भाग एक / नानबाई / मकसीम गोरिकी
हवा का बवण्डर रूखे-सूखे बर्फ के टुकड़ों, घास के पूलों और लकड़ी के छिलकों का एक भँवर सा बनाता हुआ आँगन में वेग के साथ घुस आया। और उस अंधड़ के बीच एक गोल-मटोल, थुलथुल आदमी, खड़ा नजर आया जिसके शरीर पर टखनों तक नीची धारीदार तातार कमीज थी और पैरों में रबर के ऊँचे जूते। उसने अपने हाथ अपनी मोटी-सी तोंद पर बाँध रखे थे और वह बड़ी तेजी से अपने दोनों हाथों के मोटे-मोटे अँगूठे उमेठ रहा था। उसने अपनी असमान मोटी-मोटी आँखों से जिनमें दाहिनी आँख भूरे रंग की थी और बायीं आँख फूली हुई थी, मुझे घूर कर देखा और गरजकर कहा :
‘चल भाग बे – कोई काम-वाम नहीं है यहाँ ! जाड़ों में भी कहीं काम मिलते सुना है ?’
उसके सफाचट, झुर्रियोंदार चेहरे पर ग्लानि के भाव उभर आये। उसकी पीली मूँछों के चन्द बाल ऊपरी होंठ पर सहसा झुके और निचला होंठ उसके चिड़चिड़े स्वभाव के कारण नीचे को दबा और उसके छोटे-छोटे दाँतों की पंक्ति नजर आयी। नवम्बर का महीना था। सर्द हवा के तेज झक्कड़ चल रहे थे जिन्होंने उसकी भारी भवों वाले माथे के महीन बालों को बिखेर दिया था। प्रचंड वायु के झोंकों से उसकी पोशाक उड़ रही थी और घुटनों तक उसकी मोटी-मोटी चिकनी गावदुम टाँगें खुल गयी थीं जिन पर भूरे रोयेंदार बाल उगे हुए थे। पर उसे कुछ भान ही न था बल्कि यही लगता था कि वह फूहड़ शख्स पतलून पहनना भी नहीं जानता है। उस व्यक्ति के अत्यन्त कुरूप चेहरे में भी एक अजीब आकर्षण था और उसकी भूरी आँखों की पलकों में एक अजीब से अपमान के भाव निहित थे। मुझे कोई जल्दी थी नहीं, चुनाँचे मैंने सोचा कि इससे कुछ गप्प ही लगाऊँ। मैंने पूछा :
‘तुम क्या यहाँ के दरबान हो ?’
‘चल-चल, रास्ता ले अपना। तुझे क्या मैं कुछ भी हूँ...’
‘अरे भाई मेरे, तुम पतलून-वतलून पहने नहीं हो, सरदी लग जायेगी न तुम्हें...?’
भवों की जगह जो लाल दाग थे ऊपर को तन गये, उसने अपनी बेमेल आँखें कुछ अजीब ढंग से तरेरीं और उस आदमी का शरीर कुछ इस प्रकार आगे को झुका कि ऐसा लगा कि अब गिरा, अब गिरा।
‘और कुछ कहना है ?’
‘भई, तुम्हें सर्दी लग जायेगी, तुम मर जाओगे !’
‘तो फिर ?’
‘फिर कुछ भी नहीं ।’
‘बस, तो बहुत हो गया!’ उसने अँगूठे की उमेठन थामी और गरजा। फिर उसने अपने हाथ खोल लिये, चाव से अपने कूल्हे थपथपाये और मेरी ओर झुककर मुझसे पूछा :
‘यह सब तुमने किसलिए कहा?’
‘अरे यों ही कह दिया। अच्छा, यह बताओ, इस बेकरी के मालिक वसीली सिम्योनफ़ से मैं मिल सकता हूँ क्या?’
उसने एक ठण्डी साँस भरी और सिर से पैर तक अपनी भूरी आँख से मुझे जाँचते हुए बोला :
‘मैं ही तो हूँ सिम्योनफ़ ...’
मेरी तो पैरों तले जमीन खिसक गयी, नौकरी की सारी आशाएँ धूल में मिल गयीं। सहसा जिस्म में बर्फ़ीली हवा की सर्द लहरें दौड़ गयीं। और मुझे अपने सामने खड़ा आदमी बड़ा ही घिनावना लगने लगा।
‘अब बोलो?’ उसने मुझे तिरछी नजरों से देखते हुए कहा : ‘दरबान कहा था न, ऐं ?’
अब चूँकि वह मेरे बिल्कुल नजदीक खड़ा था, इसलिए मैंने यह जाँच लिया कि वह नशे में धुत है। उसकी आँखों के ऊपर वाले लाल गूमड़ों पर बड़े महीन भूरे रोएँ उगे हुए थे और वह कुल मिलाकर एक भयानक बड़े चूजे जैसा दिखाई दे रहा था।
‘निकल जाओ यहाँ से!’ उसने मज़े लेते हुए कहा और उसके मुँह से निकली शराब की गंध के बादलों ने मुझे ढँक लिया। इसके साथ ही उसका ठूँठ जैसा बाजू हिला और उसकी बंधी हुई मुट्ठी मुझे ऐसी नजर आयी जैसे वो शेम्पेन की डाटदार बोतल हो। मैं मुड़ा और आहिस्ता-आहिस्ता फाटक की ओर चल दिया।
‘अरे सुनना! तीन रूबल महीने पर काम करेगा ?’
