भविष्य के प्रति आश्वस्त करती कहानियाँ / राकेश बिहारी

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इक्कीसवीं सदी का पहला दशक अपनी समाप्ति पर है। दस वर्षों का यह काल-खंड जिसकी पदचाप पिछली सदी के आखिरी कुछ सालों में ही सुनाई पड़ने लगे थी, राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर अनेकानेक नई प्रवृत्तियों और उसकी परिणतियों का गवाह रहा है। इसे एक ऐसे काल-खंड के रूप में रेखांकित किया जा सकता है जिसमें पूँजी और कुछ हद तक श्रम के बेरोकटोक आवागमन को बढ़ावा मिला। इस बीच बाजार तक चल कर जाने का चलन जितनी तेजी से गए दिनों की बात होने लगा है, उससे भी तेज गति से बाजार पहले हमारे ड्राइंग रूम में और फिर हमारे बेडरूम तक में दाखिल हो चुका है। इस दौर में जहाँ संचार क्रांति ने दुनिया को हमारी मुट्ठी ही नहीं उँगलियों के पोर तक सीमित कर दिया वहीं दूसरी तरफ दुनिया एक बार फिर आर्थिक मंदी का शिकार हुई। आज हमारी राहें आसान हुई हैं लेकिन जिंदगी जटिल। मनुष्य होने की नियति उपभोक्ता और नौकर होने के दो सिरों के बीच सिमट कर रह गई है। इस बीच हमारे परिवेश में कॉस्मेटिक बदलाव तो खूब हुए लेकिन हमारा मूल चरित्र जस का तस रहा। बदलाव के हंगामाखेज विज्ञापन को ठहराव की तरफ से ध्यान हटाने के सुनियोजित तकनीक के रूप में इस्तेमाल करने का चलन भी इस समय में खूब बढ़ा है। नई सदी की ये कुछ ऐसी प्रवृत्तियाँ हैं जिन्हें समझे बिना इस दौर की कहानियों खास कर इसी काल खंड में सामने आए कथाकारों की कहानियों को नहीं समझा जा सकता है।

इक्कीसवीं सदी में राजनैतिक और सामाजिक आंदोलनों का अभाव स्पष्ट रूप से रेखांकित किया जा सकता है लेकिन इसके समानांतर इस सच से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि सदियों से दमित-दलित सामजिक समूहों में निजी और सार्वजनिक स्तर पर चेतना का जबर्दस्त विकास हुआ है। स्त्री, दलित, आदिवासी और अन्य दूसरे वर्ग जो सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक रूप से हमेशा से हाशिए पर ही धकेले जाते रहे हैं, उनके भीतर अपनी पहचान को पुनर्जीवित करने की ललक तेज हुई है। युवा कथाकारों की कहानियों में अक्सर ही सामूहिकता के अभाव को रेखांकित किया जाता है। लेकिन प्रश्न यह है कि जब छोटे-छोटे मोर्चों पर लड़ी जा रही ये निजी लड़ाइयाँ यदि समाज में ही सामूहिक स्तर पर गोलबंद नहीं हैं तो उन्हें कहानियों में खोजना कहाँ तक जायज है? हाँ, समाज की प्रारंभिक ईकाइयों व्यक्ति और परिवार के मोर्चे पर जिस तरह भारी उलट-फेर हुए हैं, प्रतिरोध की जो आवाजें उठी हैं उन्हें इधर की कहानियों में दूर से पहचाना जा सकता हैं। इस संदर्भ में मैं दो कहानियों का जिक्र करना चाहूँगा। पहली हंस के दिसंबर, 1999 अंक में छपी अंजली काजल की कहानी 'इतिहास' और दूसरी कथाक्रम के जुलाई-सितंबर, 2007 अंक जो कि स्त्री-आर्थिक स्वतंत्रता, स्वप्न और संघर्ष नाम से आया था, में छपी सोनाली सिंह की कहानी 'सात फेरे'। ये दोनों कहानियाँ जिस तरह अस्मिता-संघर्ष की निजी लड़ाइयों के बहाने बदलते समय के यथार्थ को रेखांकित करती हैं वह उल्लेखनीय है। दोनों