भक्ति के बृहद आख्यान में 'सत्पुरुषों' की पीड़ा / बजरंग बिहारी तिवारी

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किसी समाज में होने वाले परिवर्तनों को ठीक तरह से समझे बिना उसमें सक्रिय और सार्थक हिस्सेदारी संभव नहीं होती। सामाजिक परिवर्तन अप्रत्याशित नहीं होते। उनके पीछे हमेशा एक सुदीर्घ पृष्ठभूमि होती है। हमारे वर्तमान समाज को रूपाकार देने में अगर उन्नीसवीं सदी के नवजागरण की केंद्रीय भूमिका है तो इस नवजागरण के स्वरूप को भलीभाँति समझना आज के समाज को समझने के लिए आवश्यक है। स्वयं नवजागरण के सम्यक बोध के लिए ऐतिहासिक परिवेश के अलावा उसकी पृष्ठभूमि का व्यवस्थित अध्ययन अपेक्षित है। नवजागरण की चिंताएँ, उसके कई असमंजस उस सांस्कृतिक आंदोलन में देखे जा सकते हैं जिसे डा. रामविलास शर्मा नवजागरण का पहला दौर कहते हैं। नवजागरण का पहला दौर अर्थात भक्ति आंदोलन की प्रतिच्छाया उन्नीसवीं सदी की अंतश्चेतना पर पड़ी ही, साथ ही, चूँकि भक्ति आंदोलन की परिणतियाँ लोक चित्त में घुल मिल गई थीं इसलिए प्रायः सभी परवर्ती सांस्कृतिक राजनीतिक परिघटनाओं पर इसका न्यूनाधिक असर पड़ा है। भक्ति आंदोलन पर इसीलिए लगातार चिंतन मनन जरूरी है। नवजागरण के दौर में भक्ति संवेदना हमारे आलोचकों के लिए अनिवार्य संदर्भ बिंदु रही। क्योंकि अलग अलग तरह के वैचारिक प्रस्थानों ने मध्ययुगीन भक्ति आंदोलन से अपने अनुकूल तर्क और प्रतिमान गढ़ने चाहे इसलिए इस आंदोलन की 'सही व्याख्या' का ऐतिहासिक विवाद पैदा हुआ। यह विवाद भक्ति आंदोलन के उदय से लेकर उसके अवसान की व्याख्या तक फैला है। न तो भक्ति आंदोलन के उदय पर आम राय बन पाई न उसके अवसान की गुत्थी ही सुलझ सकी। हमारे दो मूर्धन्य साहित्येतिहासकार इस समस्या से टकराए और समाधान देने की कोशिश की। भक्ति आंदोलन के उदय को आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने मुस्लिम आक्रमण से जोड़ते हुए कहा कि भक्ति काव्य 'हतदर्प हिंदू जाति की प्रतिक्रिया' है जबकि आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने भक्ति को भारतीय चिंता धारा का स्वाभाविक विकास बताते हुए निष्कर्ष निकाला कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस (भक्ति) साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है। बाद के साहित्येतिहासकारों और आलोचकों ने अक्सर आ. शुक्ल अथवा द्विवेदी जी की व्याख्या के सहारे अपना मत विकसित किया। भक्ति आंदोलन के स्वरूप पर सोच विचार अब तक जारी है। पुनर्प्रकाशित 'आलोचना' के शुरुआती अंकों में डा. नामवर सिंह और प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी के बीच कबीर को लेकर चले विवाद को इसी बहस की अगली कड़ी के रूप में देखा जा सकता है।

भक्ति आंदोलन की सही समझ विकसित करने में कई बाधाएँ है। इनमें एक प्रमुख बाधा है इसे 'ग्रैंड नैरेटिव' के रूप में देखने का मोह। यह मोह आंदोलन के भीतर सक्रिय अंतर्विरोधों, विभाजक रेखाओं को या तो नजरअंदाज कर देता है या बहुत धुँधला करके पेश करता है। मसलन भक्ति का उत्तरवर्ती रूप उसके शुरुआती स्वरूप से इस कदर संबद्ध कर दिया जाता है कि दोनों एक से दिखाई देने लगते हैं। वैसे, हमारे दोनों बड़े साहित्येतिहासकारों ने ऐसा घालमेल नहीं किया था। आ. शुक्ल ने भक्ति के दो खाने बनाए थे अभारतीय और भारतीय। जब वे भक्ति आंदोलन के उदय पर विचार कर रहे थे तो उनके सामने मुख्यतः भक्ति का 'भारतीय रूप' अर्थात सगुण भक्ति थी। मुसलमानों के अत्याचार को उन्होंने इसीलिए इसके कारकों में सबसे महत्वपूर्ण माना। द्विवेदी जी ने आंदोलन के पूर्ववर्ती रूप को केंद्र में रखा और इस निर्गुण भक्ति धारा को भारतीय परंपरा के स्वाभाविक विकास के रूप में चिन्हित किया। 'हिंदी साहित्य की भूमिका' में उन्होंने तुलसीदास की वे चौपाइयाँ विस्तार से उद्धृत कीं जिनमें नाम लिए बिना कबीर आदि निर्गुणियों को चुन चुन कर गालियाँ दी गई हैं। इस प्रकार उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया कि निर्गुण और सगुण को एक मानना भ्रामक है। बाद के आलोचकों ने यह विवेक अक्सर नहीं किया। डा. रामविलास शर्मा ने भक्ति का 'ग्रैंड नैरेटिव' बनाने के प्रयास में लिखा, निर्गुण और सगुण परस्पर विरोधी नहीं हैं। एक ही सत्ता, व्यक्त और अव्यक्त, दोनों में है। ...कबीर जायसी तुलसी की एक सामान्य दार्शनिक भूमि है, उसी के अनुरूप उनके साहित्य की सामाजिक विषयवस्तु में बहुत बड़ी समानता है।1 इसी क्रम में निर्गुण और सगुण चेतना के सरोकारों को समान मानते हुए प्रो. मैनेजर पांडेय ने कहा, भक्ति आंदोलन और उसके साहित्य में अभिव्यक्त अनुभूति, विचारधारा और सांस्कृतिक चेतना... में सामंती समाज व्यवस्था और उसकी विचारधारा के मानव विरोधी रूपों तथा परिणतियों का बोध है, उनका चित्रण है और उनके विरुद्ध विद्रोह का भाव भी है।2 इस प्रकार हमारे वक्त के बड़े आलोचकों के आग्रह से भक्ति का बृहद आख्यान तो बन गया लेकिन उसकी कई मूलभूत विशिष्टताओं की उपेक्षा भी सुनिश्चित हो गई।

आचार्य शुक्ल ने भक्ति आंदोलन के प्रसार पर विचार करते हुए पुष्टिमार्ग के संस्थापक वल्लभाचार्य को इसका सर्वाधिक श्रेय दिया था, विक्रम की 15 वीं और 16 वीं शताव्दी में वैष्णव धर्म का जो आंदोलन देश के एक छोर से दूसरे छोर तक रहा, उसके श्री वल्लभाचार्य जी प्रधान प्रवर्तकों में से थे।3 भक्ति आंदोलन के उदय को लेकर जो वाद विवाद आलोचकों के बीच चला, वल्लभाचार्य उसके अनिवार्य संदर्भ बने। शुक्ल जी ने

मुसलमानों के शासन के कारण जब निष्कर्ष दिया कि 'अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की शक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने के अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था' तो उन्होंने प्रमाण स्वरूप वल्लभाचार्य का ही कथन उद्धृत किया था।

रामस्वरूप चतुर्वेदी ने इस निष्कर्ष को पुनः पुष्ट करने की जरूरत समझी, भक्त कवियों के एक प्रमुख गुरु के सीधे साक्ष्य पर यों प्रतिक्रियावाली व्याख्या पुष्ट होती है।"4 नामवर सिंह ने इस मान्यता का सविस्तार खंडन किया। उन्होंने उक्त मान्यता का आधार बने वल्लभाचार्य कृत 'कृष्णाश्रय' के श्लोकों को उद्धृत करते हुए लिखा, यह सही है कि स्तोत्र के इन श्लोकों में एक जगह देश के 'म्लेच्छाक्रांत' होने का उल्लेख है और यदि 'म्लेच्छ' को मुसलमानों का वाचक मान भी लिया जाए तो उससे यह कहाँ सिद्ध होता है कि गंगादि तीर्थों के भ्रष्ट होने, वेदों के अर्थ के तिरोहित होने, व्रतादिक सभी कर्मों के नष्ट होने, पाखंड, पाप, अज्ञान आदि के बढ़ने के लिए ये म्लेच्छ ही जिम्मेदार हैं और इन्हीं के आक्रमण के कारण कृष्ण का आश्रय ढूँढ़ा जा रहा है?5 चतुर्वेदी ने नामवर जी के इस प्रश्न पर कड़ी आपत्ति जताई। उन्होंने 'सेकुलरों' के इतिहासबोध की सटीक पहचान की कि वे इतिहास के असुविधाजनक प्रसंगों से भरसक बचना चाहते हैं और जहाँ बचना संभव नहीं, वहाँ मनमानी व्याख्या करते हैं। नामवर जी की व्याख्या को 'का कुतर्क' बताते हुए चतुर्वेदी जी कहते हैं, देश म्लेच्छाक्रांत है (म्लेच्छक्रांतेषु देशेषु) यह इस प्रसंग खंड का उद्घोषक वाक्य है, जिसे नामवर सिंह यह कह कर हल्का करना चाहते हैं कि 'एक जगह देश के म्लेच्छाक्रांत होने का उल्लेख है'। शायद गीत की टेक की तरह यदि इस वाक्य की बार बार आवृत्ति होती तो उन्हें समझ में आता कि सचमुच 'देश म्लेच्छाक्रांत है'। का कुतर्क आगे बढ़ता है 'म्लेच्छ' शब्द के अर्थ को लेकर। बड़ी कठिनाई से आलोचक मान पाता है कि 'म्लेच्छ' का अर्थ मुसलमान हो सकता है। वल्लभाचार्य के समय में यवन (ग्रीक), शक, हूण कोई भारत देश को आक्रांत नहीं किए थे। तब 'म्लेच्छ' का एक ही और सीधा अर्थ होता है मुसलमान। यह सब आज अत्यंत अप्रिय प्रसंग लग सकता है, पर इतिहास हमारे प्रिय और अप्रिय लगने से नहीं बनता। इतिहास को दबाने और झुठलाने से वर्तमान अधिक अप्रिय हो सकता है जो हमारे लिए ज्यादा बड़ी समस्या है।"6 राष्ट्रवादी ताकतों के उभार के इस दौर में चतुर्वेदी पुनः पुनः याद दिलाते रहते हैं कि किस प्रकार विदेशी अर्थात मुस्लिम सभ्यता के शासन में 'भारतीय सभ्यता' दीन हीन अवस्था में पहुँच गई थी। 'अक्षर पर्व' पत्रिका के एक अंक में चतुर्वेदी ने 'स्वतंत्रता परतंत्रता' शीर्षक से एक छोटी सी टिप्पणी लिखी है। इस टिप्पणी में उन्होंने रामविलास शर्मा की दो स्वीकारोक्तियाँ उद्धृत की हैं और उस पर अपनी तरफ से एक वाक्य में स्पष्टीकरण दिया है : 'यदि पिछले हजार बरस परतंत्रता के रहे हैं तो इस धारणा का मैंने बार बार खंडन किया है। धर्म भिन्न होने से जातीयता भिन्न नहीं हो जाती।' (रामविलास शर्मा : 'अक्षर पर्व' वार्षिकांक 1999)। 'भारतीय संस्कृति किस प्रकार अधोगति को प्राप्त हुई, इसका कवि ने यहाँ मर्मस्पर्शी वर्णन किया है। इस भारतीय संस्कृति को एक लहर की तरह मुस्लिम सभ्यता आक्रांत किए हुए थी। इसी विदेशी सभ्यता के लहर के ऊपर वह आलोकमय सत्य का लोक है, जो इस समय हिंदुओं की दृष्टि से ढका हुआ है। बिना इस बीच के सांस्कृतिक अंधकार को पार किए, सत्य तक पहुँच नहीं हो सकती है।' (रामविलास शर्मा : निराला के 'तुलसीदास' काव्य की भूमिका - 1988, पुनः 1992 में स्वीकृत संपुष्ट)।