तो क्या मुझ जैसा 17 वर्षीय हृष्ट-पुष्ट, शिक्षित लड़का उस मोटू शराबी के यहाँ 10 कोपेक रोजाना पर काम करने लायक था? लेकिन जाड़ों का मौसम था – काम न करता तो ठिठुर के रह जाता मैं। फिर दूसरा चारा भी क्या था। चुनाँचे बड़े अनमने भाव से अपने ऊपर जब्र रखते हुए मैंने कहा :
‘हाँ, कर लूँगा।’
‘पहचान पत्र है तेरे पास ?’
मैंने झट अपना हाथ अपने लबादे की अन्दर की जेब में डाला, लेकिन उस नानबाई - मालिक ने अपना बाजू हिलाया और बुरा-सा मुँह बनाकर मना कर दिया।
‘रहने दो, रहने दो ! क्लर्क को देना । जाओ, अन्दर चले जाओ... वहाँ साशका को पूछ लेना...’
दुमंजिला इमारत का धुआँ भरी हुई दीवार पर एक जर्जर सायबान के नीचे दरवाजे में किवाड़ एक ही चूल पर टिके हुए थे। मैं दरवाजे में दाखिल हुआ और आटे के बोरों के एक पहाड़ के बीच से गुजरकर एक तंग व अँधियारे कोने में पहुँचा तो खट्टी, गर्म और भूख भड़काने वाली भाप मेरे नथुनों से टकराई। सहसा आँगन में आती हुई भयानक आवाज मेरे कानों में पड़ीं – ऐसा लगा कि लोग पैरों से धम-धम कर रहे हैं और घरर-घरर की आवाज निकाल रहे हैं। बरामदे की दीवार की एक दरार से अपना मुँह लगाये मैं भौचक्का खड़ा हुआ था कि क्या देखता हूँ कि हमारा वह नानबाई - मालिक अपनी कुहनियाँ कूल्हों पर जमाये आँगन में इस प्रकार कूद-फाँद कर रहा है जैसे कोई अदृश्य घोड़े सधाने वाला घोड़े को चाल सिखा रहा है। उसकी पेशियाँ और मोटे, गोल-मटोल घुटने खुले हुए थे। उसकी थुल-थुल तोंद और थल-थल गाल फड़क रहे थे, उसका मछली जैसा मुँह सिकुड़ गया था और वह जोर-जोर से खाँस-खाँसकर बेदम हुआ जा रहा था।
‘खा, खा...खा … खा…’
उस बेकरी का आँगन बेहद संकरा था और आँगन के चारों ओर बड़ी अस्त-व्यस्त और बेढंगी-सी टूटी-फूटी कुछ कोठरियाँ बनी हुई थीं, जिनके दरवाजों पर कुत्तों के सिरों जैसे बड़े-बड़े ताले लटके हुए थे। बारिश से भीगकर ऐंठे हुए पेड़ की दर्जनों ग्रंथियाँ अंधों की नाईं दीख पड़ रही थीं। आँगन के एक कोने में छत्तक शकर के खाली पीपे अटे हुए थे, जिनके गोल मुँह खुले हुए थे। ऐसा मालूम होता था कि आँगन को कूड़ाघर की तरह इस्तेमाल किया जाता है और हर प्रकार का काठ-कबाड़ वहाँ फेंक दिया जाता है।
और घास-फूस के भँवर में लकड़ी के छिलकों और छेपटी के नाचते हुए छल्लों के दरम्यान यह भारी-भरकम जिस्म वाला मोटा-ताजा और अजीब शख्स आँगन की पथरीली बर्फ पर अपने भारी जूतों की धम-धम करती आवाज के साथ कूद रहा था और खाँसता जा रहा था, मानों हवा के झोंको की सरसराहट से ताल मिला रहा हो।
‘खा, खा-खा।...’
