भविष्य निधि / राजेन्द्र वर्मा

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श्यामाचरण बाबू ने भविष्य-निधि से पचीस हज़ार रुपये निकालने के लिए प्रार्थनापत्र दिया।

अधिकारी ने उसकी जांच की-धन की आवश्यकता के कॉलम में उन्होंने 'स्वरचित पुस्तक का प्रकाशन' लिख रखा था।

उसने उन्हें बुलाया और समझाते हुए कहा-"इससे पहले भी आप काफ़ी रक़म पी.एफ़् से निकाल चुक हैं-पुत्री का विवाह, मकान की मरम्मत, बीमारी का उपचार आदि। अब इस फ़ालतू काम के लिए?"

"लेकिन, सर! कोई प्रकाशक भी तो मुफ़्त में छापने को तैयार नहीं होता।"

"तो मत छपवाओ! ...देखो, मैं तुम्हारे भले के लिए ही कह रहा हूँ। कल तुम्हें पैसों की ज़रूरत पड़ेगी, तब, कौन तुम्हारी मदद करेगा? क्यों अपना भविष्य बरबाद कर रहे हो?"

"सर! भविष्य के लिए ही तो पुस्तक प्रकाशित करवाना चाहता हूँ। इसमें मेरे जीवन-अनुभव का सार है, मेरी साधना है। इसे मैं वर्तमान के सम्मुख रखना चाहता हूँ ताकि उज्ज्वल भविष्य का निर्माण हो सके! सर! भविष्य-निधि तो भविष्य के निर्माण के लिए ही तो होती है। यदि साहित्य से भी भविष्य का निर्माण न होगा, तो किससे होगा?"

"चलिए, एक मिनट के लिए आपकी बात को सच मान लेते हैं, पर श्याम बाबू! पुस्तक-प्रकाशन के लिए धन के आहरण का प्रावधान कहाँ है? ...अच्छा, आपने पुस्तक-प्रकाशन की अनुमति ली है?"

"ली तो नहीं है सर! लेकिन क्या यह हमारी अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से आच्छादित नहीं है? यह तो हमारे मूल अधिकारों में से एक है!"

"कुछ भी हो, पर इसके लिए आपको आहरण की अनुमति नहीं मिलेगी!"

श्यामाचरण ने कुछ सोचते हुए प्रार्थना-पत्र वापस ले लिया। अगले दिन उन्होंने 'विवाह की पच्चीसवीं वर्षगाँठ मनाने के लिए' प्रार्थना-पत्र दिया।

अधिकारी ने मुस्कुराते हुए उसे स्वीकृत कर दिया।