ब्योमकेश बक्शी: ब्रैंड नहीं बन पाया / जयप्रकाश चौकसे

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ब्योमकेश बक्शी: ब्रैंड नहीं बन पाया
प्रकाशन तिथि :04 अप्रैल 2015


आदित्य चोपड़ा और निर्देशक ने डिटेक्टिव ब्योमकेश बक्शी के लिए 1942 के दूसरे विश्वयुद्ध काल के समय के कलकत्ता का वातावरण अत्यंत विश्वसनीय बनाया है और सब काम किफायत से भी हुआ है। एक मास्टर अपराधी जापान की सेना को गंगा के मार्ग से कलकत्ता में घुसने का गहरा षड्यंत्र रचता है और इसके बदले उसे कलकत्ता से अफीम बाहर के देशों में बेचने की सहूलियत का वादा जापानी करते हैं और वह इस षडयंत्र में अपने दल में शामिल करने के लिए लोगों के सामने भारत प्रेम और अंग्रेजों के दंड का स्वांग भी करता है। इस सरल सी कथा के उलझे सूत्रों को किस तरह युवा जासूस ब्योमकेश बक्शी सुलझाता है, इस घटनाक्रम को दुरूह करके निर्देशक ने प्रस्तुत किया है क्योंकि चतुर अपराधी ने स्वयं ब्योमकेश बक्शी को भी अपने मोहरे के रूप में इस्तेमाल किया है।

निर्देशक का आग्रह विशुद्ध सिनेमा को विश्वसनीय वातावरण में प्रस्तुत करने का है, परन्तु नेक इरादे भी कई बार मनचाहा नतीजा नहीं देते। फिल्मकार विशुद्ध सौ प्रतिशत सोना देना चाहता है, परन्तु सोना ऐसी मुलायम धातु है कि थोड़ी सी मिलावट के बिना गहने नहीं बनते। हिन्दुस्तानी लोकप्रिय सिनेमा में सरलता एक विशेष गुण है, क्योंकि दर्शक का अवचेतन जिन धागों से बुना गया है उसमें कबीर की सी सादगी मनोरंजन परिदृश्य का आवश्यक अंग बन गई है। कोई दर्शक सिनेमा शास्त्र की बारीकी को खोजने फिल्म नहीं देखता, उसे सतही सनसनी की आदत है। गरल काढ़ा उसके गले नहीं उतरता। इसका अर्थ यह नहीं कि कोई विशुद्ध सिनेमा ही नहीं रचे। सब अपनी पसंद की फिल्म बनाने के लिए स्वतंत्र हैं। दरअसल, सिनेमा का आर्थिक आधार अधिकतम की पसंद है और इसे अनदेखा नहीं किया जा सकता। राजकुमार हीरानी ने क्रिस्टोफर नोलन के 'इन्सेप्शन' के विचार को सरल ढंग से प्रस्तुत करने के लिए 'पीके' का नायक अंतरिक्ष से आया बताया है और वह शरीर स्पर्श करके भूत, भविष्य दोनों वर्तमान में देख लेता है। जटिलतम विचार भी सरलता से प्रस्तुत किए जा सकते हैं। व्याख्या करने की कला में दुरुहता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। सबसे बड़ी बात यह है कि दर्शक से भावात्मक तादत्मय बनाया जाए।

अब भावना को लोगों ने गैरव्यवहारिक सिद्ध करके रोजमर्रा के जीवन से दूर करने की चेष्टा की है, जबकि राजनीति जैसे प्रतिद्वन्द्विता के क्षेत्र में भी भावना की लहर ही महत्वपूर्ण सिद्ध होती है। मार्था सी. नुसबाम की किताब 'पॉलिटिकल इमोशन' इस पक्ष पर प्रकाश डालती है। यहां तक कि देश के भौगोलिक व ऐतिहासिक स्थान भी लोकप्रिय लहर बनाने में सहायक होते हैं। राजीव गांधी ने 15 अगस्त 1985 को अपने पहले भाषण में ही गंगा को प्रदूषण मुक्त करने की बात की थी और नरेंद्र मोदी भी इसे दोहरा रहे हैं, क्योंकि गंगा भारतीय अवचेतन में पैठी हुई नदी है। यह बात अलग है कि राजनैतिक वायदे यथार्थ में आसानी से नहीं ढल पाते।

जीवन का कोई भी पक्ष ऐसा नहीं है, जिसे भावना की लहर नहीं छूती। यहां तक कि शेयर बाजार में भी भावना की लहर काम करती है। यह अलग बात है कि भावना की लहर का उत्पाद भी किया जा सकता है और उसे उन्माद में भी बदला जा सकता है। इसी मामले का दूसरा पक्ष यह भी है कि बाजार और विज्ञापन ने कुछ हद तक भावनाशून्यता पैदा की है। जैसे ही कोई भी विचार या आदर्श उत्पाद की सीमा में प्रवेश कर जाता है, वैसे ही उसके 'रिमोट कंट्रोल' भी बन जाते हैं। जीवन शतरंज की तरह हो गया है और मनुष्य मोहरों की तरह चलाए जा रहे हैं, परन्तु निष्प्राण लकड़ी के बने मोहरे भी किसी दिन अपना अधिकार मांग लेगें। बहरहाल इस फिल्म में वह लहर नहीं बन पाई।