कोने के पीछे से कुछ सुअर क्रोधित हो चीख-चिल्ला रहे थे मानों उसकी धमाचौकड़ी पर अपनी प्रतिक्रिया दर्शा रहे हों। वहाँ कोई घोड़ा साँस ले रहा था और धम-धम कर रहा था और दूसरी मंजिल पर किसी कमरे के रोशनदान की छोटी खिड़की में से कोई लड़की दुर्बल स्वर में गा रही थी।
‘काहे भये उदास प्रियतम’,
हवा पीपों में ठुँसी घास में घुसकर सरसरा रही थी। लकड़ी की एक खपची बड़ी तेजी से फड़फड़ा रही थी। कबूतर खलिहान की एक ओलती में एक-दूसरे से लिपट कर बैठे अपने जिस्म को गर्मा रहे थे और बड़ी दीनता से गुटर-गूँ कर रहे थे...।
यहाँ का वातावारण कुछ अजीब गड़बड़ सा था और उसके बीचों-बीच पसीने में सराबोर, हाँपता-काँपता यह ऊलजलूल शख्स नाच रहा था। ऐसी शक्ल-सूरत मैंने पहले कभी किसी की न देखी थी।
‘जान पड़ता है कि मैं किसी अच्छे-खासे झमेले में फँस गया हूँ!’ मुझे कुछ सन्देह हुआ और मैं सोच में पड़ गया।
तहखाने की खिड़कियों पर तार की जाली लगी हुई थी और वहाँ की मेहराबदार छत में भाप और तम्बाकू के धुएँ से मिले-जुले बादल छाये हुए थे। उस जगह का वातावरण बड़ा अँधकारमय था, खिड़कियों के शीशे टूट गये थे जिन पर अन्दर से सने हुए आटे के लौंदे लगे थे और बाहर से कीचड़ थपी हुई थी। कोनों में चीथड़ों के मकड़ी के जाल जैसे झण्डे पड़े थे, जिन पर खाने की जूठन लिथड़ी हुई थी। गन्दगी का यह आलम था कि धूल की तहों में एक काली मूर्ति इतनी अट गयी थी कि नजर आना मुश्किल हो गया था।
नीची मेहराब वाले एक बहुत बड़े तन्दूर में से सुनहरी लपटें निकल रही थीं। उसके सामने बदहवास खड़ा याश्का बंजारा चूल्हे के पत्थर पर लम्बे हत्थे वाला बेलचा रगड़ रहा था। यह बड़ा नानबाई था, जो उस कारखाने का दिल व दिमाग था – नाटा कद, माँगदार छोटी दाढ़ी और बला के चमकते हुए सफेद दाँत – यह था उसका रूप-रंग। वह एक ढीली-ढाली बिना कमरपट्टी की रंगीन अधबहियाँ बनियान पहने हुए था। उसके खुले हुए वक्ष पर महीन बालों के गुच्छों में हवा गुदगुदी कर रही थी। वह इस लिबास में किसी मदिरालय का नट दिखाई देता था। उसके पैरों पर चढ़े भारी फटे-पुराने जूते उसकी सुडौल टाँगों में ढले हुए लोहे की नाईं लग रहे थे, उन्हें देखकर दुख होता था। वह अपने काम में मगन था और चीख-चिल्ला रहा था और उसकी वे चीखें उस तहखाने के उदासीन वातावरण में गूँज रही थी।
‘सेको और उबालो!’ एक ही साँस में असंख्य गालियाँ देते हुए वह चिल्लाया और अपने घुँघराले बालों वाले सुन्दर माथे से पसीने की बूँदें पोछीं।
खिड़कियों के नीचे दीवार के सहारे लगी लम्बी मेज पर अठारह मजदूर बैठते, और ‘बी’ के आकार की आधी-आधी छटाँक की छोटी-छोटी नमकीन नानखताईयाँ बनाते हुए दायें-बायें हिलते-डुलते रहते थे। मेज के किनारे दो आदमी सफेद गुंधे हुए आटे की लम्बी पट्टियाँ काट रहे थे। फिर उनके हाथ उस आटे से एक बराबर पेड़े बनाते और उन्हें मेज के दूसरे सिरे पर बैठे मजदूरों के हाथों में पहुँचा देते। ये हाथ इतने फुर्तीले होते थे कि उनकी हरकत मुश्किल से दीख पड़ती थी। आटे को नानखताई की शक्ल में ढालने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को उसे हथेली से थपथपाना पड़ता और यह काम ऐसी ताल के साथ होता कि सारा भटियारखाना हल्की-हल्की पट-पट की आवाज से गूँजने लगता था। मेज के पहले सिरे पर मैं आटे से बनी हुई उन कच्ची नानखताइयों को ट्रे में रखता जाता और जब वह भर जाती तो लड़के उसे उठाकर बायलर के पास ले जाते और उन्हें उबलते हुए पानी की कढ़ाई में डाल देते, जहाँ से एकाध मिनट बाद वह उन्हें ताँबे के एक करछुल से बाहर निकालकर एक कलई की हुई बड़ी ताँबे की परात में डाल दिया जाता। फिर मैं आटे के चिकने-चिकने, गर्म पेड़ों को ट्रे में रख देता, एक नानबाई उन्हें चूल्हे पर सुखाता फिर निकालकर अपने पाँवड़े पर जमाता और बड़ी दक्षता के साथ उन्हें तन्दूर में रख देता, जहाँ सिंककर वे कुरकुरे और कत्थई रंग के हो जाते और बनकर तैयार हो जाते।
जब नानखताई मेरे पास आ जातीं, उस समय यदि मेरी ओर से जरा सी भी काहिली बरती जाती तो वे बिगड़ जातीं – आटे के पेड़े एक-दूसरे से चिपक जाते और सारा काम चौपट हो जाता। मेज पर बैठे हुए दूसरे लोग मुझे उलाहना देने लगते और आटे के लौंदे मेरे मुँह पर फेंकने लगते।
