भले हूंँ बेखबर लेकिन / रामनाथ बेखबर / सत्यम भारती

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"प्रेम" वह शब्द है जो देखने में तो बस ढाई अक्षर का लगता है लेकिन इसके अंदर पूरा ब्रह्मांड समा सकता है; प्रेम का क्षेत्र व्यापक और सारगर्भित है। प्रेम की धुरी पर परिवार की नैया टिकी होती है जो घर को घर ही रहने देत है, बाज़ार नहीं बनने देता। प्रेम शाश्वत है, समर्पण है, विस्तृत है तथा मानवीय संवेदनाओं का उत्कृष्ट रूप है; प्रेम में छल-कपट का कोई स्थान नहीं होता; यह ईश्वर की इबादत की तरह होती है जो किसी-किसी को नसीब होता है। प्रेम में छल-प्रपंच, स्वार्थ, भेदभाव, धोखा आदि का कोई स्थान नहीं होता और जहाँ यह होता है वहाँ प्रेम नहीं होता। घनानंद ने कभी लिखा था-"अति सुधो स्नेह को मारग है, जहाँ नेकु, सयानपन बांक नाहिं"-यहाँ 'बांकपन' कहने का तात्पर्य-छल कपट से ही है। कुछ इसी तरह का भाव आधुनिक गजलकार बेखबर जी की गजलों में मिल जाता है, जहाँ वह आज मोहब्बत में सियासत करने वाले को आगाह करते हैं और उन्हें प्रेम की परिभाषा भी सिखाते हैं-

मोहब्बत इस जहाँ में उनकी ही परवान चढ़ती है,
मोहब्बत में नहीं जो यार होशियारी दिखाते हैं।

पुस्तक "भले हूंँ बेखबर लेकिन" कवि रामनाथ बेखबर द्वारा लिखित गजलों का संग्रह है जिसमें कुल 90 भावगर्वित गजलें संग्रहित हैं। प्रेम और जीवन दर्शन को पूरी सजगता के साथ पेश करने वाली यह पुस्तक लोक चिंतन एवं सरल भाषा के कारण मानस के काफी नजदीक लगती है। आधुनिक समस्याएँ, फ्लैट कल्चर, मानवों का गिरता नैतिक मूल्य, स्वार्थ की प्रचुरता, प्रतिस्पर्धा, टूटते बिखरते रिश्ते, वृद्धों की समस्याएँ, स्त्री समस्या तथा भ्रष्टाचार जैसे मुद्दे भी इस पुस्तक में मिलते हैं जो उनकी लेखनी को युगीन और संदर्भवान बनाता है। यह पुस्तक आम आदमी की अदम्य जिजीविषा और सियाह चींख का जीवंत दस्तावेज है।

प्रेम के विविध रूप हमें इस पुस्तक में मिलते हैं; इसमें देश प्रेम भी है, संयोग भी है, वियोग भी है, सहयोग भी है और दर्शन भी है, कवि किसी से आंखें नहीं चुरा पाया है। प्रेम के दो पक्ष होते हैं-संयोग और वियोग; संयोग के दिनों में सब कुछ अच्छा लगता है सारी फिजा अपनी लगती है लेकिन जैसे ही वियोग होता है-कुंठा, संत्रास, घुटन, आत्महत्या आदि जैसी समस्याएँ उत्पन्न होने लगती है। कवि इन दोनों पक्षों को युग के संदर्भ में पेश करते हैं तथा प्रेम को वर्तमान समय की ज़रूरत भी बताते हैं-

हर कमी मुझ में निकाली जाएगी,
आबरू पथ पर उछाली जाएगी,
हाथ सर पर रख दिया जो आपने,
अब दुआ बिल्कुल न खाली जाएगी।

जब अपने से ज़्यादा किसी की फिक्र होने लगे तो समझिये आप इश्क में हैं, जब उसी का चेहरा सर्वत्र दिखाई देने लगे तो समझिए आप इश्क में हैं, किसी की यादों में रात यूं ही गुजरने लगे तो समझिए आप इश्क में हैं, खुद से ज़्यादा जब किसी पर विश्वास हो जाए तो समझिये आप इश्क में हैं। इश्क इबादत है, समझौता नहीं; इश्क़ चाहत है, स्वार्थ नहीं; इश्क समर्पण है, ज़रूरत नहीं; इश्क़ हिफाजत है दरिंदगी नहीं। इसमें रूठना मनाना तो चलता ही रहता है क्योंकि फिक्र उसी को होती है जो अपने होते हैं-

