बेजान नियमों के बंधन में जीवन / जयप्रकाश चौकसे

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बेजान नियमों के बंधन में जीवन
प्रकाशन तिथि :06 मई 2017


सेहत और अस्पताल की पृष्ठभूमि पर पश्चिम के साहित्य और सिनेमा में बहुत काम हुआ है। संभवत: हमारे सामूहिक अवचेतन में इसे ईश्वर का काम मानकर हमने विषय को नज़रअंदाज किया है, जबकि बीमारियों की रचना स्वयं मनुष्य करता है और अपनी मृत्यु को भी स्वयं वही रचता है। जागरूकता और प्रचार के बावजूद हैल्थ इंशोरेंस कम ही लोग कराते हैं। अनेक कंपनियां अपने यहां काम करने वालों का हैल्थ इंशोरेंस कराने लगी हैं परंतु इस क्षेत्र में हम अभी भी प्रारंभिक अवस्था में ही हैं। बीमार व्यक्ति के अस्पताल में भर्ती नहीं होने पर इंशोरेंस कंपनी भुगतान नहीं करती। गोयाकि घर में ही बीमार अपना इलाज कराए, इस बात को बढ़ावा नहीं दिया जाता, जबकि जनसंख्या के अनुपात में अस्पतालों की संख्या बहुत कम है। लाखों गांवों में बिजली नहीं पहुंची है, अत: अस्पताल कैसे खुलेंगे। डॉक्टर गांव में अस्पताल में नहीं जाना चाहते।

इस विषय पर विजय आनंद ने मुमताज, देव आनंद और हेमा मालिनी अभिनीत फिल्म 'तेरे मेरे सपने' का निर्माण किया, जो अमेरिकी उपन्यासकार एजी क्रोनिन के 'सिटाडेल' से प्रेरित है। देव आनंद अभिनीत डॉक्टर गांव में सुविधाओं की कमी के कारण अपनी पत्नी के गर्भ की रक्षा नहीं कर पाता और शहर में अपनी योग्यता से अर्जित सफलता के कारण उत्पन्न अनैतिकता के शून्य में चला जाता है। उसे सही मार्ग पर लाने के लिए गांव से उसका डॉक्टर मित्र शहर आता है। सफलता के नशे में चूर शहरी डॉक्टर कमरे में रोशनी करना चाहता है, तो गांव से आया मित्र कहता है, 'रोशनी मत करो, मैं जो तुमसे कहने आया हूं उसे रोशनी में तुम सह नहीं पाओगे और शायद मैं बोल नहीं पाऊंगा।' प्रकाश और अंधकार दो औजार हैं, जिनसे सिनेमा रचा जाता है। सिनेमेटोग्राफर प्रकाश और अंधकार से सिनेमाई कविता रचता है। विख्यात कैमरामैन राधू करमरकर की आत्मकथा का नाम ही है, 'पेंटर विद लाइट।'

दुनिया के तमाम देशों में मान्यता है कि सभी मनुष्य ईमानदार हैं, जब तक अदालत उन्हें दोषी नहीं करार दे परंतु हमारी सामाजिक संरचना ऐसी है कि सभी बेईमान हैं, जब तक अदालत उन्हें ईमानदार नहीं सिद्ध करे। नैतिक मूल्यों के पतन के कारण सभी क्षेत्र प्रभावित हैं। इन कारणों से हैल्थ इंशोरेंस कंपनी के कायदे सख्त हैं परंतु व्यावहारिक जीवन में वे उस आदर्श का ही ध्वंस कर रहे हैं, जिनकी रक्षा के लिए उनका जन्म हुआ था। हर क्षेत्र में हम उसी जमीन को ही नष्ट कर रहे हैं, जिस पर खुद खड़े हैं। हम उस कालीदास की तरह है, जो वृक्ष की उसी डाल को काट रहा था, जिस पर स्वयं बैठा था परंतु कालांतर में उसने महाकाव्य रचे। यह बात बड़ी आशाजनक है कि आज हम तर्कहीनता की जिस दशा में हैं, उससे उबरकर जीवन को काव्य की तरह पवित्र बना देंगे।

