भय / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्ल

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किसी आती हुई आपदा की भावना या दु:ख के कारण के साक्षात्कार से जो एक प्रकार का आवेगपूर्ण अथवा स्तम्भ कारक मनोविकार होता है उसी को भय कहते हैं। क्रोध दु:ख के कारण पर प्रभाव डालने के लिए आकुल करता है और भय उसकी पहुँच से बाहर होने के लिए। क्रोध दु:ख के कारण के स्वरूपबोध के बिना नहीं होता। यदि दु:ख का कारण चेतन होगा और यह समझा जाएगा कि उसने जानबूझकर दु:ख पहुँचाया है, तभी क्रोध होगा। पर भय के लिए कारण का निर्दिष्ट होना जरूरी नहीं; इतना भर मालूम होना चाहिए कि दु:ख या हानि पहुँचेगी। यदि कोई ज्योतिषी किसी गँवार से कहे कि कल तुम्हारे हाथ पाँव टूट जाएँगे तो उसे क्रोध न आएगा; भय होगा। पर उसी से यदि कोई दूसरा आकर कहे कि कल अमुक अमुक तुम्हारे हाथ पैर तोड़ देंगे तो वह तुरंत त्योरी बदलकर कहेगा कि कौन है हाथ पैर तोड़नेवाला? देख लूँगा।

भय का विषय दो रूपों में सामने आता है-असाध्यह रूप में और साध्यु रूप में। असाध्य विषय वह है जिसका किसी प्रयत्न द्वारा निवारण असंभव हो या असंभव समझ पड़े। साध्यर विषय वह है जो प्रयत्न द्वारा दूर किया या रखा जा सकता हो। दो मनुष्य एक पहाड़ी नदी के किनारे बैठे या आनंद से बातचीत करते चले जा रहे थे। इतने में सामने शेर की दहाड़ सुनाई पड़ी। यदि वे दोनों उठकर भागने, छिपने या पेड़ पर चढ़ने आदि का प्रयत्न करें तो बच सकते हैं। विषय के साध्यम या असाध्यव होने की धारणा परिस्थिति की विशेषता के अनुसार तो होती है पर बहुत कुछ मनुष्य की प्रकृति पर भी अवलंबित रहती है। क्लेश के कारण का ज्ञान होने पर उसकी अनिवार्यता का निश्चय अपनी विवशता या अक्षमता की अनुभूति के कारण होती है। यदि यह अनुभूति कठिनाइयों और आपत्तियों को दूर करने के अनभ्यास या साहस के अभाव के कारण होती है, तो मनुष्य स्तंभित हो जाता है और उसके हाथ पाँव नहीं हिल सकते। पर कड़े दिल का साहसी आदमी पहले तो जल्दी डरता नहीं और डरता भी है तो सँभलकर अपने बचाव के उद्योग में लग जाता है।

भय जब स्वभावगत हो जाता है तब कायरता या भीरुता कहलाता है और भारी दोष माना जाता है, विशेषत: पुरुषों में। स्त्रियों की भीरुता तो उनकी लज्जा के समन ही रसिकों के मनोरंजन की वस्तु रही है। पुरुषों की भीरुता की पूरी निंदा होती है। ऐसा जान पड़ता है कि बहुत पुराने जमाने से पुरुषों ने न डरने का ठेका ले रखा है। भीरुता के संयोजक अवयवों में क्लेश सहने की आवश्यकता और अपनी शक्ति का अविश्वास प्रधन है। शत्रु का सामना करने से भागने का अभिप्राय यही होता है कि भागनेवाला शारीरिक पीड़ा नहीं सह सकता तभी अपनी शक्ति के द्वारा उसी पीड़ा से अपनी रक्षा का विश्वास नहीं रखता। यह तो बहुत पुरानी चाल की भीरुता हुई। जीवन के और अनेक व्यपारों में भी भीरुता दिखाई देती है। अर्थहानि के भय से बहुत से व्यापारी कभी कभी किसी विशेष व्यवसाय में हाथ नहीं डालते, परास्त होने के भय से बहुत से पंडित कभी कभी शास्त्रर्थ से मुँह चुराते हैं। इस प्रकार की भीरुता की तह में सहन करने की अक्षमता और अपनी शक्ति का अविश्वास छिपा रहता है। भीरु व्यापारी में अर्थहानि सहने की अक्षमता और अपने व्यवसाय कौशल पर अविश्वास तथा भीरु पंडित में मनहानि सहने की अक्षमता और अपने विद्या बुद्धि बल पर अविश्वास निहित है।

