्या! गाड़ी फिर धीमी पड़ने लगी थी। धीमी चाल से चलते हुए वह काफी दूर तक चली गयी, लेकिन फिर धीरे-धीरे रुकने लगी। फिर जब थोड़ा आगे जाकर रुक गयी तो हम लोगों के चेहरों पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। लाहौर से तो सही-सलामत निकल आये, अब बाहर क्यों रुक रही है? सब कान खड़े करके सुन रहे थे।

किसी ने बड़ी सावधानी से थोड़ी-सी खिड़की उठायी और नीचे से झाँककर देखा। डरा-डरा-सा बोला, “उजाड़ बियाबान-सी जगह है।”

रोशन ने भी धीरे-से खिड़की उठाकर देखा, फिर बन्द कर के कहा, “दूर-दूर तक न कोई बन्दा, न बन्दे की जात दिखाई पड़ती है। खेत-ही-खेत हैं। पटरी के साथ बरसाती पानी से भरे गङ्ढे हैं। भरपूर बारिश होने से मक्की-ज्वार की फसल उठ आयी है।”

जगह निरापद होने की बात सुनकर लोगों ने हौले-हौले खिड़कियाँ उठाकर देखना शुरू किया। छँट गये बादलों से सूर्य की अन्तिम किरणें झाँक रही थीं। बीच-बीच में कोई बच्चा री-रू करने लगता, तो माँ उसे डर दिखाकर चुप बैठने को कहती, “चोप! रोते नहीं, मुसलमान आ जाएँगे।”

“जरा देखो तो सही!” रोशन की पत्नी एकाएक चिन्तापुर होकर बालिका पर झुकी थी, “लड़की है भी या नहीं?”

बालिका के होंठ खुले थे और छाती इस तरह उठ-गिर रही थी जैसे ताप से तप रही हो। एक बूढ़ी स्त्री उठकर आयी। बालिका का पेट और गाल छूकर उन्हें ढाढ़स बँधाया, “घबरा नहीं। बुख़ार थोड़ा तेज हो गया है। होंठ खुश्क हो रहे हैं। पानी हो, तो दो बूँद मुँह में टपका।”

मगर किसी के पास पानी नहीं था, फिर भी रोशन की पत्नी ने सारे डिब्बे से प्रार्थना करते हुए कहा, “किसी के पास घूँट पानी हो तो दो।”

अपील करना व्यर्थ था। वाह कैम्प से जितना पानी लोग लाये थे, वह चुक गया था और रास्ते में कहीं भी पानी नहीं लेने दिया गया था। वहाँ तक कि इंजिन वालों ने भी पानी देने से इनकार कर दिया था। यदि किसी के पास होता भी तो कोई किसी को क्यों देता!

“बच्ची के मुँह में अपना दूध डाल।”

रोशन की पत्नी घबरा गयी। एकदम उठाकर उसे छाती से लगा लिया और कमीज के नीचे से छाती निकालकर उसके मुँह में निचोड़ने की कोशिश की, लेकिन दूध नहीं आया।

“छाती इसके मुँह में दे।” बूढ़ी ने सलाह दी। लेकिन बालिका तो मुँह मारने की स्थिति में नहीं थी। लगता था, अचेत पड़ी थी।

रोशन की पत्नी रोने लग गयी।

अब रोशन ने खड़े होकर एकाएक सम्भ्रान्त महिला से प्रार्थना की, “बहन जी, पानी हो तो दो घूँट बच्ची के लिए दो...”

