भाग-2 / रंजना वर्मा

Gadya Kosh से
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वह उत्साह और उमंग में भरकर अभी और कुछ कहना चाहता था कि तभी चंदू चीख उठा।

"क्या हुआ?" मुन्नू ने चौक कर पूछा।

"इस पर्दे पर यह लालगोला देखो। देखो ... यह तो हमारे यान की ओर ही आ रहा है। यह रहा हमारा यान और ... यह गोला तो इसी ओर तेजी से झपटता आ रहा है।" चंदू ने परदे की ओर संकेत करते हुए घबराए हुए स्वर में कहा।

मुन्नू ने उस गोले को ध्यान से देखा। वह लाल रंग का गोला जलते हुए शोले के समान था। चारों ओर से उसे सतरंगी प्रकाश के घेरों ने लपेट रखा था जिनसे चमकीली तीखी चिनगारियां-सी निकल रही थी। गोले और यान के बीच की दूरी प्रति क्षण कम होती जा रही थी।

मुन्नू ने यान की चालक सीट के पास लगे हल्के हरे रंग के बटन को जल्दी-जल्दी दबाया। यान ने घूम कर अपनी दिशा बदल दी।

"यह क्या किया?" चंदू ने चौक कर पूछा।

"और कोई चारा नहीं था इसलिए मैंने यान की दिशा बदल दी है।" मुन्नू ने बताया।

"लेकिन वह गोला तो अभी भी हमारी ओर ही आ रहा है।" चंदू ने व्याकुल होकर कहा।

मुन्नू ने एक बार फिर हरा बटन दबा कर यान की दिशा बदल दी लेकिन वह लालगोला अब भी उनके पीछे लगा हुआ था। जितनी तीव्रता से यान उससे दूर होने की कोशिश कर रहा था वह गोला उतनी ही तीव्रता से उसकी ओर बढ़ता आ रहा था। परेशानी से चंदू और मुन्नू होने के चेहरे पर पसीने की बूंदें चुहचुहा आई.

"अब ... अब क्या होगा?" चंदू ने घबरा कर पूछा।

"पता नहीं। चुप रहो। सोचने दो मुझे।" मुन्नू ने झुंझला कर कहा। उसका मस्तिष्क उस विपत्ति से छुटकारा पाने का उपाय सोच रहा था। उसने यान की गति कम कर दी। लाल गोला अब बिल्कुल यान के निकट आ चुका था। जैसे ही वह यान से टकराने को हुआ मुन्नू ने इंजन बंद कर दिया और चंदू का हाथ पकड़कर फुर्ती से सीट के पावों को पकड़ कर फर्श से चिपक गया। इंजन के अचानक बंद हो जाने से यान डगमगा उठा और दूसरे ही क्षण कलाबाजियाँ खाता कभी सीधा और कभी उल्टा होता तेजी से नीचे गिरने लगा।

इस अप्रत्याशित घटना से चंदू घबरा गया। उसने दोनों हाथों से मुन्नू को कस कर पकड़ रखा था। भय से उनके चेहरे पीले पड़ गए. मृत्यु सामने दिखाई दे रही थी। कुछ ही क्षणों में मुन्नू स्वयं को नियंत्रित करके चंदू की पकड़ से मुक्त हो गया। वह किसी प्रकार चालक सीट तक पहुँचा। जैसे ही कलाबाजियाँ खाता विमान सीधा हुआ उसने इंजन चालू कर दिया। कुछ देर झटके लेने के बाद यान अपनी स्वाभाविक गति पर आ गया।

मुन्नू ने यान की दिशा नियंत्रित करते हुए मुस्कुरा कर कहा-

"चंदू! अब उठो भी। झटपट अपनी सीट पर आ जाओ. खतरा टल गया।" आश्वस्त होकर चंदू उठा और अपनी सीट पर आ गया किंतु अभी भी व्याकुलता उसके चेहरे पर अधिकार जमाए हुए थी।

"यह क्या हो गया था कुछ देर पहले?" उसने पूछा।

"पहले पर्दे पर देख कर बताओ कि वह लाल गोला अब कहाँ है?"