उपर्युक्त उद्धरणों के संदर्भ में जाति, धर्म, संस्कृति और उनके आधार पर स्वतंत्रता परतंत्रता की व्याख्या अपेक्षित होगी।7

'इतिहास को दबाने और झुठलाने' के परिणामों से चिंतित चतुर्वेदी जी स्वयं इतिहास को कितना दबाते और झुठलाते हैं, यह देखने की बात है। फिलहाल, आगे बढ़ने से पहले हम वल्लभाचार्य के उन श्लोकों को देख लें जिनके आधार पर यह बहस विकसित हुई है

म्लेच्छाक्रांतेषु देशेषु पापैकनिलयेषु च, सत्पीडाव्यग्र लोकेषु, कृष्ण एव गतिर्मम ।2। गंगादि तीर्थ वर्येषु दुष्टैरेवाकृतेष्विह, तिरोहिताद्दि देवेषु, कृष्ण एव गतिर्मम ।3। अपरिज्ञान नष्टेषु, मंत्रोष्व व्रत योगिषु, तिरोहितार्थ वेदुषु कृष्ण एव गतिर्मम ।5। 8

'देश म्लेच्छों से आक्रांत है, म्लेच्छों से दबा हुआ देश पाप का स्थान बन गया है। सत्पुरुषों को पीड़ा दी जाती है। संपूर्ण लोक इस पीड़ा से पीड़ित है, ऐसे देश में भगवान कृष्ण ही हमारे रक्षक हैं। गंगा आदि सब उत्तम तीर्थ भी दुष्टों से आक्रांत हो रहे हैं। इसलिए इन आधिदैविक तीर्थों का महत्व भी तिरोहित हो गया है। ऐसे समय में केवल कृष्ण ही मेरी गति हैं। अशिक्षा और अज्ञान के कारण वैदिक तथा अन्य मंत्र नष्ट हो रहे हैं, ब्रह्मचर्यादि व्रत से लोग रहित हैं। ऐसे लोगों के पास रहने से वेद मंत्र हीन हो गए हैं। उनके अर्थ और ज्ञान विस्मृत हो गए हैं। ऐसी दशा में केवल कृष्ण ही मेरी गति हैं।9 'कृष्णाश्रय' के दो अन्य श्लोक भी काबिले गौर लगते हैं :

सर्वेमार्गेषु नष्टेषु कलौ च खलधर्मिणि। पाखंड प्रचुरे लोके कृष्ण एव गतिमर्म।।1।। नानावाद विनष्टेषु सर्वकर्मव्रतादिषु। पाषंडैक प्रयत्नेषु कृष्ण एव गतिमर्म।।6।। 10

जिस प्रकार वल्लभाचार्य का एक प्रतिपक्ष 'म्लेच्छ' शासन है, उसी प्रकार या उससे कहीं बड़ा, दूसरा प्रतिपक्ष वेद विरोधी मत पंथ है। वल्लभाचार्य इसे पाखंडपूर्ण प्रयत्न की संज्ञा देते हैं। विचित्र है कि हिंदी भाषी जनता को 'म्लेच्छाक्रांतेषु देशेषु' का अर्थ समझाने के लिए उद्धृत रामस्वरूप चतुर्वेदी को ये श्लोक उपेक्षणीय लगते हैं। इतिहास को इसी तरह दबाया और झुठलाया गया है। उक्त श्लोक की व्याख्या करते हुए दीनदयाल गुप्त लिखते हैं : उस वक्त कुछ ऐसे मतपंथ भी चल पड़े जिनके धर्माचार्यों को वेदशास्त्र का ज्ञान तक न था और जो इधर उधर से धर्म की दस पाँच बातें समेट कर तथा मूढ़ जनता में एक पंथ खड़ा कर सिद्ध गुरु बनने का दावा करते थे। श्रीवल्लभाचार्य ने अपने कृष्णाश्रय ग्रंथ में अनेक वादों के रूप में प्रचलित पाखंड पंथों का उल्लेख किया है। वे कहते हैं कि नास्तिकों के अनेक वादों के प्रभाव से संपूर्ण कर्म और व्रत नष्ट हो गए हैं। जो कर्म और व्रत किए जाते हैं, वे पाखंड के लिए। ऐसे समय में केवल कृष्ण ही रक्षा करने वाले हैं। 11 बताने की जरूरत नहीं कि डा. गुप्त आचार्य शुक्ल की मान्यता को ही दोहरा रहे हैं। वास्तव में सगुण भक्ति श्रुति मार्ग पर आए संकट से निपटने के लिए आयोजित हुई थी। यह जरूर है कि वक्त की नजाकत को भाँपते हुए उसे पर्याप्त लचीला बनाया गया था। अपने एक पद में अष्टछापी कवि परमानंद दास ने नोट किया कि अगर कृष्णलीला का सहारा न लिया जाता तो 'श्रद्धा धर्म' का लोप हो गया होता, सारी जनता 'औघड़पंथी' हो गई होती, शास्त्र ज्ञान को 'गमैया ग्यान' अपदस्थ कर चुका होता :

माधो या घर बहुत धरी। कहन सुनन को लीला कीनी मर्यादा न टरी।। जो गोपिन के प्रेम न होतो अरु भागवत पुरान। तौ सब औघड़ पंथहिं होतो कथत गमैया ग्यान।। बारह बरस को भयो दिगंबर ज्ञानहीन संन्यासी। खान पान घर घर सबहिन के भसम लगाय उदासी।। पाखंड दंभ बढ़्यो कलियुग में श्रद्धा धर्म भयो लोप। परमानंद वेद पढ़ि बिगर्यो का पर कीजै कोप।। 12

कृष्ण भक्ति शाखा के समान रामभक्ति धारा भी वेद मार्ग पर छाई विपत्ति से विचलित है। इस धारा के प्रतिनिधि तुलसीदास पंथों को कल्पित तथा वेद मार्ग को वास्तविक बताते हुए अपना पक्ष स्पष्ट कर देते हैं :

सुति सम्मत हरि भगति पथ संजुत विरति विवेक। ते परिहरहिं विमोह बस कलपहिं पंथ अनेक।। 13

गैर द्विजों की अभिव्यक्ति से डरे हुए सवर्णों के सुविचारित, संगठित उद्यम ने जो ऐतिहासिक दृश्य उपस्थित किया, उसकी तरफ गजानन माधव मुक्तिबोध ने सबसे पहले हमारा ध्यान आकृष्ट किया था। लेकिन, भक्ति आंदोलन को सिरे से सामंतवाद शास्त्रवाद वर्णवाद विरोधी मान लेने के बाद यह स्वाभाविक ही था कि मुक्तिबोध का अर्थवान संकेत उपेक्षित रह जाए।

'कृष्णाश्रय' के जिन श्लोकों को ऊपर उद्धृत किया गया उन्हें बारीकी से पढ़ने पर हमें एक सूत्र मिलेगा। इस सूत्र के सहारे हम इतिहास के उस कालखंड में छाई बेचैनी की तह तक पहुँच सकते हैं तथा द्विजों के दुख की पृष्ठभूमि समझ सकते हैं। यह सूत्र है 'सत्पीड़ा व्यग्र लोकेषु'। सत्पुरुषों को पीड़ा दी जाती है, संपूर्ण लोक इस पीड़ा से पीड़ित है। भारतीय समाज के ये 'सत्पुरुष' कौन हैं, बताने की आवश्यकता नहीं। भारत के इतिहास की विवेकपूर्ण छानबीन करने वाले यह जानते हैं कि शासन सत्ता से इन 'सत्पुरुषों' का रिश्ता हमेशा से ही आत्मीय और मधुर किस्म का रहा है। शासक चाहे देशी हों या विदेशी, इन्होंने राजदरबारों में अपनी जगह सुरक्षित रखी है। इस देश की व्यापक जनता के लिए ये भले ही पराए रहे, लेकिन शासकों के लिए विश्वसनीय, उनके अपने। शासन में बदलाव के साथ अपनी स्वामिभक्ति बदलने में उन्होंने देर नहीं लगाई। उनके समूचे साहित्य में शासक वर्ग की, राजा की आलोचना अपवाद रूप में है। फिर ऐसा क्या घटित हुआ कि वल्लभाचार्य को 'सत्पीड़ा व्यग्र लोकेषु' लिखना पड़ा? इस प्रश्न का सबसे सुलभ जवाब तो उपलब्ध ही है कि मुसलमान हिंदुओं की धर्म भावना पर कुठाराघात कर रहे थे। लेकिन, एक क्षण रुक कर इस सर्वस्वीकृत समाधान पर पुनर्विचार करना चाहिए। अगर उक्त घोषणा की वजह हिंदू स्वाभिमान, हिंदू जनता की सांस्कृतिक अस्मिता पर खतरा थी तब तो यह घोषणा मुहम्मद गोरी की दिल्ली पर विजय के साथ हो जानी चाहिए थी, लेकिन यह घोषणा होती है इस्लामी शासन के पूरे तीन सौ साल बाद। दिल्ली सल्तनत (जिसकी शुरुआत लगभग 1200 ई. में हुई) के पूरे दौर में देश को म्लेच्छों से आक्रांत घोषित करने की जरूरत क्यों नहीं समझी गई? सल्तनत के आखिरी बड़े सुल्तान सिकंदर लोदी (1489-1517) के शासन काल में ही संकट का ऐसा बोध क्यों हुआ? असल में, वल्लभाचार्य की इस घोषणा के पीछे आहत धर्म भावना एक बहाना भर थी। इसका मूल कारण था ब्राह्मणों की सत्ता केंद्र से विच्छिन्नता, अर्थदंड, उनकी आजीविका पर खतरा, उनकी सुविधाओं में कटौती। अपने निजी संकट को उन्होंने समाज का संकट बना कर पेश किया। इस चतुराई को बाद के विद्वानों ने पर्दे के भीतर ही रहने दिया।

दिल्ली की गद्दी इस्लामी शासकों के हाथ में जाने के साथ ही ब्राह्मणों ने उनसे संपर्क कायम कर लिया। इससे उनके विशेषाधिकार प्रायः सुरक्षित रहे। दिल्ली सल्तनत की स्थापना के बिल्कुल शुरुआती दौर में मुल्तान पर सेनापित मोहम्मद बिन कासिम का शासन रहा। उसके शासन में 'ब्राह्मणों की हिफाजत की गई और उन्हें ऊँचे ओहदे दिए गए।'14 अनुमान किया जा सकता है कि दिल्ली सल्तनत के दौरान यह परंपरा कायम रही होगी। इस अनुमान को कई तथ्यों से पुष्ट किया जा सकता है। सबसे बड़ा तथ्य तो यह कि जिस वक्त बाकी हिंदू जनता जजिया कर के बोझ तले कराह रही थी, ब्राह्मण इससे मुक्त रखे गए थे। इस अपमानजनक दंड की परिधि से बाहर उनकी जिंदगी पूर्ववत चल रही थी। फिरोजशाह तुगलक (1351-1388 ई.) ने पहली बार इसमें खलल डाला। फिरोज शाह को यह बात समझ में नहीं आई कि जबकि मुल्क के सारे काफिर जजिया अदा कर रहे हैं, इन काफिरों का अगुआ करमुक्त रखा गया है। उसने जानकार अधिकारियों, धर्मगुरुओं से पूछा कि शरीयत के किन उपबंधों के तहत ब्राह्मणों को अब तक छूट दी गई है। इस्लामी कानून में इसकी कोई संतोषजनक व्याख्या नहीं मिली। फिरोजशाह ने ब्राह्मणों पर भी जजिया कर लगा दिया। 'तारीख ए फिरोजशाही' में इस घटना का जिक्र है। 'तारीख ए फिरोजशाही' शीर्षक से दो ग्रंथ उपलब्ध हैं। ख्वाजा जियाउद्दीन बर्नी ने अपनी 'तारीख' में फिरोजशाह तुगलक के शासन के प्रथम छह वर्षों (1351-56 ई.) का ही वर्णन किया है। इस ग्रंथ का अधिकांश हिस्सा खिलजी वंश को समर्पित है। फिरोजशाह ने अपने शासन के अंतिम वर्षों में ही ब्राह्मणों पर जजिया लगाया था इसलिए यह प्रसंग इस इतिहास ग्रंथ में प्राप्त नहीं होता। फिरोजशाह के ही समकालीन दूसरे इतिहासकार हैं शम्स ए सिराज अफीफ। अफीफ द्वारा लिखित 'तारीख ए फिरोजशाही' में फिरोजशाह का पूरा जीवन वर्णित है। फिरोजशाह पर लिखने वाले परवर्ती इतिहासकारों के लिए यह ग्रंथ अनिवार्य और प्रामाणिक स्रोत रहा है। इस किताब में किस्म पाँच के अंतर्गत 'चौथा मुकदमा' में जजिया वाली उक्त घटना दर्ज है। उर्दू अनुवाद की मदद से यहाँ उस अंश को ज्यों का त्यों प्रस्तुत किया जा रहा है : 15