हम सब सोच रहे थे कि महिला अब रोशन पर बरस पड़ेगी, और आक्रोश प्रकट करेगी कि थोड़ी देर पहले तो गाली-गलौच पर उतर आया था, अब गर्ज पड़ी तो बहन बना रहा है! लेकिन, सबकी सोच के विपरीत, वह अति विनम्र स्वर में बोली, “मेरे पास होता तो मैं बिन माँगे दे देती। देखो, थर्मस खाली पड़ा है...” और ढक्कन खोलकर उसने थर्मस उलटकर दिखाया।

अब रोशन के हाथ-पैर फूलने लगे। पत्नी बच्ची को छाती से लगाये रो रही थी। बच्ची एक घूँट पानी के लिए मर जाएगी? निरुपाय रोशन आपे से बाहर हो गया और पत्नी को फटकारने लगा, “तेरे रोने-धोने से क्या पानी मिल जाएगा? ठीक है...” एकाएक बोला , “मैं बन्दोबस्त करता हँ। बाल्टी कहाँ है?”

सारा डिब्बा चकित होकर देख रहा था। रोशन ने ऊपर रखी बाल्टी उतारी और उसमें भरी सारी चींजें सीट पर उँड़ेलीं और दरवांजे की तरफ दौड़ा।

“कहाँ जा रहे हो?” पत्नी चीखी।

लेकिन तब तक रोशन लाल दरवाजा खोलकर डिब्बे से नीचे उतर गया था। आनन-फानन में पटरी के नीचे गङ्ढे में से उसने बाल्टी भरी और जल्दी-जल्दी गाड़ी में चढ़ा। बाहर एकदम शोर मच गया था। शायद मिलिटरी वाले चिल्ला रहे थे कि कौन नीचे उतरा? अपनी जान की जरा भी परवाह नहीं?

लेकिन रोशन जिस काम के लिए गया था, वह कर आया था।

आते ही उसने बाल्टी नीचे रखी और पानी में हाथ डालकर रुग्ण कन्या के मुँह में बूँद-बूँद टपकायी। पहले तो उसने एक बूँद ग्रहण नहीं की, लेकिन धीरे-धीरे होंठ हिले उसके। बरसाती पानी की एक-एक बूँद उसके लिए जीवनदायी अमृत सिद्ध हुई। पानी गले तक गया, तो पहले तो गोता-सा लगा उसे, फिर खाँसी और एकदम रोयी। माँ ने रोते-रोते उसे गले से लगाया और पीठ सहलायी।

“बस”, बूढ़ी स्त्री सन्तुष्ट होकर बोल उठी, “प्यासी थी। देखना, धीरे-धीरे बुख़ार उतर जाएगा।”

सारा डिब्बा रोशन की हिम्मत और जवाँमर्दी की दाद दे रहा था। यह भी हो सकता था कि कहीं से गोली आती और वहीं ढेर हो जाता। गाड़ी किसी आसन्न ख़तरे को देखकर ही खड़ी थी और रोशन ऐसे में जान जोखिम में डालकर नीचे उतर गया था।

“देखो!” कोई अनुभवी कह रहा था, “माँ-बाप बच्चों के लिए कितना त्याग करते हैं। यही बच्चे जब खाने-कमाने लायक होते हैं, तो माँ-बाप को ठुड्डे मारते हैं।”

“कर्मों का फल है । जो माँ-बाप को ठुड्डे मारता है, वह अपनी औलाद से क्या उम्मीद कर सकता है ? शरवण कुमार की तरह बैंगी में बैठाकर तीरथ करवाने ले जाएगा ?”

सब खिलखिला कर हँसे। कोई बोला, “पुरानी कहावत है जैसा बोओगे, वैसा काटोगे।”

सारा डिब्बा दाद दे रहा था। पता नहीं, इस तरह की लोकोक्तियाँ सैकड़ों बरसों से दुहरायी जा रही हैं, लेकिन आज भी लोग इस तरह सिर हिलाते हैं, जैसे पहली बार नई बात सुन रहे हों।

तभी अकस्मात् यह हुआ।

किसी को पता ही नहीं चला कि किस वक्त 'पिस्ता' दबे पाँव आया और नीचे रखी बाल्टी में मुँह डालकर चपड़-चपड़ जीभ लपलपाने लगा।

“दुरै!” रोशन ने देखा तो एकदम आगबबूला होकर उठा और इस जोर से उसने कुत्ते को ठुड्डा मारा कि वह चाऊँ-चाऊँ करता दूर जा गिरा और फिर चीखता हुआ अपनी मालकिन की सीट के नीचे घुस गया।

“ऐ !” सम्भ्रान्त महिला इस तरह चीखी जैसे रोशन ने 'पिस्ता' को नहीं, उसके बच्चे को लात मारकर खदेड़ा हो, “बास्टर्ड! यह क्या बदतमीजी है?”

