भगजी बगैर काम नहीं चलता / मनोज श्रीवास्तव

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साल भर में कम से कम आठ माह तक तो ऐसा मौसम रहता है। यह हवा भी बदन में बुखार बनकर ऐसे ही थोड़े ही समा जाता ही है जबकि किसी न किसी बीमारी-बतास का जोर रहती है। जरूर इसमें डोलती-भटकती डाईन-प्रेतिन की छाया पड़ने के कारण ही आदमी का हाल बेहाल हो जाता है। बब्बन भगत ठीक ही कहते हैं कि अगर समय रहते इन बुरी छायाओं को झाड़-फूँककर, डरा-धमकाकर भगाया नहीं गया तो आदमी कितना भी बलवान हो, वह मौत के मुँह में समा ही जाएगा। कुश्ती-कसरत कुछ भी काम नहीं आता। वैद्य-हकीम सब हाथ मलते रह जाते हैं। पर्ची-पुड़िया वाली दवाइयाँ धरी की धरी रह जाती हैं। ऐसे में, बस भगतजी काम आते हैं। पेट की कितनी बड़ी भी व्याधि हो, वह उनकी एक फूँक से उड़न-छूँ हो जाती है। कितना भी पुराना बुखार हो या अधकपारी का दर्द हो, वह दुम दबाकर भाग खड़ा होता है।

इसलिए, अगर चमरौटी में हर साल दस-बारह लोग ही भगवान को प्यारे होते हैं तो इसे भगतजी का चमत्कार कहना चाहिए। अन्यथा, यह संख्या सैकड़ों में होती। ड्राप्सी राच्छस तो पूरा टोला ही डकार गया होता। ये तो इनके तंत्र-मंत्र का असर था कि कुल तेरह लोग ही ऊपर को सिधारे। बेशक! अपने करामात के कारण ही उन्हें इन्सान के रूप में भगवान माना जाता है। सो, जब कोई रोगी उनसे ळााड़-फूँक और ओळौती कराने आता है तो वह पहले से ही अपना चमत्कार बखानने लगते हैं, "बचवा, हम तुम्ही जनों के लिए जिन्दा हैं। ईस्वर ने हमें तुम इन्सानों को निरोग करने के लिए भेजा है। अगर हम न होते तो जान लो, सृस्टि का कितना बड़ा नुस्कान हो जाता! पिछला साल तो कम जने ही मुए थे। राम आसरे की मुनिया इसलिए मू गई कि ऊ ससुरा डगदर का इलाज कराने हस्पताल चला गवा रहा। अवधू का जवान सहरी बबुआ भी इसलिए मुआ कि उसने हमारा मंतर को मानने से मना कर दिए रहा। ऊ क्या कहने लगा कि हम बंगाली बैदजी से इलाज कराएंगे। अब तुम हमारी सरन आ गए हो तो तुम्हारे परान कोई नहीं छीन पाएगा।"

भगतजी के व्यक्तिगत जीवन में ताकने की कोई ज़ुर्रत नहीं करता। कोई नहीं जानता कि वह इसी गाँव में पैदा हुए थे। पर, गाँववाले तो यही मानते हैं कि वह काशी से आए हुए कोई सिद्ध-महात्मा हैं जो लोगों की उलळाी ज़िंदगी को सुलळााना चाहते हैं। उनकी कहानी कुछ ऐसे शुरू होती है। इसी गाँव में कोई चालीस साल पहले भदेसर राम नाम का एक मोची रहता था। वह अपने धंधे में निपुण था और उसके हाथ के बनाए जूते-चप्पल खरीदने शहर तक से लोग आते थे। इसलिए, अन्यों की तुलना में उसकी इतनी मोटी कमाई हो ही जाती थी कि उसने अपने परिवार को अच्छा खाना-खुराक देने के साथ-साथ एक बढ़िया रंगा-पुता ईंट का खपरैल मकान भी बनवा लिया था। बताते हैं कि जवानी में ही उसका कुछ औघड़-अवधूतों के साथ उठना-बैठना हो गया था। उनके संगत में वह इतना रम गया था कि उसका धीरे-धीरे अपने परिवार से मन उचटने लगा और वह भी औघड़ बनकर पता नहीं कहाँ चला गया। अब तो वह मर-खप भी गया होगा। गाँववाले बताते हैं कि उस पर अचानक सधुक्कड़ी की सनक सवार हो गई थी। शुरू-शुरू में वह तहसील में अपनी दुकान को शाम होने से पहले ही बंद करके नदी के किनारे टहलने निकल जाया करता था। एक दिन ऐसे ही, उसकी मुलाकात एक औघड़ से हो गई। बातों ही बातों में वह उनसे इतना प्रभावित हुआ कि वह बाकायदा उनसे कंठी-माला लेकर उनकी औघड़ मंडली में शामिल हो गया। पहले उसने अपना रोज़गार छोड़ा; फिर, घर। दरअसल, वह कभी-कभी औघड़ों के साथ कई-कई दिनों तक किसी मुर्दाघाट पर या भुतहे खंडहर में धुनी रमाने और योग-साधना करने निकल जाया करता था। एक दिन वह इसी धुन में कहींं निकला तो फिर उसने वापस अपने घर की ओर मुँह नहीं किया। ऐसे में, घर में काफ़ी समय तक अकेली पड़ी, उसकी भूखी-प्यासी और असहाय पत्नी करती भी क्या? जवान तो थी ही वह। सो, ज़िंदगी पार करने के लिए उसने किसी मर्द का आसरा ढूँढ लिया। उस वक़्त, भदेसर का कोई बारह साल का एक लड़का भी था जो अपनी माँ के किसी दूसरे मर्द के साथ भाग जाने के बाद चमरौटी में अपने जान-पहचान वालों की दया पर अपना पेट पालने लगा। एक रात वह भी कहीं अचानक लापता हो गया। कहते हैं कि एक दिन खुद भदेसर आकर उसे अपने साथ लिवा ले गया था। चुँकि, भदेसर उसे औघड़ों की मंडली में ले गया था इसलिए यह साफ़ कहा जा सकता है कि वह भी साधु बन गया होगा। लेकिन, उसका अपनी चमरौटी के बिरादरी वालों से लगाव कम नहीं हुआ था। इसलिए, एक दिन उसने साधु के भेष में गाँव वापस आकर यहीं अपना स्थायी डेरा जमा लिया। उस डेरे ने अब एक मठ का रूप ले रखा है जहाँ शिवजी का मंदिर स्थापित कर, धुनी रमाने वाला आदमी कोई और नहीं बल्कि खुद भगतजी हैं जिन्होंने अपनी मूल पहचान छिपा रखी है।

