बॉलीवुड डांस का उद्योग / जयप्रकाश चौकसे

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बॉलीवुड डांस का उद्योग
प्रकाशन तिथि : 05 सितम्बर 2014


एना मोरकॉम लंदन के एक विश्व विद्यालय में संगीत की प्राध्यापक हैं आैर वर्षों के शोध के बाद उन्होंने "कोर्टीजंस, बार गर्ल्स एंड डांसिंग बॉयज' नामक किताब लिखी है। सार्वजनिक मंच पर नृत्य प्रस्तुति के पुरातन काल से 21वीं सदी के पहले दशक तक के बदलते हुए स्वरूप पर लिखते समय उन्होंने बदलते हुए समाज आैर अर्थशास्त्र को नजरअंदाज नहीं किया है। मसलन आर्थिक उदारवाद के 1991-92 में लागू किए जाने के बाद के सामाजिक परिवर्तनों तथा हिन्दुस्तानी सिनेमा में अप्रवासी भारतीय दर्शकों की रुचि के कारण सिनेमा की विदेशों में अर्जित आय से प्रभावित सिनेमाई गीत, संगीत के बदलाव को भी रेखांकित किया है। उनका कहना है कि आज 'बॉलीवुड नृत्य' को देश विदेश में सिखाया जा रहा है आैर इसने एक उद्योग की शक्ल ले ली है।

मध्यम वर्ग की जीवन शैली पर टेलीविजन एवं सिनेमा का गहरा प्रभाव पड़ा है आैर 1930 से 1947 तक जो मध्यम वर्ग सिनेमा को हेय दृष्टि से देखता था, अब उसी मध्यम-वर्ग के पारिवारिक एवं सामाजिक उत्सवों में 'बॉलीवुड नृत्य शैली' को सम्मान की दृष्टि से देखा जाने लगा है। जिस मध्यम वर्ग ने शास्त्रीय संगीत नृत्य को अपने जीवन का हिस्सा बनाया था, वही मध्यम वर्ग अब बॉलीवुड ठुमके लगा रहा है। आज भारतीय नौकरी पेशा मध्यम वर्ग आैर विदेशों में बसे भारतीय लोगों के बीच बॉलीवुड एक कड़ी बन गया है- अत: समृद्ध अमेरिका की जीवन शैली अर्ध विकसित देशों में इसी सेतु से प्रवेश कर रही हैं। नौकरी पेशा मध्यम वर्ग ने अपने पुराने मूल्य खो दिए हैं आैर एन.आर.आई से अपरोक्ष संबंध बनाकर अपनी कला रुचियों को भ्रष्ट कर लिया है आैर इसी प्रदूषित संस्कृति का प्रतीक बन गया है भारतीय सिनेमा जिसे जाने क्यों गर्व से 'बॉलीवुड', कलकत्ता के सिनेमा को 'टॉलीवुड' कहा जा रहा है जबकि मुंबईया सिनेमा आैर कलकत्ता के सिनेमा की अपनी पहचान कभी रही है। अप्रवासी भारतीय अपनी डॉलर शक्ति से केवल हिन्दुस्तानी सिनेमा को प्रभावित कर रहे हैं, वरन् फैशन के साथ राजनीति का बाजार भी उनके प्रभाव से मुक्त नहीं है।