वे सब मुझसे घृणा करते और शक की नजरों से देखते थे, जैसे कि मैं कोई मक्कारी या दगाबाजी करने वाला हूँ।
मेज पर अठारह व्यक्ति तन्दूर में झूमते थे। तमाम आदमियों के चेहरे कुछ समान रूप-रंग लिये नजर आते थे जो बड़ा विचित्र-सा लगता था। सबके चेहरों पर थकावट और उदासीनता के भाव अंकित थे। मेरा एक साथी आटा गूँधता और आटा मिलाने की कला का लोहे का हत्था धमाके के साथ चलता। कोई तीन मन सख्त और लोचदार आटा गूँधना, जिसमें एक भी फटकी न हो, बड़ी मेहनत का काम होता है। फिर यह काम होना भी बड़ी फुर्ती से चाहिए– ज्यादा से ज्यादा आधे घंटे में।
तन्दूर में लकड़ियाँ चटखती रहतीं, कढ़ाव में पानी सनसनाता रहता और मेज पर हाथों के थपथपाने की आवाजें आती रहतीं। ये सब आवाजें मिलकर निरन्तर एक ही जैसी आने वाली और एक-सुरी गुनगुनाहट में बदल जातीं। और यह गुनगुनाहट तब भंग होती जब कोई गुस्से में किसी को गालियाँ देता। फर्श पर बैठे काम करते हुए लड़कों में से ग्यारह वर्षीय पाश्का अर्त्युख़ोफ़ की ताजा और बुलन्द आवाज सुनाई देती थी। यह चपटी नाक वाला तोतला छोटा-सा लड़का, जिसके चेहरे पर कभी भय और कभी आनन्द के भाव उभर आते, अपने तन्मय श्रोताओं को बड़ी ओजपूर्ण व अविश्वसनीय कहानियाँ सुनाता कि किस प्रकार एक पादरी की पत्नी ने ईर्ष्या में भरकर अपनी लड़की पर, जिसकी शादी होने वाली थी, मिट्टी का तेल छिड़ककर आग लगा दी। घोड़े चरानेवालों को किन संकटों का सामना करना पड़ता है और उन्हें किस प्रकार दण्ड दिया जाता है। भूत-प्रेतों, चुड़ैलों और मत्स्यांगनाओं के किस्से वगैरह। इन्हीं बातों और सुरीली आवाज के कारण लोगों ने उसका नाम ‘झुनझुना’ रख दिया था।
मुझे पहले ही मालूम हो चुका था कि इस भटियारखाने का मालिक नानबाई वसीली सिम्योनफ़ कुछ दिन पहले तक यानी कोई चार साल पहले, खुद उस भटियारखाने में नौकर था और अपने मालिक की बूढ़ी पत्नी के साथ रहता था। बुढ़िया को उसने यह पट्टी पढ़ाई की वह उसे कुछ खिलाकर मार डाले और जब उसकी मुराद पूरी हो गयी तो उसने सारा काम-काज अपने हाथ में ले लिया। और अब वह उस बुढ़िया को मारता है और उसे इतना आतंकित कर रखा है कि उसका जी चाहता है कि वह चूहा बन कर बिल में जा छिपे और उसकी शक्ल न देखे। यह किस्सा मुझे किसी आम घटना की तरह सीधे-सच्चे रूप में सुनाया गया। मुझे तो शुरू से आखिर तक उस खुशनसीब आदमी में कोई चीज ऐसी दिखी नहीं, जो मैं उससे ईर्ष्या करता। मेरे मन में बस एक ही सवाल उठता रहता था —
‘पतलून क्यों नहीं पहनता वह?’
उदास और भयावह चेहरे वाले कूजिन ने, जो काना था, मुझे बड़ी गम्भीरता से समझाया।
‘नशे में धुत फिरता रहता है – अभी परसों ही तो उसने अपनी पियक्कड़ी का लम्बा दौर खत्म किया है।’
‘दिमाग तो खराब नहीं है उसका?’
मेरे इस सवाल पर कई आँखें हास्यास्पद ढंग से मुझे घूरने लगीं। बंजारा बड़ी आशावादिता से बोला :
‘जरा ठहर जा बेटा, अभी पता चल जाता है कि उसका दिमाग खराब है या अच्छा।’
साठ वर्षीय कूजिन से लेकर याश्का तक, जो नानखताइयों को धागे में पिरोकर हार बनाता है और जिसे अक्टूबर से मार्च तक के लिए दो रूबल मिलते हैं, हर व्यक्ति अपने मालिक का जिक्र इस अंदाज में करता है जैसे उसे अपने मालिक पर गर्व हो और मानो कह रहा हो, अरे वसीली सिम्योनफ़ जैसा आदमी लाकर बताओ। वह बड़ा व्यभिचारी है, उसकी तीन रखैलें हैं जिनमें से दो को तो वह नाकों चने चबवाता है और तीसरी खुद उसे ठोकती है। वह लालची है, हमें ख़राब खाना खिलाता है। छुट्टियों में तो हमें गोभी का शोरबा और गोश्त मिलता है, और वैसे रोजाना चौपाया जानवरों की आँतों का सूप यानी ओजड़ी मिलती है। बुध और शुक्रवार के रोज चर्बी से बघारा हुआ दलिया दिया जाता है। और काम के वक्त सात बोरे आटे की नानखताइयाँ उसे रोज दिये जाओ, जबकि एक बोरे आटे में 22 मन 2 सेर वजन होता है और उसकी नानखताइयाँ बनाने में लगभग ढाई घण्टे लगते हैं।
‘बड़ी अजीब बात है, तुम अपने मालिक की इतनी बड़ाई करते हो।’ मैंने कहा।
अपनी पैनी दृष्टि से मुझे घूरते हुए एक नानबाई ने कहा :
‘इसमें अजीब बात क्या है?’