"दक्षिण दिशा में क्षितिज के पास बहुत हल्का-सा दिखाई दे रहा है। अब बहुत दूर चला गया। अब तो वह पर्दे पर दिखाई भी नहीं दे रहा।" चंदू ने पर्दे पर दृष्टि जमाए हुए कहा।

"अब वह दूर चला गया। चलो, बला टल गई. लेकिन तुमने इंजन क्यों बंद कर दिया था?"

"ऐसा न करता तो यह खतरा दूर कैसे होता? यान पलटने से लाल गोले के चालको ने समझा होगा कि यान नष्ट हो रहा है। इसलिए वे हमारी ओर ध्यान न देकर आगे निकल गए."

"तुम यह कैसे कह रहे हो कि उस गोले जैसे यान में मनुष्य ही थे?" चंदू ने आश्चर्य से पूछा।

"अरे पगले, मनुष्य नहीं तो क्या उसे पशु चला रहे होंगे? यदि उस यान में कोई न होता या वह कोई आकाशीय पिंड होता तो हमारे यान के दिशा बदल लेने पर भी उसका पीछा कैसे कर सकता था?" मुन्नू के समझाने पर चंदू की समझ में पूरी बात आ गई. उसने सुख की सांस लेते हुए कहा-

"तो इस खुशी में क्यों न एक-एक प्याला काफी पी जाए."

"ज़रूर।" मुन्नू मुस्कुरा दिया। चंदू ने काफी बनाने वाले यंत्र के पास जाकर उसमें लगे मुखिया को दो बार घुमा दिया। पाँच मिनट बाद उसका ढक्कन खुल गया और काफी से भरी दो प्यालियाँ दिखाई देने लगी। चंदू ने उन्हें उठा लिया और सर्विंग चेयर के खाने में फंसा कर उसे ढकेलता हुआ मुन्नू की सीट के पास ले आया।

मुन्नू ने यान को चाँद की दिशा में सेट कर दिया और स्पीड कंट्रोलर से गति लिंक करके चंदू की ओर घूम कर बैठ गया। दोनों काफी पीने के साथ-साथ बातों में मशगूल हो गए. विपत्ति टल जाने से उनका भय और घबराहट दूर हो गई थी और चंदू स्वयं को बहुत हल्का अनुभव कर रहा था। उसे अब घर की याद आने लगी थी।

वह कहने लगा-

"मुन्नू! हमारे इस प्रकार चले आने से प्रकाश भाई साहब, डॉक्टर साहब और मम्मी, डैडी सब कितने परेशान हो रहे होंगे।"

"हाँ चंदू! मेरी माँ तो रो-रो कर पागल हो रही होगी लेकिन और दूसरा उपाय भी तो नहीं था।"

"यदि हम लोग सबसे बता कर आते तो?" चंदू ने पूछा।

"तब तो हमें घर से निकलने भी नहीं दिया जाता। लेकिन चंदू! जब हमारी यह यात्रा समाप्त होगी और हम नई जानकारियों के साथ भारत लौटेंगे तो मम्मी पापा इस विद्रोह का सारा दुख भूल कर हमें अपने सीने से लगा लेंगे। कितने खुश होंगे वे। चारों ओर हमारा यश फैलेगा। लोग हमें बधाइयाँ देंगे।"

"हाँ, यह तो ठीक कहते हो।" चंदू ने सहमति प्रकट की। "अच्छा, अब तुम कुछ देर आराम कर लो। तब तक मैं इस स्क्रीन के पास बैठता हूँ।" मुन्नू ने उसे आदेश देते हुए कहा।

"और तुम कब आराम करोगे?"

