बॉन डायरी-2 / शिवप्रसाद जोशी

Gadya Kosh से
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अनवर प्रिया और आभा के साथ कोलोन गया. प्रिया एसलबोर्न की कार से. अनवर और उसकी बात हुई और कोलोन का कार्यक्रम बना. वहां स्थित रोमन साम्राज्य के दिनों का विशाल डोम, एक प्राचीन विशाल भव्य चर्च..जिसका कैथिड्रल यूरोप में सबसे बड़ा है और जो रोम शासन की व्यापकता विराटता भव्यता और उसके साम्राज्यवाद के महत्वपूर्ण प्रतीकों में एक है. उसके विशाल प्रांगण में प्रवेश करते ही लगता है यह अपने आगोश में ले लेगा..जैसे हम पर पूरी तरह क़ब्ज़ा कर लेगा. हम उसके अंदर गए. विशाल खंभों और दीवारों और सैकड़ों मोमबत्तियों के बीच भी उतना ही सघन विस्तृत अवसाद वहां फैला हुआ था. जैसे न जाने कितनी सदियों से वो इस महानता के बीच भटकता तैर रहा है. क्या यही शांति है. क्या यही ख़ामोशी और उदास दीवारें दुखों से निजात दिलाती हैं. या यहां का स्थापत्य यह बताता है कि देखो तुम्हारा दुख कितना बड़ा जटिल ठोस और फैला हुआ है और तुम कितने छोटे कितने मामूली हो. अपने दुख की यह भयावहता मुझसे न देखी गयी. मैं निकल आया और खुले में आ गया. आसमान में बादल थे और बारिश की चंद बूंदे थीं लोग थे और हलचल थी. और मैं अपने मामूली दुख के साथ एक मामूली आदमी था.

कोलोन में ज्यादा गतिविधि है, ज़्यादा लोग हैं और बॉन के मुक़ाबले ज़्यादा चहलपहल है. बाज़ार में घूमते हुए एक करतबी के पास रूके. मज़मा जुटने लगा. वह सामान बिछा रहा था और आवाज़ें दे रहा था. कभी अंग्रेज़ीं में कभी जर्मन में. वह एक युवा जगलर था और उसका नाम था थियो. उसने लोगों को हंसाने की कोशिश की भीड़ के साथ एक रोचक संवाद बनाया और अपनी हरकतों से हंसाता रहा और अपनी कठिन करतबों से हैरान करता रहा. कितना मुश्किल है हंसाना और वो भी तब जब आप पैसों के लिए हंसा रहे हों. थियो की यही रोज़ी रोटी है. भीड़ में कुछ जर्मन थे कुछ सैलानी. करीब एक घंटे के शो के बाद जब उसने पैसों के लिए अपना झोला खोला और सबने कुछ न कुछ उसके झोले में डाला तो वह एक मार्मिक क्षण था. मैने उसे देखा. अब उन आंखों में हास्य न था न ही अभिनय, हल्की सी थकान थी. उम्मीद और विस्मय. भीड़ छंट गयी तो थियो ने सामान समेटा. हम लोगों ने उसे झोले से एक एक कर पैसे निकालते और उन्हें गिनते हुए देखा. मैने प्रिया से पूछा इस अथक मेहनत के बदले कितना कमाया होगा उसने. उसका अंदाज़ा था करीब चालीस या पचास यूरो. देखने वाले तो करीब दो सौ लोग रहे होंगे.