जब उनके अंधभक्त गाँववाले उनकी जन्मभूमि के बारे में सवाल करते हैं तो वह आसमान की ओर देखते हुए और हाथ उठाकर कहते हैं, "हमें उसने पैदा किया है औ' हम वहीं से आए हैं।"

वे उनकी रहस्यभरी बातें सुनकर कुछ और सवाल करने की साहस नहीं जुटा पाते। बल्कि, उनकी ओर बड़े आश्चर्य से देखते। भगतजी बड़ी तन्मयतापूर्वक बीमारों के ळााड़-फूँक में लगे रहते हैं। पिछले साल गाँव के कम से कम दो दर्जन लोगों पर भूत का साया आया था। तब, उन्होंने गंगा के किनारे उन सभी का सामूहिक उपचार किया था। पूरे दो महीने तक, यानी तब तक अपना डेरा गंगा नदी के किनारे डाले रखा जब तक कि हर आदमी चंगा नहीं हो गया। मर्दों पर चढ़े भूत को भगाने के लिए तो उन्होंने खुले स्थान पर अपनी ओळाागिरी और गुप्तविद्या का प्रयोग किया था। पर, किसी औरत पर अपनी तिलस्म का प्रयोग वह एकांत में किसी अँधेरी कोठरी में करते थे। उनका कहना है कि जब औरत पर भूत सवार होता है तो वह बेहद ढीठ और हठी हो जाता है और उसे आसानी से नहीं भगाया जा सकता। उसके लिए कुछ ख़ास तंत्र-मंत्र का प्रयोग करना पड़ता है और वह भी एकदम अकेले में अन्यथा भूत कुपित हो जाता है जिसे मनाना आसान नहीं होता! बहरहाल, अपनी चमत्कारिक शक्ति के बलबूते पर वह पीड़ित आदमी के मुँह से खुलेआम कहला देते हैं कि उस पर किस वज़ह से और किसका भूत सवार है। देखने-सुनने वाले लोग तो दाँतों तले ऊँगली दबाते हैं। तिस पर भी पढ़े-लिखे लोग कहते फिर रहे थे कि इन सबके पीछे भगत का कोई षड़यंत्र है। वह अनपढ़ और अँगूठाछापों को बुद्धू फ़ँसाता है, समळादारों को नहीं। यह सब उसका रोज़गार-धंधा है। गाँव में अपनी अहमियत को बनाए रखने के लिए उसका गोरखधंधा है। ऐसी आलोचनाओं के तो वह आदी हो चुके हैं। एक पहुँचे हुए फ़कीर की तरह वह मुँह बिचका देते हैं--"ये दुनिया कुछ भलेमानुसों के बल पर ही चल रहा है। नहीं तो, सभी जने पाताल में समा गए होते! अगर संत-महात्मा न होते तो इहाँ सिरफ़ सेर-बाघ, सियार-बिलार औ' भूत-परेत ही होते!"

उनके सबक सुनने के बाद लोग सिर हिलाकर उनकी पैलगी करते और फिर अपने घर का रास्ता नापते। जो लोग भगतजी को ढोंगी-औघड़ कहते हैं, वे उनके बारे में तरह-तरह के अफ़वाह फैलाने में भी खूब दिलचस्पी लेते हैं। चमरौटी से आसन्न धोबिया टोला में कहने को तो कई बी0ए0-एम0ए0 पास लोग हैं जिनको धन-यश में खूब बरकत मिली है। ऊँचे-ऊँचे सरकारी पदों पर आसीन हैं। लेकिन, उन्हें संत-महात्माओं का सम्मान करने का संस्कार नहीं मिला है। वे ज़्यादातर इस बात को साबित करने पर तुले रहते हैं कि चमरौटी में अंधविश्वास और पाखंड का भयानक दौर चल रहा है। गाँववाले भगतजी को देवता सरीखा मानकर अधार्मिक-अनैतिक काम करने में तनिक भी नहीं हिचक करते। भूत-प्रेत चमरौटी-वासियों पर ही क्यों सवार होता है, दूसरे गाँववालों पर क्यों नहीं? इस पर भगतजी अपना जवाब कुछ ऐसे देते हैं--'जहाँ देउतागण बसते हैं, भूत वहीं आते हैं--देउताओं का पीछा करते-करते। इसका मतबल इ है कि जहाँ अच्छाई रहती है, बुराई उसके आगा-पीछा घूमती रहती है। अब इ बूळा लो कि इ गाँव में अच्छाई किसके बजह से है? कौन महात्मा के पास देउता लोग रोज़ीना मुल्कात करने आते हैं?'

गाँववाले मुँह बाकर भगतजी की बातों पर सिर हिला-हिलाकर हामी भरते और चमरौटी में उनकी मौज़ूदगी के एहसानमंद होते। लिहाजा, उन लोगों में भी धोबिया टोला के बाशिंदों के ख़िलाफ़ रोष व्याप्त था। दद्दन राम अपने यारों के बीच इस बाबत चर्चा छिड़ते ही नथुने फड़फड़ाने लगता, "अब, इन धोबियों के भी रंग नहीं मिल रहे हैं। एक तो छोट जात; दूसरे, नीच करम करने वाले...ऊ साले दुनिया भर के लोगों के कपड़े कचारते हैं, हम चमारों के भी गूह-मूत वाले कपड़े धोते हैं। तिस पर भी इतना गुमान! अपने से बड़े लोगों के आगे भी इतरा रहें हैं। हम जैसे ऊँच जात के लोगों से आँख मिलाने में तनिक भी नहीं डर रहे हैं। ऊ ससुरों को पता नहीं है कि घोड़ी के पीछे औ' बड़े लोगों के आगे जाने का क्या नतीजा होता है।"

दद्दन का रह-रहकर गरम होना भी वाज़िब था। आख़िर, वे उसके देवता-सरीखे महात्माजी पर कींचड़ उछाल रहे हैं। उसके बाप या भाई तक की बेइज़्ज़ती तो वह खुशी-खुशी बरदाश्त कर लेते। पर, भगतजी के बारे में ये कहना कि 'वह कोई ठग हैं और मेहरारुओं से बड़ी बेशरमी औ' बदतमीजी से पेश आते हैं', दद्दन को बिल्कुल नागवार लगता है। इसके प्रतिक्रियास्वरूप, चमरौटी के लोग भी धोबियों को चुन-चुनकर गालियाँ देते हैं।

इस तनातनी के माहौल में आरोपों-प्रत्यारोपों का यह दौर बरसों से चल रहा था। पर, एक दिन तो चमरौटीवासियों के सब्र की इंतहा ही नहीं रही जबकि धोबिया टोला के गबरू जवान--मलखान कनौजिया ने तहसील के हाट में यह खुलेआम ऐलान किया, "इस बात का हमारे पास पक्का सुबूत है कि भगत जात का मेहतर है और उसने चमरौटी में रहकर गाँव को गंदा कर दिया है। सो, हम सभी जनों को गाँव के चमारों से अछूतों सरीखा बर्ताव करना चाहिए औ' उनके साथ सारे व्यौहार खत्म कर देना चाहिए।"