कहानियों के केंद्र में स्त्री होने के बावजूद इनकी चिंताएँ अलग किस्म की हैं। इतिहास की 'मैं' कॉलेज जाने वाली एक लड़की है लेकिन उसके दुख और असंतोष का कारण उसका स्त्री होना नहीं बल्कि दलित होना है, जबकि 'सात फेरे' की ज्योत्सना की चिंताएँ उसके स्त्री होने या कि स्त्री बना दिए जाने के कारण उत्पन्न हुई हैं। दोनों कहानियों के बीच एक अंतर यह भी है कि 'इतिहास' जहाँ 'मैं' के बहाने समाज और परिवेश में चल रही अस्मिता की लड़ाइयों को रेखांकित करती है वहीं 'सात फेरे' बाहर की घटनाओं के बहाने एक स्त्री के अंतर्जगत में प्रवेश करती है।

जाति व्यवस्था हमारे समाज का कड़वा सच है और इसकी पीड़ा वही बता सकता है जिसने इस व्यवस्था की कड़ुवाहटों को देखा ही नहीं जीया भी है। आरक्षण और शेड्यूल कास्ट जैसे शब्द कैसे गाली की तरह इस्तेमाल किए जाते हैं किसी से छुपा नहीं है। जातीय विद्वेष की बातों को चाहे लाख गए दिन की बात बताइ जाए लेकिन आज भी स्कूल-कॉलेजों और दफ्तरों में इसकी हकीकतें देखी जा सकती है। साथ-साथ हँसते बतियाते ग्रुप में किसी के दलित होने की बात खुलते ही उसके साथ होने वाले बर्तावों-व्यवहारों में बदलाव आ जाने की घटना से हम रोज रू-ब-रू हो सकते हैं । 'कोटे वाला है, इसका क्या' या 'ये तो आरक्षण से आए हैं इन्हें क्या पता कि अच्छे अंक कैसे आते हैं' जैसे जुमले यूँ ही नहीं उछाले जाते। इसके पीछे व्यवस्था की एक कुरूप साजिश है। कांवेंट स्कूलों से 90% अंक ले कर पिता की चमचमाती गाड़ियों में कॉलेज जाने वाले तथाकथित 'मेधावी' छात्र-छात्राएँ शायद इस सजिश के भीतर प्रवेश नहीं कर सकते। किसी को उसकी जाति के नाम पर चाहे चोरी के झूठे इल्जाम तक का सामना क्यों न करना पड़े लेकिन वह उन्हें एक आम घटना मान कर भूल जाएँगे या भूल देने की नसीहतें देंगे। लेकिन वह जिसने जाति का यह दंश पीढियों से झेला है, अपनी पीठ पर लगे इस जाति के लेबल को उखाड़ फेंकने के लिए न जाने कैसे-कैसे परिश्रम किए हैं वह कैसे आसानी से भूल जाए यह सबकुछ...? उसके जख्म जब भी कुरेदे जाएँगे वह उसकी जड़ें इतिहास में तलाशेगा और जरूर तलाशेगा कारण कि हम जिसे इतिहास कह रहे हैं नए रूपाकारों में हमारे वर्तमान से भी चिपका पड़ा है। 'इतिहास' कहानी इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि यहाँ व्यवस्थाजनित इन विद्रूपताओं का जो प्रतिरोध दर्ज हुआ है वह प्रतिक्रियावादी नहीं है, उसका रास्ता स्वप्न और संघर्ष से हो कर जाता है। तभी तो अपने पापा के गुस्सा और दुख से यह कहने पर की 'तुम यह कॉलेज छोड़ दो' कहानी की नायिका का यह कहना कि 'नहीं पापा, अब तो यह नहीं हो सकता, अब तो मैं इसी कॉलेज में पढ़ूँगी और अपनी लड़ाई जारी रखूँगी' उसके भीतर की एक ऐसी चमक और जिजीविषा को दिखाता है जिसमें दूरगामी परिवर्तनों के अनगिनत बीज छुपे हुए हैं। वैसे भी रोशनी किसी की कृपा से नहीं अँधेरे से लड़ कर ही मिलती है। अंजलि काजल की यह कहानी अपने हिस्से की रोशनी अर्जित करने के लिए अँधेरे की साजिशों से लड़ने की कहानी है।