छल और दांव और अहम. अगर इनसे मुक्ति पायी जा सके. कितने मूर्ख दयनीय और हास्यास्पद लगते हैं वे लोग जो छल प्रपंच करते रहते हैं और अहम की ऐंठ से तड़पते रहते हैं जैसे उन्हें ज़्यादा खाने से अपच हो गयी हो. उनके चेहरे सख़्त होते हैं और एक अज्ञात कष्ट उन पर तारी रहता है. एक आदमी तनी हुई मुस्कान के साथ आता है और कहता है कि वो मेरी बड़ी इज़्ज़त करता है. उसके होंठो में खिल्ली है. वह यह क्यों कहता है. मुझसे उसे क्या हासिल है. एक महिला आती है कुछ पेशकश करती है. उसने कुछ कहा भी है तारीफ में न जाने किसी के बारे में. लेकिन उसकी आवाज़ में क्या बज रहा है. जैसे कोई बर्तन गिरा. हर कोई उग्र है, व्यग्र है. हमलावर होना शख़्सियत की ख़ूबी है. आप ज़ोर से बोलना पसंद नहीं करते तो आप कायर हैं. क्या यह भी जीन की कोई विकृति है. इन दिनों कमोबेश हर चीज़ के पीछे पता यह चल रहा है कि हमारी कोई जीन है. जीन दोष. क्या एक अच्छा सुंदर भावनाओं वाला और निष्कपट मनुष्य प्रयोगशाला में ही संभव है. क्या खराब जीनों को बारीक चिमटियों से अलग थलग कर, फिर डीएनए को नये ढंग से व्यवस्थित कर, कृत्रिम निर्दोष जीनों की स्थापना कर एक आदर्श मनुष्य बनाया जाएगा. फ्रैंकश्टायन एक दैत्य है और वो गल्प विज्ञान से आया है और इसी प्रयोगशाला की उत्पत्ति है. क्या अब यथार्थ में ऐसा समय आने वाला है जब हमें अच्छे आदमी की ज़रूरत होगी और कोई भला बुद्धिमान आदमी लैब में बैठकर उसे रचेगा.

लोग अपनी भावनाओं के साथ ज़ाहिर हुए जाते हैं. मैं देखता हूं. मुझे संकोच होता है कि मैं उनको देख पा रहा हूं भीतर तक. और उन्हें नहीं पता. वे निस्संकोच अपने झूठ को पेश कर रहे हैं कथित सौम्यता के साथ खोखली शिद्दत के साथ और बाज़दफा ढिठाई के साथ. तो दुख निजी नहीं रहा. अपनी चीज़ों से जुड़ा नहीं है सिर्फ. दुख इस बुरे पर्यावरण के निर्माण में आ रही तेजी को लेकर भी बढ़ता जाता है. मनुष्य की आंख से आंख मिलाकर देखने के साहस का नहीं उसे आंख की खुंखारी के साथ देखने का पर्यावरण बन रहा है. नोट करने वाली बात यह है कि अब खुंखारी के लिए अंगार आंखें नहीं, किस्म किस्म की प्रपंची आंखें चाहिए. मेमने की जैसी आंखें हैं जॉर्ज बुश की. नरेंद्र मोदी की आंखें, देखा नहीं कितनी दिव्य हैं.

मैं बच्चों की आंखों में देखता हूं और उनसे दया और निश्चलता मांगता हूं. मैं अपने प्रेम की आंखों में देखता हूं और डूबा रहता हूं कि प्रेम से सराबोर रहूं. मैं मां की आंखों में देखता हूं और साहस मांगता हूं पिता की धीरे धीरे जा रही आंखों में कातरता से देखता हूं और इंसानियत मांगता हूं. मेरी आंखें भीगीं रहती हैं और साफ होती रहती हैं. उन्हें शायद निरंतर वह पानी चाहिए.

सप्ताहांत एक अराजकता है. बॉन की सारी मासूमियत एक क्रूर निकम्मे और नशे में डूबे वीक एंड में उड़ जाती है. बॉन का मूलत: कोमल रूप भी शायद कोई चिड़िया है. नशे में डूबे, हाथो में बीयर की बोतलें लिए, शोर मचाते, सिगरेट फूंकते और जहां तहां रुक कर पेशाब कर देने वाले नालायक युवा जब शुक्रवार की शाम और शनिवार को दिन भर सड़कों पर झूमते जाते हैं तो अकारण नहीं कि हमें पक्षी नहीं दिखते. वे सहमकर पेड़ों में ही बैठे रहते हैं. और सुबह का इंतज़ार करते हैं. नदी भी सकपकायी रहती है. एक बेशर्म और चूर युवक नदी में खुलेआम पेशाब कर आता है और सड़क पर लेटी अपनी दोस्त के ऊपर बैठ जाता है.