"मैं बाद में सोऊंगा। पहले तुम सो लो। हम यहाँ बारी-बारी से सोएंगे। लाल गोले से मुठभेड़ होने के बाद अब यान को स्वतंत्र छोड़ देना खतरनाक हो सकता है।"

"अच्छा, गुड बाय।"

"गुड बाय।" मुन्नू ने मुस्कुरा कर उत्तर दिया। चंदू गद्देदार लंबी सीट पर लेट कर सोने का प्रयत्न करने लगा।

मुन्नू स्थिर दृष्टि से पर्दे को देखता हुआ विचारों में खो गया। थोड़ी ही देर में चंदू को नींद ने आ घेरा। सुनहरे सपने उसकी पलकों के पीछे दौड़ने लगे।

उसने देखा-वह अपने गुदगुदे बिस्तर पर लेटा है और उसके सिरहाने गुलाब के फूलों का एक गुलदस्ता रखा है जिस की भीनी-भीनी खुशबू उसे सुख दे रही है। यान पूरी गति से उड़ा जा रहा था। चांद की सुनहरी धरती धीरे-धीरे उसके निकट आती जा रही थी। चंदू को लेटे-लेटे झपकी-सी आ गई तभी किसी के कोमल हाथों के स्पर्श ने उसे चौंका दिया। आंखें खोली तो एक अत्यंत सुंदर बालिका को अपने सिरहाने बैठकर अपने बालों पर हाथ फेरते पाया। उसने सुनहरे जगमगाते हुए आभूषण पहन रखे थे। उसके काले चमकीले बाल कंधों पर लहरा रहे थे। बड़ी-बड़ी आंखों से प्रेम और मित्रता की भावना छलक रही थी। गुलाबी होंठ, भरा-भरा गोरा मुख और सुराही दार गर्दन। चंदू के बालों में उंगलियाँ उलझाए हुए वह उसकी ओर देखकर मुस्कुरा रही थी।

"तुम कौन हो?" चंदू ने उठते हुए पूछा।

"मैं तुम्हारी मित्र हूँ।" उसने शहद में डूबे स्वर में उत्तर दिया।

"तुम यहाँ यान में कैसे आ गई?" चंदू ने आश्चर्य से पूछा।

"परी माँ ने मुझे तुम लोगों को लाने के लिए भेजा है। तुम्हारा क्या नाम है?" उसने पूछा।

"चंद्रेश। चंदू और तुम्हारा?"

"तितली" वह बोली और फिर उत्सुक होकर फूलों की ओर देखने लगी।

"बहुत सुंदर फूल है।"

"हाँ ... ये गुलाब के फूल है। गुलाब को फूलों का राजा कहा जाता है।" चंदू ने बताया।

"सच? क्या मैं एक फूल ले लूं।" तितली ने आश्चर्य में भरकर पूछा।

"ले लो।" तितली ने एक अधखिला गुलाब तोड़ कर अपने बालों में लगाते हुए कहा-

"तुम बहुत अच्छे हो। तुम्हारी धरती के सभी लोग क्या तुम्हारी ही तरह सुंदर होते हैं?"

"हाँ और कुछ तो मुझसे भी सुंदर। तुम कहाँ की रहने वाली हो?"

"चंद्रमा की।"

"चंद्रमा पर और कौन-कौन रहते हैं?" चंदू ने उत्सुकता से पूछा।

"मेरी जैसी बहुत-सी लड़कियाँ बच्चे और परी माँ।"

"और बच्चों के मां-बाप?"

"हम लोग चंद्रमा के बच्चे हैं। चंदू, परी माँ ही हमारी रानी है। वही हमारी माँ बाप सभी कुछ है। वह हमें बहुत प्यार करती है।"

"और क्या-क्या है वहाँ?"

"नील मणि के खेत, पुखराज की क्यारियाँ और चांदी की इमारतें। नीलम के पेड़ और बड़ी-बड़ी सड़कें भी हैं वहाँ और हाँ, हमारे खेलने के लिए वहाँ नीलम, पन्ना और वैदूर्य के पार्क भी बने हुए हैं। परी माँ का दरबार रत्नों से जड़ा सोने का बना है।"

"तुम लोग खाते क्या हो?"

