बेनामी सूबा / क्यों और किसलिए? / सहजानन्द सरस्वती

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पहले पहल मुझे बंबई की कांग्रेस में एक अजीब बात सुनने को मिली। लोगों ने मुझेगाँधी जी और राजेंद्र बाबू आदि काविरोध करते देख कई बार यह कहा कि आप तो बैनामी सूबे के हैं! वहाँ तो राजेंद्र बाबू की आज्ञा चलती है और अपना विचार ताक पर रखा जाता है। मतलब यह कि बिहार प्रांत उनके हाथ बैनामा किया हुआ या बिका है। मुझे हँसी आई सही। मगर यह बात चुभी बुरी तरह से। लेकिन आखिर करता क्या? इल्जाम लगानेवालों ने ऐसा ही अनुभव किया था। बात भी कुछ ऐसी ही थी। तब तक बिहार का एक भी आदमी उनकेविरोधमें जबान न हिलाता था। सभी एक साथ ही वोट करते थे।

इसके बाद लखनऊ कांग्रेस में युक्त प्रांत के तथा अन्यत्र के प्रतिनिधियों तक ने वही ताना मारा। वहाँ भी तो हमने उनका विरोध किया था। आल इंडिया कांग्रेस कमिटी के सदस्यों के चुनाव में जो आनुपातिक प्रतिनिधित्व (Proportional representation) का नियम था उसे लीडर लोग निकाल कर फिर पूर्ववत बहुमत से चुनाव रखना चाहते थे। हमने इसका सख्तविरोधकिया। और भी बातें थीं जिनकाविरोधकरना पड़ा था। और बातों में तो हम लोग हारे। मगर आनुपातिक प्रतिनिधित्व में जीते। इतने पर भी लोगों को यह कहते पाया कि बिहार बैनामी सूबा है! हालाँकि लखनऊ के बाद फिर यह ताना न सुना गया। शायद यह कलंकधुल गया।

लेकिन फिर भी मेरे लिए यह पहेली ही रह गई कि इतना बड़ा कलंक इस सूबे के मत्थे क्यों मढ़ा गया! विचारों का संघर्ष तो जरूरी है। सो भी कांग्रेस जैसी संस्था में। जहाँ सभी विचार के लोगों को आने और बोलने का न सिर्फ मौका है, प्रत्युत वे सभी बार-बार नेताओं के द्वारा आमंत्रित किए जाते हैं कि आएँ, अपने खयाल जाहिर करें और कोशिश करके बहुमत अपने पक्ष में करें। इसीलिए तो आनुपातिक प्रतिनिधित्व कांग्रेस में रखा गया था कि सभी विचार के लोग आ सकें। शुध्द बहुमत के नियम से तो उनका आना असंभव था।

मगर लखनऊ के बाद, जो श्री कृष्णवल्लभ सहाय का एक लंबा पत्र मिला, खास लखनऊ में जो घटनाएँ हुईं और उसके बाद भी जो बराबर जारी रहीं उनने इस पहेली को सुलझा दिया। फिर तो मुझे मानना पड़ा कि यह कलंक सही था। श्री कृष्णवल्लभ बाबू हजारीबाग के नेता और राजेंद्र बाबू के भक्त हैं। उन्होंने मुझे लिखा कि बिहार जो भी आगे बढ़ा है, उसे जो भी प्रतिष्ठा मिली है वह सिर्फ इसलिए कि हम लोगों ने उनकी प्रतिष्ठा की है और आँख मूँद कर उनका साथ दिया है। मगर अब वह बात नहीं रही, इसकी वेदना मुझे है। यह बड़े ही दर्द की बात है कि आप एक ओर और राजेंद्र बाबू दूसरी ओर हों और कांग्रेस में यह कुश्ती हो! यह बात बंद हो जाए तो अच्छा। मुझे इसे पढ़कर ताज्जुब हुआ। मैंने उन्हें उत्तर दिया कि प्रतिष्ठा और प्रेम तो दिल की चीजें हैं। वह हाट में खरीदी नहीं जाती हैं। मैं आज भी राजेंद्र बाबू से प्रेम रखता तथा उनकी वैसी ही प्रतिष्ठा करता हूँ। मगर बंबई या लखनऊ में जो कुछ बोला या विरोध किया, वह तो सिध्दांत की बात थी। विचारों का संघर्ष तो अच्छा है। उसके स्वागत के बजाए विचारों को कुचलने की यह चेष्टा बहुत ही बुरी है, आदि-आदि। लेकिन उसी के साथ मेरी आँखें भी खुल गईं।

लखनऊ में आनुपातिक प्रतिनिधित्व हटाने की जो कोशिश नेताओं की तरफ से की गई और वहाँ हारने पर भी जो कोशिश बराबर जारी रही, जब तक कि गत वर्ष बंबई में वे सफल न हो गए, उसने साफ बताया कि वे लोग असल में प्रगतिशील विचारों को कांग्रेस में देखना नहीं चाहते! उनसे उनके नेतृत्व और अस्तित्व के लिए खतरा मालूम हो रहा है! दिल्ली की आल इंडिया कांग्रेस कमिटी के बाद , जो सन 1937 के मार्च में हुई , तोगाँधीजी ने साफ ही लिख दिया कि कांग्रेस में एक राय और एक मत चाहिए। उसके बाद से तो यह 'एक ही खयाल और एक ही राय' वाली बात ऐतिहासिक बन गई है। इसी को लेकर त्रिपुरी में और उसके बाद बड़े-बड़े कांड हुए और श्री सुभाषचंद्र बोस के विरुध्द जेहाद बोला गया! इससे पता लगता है कि शुरू से ही अंधनुसरण तो नेता लोग चाहते ही थे और बिहार इसमें आगे था। मगर लोगों को शक न हो इसलिए आनुपातिक प्रतिनिधित्व दिया। लेकिन जब उसके करते खतरा नजर आया तो चट करवट बदली।