बेबी का लौटना / अशोक कुमार शुक्ला

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प्रेम एकाधिकार चाहता है
"बेबी तो बड़ा प्यारा नाम है"

इस वर्ष एक और प्रमुख घटना घटित हुयी जब छोटे भाई मनोज को भी स्कूल में दाखिला दिलाया गया ...बड़ा भाई होने के नाते हालांकि मेरे लिए यह गौरव का विषय होना चाहिए था परन्तु मुझे तो ईर्ष्या हुयी मनोज का नया बस्ता और किताबे देखकर...अब तक जो मनोज मेरा बस्ता और किताबे देखकर ललचाया करता था आज उसके पास भी अपना नया बस्ता हो गया था..पिताजी उसके लिए भी नयी पाठन सामग्री लाये थे....लिहाजा अब वह मेरी पुरानी पाठ्य पुस्तको के स्थान पर अपनी नई पुस्तको से प्रेम करने लगा...। प्रेम एकाधिकार चाहता है ... प्रेम को बांटते हुए देखकर मन विद्रोह करने पर आमादा हो जाता है...और ईर्ष्या का भाव प्रबल होने लगता है...बालमन में इसकी परिणति का स्वरूप भिन्न हो सकता है... मेरे साथ भी ऐसा ही हुआ ...मुझे ऐसा लगने लगा जैसे स्कूल जाना और वहाँ की उपलब्धियों पर माँ बाप को गौरवान्वित करने का अधिकार मुझ अकेले का ही है... छोटा होने के नाते स्कूल से लौटकर घर पहुचने पर मनोज को माँ से जो स्नेहिल आलिंगन मिलता वह मेरी ईर्ष्या का सबसे बड़ा कारण था...मुझे माँ के प्रेम में भी अब दो साझीदार नजर आने लगे थे .... स्कूल से लौटकर घर आने पर माँ जहां मुझे घी से चुपड़ी हुयी बासी रोटी और चाय देती वहीँ मनोज को वही रोटी दूध में भिगोकर देती.... ईर्ष्या का यह भाव क्षणिक ही होता था.... उधर दूध रोटी खतम और इधर ईर्ष्या का भाव भी समाप्त..मुझे अनमनस्क सा देखकर कई बार माँ ने समझाया की घी के साथ रोटी खाने से दिमाग तेज होता है इसीलिये वो मुझे घी से चुपड़ी हुए रोटी खिलाती है ताकि उनके "लल्ला" का दिमाग खूब तेज हो जाय। "फिर "छुनोल" को दूध वाली रोटी क्यों खिलाती हैं , घी से चुपड़ी हुयी रोटी क्यों नहीं खिलाती हैं..?" माँ इस स्वाभाविक प्रश्न का बड़ा ततार्किक उत्तर देती- "... क्योकि वो छोटा है ना.... अभी चाय नहीं पीता ना..." मैं माँ के उत्तर से कुछ संतुष्ट होता... कुछ नहीं, परन्तु मेरे मन में यह दृढ भावना लम्बे अरसे तक रही कि मनोज का गोरा होना चाय के स्थान पर दूध पीने के कारण ही है...इसके बाद हम दोनों अपना अपना बस्ता पटककर मोहल्ले के बच्चो के बीच खेलने चले जाते .... इस वर्ष कुछ उल्लेखनीय शैतानिया हम दोनों भाइयो ने साथ मिलकर करी जिनके बारे में चर्चा फिर कभी .. आज तो उस विशेष दिन की चर्चा करूंगा जब स्कूल से लौटने के बाद मुझे अपने ही घर में दाखिल होने से रोक दिया गया। दरअसल उस दिन मनोज मुझसे पहले ही स्कूल से लौट आया था और उसे हमारे मकान मालिक की बेटी "चेता" ने घर के बाहर ही रोक दिया । वह ऐसे घर के बाहर बैठकर चौकिदारी जैसी कर रही थी...उसने बताया कि उसकी और देबू की माँ के अतिरिक्त कुछ बुजुर्ग महिलाये अन्दर माँ के पास है और उन्होंने किसी को भी घर के अन्दर आने से रोका हुआ है। पिताजी कुछ दवा आदि लेने के लिए बाजार तक गए हैं। उस दिन स्कूल से लौटकर मिलनेवाली दूध और रोटी भी मनोज ने चेता के घर पर ही खाई थी। कुछ देर बाद चेता ने बताया कि हमारे घर में एक नया मेहमान आने वाला है...