वहाँ मौज़ूद दद्दन के दोस्तों को यह सोचकर ही मितली-सी आने लगी कि वे अब तक एक नीच जाति के किसी बहुरुपिए साधु का गोड़ पूजते आए हैं। पहले तो उनके मन में असलियत जानने की इच्छा हुई कि भगतजी से सीधे संपर्क साधकर उनकी जाति पता की जाए। लेकिन, उन्हें दद्दन रास्ते में ही मिल गया जो घाट से चमड़ा कमाकर बिरहा आलापते हुए लौट रहा था। उसको जैसे ही उनसे मलखान के ऐलान के बारे में पता चला तो वह घृणा से जमीन पर थूकते हुए गुस्से में ऐसे चीखने-चिल्लाने लगा जैसेकि कोई ततैया डंक मार गया हो।

"इ तो ऊ ससुरे ने बड़ा बेजा बात किया है। इन धोबियों औ' मेहतरों के भी सिर आसमान में चढ़ गए हैं। हम पहिले चलके महराजजी से पूछते हैं; फिर, मलखान से मजे से निपटेंगे। जदि मलखान कोई पक्का सुबूत न दे पाया तो हम इसका ऐसा मजा चखाएंगे कि ऊ जिनगी भर ना भूल पाएगा।" दद्दन की इस चुनौती से उसके दोस्तों के बदन में भी आग फूँक गई। उनके भी हाथ मलखान पर उठने के लिए खुजलाने लगे।

दद्दन के प्रश्न पर भगतजी ने अपने पुराने अंदाज में हाथ उठाकर कहा, "हमका खुद ना मालूम है कि हम कहाँ से आए हैं। हमारे माई हमारे जन्मते सरग में चली गई थी। फिर, जब हम दू बरस के थे तो बाबूजी कासी चले गए औ' लौटके ना आए। पर, इ तो पक्का है कि हम कौनो बाँभन पलिवार से हैं। हमका इ बात ना बिसरत है कि हमारे घर में खूब पूजा-पाठ होता रहता था। धूप-अगरबत्ती औ' दसांग-चंदन से सारा घर गमकता रहता था। फिर, हमका कोई साधूजी उठाके ले गए। हमको पाला-पोसा। बड़ा किया औ' जंतर-मंतर सिखाके हमको चमत्कारी बाबा बनाया। अब इ जान लो कि चाहे हम बाँभन रहे हों; लेकिन, अब तो हम ईस्वर के भगत हैं जिसका कोई जात नहीं होता है।"

यों तो, भगतजी ने बहुत तोड़-मरोड़कर उड़ी-उड़ी सी बातें की थी। किंतु, उनके भोले अंदाज से दद्दन और उसके दोस्तों को पूरा यकीन हो गया कि मलखान ने उनको बदनीयती से बदनाम करने की गुस्ताखी की है। इसलिए, वे उसको सबक सिखाने के लिए जगह-जगह तलाशने लगे। पर, वह भी उनके पैंतरे को अच्छी तरह भाँप गया था और समय रहते, थाने में यह एफ0आई0आर0 दर्ज़ कराकर कि दद्दन और उसके गुंडे उसकी जान के पीछे पड़े हैं, खुद को पुलिस की हिफ़ाज़त में रहने का पूरा बंदोबस्त भी करा लिया। वह आश्वस्त हो गया कि चाहे जो भी हो, अब कोई उसका एक बाल तक नहीं उखाड़ सकता। ऐसे में, दद्दन समळा गया कि अगर उसने मलखान से मारपीट तो दूर, कोई जबानज़दगी भी की तो वह पुलिस का निशाना बन जाएगा। इसलिए उसने एक चाल चली। वह और उसके साथी इस ताक में रहने लगे कि जब मलखान नदी से कपड़े धोकर लाता है तो रास्ते में ही उसके कपड़ों का गट्ठर गायब कर दिया जाए। फिर, देखना, बम्हरौली और ठकुरौली गाँवों के दबंग लोग कैसे उसके एक-एक बाल नोच लेते हैं क्योंकि वह उन्हीं के कपड़े धोता है।

उन्हें दूसरे या तीसरे दिन ही अपने षड़यंत्र में सफलता मिल गई। जब मलखान निचाट में अपने गदहे से उतरकर मूत रहा था तभी सरपत की आड़ में छिपे दद्दन और उसके दोस्तों ने उसके गदहे पर लदी कपड़ों की गठरी ऐसे गायब कर दी कि मलखान चक्कर खा गया। वह ढूँढता रह गया। लेकिन, न तो गठरी मिली, न ही कहीं चोर नज़र आया। वह अपना यह शुबहा मिटाने के लिए कि कहीं गठरी उसकी लापरवाही के कारण पीछे तो नहीं गिर गई, वह वापस धोबिया घाट तक उसे ढूँढ आया; पर, निराशा ही हाथ लगी। अलबत्ता, वह भी हार मानने वाला कहाँ था? उसने इस शक के आधार पर कि हो न हो, इसमें उसके दुश्मनों का हाथ होगा, इसकी शिकायत थाने में दर्ज़ करा आई। दद्दन को भी बिल्कुल अंदेशा नहीं था कि मलखान थाने का दरवाज़ा भी खटखटा सकता है। इसलिए, जब तक वह कपड़ों की गठरी को ठिकाने लगाता, पुलिस ने उसके घर पर रातों-रात धावा बोल दिया। गठरी भी बरामद हुई और चोर भी रंगे हाथ पकड़े गए। चोर का मुँह फक्क पड़ गया। दद्दन और उसके दोस्तों ने पुलिस की मार के आगे अपना गुनाह कबूल कर लिया। उन्हें सजा हो गई।