नकल है कि फिरोजशाह ने अपने तमाम दौरे हुकूमत में एहकामे शरा (शरीयत कानून) का हमेशा पासोलिहाज रखा है। बादशाह ने कवानीने शरीयत (इस्लामी कानून) को मद्देनजर रख कर जुन्नारदार अफरात 16 से जजिया वसूल किया। फिरोजशाह से पेश्तर किसी बादशाह के अहद (शासन काल) में जुन्नारदार रियाया पर जजिया नहीं आयद किया गया था और कभी भी इस गिरोह ने किसी को जजिया नहीं दिया था। 17 फिरोजशाह ने तमाम उल्मा और मशायख (शेखों) को जमा किया और उनसे फरमाया कि आम गलती हमेशा से चली आ रही है कि जुन्नारदार गिरोह से जजिया नहीं वसूल किया जाता। सलातीने गुजिश्ता ने इस अम्र पर ज्यादा तवज्जो नहीं की जिसकी खास वजह यही खयाल की जा सकती है कि बहीखवाहाने मुल्क (देश के शुभचिंतकों) पर गफलततारी रही और उन्होंने सलातीन को इससे आगाह नहीं किया। चूँकि बरहमन कुफ्र के हुजरे (कमरे) की कुंजी की हैसियत रखते हैं और तमाम गैर मुस्लिम रियाआ उनकी मुत्तकिद है, इसलिए उनको माफ न करना चाहिए और उनसे जरूर जजिया वसूल करना चाहिए।

तमाम उल्मा-ए-शरीयत और मशायख-ए-तरीकत ने फतवा दिया कि जुन्नारदार और बरहमन से निहायत शिद्दत के साथ जजिया वसूल करना चाहिए और उसे माफ न किया जाए।

तमाम जुन्नारदार जमा होकर कौशक-ए-शिकार में जमा हुए। बादशाह कौशक-ए-मजकूर में तामीर-ए-इमारत में मशरूफ था। इस मजमे ने फिरोजशाह से अर्ज किया कि हमारे असलाफ (पूर्वजों) ने किसी वक्त और किसी बादशाह के अहद में जजिया नहीं दिया है। हम किस तरह अदा करें और इस रूसियाही (स्याह चेहरे) के साथ कहाँ जाएँ? हम बादशाह के हुजूर में इसलिए हाजिर हुए हैं कि इस महल के नीचे लकड़ी का अंबार लगाएँ और बजाए जजिया देने के अपने को जिंदा जला दें। जब उनके ये सख्त अल्फाज बादशाह के कानों में पहुँचे तो उसने कैफियत बयान करने वालों को तेज नजर से देखा और फरमाया कि उनसे कह दो कि अपने को इसी वक्त जला दें और हलाक हो जाएँ लेकिन उनका जजिया किसी तरह माफ नहीं हो सकता। इस खयाल-ए-मुहाल (मुश्किल खयाल) को अपने दिल से दूर कर दें। इस गिरोह ने कौशक के सामने चंद रोज फाका में बसर किए और इस तरह अपने को मुअरिज-ए-हलाकत (मरणासन्न अवस्था) में डाला, लेकिन जब उनको यकीन हो गया कि बादशाह हमसे दरगुजार (माफ) करने वाला नहीं है तो शहर के तमाम हिंदू जमा हुए और उन्होंने बिल इत्तेफाक (एक साथ होकर) जुन्नारदार गिरोह से कहा कि जजिया की वजह से तुम्हारा इस तरह हलाक होना मसलहत के खिलाफ है।

गर्जकितमाम हिंदुओं ने जुन्नारदारों का जजिया अपने जिम्मा ले लिया।

देहली में जजिया की तीन किस्में हैं अव्वल चालीस टंका, दोयम बीस टंका और सोयम दस टंका।

तमाम जुन्नारदार अफराद ने बादशाह से अपने उज्र (मजबूरियों) का इजहार किया और अर्ज किया कि तमाम रक्म जजिया में हर फर्द (प्रति व्यक्ति) के लिए कुछ कम कर दी जाए। फिरोजशाह ने हर पचास अशखास (व्यक्तियों) पर पचास टंके जजिया मुकर्रर कर दिए।19 बादशाह ने हुक्म देकर रक्म की वसूलियाबी के लिए ओहदादार भी मुकर्रर फरमा दिए।

उक्त जजिया प्रसंग की चर्चा सुल्तान फिरोज शाह ने स्वयं की है। अपनी लिखी छोटी सी किताब 'फुतूहात-ए-फिरोजशाही' में उसने इसे अपनी 'विजयों' में गिना है। वह लिखता है : हिंदू और मूर्तिपूजक जार-ए-जिम्मिया अदा करने को सहमत हो गए और जजिया के लिए हामी भर दी। इसके बदले में उन्होंने और उनके परिवारों ने सुरक्षा पाई। 20 यह भी नोट करने लायक है कि शिया समुदाय के दमन को भी वह अपनी खास फतह मानता है।21 फिरोजशाह का शासन अपनी समृद्धि के लिए ख्यात है। अफीक ने लिखा है कि सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी के जमाने की समृद्धि बाजार में वस्तुओं के मूल्य को नियंत्रित करके हासिल की गई थी जबकि फिरोजशाह के वक्त की समृद्धि वास्तविक थी।

अपने कृत्यों की वजह से फिरोजशाह हमारे लिए महत्वपूर्ण है। इसलिए उसके बारे में थोड़ी और चर्चा कर लेना अप्रासंगिक न होगा। तुगलक, रजब और अबूबशर तीनों भाई थे। ये खुरासान से दिल्ली पहुँचे। उस समय अलाउद्दीन का शासन था। उनकी योग्यता से प्रभावित होकर अलाउद्दीन खिलजी ने इन्हें अपनी सेवा में ले लिया। जिन दिनों तुगलक दीपालपुर का गवर्नर था, उसने अपने छोटे भाई सिपाहसलार रजब की शादी दीपालपुर के राजा रणमल भट्टी की योग्य पुत्री बीबी नायला से कराई। फिरोज इसी राजपूतनी का बेटा था। अफीफ के अनुसार उसका जन्म 1309-1310 ई. में हुआ था। जब फिरोज सात साल का हुआ, उसके पिता चल बसे। तुगलक ने अपने भतीजे को पूरा सरंक्षण दिया। फिरोज का पालन पोषण तुगलक के बेटे जौना खाँ (जो बाद में मुहम्मद बिन तुगलक कहलाया) के साथ ही हुआ। कहा जाता है कि फिरोज की दो शादियाँ हुईं। पहली सुल्तान बनने से पहले और दूसरी उसके बाद। पहली शादी को प्रेम विवाह की संज्ञा दी जा सकती है। हुआ यों कि युवा फिरोज शिकार खेलते खेलते भटक गया। थक कर रात में वह थानेश्वर कस्बे में पहुँचा। यहाँ पर जमींदारों की बैठक हो रही थी। यहीं उसकी भेंट साधू और सहारन दो भाइयों से हुई। ये फिरोज को अपने घर ले आए। इनकी एक बहन थी। उसकी खूबसूरती पर फिरोज मुग्ध हो गया और अपना दिल दे बैठा। भाइयों ने यह अवसर हाथ से जाने न दिया और जल्दी फिरोज के साथ अपनी बहन का विवाह कर दिया। बाद में भाइयों ने इस्लाम धर्म स्वीकार किया और फिरोज ने इन्हें राजकीय सेवा में रख लिया। सहारन को वजाहत उल मुल्क (मुल्क का विशिष्ट व्यक्ति) की उपाधि प्रदान की।22 थट्टा का विद्रोह दबाने गए सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक की मौत हो गई। दिल्ली की गद्दी बिना किसी उत्तराधिकारी के सूनी हो गई। उधर मंगोलों का भी आक्रमण हो गया। महान संकट की इस घड़ी में फिरोज के हाथ शासन की बागडोर सौंपी गई हालाँकि वह इसके लिए तैयार नहीं हो रहा था। जियाउद्दीन बर्नी ने लिखा है कि सभी वर्ग के लोगों हिंदुओं और मुसलमानों ने एक स्वर से उसे दिल्ली की गद्दी के योग्य घोषित किया।23 फ़िरोजशाह का लगभग अड़तीस वर्षीय शासन, मामूली हलचलों को छोड़ कर अत्यंत सुचारु रूप से चला। इतिहासकारों ने इसका सर्वाधिक श्रेय उसके वजीर किवामुल मुल्क मकबूल को दिया है। फिरोजशाह ने इसे 'खान-ए-जहाँ' (संसार का स्वामी) की पदवी दी थी। दिल्ली का असल शासक यही था। उसे सभी प्रकार की नियुक्तियाँ करने, राजस्व संबंधी मामले देखने, राज्य के अधिकारियों, यहाँ तक कि अशरफ-ए-मुमालिक (आडिटर जनरल) को अपने पद से हटाने का अधिकार मिला हुआ था। सुल्तान प्रशासन के संबंध में अपने वजीर के अलावा और किसी की नहीं सुनता था। दिल्ली दरबार से उसका संपर्क खान-ए-जहाँ के माध्यम से ही था।24 खान-ए-जहाँ मूलतः तेलंगाना का ब्राह्मण था। अपनी योग्यता और सुल्तान फिरोज शाह के प्रति अपनी अटूट निष्ठा की बदौलत उसने यह शक्ति हासिल की थी। उसकी मृत्यु के बाद उसके पुत्र जौना शाह को यह पद मिला। सुल्तान के प्रति निष्ठा में उसने अपने पिता को भी पिछाड़ दिया।25 फिरोजशाह के साथ हर वक्त रहने वालों में उसके एक मामा राय भीरू भट्टी का नाम लिया जाता है।26 विद्यापति ने 'कीर्तिलता' में लिखा है कि उनके आश्रयदाता तिरहुत के शासक भोगेश्वर को सुल्तान फिरोज शाह प्रिय मित्र कह कर आदर करते थे।27

इन साक्ष्यों की रोशनी में यह स्पष्ट हो जाता है कि ब्राह्मणों पर जजिया लगाने वाला फिरोजशाह इस देश की बहुसंख्यक हिंदू जनता के लिए अजनबी नहीं था। असल में तो वह सवर्ण हिंदुओं से घनिष्ठ रूप से संबद्ध था। कहा जाता है कि उसने नागरकोट जाकर ज्वालामुखी देवी के मंदिर में सोने का छत्र अर्पित किया था। हालाँकि, अफीफ इसका खंडन करते हैं और इसे मात्र हिंदुओं द्वारा बहुप्रचारित अफवाह बताते हैं।28 फिरोजशाह की पृष्ठभूमि को देखते हुए ब्राह्मणों के लिए उससे किसी प्रकार की अनिष्ट की आशंका मुश्किल थी। कोई उम्मीद नहीं थी कि पहले से चली आ रही अनुकूल परंपरा को सुल्तान फिरोज तोड़ेगा। इस परंपरा को 'फतवा-ए-जहाँदारी' में बर्नी ने बहुत दुख के साथ दर्शाया है, मुसलमानों के शहर (दिल्ली) में काफिरों को खुली छूट मिली हुई है, बुतों की सार्वजनिक पूजा होती है... काफिर अपने झूठे मजहब की खुले तौर पर, भय मुक्त होकर शिक्षा दे रहे हैं, ढोल और नगाड़ों के साथ नाचते गाते हुए वे पहले से कहीं अधिक उत्साह से अपने उत्सव मनाते हैं... ऐसे में इस्लाम का उत्थान भला कैसे हो सकता है?29