स्कूल से मेरे लौटने से पहले हमारी छोटी बहन "निधि" दुनिया में आ चुकी थी...चेता ने मनोज को बताया कि माँ उसके लिए छोटी बहन लेकर आयी है ... छोटी बहन यानी भुल्ली....जी हाँ गढ़वाली भाषा में छोटी बहन को भुल्ली ही कहा जाता था। मनोज के मन में बहन को देखने की उत्सुकता थी लेकिन माँ वाला कमरा मोहल्ले की बड़ी बुजुर्ग महिलाओं के कब्जे में होने के कारण वो माँ तक पहुंचकर उसे देख नही सका। छुट्टी में जब मैं घर पहुंचा घर के बाहर मनोज चेता और देबू आदि बच्चो के साथ बैठा था। मैं घर पर प्रवेश करता इससे पहले ही उसने उत्साह प्रदर्शित करते हुए चिल्लाकर कहा- "दद्दा जी हमारे घर छोटी भुल्ली आयी है" "क्या सच.." मैंने आश्चर्य और उत्साह से पूछा तो चेता और देबू ने पुष्टि करते हुए हामी भरी।अब मेरा मन भी अपनी छोटी भुल्ली को देखने के लिए मचल उठा..दौड़कर माँ के कमरे में जाने लगा तो कई आवाजो ने एक साथ रोक दिया - "नहीं रुको.. अभी नहीं जा सकते वहाँ..." मैं ठिठक गया ..मैंने देखा की माँ बिस्तर पर लेटी थी और उसका चेहरा थकान से भरा था उसके पास कपडे की छोटी पोटली जैसी कुछ रखी थी। मैंने माँ से पूछा - " माँ क्या सचमुच छोटी भुल्ली आयी है.." माँ ने सहमती में सिर हिलाया तो मैंने फिर कहा- "मैं वहाँ आ जाऊ उसे देखने..." "नहीं अभी नही" माँ ने इशारा किया और धीमी आवाज में कहा "फिर दिखाइये ना छोटी भुल्ली को.." मैंने पुनः आग्रह किया। अब माँ ने उस कपडे की पोटली में लिपटी छोटी बहन को अपने हाथों में उठा कर उस नन्ही जान का चेहरा मेरी तरफ कर दिया ..हम दोनों भाइयो ने पूरे मन से उस नन्ही जान का दर्शन किया ...स्वाभाविक रूप से हमारे मन में उसका नाम जानने की उत्सुकता थी। पिता जो माँ की दवाई लेने गए थे अब तक वो भी लौट कर आ चुके थे। उस दिन हम सबने शाम का खाना मकान मालिक के यहाँ ही खाया और सोने के लिए माँ से अलग दुसरे कमरे में पहुँच गए। दस बारह दिन इसी दैनिक चर्या में बीते इस दौरान प्रतिदिन सोते समय पिता के साथ चर्चा का मुख्य बिंदु नयी आयी बहन के नाम पर ही केन्द्रित रहता। पिता के लिए वह नवजात किसी निधि जैसे थी इसलिए उन्होंने "निधि" नाम सुझाया .तो माँ ने उस नवजात में प्रकाशित दीप की जैसी आभा देखी इसलिए उसका नाम "दीपा" रखने का इरादा किया। छोटे भाई मनोज ने तो गढ़वाली भाषा में छोटी बहन को दिया जाने वाला संबोधन "छोटी भुल्ली" कहा लेकिन मेरे मन की परियां तो कुछ माह पूर्व प्रभु ईशु के पास चली गयी बेबी से कई बार मिलवाकर लाई थीं इसलिए एक दिन मैंने पिता से पूछा - " क्या हम अपनी छोटी बहन का नाम बेबी नही रख सकते?" "हाँ ..हाँ ..क्यों नहीं कह सकते? बेबी तो बड़ा प्यारा नाम है..." पिता ने आश्वस्त किया...और उस दिन से पिता की "निधि" और माँ की "दीपा" हम सब की "बेबी" कहलाने लगी... मेरी बहन निधि का यह नाम इतना प्रचलित हुआ की आज जब वो दो बच्चो की माँ हो चुकी है तब भी हमारा पूरा परिवार उसे "बेबी" के नाम से ही पुकारता है।...