बेस्‍ट वर्कर / अमरीक सिंह दीप / पृष्ठ 2

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शीरीं ने सुवास की आंखों में मुद्रित कविता शायद पढ़ ली,

‘वसु, ज़िंदगी बड़ी मुन्‍सिफ है. वह इंसान से बीज भर छीनती है तो उसे वृक्ष भर लौटा भी देती है.

बचपन में ज़िंदगी ने मुझसे इतना कुछ छीन लिया था कि मैं कंगली-सी होकर रह गई थी ... मां से पिताजी का अलगाव. अलगाव के बाद घर का एक पुरुष की छाया तक के लिए तरस जाता. मां का रात को टूटी हुई नींद में अपने बिस्‍तर पर बिछी किरचों से लहूलुहान होना और दिन में एक कड़क तानाशाह वाला रूप अख्तियार कर लेना. कई बार मैंने उन्‍हें अपनी तन्‍हाइयों में फिल्‍म ‘शगुन' का यह गाना गाते सुना था, ‘ज़िंदगी जुल्‍म सही, जब्र सही, ग़म ही सही, दिल की फरियाद सही, रूह का मातम ही सही ... ' मुझे मां की उस तन्‍हाई से बड़ा डर लगने लगा था.

शुक्र है, ज़िंदगी ने जो, मां से छीना था उसे सूद-ब्‍याज समेत उसकी बेटी को लौटा दिया है. आज मैं खुद को दुनिया की सबसे अमीर औरतों में शुमार करती हूं. मेरे पास प्रत्‍यूष जैसा पति है, तुम जैसा शानदार दोस्‍त है और योगेश जैसा ... ' शीरीं की जुबान की लगाम जैसे उसके अंदर के सवार ने खींच ली हो.

अचानक वह सुवास पर बिल्‍ली की तरह झपटी, ‘बहुत दुष्‍ट हो तुम ... कुछ भी व्‍यक्‍तिगत नहीं रहने देना चाहते हो मेरा. निर्मल वर्मा ने ठीक ही कहा है कि लेखक आदमी की आत्‍मा का जासूस होता है.' पीठ पर पड़े घूंसों को प्रसाद की तरह ग्रहण कर सुवास कुछ देर गंभीर मौन धारण किए सोचता रहा ... कौन है योगेश? शीरीं की सुख सम्‍पदा का एक सुदृढ़ स्‍तंभ.

इस शहर में शीरीं को आए मुश्‍किल से छह महीने ही तो हुए हैं. उसकी एक बड़ी साहित्‍यिक पत्रिाका में छपी कहानी को पढ़कर व कहानी के साथ प्रकाशित उसका पता देखकर अपनी साहित्‍यिक तृषा से त्रस्‍त शीरीं खोजती हुई उसके घर आई थी. फिलवक़्‍त इस शहर में वही इकलौता मित्र है उसका. फिर ... शायद उसका देहरादून के दिनों का साथी हो. पर ... क्‍या कमी है प्रत्‍यूष में? उसकी आंखों के आगे प्रत्‍यूष का चेहरा घूम गया ... बर्थ डे केक-सा भरा हुआ गोल क्रीमी चेहरा. हँसती हुई आंखें. लॉलीपॉप के होंठ. उसने कभी भी प्रत्‍यूष को गुस्‍से से भरा हुआ नहीं देखा. बच्‍चों की धमाचौकड़ी और धीगामुश्‍ती से आज़िज आकर जब शीरीं उसे बच्‍चों को डांटने के लिए कहेगी तो वह उन्‍हें यूं डांटेगा जैसे लोरी दे रहा हो.

शीरीं पर वह यूं सौ जान फ़िदा रहता है जैसे शीरीं उसकी नहीं किसी दूसरे की पत्‍नी हो. शीरीं जानती है, उसकी खुशी के लिए प्रत्‍युष आग में भी कूद सकता है। दोनों ने पांच वर्ष तक जुनून की हद तक इश्‍क करने के बाद प्रेम विवाह किया है. फिर ... आख़िर उसका गंभीर मौन टूटा. वह दुखी स्‍वर में बोला, ‘सॉरी ... ' शीरीं ने दो मुक्‍के और उसकी पीठ पर जड़ दिए, ‘शर्म नहीं आती सॉरी कहते हुए. दोस्‍त होने का दावा करते हो और यह भी नहीं जानते कि ‘सॉरी' शब्‍द दोस्‍ती का दुश्‍मन है. खैर यार, लीव इट. दरअसल दोस्‍त और हमाम में कोई विशेष फर्क नहीं होता. दोनों में ही अपने सारे आवरण उतार कर, अपना सारा गर्द गुबार बहाकर, पवित्र होकर निकलता है आदमी.

