भटकोगे बेबात कहीं, लौटोगे हर यात्रा के बाद यहीं / जयप्रकाश चौकसे

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भटकोगे बेबात कहीं, लौटोगे हर यात्रा के बाद यहीं
प्रकाशन तिथि :02 अगस्त 2016


विगत दो वर्षों में हमारे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने देश से बाहर अधिक समय बिताया। अनेक देशों की यात्राएं कीं जिनका क्या लाभ मिलेगा, यह समय ही बताएगा। विगत दो वर्षों में दक्षिण भारत की सभी भाषाओं की 84 फिल्मों की शूटिंग विदेशों में हुई, जबकि केवल 34 मुंबइया फिल्में ही विदेशों में शूटिंग के लिए गईं। इन बातों का यह अर्थ नहीं है कि विदेश में शूटिंग करना फिल्म की गुणवत्ता का मानदंड है। यह जरूर चिंताजनक है कि अद्‌भुत एवं विविधतापूर्ण स्थल होते हुए भी हमारे देश में कोई विदेशी फिल्मकार शूटिंग नहीं करता। अजंता, एलोरा और कोणार्क जैसे स्थान दुनिया में कहीं नहीं हैं और न ही ताजमहल जैसा सौंदर्य कहीं आप देख सकते हैं। लगभग सभी देशों में विदेशी फिल्मकारों को वहां की सरकारें अनेक सुविधाएं देती हैं अौर वहां शूटिंग पर भारतीय फिल्मकार द्वारा किए गए खर्च का कुछ प्रतिशत लौटाती भी है ताकि आप बार-बार वहां शूटिंग करें। यह रकम 15 से 40 प्रतिशत तक है। फिल्म उद्योग ने भारत सरकार से अनुरोध किया है कि विदेशी फिल्मकारों को सहूलियतें दी जाएं और कुछ सुविधाएं उन्हें दी भी जा चुकी हैं।

भारत में फिल्म शूटिंग में सबसे बड़ी असुविधा अवाम देता है। शूटिंग देखने के लिए भारी, अनियंत्रित भीड़ जमा हो जाती है और काम करना कठिन हो जाता है। हमारे देश में तो सड़क पर दो कुत्ते लड़ने लगे या मैथुन करने लगे तब भी भीड़ जमा हो जाती है। मेले-तमाशों का सदियों से आदी रहा अवाम भीड़ बनने के लिए हमेशा आतुर रहता है। भीड़ का हिस्सा बना व्यक्ति आक्रोश की मुद्रा में आ जाता है और प्राय: हिंसक हो जाता है परंतु यही व्यक्ति अपने घर में अत्यंत शांतिप्रिय है और परिजनों के कष्ट के प्रति संवेदनशील। भीड़ की रसायनशाला मनुष्य में आमूल परिवर्तन करती है। भीड़ को भावना के ज्वार पर ले जाया जा सकता है और गुमराह भी किया जा सकता है।

ख्वाजा अहमद अब्बास की लिखी राज कपूर की श्री 420 के एक दृश्य में भ्रष्ट धनाढ्य व्यक्ति चुनावी भाषण दे रहा है। देश की महानता का बखान कर रहा है जैसा आज के सत्ता शिखर पर विराजमान नेता भी करते हैं। उसी स्थान से थोड़ी-सी दूरी पर नायक लच्छेदार मनोरंजक बातें करके अपना दंतमंजन बेच रहा है। धनाढ्य व्यक्ति के भाषण के लिए आई भीड़ धीरे-धीरे नायक की मनोरंजक बातों की ओर आकृष्ट होती है। नाराज धनाढ्य व्यक्ति अपने सेवक को सलाह देता है और वह सेवक आकर नायक से पूछता है कि उसके दंत मंजन में गाय की हड्‌डी या चर्बी का कोई अंश तो नहीं है। इस मिथ्या आरोप से विचलित नायक ईमानदारी से कहता है कि दंतमंजन में पिसा कोयला और रेत है। भीड़ भड़क जाती है और नायक की जमकर पिटाई होती है।

1857 में भी नए कारतूस में गाय या सुअर की चर्बी के मिथ्या प्रचार ने एक आंदोलन को जन्म दिया था। बेचारी गाय एक राजनीतिक बारूद का पलीता है, जिसे लगाकर किसी भी मुहीम को तोड़ा जा सकता है। मौजूदा सरकार ने भी ऐसा हिंसक वातावरण बनाया है कि कई लोगों की पिटाई मात्र इस शंका पर हो गई है कि ये गोमांस ले जा रहे हैं, जबकि रसायनशाला से रिपोर्ट आती है कि वह गोमांस नहीं था। इस दिखावटी चिंता का असली चेहरा तब उजागर होता है, जब गाय सड़कों पर भूख से बिलबिलाती नज़र आती है। गायों की सेवा और पालन न करते हुए केवल वादों की घास पर जीने के लिए बाध्य किया जाता है। देश में बहुत कम जमीन पर फसल उपजाई जा रही है, जबकि असीमित जमीन असिंचित ही रह जाती है। जमीन में इतनी क्षमता है कि दुनिया के किसी आदमी को भूखा न रहना पड़े। भूख, गरीबी व असहायता बाकायदा उत्पन्न किए जाते हैं, ये प्रकृति प्रदत्त नहीं हैं। भारत में आने वाले सैलानियों की संख्या कम होती जा रही है। हमारे देश में अंजता, एलोरा, खुजराहो इत्यादि अनेक विलक्षण स्थल हैं और उन्हें देखने को दुनिया आतुर है। यहां तक कि जनजातियों की जीवनशैली के प्रति भी विदेशी बहुत जानना चाहते हैं। हम अपने देश की असीमित सांस्कृतिक विरासत के प्रति ही उदासीन है। इस मामले में हम सम्पदा की तिजोरी होते हुए भी कंगाल बने हुए हैं, क्योंकि संकीर्णता से हम मुक्त नहीं होना चाहते।