म्लेच्छों के अनुकूल शासन में फिरोज शाह का उक्त निर्णय ब्राह्मण समुदाय के लिए अप्रत्याशित धक्का था। उन्होंने सुल्तान से याचना करके जजिया की रकम कम तो करवा ली, लेकिन उसका दंश कम नहीं हुआ। तुगलक वंश के बाद मात्र कुछ वर्षों के लिए सैयद वंश का दिल्ली की गद्दी पर कब्जा रहा। उसके बाद लोदी वंश की बारी आई। सिकंदर लोदी (1489-1517 ई.) ने फिरोज शाह की परंपरा कायम रखी।30 वह धर्मांध शासक था। अपने अभियानों में उसने कई मंदिर तोड़े थे। ब्राह्मणों की तिलमिलाहट क्रमशः हताशा में बदलने लगी। यद्यपि उन्होंने दिल्ली सुल्तान से अपने संबंध सुधरने की उम्मीद नहीं त्यागी थी। 'तारीख-ए-दाऊदी' में उनकी एक कोशिश का संकेत मिलता है। यह ग्रंथ संभवतः जहाँगीर के शासन काल में लिखा गया था। इसके लेखक अब्दुल्ला ने सिकंदर लोदी के शासन काल का वर्णन किया है : लोधन नामक एक ब्राह्मण जो कनेर गाँव का निवासी था, एक दिन आया। उसने मुसलमानों के सामने कहा कि इस्लाम भी उतना ही सच्चा धर्म है जितना स्वयं उसका धर्म। उसके इस कथन का चारों ओर बड़ा शोर हुआ और यह बात उल्माओं के कानों तक पहुँची। लखनौती के निवासी काजी प्यारा और शेख बदर ने ऐसा फतवा दिया जिसका इस मामले से मिलान नहीं होता था। अतः उस जिले के फौजदार आजम हुमायूँ ने उस ब्राह्मण, काजी और शेख बदर को सुल्तान की सेवा में संभल भेजा। ...मामले की छानबीन करने के पश्चात उल्माओं ने निश्चय किया कि ब्राह्मण को कैद कर के मुसलमान बनाया जाए अन्यथा उसे मार दिया जाए। जब ब्राह्मण ने धर्म परिवर्तन नहीं किया तो उल्माओं के निर्णय के अनुसार उसको मार डाला गया। 31

'तारीख-ए-दाऊदी' में कहा गया है कि सिकंदर लोदी के राज्य काल में एक बार मथुरा के घाटों पर प्रतिबंध लगा दिया गया था। कोई हिंदू न तो वहाँ स्नान कर सकता था, न ही सिर मुड़ा सकता था।32 वल्लभ संप्रदायी ग्रंथों में इस घटना की चर्चा हुई है। वल्लभाचार्य के बाद की चौथी पीढ़ी के गोस्वामी हरियाय ने 'श्रीनाथ जी की प्राकट्यवार्ता' में लिखा है कि जब आचार्य मथुरा पहुँचे तो उनसे प्रार्थना की गई कि वे इस बाद्दा को हटवा दें। वल्लभाचार्य ने अपने दो शिष्यों वसुदेवदास और कृष्णदास को सिकंदर लोदी के पास दिल्ली भेजा। बादशाह ने मथुरा के कामदार रुस्तम अली को हुक्म देकर वह बाद्दा हटवा दी।33 'कांकरोली का इतिहास' में बताया गया हैः दिल्ली के बादशाह सिकंदर लोदी को जब वल्लभाचार्य की महानुभावता का परिचय मिला, तो उसने होनहार नामक प्रसिद्ध चित्रकार को उनका चित्र बना लाने को गोकुल भेजा। वह बड़ा कुशल चित्रकार था। ...जब वह वल्लभाचार्य का चित्र बना चुकने पर उनसे मिलाने लगा, तो उसे चित्र में बड़ा अंतर मालूम पड़ा। इस प्रकार बनाए हुए दो चित्र जब उसे ठीक न जँचे, तब अंत में उसने विवश होकर श्रीचरणों में उसकी लाज रख लेने की प्रार्थना की, जिस पर वल्लभाचार्य ने तीसरा चित्र बनाने का उसे आदेश दिया। यह चित्र स्वरूप से बिलकुल मिल गया, जिसे देख कर बादशाह बहुत खुश हुआ। कहते हैं - इसके उपरांत आचार्य चरण की त्यागवृत्ति के माहात्म्य से प्रभावित होकर सिकंदर लोदी ने वैष्णव संप्रदाय के साथ किसी प्रकार का जोर जुल्म न करने की मुनादी पिटवा दी।34 'इतिहास' इन चित्रों के बारे में सूचना भी देता है : इन चित्रों में से प्रथम संप्रति कांकरोली में और तीसरा असली चित्र कृष्णगढ़ के राजमंदिर में सेवा में विद्यमान है, जो वहाँ के महाराजा ने बादशाह को अपनी वीरता से प्रसन्न कर माँग लिया था। इस चित्र के विषय में नागर समुच्चय में महाराजा सरूपसिंह जी कृष्णगढ़ नरेश का चरित्र लिखने के बाद इस प्रकार लिखा है इनका जन्म सं. 1685 वैशाख शुक्ल 11 के दिन हुआ। इन्हीं महाराजा ने काबुल फतह करने के इनाम में शाहजहाँ बादशाह से उक्त चित्र माँग लिया था :

श्रीवल्लभ आचार्य को होनहार के हाथ चित्र करायो प्रीतिकर शाह सिकंदर नाथ। वही चित्र अति महर कर कर दीजै वक्षीस।'35

सिकंदर लोदी के बाद दिल्ली सल्तनत का सूर्य बहुत शीघ्रता से अस्ताचल की ओर बढ़ चला। दिल्ली के तख्त पर कई वर्षों तक अनिश्चितता छाई रही। मुगल बादशाह हुमायूँ के शासन से स्थिर हुकूमत की संभावना बनने लगी। इस अवधि में वल्लभाचार्य अपने संप्रदाय के प्रचार प्रसार में जोर शोर से लगे हुए थे। पुष्टिमार्गी ग्रंथ 'भावसिंधु' में 'श्रीआचार्य जी महाप्रभु की निजवार्ता' में बताया गया है कि वल्लभाचार्य दिल्ली जाकर न केवल हुमायूँ से मिले थे अपितु उनसे यथोचित दक्षिणा भी प्राप्त की थी : सो ईच्छा विचारि के... रामानुज पंडित, जगतानंद पंडित, वासुदेव दास टकड़ा, पूरनमल छत्री, अंबाले के त्रिपुरदास, यादवेंद्र दास आदि भगवदीयन को समाज लेके दील्ली को पधारे। सो यह बात म्लेच्छन ने सुनी, हुमायूँ सों जाय अरज करी, जो साहिब पहेले जंत्र जो दिल्ली में मथुरा दरवाजे पर लगाए सो कितने हिंदू हो गए सोई फकीर साहब पधारे हैं। सो न जाने कहा होनहार है। एसो दिल्ली में भारी शोर भयो और अपने दीन के गाम में हते, सो फकीर साहब को आए जानि के सब भाजि गए। कोई काजी रह्यो नाहिं। सो अब हजरत आप बचाओ तो बचेंगे। नातर सब हिंदू हो जाता है। ...फेरि हुमायूँ ने यह बात सुनी, तब दोय वजीर हिंदू, सोने की सुखपाल, चमर, छत्र लेके आप को पधरायवे को पठाये। सो एक मजल सामने आए, सो उन वजीरन ने आयके हुमायूँ की आडी की विनती करी और कितनीक भेंट करीके सुखपाल में आपको पधराये ओर विनती करी, जो आज्ञा होय तहाँ ताई आपके सामने हजरत साहब लिवायवे को आवें। तब आपने आज्ञा करी, जो लिवायवे को कछू काम नाहिं। जो हम निगम बोध घाट पे न्हायवे को पधारेंगे ऊहाँ आय के दर्शन करें। सो यह हलकारा ने आयके अरज करी। सो हुमायूँ ने ऊहाँ तांईं हलकारान की डाक बांधि दीनी, सो घरी घरी में खबर मँगावे। ... फेरि आप निगमबोध घाट पे न्हायवे को पधारे, तब हुमायूँ आपके दर्शन को आयो। ...फेरि साष्टांग दंडवत करिके सहस्रावधि मोहोर आपकी भेंट धरी और वीनती करी जो आज मुजे दर्शन दीया, आपुना जान्या। जो मेरे राज्य के भाग्य की कहा बड़ाई करूँ, जो जा समय आपका अवतार भया। और यह वीनती करी जो मो को यह दुवा दो जो दोऊ दीन कायम रहे बिगरे नांहि। तब आपने आज्ञा कीनी जो हमारे बिगारी के कहा करनो है, जो अनीति करोगे तो आप ही बिगरी जाओगे।35

हुमायूँ के दो शासन कालों के बीच शेरशाह बादशाह बना। उसकी धार्मिक अनुदारता के प्रमाण कम ही मिलते हैं। उसकी तलवार इस्लाम के प्रचार में उठती रहती तो मध्यकाल के मुस्लिम इतिहासकार उसकी तारीफ जरूर करते। वे शेरशाह और उसके उत्तराधिकारों के समूचे सोलह वर्षीय शासन को 'मजहब' के प्रचार के लिहाज से अनुल्लेखनीय मानते हैं। 36 शेरशाह का प्रमुख कमांडर हिंदू था और उसकी डाक चौकियों में हिंदू नियुक्त किए जाते थे।36