जब दद्दन और उसके दोस्त दो साल तक जेल की चक्की पीसकर वापस लौटे तो उनमें बदले का ज़ज़्बा उफ़ान पर था। कोई कोइरी, कहार या कुर्मी उन्हें जलील करता तो वे बर्दाश्त कर लेते! उन्हें तो उनसे छोटी जाति के लोगों ने नीचा दिखाया था। भगतजी के सबक के अनुसार कि 'नंगई करने वालों के आगे बलवान भी हार मान लेता है,' सारे चमरौटी वाले ऐहतियात बरत रहे थे। मलखान की दबंगई इतनी बढ़ गई थी कि वे उसे देखते ही एक सुरक्षित दूरी बना लेते थे। अपने गाँववालों को इतना आतंकित देख, दद्दन दाँत किटकिटाकर रह जा रहा था। कई बार हाट-मेले में उसका सामना मलखान से हुआ था जो सीना चौड़ा कर व्यंग्य से उसकी ओर देखकर मुस्करा देता था। ऐसे में उसका तन बदले की लपट से लहकने लगता था। उसे सबसे ज़्यादा जो बात अख़र रही थी, वह यह थी कि मलखान अपनी मर्दानगी दिखाने के लिए उसके ही गाँव के दो-तीन चक्कर रोज़ लगा जाता था और गाँववाले अपनी पीठ फेरकर उसे रास्ता दे देते थे। उसने बड़ी तिकड़म से भगतजी के साथ भी उठना-बैठना शुरू कर दिया था। शुरू-शुरू में दद्दन खुद भगतजी को मना कर आया था कि वह मलखान को खुद से दूर रखें क्योंकि उसकी बदौलत ही सारे गाँव को नीचा दिखाया गया है। पर, पता नहीं क्यों, मलखान को अपने सामने देखकर जैसे उन्हें लकवा मार जाता था। वह एकदम ख़ामोश रहते जबकि उन्हें उस आदमी की मौज़ूदगी बिच्छू के डंक मारने जैसा असह्य लगता था क्योंकि उसने उन्हें सरेबाजार मेहतर ऐलान किया था जबकि वह वास्तव में चमार थे। उससे ऊँची जाति के थे। चमरौटी वालों के सामने तो वह ख़ुद को बाँभन घोषित करने पर तुले हुए थे ताकि वह उनके मन में और भी ऊँचा स्थान बना सकें। पर, वह मन ही मन पछता भी रहे थे कि उन्होंने ळाूठ ही खुद को बाँभन बताया। अगर वह अपनी असली जाति बताते तो वह निश्चय ही चमरौटी वालों के और अधिक आत्मीय होते।

इसी दरमियान, परिस्थितियों ने कुछ अज़ीबोगरीब ढंग से करवट बदली। मानसून की अप्रत्याशित बारिश से आई बाढ़ ने ज़्यादातर गाँवों को घेर लिया। सबसे बुरी बात यह थी कि बाढ़ की वज़ह से चारो ओर गेहुँवन साँपों का आतंक लरज़ने लगा था। वे खेतों के जलमग्न होने के कारण अपने-अपने बिलों से निकलकर और लोगों के घरों में घुसकर उन्हें डस-डसकर यमलोक का रास्ता दिखा रहे थे। चमरौटी में अब तक जितने लोगों को गेहुँवनों ने डसा था, उनमें से एक भी जीवित नहीं बचा था। सभी मौत के गाल में समा चुके थे। भगतजी के तो हाथ-पाँव फूलने लगे। उनके ळााड-़फूँक बेअसर साबित हो रहे थे। जिन जड़ी-बूटियों के चमत्कारों की वह शेखी बघारा करते थे, वे घास से ज़्यादा कारगर नहीं थीं। गाँववाले जितना अपने लोगों के मरने से दुःखी नहीं हो रहे थे, उससे ज़्यादा तो वे इस कारण से शर्म से पानी-पानी हुए जा रहे थे कि उनके दुश्मनों के गाँव यानी धोबिया टोला में कम से कम चालीस लोगों को जहरीले साँपों ने काटा था जिनमें से मरने वालों की संख्या कुल तीन थी जबकि चमरौटी में जितने लोगों को साँपों ने डसा था, उनमें से एक को भी भगतजी नहीं बचा पाए थे। इसलिए, लोग भगतजी के उपदेशों को सुनने से बहटियाने लगे थे। उनके सबक सुनकर भुनभुनाने लगे थे कि 'बाबाजी ळाूठमूठ का बकबक करते हैं...उनका टोना-टोटका सब बिरथे चला जाता है...अब, उनके बस में कुछ भी न रहा...उनका चमत्कार खत्म हो चुका है।' इस तरह, उनमें से लोगों का विश्वास डोलने लगा था। वे यहाँ तक कहने लगे थे कि धोबिया टोला के लोग ठीक ही कहते हैं कि भगतजी ढोंगी और पाखंडी है। अन्यथा, उनके मंत्र और बूटी से कम से कम एक भी आदमी की तो जान बची होती! उनके कहने पर ही वे साँप-काटे हुए आदमी को अस्पताल में न ले जाकर उनके पास ले जाते रहे हैं। वह तो पहले यहाँ तक दावा करते रहे हैं कि उनके मंत्र में इतना बल है कि खुद साँप आएगा और आदमी का जहर चूसकर उसे चंगा कर जाएगा। लेकिन, ऐसा एक बार भी न होने पर लोग उन्हें बेहद शक की नज़र से देखने लगे थे। इसी समय, मौके का फ़ायदा उठाते हुए धोबिया टोला के सिरफिरों ने यह अफ़वाह फैलाया कि चमरौटी पर कोई दैवी प्रकोप है--एक तो बाढ़, दूसरे बिसहे साँपों का हमला--दोनों ही घातक साबित हो रहे हैं। दरअसल, उनका इशारा भगतजी की ओर था। वे उन्हें निशाना बनाकर सारे चमारों से खुन्दक निकालना चाह रहे थे। उनका सोचना था कि भगतजी की इज्जत के मिट्टी में मिलते ही उनका ग़ुरूर टूट जाएगा।

तब, चमरौटी वाले एक अलग नज़रिए से सोच-विचार करने लगे। पहले, उन्होंने ग्राम पंचायत की बैठकें बुलाईं और गाँव पर आई विपत्तियों पर विस्तार से चर्चा की। उन्हें यह यक़ीन होने लगा था कि भगतजी जानबूळाकर उनके साथ छल कर रहे हैं। वे नकली जड़ी-बूटियों और फ़र्ज़ी मंत्रों का प्रयोग करके गाँववालों को जानबूळाकर मौत के मुँह में धकेल रहे हैं। वे तो यह भी सोचने लगे थे कि वह म्लेच्छ मलखान के इशारे पर नाचने लगे हैं क्योंकि दोनों आपस में मिलते-जुलते रहते हैं। फिर, उन्होंने यह तय किया कि आईंदा वे साँप-काटे हुए आदमी को भगतजी के बजाय डाक्टर के पास ले जाएंगे। जब इस फ़ैसले की भनक भगतजी को लगी तो वह समळा गए कि अब उनका अस्तित्त्व खतरे में है। अब उनके कर्मकांडों पर कोई विश्वास करने नहीं वाला है। तब, वह बड़ी चालाकी से गाँववालों को बरगलाने लगे कि गाँव पर आई विपत्तियों का कारण कोई दैवी है। इस गाँव के दुश्मनों ने रुहानी ताकतों को हमारे ख़िलाफ़ भड़काया है। जब दद्दन ने जाकर उनसे दो टूक बात करने को कहा तो उन्होंने अपनी ईमानदारी और ईश्वर-भक्ति की कसम खाते हुए धोबिया टोला की ओर ऊँगली उठाई।

