बैराग के खाते में / संतोष श्रीवास्तव

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

वक़्त जैसे घर की दीवारों के दरमियान रुका हुआ था बरसों से... जो वर्तमान था वह गुज़र कर अतीत बन चुका था। आज वर्तमान ने अतीत को कुरेदने की कोशिश की है। स्वामी जगदम्बानाथ गाँव आये हैं। जो अब गाँव नहीं रहा बल्कि मेट्रोसिटी से जुड़कर एक उपनगर बन गया है। लेकिन मालती के लिए वह अब भी गाँव है और स्वामी जगदम्बानाथकेवल जगदंबा।

स्वामीजगदंबानाथगाँव आये हैं। मालती की सखी द्वारा दी इस ख़बर ने मालती के घर के कोने-कोने को यह बात जतला दी है... लंबी बीमारी झेलती खाट पर लेटीमाई ने भी गरदन उठाकर पूछा-"क्या? जगदंबा आया है?"

मालतीआटा माँड चुकी थी और नल के नीचे हाथ धो रही थी। चूड़ियाँपानीकी धार संग मद्धम लय में बज रही थी। माई की बात का जवाब न दे उसने आँच पर उबलते काढ़े को कप में छाना, एक चम्मच शहद घोला और अपने कमरे में बुखार से कँपकँपाते बद्री के हाथ में कप थमाया। वहाँ से भी वही सवाल-"भौजी, क्या बड़े भैया आये हैं?"

उसने उचटती-सी नज़र बद्री पर डाली-"आये हैं तो क्या करें? अब उनका आना हमारे लिए क्या मतलब रखता है?" बद्री ने मालती की भरी-भरी-सी मगर उलाहना भरी आवाज़ सुनी चुपचाप काढ़ा पीकर कंबल सिर पर तान लिया। बद्री के कमरे के दरवाज़े को बंद कर मालती चौके में आ गई। इस वक़्त वह अंतर्द्वंद्वकी मुश्किल हालत से गुज़र रही थी। एक तरफ़ उसका मन जगदंबा की ओर खिंच रहा था... कि दौड़ी हुई जाये और गले से लग फूट-फूट कर रो पड़े, तपन भरे बरसों काएक-एक लम्हाबयान करे जो उसके बग़ैर उसने गुज़ारा है तमाम उठते सवालों को उँडेल दे उसके सामने और पूछे कि क्यों किया ऐसा? वह कौन-सी वज़ह थी जोगृहस्थीसेबैराग की ओर खींच ले गई? क्या मैं तुम्हारी कसौटी में खरी नहीं उतरी? क्या दोनों बच्चों के मोह ने तुम्हें नहीं रोका? क्या माई की ममता तुम्हें नहीं बाँध पाई?

फिर ब्याह? क्या मायने ब्याह के? जगदंबा कहते थे कि 'अतीत ख़ुद को दोहराता है... सिद्धार्थ ने भी तो राजमहल का, पत्नीका, बच्चे का मोह, लोभत्यागाथा...' कुछ पाने के लिए कुछ खोना तो पड़ता है न... 'क्या पाया तुमने जगदंबा? मैं सुनना चाहती हूँ...' मालतीका मन सवाल जवाब के कठघरे में अभियोगी-सा छटपटा रहा था। उसके हाथ मशीन की तरह चल रहे थे... बद्री और माई का पथ्य का भोजन थालियों में परोस वह उनके कमरे में रख आई थी। बद्री का बुखार भी थर्मामीटर से नाप लिया था और दवा भी दे दी थी। देवरानी अपने तीनों बच्चों सहित मायके में अपनी बहन की शादी में गई थी। कल परसों में लौट आयेगी। शायद कल ही आ जाये। जगदंबा के गाँव आने की ख़बर उसे लग ही गई होगी।