इसलिए अब अपने हमाम से पर्दादारी कैसी?' क्रुद्ध बिल्‍ली धरती के सीने में पलने वाले शुभ्र श्‍वेत खरगोश में बदल गई, ‘तुम तो जानते ही हो, आदमी में कई प्रकार की भूखें होती हैं. कुछ लोग अपनी बाक़ी भूखों की अनदेखी कर पेट और जिस्‍म की भूख में ही मस्‍त रहते हैं. कुछ मेरे तुम्‍हारे जैसे भी हैं जो अपने दिल और दिमाग की भूख की अनदेखी नहीं कर पाते. बल्‍कि सच तो यह है कि ऐसी प्रजाति के लोगों के लिए दिल और दिमाग की भूख ही अहम होती है. बस यह समझ लो कि योगेश मेरे दिल और दिमाग की भूख का निमित्त है.

उससे मिलने के बाद मुझे यह बात बड़ी शिद्दत से महसूस हुई कि मैं किसी इंसान की नहीं वृक्ष की संतान हूं. वृक्ष की शाख पर पहले मैं फूल बनकर खिली हूं, फिर मेरे फूलपन ने फल की शक्‍ल अिख्‍़तयार कर ली है. बारिशें मुझे नहलाती हैं. हवाएं मेरी खुशबू को अखिल ब्रह्मांड में बिखेर रही हैं. धूप की ममतामयी उष्‍मा में मैं पक रही हूं. मेरे रोम-रोम, रेशे-रेशे में मिठास भरती जा रही है.

क्‍यों हुआ ऐसा, खूब-खूब माथापच्‍ची के बावजूद मैं यह समझ नहीं पा रही?' शीरीं की आंखों में पनीली थरथराहट कांपने लगी. उसके भीतर कोई तूफान ज्‍वार पर है. सुवास ने उठकर शीरीं का सिर अपने सीने में समेट लिया. डरी हुई बच्‍ची की तरह वह उसके सीने में दुबक गई ... पिछले तीन, साढ़े तीन महीनों में शीरीं की बातों में अमूर्त ढंग से जिक्र आता रहा है उसके भीतर के आसमान पर उग आए इस सूरज का. उसकी नज़्‍मों में दर्द की जो परछाइयां चिलकती हैं, उनका मुहान्‍दरा हूबहू योगेश की छवि से मिलता है. पागल है यह लड़की. जानबूझकर अपने मनपसंद व्‍यक्‍ति के साथ बुल फाइटिंग वाला खेल खेलना शुरू कर देती है.

चंद मुलाकातों में ही इतनी अनौपचारिक हो जाती है कि सामने वाले के आगे अपने जीवन की किताब का एक-एक वर्क खोलकर रख देती है. सामने वाला असंपृक्‍त नहीं रह पाता और शीरीं को पढ़ते-पढ़ते खुद उसके जीवन की किताब एक अध्‍याय होकर रह जाती है.

सुवास ने खुद को शीरीं के जीवन की किताब का अध्‍याय न होने देने के लिए तीन दिन पहले अपनी आत्‍मा को हाजिर- नाजिर जानकर यह संकल्‍प लिया था कि इस लड़की की बुल फाइटिंग का शिकार नहीं बनना है उसे. इसलिए मुलाक़ातों का सिलसिला यहीं ठप्‍प. उसे उसकी कलम की कसम, आइन्‍दा वह कभी शीरीं से नहीं मिलेगा ... तीन दिन तक काई जमे पत्‍थर पर उसका संकल्‍प पैर जमाए खड़ा रहा था. चौथे दिन अर्थात आज शाम शीरीं खुद उसके घर आ धमकी थी. आते ही कमर पर हाथ रखकर बनैली बिल्‍ली की तरह गुर्राने लगी थी, ‘तीन दिन तक कहां थे तुम? ... घर क्‍यों नहीं आए?'