दद्दन ने कहा कि अब पानी नाक के ऊपर से बहने लगा है। वह कोई ऐसी तरक़ीब निकालने में लग गया जिससे कि धोबियों के सिर पर ऐसा पहाड़ टूटे कि वे दोबारा अपने सिर उठाने लायक न रह जाएँ। उसने रातों-रात अपने दोस्तों को इकट्ठा किया और उन्हें अपनी योजना बताई। फिर, दो दिन उस योजना की तैयारी में लगा दिए।

तीसरे दिन सुबह, किरणों के फूटने के साथ ही एक लोमहर्षक अफ़वाह ने दूर-दराज के इलाकों तक को किसी अनजाने भुतहे भय से ढँक दिया। वह यह था कि रात के तीसरे पहर, जबकि धोबिया टोला के लोग अपने-अपने घरों में गहरी नींद में सो रहे थे तो अज़ीब-सी शक़्ल वाले कुछ बंदरों ने उन पर हमला किया और उन्हें अपने पंजों और नाखुनों से नोच-नोचकर घायल कर दिया। जब तक ओसारों में सो रहे मर्द चौकस होकर उन्हें लाठी-बल्लमों से मारने दौड़ते, वे ग़ायब हो गए। ज़्यादातर बंदरों ने अपना शिकार औरतों और बच्चों को बनाया था और उनके चेहरों को नोचकर बदशक़्ल बना दिया था। सूरज का उजाला होने तक लोगबाग डाक्टर और अस्पताल जाने की जद्दोजहद में कुहराम मचाते रहे। किसी तरह घरेलू नुस्खों के आधार पर घायलों की मरहम-पट्टी करते रहे। पौ फटते ही वे डाक्टरों और अस्पतालों की ओर दौड़ पड़े। दिन जैसे-जैसे गुजर रहा था, हादसे का ख़ौफ़ लोगों को रह-रहकर सालता जा रहा था और उसकी पुनरावृत्ति के ख़्याल से ही उनके रोंगटे खड़े हो जा रहे थे। वे अपने-अपने कामों में खुद को मशग़ूल रखकर उसे भुलाने की भरसक कोशिश कर रहे थे।

शाम होते ही औरतें रसोइयों में लिट्टियाँ सेंकने और आलू-बैंगन का भुर्ता बनाने चली गईं जबकि धोबियाघाटों से अपने गदहों पर धुले कपड़ों की गठरियाँ लादकर लौटने वाले मर्द अभी भी रास्ते की धूल फाँक रहे थे। गाँव में बुज़ुर्ग लोग बच्चों को परियों की कहानियाँ सुना-सुनाकर उस घटना की भयप्रद स्मृति पर परदा डालने की चेष्टा कर रहे थे। उन्हें यह एहसास हो चला था कि ख़ौफ़ का वह वाक़या उनकी ज़िंदगी का एक ऐसा हिस्सा था जो दोबारा घटित नहीं होगा। लेकिन, वे उस वहम को ज़्यादा देर तक नहीं पाल सके। घुप्प रात होने से पहले ही, एक बार फिर से खलबली मच गई। अचानक़ भूतों की तरह प्रकट होकर उन अज़ीबोग़रीब बंदरों ने दोबारा उसी तरह हुड़दंग मचाते हुए हमले शुरू कर दिए और अधिकतर रसोइयों में खाना पका रही औरतों और मैदानों में गुल्ली-डंडा और गोली-कंचा खेलने वाले बच्चों के चेहरों को बुरी तरह नोच-नोचकर उन्हें लहूलुहान कर दिया। सारा माहौल बच्चों की चिचियाहट-रिरियाहट और औरतों की दर्दनाक़ घिघियाहट से हृदय-विदारक हो गया। जब तक वे उनसे निपटने के लिए तैयार होते, वे एकबैक ओळाल हो गए। चुँकि शाम के कुहासे से अंधेरा हुआ वातावरण ळाींगुरों की ळानळानाहट के बीच अत्यंत रहस्यमय-सा लग रहा था, इसलिए उन्हें ऐसा लगने लगा कि जैसे ये सारी घटनाएँ किसी दैवी कोप से हुई हों।

जब थके-माँदे मर्द अपने गदहों को हाँकते हुए गाँव में दाख़िल हुए तो अपने बीवी-बच्चों की दुर्दशा देखकर उनके तो होश ही फ़ाख़्ता हो गए। अफ़वाहों और अटकलों के बुलबुले हर मुँह से फूट रहे थे। अधिकतर लोग यह साबित करने पर तुले हुए थे कि उन बंदरों पर किसी का वश चलने वाला नहीं है। इन्सान उनसे पार नहीं पा सकता। लिहाजा, घायलों की तीमारदारी और इलाज की आपाधापी आधी रात तक चलती रही। अब वे चौकन्ने हो गए थे। हट्टे-कट्टे मर्दों की टोलियाँ बनाई गईं जो सारी रात बारी-बारी से सारे गाँव में पहरेदारी करती रहीं। उन्हें लग रहा था कि किसी भी क्षण उन बंदरों का दोबारा हमला हो सकता है। चुँकि चश्मदीद औरतों और बच्चों ने यह बता रखा था कि उन पर ऊपर से हमला किया गया था इसलिए उन्हें यह विश्वास होने लगा था कि वे ऊपर से अर्थात आकाश मार्ग से आए होंगे। क्योंकि उनके रूप-रंग और पहनावे से कोई भी उन्हें इस जमीन का जीव नहीं कह सकता। वे प्रेत-बेताल ही रहे होंगे।

मलखान कन्नौजिया इन सब बातों पर विश्वास करने से इनकार करता जा रहा था जबकि इन घटनाओं की गूँज दूर-दराज के इलाकों से भी आने लगी थी। ख़ासतौर से चमरौटीवासी उन बंदरों को मुँहनोचवा का नाम देकर उनके बारे में तरह-तरह की कहानियाँ भी गढ़ने लगे थे। इसी दौरान, दद्दन ने एक चाल चली। यद्यपि उसके गाँव में मुँहनोचवा ने अब तक कोई दस्तक नहीं दिया था, तो भी उसने अपने गाँववासियों से यह कहा कि वे बाहर जाकर लोगों में यह अफ़वाह फैलाएँ कि मुँहनोचवा ने उनके गाँव में भी हमला किया है।