दो निवाले जैसे तैसे गले से नीचे उतार वह अनमनी सीपलँग पर आकर लेट गई। यह पलँग उसकी शादी का है। शीशम का नक्काशीदार सुंदर पलंग। उन दिनों इस पर रेशमी चादर का बिछावन होता था। मालती भी गहनों से लकदक पायल छनकाती पूरे घर में डोलती रहती। एक ज़िम्मेदार बहू बन उसने अपना संसार अपने नज़दीक समेट लिया था। वे दिन थे जब हर साँस रूमानियत के सदके थी... जब हर लम्हा प्यार की ख़ुशबू से लबरेज़ था। पतझड़ के दिनों में हवा में उड़ते पीले पत्ते की तरह हलकी हो वह भी अपने मन के आकाश में तैर रही थी... सुनहले सपनों ने उसकी इच्छाओं के दरवाज़ों पर दस्तक देनी शुरू कर दी थी लेकिन जगदंबा इस सब में लिप्त नहीं होपाया... उसके शब्दों में, कामों में, एहसासों में कहीं मालती न थी, कहीं घर के प्रति कोई फ़र्ज़ न था... बापू के क्रॉकरी केव्यापार में हाथ बँटाने की उसे परवाह न थी। बद्री और इंदर जगदंबा सेछोटे होने के बावजूद अपने फ़र्ज बखूबी निभा रहे थे। फिर एक दिन इंदर को जाने क्या सूझी, ऐलान कर दिया कि वह फ़ौज में जाएगा। घर में बवाल मच गया। बापू ने अन्न त्याग की धमकी दी थी। माई भी समझा-समझा कर हार गई थी पर इंदर पर तो जैसे जूनून हीचढ़ गया था। जिस दिनउसका फ़ौज में चुनाव हुआ और वह ट्रेनिंग के लिए जाने लगा बापू ने हथियार डाल दिए "ठीक है बेटा... जाओ, सदा देश का नाम रोशन करो। मैंने अपना एक बेटा देश को दिया, देश के प्रति फर्जनिभाया।"

माई मंदिर से लौटी थी। इंदर को प्रसाद खिलाते, माथे पर तिलक करते उसके आँसू उमड़ आये थे। वह इंदर के चौड़े सीने पर सिर रखकर फूट-फूटकर रो पड़ी थी।

उस रात घरमें ऐसा सन्नाटा पसरा था कि जुगनुओं के पंखों की किर-किर आवाज़ भी साफ़ सुनाई दे रही थी। मालती गर्भवती थी और जगदंबा गंगोत्री, गोमुख की गुफाओं में साधुओं की संगतके सपनों में डूबा था... मालती का मन तड़प रहा था कि काश जगदंबा उसे बाँहों में भरकर बाप बनने की ख़ुशी प्रगट करे। उसके पेट पर कान लगाकर अपने होने वाले बच्चे की धड़कनें सुने, उसे उपहारों से लाद दे... पर ऐया कुछ नहीं हुआ और गुरूवार की मध्यरात्रि उसने बेटी को जन्म दिया। घर भर में ख़ुशी का जन्म हुआ था। माई, बापू की मुस्कान दाबेनहीं दब रही थी। जश्न मना, शहनाई बजी और भोज ऐसा कि सब देखते ही रह गये। इंदर को बापू ने जैसे-तैसेख़बर तो भिजवाई थी पर उसे छुट्टी नहीं मिल पाई थी। फोनकरने में भी पाबंदी थी सो उसका लिखा पोस्टकार्ड दस दिन बाद आया-"बधाई भैया भौजी... मेरी मुनिया का क्या नाम रखा? नहीं, नाम तो उसका इंदर चाचा रखेगा... पीहू... पीहू नाम में ग़ज़ब का आकर्षण है... है नभौजी।"

लेकिन पीहू का आकर्षण जगदंबा के मन को क्यों नहीं बाँध पा रहा है? क्यों उसका मन गृहस्थी से उचाट है?

माई ने नहला धुलाकर पीहू को उसकी गोद में दूध पिलाने को लेटाया तो वह माई से पूछ बैठी-" आपने अपने बेटे के लिए मुझे क्यों पसंद किया? क्यों उन्हें गृहस्थी में घसीटा जबकि उनका मन कहीं और है?

माई बेचैन हो उठीं-"क्या कह रही हो बहू... क्या मेरा जगदंबा आवारा है? क्या उसकी ज़िंदग़ी में कोई और औरत है?"

काश, ऐसा होता, मालती ने मन-ही-मन सोचा-"ऐसा होता तो वह जगदंबा पर बेवफाई का इल्ज़ाम लगा सब्र कर लेती, पर... किसे दोष दे? अपनी नियति को या माई की कोख को? सच-सच बताना माई... जगदंबा को कोख में पालते कहाँ चूक हो गई क्योंकि बद्री भैया और इंदर भैया तो ऐसे नहीं। कितने चंचल हैं दोनों, बद्री भैया तो शादी के बाद देवरानी को कश्मीर हनीमून के लिए ले गये थे। उसने तो घर की दहलीज़ तक नहीं लाँघी। बस मायके और ससुराल का ही फेरा लगता रहा। मायके से भी अक़्सरबद्री भैया ही लिवा लाते। मालती के भाई बहनों के जीजा को छेड़ने के मन्सूबे धरे के धरे रह जाते। उसके हाथों में मेंहदी लगाती मँझली बहन पूछती भी-" जिज्जी, तं खुश तो हो न। "

