भरतहि होइ न राजमदु / संतलाल करुण

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कल दशहरा था और आज भरत-मिलाप है। उस भरत का राम से मिलन जो राम का वनवास सुनकर पिता की मृत्यु क्षण भर के लिए ही सही भूल-से गए— “भरतहि बिसरेहु पितु मरन, सुनत राम वन गौनु।” वह भरत जो माताओं, मंत्री तथा गुरु किसी का भी कहना नहीं मानते और राम से मिलने चित्रकूट चल देते हैं– उनकी मनुहार करने, उन्हें अयोध्या लौटाने। जब वे नहीं लौटते तो उनकी कृपा से प्राप्त चरण-पादुका अयोध्या के सिंहासन पर स्थापित करते हैं। नित्य प्रति पादुकाओं का चौदह वर्षों तक पूजन करते हैं। चम्पा के बाग में भ्रमर की भाँति अयोध्या के सारे सुखों को त्याग देते हैं। वे नंदिग्राम में पर्णकुटी बनाकर रहते हैं; सिर पर जटाजूट, शरीर पर वल्कल धारण करते हैं तथा भूमि पर कुश की आसनी बिछा कर परम त्यागी का जीवन व्यतीत करते हैं।

भरत ने चौदह वर्षों तक भोजन, वस्त्र, बर्तन, व्रत, नियम आदि को ऋषियों की तरह कठोरता के साथ अपनाया। उन्होंने राजा राम की धरोहर के रूप में प्रजा की सेवा की। कितना विलक्षण उदाहरण है कि जिस सिंहासन के लिए कैकेयी ने राम को वन भिजवा दिया, उस सिंहासन पर भरत कभी बैठे नहीं, निर्बाध निकट रहकर भी नहीं। गुरु, माता, मंत्री, प्रजा यहाँ तक कि स्वयं उन रघुपति राघव के समझाने-बुझाने पर भी नहीं, जिनका कि राज्याभिषेक ही नहीं हो पाया है; अभी वे राजा ही नहीं हुए हैं।

राम तथा भरत का मिलाप संसार की अनूठी घटना है। इस घटना के निहितार्थ में विश्व-वन्धुत्व का वह पवित्रतम निर्मल भाव निहित है, जिसमें कि सम्पूर्ण मानव-जाति को एक जुट करने का सामाजिक सौहार्द समाहित हो गया है। और उस सौहार्द का आधार है त्याग, अपने हिस्से का त्याग, अपने अतिरिक्त हिस्से का त्याग, दूसरों के प्राप्य का त्याग। त्याग उस भाग का, जो भले ही कितना ही अपना क्यों न हो, परन्तु औरों के लिए अपने से अधिक की आवश्यकता में त्याज्य हो। त्याग उस थाती का भी जिसे प्रकृति ने बाँटा तों नहीं, किन्तु हमें बलात् हथियाना पड़े तो त्याग, हिंसा का सहारा लेना पड़े तो त्याग, धरती को रौंदना पड़े तो त्याग। त्याग उस भोग का जो अभद्र, अनावश्यक और अनुचित है, निकृष्ट है। अपनत्व बस उस भर का, उतने भर का, जो ईश का दान है, परम सत्ता द्वारा सत्कर्मों के प्रतिफल में हमें प्रदान किया गया है तथा जिसके भोग-उपभोग से धन-धर्म, जीवन सब-के-सब धन्य होते हों, सब-के-सब कल्याण-भाव से ललित मुद्रा में छविमान हो उठते हों।

वही त्याग भरत ने किया, वही राम ने किया और जो उन दोनों ने किया, वही हमें भी करना चाहिए– अपने लिए, अपने इर्द-गिर्द के समाज के लिए, अपने देश के लिए और समस्त विश्व के कल्याण लिए। गोस्वामी जी विनय करते हैं— “प्रसन्नतां या न गताभिषेकतस्तथा न मम्ले वनवास दु:खत:। मुखाम्बुजश्री रघुनन्दनस्य मे सदास्तु सा मञ्जुलमङ्गलप्रदा।” अर्थात् राम की वह मुखकमल-छवि मेरे लिए सदैव मंगलदायिनी हो, जो न तो राज्याभिषेक के सुखद और न ही वनवास के दुखद समाचार से प्रसन्न या मलिन हुई। तनिक-सी तथा क्षणभंगुर खुशी में फूलकर कुप्पा हो जाना और हलके-से विपरीत झोंके में टूट जाना, ऊपर से अपने मानसिक भूचाल से आस-पास का जीवन तहस-नहस करना न तो राम को और न ही भरत को गवारा है। भरत भाई भी धर्म की धुरी उतने ही धैर्य से धारण करते हैं, जितने धैर्य से राम। इसलिए दोनों ही भाई-चारे और सौहार्द के अनोखे प्रतीक हैं।