म्लेच्छों के शासन से अगर हिंदू जनता त्रस्त थी तो हिंदू समाज के अग्रगामी वर्ग ब्राह्मण समुदाय को चाहिए था कि वे इन 'विधर्मियों' से दूर रहें और कोई ऐसी सुचिंतित कार्य योजना तैयार करें जिससे 'पापैक निलयेषु' पाप का स्थान बनता देश पुनः पवित्र हो सके। ऐसा कहना अनुचित होगा कि उन्होंने ऐसी चिंता जताई ही नहीं। लेकिन कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने समुदाय के सामने कुछ और घोषित किया जा रहा था और पर्दे के पीछे घटित कुछ और ही हो रहा था? हम अकबर का शासन काल देखें। 'म्लेच्छाक्रांतेषु देशेषु' का उद्घोष हुए अभी ज्यादा दिन नहीं बीते थे। वल्लभाचार्य (सन 1478-1530 ई.) के बाद उनके छोटे पुत्र गुसाईं विट्ठलनाथ (सन् 1515-1585 ई.) को स्वामित्व के लिए पारिवारिक झगड़े में विजयी होने के बाद पुष्टि मार्ग की गद्दी मिल गई थी। एक म्लेच्छ बादशाह से भक्ति आंदोलन के सबसे बड़े संप्रदाय का रिश्ता किस तरह का हो, यह उन्हें तय करना था। अपने पिता महाप्रभु वल्लभ के मंतव्य उन्हें ज्ञात थे और उन्होंने उन्हीं का अनुसरण किया। इसी के साथ यह भी देखने की बात है कि व्यापक ब्राह्मण समाज का रवैया इस्लामी सत्ता के प्रति - पहले एक बार ठुकराए, पीड़ित किए जाने के बावजूद कैसा था? एक विधर्मी शासक से वे दूरी बनाए रखना चाहते थे या फिर मौके की तलाश में थे? अकबरी दरबार का रोचक ब्यौरा पेश करने वाले शम्सुल उल्मा मौलाना मुहम्मद हुसैन 'आजाद' ने लिखा हैः सौर और चांद्र दोनों गणनाओं के अनुसार जब जब उसकी (अकबर की) वर्षगाँठ पड़ती थी, तब तब उत्सव होता था। उस समय तुलादान भी होता था। बादशाह सात अनाजों और सात धातुओं आदि का तुलादान करता था। ब्राह्मण बैठ कर हवन करते थे और सब चीजों की गठरियाँ बाँध कर आशीर्वाद देते हुए घर जाते थे। दशहरे पर भी आते थे, आशीर्वाद देते थे, पूजन कराते थे और माथे पर टीका लगाते थे। जड़ाऊ राखी बादशाह के हाथ पर बाँधते थे।38 धन प्राप्ति और सत्ता से निकटता की लालसा में ब्राह्मणों ने 'विष्णु सहस्रनाम' से एक कदम आगे बढ़ कर, बादशाह के एक हजार एक नाम बनाए थे। कहते थे कि यह सब भगवान की लीला है। पहले कृष्ण और राम आदि के रूप में अवतरित हुए थे अब प्रभु ने इस रूप में अवतार लिया है। श्लोक बना बना कर लाया करते थे और पढ़ा करते थे। पुराने पुराने कागजों पर लिखे श्लोक दिखाते थे और कहते थे कि बहुत पहले बड़े बड़े पंडित लोग लिख कर गए हैं कि इस देश में एक ऐसा चक्रवर्ती राजा होगा जो ब्राह्मणों का आदर करेगा, गौओं की रक्षा करेगा और संसार को अन्याय से बचावेगा।39 एक मुसलमान शासक से अपनी निकटता को धर्मसम्मत ठहराने और शाही खजाने से प्राप्त होने वाली दान दक्षिणा की भारी राशि को 'जस्टिफाई' करने के लिए ब्राह्मणों ने एक और कहानी गढ़ी : अकबर के सामने एक प्राचीन लेख उपस्थित किया गया था जिससे सूचित होता था कि इलाहाबाद में मुकुंद नामक एक ब्रह्मचारी हो गया था, जिसने अपने सारे शरीर के अंग काट कर हवन कुंड में डाले थे। वह अपने चेलों के लिए कुछ श्लोक लिख कर गया था जिसका अभिप्राय यह था कि हम शीघ्र ही एक प्रतापी बादशाह बन कर इस संसार में फिर आवेंगे। उस समय भी हमारे सामने उपस्थित होना। उसी के अनुसार बहुत से ब्राह्मण वह लेख लेकर बादशाह की सेवा में उपस्थित हुए थे। उन लोगों ने निवेदन किया था कि हम लोग तब से श्रीमान पर ध्यान लगाए बैठे हैं। जब गणना की गई तब पता चला कि मुकुंद ब्रह्मचारी के मरने और बादशाह के जन्म लेने में तीन चार मास का अंतर था। कुछ लोगों ने इस पर यह भी आपत्ति की कि एक ब्राह्मण का म्लेच्छ या मुसलमान के घर में जन्म लेना ठीक नहीं जँचता। इसका उत्तर उन लोगों ने यह दिया कि करने वाले ने तो अपनी ओर से कोई बात छोड़ नहीं रखी थी, पर वह भाग्य को क्या करे। जिस स्थान पर उसने हवन किया था उस स्थान पर कुछ हड्डियाँ और लोहा गड़ा हुआ था। उसी का यह फल हुआ कि उसे मुसलमान के घर में जन्म लेना पड़ा।40 क्योंकि अकबर से सर्वाधिक लाभ वल्लभ संप्रदाय को मिल रहा था, इसलिए स्वाभाविक था कि वहाँ भी औचित्य निरूपण की तरकीब का इस्तेमाल हो। महाप्रभु वल्लभ के प्रपौत्र और संप्रदाय के अत्यंत मान्य आचार्य गोस्वामी हरिराय ने अपने 'भाव प्रकाश' में उक्त कहानी को किंचित परिवर्तन के साथ पुष्टि मार्गियों के संदेह निवारण हेतु इस तरह लिखा है : सो अकबर पातशाह विवेकी हतो। सो काहे तें? जो ये योगभ्रष्ट तें मलेच्छ भयो है। सो पहले जन्म में ये 'बाल मुकुंद' ब्रह्मचारी हतो। सो एक दिन ये बिना छाने दूध पान कियो, तामें एक गाय को रोम पेट में गयो सो ता अपराध तें यह म्लेच्छ भयो। 41

'आइन-ए-अकबरी' में शेख अबुल फजल ने लिखा है कि अकबर ने अपने शासन के सातवें वर्ष में युद्धबंदियों को दास बनाने का निषेध कर दिया, आठवें वर्ष में तीर्थ कर की माफी दे दी और शासन के नवें वर्ष में हिंदुओं से जजिया लेना बंद करवा दिया।42 ब्राह्मणों के लिए अकबर का समय स्वर्णकाल कहा जाएगा। पुष्टि मार्ग ने तो सर्वाधिक वैभव इसी काल में बटोरा। सांप्रदायिक ग्रंथों से ज्ञात होता है कि अन्य प्रतिद्वंद्वी संप्रदायों को दबाने में वल्लभ संप्रदाय अपने राजकीय संपर्कों का सहारा लिया करता था।43 ये ग्रंथ सांप्रदायिक समारोहों में अकबर के भाग लेने की भी सूचना देते हैं।44

शासन सत्ता से वल्लभ संप्रदाय के एक प्रमाण वे फरमान भी हैं जो अकबर, शाहजहाँ आदि के द्वारा जारी किए गए थे। ये फरमान पुष्टिमार्गी मंदिरों में सुरक्षित रखे गए हैं। बंबई हाईकोर्ट के जज रहे श्री कृष्णलाल मोहनलाल झावेरी ने इन फरमानों को संकलित करके अपनी टिप्पणियों के साथ 1928 में छपवाया था। इनमें से कुछ फरमान नीचे दिए जाते हैं। इन फरमानों में कहा गया है कि 'पवित्र जनेऊ धारण करने वाला' विट्ठलराय 'विलाशुबह हमारा शुभचिंतक है।' गोकुल और उसके आसपास की जमीन विट्ठलनाथ के नाम तथा 'नसलन दर नसल' आने वाली तमाम पीढ़ियों के नाम माफी दी गई है। ये सभी फरमान ई. सन् 1577 से 1805 के बीच के हैं :

1. तरजुमा फरमान अतिये जलाउद्दीन मोहम्मद अकबर बादशाह, गाजी चूँकि दुआगोय ला कलाम विट्ठलराय कसवे गोकुल में रहता है इसलिए चाहिए कि खलायक पनाह के नौकरों में से व गैरों में से कोई भी दुआगोय ला कलाम व उसके मुतेलकीन वलवाहकीन के साथ किसी किसिम का मुजाहमत न करे और किसी भी वजह से कोई चीज न माँगे। छोड़ देवे कि दुआगोह अपने ठौर ठिकाने खातिर से जमा रह कर हमारे दौलत की बढ़ती व इकबाल की तरक्की के वास्ते दुआ करता रहे। (तहरीर 29 जमादी उलसानी सन् 985 हिजरी मुताबिक सन् 1577 ईस्वी व सम्वत् 1634 विक्रमी।)

2. इस वक्त में हमने हुक्म फरमाया कि विट्ठलराय बिरहमन जो बिला शुबह हमारा शुभचिंतक है, उसकी गायें कहीं हों, वे चरें। खालसा व जागीरदार कोई उनको तकलीफ न देवे, न रोके टोके व चरने से मुमानत न करे, छोड़ देवें कि उसकी गायें चरती रहें और वह आजादी से गोकुल में रहें। चाहिए कि हुक्म के मुताबिक तामील करें और कदामत रखें और हुक्म के खिलाफ न करें। (तहरीर तारीख 3 सफर सन् 989 हिजरी मुताबिक सन् 1581 ई. सम्वत् विक्रमी।)

3. फरमान अतिये अबुल मुजफर शहाबुद्दीन मोहम्मद साहब किरान सानी शाहजहाँ बादशाह गाजी इस वक्त फरमान आलीशान जारी हुआ कि मौजे गोकुल परगने महावन ठाकुरद्वारे के खर्च के वास्ते कदीम से गुंसाई विट्ठलराय के पोतों को माफ है, लिहाजा हुक्म फरमाया जाता है कि मुहिम्मों के मुतसद्दी और जागीरदार लोग मौजूदा और आयंदा होने वाले इस हुक्म की पूरी तौर पर तामील कर मौजे मजकूर को ठाकुरद्वारे के खर्च के वास्ते बागुजर रखे और मजकूर के नसलन बाद नसल माफ रखें इसमें जरा भी रद्दोबदल न करें और कुल अवारि जात व सायर इखराजात व कुल बवजूहात व सरदरख्ती व कुल तकालीफ दीवानी से माफ और आजाद समझ कर हर साल नया फरमान व परवाना न माँगें कि गुँसाईं मजकूर जो कदीम से इस सल्तनत का दुआगो है खुशहाली के साथ फारिग उलबाल होकर हमेशा इस सल्तनत के कयाम तरक्की की दुआ करता रहे। (तहरीर तारीख 17 मेहर इलाही सन् 6 जुलूसी तद्नुसार सन् 1633, सम्वत् 1690 वि.।)

शाही दरबार से निकटता का असर अगर संप्रदाय की पूजा पद्धति पर दिखे तो इसे स्वाभाविक ही मानना चाहिए। पुष्टिमार्ग में कृष्ण के बालस्वरूप श्रीनाथ जी की 'सेवा' होती है।45 पुष्टिमार्गी आचार्यों खासकर गुँसाईं विट्ठलनाथ ने श्रीनाथ जी की सेवा को अधिकाधिक वैभवपूर्ण बनाने की चेष्टा की थी। बाद में पुष्टिमार्ग राग-भोग-श्रृंगार की त्रयी के रूप में ही जाना जाने लगा। सांप्रदायिक सेवा विधान में कुलह, सेहरा और शतरंज कैसे पहुँचा, इसे जानना दिलचस्प होगा। 'कांकरोली का इतिहास' में पुष्टिमार्ग के अधिकारी विद्वान प्रो. कंठमणि शास्त्री ने लिखा है : बादशाह ने चाकदार बाग और कुलह नामक अपनी राजकीय पोशाक पहिनने की इज्जत गुँसाईं जी को दी। इसके बाद गुँसाईं जी ने गोकुल में अपने संप्रदाय के मंदिरों की नींव लगाई। ...ऐसा भी सुनने में आता है कि बादशाह की ओर से आनरेरी न्यायाधीश निर्वाचित होने पर इन्होंने अपने प्रांत में कई वर्ष तक इस पद पर रह कर काम किया। ...न्यायाधीश की वेशभूषा वाला इनका प्राचीन चित्र भी मिलता है। 46 चूँकि गुँसाईं विट्ठलनाथ को संप्रदाय में कृष्ण का अवतार माना जाता है, इसलिए श्रीनाथ जी को राजकीय पोशाक कुलह (मुगलिया शाही टोपी) और सेहरा धारण करवाया जाने लगा। श्रीनाथ जी के खेलों में शतरंज के शामिल होने की कहानी यह है कि बादशाह अकबर ने अपनी बेगम ताज को विट्ठलनाथ से दीक्षा लेने की अनुमति प्रदान की। श्रीनाथ जी इससे बहुत प्रसन्न हुए और ताज से 'सानुभावता' जताने लगे, सो ताज ने अपने दोय महल न्यारे करे। एक महल में तो श्री महाप्रभु जी के चित्र को और सेवा सत्संग को और दूसरे महल में अकबर आवे। और श्रीनाथ जी ताज के संग सतरंज खेलें फेरि निज मंदिर में पधारें। ता दिन सों श्रीगुँसाईं जी श्रीनाथ जी सों पूछे, जो ऐसे नेत्र आरक्त आलस्य भरे हैं। सो रात्र कहाँ रहे? तब आज्ञा करी जो आज रात्र को ताज के संग सतरंज खेलें, तहाँ रहें। तासों नेत्र आरक्त हैं। ता दिन सों श्रीनाथ जी के राजभोग में सतरंज बिछिवे लागी।47