लिखता जाता हूं कि बुरा न लिखूं. सोचता जाता हूं कि अच्छा सोचूं, बोलता जाता हूं कि सही बोलूं. चलता जाता हूं तो सिर झुकाकर पर ऐसे कि पराजित न दिखूं. हंसता जाता हूं तो अट्टाहस से नहीं दिल खोलकर हंसू. मैं लिखता सोचता बोलता चलता हंसता सामान्य मनुष्य रहूं. मैं अनुशासन न मानूं. लेकिन एक मनुष्योचित अनुशासन का पालन करूं. मैं गिरूं और उठ जाऊं. मैं दौड़ूं और रूक जाऊं. मैं लपकूं और ठहर जाऊं. मैं बहूं लेकिन पानी की तरह निर्विकार. फिर मैं भावनाओं में बहूं या अपनी वासनाओं में. मैं न ठहरूं. मैं भटकता रहूं. मैं अपने सौरमंडल के एक ग्रह का एक उपग्रह हो जाऊं. लेकिन मैं न जुड़ूं. मैं तैरता हुआ निकल जाऊं और ब्रह्मांड के बाहर घूमूं. मैं घूमते हुए एक पृथ्वी सदृश ग्रह हो जाऊं और अपना सूर्य विकसित करूं. मैं प्रेम में मग्न रहूं और उसके ब्लैक होल से निकल जाऊं. मैं नयी दुनिया बनाऊं. और फिर उसे भी छोड़ दूं. मैं शरीर को यहां रख दूं और आत्मा के साथ जाऊं. मैं एक आत्मा हो जाऊं और महात्माओं के शरीरों में दस्तक दूं.

बॉन में फिर. एक महीने की छुट्टी के बाद लौटा. लेकिन ये लौटना भी जैसे वहीं की स्मृतियों में लौटने की तरह है जहां से चला था. घर की गूंज है भीतर. ख़ामोशी. और खदबदाहट और इतनी सारी तहें. जैसे विमान से बादलों की दिखती हैं. कई परतें कई तहें कई रोएं कई टुकड़े. एक के ऊपर एक. आकाश में बादलों के बीच होना और कभी उनसे ऊपर उड़ना कभी उन्हें चीरते हुए निकलना और कभी उनमें डूबे रहना. मैं विमान में हूं और हर तरफ बादल है. जैसे मुझे बादलों के ही किसी क्षेत्र में जाना है. बादल बचपन से लुभाते आए और अब वो इतने पास हैं. छू नहीं सकता लेकिन उन्हें इतने करीब से देख सकता हूं कि उनका ब्यौरा लिख पा रहा हूं. वे आसमान में कई दिशाओं से फूटने वाली नदियां हैं. एक समुद्र उनसे बनता है. भाप के फाहों का एक अंतहीन विस्तार एक भ्रम स्वप्न में आयी एक दीवार एक मैदान एक ज़मीन जो कभी जंगल दिखती कभी रेगिस्तान कभी पहाड़ कभी झील. या वह सिर्फ हवा है. बादल शायद हवा का ही एक रूप है. वो इतनी घुली मिली और ठोस है जैसे बहुत सारा मक्खन किसी बहुत विशाल बर्तन से उलीच दिया गया है और वो स्थिर हो गया है यहां आकाश में निर्वात में.

धरती से बादल अवसाद की तरह फैले हुए दिखते हैं. उनमें कोई उम्मीद नहीं कोई हलचल कोई गति कोई वजह नहीं. फिर इस अवसाद को काटने के लिए अपने भीतर ऊपर उठना पड़ता है. जगना पड़ता है. जगो और उठो. उठो और देखो बादलों के ऊपर सूरज हमेशा की तरह दमक रहा है. रोशनी ही रोशनी है. अपने अंदर उजाला महसूस करो. बादलों के इस पार जो किरणें नहीं पहुंच पा रही हैं वे शायद तुम्हारे भीतर झिलमिला रही हों. धूप का एक टुकड़ा बन सकता है. आत्मा की ठंडक कम हो सकती है. अंतस्थल प्रकाशित हो सकता है. यह भी जान लेना चाहिए कि यह नदी बह रही है यह समुद्र खिसक रहा है यह रेगिस्तान हरा भरा हो गया है. बादल जब आते हैं तो वे यह भी बताते हैं कि उनकी फितरत में टिके रहना नहीं है. वे उतने ही स्थायी हैं जितना कि उन्हें इधर से उधर नाना रूपों में सृजित करते रहने वाली हवा.

बुरे बादल हटो. बुरी हवा अब तुम न बहो. बुरे विचार तुम नष्ट हो जाओ. एक शाश्वत द्वंद्व की तरह जो अच्छाई वहां छितरी हुई हो वो इकट्ठा हो. जैसे जंगल में फूल चुनते हैं ज़मीन पर आए हुए वैसे ही अच्छाई के इन लच्छों को जमा करें. एक सुंदर चादर बनाएं. एक सुंदर मन एक सुंदर दृश्य की कल्पना करें. खींचकर लाया हुआ यह रहा सुंदर अहसास. भले ही इसे आकाश कह दें.