एक ही प्रकार की भीरुता ऐसी दिखाई पड़ती है जिसकी प्रशंसा होती है। वह धर्म भीरुता है। पर हम तो उसे भी कोई बड़ी प्रशंसा की बात नहीं समझते। धर्म से डरनेवालों की अपेक्षा धर्म की ओर आकर्षित होनेवाले हमें अधिक धन्य जान पड़ते हैं। जो किसी बुराई से यही समझकर पीछे हटते हैं कि उसके करने से अधर्म होगा, उसकी अपेक्षा वे कहीं श्रेष्ठ हैं जिन्हें बुराई अच्छी ही नहीं लगती।

दु:ख या आपत्ति का पूर्ण निश्चय न रहने पर उसकी संभावना मात्र के अनुमन से जो आवेग शून्य भय होता है उसे आशंका कहते हैं। उसमें वैसी आकुलता नहीं होती। उसका संचार कुछ धीमा पर अधिक काल तक रहता है। घने जंगल से होकर जाता हुआ यात्री चाहे रास्ते भर इस आशंका में रहे कि कहीं चीता न मिल जाए, पर वह बराबर चला चल सकता है। यदि उसे असली भय हो जाएगा तो वह या तो लौट जाएगा अथवा एक पैर आगे न रखेगा। दु:खात्मक भावों में आशंका की वही स्थिति समझनी चाहिए जो सुखात्मक भावों में आशा की। अपने द्वारा कोई भयंकर काम किए जाने की कल्पना या भावना मात्र से भी क्षणिक स्तंभ के रूप में एक प्रकार के भय का अनुभव होता है। जैसे, कोई किसी से कहे कि इस छत पर से कूद जाओ तो कूदना और न कूदना उसके हाथ में होते हुए भी वह कहेगा कि डर मालूम होता है। पर डर भी पूर्ण भय नहीं है।

क्रोध का प्रभाव दु:ख के कारण पर डाला जाता है, इससे उसके द्वारा दु:ख का निवारण यदि होता है तो सब दिन के लिए या बहुत दिनों के लिए। भय के द्वारा बहुत सी अवस्थाओं में यह बात नहीं हो सकती। ऐसे सज्ञान प्राणियों के बीच जिनमें भाव बहुत काल तक संचित रहते हैं और ऐसे उन्नत समाज में जहाँ एक एक व्यक्ति की पहुँच और परिचय का विस्तार बहुत अधिक होता है, प्राय: भय का फल भय के संचार काल तक ही रहता है। जहाँ वह भय भूला कि आफत आई। यदि कोई क्रूर मनुष्य किसी बात पर आपसे बुरा मन गया और आपको मारने दौड़ा तो उस समय भय की प्रेरणा से आप भागकर अपने को बचा लेंगे। पर संभव है कि उस मनुष्य का क्रोध जो आप पर था उसी समय दूर न हो, बल्कि कुछ दिन के लिए वैर के रूप में टिक जाए, तो उसके लिए आपके सामने फिर आना कोई बड़ी बात न होगी। प्राणियों की असभ्य दशा में ही भय से अधिक काम निकलता है जबकि समाज का ऐसा गहरा संगठन नहीं होता है कि बहुत से लोगों को एक दूसरे का पता और उसके विषय में जानकारी रहती हो।

जंगली मनुष्य के परिचय का विस्तार बहुत थोड़ा होता है। बहुत सी ऐसी जंगली जातियाँ अब भी हैं जिनमें कोई एक व्यक्ति बीस पचीस से अधिक आदमियों को नहीं जानता। अत: उसे दस बारह कोस पर ही रहनेवाला यदि कोई दूसरा जंगली मिले और मारने दौड़े तो वह भागकर उससे अपनी रक्षा उसी समय के लिए ही नहीं बल्कि सब दिनों के लिए कर सकता है। पर सभ्य, उन्नत और विस्तृत समाज में भय के द्वारा स्थायी रक्षा की उतनी संभावना नहीं होती। इसी से जंगली और असभ्य जातियों में भय अधिक होता है। जिससे वे भयभीत हो सकते हैं उसी को वे श्रेष्ठ मनते हैं और उसी की स्तुति करते हैं। उनके देवी देवता भय के प्रभाव से ही कल्पित होते हैं। किसी आपत्ति या दु:ख से बचे रहने के लिए ही अधिकतर वे उनकी पूजा करते हैं। अति भय और भयकारक का सम्मान असभ्यता के लक्षण हैं। अशिक्षित होने के कारण अधिकांश भारतवासी भी भय के उपासक हो गए हैं। वे जितना सम्मान एक थानेदार का करते हैं, उतना किसी विद्वान का नहीं।