उक्त साक्ष्यों के आलोक में वल्लभ संप्रदाय की एक भिन्न तस्वीर बनती है। इस तस्वीर को दो तरह से देखा जा सकता है। एक तो इसे संप्रदाय की उदारता, नई संस्कृति, नए धर्म के प्रति खुलेपन के रूप में समझने का आग्रह किया जा सकता है; दूसरा, अवसरवादी रणनीति के रूप में। दूसरा प्रस्ताव सच के ज्यादा करीब लगता है। शाही संरक्षण पाने, जन सामान्य में अपनी धाक जमाने तथा कुलीनों के बीच प्रतिष्ठा हासिल करने की कोशिश में राजसत्ता से घनिष्ठता बढ़ाई गई, अपने सेवा विधान में शासकीय गरिमा के प्रमाण, संदर्भ रखे गए। लेकिन, इसके साथ ही 'म्लेच्छाक्रांतेषु देशेषु' की दहशत पैदा करके 'हिंदू जनता' की भावनाओं को भुनाने की प्रक्रिया भी जारी रही। इसे यों समझें हमारे समय में खुद को सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का एकमात्र प्रतिनिधि मानने वाला संगठन एक तरफ तो 'स्वदेशी जागरण मंच' के रूप में काम करता है, दूसरी ओर राष्ट्र की अर्थ व्यवस्था को बहुराष्ट्रीय कंपनियों के हवाले करने में कतई संकोच भी नहीं करता, यहाँ तक कि इन कंपनियों के लिए देश के भीतर काम करने वाले अधिकांशतः इनके समर्थकों के परिवारों से आते हैं। आखिरकार मोटी तनख्वाहें तो इन्हें कंपनियों से मिलती हैं। आधुनिक हिंदुत्व के उभार को मध्यकालीन धर्म संप्रदायों से जोड़ कर देखने का जो सुझाव वसुधा डालमिया ने दिया है वह सचमुच अर्थवान और विचारणीय है।48

तत्कालीन राजसत्ता से पुष्टिमार्ग के रिश्तों की छानबीन करने के पश्चात उसके दूसरे पहलू पर भी नजर डालें। संप्रदाय के मंदिरों में भैरवी राग नहीं गाया जाता। इसका कारण अष्टछापी कवि गोविंद स्वामी की वार्ता में बताया गया है : और एक समै गोविंददास जसोदाघाट ऊपर बैठे हते। तहाँ प्रातःकाल कौ समौ हतो, सो वहाँ गोविंददास ने भैरवी (राग) अलाप्यो। सो गोविंददास को गरो बोहोत सुंदर, सो भैरवी राग एसो जम्यो जो कछु कहिवे में न आवे। सो एक मलेच्छ चल्यौ जात हतो। सो वाने गोविंददास को अलाप सुनिके कह्यो जो वाह वा! कहा! भैरवी राग अलाप्यो है।

एसो वा मलेच्छ ने कह्यो। तब (सुनि के) गोविंददास ने कह्यो जो अरे! राग छूयो गयो। ता पाछें गोविंद दास ने भैरवी राग कबहूँ न गायो। काहे तें, जो यह राग मलेच्छ ने सराह्यो है, सो श्रीनाथ जी के आगे यह राग कैसे गाऊँ? राग छूयो गयो। तातें गोविंददास ने भैरवी राग में कोई पद कियौ नाहीं। एसे टेकी (कृपापात्र भगवदीय) हते। 49 कंठमणि शास्त्री की इस प्रसंग पर टिप्पणी है ...संप्रदाय में उक्त कारणवश भैरवी राग नहीं गाया जाता।50

कहने की जरूरत नहीं रह जाती कि वर्चस्वशाली तबका एक तरफ तो मुस्लिम सत्ता से यथासंभव शासकीय संरक्षण और आर्थिक सहायता प्राप्त करता रहा दूसरी तरफ परंपरागत समाज में अपनी पवित्र और पूज्य छवि बनाए रखने के लिए मुसलमानों से घृणा का दिखावा भी करता रहा। यह स्थिति सिर्फ दिल्ली के आसपास या उत्तर भारत तक महदूद नहीं थी। सोलहवीं से अट्ठारवीं सदी के मराठा इतिहास पर अपने अध्ययन में इतिहासकार स्टेवर्ट गोर्डोन ने पाया कि, शुरू से ही ब्राह्मणों के विभिन्न गुट मुसलमान राजाओं की सेवा में लगे थे और कार्य संचालन में उनकी भूमिका अहम थी। मध्यम और निम्न स्तर पर कर वसूली का पूरा प्रशासन उन्हीं के जिम्मे था। बहमनी राज्य के विघटन के बाद उसके उत्तराधिकारी अहमदनगर के मुस्लिम शासकों ने, महाराष्ट्र के एक बड़े भाग को अपने कब्जे में ले लिया (पंद्रहवीं और सोलहवीं सदी में) तब वास्तविक रूप से पूरा प्रशासन देशस्थ ब्राह्मणों के द्वारा ही चलाया जाता था। मुसलमान शासन के अंतर्गत उन्हें बहुत कम तकलीफ उठानी पड़ी, उल्टे उनकी सामाजिक गतिशीलता में बढ़ोत्तरी ही हुई।51

मध्ययुग की सही समझ बनने में यदि भक्ति का 'ग्रैंड नैरेटिव' बाधक है तो इस पर विचार होना चाहिए कि यह 'ग्रैंड नैरेटिव' कैसे बना। वह कौन सा आधार है जिस पर सगुण और निर्गुण समान प्रतीत होते हैं? किस जमीन पर ये दोनों परस्पर विरोधी भक्ति धाराएँ एक सी दिखाई देती हैं? निर्गुण और सगुण में अभेदत्व स्थापित करने वाला भक्ति का बृहद आख्यान जब तक तर्कों की कसौटी पर परखा नहीं जाता तब तक भक्ति आंदोलन की हमारी समझ भ्रामक ही रहेगी और उन शक्तियों, संगठित प्रयत्नों को हम परिवर्तनकारी क्रांतिकारी मानते रहेंगे जो वस्तुतः इसके विरोध में सक्रिय थीं।

आचार्य द्विवेदी के इतिहासबोध की व्याख्या करते हुए डॉ. नामवर सिंह ने लिखा है, इस प्रकार मध्ययुग के भारतीय इतिहास का मुख्य अंतर्विरोध शास्त्र और लोक के बीच का द्वंद्व है, न कि इस्लामी और हिंदू धर्म का संघर्ष।52 नामवर जी का यह वाक्य अतिरिक्त अवधानता के साथ पढ़ा जाना चाहिए। शास्त्र और लोक का द्वंद्व ही वह भित्ति है जिस पर भक्ति का बृहद आख्यान रचा गया है। सगुण धारा में, विशेषतः कृष्ण भक्ति शाखा में शास्त्र के प्रति उपेक्षा और विरोध का भाव साफ साफ देखा जा सकता है। इस बिंदु पर सगुण और निर्गुण समान हो जाते हैं। इस दृश्य साम्य की मीमांसा की जानी चाहिए।

पुष्टि संप्रदायी ग्रंथ इस बात पर जोर देते हैं कि उन्हें शास्त्र मार्ग (मर्यादा मार्ग या स्मार्त मत) से भिन्न समझा जाए। वल्लभ संप्रदाय में शास्त्रोक्त कर्मकांड को प्रोत्साहन नहीं दिया जाता, यही नहीं सामान्य वैष्णवों के लिए ये कर्मकांड निषिद्ध हैं। स्वयं गोकुल नाथ ने एक बार यज्ञ करने का विचार किया था तब उन्हें इसकी अनुमति नहीं मिली थी।53 जन सामान्य में पुष्टि मार्ग की छवि स्मार्त मत से अलग थी। जब अष्टछापी कवि गोविंद स्वामी ने गुसाईं विट्ठलनाथ को पहली बार देखा तो उस वक्त वे संध्या तर्पण कर रहे थे। संध्या तर्पण मर्यादा मार्ग की रीति है। गोविंद स्वामी की शंका का निवारण गुसाईं जी ने यह कह कर किया कि जिस तरह फूल की सुरक्षा के लिए बाड़ लगाने की जरूरत पड़ती है, उसी तरह भक्ति मार्ग को कर्म मार्ग के आवरण से ढाँप कर रखना पड़ता है। लेकिन यह अधिकार सिर्फ आचार्य जी गुँसाईं जी के पास है सामान्य वैष्णव न तो यज्ञ कर सकते हैं न संध्या तर्पण और54 पुराण भागवत बाँच कर आजीविका चला सकते हैं। 54 भक्तों का आदर्श गोपियाँ हैं। इन गोपियों को अष्टछापी कवियों ने मर्यादा मार्ग का उल्लंघन करते हुए दिखाया है। एक पद में परमानंद दास कहते हैं :

मोहन मोहनी पठि मेली। देखत ही तन दसा भुलानी को घर जाई सहेली।। काके मात तात अरु भ्राता काको पति है नवेली। काकी लोक लाज डर कुल ब्रत को बन भ्रमति अकेली। परमानंद स्वामी मनमोहन स्रुति मर्यादा पेली।। 55

सूर का मशहूर पद है :

जब हरि मुरली अधर धरी। गृह ब्यौहार तजे आरज पथ चलत न संक करी।।

ऐसे ही तमाम उदाहरण और दिए जा सकते हैं जिससे पुष्टि मार्ग की शास्त्र विरोधी छवि निर्मित हुई है। पुष्टि संप्रदाय का संगठनात्मक रूप भी पर्याप्त लचीला रखा गया है। इसके अनुयायियों में स्त्रियाँ, मुसलमान, शूद्र, अंत्यज शामिल हैं। पुष्टिमार्ग के संस्थापक वल्लभाचार्य के गुणों पर प्रकाश डालते हुए गुँसाईं विट्ठलनाथ ने लिखा : स्त्री शूद्राद्युध्घृतिक्षमः56 अर्थात महाप्रभु स्त्री शूद्र आदि के उद्धार में सक्षम हैं (इसलिए उन्हें अन्यत्र जाने की जरूरत नहीं है)। हमारे आलोचकों के बीच गुँसाईं की यह घोषणा भरपूर तारीफ पाती है। वे इसे कृष्ण भक्ति धारा के समतामूलक होने के प्रमाण के रूप में देखते हैं। इसी तर्क से सगुण और निर्गुण संवेदना अभिन्न मान ली जाती है और भक्ति का बृहद आख्यान तैयार किया जाता है। लेकिन ऐसा सचमुच है क्या?

शास्त्रीय व्यवस्था की अवहेलना, वेदोक्त कर्मों के प्रति व्यापक उदासीनता कुल मिला कर पुष्टिमार्ग की उदारता हमारे आलोचकों के लिए संदेह से परे सिद्ध होती है और उसकी चेतना मुक्तिकामी, समताधर्मी और जनतांत्रिक ठहरती है। इससे यह निष्कर्ष निकालना आसान हो जाता है कि वल्लभ संप्रदाय 'वेद धर्म निर्मूलक' हैं। 'वेद धर्म निर्मूलक' अर्थात सामाजिक पदानुक्रम - वर्णाश्रम व्यवस्था - को न मानने वाला, इस व्यवस्था का विरोधी। वार्ता ग्रंथों में यह आशंका स्वाभाविक रूप से उठाई गई है। जो प्रसंग वार्ताओं में दर्ज हैं उनसे ज्ञात होता है कि ब्राह्मण वर्ग इस आशंका से ग्रस्त था कि पुष्टि मार्ग उनकी सर्वोच्चता अस्वीकार करता है। वडनगर (गुजराज) के पंडित माधव दास ब्राह्मणों के अगुवा थे। उनके मन में यह शंका थी कि पुष्टि मार्ग वेदमत के प्रतिकूल है। अपने समर्थकों के साथ माधव दास गुँसाईं जी के पास आए और उनसे शास्त्रार्थ किया। तब श्रीगुँसाईं जी ने साकार ब्रह्म को प्रतिपादन कियो और सभा में बहोत विवाद भयो। माधवदास के मन में जो हतो पुष्टिमार्ग वेद निर्मूलक है सो संदेह निकस गयो तब माधवदास वाही समय श्रीगुँसाईं जी के सेवक भये तब और पंडित कहने लगे जो सब में मुख्य तो तुम हते अब काहे कुं वैष्णव भये हो? तब माधवदास जी ने कहा जो दुराग्रही होवे सो न समझे परंतु सारवेत्ता होवे तो तुर्त समझे यासुं मोकुं सर्वोपर पुष्टिमार्ग वेद में मालूम परयो है। 57 सगुण भक्ति धारा की प्रकट कार्यसूची भरमाने के लिए थी। 'सारवेत्ता' ब्राह्मणों ने इसका महत्व समझा और पाया कि बदले परिवेश में वेद मार्ग की रक्षा वास्तविक कार्यसूची को प्रच्छन्न बनाए बिना नहीं की जा सकती। सामाजिक परिस्थितियों में आए परिवर्तन को पहचान कर ऐसी रणनीति तैयार की गई कि एक तरफ पौराणिक कर्मकांडों के प्रति उपेक्षा और विरोध का भाव दिखे और दूसरी तरफ ब्राह्मण वर्चस्व भी सुरक्षित रहे। गोस्वामी हरिराय ने महाप्रभु वल्लभ के अवतार तथा पुष्टिमार्ग की स्थापना के कारण का खुलासा करते हुए बताया :