अब बादल मुझे नहीं सताएंगें. मैं एक निश्चल प्रयत्न हूं. मैं दृढ़ हूं. मैं एक परिपक्व और ईमानदार विचार हूं. मैं सकारात्मक पलों का एक कुदरती विशेषण हूं. मैं विशेषण के मोह से मुक्त एक विशेष लक्षण हूं. मैं क्रिया का सहायक हूं. मैं ही संज्ञा हूं. और अपना सर्वनाम मैं खुद हूं. मैं आत्म मुग्ध नहीं मैं मुग्ध आत्मा हूं. मैं मुग्ध हूं कि मेरी आत्मा में कोई कपट नहीं कोई छल नहीं कोई बुराई नहीं. मैं अच्छाई की कोशिश हूं. मैं मनुष्यता का स्वागत करता एक दरवाजा हूं. मैं सब कुछ सहकर एक जर्जर लकड़ी हूं लेकिन मैं एक धधकती आग की पोटली हूं. मैं सूक्ष्म हूं और मुझमें ही विराट है. मैं न ईश्वर हूं न धर्म. न अध्यात्म न चिंतन. मैं एक साधारण द्रव हूं एक साधारण ठोस एक साधारण हवा और एक साधारण मिट्टी. और इन सबसे निर्मित मैं एक साधारण मनुष्य हूं. असाधारणता मेरी ही साधारणता का एक बिंदु है. मैं महज़ असाधारण होकर विचित्र नहीं हूं. मैं एक साधारण पेड़ हूं जिनमें साधारण तरीके से पत्ते आते हैं और फल आते हैं और चिड़ियां आती हैं और हवा आती है. इस तरह मैं एक स्वाभाविक व्यक्तित्व हूं. असामान्य हुई जाती दुनिया में मैं साधारणता और सामान्यता को बचाए रखने का एक स्वाभाविक प्रयत्न कहा जा सकता हूं. अंतत मैं एक सवाल हूं कि यह मैं हूं या यह मेरी संभावना है या मैं अपनी संभावना हूं.

बॉन पहुंचकर सिद्दि याद आयी. जयत याद आया. और पीड़ा और प्रश्नों से सताया मां का चेहरा. पिता की पीठ याद आयी जिसे मैने भींचकर सहलाया था. भैया की घुटी हुई सिसकी और शालिनी की आंखें याद आयीं. चाचाजी का खुद को भावुक होने से बचाते रहने के लिए मुझे और उन्हें खुद को ठेलना और हाथ मिलाते रहना याद आया और मोहित का सीना याद आया. मामाजी का भर्राया गला याद आया और प्रमोद भैजी का एक झटके में निकल कर माहौल को निस्तेज बनाने से रोकना याद आया. लोकेश भैजी का एक खरे मार्क्सवादी की तरह चलते चला जाना याद आया और मैं पीछे भागता हुआ उन्हें प्रणाम करने लपकता गया. उस वक्त की अपनी हालत को याद किया. और मेरी बरबस हंसी छूट गयी. मुझे न जाने कैसे इस राग में आर के लक्ष्मण के प्रसिद्ध कार्टून की याद हो आयी.

अशोक के साथ 25 नवंबर बीता. मैने हलवा बनाया. फिर शादियों सरीखा खाना और फिर हम बाहर निकले. कला संग्रहालय के विशाल गलियारे में देर शाम स्केटिंग करने वालो का हुजूम था. घर के पास था. हम वहीं गए. और कृत्रिम बर्फ पर होती स्केटिंग की तैयारियां देखीं. और फिर बच्चो युवाओ को उस टर्फ पर उमड़ते देखा. एक साथ कई लोग दौड़े स्केटिंग के लिए. अशोक ने कहा ये ब्रह्मांड के किसी अपरिचित दृश्य की तरह लगता है. लोग अपने स्केटर्स पहने अत्यंत स्वाभाविक गति से फिसल रहे हैं जैसे वे ग्रेविटी की गिरफ्त में नहीं. और बस तैर रहे हैं. यह कोलाहल नहीं था. लोग अपनी कच्ची मज़बूत फिसलन पर न नाराज़ थे न गर्व से भरे. एक सुंदर लड़की पूरी लोच से उस सफेद टर्फ पर स्केटर्स पहने टहल रही थी. जैसे वो इस ब्रह्माड को जानती थी और उसके नियम कायदो से वाक़िफ़ थी. ऐन किनारा आता और वो इस तरह से शरीर में ताब लाती और पांवों को इस गति से मंद कर देती कि रूक जाती. उसका नियंत्रण शरीर में समाहित था और वो उससे बाहर भी था. एक पांव दूसरे पांव की मदद करता था और भाव भंगिमा इस नृत्य और इस खेल में भरपूर सहायक थी. अपने पर नियंत्रण का ये कौशल सीखने के लिए ये गहराती शाम बहुत काम आयी और ये लोग. मैनें और अशोक ने उस लड़की को हीरोईन कहा.