वह बनावटी मुस्कुराहट चेहरे पर ले आती... हाँ में सिर हिलाती। जानती थी किअगर होठों पर मन की पीड़ा लायेगी तो बात अम्मा बाबूजी तक पहुँचेगी और वह उन्हें दुःख देना नहीं चाहती। औरतकी यही तो त्रासदी है... ज़ब्त की इंतिहा है वो... ज़रा-सा कुरेदो तो उसके मन की पीड़ा के परनाले फूट पड़ेंगे। मालती अपने भीतर उन सारे सवालों को टटोलकर एक तरफ़ रखतीजाती है जिनके जवाब सिर्फ़ जगदंबा दे सकता है पर जगदंबा औरत की देह तो चाहता है बाक़ी सब बैराग के ख़ाते में? बस इसी एक सवाल का जवाब उसे चाहिए... ताकि देह से मन का सफ़र काँटों भरा न हो पर जगदंबा के मन के बंद दरवाज़ों की बारीक झिर्रियों से वह झाँके भी तो कैसे? दरवाजे भीतर से बंद, सख़्त और मुश्किल थे और उन्हेंबाहर से अंदरकी ओर खोलना था... जगदंबा के व्यक्तित्व को समझना बहुत उलझाव भरा, रहस्यमय और पेचीदा काम था। वह अपनी झील-सी गहरी आँखों, खूबसूरत मुखड़े... बहुत ही मुलायम मीठी आवाज़ के बावजूद जगह क्यों नहीं बना पा रही थी उसके मन में? दस्तक दे-देकर थक चुकी थी वह उन बंद दरवाज़ों पे... न जाने मेनका ने विश्वामित्र का तप कैसे भंग किया होगा?

जिस दिन संजय का जन्म हुआ जगदंबा घर पर नहीं था बल्कि वह तो सारी रात बाहर ही रहा। माई बापू परेशान... घर के नौकर रजुआ को ढूँढने भेजा... अनिष्ट की आशंका से मालती का चेहरा पीला नज़र आरहा था। वैसे भी संजय का जन्म बहुत पीड़ा के बाद हुआ था। बापू ने दो-दो डॉक्टर बुला ली थीं। दाई अलग... जब-जब दर्द की हिलोर उठती मालती की आँखों के सामने फूटती चिनगारियों के बीच जगदंबा का चेहरा मुस्कुराता... मानो अपनी निगाहों से उसके दर्द पर ठंडा फाहा रख रहा हो।

रजुआ के साथ जिस समय जगदंबा लौटा बापू भारी तनाव में बरामदे में तेज़ी से चहलक़दमी कर रहे थे। उसे देखते ही ठहरे-"अब आ रहे हैं बरखुरदार! पत्नी प्रसव पीड़ा झेल रही है और आपको यार दोस्तों से फुरसत नहीं।"

फिर उसका केशरियाबाना और ललाट पर भभूति देख चौंके-"ये बहरूपिया बन कर कहाँ से आ रहे हो? कहीं नौटंकी की थी क्या?"

जगदंबाबिना जवाब दिये अंदर चला गया। थोड़ी देर बाद ही माई अंदर से चीख़ी-"अरे, जगदंबा के बापू... तुम्हारा बेटा जोग धारण कर रहा है। कहता है आजही साधुओं के संग हिमालय चला जाएगा।"

बापू तेज़ी से अंदर गये और कोने से डंडा उठा जगदंबा पर तान दिया-"खूब नाच नचा रहा है तू... यहीसब करना था तो शादी क्यों की? बच्चे क्यों पैदा किये?"

माई ने बीचमें ही उन्हें रोका-"शांत हो जाओ, जवान बेटे पर हाथ नहीं उठाते।"

"तुम्हारे इसी बचाव ने इसेबढ़ावा दिया है।" बापूहाँफ रहे थे। माथे परपसीना झलक आया था। रजुआ पानी ले आया, वे कुर्सी पर बैठ गये।

"देख रहा है बाप की हालत? पूराघर उजाड़ने पर तुला है।" माई ने जगदंबा को कंधे से पकड़कर झंझोड़ डाला।

"हम कौन होते हैं कुछ करने वाले। हम तो परमात्मा के हाथ की कठपुतली हैं। वह नाच नचाता है हम नाचते हैं।"

कहते हुए जगदंबा मालती के पास गया। संजय के और पीहू के सर पर हाथ रखकर आशीर्वाद दिया-"खुश रहो।" मालती ने अपनी कमज़ोर बाँह फैलाई, जगदंबा ने कड़ाई से अनदेखा किया।

सारादिन जगदंबा को मनाते थपाते गुज़रा। बापू, माई और बद्री के तर्कों का जगदंबा के पास एक ही जवाब था-"इंसान परमात्मा के हाथ का खिलौना है।" मालती की शक्ति चुक गई थी। वह निढाल हो फटी-फटी आँखों से जगदंबा को ताके जा रही थी। अँधेरा होते ही साधुओं की टोली दरवाजे के बाहर आ गई। आसमानमें टिमटिमाते तारों के बीच हँसुली-सा दूज का चाँद पीला, कमज़ोर नज़र आ रहा था। जगदंबा ने एक नज़र सब पर डाली और मुँह फेरकर बाहर निकल गया। मालती आँगन तक दौड़ी आई... सद्यप्रसूतामालती का सिर चकरा गया... आँगन की ड्योढ़ी पर वह चक्कर खाकर गिर पड़ी... रक्तस्त्राव अधिक होने लगा, कपड़े रक्त से लथपथ हो गये... देवरानी और माई के अपनी ओर बढ़ते हाथ मालती ने देखे... वह बिसूरने लगी-"मेरा कसूर तो बता दो, मैंने किया क्या है?"

साधुओं की टोली उससे जुदा होती गई... उसका जगदंबा उससे जुदा होता गया। हवा कानों में फुसफुसा रही थी-वह चला गया मालती, वह चला गया, कभी वापिस न लौटने के लिए...

देवरानी बद्री के पास गई-"आप एफ़ आई आर दर्ज़ करवा दीजिए। साधुओं की टोली बिना परिवार की रज़ामंदी के किसी को भी साधु नहीं बना सकती। हरचीज़ के अपने नियम होते हैं।"

उस वक़्त सब ठगे से खड़े थे। किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था। देवरानी की बात भी हवा में उड़ गई। मालती की ज़िंदग़ी के भूचाल से बापू कटे पेड़ की तरह जो गिरे तो हफ़्ते भर बाद उनकी अर्थी ही उठी।

दस साल गुज़र गये। देह और मन का वनवास बिना किसी कुसूर के झेलते-झेलते मालती असमय बूढ़ी हो गई है। भाग्यमें काँटे लिखे थे तो चुभेंगे ही... मानकर उसके सब्र का आँचल फैलता ही गया और सपने एक-एक कर ढहते गये। हर रात तनहाई उसे घाव देती रही और दिन का उजाला उसे सहलाता रहा, धूप मरहम लगाती रही और उसे फिर से घाव सहनेकेलिये तैयार करती रही। कईबारउसके मन में आया कि यह तो तय है कि कोई किसी के लिये नहीं मरता फिर वह ही क्यों मरे एक निर्मोही, बेवफा इंसान के लिए। जब जगदंबा को उसकी परवाह नहीं तो वह क्यों परवाह करे? देवरानी ने एक दिन कहा भी था-"जीजी, आप दूसरे ब्याह का क्यों नहीं सोचती?"

वह चौंक पड़ी थी... कहींदेवरानी इस मंशा से तो नहीं कह रही कि बद्री उसका और उसके बच्चों का ख़र्च उठा रहा है?

"ब्याहका तो कभी सोचा नहीं... हाँ, कहीं नौकरी मिल जाती तो कर लेती... मुझे भी तो घर के ख़र्च में हाथ बँटाना चाहिए।"

" जीजी, नौकरी नहीं, ब्याह का सोचिए... कोई ऐसा हो जिससे आप दिल की बातें शेयर कर सके। हर एक को ये कमी खलती है जीजी। अगर इसमें बच्चे बाधा हैं तो उन्हें मैं पाल लूँगी। आपका अकेलापन देखा नहीं जाता।

उसकी आँखें छलक आईं। कितना ग़लत समझ लिया था उसने देवरानी को। वक़्त इतना बुरा गुज़रा है कि भले बुरे की पहचान करना भी भूल गई वह?

"नहीं... अब ये नहीं होगा मुझसे। मेरे भाग्य में पति का सुख होता तो ये बैरागी क्यों होते?"

