भगवद्गीता: एक मुक्त विश्लेषण - भाग ३ / सिद्धार्थ सिंह 'मुक्त'

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भौतिकता हर क्षण हमें इन्द्रियों में बद्ध रहने को विवश करती है। लोग मरने के बाद भी इसे त्यागना नही चाहते। कैसी विडम्बना है कि बहुत से लोग मृत्यु के बाद स्वर्ग में भी शरीर को धारण किये रहना चाहते हैं एवं अप्सराओं तथा बहुत से सुखों की कल्पना करते हैं। वो शरीर जो विविध कष्टों के लिए उत्तरदायी है, उसे त्यागने का भाव मन में नहीं ला पाते। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो वो शरीर तथा प्रकृति के बद्ध गुलाम हो गए हैं। लोग जिस विषय को पृथ्वी पर नहीं देखते, उनके सम्बन्ध में कुछ भी नहीं सोच सकते। यदि वे स्वर्ग की बात करते हैं तो वे एक सिंहासन पर बैठे अपेक्षाकृत अधिक प्रवर्धित मनुष्य (देवता) की तथा कुछ अर्धनग्न अप्सराओं की ही कल्पना कर पाते हैं। जो लोग वासना से हटकर थोड़ा उच्चतर सोचते हैं वो भी क्षीरसागर में बैठे, मानवीय दया से युक्त, शरीरवान विष्णु-लक्ष्मी को ही सोच पाते हैं। हम प्रत्येक स्थान पर किसी ऐसी सत्ता की कल्पना कर बैठते हैं जैसी पृथ्वी पर चाहते हैं- एक दयावान और नीतिज्ञ राजा की सत्ता। यह सब प्रकृति है जो हमें आबद्ध करती है। मार्ग प्रकृति के विरुद्ध है। कृष्ण कहते हैं कि, "प्रकृति के परे जाओ, सत्ता के द्वंदों से परे, स्वयं अपनी सत्ता से परे जाओ, किसी की चिंता न करो- न भले की न बुरे की।

हम स्वयं को केवल शरीर या शरीर के अधीन समझते हैं। यदि तुम्हें चोट लगती है तो उछल पड़ते हो, आखिर कब तक इस शरीर में आबद्ध रहकर विभिन्न कष्टों को अनुभव करोगे? शरीर से आसक्ति अर्थहीन है क्योंकि तुम आत्मा हो। दुःख, कल्पना, पशु, देवता, दैत्य, हर वस्तु, सम्पूर्ण संसार की यह श्रृंखला, यह सब शरीर के साथ जुड़ जाने से होती है। जब तुम मुझे चोट पहुंचाते हो तो मैं विलखता हूँ? ये गुलामी तो देखो, इसके साथ समझौता नही बल्कि इससे स्वतंत्र होना है। तुम क्या बने रहना चाहते हो? एक जीवित बंदी ! जिसे प्रकृति अपने थपेडों से इस छोर से उस छोर तक नचाती रहे ! इन शरीरों की कोई सार्थकता नहीं है क्योंकि हमारे शरीरों के ये विकसित यौवन भविष्य के डरावने कब्रिस्तान हैं। फिर भी हम अज्ञानवश शरीर त्यागने पर भी सहस्त्रों भावो से आबद्ध रहना चाहते हैं।

हम देखते हैं कि कृष्ण बार बार कहते हैं कि अनासक्त रहो। अनासक्त होने का अर्थ है इन्द्रियों पर नियंत्रण। प्रश्न ये है कि, "ये नियंत्रण किया कैसे जाये?" मेरे विचार में जबरन नियंत्रण करने का प्रयास निरर्थक है। कुछ लोग कई दिन उपवास रखकर मन को नियंत्रित करने का प्रयास करते हैं। न खाने-पीने से इन्द्रियां शिथिल पड़ जाती हैं और हम समझते हैं कि हमारा स्वयं पर नियंत्रण हो रहा है। किन्तु उपवास समाप्त होते ही हम भोजन बड़े चाव से खाते हैं। जब स्वाद के प्रति आसक्ति पर नियंत्रण नहीं हुआ तो उपवास रखने का क्या लाभ? ये सब तब तक व्यर्थ है जब तक त्याग हमारे स्वभाव में न उतर आये। अर्थ ये है कि आवेश में आकार इन्द्रियों से घमासान युद्ध न करने लगो, नियंत्रण को स्वभाव में परिवर्तित करो। सांसारिक विषयों के सामने आने से यदि उनमे लिप्त होने से स्वयं को नियंत्रित करना पड़े तो समझो अभी मंजिल बहुत दूर है। केवल नियंत्रण नहीं सीखना है क्योंकि इसका अर्थ है कि- नियंत्रण में 'हैं', अर्थात हैं, जो प्रबल रूप से प्रतिकूल परिस्थितियों में अनियंत्रित भी हो सकते हैं। इसलिए अनासक्त स्वभाव वाला बनना है, न कि दृढ नियंत्रक। कभी कभी हम विषयों से बचने के लिए उनके सामने आते ही अपनी आँखों पर घृणा का आवरण चढा लेते हैं। इससे अच्छा तो वही था कि आसक्त ही रहते, एक भाव को त्याग कर दूसरे भाव में बांध जाने का क्या प्रयोजन? अतएव, न कामना करनी है न घृणा, बस धीरे धीरे स्वयं को कर्मों से उत्पन्न परिणामों में न डूबने का अभ्यास करना है।