सोनाली सिंह की 'सात फेरे' अपने छोटे रूपाकार के बावजूद स्त्री मन में चल रहे बहुत बड़े कश्मकश, ऊहापोह और यंत्रणादायक परिस्थितियों से निकल भागने की विरल फैंटेसी के टूटकर बिखर जाने की कहानी है। आतंकवादी बम विस्फोट में अपने पति की मृत्यु की आशंकाओं के बीच अपनी मुक्ति की संभावनाओं का प्रतिसंसार रचती ज्योत्सना एक रेयर चरित्र है। एक ऐसे समय में जब आस-पड़ोस, टोला-मुहल्ला यहाँ तक कि खुद अपने ही घर के बच्चे अपने प्रियजनों की सलामती की दुआएँ माँग रहे हों, उनकी खबर न मिल पाने की छटपटाहटों के बीच बार-बार न्यूज चैनल्स बदल रहे हों, एक स्त्री शादी के धागे से अपने सपनों और अपनी आकांक्षाओं को बाँध देने या कि बाँधने को मजबूर कर दिए जाने की तकलीफों की पोटली खोल कर बैठी है। एक ऐसी पोटली जिसमें उसकी तकलीफ और पीड़ा ही नहीं उसकी उड़ान और उसके अरमान भी कैद हैं। सो चुके या कि सोने को मजबूर कर दिए गए उसके अरमानों को इस दुर्घटना ने जैसे उड़ जाने के लिए कुछ पंख लगा दिए हैं। विवाह बंधन से उत्पन्न पीड़ाएँ उसके भीतर इस कदर घनीभूत होती हैं कि वह अपने पति की मृत्यु में अपनी मुक्ति का दरवाजा देखने लगती है। कइयों को ज्योत्सना की यह मुक्ति यात्रा बहुत क्रूर और विद्रूप लग सकती है जो खुद अपनी पति की संभावित मृत्यु के रास्ते से हो कर गुजर रही है। लेकिन इससे उस यंत्रणादायक कैद का अंदाजा भी तो लगाया जा सकता है न जिससे निकल भागने को बेचैन एक स्त्री इस तरह की क्रूर फैंटेसी तक रच जाती है। कहानी के आखिरी हिस्से में यमराज से जीवनदान पा कर ज्योत्सना का पति रजत सुरक्षित घर लौट आता है... 'सबकुछ पहले जैसा था बस ज्योत्सना थी कि रोये जा रही थी। उसका रोना था कि थम ही नहीं रहा था और रजत उसकी पीठ सहलाकर अपने सही-सलामत होने का आश्वासन दे रहा था।' ज्योत्सना की रुलाई और रजत की इस आश्वस्ति के बीच जो फासला है वही कहानी का असली प्रभाव क्षेत्र है। सात फेरों से मुक्त न हो पाने की कसक और सात फेरों के बंधन के न टूटने की आश्वस्ति के द्वंद्व की गाँठें खोलती यह कहानी इस सदी के पहले दशक के कथा-संसार का सर्वथा भिन्न आस्वाद रचती है।

यूँ तो इस दशक की कहानियों के केंद्र में बहुधा प्रेम और बेरोजगरी जैसे विषय ही मिलते हैं लेकिन कुछ लेखकों ने इन सीमाओं का अतिक्रमण करते हुए सर्वथा भिन्न विषय और आस्वाद की कहानियाँ भी लिखी हैं। ऐसे ही कुछ लेखकों में सुपरिचित युवा कहानीकार पंखुरी सिन्हा को आसानी से शुमार किया जा सकता है। यहाँ मैं अकार के जुलाई 2003 अंक में छपी उनकी कहानी 'बड़े नक्शे में एक छोटा शहर' का उल्लेख करना चाहता हूँ जो न सिर्फ अपने रूप बल्कि एक अलग विषय की भावभूमि पर खड़ी होने के कारण भी अलग से हमारा ध्यान खींचती है। यूँ तो इस कहानी में कई पात्र हैं लेकिन इसके केंद्र में है एक छोटा सा शहर। जिस सूक्ष्म प्रभावोत्पदकता से इस कहानी में एक छोटे से शहर का परिवेश उभर कर आया है, उसे देखते हुए इसे परिवेश की कहानी भी कहा जा सकता है लेकिन इसका मतलब यह कतई नहीं है कि इसे परिवेश तक सीमित कर इस कहानी की असली अर्थवत्ता को संकुचित कर दिया जाय। दरअसल जिस तरह यह कहानी एक छोटे शहर में रोज-रोज हो रहे बदलावों की बारीक पड़ताल करती है वह रेखांकित किया