देवरानी ने उसके मन के सोये तूफान जगा दिये थे। ठीक ही तो कह रही थी देवरानी... कोई तो ऐसा हो जिसके सीने में मुँह छुपा अकेलेपन के भयभीत कर देने वाले अँधेरों से छुटकारा पा सके। इस 'कोई' ने उसे तड़पाया भी बहुत पर वह ज़ब्त करती रही। सोच की अथाह खाईयों में ख़ुद को ढकेलती रही... जहाँ केवल शून्य के, ... सिवा पल-पल कम होती आस के कुछ न मिला। अब जब जगदंबा यहाँ स्वामी के रूप में पधारे हैं... इस घर का हुलिया ही बदल गया है। अकेले व्यापार को सम्हालते और ख़ुद की गृहस्थी के संग जगदंबा की गृहस्थी और बीमार माई को सम्हालते बद्री भैया असमय बूढ़े हो गये हैं। पीहू और संजय के पिता सम्बंधी सवालों का जवाब देते-देते मालती चिड़चिड़ीहो गई है। उसका हँसता खिलखिलाता चेहरा उदासी की राख में सूखा ठूँठ बन कर रह गया है।

पीहू और संजय स्कूल से लौटते ही उससे लिपट गये-"माँ... आज सब हमें साधुबाबा के बच्चे kएह कर चिढ़ा रहे थे। क्या हम साधु बाबा के बच्चे हैं? बताओ न माँ..."

तभी माई कराही थी। आज उनकी तबीयत ज़्यादा ही ख़राब है। वह बच्चों का खाना परोस झुँझलाई थी-"देखो, तंग मत करो। चुपचापखानाखाओ... पता है न घर में सब बीमार हैं।"

बच्चे सहम बच्चे सहम बच्चे सहम बच्चे सहम कर खाना खाने लगे थे। उनकी आँखों में नमी तैर में नमी तैर आई थी। मालती को बच्चों का ऐसा चेहरा हमेशा पिघला देता है। बच्चों का मुँह देख-देख कर ही तो वह अपनी तनहाई से लड़ती रही, देवरानी के प्रस्ताव को नकारती रही... उसे पता था अब उसकी ज़िंदग़ी में बहारें नहीं लौटेंगी... उसे पता था सारी उम्र वह सुहागिन होकर भी वैधव्य की पीड़ा झेलेगी।

शाम घिर आई थी... माई की साँस उखड़ने लगी थी। रजुआ डॉक्टर को लिवा लाया। दवा इंजेक्शन के बावजूद तबीयत में सुधारनहीं हुआ। उसका मन जगदंबा की एक झलक पाने को छटपटा रहा था। घर में सब ठीक होता तो वह प्रवचन के पंडाल तक चली भी जाती। शायद बच्चों को भी ले जाती... नहीं... नहीं... बच्चों को ले जाना ठीक नहीं। वहाँ जुटी भीड़ उन्हें तंग कर सकती है कि 'देखो अपने साधु पिता को।' जब इतने सालों से पिता के कर्त्तव्य भी उसी ने निभाये तो आगे भी निभा लेगी... आख़िरक्या फायदा है बताने का?

सुबह चार बजे माई ने आख़िरी साँस ली। मानो वे जगदंबा के लौट आने की प्रतीक्षा कर रही थी। क्या पता दिन भर तड़पी भी हो उसे देखने को? घर में मृत्यु का सन्नाटा पसर चुका था। मृत्यु का या बेटों के वियोग में तिल-तिल मरी माई के अंत का... या मालती के सूने जीवन का... या पिता के रहते, बिना पिता के जीते बच्चों की लाचारी का?

सूरज निकलते ही अड़ोस पड़ोस में भी ख़बर फैल गई कि माई नहीं रही। ख़बर जगदंबा तक भी पहुँची। दोपहर को जब माई को श्मशान लेगये तो जगदंबा भी श्मशान की ओर चल पड़ा। चिता को मुखाग्नि देने के लिए बद्री के हाथ में मशाल थमाई गई। जगदंबा थोड़ा नज़दीक गया। बद्री ने देखा तो मशाल उसकी ओर बढ़ा दी-"भैया... लीजिए, येहक आपका है।"

सहसा भीड़ को चीरते हुए पड़ोस के बुज़ुर्ग काका चीखे-"ख़बरदार जो मशाल को हाथ लगाया। बद्री, मुखाग्नि तू ही देगा। तू सबसे बड़ा जोगी है... इस कायर भगोड़े ने येहकखो दिया। अपनी ज़िम्मेदारियों को निभाने से बढ़कर न कोई धर्म है, न तप।" जगदंबा सन्न रह गया। दस साल का तप, बैराग्यउसेमुट्ठीमें दबी रेत-सा फिसलता नज़र आया। वह माई की चिता के पास घुटनों के बल बैठ फूट-फूट कर रो पड़ा।