मैं रूठता हूँ आज भी हर बात पर एक दिन,
मैं जानता हूँ, कोई मनाने के लिए है।

आज का प्रेम स्वार्थ की बुनियाद पर टिका है, जहाँ प्रेम कपड़ों की तरह बदला दिया जाता हैं। अब यह एकाकी ना होकर बहुआयामी हो गया है, यहाँ भी अब प्रतिस्पर्धा चलती है रिश्ते बनाने और तोड़ने के लिए। कवि की दृष्टि युवाओं की सोच और इस मानसिकता कि तरफ भी गई है-

कमी कहाँ से रह गई, निरीह क्यूँ वह मर गया,
कराह उसकी सुन के मेरा दिल भी ये सिहर गया,

मिली मुझे वह हाथ थामे अपने बॉयफ्रेंड का,
यह देख करके इश्क़ का नशा मेरा उतर गया।

वहीं एक शे' र और देखें-

टूट कर फिर उठ न पाते लोग हैं,
मत दगा देना किसी को प्यार में।

लेखक प्रेम को समाज एवं जीवन के लिए ज़रूरी मानते हैं जो सद्भाव एवं एकता के लिए ज़रूरी भी है। जब हम मशीनों के नौकर बन गए हैं तब हमारी संवेदना हीन हो रही हैं और दूरियाँ बढ़ रही है; ऐसे में प्रेम हमें एक सूत्र में बाँध कर रखता है तथा स्व के साथ-साथ परहित का भी ख्याल रखता है-

प्यार का ऐसा चलन फिर से चलाया जाय,
अश्क अब गैरों के गम में भी बहाया जाय।

प्रेम दुश्मनी को खत्म करता है, यह हमें आशावान बनाता है तथा जीवन में संघर्ष की शक्ति प्रदान करता है; वह मानवों के बीच सहयोग की भावना बढ़ाकर मानवीय मूल्यों को जीवंत रखता है-

वह मेरा दुश्मन सही पर देख लेना एक दिन,
जख्म पर वह प्यार से मरहम लगाने आएगा।

कवि के यहाँ प्रेम का एक स्वरूप और मिलता है-प्रकृति और देशप्रेम; प्रकृति हमारे हित में अपना सर्वस्व निछावर कर देती है, बदले में हम उसे क्या देते हैं सिर्फ-यातनाएँ, प्रदूषण, वनों की कटाई आदि। लेखक मानव को प्रकृति से प्रेम करने की सलाह देता नज़र आता है। हर मनुष्य को अपनी मिट्टी से लगाव होता है, वह मिट्टी की हिफाजत करना चाहता है तथा मिट्टी की सोंधी खुशबू हमेशा महकते देखना चाहता है। कवि ने मिट्टी की हिफाजत करने वाले वीर सैनिकों के संघर्ष, कष्ट, पीड़ा तथा समर्पण को गजलों में पेश कर देश प्रेम की गंगा बहाने का प्रयास किया है-

हिन्द की जयकार जब मकसद हो राही के लिए,
चंद कतरे खूं के हैं काफी स्याही के लिए।

अब बात करते हैं-जीवन दर्शन की; जीवन दर्शन कहने का तात्पर्य है-जीवन जीने का नजरिया, उसकी समस्याएँ, संघर्ष और यातनाएँ। कवि ने आधुनिक मानवीय जनजीवन की विविध समस्याओं तथा तल्खियों से जूझते हुए एक छल कपट रहित समाज का निर्माण करना चाहा है। वह मानवों की असिमित इच्छाओं से आहत है, यह वृत्ति मानवों को स्वार्थी बनाती जा रही है, जहाँ उसे दूसरे का सुख, तरक्की आदि नहीं देखा जा रहा-

लूट के यार धरा कि नेमत,
चांद पर घर वह बसाने आये।

आज का इंसान गिरगिट की तरह रंग बदलता है, जिधर लाभ देखता है उधर हाथ बढ़ा देता है। चरित्र में मिलावट और दोमुंहेपन आज के मानवों का कंठहार बन गया है, कवि इस प्रवृत्ति से आहत है-