चलने फिरनेवाले बच्चों में, जिनमें भाव देर तक नहीं टिकते और दु:ख परिहार का ज्ञान या बल नहीं होता, भय अधिक होता है। बहुत से बच्चे तो किसी अपरिचित आदमी को देखते ही घर के भीतर भागते हैं। पशुओं में भी भय अधिक पाया जाता है। अपरिचित के भय में जीवन का कोई गूढ़ रहस्य छिपा जान पड़ता है। प्रत्येक प्राणी भीतरी ऑंख कुछ खुलते ही अपने सामने मानो एक दु:ख कारण पूर्ण संसार फैला हुआ पाता है जिसे क्रमश: कुछ अपने ज्ञानबल से और कुछ बाहुबल से थोड़ा बहुत सुखमय बनाता चलता है। क्लेश और बाधा का ही सामान्य आरोप करके जीव संसार में पैर रखता है। सुख और आनंद को वह सामान्य का व्यतिक्रम समझता है; विरल विशेष मनता है। इस विशेष से सामान्य की ओर जाने का साहस उसे बहुत दिनों तक नहीं होता। परिचय के उत्तारोत्तार अभ्यास के बल से अपने माता पिता या नित्य दिखाई पड़नेवाले कुछ थोड़े से और लोगों के ही संबंध में वह यह धारणा रखता है कि मुझे सुख पहुँचाते हैं और कष्ट न पहुँचाएँगे। जिन्हें वह नहीं जानता, जो पहले पहल उसके सामने आते हैं, उनके पास वह बेधड़क नहीं चला जाता। बिलकुल अज्ञात वस्तुओं के प्रति भी वह ऐसा ही करता है।

भय की इस वासना का परिहार क्रमश: होता चलता है। ज्यों ज्यों वह नाना रूपों से अभ्यस्त होता है त्यों त्यों उसकी धड़क खुलती जाती है। इस प्रकार अपने ज्ञान बल, हृदय बल और शरीर बल के वृद्धि के साथ वह दु:ख की छाया मानो हटाता चलता है। समस्त मनुष्य जाति की सभ्यता के विकास का ही यही क्रम रहा है। भूतों का भय तो अब बहुत कुछ छूट गया है, पशुओं की बाधा भी मनुष्य के लिए प्राय: नहीं रह गई है; पर मनुष्य के लिए मनुष्य का भय बना हुआ है। इस भय के छूटने के लक्षण भी नहीं दिखाई देते। अब मनुष्यों के दु:ख के कारण मनुष्य ही हैं। सभ्यता से अंतर केवल इतना ही पड़ा है कि दु:ख दान की विधियाँ बहुत गूढ़ और जटिल हो गई हैं। उनका क्षोभकारक रूप बहुत से आवरणों के भीतर ढक गया है। अब इस बात की आशंका तो नहीं रहती है कि कोई जबरदस्ती आकर हमारे घर, खेत, बाग बगीचे, रुपये पैसे छीन न ले, पर इस बात का खटका रहता है कि कोई नकली दस्तावेजों, झूठे गवाहों और कानूनी बहसों के बल से हमें इन वस्तुओं से वंचित न कर दे। दोनों बातों का परिणाम एक ही है।

एक एक व्यक्ति से दूसरे दूसरे व्यक्तियों के लिए सुखद और दु:खद दोनों रूप बराबर रहे हैं और बराबर रहेंगे। किसी प्रकार की राजनीतिक और सामाजिक व्यवस्था एकाशाही से लेकर साम्यवाद तक-इस दो रंगी झलक को दूर नहीं कर सकती। मनवी प्रकृति की अनेकरूपता शेष प्रकृति की अनेकरूपता के साथ साथ चलती रहेगी। ऐसे समाज की कल्पना, ऐसी परिस्थिति का स्वप्न, जिसमें सुख ही सुख, प्रेम ही प्रेम हो, या तो लंबी चौड़ी बात बनाने के लिए अथवा अपने को या दूसरों को फुसलाने के लिए ही समझा जा सकता है।