एक व्यक्ति सुंदर कैसे रह सकता है. सुंदरता क्या है. सुंदर होने के लिए क्या औजार चाहिएं. आत्मा से वो प्रकाश कैसे बाहर खींचा जाए कि सहसा अपना सौंदर्य दिख जाए. क्या कुछ लोग आत्मिक रूप से इसलिए सुंदर नहीं है क्योंकि उनके प्रकाश का ईंधन चुक गया. उनका सौंदर्य अचानक कैसे गिर रहा है. क्या आत्मा की ये प्रतिरोध की कार्रवाई है.

अयोध्या में बाबरी मस्जिद के ध्वंस की 15 वीं बरसी। 1992 का शायद ये वही दिन था या वो रात जब मैने सोचा कि मैं लिखूंगा पढूंगा और पत्रकारिता को पेशा बनाऊंगा। स्कूटर से इंदिरा मार्केट और तिब्बती बाज़ार में पांच मिनट के लिए मची उस भगदड़ को मैं कैसे भूल पाऊंगा. मैं स्कूटर पर था और ऐन उस टैक्सी स्टैंड से थोड़ा पहले जहां से रास्ता एसएफआई के टूटे फूटे दफ्तर को जाती गली की तरफ मुड़ता था, एक शोर हुआ, कुछ आवाज़ें आयीं, कोई चीखा और अचानक लोगों ने भागना शुरू कर दिया. इस भगदड़ में मुझे स्कूटर रोकना ही पड़ा. और किसी को मैने पूछा कि भाई क्या हो गया. तो उसने कहा भाई भाग जाओ, दंगा होने वाला है. उसका शायद मतलब उस दंगे से नहीं था जो दो मज़हबों के बीच होता है. बीच कहना भी कितना हास्यास्पद है. जैसे ये कोई भाईचारा या किसी रिश्ते का निबाह हो. खैर...मैनें अचरज और डर से कहा, दंगा. उसने कहा हां एक नेता को गोली मार दी. समाजवादी नेता को. भागते हुए लोग बहुत ज़्यादा हो गए और मैने भी डरते हुए और स्कूटर को नुकसान न पहुंचे, इस प्रार्थना के साथ उसे मोड़ा. और रेंजर्स कॉलेज से होता हुआ घर लौट आया. सड़को पर उस बाज़ार के बाहर सामान्य आम दरफ्त थी. और यातायात सामान्य था. सिर्फ उस गली में अफवाह का वो बवंडर उठा. ऐसी हो जाती हैं गलियां कभी. और चंद मिनटों में समाप्त हो गया. ऐसा रहा है देहरादून. बहरहाल घर आकर समाचार देखे. या सुने. अब याद नहीं. लेकिन कोई घर पर आया था मोहल्ले से जो मस्जिद गिराने की दाद दे रहा था. पिताजी ख़ामोश थे. तब मैने जाना कि बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी है और दंगे भड़क रहे हैं. पिताजी से मैने उस दिन धैर्य सीखा और अफसोस और चिंता का ऐसा भाव जो सबके लिए है. धर्मनिरपेक्षता के असल माने मुझे समझ आए. मैं एक अजीबोग़रीब दुश्चिंता और भ्रम और गुस्से में नीचे कमरे पर चला आया. जो शायद अभी बन रहा था. और जहां फर्श नहीं पड़ा था और मिट्टी ही मिट्टी थी और दीवारें ईंटें थीं. आपस मे जुड़ी हुई. वहां पर एक बल्ब का इंतज़ाम था मेरे पढने के लिए. लेकिन उस दिन मैं कितना कुछ पढ़ देख आया था और उस पड़ोसी के बयान को याद कर रहा था जो कह रहे थे कि अच्छा हुआ. मैं उस समय 21 साल का हो चला था. और मार्क्स की पूंजी मेरी समझ में नहीं आती थी. न ही लेनिन का एक कदम आगे दो कदम पीछे न ही सांप्रादायिकता. मैं एक ऊलजलूल पढ़ाई के बाद बस बराबरी की बात पर सोच पाया. छोटे बड़े का फर्क मिटाने का. ऊंचे या नीचे लोगों का. या धर्म का. इतना साफ था कि मैं धर्म के खिलाफ था और मुसलमानों को दुश्मन नहीं मानता था. और कट्टरपंथियों की ज़्यादतियों पर मेरी निगाह चली गयी थी. और उन्माद कैसा ज़हर है बिना चखे मैं इसकी समझ बना रहा था. उस रात इतना कुछ मेरे भीतर गुज़र गया. कितना कुछ बना कितना कुछ ढहा. ज़ाहिर है आने वाले दिनों में इस अनुभव को और पैना बनना था. और मानवीय और तीक्ष्ण. मेरी पत्रकारिता उस देर शाम से शुरू हो गयी. मैं बाबरी मस्जिद गिराने के दुर्भाग्य काल का पत्रकार बना.