श्रीकृष्ण द्वारा प्रतिपादित निष्काम कर्म आखिर कौन कर सकता है? ये वही कर सकता है जो अपने जीवन भर के कार्य को नष्ट होता हुआ देख सके, जो सहस्त्रों बार निष्फल होने पर भी उतने ही उत्साह से लग जाये| ये वही लोग होते हैं जो केवल कर्म के निमित्त कर्म करते हैं। निःस्वार्थ कर्म करते हुए वह धीरे धीरे सभी विषयों से मुक्त हो जाते है। उनका जीवन सम्पूर्ण विश्व का जीवन हो जाता है और उनका प्रत्येक कार्य सम्पूर्ण विश्व को समर्पित होता है। उनका हृदय इतना प्रेममय हो जाता है कि पुरे जगत को वह उसमे समाहित कर सकते हैं और तब उन्हें आसक्ति एक भ्रम के समान लगती है जिसका यथार्थ में उनसे कोई सरोकार नहीं। ऐसा निष्काम कर्मी वेदों, उपनिषदों तथा हर ग्रन्थ से ऊपर उठ जाता है।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि, "यदि मन भ्रमाकुल और पुस्तकों तथा श्रुतियों द्वारा भंवर में खिंचा पड़ा हो तो इन श्रुतियों का क्या लाभ? एक ग्रन्थ कुछ कहता है तो दूसरा कुछ और, तुम किसे सत्य मानोगे ? अकेले खड़े होना सीखो, अपनी आत्मा की महिमा को देखो और देखो कि तुम्हे कर्म करना ही है। तभी तुम निश्चल बुद्धि वाले हो सकोगे।"

जब कृष्ण ने कर्मयोग की शिक्षा देने के बाद ज्ञानयोग को श्रेष्ठतम बताया तो अर्जुन ने पुछा, "अभी आपने कर्म का उपदेश दिया, फिर भी आप ब्रह्मज्ञान को सर्वश्रेष्ठ प्रतिपादित करते हैं। हे कृष्ण, यदि आपके विचार से कर्म की अपेक्षा ज्ञान उत्तम है, तो आप मुझे कर्म करने को क्यों कहते हैं?"

श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया, "प्राचीन काल से ये दो व्यवस्थाएं हम लोगों के समय तक चली आ रही हैं। सांख्य दर्शन ज्ञान का सिद्धांत प्रस्तुत करता है। योगी कर्म का सिद्धांत प्रस्तुत करते हैं। किन्तु कर्म त्यागकर कोई भी शान्ति लाभ नहीं कर सकता। इस जीवन में कोई एक क्षण भी बिना कर्म किये नही रह सकता। प्रकृतिजन्य गुण उसे कर्म में प्रवृत्त करेंगे। जिसने कर्म करना तो बंद कर दिया किन्तु मन में उसका चिंतन करता है, उसके हाथ कुछ भी नहीं लगता, वह तो बस मिथ्याचारी हो जाता है। परन्तु जो मन द्वारा धीरे धीरे अपनी इन्द्रियों का नियमन करता है, उन्हें कार्य में लगाता है, वह व्यक्ति उससे उत्तम है। इसलिए तुम कर्म करो।" इसके आगे कृष्ण कहते हैं कि, "यदि तुम्हे यह रहस्य ज्ञात भी हो गया कि तुम्हारा कोई कर्तव्य नही है, तुम मुक्त हो, तब भी परोपकार के लिए तुम्हे कार्य करना है। क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष जो आचरण करते हैं, साधारण लोग भी उसका अनुकरण करते हैं। यदि कोई श्रेष्ठ पुरुष, जिसने मानसिक शान्ति और मुक्ति प्राप्त कर ली है, कार्य करना बंद कर दे, तो अन्य सब लोग, जिनमें न वह ज्ञान है और न शान्ति, उसका अनुकरण करने लगेंगे। और इस तरह भ्रम पैदा हो जायेगा।"

कृष्ण कहते हैं, "हे अर्जुन ! कोई ऐसी वस्तु नही जो मेरे पास न हो और मेरे लिए कुछ प्राप्तव्य भी नही है, फिर भी मैं कर्म करता रहता हूँ। यदि मैं एक क्षण के लिए भी कार्य करना बंद कर दूँ तो सब नष्ट हो जाएगा। इसलिए जिसे अज्ञानी लोग फलासक्त होकर लाभ के लिए करते हैं, उसे अनासक्त विद्वान फल तथा लाभ की आकांक्षा न रखते हुए करें। यदि तुम ज्ञानी हो, तो भी अज्ञानियों के बाल सुलभ विश्वास को न डिगाओ।"

