बोनट / दीपक मशाल

Gadya Kosh से
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रोज की तरह कॉलेज जाने के लिए जब उसने अपनी सहेलियों के साथ पास के शहर जाने वाली पहली बस पकड़ी तो बस में क़दम रखने पर कुछ भी नया नहीं मिला। सामने वाली सीट पर वही बैंक बाबू अपनी अटैची लिए बैठे थे, उनके साथ रस्ते के गाँव में उतरने वाले वो प्राइमरी स्कूल टीचर, बाएं तरफ की सीट पर जिला न्यायालय जाने वाले वो तीन वकील साहब और बोनट व ड्राइवर के आसपास वही ३ छिछोरे लड़कों का गैंग।

“आय हाय आज तो सरसों फूल रही है। चलें क्या खेत में?” बोनट की तरफ से पहला घटिया कमेन्ट आया।

उसे क्या सबको समझ आ रहा था कि ये तंज़ उसी के पीले सूट को देख कसा जा रहा है।

दूसरा गुंडा टाइप लड़का कहाँ पीछे रहने वाला था- “प्यार से ना मिले तो छीनना पड़ता है आजकल की दुनिया में।।”

और ना जाने क्या-क्या अनाप-शनाप बोले जा रहीं थीं वो रईस बापों की बिगड़ी हुई औलादें।

कमाल की बात तो ये कि बस में सब सुन कर भी अनसुना कर रहे थे। वो भी चुप रही और उसकी सहेलियां भी। पर जब बस कंडक्टर किराया लेने आया तो उससे रहा नहीं गया और उससे बोल ही उठी- “भैया आप रोज के रोज ऐसे लोगों को चढ़ने ही क्यों देते हैं बस में या फिर चुप क्यों नहीं कराते?”

कंडक्टर रुखाई से बोला- “देखिये मैडम ये आप लोगों का आपस का मामला है आप ही जानें। और वैसे भी ना मैं आपका भैया हूँ और ना वो लोग ऐसा कुछ कर रहे हैं कि मैं अपने पेट पर लात मार लूं। आप ही की तरह वो भी मेरी सवारी हैं। अगर कुछ कह दिया तो आप ध्यान ही मत दो, कह ही तो रहे हैं। कुछ कर थोड़े रहे हैं।”

“मतलब??” वो हैरान रह गई उसका जवाब सुन।

शाम को कंडक्टर जब अपने घर पहुंचा तो पता चला घर में अज़ब कोहराम मचा था। मोहल्ले के किसी लड़के ने राह चलते उसकी बहिन का दुपट्टा जो छीन लिया था।

अगले दिन पहली बस में वो लड़कियां थीं, बैंक बाबू , मास्टर साब थे, वकील साब थे और बाकी सब थे। बस बोनट के आस-पास कोई नहीं था।