ऊपर जिस व्यक्तिगत विषमता की बात कही गई है, उससे समष्टि रूप में मनुष्य जाति का वैसा अमंगल नहीं है। कुछ लोग अलग अलग यदि क्रूर लोभ के व्यापार में रत रहें, तो थोड़े से लोग ही उनके द्वारा दु:खी या त्रस्त होंगे। यदि उक्त व्यापार का साधन एक बड़ा दल बाँधाकर किया जाएगा, तो उसमें अधिक सफलता होगी और उसका अनिष्ट प्रभाव बहुत दूर तक फैलेगा। संघ एक शक्ति है जिसके द्वारा शुभ और अशुभ दोनों के प्रसार की संभावना बहुत बढ़ जाती है। प्राचीन काल में जिस प्रकार के स्वदेश प्रेम की प्रतिष्ठा यूनान में हुई थी, उसने आगे चलकर यूरोप में बड़ा भयंकर रूप धारण किया। अर्थशास्त्र के प्रभाव में अर्थोन्माद का उसके साथ संयोग हुआ और व्यापार, राजनीति या राष्ट्रनीति का प्रधन अंग हो गया। यूरोप के देश इस धुन में लगे कि व्यापार के बहाने दूसरे देशों से जहाँ तक धन खींचा जा सके, बराबर खींचा जाता रहे। पुरानी चढ़ाइयों की लूटपाट का सिलसिला आक्रमण काल तक ही-जो बहुत दीर्घ नहीं हुआ करता था, रहता था। पर यूरोप के अर्थोन्मादियों ने ऐसी गूढ़, जटिल और स्थायी प्रणालियाँ प्रतिष्ठित की जिनके द्वारा भूमंडल की न जाने कितनी जनता का क्रम क्रम से रक्त चुसता चला जा रहा है-न जाने कितने देश चलते फिरते कंकालों के कारागार हो रहे हैं।

जब तक यूरोप की जातियों ने आपस में लड़कर अपना रक्त नहीं बहाया तब तक उनका ध्यापन अपनी उस अंधानीति से अनर्थ की ओर नहीं गया। गत महायुद्ध के पीछे जगह जगह स्वदेश प्रेम के साथ साथ विश्वप्रेम उमड़ता दिखाई देने लगा। आध्यांत्मिकता की भी बहुत कुछ पूछ होने लगी। पर इस विश्वप्रेम और आध्यांत्मिकता का शाब्दिक प्रचार ही तो अभी देखने में आया है। इस फैशन की लहर भारतवर्ष में आई। पर कोरे फैशन के रूप में गृहीत इस 'विश्वप्रेम' और 'अधयात्म' की चर्चा का कोई स्थायी मूल्य नहीं। इसे हवा का एक झोंका समझना चाहिए।

सभ्यता की वर्तमन स्थिति में एक व्यक्ति को दूसरे व्यक्ति से वैसा भय तो नहीं रहा जैसा पहले रहा करता था। पर एक जाति को दूसरी जाति से, एक देश को दूसरे देश से, भय के स्थायी कारण प्रतिष्ठित हो गए हैं। सबल और सबल देशों के बीच अर्थ संघर्ष की, सबल और निर्बल देशों के बीच अर्थ शोषण की प्रक्रिया अनवरत चल रही है; एक क्षण का विराम नहीं है। इस सार्वभौम वणिग्वृत्तिसे उतना अनर्थ कभी न होता यदि क्षत्रियवृत्ति उसके लक्ष्य से अपना लक्ष्य अलग रखती। पर इस युग में दोनों का विलक्षण सहयोग हो गया है। वर्तमन अर्थोन्माद को शासन के भीतर रखने के लिए क्षत्रियधर्म के उच्च और पवित्र आदर्श को लेकर क्षत्रियसंघ की प्रतिष्ठा आवश्यक है।

जिस प्रकार सुखी होने का प्रत्येक प्राणी को अधिकार है, उसी प्रकार मुक्तांतक होने का भी। पर कर्मक्षेत्र के चक्रव्यूह में पड़कर जिस प्रकार सुखी होना प्रयत्न साध्यक होता है उसी प्रकार निर्भय रहना भी। निर्भयता के संपादन के लिए दो बातें अपेक्षित होती हैं-पहली तो यह है कि दूसरों को हमसे किसी प्रकार का भय या कष्ट न हो; दूसरी यह कि दूसरे हमको कष्ट का भय पहुँचाने का साहस न कर सकें। इनमें से एक का संबंध उत्कृष्ट शील से है और दूसरी का शक्ति और पुरुषार्थ से। इस संसार में किसी को न डराने से ही डरने की संभावना दूर नहीं हो सकती। साधु से साधु प्रकृतिवाले को क्रूर लोभियों और दुर्जनों से क्लेश पहुँचता है। अत: उनके प्रयत्नों को विफल करने या भय संचार द्वारा रोकने की आवश्यकता से हम बच नहीं सकते।

[चिन्तामणि, भाग-1]