बेड़ी / सरोजिनी साहू

Gadya Kosh से
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ऐसा लग रहा था, मानों हम एक खंभे के चारों तरफ चक्कर लगा रहे हो. बहुत ही कष्ट लग रहा था. ऐसा भी प्रतीत होने लगा था, जैसे हमारे पास इसके सिवाय कोई उपाय ही न हो. हम दोनों एक दूसरे से एक क्षण के लिए भी अलग नहीं हो पा रहे थे.

मैं उसको समझा-समझा कर थक गयी थी, पर वह थी कि उसको कुछ भी समझ में नहीं आ रहा था. अंत में, तंग आकर, मैंने उस विषय पर अपना सिर नहीं खपाने का निश्चय कर लिया. उसको जो समझ में आये, समझे, जो करना चाहती, करे. मैं यह नहीं कह सकती थी कि यह घटना महज एक सामान्य थी अथवा गंभीर. मेरी दृष्टि में तो वह घटना सामान्य नजर आ रही थी, जबकि उसके हिसाब से तो, वह बहुत ही सीरियस घटना थी. दिक्कत तो इस बात की थी. दुगनी उत्तेजना के साथ वह अपनी बातों को बढा-चढा कर बता रही थी. अंत में मैंने उसको उसी हालत में छोड़ दिया था. धीरे-धीरे कर वह अपने आवरण के अंदर सिमटती ही जा रही थी, घोंघे और सीपी की तरह.

मुझे लग रहा था कि उसका मन अभी भी शांत नहीं हुआ था. अगर उसका मन शांत हुआ होता, तो वह जरुर मेरे पास आती और मुझे इस बारे में बताती. उसने तो मेरे घर बिल्कुल आना-जाना ही बंद कर दिया था. अचानक उसके इस प्रकार के व्यवहार ने मुझे भीतर से पूरी तरह झकझोर दिया था, मगर मैं क्या कर सकती थी! कुछ भी नहीं. मैं तो लाचार थी. मेरा उसके ऊपर क्या अधिकार था? मैं तो उसको केवल समझा रही थी. वह उम्र में मुझसे बहुत छोटी थी. चूँकि हम दोनों पडोसी थे इसलिए आपस में भाईचारे की प्रीति थी. वह केवल मेरे पास ही सहज हो पाती थी. वह और उसका पति, कम पढ़ी-लिखी औरतों को अपने स्तर से काफी निम्न-स्तर का मानते थे तथा उनसे मेल-जोल रखना पसंद नहीं करते थे.

अक्सर शाम के समय वह मेरे घर आती थी. हम दोनों आपस में बातचीत करते थे. सुबह-सुबह दो से ढाई किलो मीटर तक टहलने भी निकलते थे. इससे पहले तो वह सुबह सात बजे तक सोती रहती थी. एकदिन जब मैं प्रातः-भ्रमण से लौट रही थी, तो उसने मुझे अपनी बालकॉनी से देखा था.मैं सीढ़ी चढ़कर उपर पहुँचने ही वाली थी, कि मैंने देखा वह मेरे बरामदे से खड़ी होकर मेरी प्रतीक्षा कर रही थी.

" आप सुबह-सुबह टहलने जाती हो? आपने मुझे पहले कभी बताया नहीं? मैं शादी से पहले अपनी माँ के साथ 'मोर्निंग-वॉक' पर जाया करती थी. यहाँ आने के बाद मेरा यह अभ्यास छूट गया. आप सुबह घर से कितने बजे निकलती हैं? कल से मैं भी आपके साथ चलूंगी?"
" हाँ, हाँ, जरुर चलो, इसमें पूछने की क्या बात है. एक से भले दो." मैं बोली थी.