बदले हैं रंग इंसां कुछ इस कदर जहाँ में,
गिरगिट भी देख करके हैरान हो गया है।

एक शेर और देखें-

विषधरों के संग रहने के सलीके सीख ले,
देके जाए लोग तुझको फिर से अब गच्चा नहीं।

जब से "फ्लैट कल्चर" हावी हुआ है, तब से गाँव शहर में शिफ्ट होने लगा है और बाजारवाद हमारे मन मस्तिष्क तक घर कर गया है। अब आदमी एकाकी जीवन जीना चाहता है, रिश्ते को तोड़ देना चाहता है तथा आगे बढ़ने की ललक में बहुत कुछ खो भी देता है, यहाँ सबको अपनी-अपनी पड़ी है ऐसे में ना तो बच्चों का बचपन संवर पा रहा है और न ही वृद्धों का बुढापा। कवि आधुनिकता के इस साइड इफेक्ट से प्रभावित हैं और जीवन की कटुता को यथार्थपूर्ण तरीके से पेश करते हैं-

लड़ाकर बस लड़ाई देखता है,
बुरा केवल बुराई देखता है।
गजब यह दौर आया है जगत में,
नहीं भाई को भाई देखता है।
बड़ी लाचारी से एक बूढा,
फटी अपनी रजाई देखता है।

गांव के बदलते परिवेश तथा ग्लोबल गाँव के कांसेप्ट ने गाँव को शहर होने पर मजबूर कर दिया है, ऐसे में लोक की चीजें, लोकभाषा, लोककला, चौपाल, मेला, पंचायत, सहयोग, लोकनृत्य आदि विलुप्त हो रहे हैं-

नगर के रंग में रंगने की खातिर,
निकलकर गाँव की गलियाँ चली है।

फ्लैट कल्चर का एक दुष्प्रभाव और देखें-

तुलसी पूजी जाती थी,
जब तक आंगन कच्चा था।

कवि अपनी गजलों में उस विलुप्त हो रहे कला एवं कलाकारों को जीवंत रखने की कोशिश करता है तथा लोगों को पुरानी विरासत से रूबरू भी कराता है-

अल्हैतें आल्हा गाते हैं क्या ढोलक खूब बजाते हैं,
रंभाती धवरी गैया, सावन का मस्त महीना है।

जब तक आपके पास धन-दौलत, रुतबा, शोहरत होता है, तब तक आपके पास बहुत सारे लोग टहलते मिल जाते हैं लेकिन जैसे ही सब खत्म हो जाता है वही लोग आपको आपके हाल पर छोड़ जाते हैं-

डोलते थे संग जो खुशहाल मंज़र देखकर,
छोड़ मुझको चल दिए वे हाल बदतर देखकर।

लोगों की चुप्पी तथा प्रतिरोध की कमी, जुर्म करने वाले को और भी हिम्मत देती है। हम बड़ी-सी-बड़ी घटना होने पर भी चुप रहते हैं जो लोकतंत्र की कमजोरी मानी जा सकती है; सवाल पूछना हमारा कर्तव्य है, लेकिन हम अपने कामों में ऐसे उलझे हैं कि बाहर कुछ भी हो हमें क्या फर्क पड़ता है-

लूट लेंगे वह निर्भया को फिर,
कौन घर से निकल कर आता है।

आधुनिक समस्याओं का निदान कवि-आत्मसंतुष्टि, मन पर नियंत्रण, स्वार्थ की कमी, प्रेम एवं सद्भाव तथा इंसान को इंसान समझने की चाह को बताया है। कवि किसी भी इंसान से भेदभाव नहीं करने तथा मानव की तरह पेश आने के लिए लोगों से अपील करता है-

नहीं हिंदू, नहीं मुस्लिम सभी भगवान के बंदे,
हमें इंसान को इंसान अब करना ज़रूरी है।