जाना चाहिए। कारण कि यहाँ लेखिका की नजर शहर में हुए कॉस्मेटिक बदलावों तक ही सीमित नहीं हो कर उसके वर्गीय, व्यावहारिक और व्यावसायिक चरित्र तक को भेदती है। इन छोटे शहरों में हो रहे युगीन बदलावों को कदम-दर-कदम दिखाती पंखुरी सिन्हा की नजर इन शहरों के उन ठहरावों पर भी है जहाँ आ कर विकास और प्रगति के तथाकथित सारे आधुनिक मानदंड फींके और बेस्वाद हो जाते हैं। एलपीजी गैस स्टोव ने भले ही लकड़ी, कोयले या कुन्नी के चूल्हे की जगह हासिल कर ली हो लेकिन चौकीदार आज भी बहादुर ही कहा जाता है, तथाकथित संभ्रांत लोगों की सेवा-टहल में लगा रामचंद्र लोगों के लिए अब भी 'रमचंदरा' ही हैं... और आपका पड़ोसी चाहे लाख पढ़ा लिखा यहाँ तक कि डॉक्टर-प्रोफेसर ही क्यों नहीं हो, उसकी निगाहें यही देखती रहती हैं कि आपकी बेटी हर शाम किसी नियत समय पर कहाँ जाती है... कि उसका किसी से मेल-जोल तो नहीं बढ़ रहा... कि वह इतने दिनों से अपने मैके में क्यों बैठी है... कि उसके ससुराल से फोन-वोन आते हैं कि नहीं...। मतलब यह कि आधुनिक उपकरणों ने भले ही छोटे शहरों में रहने वालों की जिंदगी की कई मुश्किलों को आसान कर दिया हो लेकिन इन जगहों का मूल चरित्र अब भी वहीं अटका हुआ है... 'यह तो साधन के भेद किंतु भावों में भेद नया क्या है...?' पंखुरी न सिर्फ इन ठहरावों को रेखांकित करती हैं बल्कि इस कहानी में इसका प्रतिरोध भी रचती हैं, ठहरावों का यही प्रतिरोध इस कहानी को विशिष्ट बनाता है।

जैसा कि मैंने ऊपर कहा है कि प्रेम और बेरोजगारी इस दशक में सामने आए कथाकारों की कहानियों का प्रधान प्रतिपाद्य है। यहाँ एक बात और रेखांकित की जानी चाहिए कि कुछेक अपवादों को छोड़कर इधर की कहानियों में बहुधा यह प्रेम बहुत हद तक लंपटपने का पर्याय भी बन कर उभरता है, जहाँ स्त्री सिर्फ भोग की वस्तु के रूप में दिखाई पड़ती है और पुरुष एक ऐसे बुद्धिजीवी के रूप में जिनके पीछे मरनेवाली लड़कियों की एक लंबी कतार सी लगी है। यदि खुदा न खास्ता कहानीकार को अपने कहानी में ऐसी कोई लड़की नहीं मिली तो फिर जो लड़कियाँ वहाँ मिलेंगी उनका अतिमहत्वाकांक्षी और अवसरवादी होना तो जैसे तय ही है। हालाँकि कुछ आलोचक इस परिस्थिति का विश्लेषण करते हुए ऐसा कहते पाए जाते हैं कि अब स्त्रियाँ भी परंपरा से व्याप्त पुरुषोचित दुर्गुणों का शिकार हो रही हैं। ऐसी आशंकाओं को पूर्णतः नकारा भी नहीं जा सकता। लेकिन स्त्री जीवन में हुए सार्थक बदलावों को इग्नोर कर के जब अधिकांश कथाकार और उनकी कहानियाँ आधुनिक स्त्री के नाम पर उच्छृंखल चरित्रों का प्रतिपादन करते ही दिखें तो इसे एक नए तरह का पुरुषवाद ही कहा जाएगा।

वागर्थ के नवलेखन विशेषांक अक्टूबर 2004, में प्रकाशित मनोज कुमार पांडेय की कहानी 'चंदू भाई नाटक करते हैं' की शुरुआत में चंदू भाई एक ऐसे ही लंपट पुरुष पात्र के रूप में हमारे सामने आता है जो एक अदद प्रेमिका की तलाश में रंगमंच की दुनिया में दाखिल होना चाहता है। सिगरेट के धुएँ से छल्ले बनाने और एक अदद लड़की से दोस्ती गाँठने में ही जिसे जीवन की सार्थकता समझ में आती है। लेकिन तमाम पाठकीय आशंकाओं को झुठलाती हुई कहानी