‘ऐसा लगता है तुम सबको उस पर बड़ा गर्व है...?’
‘हाँ, तो उसमें ऐसी खूबियाँ हैं तभी तो करते हैं गर्व। तुम्हारी समझ में यह बात आयी नहीं शायद। अब देखो ना, कल तक वह एक मामूली मजदूर था, कोई पूछता भी नहीं था उसे, और आज? पुलिस का सूबेदार भी झुककर सलाम करता है। पढ़ा-लिखा वह खाक नहीं है सिर्फ हिज्जे जानता है– फिर भी देख लो चालीस आदमियों का कारोबार चलाता है, और सारा हिसाब-किताब अपनी खोपड़ी में रखे हुए है।’
कूजिन ने ठण्डी साँस ली और आज्ञाकारी सेवक की नाईं समर्थन में कहा :
‘भगवान ने उसे बड़ी तेज बुद्धि दी है।’
और पाश्का ने उत्तेजित हो चीखकर कहा :
‘नानखताई का एक तन्दूर, डबलरोटी का तन्दूर, बिस्कुटों का एक तन्दूर, भला, कर तो लो इन सबका इन्तजाम बगैर हिसाब-किताब जाने। ढाई हजार मन नानखताइयाँ तो मरदोवियाई और तातारी देहातियों को सर्दियों में ही बेच लेता है। इनके अलावा शहर में सात फेरी वाले हैं जिनमें से हरेक को 36 सेर नानखताइयाँ और बिस्कुट रोजाना बेचने पड़ते हैं – अब बोलो, क्या बोलते हो?
नानबाइयों का यह जोश व खरोश मेरे लिए असह्य हो गया, मुझे झुंझलाहट होने लगी– मैं अपने अनुभव की बिना पर मालिकों के बारे में कुछ दूसरे ढंग से सोचने लगा था और मेरा वह विचार निराधार न था।
बूढ़े कूजिन ने अपनी एक आँख चोरों की तरह अपनी भूरी भँवों में छिपाई और व्यंग्य से कहा :
‘अरे भाई, वह कोई ऐसा-वैसा मामूली आदमी नहीं है।’
अगर बकौल तुम्हारे उसने बूढ़े मालिक को जहर दे दिया था, तब तो वास्तव में इसमें शक ही क्या हो सकता है...।’
नानबाई ने अपनी काली भवें चढ़ाईं और कुछ संदिग्ध भाव से बोला :
तो साब, उसका कोई गवाह-ववाह तो है नहीं। बाज वक्त ऐसा भी होता है कि घृणा या द्वेष के कारण हत्या करने या विष देने या चोरी करने का अपराध किसी के मत्थे मढ़ दिया जाता है – हमारी बिरादरी में जब किसी की तकदीर चेत जाती है और वह फलने-फूलने लगता है तो लोगों की आँखों में खटकने लगता है।...’
‘तुम्हारा भाई-बन्द कैसे हो गया, भई, वह?’
बंजारे ने कोई जवाब न दिया और कूजिन सामने वाले कोने पर नजर दौड़ा कर लड़कों पर गुर्राया :
‘अबे शैतानो! जरा उस मूर्ति की धूल तो झाड़ दो! तातारी, काफिरों।...’
बाकी सब ऐसे चुप थे जैसे हैं ही नहीं।
जब थालियों में नानखताईयाँ रखने की मेरी बारी आयी तो मेज के एक सिरे पर खड़े होकर मैं लड़कों को वह सब जो मैं जानता था और उनके लिए जरूरी समझता था, बताने लगा। भटियारखाने में जो शोर हो रहा था उसे दबाने के लिए मुझे जोर-जोर से बोलना पड़ता था और जब वे लोग मेरी बातें ध्यान से सुनने लगते तो जोश में आकर मैं और भी बुलन्द आवाज में बोलने लगता। इसी प्रकार का ‘सुधार कार्य’ करते हुए एक बार मालिक ने मुझे ऐन मौके पर पकड़ लिया, जिसके लिए मुझे सजा भी मिली और उपनाम भी।
हमारे भटियारखाने और डबलरोटी की बेकरी के दरम्यान जो मेहराबी दरवाजा है उसमें वह मेरे पीछे चुपचाप आकर खड़ा हो गया। बेकरी का फर्श हमारे भटियारखाने के फर्श से तीन सीढ़ियाँ ऊँचा था और हमारा मालिक मेहराब की चौखट में तोंद पर हाथ बाँधे खड़ा दोनों हाथों के अँगूठे एक-दूसरे के गिर्द घुमा रहा था। हमेशा की तरह वही अपना लम्बा कुर्ता पहने हुए, जो फीते से उसकी मोटी गर्दन में बँधा हुआ था, आटे का अचल बोरा मालूम हो रहा था।
इस ऊँची जगह पर खड़ा वह अपनी बेजोड़ आँखों से सबका मुआयना कर रहा था। उसकी भूरी आँख की पुतली बिल्कुल गोल थी,जो कभी बिल्ली की पुतलियों की तरह चमकने लगती, तो कभी सिकुड़ जाती। और दूसरी भूरे रंग की फूली हुई आँख मुर्दे की आँख की तरह पथराई हुई और चिकनी-चिकनी मालूम हो रही थीं।
मैं भी बोलता ही गया, यहाँ तक कि महसूस हुआ कि भटियारखाने में असाधारण निस्तब्धता छा गयी है। पर काम पहले से अधिक फुर्ती से होने लगा था। मेरी पीठ के पीछे से किसी की उपहासपूर्ण आवाज आयी :
‘क्या बकबक लगा रखी है बे, बड़बड़िये?’