उस दिन से हम दोनों प्रातः-भ्रमण के लिए साथ-साथ निकलते थे. इसके पहले, जब मैं अकेली घूमने जाती थी, तो रास्ते के दोनों तरफ की हरियाली, सूर्योदय से पूर्व का हल्की-हल्की लालिमा लिए हुए निस्तब्ध आकाश, उस अमृत-वेला की शीतल हवा और उस सुनसान रास्ते में, मैं अपनी अस्मिता को खोजती थी. कभी कभी तो ऐसा लगता था कि 'ईश्वर और मैं' दोनों साथ-साथ चल रहे थे. मेरे आस-पास कोई अदृश्य शक्ति विद्यमान रहती थी. मुझे एक परम शांति की अनुभूति होती थी.

ना..., मुझे अकेले रास्ते में जाने के लिए कोई डर नहीं लगता था, क्योंकि इस इलाके के सभी लोग मुझे सम्मान की दृष्टि से देखते थे. इसके अतिरिक्त, मेरे चेहरे से झलकता गाम्भीर्य तथा मेरे सौम्य-पेशे की वजह से, मैं कुछ अलग हट कर भी दिखती थी शायद. एक-बार प्रातः-भ्रमण के समय पीछे से 'मस-मस' जैसे किसी के पदचाप की आहट सुनाई दी, ऐसा लग रहा था मानो कोई मेरा पीछा कर रहा हो. सांप की तरह रेंगता-मंडराता हुआ बहुत ही लंबा वह रास्ता था नदी की तरफ का, और मैं थी बिल्कुल अकेली उस रास्ते में. उसी समय धीरे-धीरे कर, सामने से सूरज अपनी किरणो को बिखरते हुए दिखाई देना लगा था. परन्तु अभी भी हल्का-हल्का अंधेरा व्याप्त था. मेरा हृदय डर के मारे थर-थर कांपने लगा था. जिसकी वजह से, मैं अपनी "अस्मिता व अदृश्य ईश्वर' के ख्याल' के बारे मे भूल गयी थी. धीरे-धीरे पदचाप की वह आहट और तेज होती गई, तथा और नजदीक आती प्रतीत होने लगी. तब तक उस अनजान डर से सामना करने के लिये मैं मानसिक तौर पर तैयार हो चुकी थी. मगर डर के मारे मेरा शरीर पसीने से तर-बतर हो गया था. पीछे पलट कर मैं देखने लगी. ज्यों ही मैं पीछे पलटी, मैंने देखा कि एक नवयुवक 'नमस्ते मैडम' से अभिवादन करते हुए आगे चला गया. चेहरे से वह नवयुवक जाना-पहचाना सा लग रहा था. बाद में याद आया कि वह तो कभी मेरा छात्र था.

ठीक इसी प्रकार, एक बार और, ऐसा ही एक काला-कलूटा, लम्बे-चौडे शरीर वाला एक आदमी, मेरे सामने तेजी से आ रहा था. उसके चलने के अंदाज से ऐसा लग रहा था कि मानों उस सुनसान रास्ते में वह मुझे अकेला पाकर दबोच लेगा. पुनः थोडी देर के लिए मैं भूल गयी थी अपनी अस्मिता और उस अदृश्य ईश्वर को. मैं अपना सिर नीचे झुकाकर सहमी-सहमी उस रास्ते को पार करने लगी थी. उस समय भी, मेरा बदन पसीने से पूरी तरह भीग गया था. लेकिन वह विशालकाय आदमी बिना कुछ बोले, अपने रास्ते सीधा चलागया और मैं भी अपना रास्ता नापने लगी.

इस प्रकार मेरा मन धीरे धीरे निडर हो गया था. यही वजह थी कि, इतना होने के बावजूद मैंने अपना प्रातः-भ्रमण जारी रखा था. परन्तु, जब वह मेरे साथ आने लगी, तब मैंने अपनी अस्मिता व ईश्वर के बारे में सोचने के अमूल्य क्षण गवां दिए. इसे अपने जीवन का दूसरा पहेलू मानकर, बिना किसी वाद-विवाद, आरोप-प्रत्यारोप के, स्वीकार कर लिया था मैंने. दूर-दर्शन में प्रसारित होने वाली खबरों से लेकर घर में काम करने वाली तक की समस्याओं के बारे में, बात करते-करते हम दोनों प्रातः-भ्रमण करना प्रारंभ कर दिए थे. इतना लम्बा रास्ता बातों-बातों पार हो जाता था, पता ही नहीं चलता था.