और पंद्रह साल बाद जर्मनी के अंतरराष्ट्रीय, युएन सिटी कहे जाने वाले शहर बॉन में मैं पिछले एक साल से हूं. और वही तारीख मेरे सामने हैं. डेढ़ दशक बाद भी मैं उस विचलन और उस बेचैनी से घिरा हूं जिसका पहले पहल आभास तब हुआ था. क्या है इसकी वजह. मैं क्यों नहीं भुला पाया. क्या इसलिए कि मैं उस संकट काल की संतान हूं. मैं चाह कर भी वहीं लौटता हूं. और पंद्रह साल बाद चीज़ों को उनकी उच्च भयानकता और विकृति में देख रहा हूं. एक इमारत का गिरना देखा. फिर कई इमारतों का, फिर एक शहर का फिर एक देश का. फिर दो देशों का. बुद्ध की मूर्ति ढहते देखी और दज़ला में लाशों का गिरना देखा. लोगों के घर जलते देखे, कई मजारें जलती देंखीं एक रेल जलते देखी. एक पेट चीरा जाता हुआ देखा, बलात्कारों से तड़पती चीखें सुनीं और किसी को जिंदा जलता हुआ सुना औऱ देखा. कितना भयानक होता है जब आप एक समय एक ब्रेड को भी चूल्हे पर जलता देख लेते हैं और एक मनुष्य के शरीर को भी, भले ही उसके लिए चूल्हे में दो ईंटे नहीं चार दीवारें हो और वो चूल्हा नहीं, किसी का मकान या किसी का घर कहलाता हो. इंसान अपने ही बनाए चूल्हे या मकान में तड़पता चीखता हुआ जल जाए. इतनी गैर आदिम आग मैने देखी. एक प्राचीन सभ्यता को रौंदा जाता हुआ देखा और विकराल अट्टाहस में घूमती छायाएं देखीं. मैने अमेरिका को देखा, अफगानिस्तान को देखा, इराक को और बोस्निया को, अफ्रीका को बिहार को पश्चिम बंगाल को नंदीग्राम को सिंगुर को उड़ीसा को और मुज़फ्फरनगर कांड को देखा. मैने अपना घर देखा. उसकी बिगड़ी हुई ज़्यामिति देखी और लोगों का लोभ देखा. मैं नया होकर फिर वहीं हूं. मैं एक कमज़ोर बल्ब के सामने अक्षरों पर झुकी एक निरीह आकृति हूं. या मैं इस लाचारी से उठता हुआ एक साहस हूं. उन शब्दों और उन वाक्यों की तरह जिन्हें मैने तैश में अपने पिता के सामने खाली किया. क्या मैं अपने ही उस तैश का एक सजग प्रतिकार हूं ताकि मैं विकृतियों का मुकाबला करता रहूं जो मेरे अंदर और बाहर ठूंस की तरह जमा होने आ रही हैं. मैं अपने दरवाजे बंद करूं. या उन्हें ज़रूरत के हिसाब से खुला रखने का आदी बनूं या उन्हें खुला ही छोड़ दूं. क्या मैं किसी और दरवाज़े से कहीं और निकल जाऊं. या इंतज़ार करूं.