कृष्ण के कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्येक मनुष्य को उनके स्तर से ही धीरे धीरे ऊपर उठाने का प्रयास करो। यही कारण है कि आप किसी महान दार्शनिक को भी मंदिर में जाते और मूर्तिपूजा करते देख सकते हैं, यह ढोंग नहीं है बल्कि भारत का एक उच्च आदर्श है कि ज्ञानी कभी भी अज्ञानियों के मन में भ्रम न उत्पन्न करें, उनके बौद्धिक स्तर के आधार पार ही उन्हें आध्यात्मिक शिक्षा दें।

अब गीता पर हो रहे इस विश्लेषण को समापन की ओर ले चलता हूँ। मेरे विचार में ये चर्चा गीता के केंद्रीय भाव के एक स्पष्ट विवेचन के साथ ही समाप्त होनी चाहिए। ये केंद्रीय भाव क्या है? मुख्य रूप से गीता के द्वारा दो सिद्धांत प्रतिपादित किये गए हैं- प्रथम है ज्ञान, भक्ति और कर्म का समन्वय तथा दूसरा निष्काम कर्म है। लेकिन जब भी कहीं गीता का नाम आता है तो एक शब्द युग्म उसके साथ अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है, मानो वो भगवद्गीता की पहचान बन गया हो। वो शब्द युग्म है- निष्काम कर्म।

अधिकांश लोग निष्काम कर्म का गलत अर्थ निकाल बैठते हैं और फिर संदेहास्पद हो कहते हैं कि यह असंभव है। कुछ लोग इसका ये अर्थ निकलते हैं कि ऐसा कर्म जिससे किसी प्रकार का हर्ष अथवा विषाद न उत्पन्न हो। किन्तु इस श्रेणी में तो कुछ पशुओं द्वारा अपने बच्चों को खा लिये जाने का कर्म भी आ जायेगा क्योंकि वो ऐसा करके दुखी नही होते। सारे पत्थर निष्काम कर्मी हो जायेंगे, आखिर वो सुख-दुःख रहित हैं। अत्यंत क्रूर हृदय वाला मनुष्य, जिसे सुख दुःख का कम अनुभव होता है, अपने को निष्काम कर्म की ओर अग्रसर घोषित कर देगा। इस प्रकार यह सिद्धांत दुष्टों का हथियार बन कर रह जाएगा। यदि ऐसा है तब तो सचमुच गीता में बड़े भयानक सिद्धांत का प्रतिपादन किया गया है।

गीता कर्म को एकाग्रता से करने की शिक्षा देता है। एक कर्मयोगी को कर्म करते समय अपनी एकाग्रता को पराकाष्ठा तक पहुंचा देना चाहिए, यहाँ तक कि उसे अपने अहं भाव को भी भूल जाना चाहिए- यही गीता का आशय है। बहुत से लोगों को यह बात समझ में नहीं आती। वो कहते हैं कि अहं भाव के मिट जाने से कार्य करना सम्भव ही नही है। किन्तु वास्तव में कर्म करते समय इस भाव को मिटा देने से निश्चय ही कार्य उत्तम होता है। कोई चित्रकार जब इतना तल्लीन हो जाता है कि वह स्वयं को भूल जाये तब वह सचमुच कालजयी चित्र बना डालता है। जब कोई गायक गायन में रमकर लय की गहराई तक जाता है तो प्रकृति अद्भुत घटनाओं का प्रदर्शन करती है, जड़ भी मानो चेतन हो उठता है। इसलिए कृष्ण के अनुसार प्रत्येक कार्य को अपने अहं भाव को मिटाकर गहन एकाग्रता से करो। इससे तुम्हारा कार्य तो अच्छा होगा ही साथ ही साथ उससे लोगों की भी भलाई होगी।

प्रत्येक कार्य के परिणाम में कुछ भलाई तो कुछ बुराई भी मिली होती है। किसी भी कार्य का परिणाम पुर्ण सत् अथवा पुर्ण असत् नही होता। हमें बस वो कार्य करने का प्रयास करना चाहिए जिससे बुराई कम और भलाई अधिक होने की सम्भावना हो। इस प्रकार कर्म करने वाले लोग धीरे धीरे उस अवस्था में पहुँच जाते हैं जहाँ उन्हें अपने स्वार्थ-सिद्धि के लिए कोई कर्म नही करना पड़ता। वो बस जगत के कल्याण के लिए कर्म करते हैं।

यही गीता का मूल सन्देश है और इसकी सार्थकता का अनुभव तब होता है जब हम अपने जीवन में इसे उतारने लगते हैं। इसलिए बंधुओ, सर्वकल्याण हेतु आईये अपने कर्म को कर्मयोग में परिवर्तित करना आरम्भ कर दें। इति।