यहाँ तक की ऐसा भी होता था, दोनों में से जब कोई बीमार पड़ जाता था, तो पूर्व संध्या से ही एक-दूसरे को इस बारे में सूचित कर देते थे, कि सुबह वह निकल नहीं पायेगी. जब कोई एक नहीं जा पाता था, तो दूसरा भी अपना प्रातः-भ्रमण प्रोग्राम को निरस्त कर देता था. इस प्रकार हमारे भाई-चारे में और अधिक बढोतरी होती गयी. प्रसंगवश, कभी-कभार कोई हम दोनों में से किसी अकेले को देखता था, तो जरुर दूसरे के हाल-चाल के बारे में पूछता था.

हम कभी भी किसी दूसरे के घर की भेद की बातें नहीं करते थे. अतः घूमने में एक तरह की अनुपम शांति मिलती थी. और उसमें किसी प्रकार का कोई व्यवधान नही होता था. इसलिए उसके माँ-पिताजी व पति मेरे साथ दोस्ती रखने के लिए उपदेश दिया करते थे. अबतक, हम दोनों के बीच काफी घनिष्टता हो गयी थी, यहाँ तक कि अपने सुख-दुख के बारे में एक दूसरे को बताने लगे थे. दूसरे पडौसियों की तरह हम एक-दुसरे से कभी इर्ष्या नहीं करते थे. यह अलग बात है कि हम दोनों के बीच सब्जियों का आदान-प्रदान का सम्बन्ध कभी भी स्थापित नहीं हुआ था.

वह बहुत ही ज्यादा संवेदनशील थी. अगर कोई उसे कुछ बोल देता, तो वह बात उसके दिमाग में कई दिनों तक घूमती रहती थी. मैं उसको बीच-बीच में समझाती रहती थी, कि किसी की भी अनर्गल बात पर इतना ध्यान नहीं देना चाहिए. क्यों कि इस दुनिया में, ज्यादातर लोग अधिकांश समय बिना मतलब की बातें करते रहते हैं. कहते समय उन्हें इस बात का भी ख्याल नहीं रहता, कि उनकी इन बातों से किसी को कष्ट भी हो रहा है. इसलिए इन सब बातों को पकड़ कर बैठ जाने से, हमें अनावश्यक रूप से दुखी होना पड़ता है.

मेरे इस प्रकार के मंतव्य की वजह से वह मुझसे प्यार करती थी. कहती थी, "हम दोनों के परिवार ऐसे ही ठीक ठाक है. , हम लोगों को किसी के भी साथ कुछ लेना-देना नहीं."

शनैः-शनैः, मैंने अपनी पुरानी आध्यात्मिक दुनिया को छोड़कर इस भौतिक दुनिया में प्रवेश कर लिया था. बहुत दिन बीत चुके थे, ईश्वर और मेरी अस्मिता को भूले हुए. अब अक्सर बातें होती थी हम दोनों के मायके की, कामवाली नौकरानी की, तथा उसके दांपत्य जीवन के बारे में, तो कभी मेरे बाल-बच्चों के बारे में. बातें करते-करते हम नदी की तरफ घूमने जाते थे, तो बातें करते-करते हम अपने घर लौट आते थे. मार्ग में दोनों तरफ हरियाली ही हरियाली थी. थोडी सी दूरी पर एक श्मशान घाट भी था. और उसके आगे एक अकेली छोटी-सी बिल्डिंग थी, जिसके सामने बोर्ड पर उसका नाम 'मैगजीन' अंकित था. इस बिल्डिंग के चारों तरफ माटी का स्तूप भी बना दिया गया था, क्योंकि उसमें रखे हुए बारूद को असामाजिक तत्त्वों की नजरों से बचाया जा सके.