तब एक गंभीर रुख अख्तियार कर लेती है जब यही चंदू भाई नाटक और लड़की, दोनों को लेकर बराबर रूप से गंभीर हो जाते हैं। परंपरा और रूढ़ियों को अपनी पीठ पर लादे हमारे समाज में रंगकर्म दोयम दर्जे की चीज मानी जाती रही है। जाहिर है एक ठाकुर पिता अपने बेटे को इस क्षेत्र में कैसे कैरियर बनाने की आजादी दे सकता है। उसका आक्रोश जैसे सातवें आसमान पर है... ' सुन हरामी, ये तेरा रंगमंच-फंगमंच सब तोड़-फोड़कर धर दूँगा, अगर आगे से इसके बारे में सोचा भी तो। पढ़ने लिखने को एक अक्षर नहीं। इस उमर में ये पिद्दी जैसा शरीर। आजकल के लड़के दौड़ रहे हैं, जिम जा रहे हैं। एक हमारा ही पूत खानदान का नाम डुबोने पर तुला है' यहाँ इस बात का उल्लेख जरूरी है कि चंदू भाई के पिता की आँखों में दौड़ने और जिम जाने वाले ये लड़के खेल या मॉडलिंग की दुनिया में कैरियर बना कर अपने पिता का नाम रोशन नहीं करना चाहते। दर असल शरीर बनाने की यह सारी कवायद दारोगा बनने के लिए की जा रही है चाहे इसके लिए 'फिजीकल' निकालने के बाद दो-ढाई लाख का चढ़ावा ही क्यों न चढ़ाना पड़े। पता नहीं हमारा समाज डॉक्टर, इंजीनियर, बाबू या हाकिम बनने तक को ही कब तक कैरियर मानता रहेगा। रंगमंच जैसे गैरपरंपरागत क्षेत्रों में कैरियर बनाने का सपना देखने वाले युवा की राह में आने वाले पारिवारिक-सामजिक बाधाओं और उससे उत्पन्न परिस्थितियों का एक मार्मिक आख्यान इस कहानी में है। इस कहानी में उदाहरण भले रंगमंच का हो लेकिन खेल या कला की दूसरी विधाओं में कैरिअर बनाने का स्वप्न संजोये युवाओं की कहानियाँ भी इससे अलग नहीं है। कहानी के अंत में चंदू भाई को अपने अच्छे प्रदर्शन और तमाम उम्मीदों के बावजूद 'राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय' में दाखिला नहीं मिलता है, जाहिर है चंदू भाई की निराशा और उनके दुख के रूप में लेखक ने व्यवस्था का शिकार होते एक युवक के स्वप्नभंग को दर्शाया है। लेकिन कहानी की सुंदरता तब अपने प्रभावशाली रूप में चमकती है जब अपनी असफलता पर रोते चंदू भाई आईने में अपना चेहरा देखते ही अपने दुख को भुला अपने रोने के तरीके का विश्लेषण करने लगते हैं मानो वे रो नहीं रहे हों, रोने का रियाज कर रहे हों। तात्कालिक असफलता से उत्पन्न अवसाद को मुँह चिढ़ाते हुए खुद को किसी नए इम्तहान की तैयारी में खड़ा कर लेना इस कहानी को यथार्थ की एक नई कलात्मक ऊँचाई पर पहुँचाता है।

पिछले दस-पंद्रह वर्षों में कथाकारों की जो नई जमात उभर कर आई है उसने न सिर्फ रूप बल्कि अंतर्वस्तु के मामले में भी कहानी के बने-बनाये ढाँचे में उल्लेखनीय बदलाव किया है। आज कहानी की परिधि में सिर्फ घटनाएँ या चरित्र ही मुख्य नहीं होते। कई बार घटनाएँ अनुषंग होती हैं और चरित्रों की मनःस्थितियाँ और उसके अंतर्द्वंद्व ही कहानी के प्राण तत्व। सुनाई जाने वाली कहानियों और पढ़ी जाने वाली कहानियों के बीच का फर्क ही अब आसानी से समझा जासकता है। इन पढ़ी जाने वाली कहानियों का सार आप किसी को बोल कर तो नहीं सुना सकते लेकिन हाँ, उसे पढ़ने के बाद जो हासिल होता है वह कहने-सुनने की सीमा से बहुत परे की चीज होती है। वागर्थ के अक्तूबर 2004 अंक में ही प्रकाशित विमल चंद्र पांडेय की कहानी 'डर' एक ऐसी ही उल्लेखनीय कहानी है, जिसमें कथानक से ज्यादा चरित्रों का मनोविज्ञान महत्वपूर्ण है। इस कहानी में लेखक ने डर के मनोविज्ञान को करीने से उठाया है। डर दरअसल हमारे मन की अतल गहराइयों में छुपा एक ऐसा भाव है जो तब तक हमारे भीतर अपनी जड़ें जमाए रहता है जब तक कि ठीक से उसका सामना न हो जाए। एक लड़की के भीतर ठहरे हुए भूत-प्रेत आदि के डर की चरम परिणति के बहाने यह कहानी डर के एक दूसरे पहलू को भी हमारे सामने लाती है जिसमें किसी डर से मुक्ति का सबसे कारगर उपाय सायास या अनायास उस डर को अपने विरोधी के मन में रोप देना ही होता है। डर के विरुद्ध डर का यह स्वतःस्फूर्त फैलाव कई बार हमे वर्षों पुराने डर से मुक्त होने में हमारी मदद कर जाता है, और देखते ही देखते डर और आशंका के बोझ से भारी विरोधी के पाँव पीछे लौटने लगते हैं।

युवा कहानी से ग्रामीण संवेदना के लुप्त होने की शिकायत अक्सर की जाती है। बहुत हद तक यह शिकायत जायज भी है लेकिन यह भी एक सच है कि जो थोड़े लोग अपनी कहानियो में गाँव की रुख करते भी हैं उनकी कहानियों पर तटस्थ बातचीत करने की बजाय या तो उन्हें इग्नोर कर दिया जाता है या फिर कुछ लोगों द्वारा सिर-माथे चढ़ाकर कर बेवजह तूल दे दिया जाता है। बाजारवाद, भूमंडलीकरण और सांप्रदायिकता की तरह किसानों की आत्महत्या और उनकी कर्जदारी की समस्या भी जैसे अब कहानीकारों के लिए फैशन की बात हो गई है। अफसोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इस धारा की अधिकांश कहानियाँ आज किसानों की जिंदगी के बदले आर्थिक-सामाजिक मुद्दों पर लिखे जा रहे अखबारी कॉलम, लेखों और सरकारी-गैरसरकारी सांख्यिकीय आँकड़ों की कतरनें देख कर लिखी जा रही है। परिणामतः ये कभी साधारणीकरण तो कभी ऊबाऊ शिल्प का शिकार हो जाती हैं। इस संदर्भ में परिकथा के सितंबर-अक्टूबर 2010 में प्रकाशित अरुण कुमार असफल की कहानी 'तरबूज का बीज' का उल्लेख जरूरी लगता है। उक्त कहानी किसानों की बदहाली और उनके बुरे समय का उल्लेख करते हुए विस्तार से बताती है कि एक किसान आज कैसे आत्महत्या के मजबूर निर्णय और जीने की उत्कट चाह के बीच त्रिशंकु बना बैठा है। उसके व्यवहार ने घर में ही उसकी विश्वसनीयता पर संदेह खड़े कर दिए हैं। औरतें खोज-खोज कर उन तमाम चीजों को घर से बाहर कर रही हैं जिसमें उसके पति को आत्महत्या का कोई नवीन उपकरण न दिख जाए। वहीं हालात के दूसरे छोर पर बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ भी खड़ी हैं जो किसान को खेतिहर से नौकर बनाने में लगी हुई हैं, एक ऐसा नौकर जो आज न कल उसकी गिरफ्त में आ कर अपनी दम तोड़ ही देगा। लेकिन इस कहानी की दिक्कतें दूसरी हैं। जिस तरह कुणाल सिंह, गौरव सोलंकी, प्रत्यक्षा, नीलाक्षी सिंह जैसे कुछ कथाकारों की कुछ कहानियों को देख-पढ़ कर यह प्रश्न खड़ा होता है कि क्या कहानी सिर्फ भाषा-शैली और शिल्प का प्रयोग ही है, वहीं 'तरबूज का बीज' जैसी मजबूत अंतर्वस्तु की कहानी को पढ़ कर यह प्रश्न भी सहज ही खड़ा हो उठता है कि क्या कहानी सिर्फ अंतर्वस्तु है? कहानी