धर्म संस्थापनार्थाय यस्य प्राकट्यमुच्यते। स हि धर्म व्यतिकरं स्वकृतं सहते कथम।।

धर्म के स्थापन के लिए श्रीमहाप्रभुजी तथा श्रीगुँसाईं जी को प्राकट्य है सो उचित है। प्रभु सदा धर्म की रक्षा करी है... श्रीविट्ठल पुरुषोत्तम रूप हैं धर्म स्थापनार्थ प्राकट्य है तासों जे कोई वेद धर्म को अतिक्रम करे अपने मनमानि क्रिया करे उन्मत्त होय सो प्रभु को न सुहाय।।58

ब्रह्मण्यो धेनु विप्रेशो वेद धर्मेक पालकः। स कथं सहते कृष्णस्तद्विेरोध जनैः कृतम।।

श्रीकृष्ण ब्राह्मण की रक्षा करिवेवारे हैं, धेनु और ब्राह्मण के ईश हैं, वेद धर्म के मुख्य प्रतिपालक हैं सो श्रीकृष्ण ब्राह्मण गाय और वेद धर्म, इनको विरोध जिनने कियो है सो कैसे सहेंगें?59

सगुण मार्ग के सरोकारों को निर्गुण मत से जोड़ कर देखने तथा दोनों के उद्देश्य को समान मानने का आग्रह करने वाले आलोचकों का ध्यान इन तथ्यों को तरफ जाना चाहिए। भक्ति धारा का सगुण रूप अपने पूर्ववर्ती आंदोलन का विकास नहीं है। यह उसके समाजिक लक्ष्यों को भ्रष्ट करने तथा उसकी प्रेमाधारित समतामूलक चेतना को आत्मसात करने की कोशिश है। हिंदी की आलोचना परंपरा में गजानन माधव मुक्तिबोध को भक्ति आंदोलन का विशेषज्ञ नहीं माना जाता पर इस आंदोलन के बारे में उनकी राय कितनी सच थी इसका कुछ अंदाजा इस निबंध में जुटाये गए प्रमाणों की रोशनी में हो जाता है। मुक्तिबोध ने लिखा : अपने कट्टरपंथी पुराणमतवादी संस्कारों से प्रेरित होकर, उत्तर भारत की कृष्ण भक्ति, भावावेशवादी आत्मवाद को लिए हुए, निर्गुण मत के विरुद्ध संघर्ष करने लगी। इस सगुण मत में उच्चवर्गीय तत्वों का पर्याप्त से अधिक समावेश था। किंतु फिर भी इस सगुण श्रृंगार प्रधान भक्ति की इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह जाति विरोधी सुधारवादी वाणी के विरुद्ध प्रत्यक्ष और प्रकट रूप से वर्णाश्रम धर्म के सार्वभौम औचित्य की घोषणा करे। कृष्ण भक्तिवादी सूर आदि संत कवि इन्हीं वर्गों से आए थे। इन कवियों ने भ्रमरगीतों द्वारा निर्गुण मत से संघर्ष किया और सगुणवाद की प्रस्थापना की। वर्णाश्रम धर्म की पुनः स्थापना के लिए सिर्फ एक ही कदम आगे बढ़ना जरूरी था। तुलसीदास जी के अदम्य व्यक्तित्व ने इस कार्य को पूरा कर दिया। इस प्रकार भक्ति आंदोलन, जिस पर प्रारंभ में निम्न जातियों का सर्वाधिक जोर था, उस पर उस पर अब ब्राह्मणवाद पूरी तरह छा गया और सुधारवाद के विरुद्ध पुराण मतवाद की विजय हुई।60

एक जिज्ञासा हो सकती है कि मुगल सत्ता से तमाम लाभ लेने के अतिरक्त वल्लभ संप्रदाय ने क्या अपने 'सामाजिक अभियान' में भी मदद ली होगी? राज सत्ता के प्रति कबीर और तुलसी अर्थात निर्गुण और सगुण के रवैये को एक सा मानते हुए डा. नामवर सिंह ने लिखा, राजसत्ता भक्तों के लिए सर्वथा उपेक्षा की वस्तु थी उसके प्रति भक्तों के मन में न तो किसी प्रकार की भक्ति का भाव था न विरोध का।61 चूँकि यह समझ भक्ति के 'मैटानैरेटिव' से बनी है इसलिए पूरी तरह सही नहीं है। निर्गुणियाँ संत राजसत्ता के प्रति भले ही सर्वथा उदासीन रहे हों पर सगुण भक्ति धारा के बारे में यह समझ गलत है। इसे हम पहले ही देख चुके हैं। 'कृष्णाश्रय' के प्रसंग में हमने यह भी देखा कि 'सत्पुरुषों' के दुख की एक वजह (वेद विरोधी) नाना वादों का उभरना है। वल्लभाचार्य के शब्दों में ये वाद कर्म और व्रतादि विनष्ट कर दे रहे हैं 'नानावाद विनष्टेषु सर्वकर्म व्रतादिषु'। शासन सत्ता का संरक्षण पाने के बाद इन 'सत्पुरुषों' ने वेद विरोधी 'पाखंडपूर्ण प्रयत्नों' पर अंकुश लगाने के लिए सरकारी आदेश जारी कराए। बादशाह अकबर की तरफ से यह भी आज्ञा हुई कि बहुत छोटी जातियों के लोगों को विद्या न पढ़ाई जाए क्योंकि वे विद्या पढ़ कर बहुत अनर्थ करते है।62 बादशाह से यह सुनिश्चित करवाया गया कि, हिंदुओं के मुकदमों के निर्णय के लिए ब्राह्मण नियुक्त हों। उनके मामले मुकदमें काजियों और मुफतियों के हाथ न पड़ें।63 इस प्रकार ब्राह्मणवादी ताकतों ने यह पक्का बंदोबस्त कर लिया कि उनके वर्चस्व को चुनौती देने वाली नई सामाजिक शक्तियाँ समय रहते कुचल दी जाएँ। पारंपरिक भारतीय मानस तो उनके पक्ष में था ही सरकारी मशीनरी को अनुकूल बनाने का उनका उद्यम भी सफल रहा। सामाजिक बदलाव की जो महान संभावना बन रही थी वह अगर बिलकुल खत्म नहीं हुई तो काफी लंबे समय के लिए दबा दी गई।

भक्ति आंदोलन का प्रगल्भ गुणगान करते हुए निर्गुण सगुण का विवेक करना तथा 'सत्पुरुषों' की पीड़ा और उनकी ऐतिहासिक भूमिका को ध्यान में रखना इसीलिए आवश्यक लगता है। निर्गुण और सगुण के बीच विरोध दिखाना या कि भक्ति के बृहद आख्यान की विरचना महान भक्ति आंदोलन को गौरव च्युत करने के प्रयास नहीं हैं। दरअसल उन शक्तियों की पहचान करना और उनसे लगातार सावधान रहना जरूरी है जो किसी भी तरह के मुक्तिकामी प्रयत्नों से डरती हैं और उन प्रयत्नों को नष्ट भ्रष्ट करने के प्रयास में लगी रहती हैं।

संदर्भ :

1. परंपरा का मूल्यांकन, डा. रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन, 1987, पृ. 93

2. भक्ति आंदोलन की परंपरा और सूरदास का काव्य, प्रो. मैनेजर पांडेय, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, 1993 प्रथम संस्करण की भूमिका से।

3. हिंदी साहित्य का इतिहास, आ. रामचंद्र शुक्ल, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, छब्बीसवाँ संस्करण, सं. 2049 वि.

4. 'आलोचना' द्विवेदी स्मृति अंक, अप्रैल सितंबर 1979, पृ. 57, डा. नामवर सिंह द्वारा 'दूसरी परंपरा की खोज' में भी उद्धृत, राजकमल पेपरबैक्स, 1983, पृ. 72

5. दूसरी परंपरा की खोज, 1983 पृ. 73

6. हिंदी साहित्य और संवेदना का विकास, प्रो. रामस्वरूप चतुर्वेदी, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, 1993, पृ. 43

7. 'अक्षर पर्व' (मासिक), संपादक ललित सुरजन, अंक 2, अगस्त 1999, पृ. 24

8. 'श्री षोडश ग्रंथाः' वल्लभाचार्य, संपादक गोस्वामी श्रीवागीश कुमार जी, प्रकाशक श्री वाक्पति फाउंडेशन, बड़ौदा, प्रकाशन तिथि ज्ञात नहीं, पृ. 37-38

9. अष्टछाप और वल्लभ संप्रदाय, भाग एक, डा. दीनदयालु गुप्त, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, द्वितीय संस्करण, 1970, पृ. 30

10. श्री षोडश ग्रंथाः, पृ. 37-38

11. डा. दीनदयालु गुप्त, वही, पृ. 35

12. वही, पृ. 36, परमानंद सागर, संपादक गो. श्रीब्रजभूषण शर्मा आदि, प्रकाशक : विद्या विभाग कांकरौली, पद संख्या 1328, पृ. 596, प्रकाशन वर्ष 2016 विक्रमी

13. मानस, उत्तरकांड, दोहा संख्या 100 (ख) गीता प्रेस, गोरखपुर संस्करण

14. मध्यकालीन भारत, स्टैनले लेनपूल, एम.ए. डी. लिट्., मूल अंग्रेजी में प्रथम प्रकाशन : 1903 ई., हिंदी अनुवाद - श्री सूर्य कुमार जोशी, एस. चंद एंड कंपनी, नई दिल्ली, प्रकाशन वर्ष अज्ञात, पृ.7

15. तारीख-ए-फिरोजशाही, शम्स-ए-सिराज 'अफीफ', फारसी प्रति, संपादक विलायत हुसैन, कलकत्ता, 1891, पृ. 382-384, उर्दू तर्जुमा मो. फिदा अली तालिब, प्रकाशक - नफीस एकेडमी, कराची, पाकिस्तान, दूसरा संस्करण, 1965 ई. पृ. 259-261। 'तारीख-ए-फिरोजशाही' की फारसी प्रति उपलब्ध करवाने के लिए मैं रिसर्च लाइब्रेरी, इतिहास विभाग, अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के कर्मचारियों का आभारी हूँ। इस किताब का उर्दू अनुवाद भी मुझे यहीं से मिला। फारसी पाठ इसी विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के प्रो. जिल्ली साहब ने मेरे लिए पढ़ा और उर्दू अनुवाद से मिलान करके उसकी (उर्दू अनुवाद की) गलतियाँ सुधारीं। उर्दू से हिंदी में लिप्यंतरण करने में श्री अतहर और श्री सुहैल ने मदद की। इस लेख की तैयारी के दौरान मैं जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, नई दिल्ली के इतिहासविद् प्रो. मुजफ्फर आलम से सहायता लेता रहा। आप सभी के प्रति मैं गहरी कृतज्ञता का अनुभव करता हूँ।

16. जुन्नारदार (जनेऊधारी) यहाँ ब्राह्मणों के लिए प्रयुक्त हुआ है। उर्दू अनुवादक ने गलती से इसका अनुवाद 'गैर मुस्लिम' कर दिया है।

17. उर्दू अनुवाद में पंक्ति इस तरह से है - 'और इन फरमाने रवायाने कदीम ने इस महसूल को माफ कर दिया था।'

18. चूँकि जुन्नारदार गिरोह हुजरये कुफ्र की कलीद है' - उर्दू अनु.