हर दिन प्रातः-भ्रमण में जाते समय हम देखते थे, रात-पाली की ड्यूटी पूरा कर 'मैगजीन' का गार्ड अपने घर जाता था, तो दिन-पाली की ड्यूटी के लिए वहां एक नया गार्ड तैनात होता था. हम दोनों उस 'मैगजीन' तक जाकर लौट आते थे. लौटते समय, मैं धतूरा के फूल व बेल-पत्ते लाती थी, तो वह पानी में डालकर नहाने के लिए नीम के पत्ते. मैंने चलते समय एक बार उसको एक कहानी सुनाई थी, कि किस प्रकार आधी-रात के समय मैगजीन के पास एक नृशंस ह्त्या हुई थी. एक गार्ड का सिर धड से अलग कर दिया था. और उसी रात को ही उसने अपने सपने में 'काल-पुरुष' को भी देखा था.

प्रातः-भ्रमण की आदत ऐसी पड़ गयी थी, कि कभी-कभी तबीयत ठीक नहीं होने पर भी, मैं झटपट से साढे-पांच बजे उठ जाती थी, यही सोच कर कि कहीं वह मेरी प्रतीक्षा न कर रही हो. वह भी अपने मोबाइल में अलार्म भर कर सोती थी, ताकि समय पर उठ कर आधे-पौन घंटे का वॉक कर सके. सुबह-सुबह अगर कोई दोनों को टहलते हुए देखता था,तो जरुर कहता था. " मानना पड़ेगा, आप दोनों स्वास्थ्य के बारे में काफी जागरुक है."

"पूरे दिन भर में मात्र यह समय ही तो हमारे लिए स्वतंत्रता का समय है. अन्यथा, जहाँ भी जाओ, उनके साथ जाओ. जी भी करो, उनके लिए ही करो. खुद के लिए प्रातः-भ्रमण का ही समय मिलता है, अतः उसे अच्छे ढंग से अपने लिए जी लेना चाहिए."

जब वह दो महीने के लिए अपने पीहर चली गयी, मैं प्रातः-भ्रमण बंद करके सुबह देर तक आलसी की तरह सोने लगी. 'न कोई अस्मिता न कोई ईश्वर' मुझे इसके लिए प्रेरित कर पाते. अब मैं किसी भी प्रकार की खोज में नहीं निकल पाती थी.

पीहर में दो महीने रहकर वह जून के अंत में यहाँ लौट आई थी. लौटने के तुंरत बाद, उसने मुझसे यही सवाल किया था, " आजकल वॉक में जाते हैं क्या?" प्रत्युत्तर में मैं हंस दी थी.

": नहीं तुम्हारे जाने के बाद सब बंद है. अके ले जाने का मन नहीं होता. आलस लगता है. सो जाती हूँ."

वह हंस कर पूछने लगी, ": तब मेरे लिए वॉक छोड़ रखी थी? ठीक है कल से जाएँगी?"

" हाँ, स्योर."

" उसी समय?"

" हाँ, हाँ, उसी समय."

दूसरे दिन से फिर हमारा प्रातः-भ्रमण शुरू हो गया था.

इस बार वह अपने पिताजी के घर से जागिंग वाले जूते लेकर आई थी. "उन्ही जूतों को पहनकर थोडा शर्माते हुए बोली थी, ": जब मैं हमारे घर में थी, इन्हीं जूतों को पहनकर वॉक करती थी. घर में बेकार पड़े थे. इस बार अपने साथ लेकर आ गयी. देखने में ख़राब तो नहीं लग रहा है?"

वे सफ़ेद रंग के 'एक्शन' के जूते थे. मुझे बहुत ख़ुशी लग रही थी, उसकी वॉक की जोर-शोर तैयारी को देखकर.