सुवास सिटपिटा गया था, ‘तुम कोई पाठशाला हो, जहां हाजिरी लगवाना जरूरी हो?' शीरीं उसके साथ चलते हुए हमेशा छोटी बच्‍ची हो जाया करती है. वह सड़क पार करते वक़्‍त हमेशा उसकी बांह थाम लिया करती है और भीड़-भाड़ में उसके कंध्‍ो पर हाथ रखकर चलेगी. इतनी बेबाक और दिलेर होने के बावजूद उसके अवचेतन में अब भी एक डरावनापन विद्यमान है. शायद बचपन में पिता की छत्रछाया से वंचित रह जाने के कारण यह डरावनापन उसमें घर कर गया है.

जो भी हो लेकिन यह सच है कि शीरीं का यूं बांह थामकर चलना सुवास को अच्‍छा लगता है, उसमें आत्‍मीय ऊष्‍मा का संचार करता है.

‘बेशक वो तो मैं हूं ही ... इतना याद रखना स्‍कूल से गुठली मारने वाले नालायक विद्यार्थियों से मैं बड़ी सख्‍़ती से पेश आती हूं.' शीरीं के कहने का अंदाज़ इतना नाटकीय लेकिन प्रभावशाली था कि बेसाख्‍ता हँसी फूट निकली थी सुवास के होंठों से? और उसका कलम की कसम उठाकर लिया संकल्‍प धराशायी हो गया था. शीरीं का ज़िंदगी जीने का अंदाज़ इतना बेखौफ और बेबाक़ी भरा है कि ज़िंदगी भी सौ जान फिदा रहती है उस पर. वह पहाड़ पर होने वाली तेज बारिश की तरह है ... तेजी से आना और सबकुछ भिगोकर निकल जाना.

यूं उसका आयताकार चेहरा सुंदरता के प्रचलित प्रतिमानों के अनुरूप नहीं है लेकिन उसके होंठों व उसकी बेहद बातूनी आंखों में ग़जब़ का आकर्षण है. उसकी बड़ी-बड़ी आंखों की काली पुतलियां गुनगुनाते हुए भौरों जैसी हैं और पुतलियों के पीछे की सफेद पृष्‍ठभूमि खिले हुए चम्‍पा के फूलों जैसी. उसके शर्बती शहतूतों से लंबे मोटे होठों के मध्‍य दांतों की दोनों लड़ियां कतारबद्ध नक्षत्रों जैसी हैं. नाक न बहुत लंबी, न तीखी लेकिन चेहरे पर उसका होना पूरी सार्थकता के साथ दर्ज है. आंखों और होठों के बाद उसकी घनी धनुषाकार भौहें, जो कि देवी दुर्गा के मुखौटे पर बनी भौहों जैसी हैं, तेजी से सामने वाले का ध्‍यान अपनी ओर खींचती है. यूं उसके नैन-नक्‍श दक्षिण भारतीय लगते हैं पर उसका गोरेपन की हदों को छूता गंदुमी रंग उसके पंजाबी होने की चुगली कर देता है.

पंजाबी होने के कारण एक्‍स्‍ट्रीम में जीना उसकी फितरत है. उसका स्‍पष्‍ट कहना है कि न मैं मिडियाकर ज़िंदगी जी सकती हूं और न ही मिडियाकर लेखन कर सकती हूं. थोड़ी-सी चुहुल-चिकोटियां लेने के बाद शीरीं उसकी किताबों वाली अल्‍मारी खोलकर बैठ गई थी. आधे घंटे तक शीरीं सुवास की शीशेवाली लोहे की अल्‍मारी में सिर घुसाये अपनी मनपसंद पुस्‍तकें तलाशने में तल्‍लीन रही. आख़िर सिरतोड़ मेहनत के बाद वह इस्‍मत चुगताई, मण्‍टो व अमृता प्रीतम की लगभग आधा दर्जन पुस्‍तकें अपने लिए छांटकर किताबों की दुनिया से बाहर निकली थी. किताबों के मामले में हद दर्जे की लापरवाह थी वह. किताबें पढ़ने का उसे शौक तो था पर उन्‍हें इश्‍क की हद तक प्‍यार करना और प्रेमिका की तरह उनकी सार संभाल करना यह उससे नहीं होता था. खुद कहती थी वह, ‘किताबों के मामले में मैं देहरादून के दोस्‍तों के बीच खासी बदनाम थी. अक्‍सर दोस्‍तों के द्वारा मुझे दी गई किताबें या तो खो जाया करती थीं या किसी दूसरे के घर बरामद होती थीं.'