जैसे-जैसे नवरात्रि के दिनों में रामलीलाएँ और शक्ति-पूजा बाह्याडम्बर, प्रदर्शन और चौंधियाने वाली रोशनी में तब्दील होते गए, वैसे-वैसे राम और भरत हमारे जीवन से दूर होते गए, शक्ति की आराधना दिखावटी होती गई। आध्यात्मिकता-नैतिकता कमजोर पड़ने लगी और समाज पर लोभ, झूठ, फरेब, अनाचार, अहंकार, कुसंस्कार, भोग-विकृति, वैमनस्य, तीव्र भौतिकता आदि का दुष्प्रभाव बढ़ता चला गया। ऐसे में राम और भरत की याद आती है— घटना गाँव की है, किसी का लोटा गायब हो गया, फूल का था। घर के बुजुर्ग को पता लग गया कि फलाँ के यहाँ वह लोटा है। मन को रोक न पाए और चलकर उस दरवाजे पहुँचे तथा सकुचाते हुए पूछ बैठे कि ज़रा देखिए वो लोटा खेलते-खालते ‘छोटुआ’ तो नहीं ले आया है। बस देर नहीं लगी, घर के कई लोग इकट्ठा होकर बुजुर्ग का पानी उतारने पर तुल गए— तुम चोर, तुम्हारे बाप-दादे चोर, तुम्हारे बाल-बच्चे चोर आदि-आदि। फिर बुजुर्ग के घर वालों को जैसे ही कहा-सुनी का पता चला, वे भी कहाँ पीछे रहते, टूट पड़े और हंगामा खड़ा हो गया। अपशब्दों तथा आरोपों-प्रत्यारोपों के बीच लोटे की बात ही गायब हो गई। कुछ वैसा ही हाल आज-कल हमारे देश के लोकतंत्र और राजनीति का है। राम-भरत फिर याद आते हैं— संसद और विधानसभाओं के पक्ष-विपक्ष के तांडव में जनहित गधे की सींग हो गया है। सुधार-संस्कार के लिए यदि कोई अन्ना हजारे-जैसा राष्ट्रीय नागरिक, राष्ट्रभ्राता, जिसके आगे एक बार ही सही समूची संसद विनत हुई हो, कुछ बोले भी तो राजनीतिक दलों से कुछ लोग मुँह नोचने दौड़ पड़ते हैं। इतना कीचड़ उछालते हैं, इतनी धूल उड़ाते हैं, इतनी चालें चलते हैं कि गर्द-गुबार और गडमगड्ड में यथार्थ का पता ही न चल पाए और जो दिखाई दे वह मात्र ऊपर की कलई-ही-कलई हो।

राम और भरत की याद तब और अधिक आती है, जब कश्मीर के पंडितों को अघोषित समय का निर्वासन झेलना पड़ रहा है। पंजाब वर्षों तक राम और भरत की याद दिलाता रहा। मंदिर-मस्ज़िद का भावनात्मक विद्रूप दशकों से देश का पीछा नहीं छोड़ रहा है। इधर बोडो के जत्थे-के-जत्थे अपना घर-गृहस्थी छोड़ने को विवश हुए। अभी हाल में सोशल साईट नेटवर्किंग पर ऐसी जबरदस्त हाँक चली कि मुम्बई, लखनऊ, इलाहाबाद आदि शहरों की सड़कों पर हज़ारों-हज़ार की जनसंख्या हिंसक आक्रोश के साथ उतर आई। कहते हैं— “हिन्दू, मुस्लिम, सिक्ख, ईसाई आपस में सब भाई-भाई”, तब राम-भरत की निराली भेंट हमारे मानस में कौंध-सी जाती है। तब भी जब “भारत-चीनी भाई-भाई” का नारा हमारे देश में अवतरित हुआ था। और तब भी जब विभिन्न देशों के शीर्षस्थ नेता और राजनयिक मिलते हैं, मीडिया प्रचार-तंत्र तेज़ कर देता है और बड़े-बड़े समझौते व बड़ी-बड़ी घोषणाएँ होती हैं। काटने-बाँटने के नानाविध छल-छद्म कितनी ही चालें चलते रहे, राम और भरत, जिन्हें भी दो भिन्न माँओं की भिन्न नालों ने जन्म दिया और जिनके भाई-चारे बीच वह सब आया, जो हमें अलग-थलग करता रहा है— धन-धर्म, राज-काज, सत्ता-विकार आदि सबकुछ, किन्तु वे अपने हृदयबल से सत्ता पर ही नहीं, उसकी विकृतियों पर भी भ्रातृत्व को आदर-स्नेह के साथ प्रतिष्ठापित कर गए।

आज एक बार फिर भरत-मिलाप का पर्व है और एक बार फिर राम-भरत की याद आई है। हर साल आती है और आती रहेगी, किन्तु कब भाई-भाई का झगड़ा ख़त्म होगा। आखिर कब भारत सच्चे अर्थों में भरत-मिलाप का ईदगाह बनेगा और दूसरों को भी प्रेरित करेगा। सारा चक्कर धन-दौलत के मद और अहंकार की मदिरा का है। उसे त्यागे बिना रावण के कितने ही पुतले दहन किए जाएँ, कितने ही सालों तक दहन करते जाएँ, बुराई नहीं मिटेगी और राम और भरत भी हमारे ह्रदय की ओर उन्मुख नहीं होंगे। भरत-मिलाप तो भारत के जनमन को यही सीख देता है कि धन-दौलत, अहंकार और विद्वेष के नशे के साथ कोई भी भाई, भाई को हृदयपूर्वक गले नहीं लगा सकता; तभी तो रामकथा से, भरत-मिलाप की आधार भावभूमि से ये पंक्तियाँ गूँज उठती है कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश का पद पाकर भी भरत को राजमद नहीं हो सकता—

“भरतहि होइ न राजमदु बिधि हरिहर पद पाइ।”