पंद्रह माह से कैंसर का एक रोगी असमान युद्ध लड़ रहा है और उसके मात्र एक ही दिन अस्पताल में रहने या अन्य किसी तकनीकी जानकारी के अभाव में उसका हक उसे नहीं दिया गया। कायदे कानून की सुई के छेद से हाथी निकल जाता है परंतु उसकी दुम अटक जाती है। ऐसी दशा में सेहत के इंशोरेंस से ही उसका विश्वास हट सकता है और कंपनी यह भी नहीं देखती कि व्यक्ति लगभग आधी सदी से इंशोरेंस करा रहा है। महंगी दवा का सेवन उसे अभी अगले दो वर्ष तक करना है गोयाकि वह दीवालिया होकर ही जीवित रह सकता है। यह क्या है कि इंशोरेंस के आले (स्टेथेस्कोप) में मरीज की दिल की धड़कन ही नहीं सुनाई दे रही है। अब ऐसे में क्या निदान और क्या उपचार! हमारी अंधी-बहरी, लूली-लंगड़ी व्यवस्था ने मनुष्य से उसका सम्मान और गरिमा ही छीन ली है। ऐसे में गुरुदत्त की 'प्यासा' की पंक्तियां याद आती हैं, 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है!'

इंशोरेंस भुगतान प्रणाली की दुरुहता के कारण यह विचार उठता है कि क्या हर माह कुछ बचत इस खाते में जमा करके अपना इलाज कराने लायक पूंजी का संचयन करना बीमा कराने से बेहतर होगा। इस तरह की नकारात्मकता से व्यवस्था टूट जाती है। किंतु, बेजान नियमों से बंधी व्यवस्था ही नकारात्मकता का सृजन करती है। आज अपने विवेक को बनाए रखना कठिन हो गया है। यह बेजान संरचना कुछ इस तरह के विकल्प रच रही है कि गंभीर और खर्चीली बीमारी होते ही आत्महत्या कर लेना चाहिए ताकि आपके परिवार को ब्याज पर धन नहीं लेना पड़े। ग्रामीण किसान जो भुगतते रे हैं, उसे अब शहरी नागरिक भुगत रहा है। पूरी व्यवस्था आत्महत्या के लिए वातावरण बना रही है। एक मरीज अपने नाती-पोतों के भविष्य की खातिर ही आत्महत्या कर लें, क्योंकि उस पर खर्च धन अबोध के लालन-पालन पर खर्च होना चाहिए। एक फिल्म बनी थी, 'दे किल हॉर्सेस, डोंट दे?' रेस के जख्मी, लंगड़े घोड़े को गोली मार दी जाती है गोयाकि उपयोगिता जीवन का मानदंड है। क्या सेवानिवृत्त लोग भी आत्महत्या कर लें? इस तरह के विचार हजारों वर्ष की सामूहिक उपलब्धि को ही नकार देते हैं।

'आइलेस इन गेजा' उपन्यास में एक मां अपनी बेटी की एक घायल आंख को निकलवाने में डॉक्टर से जानबूझकर देरी कराती है। घायल लाइलाज आंख को समय रहते नहीं निकालने पर, दूसरी अच्छी आंख अपना 'बहनापा' दिखाते हुए काम बंद कर देती है। इसे सिम्पेथेटिक आफ्थेलिमिया कहते हैं। उपन्यास में प्रस्तुत मां इंशोरेंस की मोटी रकम के लिए यह निर्मम काम कर रही है, क्योंकि पति लंबा कर्ज छोड़ गया है। जीवन की रहस्यमय कंदरा में बेजान नियमों के जुगनू से प्रकाश नहीं होगा।