बॉन एक उत्सव के उल्लास में डूब गया है. क्रिसमस से होते हुए ये नए साल के जश्न तक जाएगा. रात की पाली के बाद लौटा सुबह पौने चार बजे. ये रात ही थी. क्योंकि सुबह साढ़े आठ बजे होती है आजकल यहां. चाय पी और अयान हिरसी अली की आत्मकथा इनफिदेल पढ़ने लगा. कुछ ही पन्ने बचे हैं. ये एक उपन्यास जैसा है. अयान की ये विवादास्पद किताब इसी साल छपी है. एनी से ली पढ़ने के लिए. भाषा की झूम तो इसमे है ही. जिस चीज़ के लिए ये आपको हिलाती है वो है इसका कथ्य. सोमालिया के मुस्लिम समाज की दास्तान, बेबसियां, क्रूरताएं और धर्म की विकटताओं नादानियों छद्म और विचलनों का ज़िक्र करती हुई ये किताब अंतत स्त्रियों और पीड़ितों की मुक्ति के पक्ष में आवाज़ उठाने वाला एक निर्भीक सहज और मनुष्योचित दस्तावेज़ी आग्रह है. अयान महज़ पश्चिमपरस्त कहकर ख़ारिज नहीं की जा सकती. जिन बुनियादी सवालों को वे किताब में लाती हैं वे दिखने में कितने ही जटिल और अत्यंत ख़तरनाक हों लेकिन वे अंतत सभ्यता को बचाने की एक मार्मिक मानवीय पुकार हैं. इस पुकार को अनसुना करने की राजनीति शायद अभी लंबी खिंचें. और अंधेरे को काटने के औजार अभी कच्चे ही हों लेकिन आने वाले वक्तों में बदलाव तय हैं. कोई भी कथित राजनीति कोई भी निर्दयता कोई भी क्रूरता कोई भी कठमुल्लापन कोई भी ज़्यादती किसी एक अदम्य पुकार से लंबी नहीं खिंच सकती. जब मनुष्य समाज अपने विनाश को नहीं देख पा रहा होगा और अश्लीलताएं चरम पर होंगी और समूची सभ्यता एक कगार के पास अपनी तरक्की के नशे में नृत्य कर रही होगी तो उस समय कोई एक पुकार ही उसे कगार से गिरने से आगाह करेगी. वह एक निर्णायक पुकार होगी जो उच्श्रृंखल होते जाते नाच कूच को सहसा रोक देगी. अंतत कोई धर्म कोई जाति कोई प्रार्थना कोई देश कोई व्यवस्था आपको नहीं बचाएगी. मनुष्य को मनुष्य के तौर पर मनुष्य ही बचाएगा. तोलस्तोय की एक कहानी का नाम है नाच के बाद. नाच के बाद भी कुछ यकीनन होगा.

खीझ और बोझ और स्थगन. कब लौटूंगा. अवसाद की एक परत. लालसाएं. कुछ भी हासिल नहीं होता. धूर्तताएं, चालाकी, निर्लज्जताएं. और एक घेराव. मेरी तरफ. मैं भागता रहता हूं. और कभी सहसा ठिठक कर देखता हूं. एक स्त्री खड़ी है और उसके हाथ में फूल है. वह अचानक मेरी तरफ बढने लगी है. और मैं भाग पड़ता हूं. वो अट्टाहस कर रही है. और ये स्वप्न का एक बुरा भाग है. मैं घर पर हूं और मेरी बेटी मेरे पास है. वो कुछ तुतला कर कह रही है और मैं मुस्करा रहा हूं. मैं वाकई मुस्करा रहा हूं और सुबह उठकर देखता हूं किसी ने वो मुस्कान मेरे ओठों पर चिपका रखी है. अहा तो क्या ऐसा होता है कि स्वप्न में घटित किसी क्रिया को वाकई स्वप्न के बाहर स्थापित किया जा सकता है. क्या मैं मुस्कराता हुआ स्वप्न से बाहर निकल आया. क्या वरचुएलिटी से इस तरह बाहर आना मुमकिन है.