एक दिन जब हम दोनों बात करते करते, उस झाडियों से भरे जंगल के रास्ते से गुजर रहे थे, अचानक हमारे सामने से डेढ़ फुट का सांप, सरसराते जंगल की तरफ चला गया. ऐसे तो हर दिन, हम दोनों उस रास्ते पर कभी मरा हुआ बिच्छू, तो कभी मरा हुआ गिरगिट, तो कभी-कभी गाडी के पहियों के नीचे कुचला हुआ सांप देखते थे. मगर जिंदा सांप, अभी तक कभी-भी नजर में नहीं आया था.उस दिन हम दोनों अपने निर्दिष्ट स्थान 'मैगजीन' तक नहीं जा पाए थे, बीच रास्ते से ही लौट कर आ गए थे.

उस रास्ते में दो ढलाने थी. जाते समय उस ढलानों से आराम से नीचे उतर जाते थे, आते समय ढलान चढ़ते समय, हम दोनों का अच्छा व्यायाम हो जाता था. उस दिन बिना ढलान चढ़े ही लौट आये थे. रास्ते भर केवल सांप की ही चर्चा. इस अंचल में इतने सांप क्यों? यहाँ के लोग साँपों को क्यों नहीं मारते हैं?

मैं समझाती थी, " मैं तो यहाँ बीस साल से रह रही हूँ, सांप काटने से किसीको मरता हुआ नहीं तो देखा है और न सुना है".

दूसरे दिन सुबह-सुबह, उस सांप की बात को भूल कर, मैं प्रातः-भ्रमण के लिए तैयार हो गयी थी, मगर वह अपने घर से नहीं निकलती थी. मेरा काफी देर तक दरवाजा खटखटाने के बाद, वह नींद से जागी थी. अलसायी आँखों से बाहर निकली तथा दुपट्टे को ठीक करते हुए बोली थी, "आज मैं बहुत देर तक सो गयी थी."

आज वह इतनी विलंब से उठी थी कि उन्हें जूते पहिनने को भी समय नहीं मिला. हम दोनों उसी पुराने रास्ते पर घूमने निकले थे. कुछ दूर तक पहुंचे ही थे, कि अचानक वह रुक गयी. बोलने लगी, " इस रास्ते पर नहीं चलेंगे. उस रास्ते में सांप निकला है न." यह सुनकर मैं दूसरा विकल्प ढूँढने लगी.हमारे पास दूसरा विकल्प था, कि कालोनी के मुख्य प्रवेश-द्वार से हो कर, थाना-बाज़ार की तरफ एक चक्कर काट कर घर लौटा जा सकता था. आखिर कार हम लोगों ने वैकल्पिक रास्ते का अनुसरण करने का निश्चय लिया. अभी-तक कालोनी में सभी लोग सोए हुए थे. रास्ता पूरी तरह से सुनसान था. आपस में, बात करते-करते, हमने अपनी वॉकिंग शुरु कर दी थी. मैं बोलते जा रही थी. वह हामी भरते जा रही थी. हठात वह चिल्लाई, "अरे!" मैंने देखा कि एक युवक साइकिल चलते हुए हमारे पास से गुजरा.मैंने सोचा कि वह उसका दूध वाला होगा. उसको देखकर वह कुछ बडबडा रही थी. वह युवक हमारे पास से काफी दूर तक जा चुका था.वह बोलने लगी, " देखो क्या किया?"

" मतलब."

" यहाँ पर मुझे जोर से पीटकर चला गया." बोलते-बोलते वह दाहिने कंधे के नीचे गले की पास वाली जगह को दिखाने लगी.

"अरे!" मैं भौंचक्की रह गयी, " मैं तो सोच रही थी कि वह तुम्हारा दूध वाला होगा. तुम उसके साथ बात कर रही हो. ऐसा कब हुआ, मुझे तो बिलकुल पता नहीं चला? फिर कालोनी के भीतर, उतना दुस्साहस किसने किया?"

वह लड़का थोडी दूर जाकर, पीछे घूमकर,हमारी तरफ देख रहा था. बाइस-तेईस साल का मजदूर लड़का प्रतीत हो रहा था. दौड़कर उसको पकड़ने की भी अवस्था भी नहीं थी मेरी. इस तरह की आकस्मिक घटना में मुझे क्या करना चाहिए, मेरी समझ में बिल्कुल नहीं आ रहा था. हम घर लौट आये थे. उत्तेजित होकर वह बता रही थी कि कैसी पीडा महसूस कर रही थी वह.

