बेमियादी / हरीश बी. शर्मा

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सुजाता के लिए यह अप्रत्याशित नहीं था लेकिन फिर भी उसे लग रहा था कुछ गलत हो रहा है। उसने अपने आसपास नजरें घुमाकर देखा तो लगा कोई साथ नहीं था। हिम्मत जुटाकर थोड़ा पीछे देखा लेकिन दूर तो कोई नहीं थाँ दूर तक सन्नाटा पसरा था। सबकुछ वहीं पड़े थे जहां वह छोडक़र गई थी। पीपल का गट्टा, नाले का पुलिया और सडक़ के किनारे हमेशा बैठी रहने वाली चंदा। हर बार उसे चंदा ही दिखाई देती थी। एक सिहरन-सी होती थी, उसे देखकर। एक बार फिर उसने चंदा को देखा। चंदा उसे ही देख रही थी। उसे लगा चंदा के पास कोई और भी है लेकिन सुजाता ने भी ज्यादा गौर नहीं किया। चंदा की ओर देखकर मुस्काई और फिर अपने घर की ओर चल पड़ी।

अब तक सुजाता का डर गायब हो चुका था लेकिन चंदा उसके जेहन में फिर बैठ चुकी थी। वह बार-बार सोच रही थी कि नशेड़ी पति की वजह से चंदा पागल हुई या लोगों की नजरों ने उसे पागल कर दिया। सुजाता के साथ ऐसा हमेशा होता। दफ्तर और थिएटर में उसे किसी की याद नहीं आती। सब कुछ यंत्रवत चलता रहता। कब फाइलें निबटाती और कब रिर्हसल करने पहुंच जाती। पता ही नहीं चलता लेकिन जैसे ही घर लौटने लगती ऐसा लगता जैसे सबकुछ वापस बिखरने लगा है।

बचपन से वो चंदा को देखती आ रही थी। पहले डरती थी। कई बार मां ने उसका डर दिखाकर सुलाया भी था लेकिन अब सुजाता को उस पर दया आती। उन लोगों पर गुस्सा भी जिन्होनें चंदा को खिलवाड़ बना दिया लेकिन क्या कर सकती थी सुजाता। उसे अपने आधार का ही पता नहीं था। चंदा की जमीन कहां तलाशती लेकिन मम्मी की बातों से लगता था कि मोहल्ले में कुछ लोगों की पहचान हो चुकी है। मम्मी ने हिदायत दी थी कि फलां-फलां लोगों से ज्यादा बातचीत नहीं हो। मम्मी को वैसे तो कई शिकायतें थी लेकिन सीधे तौर पर शिकायत करने की बजाय वो कुछ जरूरी हिदायतें कहकर अपनी पसंद-नापसंद बता देती। फिर था भी कौन मम्मी के अलावा।

पता नहीं क्यों हर मां अपनी बेटी को लेकर अधिक सजग रहने की कोशिश करती है। कांच के प्याले की तरह संभाल कर रखने की कोशिश करती है। यह सोचते-सोचते सुजाता घर पहुंच गई। घंटी बजने के साथ ही घर का दरवाजा खुल गया। मानो मम्मी को बेल बजने का इंतजार ही था। ‘आ गई बेटा, बहुत देर कर दी, थोड़ा जल्दी आने की कोशिश किया कर।’

मां का यह रटे हुए वाक्य थे। सुजाता भी जानती थी कि इन वाक्यों के बीच थाली आ जाएगी। दोनों खाना खा लेंगे और सो जाएगें। यह दिनचर्या थी दोनों की। मम्मी का इस दुनिया में कोई नहीं था। रही बात सुजाता कि तो उसे दूर तक चलने वाला कोई नहीं मिला कभी। कभी पीछे नहीं रहने वाली। मिलनसारिता में सभी की दाद लेने वाली सुजाता इस मोर्चे पर कैसे विफल रह गई। वह कभी नहीं जान पाई। आनंद उसे फिर सताने लगा। चंदा और आनंद सुजाता के एकांत में दंश की तरह उभरते। घर आते समय चंदा उसे झकझोर देती और आनंद उसे सोने नहीं देता।

