बेटी का खत / सुकेश साहनी

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बेटी का खत पढ़ते ही बूढ़े बाप के चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं।

"खैरियत तो है न?" पत्नी ने पूछा, "क्या लिखा है?"

"सब कुशल-मंगल है," आवाज में कंपन था।

"फिर पढ़ते ही घबरा क्यों गए?" पत्नी बोली, फिर उसके हाथ से चिट्ठी लेकर खुद पढ़ने लगी।

खत खैरियत वाला ही था। बेटी ने मां-बाप की कुशलता की कामना करते हुए अपनी राजी-खुशी लिखी थी, अंत में लिखा था-राजू भइया की बहुत याद आती है। पत्र पढ़ने के बाद पत्नी निश्चिंत होकर रसोई में चली गई.

जब लौटी तो देखा पति अभी भी उस खत को एकटक घूरे जा रहा है, चेहरा ऐसा मानो किसी ने सारा खून निचोड़ लिया हो।

पत्नी को देखते ही उसने सकपकाकर खत एक ओर रख दिया। सहज होने का असफल प्रयास करते हुए बोला, "सोचता हूँ, कल रजनी बेटी के पास हो ही आऊँ।"

पत्नी ने उसके पीले उदास चेहरे की ओर ध्यान से देखा, फिर रुंघे गले से बोली, "आखिर हुआ क्या है? अभी कल ही तो दशहरे पर बेटी के यहाँ जाने की बात कर रहे थे, फिर अचानक ऐसा क्या जो...तुम्हें मेरी सौं जो कुछ भी छिपाओ!"

इस बार वह पत्नी से आँख नहीं चुरा सका, भर्राई आवाज में बोला, "पिछली दफा रजनी ने मुझे बताया था कि ससुराल वाले उसकी लिखी कोई चिट्ठी बिना पढ़े पोस्ट नहीं होने देते, तब मैंने उससे कहा था कि भविष्य में अगर वे लोग उसे तंग करें और वह हमें बुलाना चाहे तो खत में लिख दे-राजू भइया की बहुत याद आती है। इस बार उसने खत में यही तो लिखा है।" कहते हुए बूढ़े बाप की आँखें छलछला आईं।