उसकी इस स्‍पष्‍टबयानी के बावजूद अभी तक सुवास ने उसे किताबों के लिए मना नहीं किया था. बस प्‍यार से इतना ही कहा था कि ‘किताबों का तुम अगर आदर करोगी तो किताबें भी तुम्‍हें आदर प्रदान करेंगी.' किताबें छांट लेने के बाद सुवास ने सोचा था कि अब शीरीं या तो उसे अपनी किसी नई नज़्‍म का श्रोता बनाएगी या फिर अपनी बातों का रंगला चरखा लेकर बैठ जाएगी. बातों का अक्षय भंडार था उसके पास. जैसे जादूगर अपने ‘हैट से कभी कबूतरों का जोड़ा, कभी खरगोश, कभी रंगीन रिबन, कभी फूलों के गुच्‍छे तो कभी चाकलेट व टाफियां निकालता चला जाता है वैसे ही शीरीं भी बातों से बातों के जादूई किस्‍से निकालती चली जाती थी.

उसकी इस खसूसियत के कारण ही सुवास ने उसका नाम चैटर बॉक्‍स रख दिया था. लेकिन आज चैटर बॉक्‍स किसी दूसरे ही मूड में था. हुआ यह था कि किताबों के संधान के बाद वह सुवास की आडियो कैसटों वाली लकड़ी की छोटी अल्‍मारी खोल कर बैठ गई थी. उसकी नज़र अल्‍लारक्‍खा और ज़ाकिर हुसैन के तबले, हरी प्रसाद चौरसिया की बांसुरी, सावरी खान की सारंगी, शिव कुमार शर्मा के संतूर के कैसेटों से फिसलती हुई बेगम अख्‍़तर की ग़ज़लों वाले कैसेट के पास जाकर ठिठक गई थी. शीरीं की आंखें चमक उठी थीं. जैसे उसकी तलाश को मंज़िल मिल गई हो. या कि उसकी आत्‍मा को उसका अभिष्‍ट मिल गया हो. अल्‍मारी से कैसेट निकाल उसने टेपरिकार्डर के हवाले कर दिया था और खुद पलंग पर आलथी-पालथी मारकर बैठ गई थी.

जैसे ही टेपरिकॉर्डर से उसकी मनपसंद ग़ज़ल बजनी शुरू हुई थी वह बेगम अख्‍़तर की सोज भरी आवाज़ के साथ सुर में सुर मिला खुद भी तन्‍मय होकर गाने लगी थी दृ ‘अपनों के सितम हमसे बताए नहीं जाते, ये हादसे वो हैं जो सुनाए नहीं जाते. कुछ कम ही तआल्‍लुक है मोहब्‍बत का जुनूं से, दीवाने तो होते हैं बनाए नहीं जाते ... ' गाते-गाते वह गहरे में गर्क हो गई थी. बेगम अख्‍़तर की आवाज़ का दर्द उसके चेहरे पर उतर आया था, पलकों पर झिलमिलाने लगा था.

सुवास हैरान ... कैसी अजब गजब है यह लड़की? अपनी राह चले जा रहे दर्द के साथ जानबूझकर छेड़खानी कर उसे अपने गले मढ़ लेगी. उसकी इस आदत के लिए एक बार जब उसने टोका था तो उसने अपनी बिंदास हँसी के सारे मोती उसके सामने बिखेर दिए थे, ‘मैं हर काम डूबकर करना पसंद करती हूं. डूबकर किए गए काम से ही मोती हासिल होते हैं. बेमन से किए गए काम से कभी कोई उपलब्‍धि हासिल नहीं होती.' डूबकर संगीत की सीप से मोती हासिल करने के बाद वह किचन में जा घुसी थी और आधे घंटे बाद चावलों में, जितनी भी सब्‍जियां उसे किचेन में मिली थीं, डालकर उनकी तहरी बना लाई थी. तहरी भी उसने डूबकर बनाई थी इसलिए खासी स्‍वादिष्‍ट थी. अगला भाग >>