खाना खाने के बाद जैसे ही टहलने के लिए छत पर जाती। उसे एकबार आनंद की जरूर याद आती। आनंद कहा करता था हमारा आशियाना सबसे अलग होगा। आज भी जैसे ही सुजाता छत पर बनी कुर्सी के पास गई। आनंद ताजा हो गया। वह फिर कह रहा था कि हमारा आशियाना अलग होगा। सुजाता को फिर लगा कि यह सुनाकर कोई उसकी हंसी उड़ाने की कोशिश कर रहा है लेकिन कौन? आखिर कौन है वो। उसे लगने लगा कोई उसके संपूर्ण अस्तित्व की ही खिल्ली उड़ाने में लगा है। सिहरकर चारों ओर देखा लेकिन कोई नहीं था। उसे घबराहट-सी महसूस हुई। लगा जैसे कोई उसके साथ खेल रहा है लेकिन कौन खेल सकता है उसके साथ।

उसके सामने चंदा का चेहरा उभर आया। मम्मी के बताए मोहल्ले के लडक़ों के चेहरे दिखने लगे लेकिन इन सबका मुझसे क्या लेना। सोचते-सोचते सुजाता कुर्सी पर पैर लंबे करके बैठ गई। मम्मी ने बताया था उसे कि इस कुर्सी को दादाजी ने बड़े चाव से बनवाया था। शाम होते ही दादाजी और दादीजी यहां आकर बैठ जाते। घर-गृहस्थी, दुख-सुख की बातें करते थे। इसके बाद पापा-मम्मी यहां बैठने लगे और फिर आनंद आया तो सुजाता उसके साथ बैठन लगी। फर्क सिर्फ इतना था कि आनंद की अहमियत दादा-दादी या पापा-मम्मी जैसी नहीं थी। वह सिर्फ सुजाता को दोस्त था जिसे गंभीरता में घर में किसी ने भी नहीं लेना चाहा लेकिन दोनो बड़े गंभीर थे। आनंद कहा करता था सुजाता हम एक अपना आशियाना बनवाएगें लेकिन यह सब धरा रह गया। एक बार आनंद क्या रूठा कभी नहीं आया। उसका रूठना भी बड़ा अजीब रहा। कभी लगा ही नहीं कि आनंद से कुछ अलग है। कभी भी दिया था कि सब तुम्हारा है। एक दिन आनंद मांग बैठा वह सब। सुजाता हां नहीं कर पाई। नहीं आनंद यह ठीक नहीं होगा। शायद ना सुनने की आनंद को उम्मीद नहीं थी। उसने नाटक करने का आरोप लगा दिया। वह समझाना चाहती थी आनंद को लेकिन आनंद के अपने सच और अपनी कसौटियां थीं। सुजाता पहले ही दौर में झूठी साबित हो चुकी थी। इसके बाद दोनों के पास कहने-सुनने के लिए कुछ भी नहीं बचा।

सुजाता ने भी इसका शिकवा नहीं किया। बस इतना सोच लिया अब न तो आनंद और न कोई और। पुरूष के बगैर भी स्त्री जिंदा रह सकती है। यह खुद से जिद थी या आनंद के सिवा किसी से भी प्यार नहीं कर पाने का डर। सुजाता ने कभी पीछे मुडक़र भी नहीं देखा। बस जब अकेले में होती तो इसी गुणा-भाग में जरूर लग जाती कि उसने क्या पाया और कितना खो दिया। लेकिन उसे कभी भी जवाब नहीं मिल पाया। घर खाने लगा था। इसलिए घर से कटी-कटी रहती। दफ्तर के बाद के समय में किसी न किसी रिर्हसल में खुद को उलझाए रखती ताकि घर जल्दी नहीं जाना पड़े । मम्मी के चाहने पर भी घर के कामकाज में हाथ नहीं बंटाती। उसे लगता हर मां अपनी बेटी को पराए घर भेजने की तैयारी में ही घर के कामकाज सिखाती है। बचपन में बैठी यह बात अब तक जम गई थी। इससे मां को तकलीफ जरूर होती थी लेकिन अब उन्हें भी समझ में आ गया था।

लेकिन मम्मी को बूढ़ा होते देखना उसके लिए एक दूसरे अनुभव से गुजरने जैसा था। हो सकता है कल ये भी नहीं रहे फिर क्या होगा। उसे डर लगता। ऐसा महसूस होता कि चंदा धीरे-धीरे उसमें प्रविष्ट होने लगी है। वह चाहती उसे दूर हटा दे लेकिन उसके प्रति सहानुभूति उसे गले लगा लेने के लिए कहती। चिल्लाना चाहती थी सुजाता लेकिन घुट कर रह जाती। शायद हर रात नींद आने से पहले इन्हीं यंत्रणाओं के दौर से गुजरना था। उसे लगता था कि ये यंत्रणा बे-मियादी है। कभी खत्म नहीं होने वाली।