मुझे यहाँ पर रहते हुए काफी लम्बी अवधि हो चुकी थी, पर मेरे सामने ऐसे निम्न स्तर की कोई भी घटना घटित नहीं हुई थी. मैं घर आकर मौन हो कर बैठ गयी थी. पता नहीं कैसे, इतनी बड़ी घटना मेरे सामने घटित हुई, पर मुझे मालूम नहीं पडा.उस लड़के ने पीछे की तरफ से आकर आघात किया था, किसी एक विश्वासघात आततायी की तरह. मुझे कैसे उसकी साइकिल की चेन व पहियों की आवाज सुनाई नहीं पडी.

बच्चे अभी तक सोए हुए थे. मैं चिंता-मग्न हो कर बैठी थी. प्रातः साढे नौ बजे का समय होगा, मैं धुले कपडे सुखा रही थी, बालकनी के पास. वह अपनी बालकनी से जोर जोर से चिल्ला रही थी.

"क्या हुआ, क्या बोल रही हो?"

" मैं आ रही हूँ."

मैंने अभी तक पूजा भी नहीं की थी. फिर भी मैंने अपना दरवाजा खोला. वह आते ही बोलने लगी, "मैं घर लौटने के तुंरत बाद नहा ली हूँ. फिर भी पता नहीं क्यों घिन्न लग रही है मुझे. लग रहा है शरीर पिघलता जा रहा है. मेरे जीवन में अभी तक ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी. ऐसे मेरे दोस्त कई बार बताते थे, कि टाऊन-बस में यात्रा करते समय कितनी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था उन्हें. इसलिए, डर के मारे, मैं तो कभी भी टाऊन-बस में सफ़र नहीं करती थी. ऑफिस-गाडी से ही कॉलेज जाती थी. मैं तो उस लड़के के चेहरे को कभी भी भूल नहीं पाऊँगी."

वह अपने हाथ-पैर मटका-मटका कर अपने मन की अशांति को उजागर कर रही थी. उसकी आँखों से अपमान के आंसू फूट पड़े थे.मैं उसको समझाने लगी, " इसको एक दुर्घटना समझ कर भूल जाओ, इसमें हमारा कोई दोष नहीं है. उस आदमी ने अचानक पीछे से आक्रमण किया था. अचरज की बात है, आज ही हमने पहले वाले रास्ते को छोड़कर इस रास्ते का चयन किया था. सही पूछो तो, जब-जब जो होना है, तब-तब वह होकर ही रहता है. "

मेरी इन बातों को सुनकर शांत होने की बजाय उसका गुस्सा भड़क उठा. तीक्ष्ण-स्वर से बोलने लगी, "कैसे भूल जाउंगी? आप नहीं जानते हैं, मुझे कितना कष्ट हो रहा है! अच्छा , यह बताइये, इतनी बड़ी घटना घट गयी, पर आपको कैसे मालूम नहीं पडा?"

यद्यपि यह बात सही थी, कि मैं न तो मेरे ईश्वर न ही मेरी अस्मिता से संबंधित विचारों की उधेड़-बुन में लीन थी. लेकिन फिर भी मेरा ध्यान इस तरफ कैसे नहीं गया? मैंने कहा," सच बोल रही हूँ, जब तक तुमने मुझे बताया नहीं, तब तक मुझे कुछ भी पता नहीं चला. तुमने उस साइकिल सवार को धक्का क्यों नहीं दे दिया?"

"आप तो जानती हो, मैं तो तुंरत ही नींद से जाग कर आपके साथ जा रही थी. आप ने जब मुझे आवाज़ दी थी, तब भी तो मैं उठी थी और केवल पानी के छींटे मारी थी मुहं पर. मेरे साथ ही ऐसे क्यों हुआ? आप के साथ क्यों नहीं?"

"मेरे साथ भी हो सकता था, अगर मैं बायीं तरफ न होकर दाहिनी तरफ होती."