"शहद और सेब। इतने उत्सुक मत हो। वहाँ पहुंच कर स्वयं ही देख लेना सब कुछ।" कह कर तितली खिलखिला कर हँस पड़ी।

"लेकिन तुम यहाँ तक आई कैसे?" चंदू ने फिर पूछा।

"अपनी चिड़िया पर बैठकर। तुम्हारा भाई तो यान चलाने में ही मस्त है।"

"तुम्हारी चिड़िया कहाँ गई?"

"वो उधर बैठी है।" तितली ने राडार के परदे की ओर संकेत करते हुए बताया।

चंदू ने देखा राडार यंत्र के पास फर्श पर एक बहुत सुंदर सफेद पंखों वाली चिड़िया बैठी थी। उसकी आंखों में नगीने जड़े थे और चोंच पुखराज की बनी हुई थी। चांदी के पंजों में हीरे के नाखून लगे थे। सफेद पंखों में रूपहले, चमकीले तार खिंचे थे। वह उसे मुग्ध होकर देखता ही रह गया। सोचने लगा, इस चिड़िया को अगर धरती पर ले जा पाता तो बस मजा आ जाता।

"क्या सोचने लगे?" तितली ने पूछा तो वह संभल कर बोला-

"कुछ भी नहीं।"

तभी तितली खुशी से चीख उठी-

"लो, हमारी धरती आ गई. उठो न।" चंदू खिड़की के पास जा खड़ा हुआ। उसका विमान चंद्रमा की धरती से कुछ ऊपर मंडरा रहा था। नीचे बहुत से बच्चे हाथों में रंग बिरंगे रत्नों के हार लिए उनका स्वागत करने के लिए खड़े थे। कुछ बच्चे खुशी से तालियाँ बजा रहे थे और नाच रहे थे। थोड़ी ही देर बाद यान चांद की धरती पर उतर गया।

यान के रुकते ही बच्चों ने उसे घेर लिया। तितली ने यान से उतरने वाली सीढ़ियाँ खोली और सहारा देकर चंदू को नीचे उतार दिया। उसके पीछे मुन्नू उतरा और तब तितली भी नीचे उतर आई. उसकी चिड़िया अपने चमकीले पंख हिलाकर उड़ती हुई यान से बाहर आ गई. बच्चों ने बढ़कर चंदू और मुन्नू को हार पहनाए. हर्षध्वनि करते हुए वे उन्हें एक ओर ले चले। कुछ दूरी पर एक सुंदर रथ खड़ा था जिसमें हरे रंग के घोड़े जुते हुए थे। तितली उन दोनों के साथ रथ में बैठ गई और बच्चों से बोली-

"तुम लोग दो घंटे बाद भवन में आना। तब तक अतिथि भोजन करके विश्राम करेंगे।"

बच्चों ने खुश होकर तालियाँ बजाई और चंदू और मुन्नू के हाथ चूम कर उन्हें विदाई दी। तितली के टिटकारी भरते ही घोड़े हवा से बातें करने लगे। कुछ ही देर में रथ एक लंबी चौड़ी सड़क पर आ गया। वहाँ सड़क के दोनों ओर नीलम के वृक्ष झूम रहे थे जिनमें कहीं-कहीं लाल और पीले रंग के फल लटक रहे थे। कुछ आगे जाने पर उन्हें चांदी की बनी विशाल इमारतें भी दिखाई दी जिन के दरवाजे और खिड़कियाँ नीलम के बने हुए थे। उन पर दूधिया रेशमी पर्दे लटक रहे थे।

रास्ते में उन्हें कुछ पुखराज की क्यारियाँ भी मिली जिनमें इंद्रधनुषी फूल खिले हुए थे। अंत में रथ एक सोने के बने विशाल भवन के सामने जाकर रुक गया। तितली ने उन्हें रथ से उतारा और उस भवन में प्रविष्ट हो गई. वह इमारत राजमहल के समान थी। द्वार पर चार बच्चे हाथों में विचित्र प्रकार के हथियार लिए पहरा दे रहे थे। प्रत्येक द्वार पर पहरे की व्यवस्था थी। वहाँ कार्य करने वाले कर्मचारी भी बच्चे ही थे।