मैंने जो पीछे मुड़कर देखा तो मैं घबरा गया और मेरी घिघ्घी बँध गयी। अपनी भूरी आँख से मुझे एड़ी से चोटी तक घूरते हुए वह मेरे पास से गुजरा और जाकर नानबाई पाशा से पूछा :
‘कैसा काम करता है यह?’
पाशा ने संतोष प्रकट करते हुए कहा :
‘बिल्कुल ठीक है! बड़ा बल-कस वाला है...।’
हमारा मालिक बड़े इत्मीनान से भटियारखाने में टहलता रहा और दरवाजे की सीढ़ियाें पर चढ़कर उसने नर्म और थके स्वर में बंजारे से कहा :
‘हफ्ते भर इसे आटा गूँधने पर लगाये रखो जरा...।’
यह कहकर वह दरवाजे में से अदृश्य हो गया और इसके साथ ही कुहरे का एक सफेद बादल भटियारखाने में घुस आया।
दुर्बल लंगड़े वानुक उलियानफ़ ने, जिसके चेहरे से ढिठाई टपकती थी, बड़े ही भोंडे हाव-भाव और बेढंगी बोली में कहा, ‘मैं तो सारी उमर भी न करूँ!’
किसी ने सीटी बजाकर उसका उपहास किया। नानबाई ने चारों ओर गुस्से से भरी नजर दौड़ाई और एक बड़ी-सी गाली देते हुए कहा :
‘चलो बे, काम करते नजर आओ!’
कोने में से जहाँ फर्श पर बैठे लड़के काम कर रहे थे तोतले याश्का की क्रोधित और झिड़की भरी आवाज आयी :
‘अरे, बड़े कमाल के लोग हो तुम।’ मजे में बैठे हो तुम मेज पर। जब तुमने मालिक को आते देखा था तो उस बेचारे को इशारा करते क्या तुम्हारी नानी मरती थी?’
‘हाँ और क्या! उसके भाई सोलह वर्षीय अरत्योम की आवाज आयी। वह ऐसा अहमक दिखाई दे रहा था जैसे लड़ाई के बाद कोई मुर्गा। एक हफ्ते लगातार आटा गूँधना हँसी-ठठ्ठा नहीं है – हालत पतली हो जायेगी बेचारे की।’
मेज के परले सिरे पर बूढ़ा कूजिन और भूतपूर्व सैनिक मीलफ़ बैठे थे। मीलफ़ बड़ा खुशमिजाज आदमी था, पर बेचारा आतशक का मरीज था। कूजिन ने अपनी निगाहें नीची कर लीं, पर कहा कुछ नहीं। बूढ़ा सैनिक, अपराधी की नाईं भुनभुनाया :
‘और मुझे तो इसका ध्यान ही नहीं आया...।’
नानबाई ने दाँत निकालकर हँसते हुए कहा :
‘अब तेरा नाम ’बड़बड़िया’ हो गया।’
दो-तीन आदमियों ने अनमने भाव से कहकहा लगाया और उसके बाद वहाँ एक भद्दा, तकलीफ़देह सन्नाटा छा गया। सब लोग मुझसे नजरें चुराने लगे।
शून्य की गहराई में तो सबसे पहले याश्का ही पहुँचता है, सहसा ओसिप शतूनफ़ की दबंग आवाज आयी। वह एक भद्दे, चपटे चेहरे और तिरछी छोटी-छोटी आँखों वाला एक बेडौल-सा आदमी था। ‘यह याश्का दुनिया में ज्यादा नहीं जियेगा।’
तुम जाओ जहन्नुम में। लड़के की बारीक और तेज आवाज गूँजी।
‘इसकी तो जबान काट ली जानी चाहिए’, कूजिन ने सलाह दी। अरत्योम ने झल्लाकर जवाब दिया : ‘अरे तेरी ही जीभ न कट जाये जड़ समेत। नीच कहीं के।’
‘चुप हो जाओ बे!’ तंदूर के पास से एक रोबदार आवाज आयी। अरत्योम उठा और मरियल चाल से बरामदे के दरवाजे की ओर जाने लगा। पीछे से उसके छोटे भाई की डाँट सुनाई दी :
‘नंगे पैर कहाँ चले? जूते पहन कर जाओ – कहीं सर्दी लग गयी तो लेने के देने पड़ जायेंगे।’
जाहिर है कि हर शख्स इस प्रकार के उलाहनों का आदी था – और सब खामोशी से उन्हें टाल दिया करते थे। अरत्योम ने स्नेहपूर्ण और मुस्कान भरी नजर से अपने भाई की ओर देखा और उसे आँख मारकर अपने फटे-पुराने बूट पहन लिये।
मुझे बड़ा रंज हुआ। उन लोगों के बीच अपनी तनहाई और अजनबियत के अहसास से मेरा दिल डूबने लगा।भटियारखाने के बाहर बर्फानी तूफान गंदी खिड़कियों को पीट रहा था – बाहर बड़ी सर्दी थी। इस किस्म के लोगों को मैंने देखा था और उनके स्वभाव को भी मैं कुछ-कुछ समझने लगा।
मैं जानता था कि उनमें से लगभग प्रत्येक की आत्मा दुख और लगातार संकट की स्थिति से गुजर रही थी – वह आत्मा जो गाँव के निस्तब्ध वातावरण में पैदा हुई और परवान चढ़ी थी, और जिनके कोमल व लचकदार जौहर को सैकड़ों हथौड़ियों से पीट-पीटकर शहर अपनी तर्ज में ढाल रहा था – कुछ को फैला रहा था और बाकियों को सिकोड़ रहा था।
शहर की संगदिल और निर्मम कारस्तानी विशेष रूप से उस समय अधिक साफ़-साफ़ नज़र आने लगती थी, जब ये सादगी पसंद लोग देहाती गीत गाने लगते थे और उन गीतों व संगीत में अपने मन के दर्द को मूक वेदना में समो देते थे।
दुख की मारी गरीब एक गोरी
अचानक उलियानफ़ ने ऊँची और लगभग औरतों की-सी आवाज में गाना शुरू किया। फिर कोई और अनायास ही उसके गाने में शामिल हो गया :
रात को खेत में चली आयी...