"हाँ,वह उदास हो कर बोली थी."

"यह सब तो दुर्घटना है. दुर्घटना में कौन मरेगा, किसका पैर टूटेगा, क्या यह कोई बता सकता है?"

वह सोफे से उठ कर बोलने लगी थी," मैं क्या करुँगी, मेरा अन्दर ही अन्दर दम घुट रहा है. किसीको यह बात बता नहीं पा रही हूँ. मेरी माँ ने फ़ोन किया था, उसको भी बता नहीं पायी.मेरे माताजी-पिताजी को अगर पता चलेगा तो वे मेरे पति को गाली देंगे. मगर उनकी क्या भूल है ?."


उस लड़के का चेहरा बारंबार याद आ जाता था. काला शर्ट पहने हुए था, अपने काले शरीर पर. इतनी सुबह-सुबह कहाँ जा रहा था साइकिल पर? क्या सोचकर उसने इस दुष्कर्म को अंजाम दिया? क्यों उसके दिमाग में एक शैतान घुस गया था, जिसने उसे यह काम करवा दिया. शायद ऐसे ही तो दुर्दिन आते है.

"देखो, तुम्हारे साथ तो ऐसा कुछ भी नहीं घटा न? तुम क्या जानो, पीर पराई जांके पांव न फटी बिवाई?" बच्ची की तरह बचकाना अंदाज़ में कहने लगी थी वह.

मैं चकित होकर उसकी तरफ देख रही थी. वह क्या बोलना चाहती थी? मेरे साथ ऐसा घटित होने से क्या वह खुश होती? या मुझे भी भुक्त-भोगी सोच कर उसको सांत्वना मिलती.

मैं उसके दुःख के धूल को पोंछते हुए बोली थी," तुमने अपने पति को यह बात बता दी क्या?"

"नहीं, अभी तक तो किसीको भी नहीं. "

"किसीको भी मत बताना.एक बुरा सपना मान कर उसको भूल जाओ."

मेरी बात का कोई प्रत्युत्तर नहीं दिया था उसने. दिन भर, हम अपने घर से बाहर नहीं निकले थे. इस बार, वह शाम को भी मेरे घर नहीं आई थी. दूसरे दिन, साढे नौ-दस बजे के आस-पास मुलाकात हुई थी फिर बालकनी में. वह प्रातः-भ्रमण के बारे में पूछ रही थी. मैं कुछ जवाब देती, उस से पहले ही वह अपने घर के अन्दर घुस गयी.थोडी देर के बाद, मेरे घर की घंटी बजी.मैंने दरवाजा खोलकर देखा तो वह सामने खड़ी थी. घर के अन्दर घुसते-घुसते ही वह कहने लगी थी," आज मैंने उनको यह सारी बातें बता दी है. जब उन्होंने सारे भेद मुझे बता देते हैं, और मेरे सारे भेद उनको मालूम है, तब इस बात को छुपाने से क्या फ़ायदा?"

मैं मन ही मन सोच रही थी, उसने यह कुछ अच्छा काम नहीं किया.क्योंकि कल जब उन दोनों में किसी बात को लेकर झगडा होगा, तो उसका पति इसी बात को आधार बनाकर, उसको गाली देगा. यद्यपि उसकी इसमें कोई भूल नहीं थी, महज एक संजोग ही था. मैं उससे पूछने लगी थी, "क्या प्रतिक्रिया व्यक्त की आपके पति ने?"

"जब आप साथ में थे, तब यह कैसे हो गया? आप कुछ कर नहीं पाए? उस आदमी को कैसे छोड़ दिया?"

" मैं क्या कर पाती?" बड़ी असहाय होकर बोली थी, "घटना क्या है, जानने से पहले तो वह लड़का काफी दूर जा चुका था.मैं तो यही सोच रही थी कि वह आप का दूध वाला होगा."