आश्चर्य की बात यह है कि प्रोफेसर एना मोरकॉम शादियों में संगीत की रात आैर उसमें हॉलीवुड नृत्य के चलन को नजरअंदाज कर गई हैं। आज बॉलीवुड कोरियोग्राफर को मोटी रकम देकर एक महीने तक बॉलीवुड नृत्य की रिहर्सल की जाती है। लंदन के एक धनाढ्य भारतीय मूल के विवाह आयोजन में मुंहमांगे पैसे देकर शिखर सितारे से नृत्य कराया गया आैर इसी आयोजन में मुंहमांगा धन पाकर एक वामपंथी विचारक गीतकार ने संगीत निशा का पूरा आकलन प्रस्तुत किया था। पूंजीपति के अंगना में वामपंथी नृत्य इस काल खंड के मूल्यों के पतन का प्रतीक है। सूरज बड़जात्या की शादी वीडियो कैसेट नुमा 'हम आपके हैं कौन' तो महज बहाना है क्योंकि आर्थिक उदारवाद से जन्मा नव धनाढ्य वर्ग अपने काले धन को खर्च करने का बहाना खोज रहा था आैर इस फिल्म ने उसे अवसर दे दिया। मदनमोहन मालवीय जैसे महान लोगों के प्रयास से सादगी की लहर प्रारंभ हुई थी परंतु सिनेमा के प्रभाव ने पांच दिनी विवाह आयोजनों को इतना महंगा कर दिया है कि हर आर्थिक वर्ग में शादियां खर्चीली हो गई हैं आैर एक भयावह भोंडापन एक पवित्र आयोजन में प्रवेश कर चुका है। अब शादी उत्सव आयोजन व्यवसाय में बदल चुका है जिस पर हबीब फैजल की लिखी 'बैंड बाजा बारात' आदित्य चोपड़ा ने बनाई। विवाह संगीत- रात पटकथा में ठूंसी जाती है आैर करण जौहर की तो बांछे खिल जाती हैं।

विगत दो दशकों में बॉलीवुड नृत्य महिला शरीर का प्रदर्शन उत्सव हो चुका है। मजे की बात यह है कि तथाकथित बॉलीवुड डांस पर विदेशी नृत्य का प्रभाव है, जिमनास्ट का प्रभाव है आैर कही लोक नृत्य के स्टेप्स लेकर एक चूं चूं का मुरब्बा बना दिया है। फिटनेस भी अब जुनून है आैर इस नृत्य में सर्कस के करतब भी शामिल हैं। जाने कैसे कौन इस बेहूदगी को 'संस्कृति' कहकर संबोधित कर रहा है। शरीर अब सिक्का है, शरीर अब उत्सव है, शरीर अब बाजार है। लेखिका का कहना है बॉलीवुड नृत्य को सामाजिक पहचान आैर स्वीकृति देने वाला शिक्षित मध्यम वर्ग आैर इसमें आनंद लेने वाले सभी लोग जिनमें नेता, अफसर शामिल हैं, बार डांस करने वालों पर कैसे आपत्ति उठा सकते हैं? उनके रोजी रोटी कमाने के अधिकार को छीनकर उस वर्ग को संगठित अपराध की गोद में फेंक दिया गया है। बहरहाल भारतीय संस्कृति में नृत्य प्रार्थना का अंग रहा है, स्वयं शिव तांडव करे हैं आैर उनका ही आनंद तांडव भी है। शास्त्रीय नृत्य के जन्म का इतिहास पुराना है। दरअसल अंग्रेजों का विक्टोरियन चश्मा आैर हमारे पवित्रवादी हुल्लड़बाजों ने प्रार्थना के इस पवित्र कार्य के रूप ही बदल दिए हैं। सिनेमा से परहेेज करने वाला वर्ग अब सिनेमा प्रवेश के लिए लालायित है आैर मध्यम शिक्षित वर्ग की कन्याएं सितारा बन चुकी हैं। सामंतवादी दौर में अमीर वर्ग नृत्य देखता था आैर आज सिनेमा के जलसा घर में श्रेष्ठि वर्ग की कन्याओं के ठुमके गरीब वर्ग देख रहा है। फूहड़ता से भरा सिनेमा वैसा ही समाजवादी है जैसे वामपंथी विद्वान पूंजीपति की शादी में संगीत प्रस्तुत कर रहा। बहरहाल एना मोरकॉम की किताब गंभीर है आैर उसका पूरा ब्यौरा इस लेख की सीमाआें में संभव नहीं है।