चूँकि ‘खेत’वाली यह पंक्ति कुछ मंद सुर में गायी गयी थी, इसलिए दो-तीन लोग और गाने में शामिल हो गये। अपने सिरों को और भी नीचे झुकाकर, अपने चेहरे छिपाते हुए वे अपने स्मृति-सागर में डूबने-उतराने लगे :
खेत में छिटकी हुई थी चाँदनी
और हवाएँ गा रही थीं रागिनी...
अभी गीत की अंतिम पंक्ति नहीं गाई गयी थी कि वानुक ने सिसकी भरे स्वर में उन्हें शुरू से दुहराना शुरू कर दिया :
दुख की मारी गरीब एक गोरी
गीत और भी अधिक बुलंद हो गया :
सर्द झोंकों से कहा गोरी ने यह
ऐ सहेली, ऐ मेरी प्यारी हवा
मेरे दिल की धड़कनों को रोक दे
मुझसे मेरी आत्मा को छीन ले
और जब वे यह गीत गा रहे होते तो ऐसा लगता कि खेतों से चलकर शीतल व मंद हवा का झोंका भटियारखाने में घुस आया है। और सुखद विचार मस्तिष्क पर छाए जाते हैं – वे विचार जो मनुष्य को उन्नत व उसके हृदय को दयालु बनाते हैं। फिर सहसा जैसे कोमल शब्दों की उदासी पर लज्जित होकर बुदबुदाता :
‘आहा, वह तो बेचारी थक गयी...’
उलियानफ़ और भी ऊँचे और उदास सुर में गाने लगा। उसकी गर्दन की नसें उभर आयीं और चेहरा सुर्ख अंगारा हो गया :
दुख की मारी गरीब एक गोरी
आत्मा को झकझोरने वाली आवाजें उठतीं और गीत उदासी के अथाह सागर में डूब जाता :
उसने रोकर सर्द झोंकों से कहा
ऐ सहेली, ऐ मेरी प्यारी हवा
तू मेरा मायूस दिल ले जा वहाँ
दूर जंगल में अँधेरा हो जहाँ
‘और मैं शर्त लगाता हूँ कि वह –’ गाने के दौरान ही नवसी ने एक अश्लील और गंदा व्यंग्य कस दिया — अँधियारे तहखाने और गंदे आँगन की दुर्गन्ध खेतों की सुगंधित वायु को दूषित कर देती है।’
‘अरे लानत है इस सब पर !’ किसी ने ठण्डी साँस भर कहा।
वानुक और ख़ूबसूरत आवाज़ों वाले अन्य गायक जोर की तानें लगाते, मानो वे विषाक्त नीली लपटों और दुर्गन्धमय शब्दों को ठण्डा करना चाहते हों, किन्तु अन्य लोग प्रेम की दुखद गाथा पर और अधिक लज्जित होने लगते – वे जानते थे कि शहर में प्रेम दस कोपेक में खरीदा जा सकता; वे उसे भी खरीदते हैं और उसके साथ ही शारीरिक रोग और भयानक कलंक भी – और उसके सम्बन्ध में उनका नज़रिया पक्का हो चुका था।
दुख की मारी गरीब एक गोरी
प्रेम करता नहीं है मुझसे कोई...
‘अरे इतनी शालीन न बनो – नहीं तो एक-दो नहीं, दस पड़ जायेंगे पीछे...’
‘उन्हें, उन चंचल छोकरियों को तो, बस, यही आता है कि विवाह कर लें और हम पुरुषों की गर्दनों पर सवार हो जायें।...’
‘यह भी बिल्कुल सच है।...’