की अनावश्यक लंबाई, पाठकों को बाँधने में असमर्थ लचर फैंटेसी, तथ्यों का दुहराव और उससे उत्पन्न कथानक में कदम-दर-कदम दरपेश होता बिखराव जैसे कहानी की धार को कुंद कर के उसमें अंतर्निहित संभावनाओं की हत्या कर देते हैं। सच है कि अंतर्वस्तु से शून्य कला के दम पर अठखेलियाँ करती कहानियाँ किसी काम की नहीं होतीं लेकिन बिना अपेक्षित कला कौशल के मजबूत से मजबूत अंतर्वस्तु की कहानी भी कोई दूरगामी प्रभाव नहीं छोड़ पाती।

और अंत में, हिंदी कहानी के युवतम कथाकारों में से एक ध्यानेंद्र मणि त्रिपाठी की हंस के नवंबर, 2010 अंक में प्रकाशित कहानी 'खेल'। चुस्त भाषा, कथानक के अनुकूल शिल्प, थोड़ी सी नाटकीयता के बावजूद कथानक का सोद्देश्य निर्वाह और सबसे बड़ी बात, विषय के तात्कालिक होने के बावजूद उसकी गहरी पकड़। लेखक की पहली कहानी, लेकिन पहलेपन की अनगढ़ता से बिल्कुल मुक्त। राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में हुई अनियमितताओं के बहाने यह कहानी ठेकेदारों और मजदूरों की दो विपरीतध्रुवीय दुनिया के बीच पसरे फासले को तो रेखांकित करती ही है, खेल के पीछे के खेल को भी बारीकी से उजागर करती है। पढ़ते हुए ऐसा लगता है जैसे कल की ही बात है... अभी-अभी तो इन घटनाओं ने खबारों और न्यूज चैन्ल्स की सुर्खियाँ बटोरी थी। लेकिन कमाल यह कि अपने कहन की प्रभावोत्पादकता में कहीं भी अखबारी नहीं। कथा का केंद्रीय पात्र बटेसर राष्ट्रमंडल खेल के लिए हो रहे निर्माण कार्य में लगा एक अदना सा मजदूर है। वह एक दिन अपने ठेकेदार बलभद्दर का पीछा करता है और पाता है कि 'देश की नाक' के नाम पर पर्दे के पीछे अश्लील लूट-खसोट मची है। बलभद्दर आगे-आगे और बटेसर पीछे-पीछे... ठेकेदार और मजदूर की यह लुकाछिपी अंततः एक सड़क दुर्घटना के रूप में खत्म होती है जिसमें बलभद्दर मारा जाता है। बटेसर को उसकी गाड़ी में नोटों से भरी अटैंची मिलती है जिसे वह अपने साथी मजदूरों के बीच बाँट देना चाहता है... सामूहिकता और सोद्देश्यता के लोभ ने कहानी को आखिर में थोड़ा नाटकीय और रुमानी जरूर बना दिया है, बावजूद उसके ध्यानेंद्र मणि त्रिपाठी ने इस कहानी से जो उम्मीदें जगाई है उसकी प्रशंसा की जानी चाहिए। इस कहानी से दो और बातें स्पष्ट होती है एक यह कि हाशिए का जीवन तलाशने के लिए सुदूर प्रदेशों की यात्रा से ज्यादा एक ऐसी दृष्टि की जरूरत होती है जो अपने आसपास की दुनिया को सूक्ष्मता से देख-परख सके। हर समाज और हर दुनिया का एक हाशिया होता है और हाशिए पर जीने वाला हर समाज कथा-कहानियों में दर्ज होने के लिए अपनी बारी का इंतजार कर रहा है। और दूसरी बात यह कि अच्छी कहानियाँ किसी गाजे-बाजे या प्रायोजित विज्ञापनों की बैशाखियों का मोहताज नहीं होती बल्कि चुपके से हमारे भीतर अपनी जगह बना लेती है, बिना किसी शोर शराबे के।

पिछले दशक में अपनी पहचान बना चुके या कि पहचान बनाने की ओर बढ़ रहे कुछ कथाकारों की ये कहानियाँ निश्चित रूप से समकालीन युवा कहानी के विविधवर्णी संसार की तरफ इशारा करती हैं। कहानी-कहानी के शोर के बीच सचमुच की अच्छी कहानियों को पहचानने का सिलसिला चलते रहना चाहिए।