अब तो रोशन ने छत को छू लिया। गुस्से से काँपते हुए चिल्ला रहा था, “तू एकदम वाहियात औरत है...” और शायद कोई गन्दी गाली देते-देते वह रुक गया था। फिर एकाएक चिल्लाया , “तू मुझे तमींज सिखाएगी? तेरे को तमीज नहीं, कुत्ते को इस तरह खुला छोड़ रखा है!...”

दोनों जने इस तरह चीख रहे थे कि यदि लोग बीच-बचाव न करते, तो अवश्य ही हाथापाई पर उतर आते।

महिला चीख-चीखकर कह रही थी, “इसने कुत्ते को क्यों मारा?”

रोशन भी चीखा, “तुम्हें शरम नहीं आती! कुत्ता सारा पानी जुठार गया, अब पूछती हो, क्यों मारा ! जान हथेली पर रखकर लाया था...”

'पिस्ता' को बड़ी जोर की ठोकर लगी थी। सीट के नीचे दुबका बैठा था और काँपते हुए शूक रहा था।

“जानवर है !” महिला भड़क कर बोल रही थी, “तुम तो आदमी हो!”

“जानवर है तो बाँध कर रख !”

अब कुछ लोगों ने रोशन का पक्ष लिया। महिला से कह रहे थे, “बहन जी, आप अब शान्त हो जाइए। इसने कोई गलत बात नहीं कही। इतनी मशक्कत से पानी लाया और कुत्ता मुँह मार गया। गुस्सा नहीं आएगा!”

“जानवर में इतनी समझ होती !” वह बोली, “तो यह करता ही क्यों?”

“तो, बहन जी ! बाँधकर रखिए।”

इस कलह के बीच पिस्ता सीट के नीचे से एक बार भी नहीं निकला था और इस तरह मुँह उठाये देख रहा था, जैसे समझ रहा हो कि उसकी कारस्तानी के कारण ही यह सारा बखेड़ा उठा। जब रोशन बोलता, तो वह कान खड़े करके उसकी तरफ देखने लगता, जैसे उसकी बात को गौर से सुन रहा हो। जब उसकी मालकिन बोलती तो सीट के नीचे से मुँह टेढ़ा करके ऊपर देखने की चेष्टा करता।

महिला ने नीचे झुककर 'पिस्ता' को उठाया तो वह काँपते हुए चीं-चीं करने लगा, जैसे डर रहा हो कि अब उसे मालकिन की भी ताड़ना सहनी होगी। मालकिन उसे गोद में बिठाकर उसकी चोट वाली जगह को सहला रही थी।

“देखो तो किस जोर से मारा है। अभी तक काँप रहा है।” महिला कुपित आँखों से कभी रोशन की तरफ देखती, कभी पिस्ता की चोट को सहलाती। “बास,बास...” और कहते-कहते उसने 'पिस्ता' का मुख चूम लिया।

रोशन कूल्हों पर हाथ रखे आग्नेय आँखों से कभी सम्भ्रान्त महिला की तरफ देखता, कभी बाल्टी के जूठे पानी को। उसकी पत्नी कह रही थी, “अब शान्ति करो। मद्दी को सँभालो, देखो रो रहा है। जो हो गया, सो हो गया।”

रोशन पीछे बैठते-बैठते यह कहने से नहीं चूका, “ठीक है, जानवर है, लेकिन मालिक तो समझदार होने चाहिए। कुत्ते को बाहर छोड़ देती। हग-मूत आता और पानी भी पी आता। यहाँ सारा डिब्बा खराब कर रहा है।”

महिला व्यंग्य करने से नहीं चूकी, “अणे बड़ी कीमखवाब बिछी है डिब्बे में!”