चमरौटीवासी यह सोचकर हैरान हो रहे थे कि आख़िर, दद्दन उनसे ऐसा क्यों करवाना चाहता है। वे उसे संदेह की दृष्टि से देख रहे थे। क्योंकि वह इधर कुछ अज़ीब-सी हरकत भी करने लगा था। वह रोज़ शाम होते ही अपने दस-बारह दोस्तों के साथ यह कहकर मंदिर चला जाता था कि वे भगतजी से कुछ तंत्र-मंत्र सीखने जा रहे हैं। वे वापस गाँव आधी रात के बाद लौटते थे। राम आसरे को दद्दन और उसके साथियों की गतिविधियों पर शक तो पहले से हो रहा था। उनका रात को भगतजी के पास जाना उसे बिल्कुल अटपटा-सा लग रहा था। इसलिए, एक रात वह उनके पीछे लग गया। मंदिर में छिपकर उसने देखा कि ढिबरी की रोशनी में भगतजी उनको चमड़े के कुछ पोशाक पहना रहे हैं और उनके चेहरों पर काले बंदरों के चेहरों जैसे मुखौटे बाँध रहे हैं। साथ में, उन्हें कुछ हिदायत भी देते जा रहे हैं। उसने अपना कान दीवार से सटा दिया तो भगतजी की बातें साफ़ सुनाई देने लगी, "बचवा लोग, इ सब काम करके हमका भी बड़ा मलाल हो रहा है। लेकिन, अब कोई चारा नहीं रहा। ऊ नास्तिक धोबियों को सबक सिखाना बहुत जरूरी होइ गवा है। अब ऊ लोग भी बूळा जाएँगे कि भूत-परेत औ' ईस्वर क्या होता है। हम तुमसे सर्तिया कहते हैं कि दू दिन में ही ऊ जने हमारे गोड़ पे आके गिरेंगे। उन जनों के भी पता चले कि अपने से बड़ जात के संग बुरा करने का ख़ामियाज़ा क्या होता है..."

राम आसरे समळा गया कि मुँहनोचवा की हक़ीक़त क्या है। ये लोग ही उस हिंसक बंदर कि भयानक भूमिका निभाते हैं। उसने साफ़ देखा कि उस पोशाक की बाँह में जो हथेली फिट की गई थी, उसमें नाखुनों के स्थान पर धारदार चाकू लगे हुए थे जिनसे घातक प्रहार किया जा सकता था। वह मुँह पर अंगोछा डालकर बड़बड़ाने लगा, "तो इ सब करतूत बब्बन बगुला भगत का है।" उस ढोंगी साधु का असली चेहरा उसके सामने बेनक़ाब हो चुका था। वह समळा गया कि भगत अब अपने अहं की लड़ाई लड़ रहा है और इसके लिए वह धोबिया टोला के बेकसूरों की ज़िंदगी से एक घिनौना खेल खेल रहा है।

उसकी आँखों के सामने पिछले साल की सारी घटनाएँ नाचने लगीं जबकि बब्बन भगत की वज़ह से उसकी सात वर्षीय मुनिया की जान चली गई थी। उसका गुनाह केवल इतना था कि उसने अपनी सुरसतिया की मौत के बाद मनरखनी को बग़ैर किसी लगन-ब्याह के अपनी मेहरारू बना लिया था। दरअसल, मनरखनी मेहतर जाति की थी। यह बात चमरौटी वालों के गले से नीचे नहीं उतर रही थी कि उनके गूह-मूत उठाने वाली कोई औरत उनके गाँव की बहू बनकर रहे। पर, राम आसरे के बुलंद हौसले के आगे किसी की भी आवाज़ मुँह से नहीं फूट पाई थी। मनरखनी के प्रति गाँववालों की बेरुखी पर उसने हाट में अपनी लाठी भाँजते हुए ललकार कर कहा था, "हम अपने बिरादरी में सब जने को चेता देते हैं कि हमार मनरखनी के साथ जे लोग परहेज करेंगे, हम उनको सर्तिया जमलोक पठा देंगे। मनरखनी को हम मंदिर में भगवान के सामने बियाह के आए हैं। अब ऊ कौनो अछूत मेहतरानी नहीं है। हमसे बियाह करके ऊ भी ततवाँ हो गई है। एक ठो बड़े खन्दान की मेहरारू बन गई है। चमार हो गई है चमार।"

उस सार्वजनिक घोषणा के बाद वह निश्चिंत होकर गाँव में बड़े हक से रहने लगा था। इसी बीच उसको एक बिटिया भी हुई जिस पर वह बेटे का प्यार न्यौछावर किया करता था। इस पर, अवधू मजाकिया लहजे में आँख मटकाते हुए कहा करता था, "मर्दवा, 'गर तुमको बेटा होता तो फिर, क्या तुम उसको भी चार बेटे के बरोब्बर का पियार बाँटते?"

राम आसरे मुँह चियारकर घिघिया उठता, "मुनिया लइकी है तो क्या भया? ऊ हमारी जान है। घर की लच्छमी है..."

उससे सबसे ज़्यादा जो व्यक्ति चिढ़ता था, वह भगतजी थे। उसे अच्छी तरह पता था कि चुँकि उसने एक मेहतरानी से ब्याह किया है, इसलिए भगतजी उसके साथ कितना भेदभाव करते हैं! जब उसके हाथ में प्रसाद डालते हैं तो यह पूरा ऐहतियात बरतते हैं कि उससे उनकी ऊँगलियाँ छू न जाए। हर साल जब शिवरात्रि को पूरे गाँववालों का भंडारा चलता है तो उसे एक अलग पंगत में बैठाया जाता है। ऐसा ही भेदभाव पिछले साल उसकी मुनिया के साथ भी किया गया था जबकि ड्राप्सी डाईन सभी पर सवार होकर उनकी जान लेना चाहती थी। सारे चमारों का ळााड़-फूँक तो तत्काल कर दिया जाता था; पर, उसकी मुनिया को बार-बार पीछे खदेड़ दिया जाता था। इसका बुरा नतीजा यह निकला कि लाइन में खड़े-खड़े जब मुनिया की हालत बिगड़ने लगी तो वह निराश होकर डाक्टर की ओर भागा। लेकिन, जब तक वह अस्पताल में कदम रखता, ड्राप्सी डाईन मुनिया की नटई टीप चुकी थी। वह परलोक सिधार चुकी थी।

राम आसरे अपनी भोली-भाली बिटिया का सुघड़ चेहरा ख्याल में आते ही गुस्से में चूर हो गया। मंदिर से घर लौटने के बाद वह इसी उधेड़बुन में सारी रात नहीं सो सका कि अपनी ही बिरादरी वालों को कैसे सबक सिखाया जाए। यों तो, उसने यह तय किया था कि सुबह होते ही वह पहले धोबिया टोला जाएगा और हमलावर बंदरों की असलियत वहाँ सभी को किसी लागलपेट के बिना बता देगा। लेकिन, सुबह उसने अपना इरादा बदल दिया। उसने मंदिर की ओर रुख कर लिया।

मंदिर में पैर रखते ही वह भगतजी पर बरस पड़ा, "पखंडीबाज बगुला भगत, हम तुम्हारा असली रूप पहिचान गए हैं। जब तुम कल रात गाँव के जवान लौंडों को मुँहनोचवा बनाके धोबिया टोला पठा रहे थे तो हम लुक-छिपके तुम्हारा सारा गोरखधंधा देख रहे थे। हम तुमको आगाह कर देते हैं कि इ खून का होली खेलना बंद कर दो, नहीं तो हम सारे गाँव-जवार में तुम्हारे करतूतों का हल्ला-गुल्ला मचा देंगे..."