क्या इसकी एकमात्र वजह यही है कि उसने आनंद को मना कर दिया। क्या पुरूष होने का दंभ इतना बड़ा होता है। सुजाता के लिए यह मानना हर बार कठिन होता लेकिन सच से वह मुंह छुपा नहीं सकती थी।
स्त्री होने की पीड़ा ने उसे अंदर तक तोड़ कर रख दिया था। मम्मी के बूढ़े होने और चंदा के खुली-खुली आंखों से देखने के बाद यह टूटन और गहरी होती जाती। उसे लगता यह जीवन नाटक क्यों नहीं हो जाता। जैसा मंच पर करते हैं, वैसा सबकुछ जीवन में क्यों नहीं होता। अगर ऐसा नहीं होता तो फिर जीवन को नाटक और नाटक को जीवन क्यों कहा जाता है।

नहीं-नहीं नाटक नहीं है जीवन। जीवन कुछ और है, जिसके लिए सिर्फ खुद को खपा देना भर काफ नहीं। इसके लिए आपको समाज की मान्यताओं को मानना पड़ता है। ऐसा नहीं करने पर आपको डराया जाता है। धमकाया जाता है। एक दिन ऐसा आता है कि अपने आप से डर लगने लगता हैं। समाज खुश होता है। इसलिए क्योंकि आपको भयभीत करने के लिए वह सफल हो चुका है।

यह सोचते-सोचते ही सुजाता को नींद आ गई। उसके लिए अब ज्यादा कुछ बचा भी नहीं था लेकिन बहुत कुछ बाकी था जिसे उसे सहेजना था, सहेजे रखना था। इसे सहेजने का ही तो जतन कर रही थी वो। इन विचारों में खोई सुजाता सोई तो सुबह मोहल्ले में चीख-पुकार हो-हल्ले के बाद उसकी नींद खुली। मम्मी दूसरी औरतों के बीच साड़ी से मुंह ढंापे खड़ी थी। मुझे बाहर आता देख खुद ही अंदर की ओर दौड़ते हुए बोली, चल-चल अंदर चलते हैं। गजब हो गया। मैंने बताया था ना चंदा। हां, हां, क्या हुआ चंदा को। मम्मी बोली यह तो पता नहीं लेकिन कल रात चंदा की तबीयत खराब हो जाने पर कुछ लोग उसे अस्पताल छोड़ आए थे। सुबह कुछ लोग आए और उन्होनें बताया कि चंदा को कोई बड़ी बीमारी लग गई है। कहते हैं कोई छूत की बीमारी। चंदा ने अपनी बीमारी दूजों को भी दे दी है। उसके बाद से मोहल्ले में यही हाल है। मम्मी ने आवाज दबाते हुए समझाया जैसे ही चंदा की बीमारी का पता चला पिछली गली का सोहन फंदे से लटक गया और सामने वाली जीवण ने दवाइयां खा ली। सोहन के तो बच्चे ही अनाथ हो गए। जीवण भी कह रहा है नहीं जीना। मुझे तो लगता है दो-चार और मरेंगे। नासपीटों ने बेचारी को कहीं का नहीं छोड़ा था। परमात्मा ने न्याय कर दिया। यह कहते हुए मम्मी के हाथ ऊपर की ओर उठ गए।

सुजाता के आगे एक-एक करके कई दृश्य उभर गए। चंदा उसे फिर याद आने लगी। चंदा के साथ ऐसा नहीं होना चाहीए था। लेकिन क्या किया जा सकता है। खुद को संयत करते हुए बोली जो हुआ वह अच्छा नहीं हुआ लेकिन ठीक ही हुआ, अब आपको अपनी बेटी के लिए चिंता नहीं करने पड़ेगी। अब आपकी बेटी घर पर बेखौफ आ सकेगी। चलो आज मैं आपको चाय पिलाती हूं। मां की बूढ़ी आंखें बेटी की बात को बहुत ज्यादा नहीं समझ पाई लेकिन उसके लिए इतना ही काफी था कि सुजाता चाय बना रही है।