19. इलियट और डाउसन ने अपने अंग्रेजी अनुवाद में लिखा है कि फिरोजशाह ने ब्राह्मणों की याजान पर जजिया की रकम घटा कर प्रति व्यक्ति दस टंका और पचास जीतल कर दिया था। देखें : हिस्ट्री आफ इंडिया : एज टोल्ड बाइ इट्स ओन हिस्टोरियंस, वाल्यूम III, मोहम्मडन पीरियड में शामिल 'तारीख-ए-फिरोजशाही' का अनुवाद, किस्म V, मुकदमा IVA। इस ग्रंथमाला के हिंदी अनुवाद के लिए देखें, भारत का इतिहास, प्रकाशक अग्रवाल एंड कंपनी, आगरा-3, तृतीय खंड, प्रथम संस्करण-1974, पृ. 261

20 . 'फुतूहात-ए-फिरोजशाही' 'द हिस्ट्री आफ इंडिया', वाल्यूम III, इलियट और डाउसन, पृ.380

21. वहीं, पृ. 377

22. फिरोज तुगलक - आर.सी. जौहरी, शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी, आगरा, पहला संस्करण 1968 ई. पृ.1-5। गंभीर और विस्तृत शोध करके लिखी गई यह पुस्तक फिरोजशाह के जीवन का पूरा और प्रमाण-पुष्ट ब्यौरा देती है। तुगलक वंश के बारे में देखें 'तुगलक डायनेस्टी', आगा महदी हुसैन, थेकर स्पिंक एंड कंपनी प्रा.लि., कलकत्ता, 1963

23. तारीख-ए-फिरोजशाही, बर्नी, द हिस्ट्री आफ इंडिया, वाल्यूम III, पृ. 267

24. जौहरी, उपरोक्त, पृ. 115-117, स्टेनले लेनपूल, उपरोक्त, पृ.95

25. जौहरी, उपरोक्त, पृ. 117

26. वही, पृ. 39

27. कीर्तिलता, सं. बाबूराम सक्सेना, काशी, प्रकाशन वर्ष सम्वत् 2010, पृ.10-11, जौहरी द्वारा उद्धृत, पृ. 48

28. तारीख-ए-फिरोजशाही, किस्म II, 18वाँ मुकदमा 'भारत का इतिहास', पृ. 318 इस प्रसंग की किंचित विस्तार से चर्चा के लिए देखें 'तारीख-ए-मुबारकशाही' याहिया बिन अहमद बिन अब्दुल्ला सरहिंदी, मूल फारसी से अंग्रेजी अनुवाद के.के. बसु, प्रकाशक करीम संस, जमशेद रोड, करांची, पाकिस्तान, पहला संस्करण, 1977 पृ. 137 फुटनोट। इस छोटे किंतु महत्वपूर्ण ग्रंथ में खास तौर से सैय्यद वंश का इतिहास वर्णित है।

29. 'फतवा-ए-जहाँदारी' जियाउद्दीन बर्नी 'द पोलिटिकल थ्योरी आफ द देलही सल्तनत', मोहम्मद हबीब और श्रीमती असफर उमर सलीम खान, प्रकाशक - किताब महल, दिल्ली, पृ. 48

30. मेडियवल इंडिया, प्रथम भाग, दिल्ली सल्तनत, सतीश चंद्र, हर आनंद पब्लिेशंस प्रा. लि., नई दिल्ली, 1997, पृ. 225, प्रो. सतीशचंद्र ने लिखा है कि सिकंदर लोदी ने हिंदुओं पर जजिया कर पुनः लगा दिया था। इसका आशय यह हुआ कि बीच के वर्षों पर जजिया कर की वसूली रुक गई थी।

31. इलियट और डाउसन भाग IV, हिंदी अनुवाद, मथुरा लाल शर्मा, पुनरीक्षक - वासुदेवशरण अग्रवाल, शिवलाल एंड कंपनी, आगरा, 1968 पृ. 354

32. वही. पृ. 339

33. श्रीनाथ जी की प्राकट्य वार्ता, श्री हरिराय महानुभावकृत, प्रकाशक, विद्या विभाग मंदिर मंडलनाथ द्वारा, सम्वत् 2053, पृ.9-10

34. कांकरोली का इतिहास, द्वितीय भाग, कंठमणि शास्त्री, विद्या विभाग कांकरोली सम्वत् 1996 विक्रमी, पृ. 33-34, प्रभुदयाल मीतल कंठमणि शास्त्री की इस बात से सहमत नहीं हैं कि सिकंदर ने वैष्णव संप्रदायों के साथ बाद में कोई जोर जुल्म नहीं किया। उनके अनुसार, सिकंदर लोदी पर मजहबी उन्माद उसके समस्त शासन काल में बराबर जारी रहा था। ...श्री आचार्य जी के प्रयास से सिकंदर लोदी ने कुछ शर्तों के साथ मथुरा में हिंदुओं को यमुना स्नान करने और वहाँ के घाटों पर क्षौर कर्मादि करने की सुविधा प्रदान की थी। कदाचित उसके लिए राजकीय कर देना पड़ता था। - 'ब्रज के धर्म संप्रदायों का इतिहास', प्रभुदयाल मीतल, नेशनल पब्लिशिंग हाउस, नई दिल्ली, 1974, पृ.222

35. भाव सिंधु, श्री गोकुलनाथ जी, प्रकाशक, लल्लू भाई छगनलाल देसाई, श्री भक्ति ग्रंथमाला कार्यालय, अहमदाबाद, प्रथमावृत्ति, सम्वत् 1978, पृ. 278-281। हुमायूँ से आचार्य वल्लभ की भेंट कालक्रम की दृष्टि से विचारणीय है। वल्लभाचार्य का तिरोधान 1530 ई. है। उसी वर्ष हुमायूँ गद्दी पर बैठा था। अगर भाव सिंधु' का प्रसंग सही है तब अनुमान किया जा सकता है कि या तो वह अपने पिता बाबर के राजकाल में ही आचार्य वल्लभ से मिला होगा अन्यथा बादशाह बनने के कुछ ही महीनों के भीतर।

36. रिलिजियस पालिसी आफ द मुगल इंपरर्स, श्रीराम शर्मा, मुंशीराम मनोहरलाल, प्रा. लि., नई दिल्ली, तीसरा संस्करण, 1988, पृ.10

37. वही पृष्ठ 11

38. अकबरी दरबार, शम्सुल उल्मा मौलाना मुहम्मद हुसैन 'आजाद', अनुवादक रामचंद्र वर्मा, नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी, नवीन संस्करण सम्वत् 2024 विक्रमी, पृ. 99। मूलतः उर्दू में लिखी गई यह किताब 'दरबारी अकबरी' शीर्षक से दारूल एशायत, लाहौर से सन् 1998 में छपी थी। मौलाना मुहम्मद हुसैन इतिहास के गहरे जानकार कहे जाते हैं। इन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों के साथ लोक स्मृतियों का भी उपयोग किया है। उनके ग्रंथों की प्रामाणिकता पर संदेह करने वालों को ध्यान में रखते हुए प्रोफेसर सैय्यद एहतेशाम हुसैन ने लिखा है, आजाद के तथ्यों के एकत्र करने के जो साधन उपलब्ध थे, उसमें कमी नहीं दिखती। जो पुस्तकें मिल सकीं, वह उन्होंने देखीं। कुछ के संदर्भ दिए, कुछ के नहीं दिए। बाद के पढ़ने वालों ने जिन्हें वह पुस्तक न मिल सकी, यह विचार स्थापित कर लिया कि सारी बातें 'आजाद' ने अपनी तरफ से गढ़ कर लिख दी हैं। जैसे जैसे पुरानी पुस्तकें मिलती जाती हैं, 'आाजद' की बहुत सी बातें सही साबित होती जाती हैं। 'आबे हयात' की भूमिका, नेशनल बुक ट्रस्ट, नई दिल्ली, 1975 ई.

39. वही, पृ.133

40. वही, पृ.134

41. प्राचीन वार्ता रहस्य, द्वितीय भाग, संपादक प्रो. कंठमणि शास्त्री, विद्या विभाग, कांकरोली, द्वितीय संस्करण सम्वत् 2009, पृ. 54

42. भारत का इतिहास पंचम खंड, इलियट और डाउसन, शिवलाल अग्रवाल एंड कंपनी, आगरा प्रथम संस्करण-1969

43. चौरासी वैष्णवन की वार्ता, गोकुलनाथ रामदास जी द्वारा संपादित, लक्ष्मी वेंकटेश्वर स्टीम प्रेस, बंबई, 1989 ई., कृष्णदास अधिकारी की वार्ता।

44. 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता', गोकुलनाथ, सं. रामदास जी, लक्ष्मी वेंकटेश्वर स्टीम प्रेस, बंबई, 1989 ई., पृ. 23-24।

45. सांप्रदायिक शब्दावली में पूजा को ही सेवा कहा जाता है। अपने को स्मार्त मत से अलग दिखाने के लिए ऐसा किया गया था।

46. कांकरोली का इतिहास, पृ. 104।

47. भाव सिंधु पृ. 304।

48. करिश्मा एंड कैनन, सं. वसुधा डालमिया, आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, प्रथम संस्करण 2001, पृ. 129-130

49 . प्राचीन वार्ता रहस्य पृ. 663

50. वही, पृ. 663

51. 'पूर्वाग्रह' (आलोचना त्रैमासिक) जून अगस्त 1998 अंक में छपे लेख 'अंत और आरंभ' में 'कैंब्रिज हिस्ट्री आफ इंडिया' से प्रभात त्रिपाठी द्वारा उद्धृत। स्टेवर्ट गोर्डोन के किंचित लंबे उद्धरण के बाद प्रभात त्रिपाठी लिखते हैं : मुसलमान घृणा के मुख्य मुहावरे से राजनीति का आरंभ करने वाले नेता, और उसे ही आधार बना कर भक्ति साहित्य की व्याख्या करने वाले अध्यापकों को इन तथ्यों से परिचित होना चाहिए। इसलिए यह तथ्य भी कि उन्नीसवीं सदी के आरंभ में ब्राह्मणवादी अभिजनों ने उसी तरह ब्रिटिश सत्ता का साथ दिया और अपने आकाओं से ईनाम पाया। पृ. 12

52. दूसरी परंपरा की खोज, पृ. 78

53. दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, पृ. 19

54. बल्लभ संप्रदायी आचार्य इस तरह विशेष सावधान रहते थे कि उनके मार्ग को मर्यादा मार्ग का थोड़ा बदला हुआ रूप ही न मान लिया जाए। सांप्रदायिक ग्रंथों में कई बार इस जिज्ञासा का समाधान किया गया है। 'दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता' में एक प्रसंग है : एक दिन पुरुषोत्तमदास ने श्री गुँसाईं जी सों पूछो जो मर्यादा मार्ग और पुष्टि मार्ग में भेद कहा तब श्री गुँसाईं जी ने आज्ञाकारी मर्यादा मार्ग में साधन और क्रिया और कर्म बल और कर्म के फल की इच्छा और साधन की मुख्यता जाको नाम मर्यादा मार्ग है और पुष्टि मार्ग में स्नेहपूर्वक कृष्णसेवा मुख्य है और भगवदीय को सत्संग और केवल भगवदनुग्रह को बल और केवल निःसाधनपणों और भगवद्धर्म मुख्य... सो पुष्टि मार्ग कहिए। पृ. 369

55. परमानंदइ सागर, पद संख्या-374

56. श्री सर्वोत्तम स्त्रोत, गुँसाईं विट्ठलनाथ, विद्याविभाग कांकरोली, चतुर्थ संस्करण, सं. 2054 वि. पृ. 13

57. दो सौ बावन वैष्णवन की वार्ता, पृ. 397

58. बड़े शिक्षा पत्र, गो. हरिराय, श्री गोपेश्वर जी कृत ब्रजभाषा टीका सहित, जगदीश्वर प्रेस गिर गाँव, मुंबई, चतुर्थ संस्करण सन् 1936, पृ. 259-60

59. वही, पृ. 260 भाग 5

60. मुक्तिबोध रचनावली, संपादक नेमिचंद्र जैन, राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, द्वितीय परिवर्द्धित संस्करण की पहली आवृत्ति 1998, पृ. 296

61. नामवर सिंह, पूर्वोक्त, पृ. 56

62. अकबरी दरबार, पृ. 130

63. वही, पृ. 130