भगतजी को उसकी बात सुनकर तो करेंट-सा मार गया। पहले तो वह अपने कान पकड़कर कसम खाते रहे कि जो कुछ धोबिया टोला में हो रहा है, उसके बारे में उन्हें कुछ भी पता नहीं है। लेकिन, जब वह बारबार उनके करतूतों के भांडाफोड़ की धमकी देता रहा तो उन्होंने घुटने टेक दिए। वह गिड़गिड़ाने लगे--

"राम आसरे, अब तुमसे क्या छिपाएँ, इ सब दद्दन पहलवान का किया-कराया है। उसने ही हमसे कहा कि बाबा अब तिहारी जिनगी खतरे में है। तुम या तो अपना चमत्कार दिखाओ या अपना बोरिया-बिस्तरा समेटके चलता बनो। सो, हमको इ खेल खेलना पड़ा और ऊ भी दद्दन के इसारे पे, जिसने सारा जोजना बनाया है। हम तो सिरफ़ उसका कठपुतली हैं..."

राम आसरे एक तरफ़ प्रतिशोध की भावना से तो दूसरी तरफ़ धोबियों पर होने वाले घातक हमलों से मर्मस्थल तक द्रवीभूत हो रहा था। वह ठीक ही सोच रहा था कि अग़र उसने और देर की तो ग़ज़ब हो जाएगा। जब वह दद्दन को डाँट पिलाने उसके घर जा रहा था तो उसे लोगों की कानाफ़ुसियों से पता चला कि धोबिया टोला में कल रात मुँहनोचवा बंदरों का फिर हमला हुआ था और एक बुढ़िया उनसे डरकर भागते समय छत से गिरकर, काल के गाल में समा गई। बहरहाल, जब वह दरवाजा खटखटाए बिना दद्दन के घर में एकबैक दाखिल हुआ तो दद्दन हकबका-सा गया क्योंकि वह अपने दोस्तों से घिरा हुआ बातचीत में मशगूल था। राम आसरे समळा गया कि वे अपनी अगली साजिश को अमली जामा पहनाने के लिए गुप्त मंत्रणा में लिप्त हैं। जब वे उसके अचानक आ टपकने के बारे में अटकलें लगा रहे थे कि तभी वह गरज उठा--

"अब हम तुम लोगों की कारसाजी जान गए हैं। बाज आ जाओ, नहीं तो हमसे बुरा कोई नहीं होगा। हम सीधे थाना जाएँगे औ' तुम्हारा ख़ौफ़नाक़ खेल जगजाहिर कर देंगे, जब थानेदार हवालात में लात-घूँसों से तुम्हारी खबर लेगा..."

पहले तो वे सब भोले और अनजान बन रहे थे। पर, जब राम आसरे ने बताया कि भगतजी ने उसे सारी बातें बता दी हैं तो वे खुद भगत को गाली-गुफ़्ता देने लगे। दद्दन, भगत पर ही इल्जाम थोपने लगा कि उसने ही उनको बहला-फुसलाकर मुँहनोचवा का खेल खेलने के लिए राजी किया था। वह वहीं पर राम आसरे के सामने कान पकड़कर उट्ठी-बैठी करने लगा कि वह अब अपने दोस्तों को लेकर आईंदा यह भयानक खेल नहीं खेलेगा। लेकिन, राम आसरे कहाँ मानने वाला था? उसे तो अभी अपनी मुनिया बिटिया की मौत का बदला लेना था जिसके लिए खुद भगत ज़िम्मेदार था। इसलिए, उसने उन्हें धमकाकर वापस घर लौटने के बजाए, वादा-ख़िलाफ़ी की। वह सीधे पंचायत में रपट देने चला गया।

ग्राम प्रधान अवधू राम तो भगतजी की कारिस्तानी पर एकदम अंगारा हो गया। उसने तत्काल मुनादी कराकर पंचायत में दद्दन और उसके साथियों समेत बब्बन भगत को तलब करवा लिया। जिस समय पंचायत लगने वाली थी, राम आसरे ने चुपके से धोबिया टोला के बड़े-बुजुर्गों को भी वहाँ छिपे तौर पर मौज़ूद रहने की खबर भिजवा दी। भगत को जबरन घसीटकर पंचायत में लाया गया। वह पंचायत में हाजिर होने की सूचना पाते ही भाग खड़ा हुआ था। पर, चमरौटी के दिलेर लौंडों ने उसे रास्ते में ही टाँग लिया और घसीटते हुए भरी पंचायत में ला पटका। इतने पर भी, वह अपनी चालाकी से कहाँ बाज आने वाला था? वह दहाड़ें मार-मार चिल्लाने लगा--

"हमारे साथ कुछ अनापसनाप काम किया तो इ जान लो कि इसका ख़ामियाजा बहुत बुरा होगा। हम भगत आदमी हैं। औघड़दानी सिवजी के पुजारी हैं। हम सराप देंगे तो सारा संसार भसम हो जाएगा। तिहारे गाँव पर सन्निच्चर सवार हो जाएगा। विसधर अजगर एक-एक जने को निगल जाएगा..."

पर, गाँववाले उस कपटी साधु की धमकियों में कहाँ आने वाले थे? वे उसके भीतर छिपे राक्षस से भलीभाँति अवगत हो चुके थे। जहाँ उनके मन में वर्षों से धोबिया टोला के लोगों के प्रति नफ़रत भरी हुई थी, वहीं वे अब उनके लिए सहानुभूति जताने लगे थे। क्योंकि वे जान गए थे कि धोबिया टोला के लोग एक धूर्त साधु के अहंकार के चलते उसकी हिंसक वृत्तियों के शिकार हुए हैं। कुछ लोग तो धोबियों की सुलळाी हुई सोच की भी तारीफ़ करने लगे थे। उनका मानना था कि अगर वे भी उनकी तरह साँप-काटे व्यक्तियों को किसी औघड़ के बजाए डाक्टर के पास ले गए होते तो इतनी भारी संख्या में उनके स्वजन नहीं मरे होते।