“बहन जी !” रोशन की पत्नी बोली, “अब आप भी चुप हो जाओ। इन्होंने कोई गलत बात नहीं कही। अब कुत्ते का जूठा पानी कौन पिएगा?”

महिला ने एक क्षण की देरी किये बिना कहा, “जिसे मौत नजर आएगी...”

हम सब हक्के-बक्के से उसका मुँह देखने लग गये थे। वह कह रही थी, “देखना, अब किसी का बाल भी बाँका नहीं होगा। हमने बेजबान की प्यास बुझायी है।”

ये शब्द उसके मुँह में ही थे कि गाड़ी ने धकच्चा खाया, जैसे उस महिला की भविष्यवाणी से प्रेरित होकर ही गाड़ी चल पड़ी थी।

“हे ईश्वर! तेरा लाख-लाख शुकर है!” कोई एकाएक बोल उठा था।

रोशन की बच्ची काफी सँभल गयी थी और आँखें खोले बिटर-बिटर देख रही थी। माँ बैठी-बैठी जैसे निहाल हो उठी थी। उसके होंठ को उँगली से छेड़ते हुए लाड़ से कह रही थी, “हाँ, जोर की प्यास लगी थी। पानी पीना था। इसलिए रोयी थी। हाँऽऽऽ...”

बच्ची को हाथ-पैर मारते देख रोशन भी धीमे-धीमे मुस्करा पड़ा और उसकी तरफ ध्यान से देखते हुए बोला, “मुइया ने दिन में भी तारे दिखा दिये थे।”

कुत्ते वाली महिला के दोनों बालक जाग गये थे और रोने लगे थे। एक को महिला ने स्वयं उठाया, दूसरे को मेरी ने।

“मेरी, लगता है, प्यासे हैं !” वह बोली। फिर एकाएक रोशन की पत्नी की तरफ देखते हुए कहा, “यह पानी तो आप अब पिओगे नहीं। हम एक गिलास ले लें?”

रोशन लाल तो उसका मुँह ही देखता रह गया। अप्रत्याशित रूप से कहा, “ले लो। अब यह हमारे किस काम का?”

मेरी चाँदी का गिलास लेकर आयी और बाल्टी में से भरकर ले गयी। माँ ने बारी-बारी से दोनों बच्चों क मुँह से वही पानी लगाया जो रोशन गङ्ढे में से भरकर लाया था और जिसे उनका कुत्ता जुठार गया था।

इसके साथ ही यह दूसरी अप्रत्याशित बात हुई। डिब्बे के लोग प्यासे थे। सारे विधि-निषेध भूल गये। कई लोगों ने गिलास-कटोरे निकाले और कुत्ते का जूठा पानी पीने को तत्पर हो गये।

एक लड़की बड़ा-सा कटोरा भरने लगी ते रोशन की पत्नी ने उसे रोक दिया, “ठहरो, इतना पानी नहीं कि गिलास-कटोरे भरकर पिओ। पता नहीं, कब हिन्दुस्तान पहुँचते हैं। ऐसा करो, चुन्नी या रूमाल का कोना डुबोओ और गीले कपड़े से हलक तर करो। इस तरह सबका काम चल जाएगा।”

बस, कोई रूमाल का कोना भिगो रहा है, कोई चुनरी गीली कर रहा है। किसी ने भरम नहीं किया कि कपड़े मैले-कुचैले हैं या पानी कुत्ते का जुठारा हुआ है। सब हलक तर कर रहे थे। गाड़ी ने भी रफ्तार पकड़नी शुरू कर दी थी। प्रतीत होता था वह उस धावक की तरह भाग रही थी जो विजय-रेखा को देखकर पूरा दम लगाकर उसे छूने का उद्यम करता है।