"कैसे वह मेरा दूध वाला होगा?" झुंझुलाकर बोली थी वह," मेरे पति कह रहे थे कि, आप पर भरोसा कर के ही उन्होंने मुझे जाने की अनुमति दी थी, फिर आपने कैसे कुछ नहीं किया?"

"आपके पति को यह बात समझ में क्यों नहीं आती? यह घटना मेरे साथ भी तो घट सकती थी? यदि मैं तुम्हारी जगह, और तुम मेरी जगह पर होती. मैं भी तो एक औरत ही हूँ, उन्हें मेरी यह बात समझनी चाहिए."

मेरी बात से वह संतुष्ट नहीं थी. वह अपने घर चली गयी.

दूसरे दिन आदतन मेरी नींद टूट गयी. उठ कर मैंने अपनी प्रातः-भ्रमण वाली पोशाक पहन ली. रोज़ की तरह सीढ़ी से उतर कर, मैं अपने उसी पुराने रास्ते पर टहलना शुरू कर दी थी. विगत दिनों की बातें, काले-काले बादलों की तरह मेरे मन-मस्तिष्क पर मंडरा रही थी. इसलिए तो मेरे मन को न कोई अस्मिता न कोई ईश्वर आकर्षित कर सके. उस दिन वह लड़का भी नहीं मिला. मैंने घर लौटते समय उसको बालकनी में खड़े देखा था. जब मैं सीढ़ी चढ़ कर ऊपर जा रही थी, तभी वह मेरे बरामदे में आ पहुंची. आते ही पूछने लगी थी, "आप प्रात-भ्रमण के लिए गयी थी क्या?"

" हाँ."

"इतनी बड़ी घटना के बाद भी?"

" हाँ."

" डर नहीं लगता आपको?"

"नहीं, डर क्यों?संसार में मृत्यु है, यह सोच कर क्या हम जीना छोड़ देंगे? जीवन में कितने आंधी-तूफ़ान कितने प्रतिकूलताएं हैं, इसका मतलब तो यह कतई नहीं कि हम जीवन का उपभोग करना छोड़ दें? आकस्मिकतायें तो जीवन का एक अंग है. इसलिए इस अभ्यास को क्यों छोड़ दूंगी?"

उसे मेरी बात समझ में नहीं आ रही थी. उलटा वह पूछने लगी थी, "अगर वह लड़का एक बार और आ जाता तो क्या होता?"

"न, न, अब वह लड़का कभी नहीं आएगा. और अगर वह लड़का आ भी जाता, तो मैं उसको नहीं छोड़ती. उसकी हड्डी-पसली एक कर देती."

"बात ऐसी है, हम औरत हैं, अतः हमारे मन में हमेशा डर बना रहेगा."

"यही तो कारण है, इसलिए तो मैं गयी थी, मन का डर दूर करने के लिए. अगर मैं नहीं जाती, तो यह डर मुझे सदा के लिए ग्रसित कर लेता."

"आप क्या बोल रही हो?"

मैं मुस्कुरा दी थी, " साडी में सज-धज कर तो तुम बहुत सुन्दर दिख रही हो. " मैं उसे बोलने लगी," मगर ऐसे क्या बात है? सुबह-सुबह साडी पहनी हो? कहीं जा रही हो क्या?

"नहीं, ऐसे ही. उनको मेरा सलवार-सूट पहनना पसंद नहीं आता है.कहते हैं, आज से तुम साडी ही पहनो. साडी पहनना ही तुम्हारे लिए अच्छा है. उस घटना के बाद उन्हें थोडा डर भी लगने लगा है."

मैंने एक लम्बी साँस छोड़ी. मैं जानती थी कि ऐसा ही कुछ होने वाला है. वह समय ही अब दूर नहीं है, जब यह औरत अपने खिड़की-दरवाजा सभी बंद कर, घर में ताला लगाकर रखेगी खुद को.

वह मेरे बारे में क्या-क्या सोचती होगी? इन बातों को किसी भी प्रकार की चिंता किये बगैर , मैं बोली," अच्छा, तो मैं जा रही हूँ."


मूल ओड़िया से अनुवाद : दिनेश कुमार माली