लिहाजा, जब पंचायत की कार्रवाई आरंभ हुई तो सरपंच ने बारी-बारी से मुँहनोचवा बंदरों का खेल खेलने वाले दद्दन और उसके साथियों की बातें सुनी। फिर, प्रत्यक्षदर्शी राम आसरे ने उनके खिलाफ़ गवाही दी। आख़िर में, भगत ने अपना अपराध कबूल करना ही बेहतर समळाा। साथ में, उनकी सहानुभूति पाने के लिए उसने यह रहस्य भी उद्घाटित कर डाला कि वह इसी गाँव का जन्मा है यानी, भदेसर मोची का बेटा है जिसके साथ भागकर वह भी औघड़ बन गया था। उसने करबद्ध प्रार्थना की--

"हम कोई कुजात नहीं हैं, हम भी तुम्हारे जैसे खानदानी चमार हैं। अगर हम सचमुच बाँभन होते तो हम कुछ ना कहते। तुम जो सजा चाहते, हमें देते! लेकिन, अपनी बिरादरी पर तो रहम खाओ..." जब वह गिड़गिड़ा रहा था तभी वहाँ छिपकर पंचायत का फ़ैसला सुनने आए धोबिया टोला के करीब दर्ज़नभर लोग भी सामने आ गए। उनकी उपस्थिति से तो वहाँ सारे चमरौटीवासी अचकचा-से गए। लेकिन, उसी वक़्त राम आसरे सरपंच के मंच के पास आकर कहने लगा--

"चुँकि भगत की चुगलखोरी को हम चमरौटीवासी बरसों से ळोलते रहे हैं; लेकिन, इस समय उनके कुकर्मों का ख़ामियाजा धोबिया टोला के लाचार मेहरारुओं और बच्चों को भोगना पड़ा है। सो, हमारा सरपंच अवधू राम से गुजारिश है कि धोबियों के बुजुर्ग श्री मखंचूराम कन्नौजिया ही इहाँ आके जुल्मियों को सजा सुनाएँ।"

कुछ पल तक राम आसरे के एलान से चुप्पी छाई रही। ज़्यादातर लोगों को समळा में नहीं आ रहा था कि आख़िर, यह सब हो क्या रहा है। किंतु, तभी मंच पर बैठे चमरौटी के सम्मानित लोगों ने तालियाँ बजाकर मखंचूराम को आमंत्रित किया। मखंचूराम के लिए यह बड़े फ़ख़्र की बात थी कि उन्हें चमरौटी की पंचायत का सरपंच चुना गया था।

उन्होंने चमरौटीवासियों की उदारता से अभिभूत होकर अपनी पूरी भलमनसाहत दिखाई। उन्होंने कहा, "हमलोग भी साधु-संन्यासियों की इज्जत करना जानते हैं। लेकिन, भगतजी ने जैसा असामाजिक काम किया है, वह बड़ा शर्मनाक़ है। संतों के लायक नहीं है। वह हमारे बीच जातिवाद, आपसी भेदभाव और छुआछूत फैलाकर बड़ा बुरा करते रहे हैं। उन्होंने इतने समय तक तो हमारे भोले-भाले चमार भाइयों को बुद्धू बनाके अपना उल्लू सीधा किया ही है, अब तो नई पौध को भी बिगाड़ना शुरू कर दिया है। दद्दन और उसके नादान दोस्तों ने जो कुछ किया है, वह भगतजी के फ़ुसलावे में आकर किया है। इसलिए, असली मुजरिम भगतजी हैं। सरपंच होने के नाते हम उनको ये हुकुम देते हैं कि वह हमारा गाँव-टोला छोड़के काशी चले जाएं। दोबारा यहाँ कभी दिखाई न दें। दूसरे, दद्दन और उसके दोस्तों को हम ये आदेश देते हैं कि वे हमारे घायल लोगों की तीमारदारी करने हमारे गाँव जाएँ। उस काम से फ़ारिग होने के बाद, चमरौटी के शिव मंदिर में पूजा-पाठ से लेकर सभी बंदोबस्त करने की ज़िम्मेवारी सम्हालें।"

उस दिन धोबिया टोला और चमरौटी के बीच भेदभाव व नफ़रत की सारी दीवारें गिरा दी गईं। लेकिन, वह सौहार्द का आलम ज़्यादा दिनों तक नहीं कायम रह सका। जब गर्मी आई तो चमरौटी में लोगों पर भूत फिर से आने लगे। लोगों ने कहा कि ये कोई बाई-बतास तो है नहीं कि हक़ीम-वैद्य की बाट जोही जाए। पंचायत में यह आम राय प्रकट की गई कि भगतजी को काशी से ढूँढ़कर दोबारा गाँव में बसाया जाए। क्योंकि भूतों का कोप तो हर साल ळोलना होगा जिनके भगाने के लिए भगतजी जैसे सिद्ध औघड़ की दरकार पड़ती रहेगी।

सो, धोबिया टोला से संबंधों को दरकिनार कर दिया गया और भगतजी का मान-मनौव्वल कर उन्हें शिव मंदिर में पुनः प्रतिष्ठित किया गया। उन्होंने आते ही गंगा-तीर पर फिर से भूत भगाने के अपने कर्मकांड आरंभ कर दिए। वहाँ, जमा चमरौटी वासियों में धोबियों के ख़िलाफ़ बेहूदी बतकही का बयार फिर बहने लगा। इस बार भगतजी ने बड़े फूँक-फूँककर कदम उठाए। सबसे पहले अपने सबसे बड़े दुश्मन राम आसरे के ख़िलाफ़ चमारों को भड़काया। उसे विधर्मी और कुजात घोषित कर गाँव से बहिष्कृत कराया। उसके बाद, गाँववालों के मन में यह धारणा बैठा दी कि जिन साँपों के काटने से गाँव के चालीस लोग मरे थे, उन्हें काशी के एक बड़े औघड़ द्वारा मंत्रों से पैदा करके भेजा गया था और यह साजिश किसी और के द्वारा नहीं बल्कि धोबियों के बुजुर्ग--मखंचू राम द्वारा तैयार की गई थी। उन्होंने यह भी बताया कि ऐसे साँपों का जहर न तो मंत्र से उतरता है, न ही किसी जड़ी-बूटी से। फिर क्या था, धोबियों के ख़िलाफ़ चमारों का द्वेष बेतहाशा बढ़ गया। चमरौटीवासी मखंचू राम को अपना जानी दुश्मन मानने लगे।

चुनांचे, बाबा भगतजी चमरौटी में पूरे शानो-शौक़त से विराजमान हैं। कई सालों से बाढ़ भी नहीं आई है। भविष्य में कोई ऐसी उम्मीद भी नहीं है। फिर भी, भगतजी की इस प्रार्थना पर, भगवान ने विशेष कृपादृष्टि दिखाई है कि वह उनके गाँव को बाढ़ के कोप से दूर रखें। न बाढ़ आएगी, न साँपों का क़हर बरपेगा। बेशक! साँपों के आगे तो उनका कोई चारा नहीं चलता।