लोगों को कथनी-करनी में फर्क नहीं रख कर, मन को दर्पण की तरह स्वच्छ रखना चाहिए-

सुख-दुख जग में आते-जाते,
मन शीतल रख चंदन जैसा,

बाहर जैसे अंदर वैसे-
दिल रखना तू दर्पण जैसा।

वहीं मन पर नियंत्रण तथा आत्मसंतुष्टि को वह मनावों को गहना बनाने पर जोर देते हैं जो भौतिक जीवन के उठापटक का सबसे बड़ा और बुनियादी कारण भी है-

मुझको क्या मतलब है दुनिया भर की दौलत से,
मेरी हसरत इक रोटी पर चलती रहती है।

प्रतिभाओं को देश में उचित सम्मान नहीं मिल पा रहा है, जिसके कारण वे या तो यहीं दफ्न हो जा रहे हैं या फिर किसी और देश जाकर खुशहाल जीवन जी रहे हैं। प्रतिभाषाली अब वही बनता है जो किसी का बेटा हो या जिसके सिर पर किसी का हाथ हो; भारत में असली टैलेंट तो गरीबी से जुझने में ही खत्म हो जा रहा है, कवि का ध्यान इस गंभीर एवं गूढ़ समस्या कि तरफ भी गया है-

टैलेंट बैठा मुल्क में है तेल बेचता,
आगे फकत वह अक्ल के कच्चे निकल पड़े।

समाज में गरीब, मजदूर और किसानों की स्थिति हमेशा से बुरी रही है, सत्ता और पूंजी का गठजोड़ ने समाज में आर्थिक भेदभाव उत्पन्न किया है। यह आर्थिक भेदभाव जहाँ एक तरफ मानसिक असंतुष्टि प्रदान करता है तो दूसरी तरफ चोर, उचक्के, अपराधी तथा बागी को भी जन्म दे रहा है। कागजों पर बनने वाले कानून अमीरों को देखकर ही बनाया जाता है, गरीबों के हिस्से में तो सिर्फ़ तिजारत आती है-

चल पड़ेंगे बुलडोजर छातियों पर इनकी भी,
बिल्डरों की नियत को झुग्गियाँ समझती है।

इसके अतिरिक्त लेखक माँ को ग़जलों में स्थान देकर न सिर्फ़ उसकी महत्ता तथा लगाव को प्रदर्शित करता है बल्कि वे अभिशप्त स्त्री जीवन के संघर्ष, व्यथा, कष्ट आदि जैसे मुद्दे को शामिल कर आधुनिक स्त्रियों की अस्मिता और मुक्ति जैसे सवालों को भी उभारते हैं-

हाँ, बहुत प्यार से हर कौर खाया मैं मगर,
कौन-सा वह दिन कि जब जूठन नहीं खाई है माँ।

अगर इस पुस्तक की शिल्प की बात करें तो सरल भाषा में बड़ी बात करने की क्षमता इसे औरों से अलग करती है; भाषा कि प्रांजलता, उर्दू फारसी के शब्दों का इस्तेमाल, अंग्रेज़ी और देशी शब्दों का सुंदर संयोजन इनकी भाषा को जीवंत बना देती है। व्यंग्यात्मक तेवर एवम प्रतीकों के सहारे बिंब-निर्माण इस पुस्तक की खासियत है। कला के कुछ अद्भुत और नवीन प्रयोग यहाँ दिख जाते हैं, जहाँ सिर्फ़ प्रयोग-प्रयोग के लिए नहीं, परिस्थिति के हिसाब से हुआ है। ठेठ हिन्दी और उर्दू लफ्जों का सुंदर प्रयोग एक शेर में देखें-

पाट चौड़ा कर निगोड़ी अब तलक बेसब्र है,
गांव को पीकर रहेंगी इस नदी की हसरतें।

व्यंजना शब्द शक्ति का प्रयोग प्रतीकों के सहारे किया गया है-

हमारे खेत प्यासे मर रहे हैं,
समंदर पी गया पानी नदी का।

विरोधाभास अलंकार का एक प्रयोग देखें-

इमारत है बहुत ऊंची हमारी,
मगर हम आज तक बेघर रहे हैं।

अंततः यह कहा जा सकता है कि इस पुस्तक के भाव एवं शिल्प दोनों सुदृढ़ हैं तथा जनचेतना के काफी करीब भी हैं; सरल भाषा में लिखित यह पुस्तक प्रेम और जीवन दर्शन का सुंदर नमूना पेश करती है।