उलियानफ़ आँखें मींचकर खूब गाता और उस समय उसके दुराचारी, वृद्ध चेहरे पर बड़ी सुन्दर झुर्रियाँ पड़ जातीं और वह एक शर्मीली मुस्कान ले दमकने लगता।
लेकिन अक्सर बेसुरे लोग गीत को इस प्रकार बिगाड़ देते हैं जिस प्रकार स्वच्छ वस्त्रों को कीचड़ के छींटें। और वानुक को अपने तई यह मानना पड़ता है कि उसकी वह दर्दभरी आवाज अब खत्म हो चुकी है। अब वह अपनी चुंधी आँखें खोलता और उसका मुर्झाया हुआ चेहरा धृष्टतापूर्ण मुस्कान से विकृत हो जाता और उसके पतले होंठों पर कुछ अपशब्द रेंगने रगते। एक श्रेष्ठ गायक की हैसियत से वह अपनी कीर्ति कायम रखने का इच्छुक था। और उस जैसे आलसी और अपने साथियों में अप्रिय व्यक्ति का वह यश ही तो था, जिसके कारण वह भटियारखाने में अब तक टिका हुआ था।
अपने पतले और लाल बालों वाले सिर को झटका देकर वह बड़ी बारीक आवाज में चीखता :
क्या मजा आया हमें प्रलोम्नी बाजार में
एक विद्यार्थी नशे में धुत था लेटा वहाँ...
दुर्भावना भरे आनन्द में मग्न यह अशिष्ट गीत गाते हुए सबके सब झूमने, हू-हू करने और सीटियाँ बजाने लगते और सारा भटियारखाना एक आवाज में चीख उठता :
लेटकर वह छल-कपट से मुस्कराता था वहाँ...
ऐसा प्रतीत होता मानो असुरों का एक समूह किसी सुन्दर वाटिका में घुसकर फूलों को रौंद रहा हो। उलियानफ़ घिनौना और नीच था। उत्तेजना से वह उन्मत्त हो गया, उसके उर में ज्वाला भड़क उठी, उसके चेहरे पर चकत्ते पड़ गये थे उसकी आँखों की पुतलियाँ उबली पड़ रही थीं, अपने शरीर को बड़े निर्लज्ज और अश्लील ढंग से बल देकर वह शर्मनाक हरकतें कर रहा था और उसकी कर्कश आवाज अचानक और भी सख्त हो जाती थीं और विषय-वासनाएँ हृदय को भरमाने लगती थीं।
आओ सुन्दरियो, आओ-आओ नारियो।
वह हाथों को लहराकर गाता और बाकी सब भी उस उत्तेजक कोलाहल में शामिल हो जाते।
जल्दी आओ... हैया हो।
आओ आओ...।
आओ आओ...।
गाढ़ी, चिकनी, चिपचिपी कीचड़ उबल रही थी और उसमें कराहती हुई सिसकियाँ, भरती हुई मानवीय आत्माओं को पकाया जा रहा था। वह पागलपन असह्य हो गया था, उसका दृश्य मात्र ही ऐसी उन्मत्तता उत्पन्न करता था कि जी चाहता दीवार से सिर फोड़ लें। लेकिन इसके बजाय होता यह कि आप अपनी आँखें बन्द कर लेते और खुद ही वह अश्लील गीत गाने लगते – शायद दूसरों से भी ज्यादा जोर से। अपने साथियों पर आपको तरस आने लगता और यह विनाशकारी भावना आपको परास्त कर देती। इसके अतिरिक्त किसी को अपनी श्रेष्ठता अनुभव करने का अवसर बार-बार तो हाथ आता नहीं है।
कभी-कभी हमारा मालिक दबे पाँव आ धमकता या लाल घुँघराले बालों वाला क्लर्क साश्का दौड़ा-दौड़ा आ जाता।
‘मजे मार रहे हो ना, पट्ठो?’ मालिक सिम्योनफ़ विषैली किन्तु मीठी आवाज में पूछता पर साश्का तो यों ही चीख पड़ता :
‘अबे इतना हो-हल्ला नहीं, हरामियो।’
और भड़कते हुए शोले फौरन ठण्डे पड़ जाते। ये लोग जिस खुशी और उत्साह से यह नादिरशाही हुक्म मान लेते थे उससे तो आत्मा पर और भी अधिक गहरा और बोझिल अन्धकार छा जाता था।
एक दिन मैंने पूछा :
‘भाइयो! तुम लोग अच्छे-अच्छे गीतों की मिट्टी पलीद क्यों करते हो?’
उलियानफ़ ने चकित दृष्टि से मेरी ओर देखा।
‘क्यों, क्या हम लोग खराब गाते हैं?’
और ओसिप शतूनफ़ ने अपनी भारी आवाज में, जो बहुधा उत्साहहीन-सी लगती थी, कहा –
‘गीत को तो हम चाहें तो भी नहीं बिगाड़ सकते। वह तो आत्मा की भाँति होता है जो अमर होती है। हम सबका यह शरीर समाप्त हो जायेगा परन्तु गीत हमेशा जिन्दा रहेगा... वह हमेशा अजर-अमर रहेगा।’
जब ओसिप बोलता था तो मठ के लिए चन्दा एकत्र करने वाली भिक्षुणी की नाईं नजरें नीची कर लेता था। और जब वह खामोश होता था तो उसके चौड़े-चपटे मुँह पर गालों की खाल निरन्तर हिलती रहती थी मानो यह भीमकाय व्यक्ति कोई चीज हमेशा चबाता ही रहता हो।