भटकोगे बेबात कहीं, लौटोगे अपनी हर यात्रा के बाद यहीं / जयप्रकाश चौकसे
प्रकाशन तिथि :01 मई 2017
कबीर खान की सलमान खान एवं सौहेल अभिनीत 'ट्यूबलाइट' फिल्म शीघ्र प्रदर्शन के लिए तैयार की जा रही है। इस बार कबीर खान भारत-पाकिस्तान की सरहद से हटकर भारत-चीन की सरहद पर दो भाइयों के बिछुड़ने और पुनर्मिलन की कथा पर फिल्म बना रहे हैं। दो सगे भाइयों की कहानी में छोटा भाई अत्यंत बुद्धिमान है परंतु बड़ा भाई थोड़ा मंदबुद्धि है और बात समझने में उसे समय लगता है जैसे ट्यूबलाइट ऑन करने के कुछ क्षणों बाद प्रकाश देती है। साधारण बल्ब त्वरित प्रकाश देता है। मंदबुद्धि बड़ा भाई अपने बुद्धिमान भाई को चीन से भारत लाने की यात्रा करता है। यह कथा का आधार है परंतु इसमें कई रेशे और भी जोड़े गए हैं।
महान कथा लेखक मुंशी प्रेमचंद की एक कथा है 'बड़े भाई साहब' जिसमें मंदबुद्धि परंतु पवित्र उद्देश्य से प्रेरित बड़े भाई अपने छोटे चंचल भाई को सलाह देते हैं साथ ही समय की चेतावनियों के प्रति उसे सजग करते रहते हैं। अपने छोटे भाई के सामने आदर्श प्रस्तुत करने के लिए बड़े भाई को अपनी इच्छाओं को दबाना होता है। वे रोल मॉडल की भूमिका निभाने के लिए कष्ट सहते हैं परंतु कथा के अंत में ज्वालामुखी की तरह फटकर अपनी स्वाभाविकता को प्रस्तुत होने का अवसर देते हैं। दो भाइयों का रिश्ता नि:स्वार्थ प्रेम का रिश्ता होता है। सृजन संसार में यह एक फॉर्मूला है कि चारित्रिक मूल्यों पर चलने वाला मंदबुद्धि माना जाना है और सफलता को साधने वाला, मनोहारी बातें करने वाला स्मार्ट-सा व्यवहार करने वाले को लोग खूब आदर देते हैं। इस तरह से चरित्र के गुणों को मंदबुद्धि से जोड़ना न्यायसंगत नहीं है, क्योंकि सद्गुणों को अपनाने का निर्णय लेने के लिए बुद्धि की आवश्यकता होती है। यह दरार आती है भावना पक्ष और तर्कपक्ष को दो विरोधी खेमों में बांटने से। असल फर्क है भावना को जोर-शोर से बार-बार प्रकट करने और भावना को हृदय में दबाने का। इस तरह एक्स्ट्रोवर्ट और इंट्रोवर्ट दो तरह के व्यक्तित्व हो गए। इस आकल्पन पर अनेक कथाएं रची गई हैं।
विशेषज्ञों की राय है कि मानव मस्तिष्क के बाईं ओर भावनाओं का जन्म होता है और दाएं हिस्से में तर्क विकसित होते हैं। दोनों के बीच मध्यमार्ग बनाना एक चुनौती की तरह होता है। सागर की ऊपरी सतह पर उत्तुंग तरंगे चलती हैं परंतु सागर के गर्भ में सबकुछ शांत और अपरिवर्तनीय रहता है। यहां भी दोनों तनाव को साधने की चुनौती रहती है। सारे क्षेत्रों में समन्वय ही सही निदान है। भारतीय संस्कृति की ताकत भी जुदा-जुदा प्रवाहित धाराओं के सिन्थेसिस करने में मौजूद रहती है। कट्टरता की ताकतें इस समन्वय को ध्वस्त करने का प्रयास करती है। उत्तर-दक्षिण तथा पूर्व-पश्चिम दिशाओं में कोई आपसी युद्ध या बैर नहीं है, किसी एक पंक्ति से दसों दिशाएं जुड़ जाती हैं?
भारत और चीन के इतिहास में अनेक समानताएं हैं। कम्युनिज़्म को अपनाने के पहले चीन में विभिन्न क्षेत्रों में लंबे समय तक आपसी द्वंद्व चलते रहे हैं और भारत में भी इसी तरह के संघर्ष होते रहे हैं और इन्हीं दो देशों में हर क्षेत्र में गंभीर चिंतन का लम्बा इतिहास है। एक तरह से विज़डम ट्री की दो शाखाएं रहे हैं ये देश! चीन समाजवादी तौर-तरीकों को अपना कर अंततोगत्वा पूंजीवादी देश ही बनना चाहता है। अमेरिका पूंजीवादी है और चीन भी अमेरिका बनना चाहता है। विचार क्षेत्र की सबसे बड़ी त्रासदी अमेरिका को आदर्श मानने के कारण हुई है।
गुलामी के समय हमारे यहां युवा को उच्च शिक्षा के लिए इंग्लैंड भेजा जाता था और विगत दशक से हर क्षेत्र में हम अमेरिका की अोर देखते हैं। संस्कृति और शिक्षा का व्यापक पैमाने पर अनुसंधान तो पेरिस में हुआ है, जिसे हमने नज़रअंदाज ही किया है। यह एक बड़ी भूल हुई है। यह विडम्बना देखिए कि विचार क्षेत्र में भारत के पास भव्य अतीत रहा है और भी चीजों के केंद्र में हमें होना चाहिए था परंतु हम हैं कि मंदबुद्धि बड़े भाई बने बैठे हैं और इस पर इतरा भी रहे हैं। पूर्व से ही सूर्योदय होता है और हम प्रकाश के भिक्षुक बने इधर-उधर डोल रहे हैं। हमारी दशा उस हिरण की तरह है, जो अपने भीतर बसी कस्तूरी की सुगंध को अन्य दिशाओं में खोजने के लिए भटकता रहता है। हम तो यह भी भूल गए कि सिनेमा विधा का जन्म पेरिस में हुअा और दुनिया के सबसे अधिक दर्शक भारतीय ही हैं। अपने भीतर हजारों सूर्य समाहित किए, हम ट्यूबलाइट की तरह मंदबुद्धि माने जा रहे हैं। इसविचार का ही घातक पक्ष आज की हुकूमत प्रचारित कर रही है वह है संकीर्णता कट्टरता को प्रेरित करने का। यह दौर महज नारेबाजी का बनकर रह गया है।