भाग चार / नानबाई / मकसीम गोरिकी
कभी-कभी किसी दिन शाम को काम के बाद या किसी छुट्टी के दिन नहाने-धोने से निपटकर बंजारा और आर्तेम मेरे पास आ धमकते और उनके पीछे ही पीछे ओसिप शातुनोव भी आ घुसता। हम एक अँधियारे कोने में तंदूर के मुँह के इर्द-गिर्द बैठ जाया करते। मैंने यह कोना झाड़-पोंछकर और धो-धुलाकर साफ व आरामदेह कर लिया था। दाहिनी बाजू और पीठ के पीछे बड़े-बडे ताक थे। उनमें डबलरोटियों के साँचे रखे थे, जिनमें खमीरी आटा फूलकर उभरा हुआ था। उन्हें देखकर यह गुमान होता था कि जैसे गंजे सिर छिपे हुए हों और दीवारों से झाँककर हमें देख रहे हों। टीन की एक बड़ी चायदानी में से गहरे रंग की चाय निकाल-निकालकर हम लोग पीने लगते। याश्का सलाह देता :
‘अच्छा तो अब हमें कुछ सुनाओ, या ऐसा करो दो-चार कविताएँ ही सुना दो!’
‘स्टोव के ऊपर रखे हुए मेरे सन्दूक में मेरे पास अलिकसान्दर पूश्किन, निकअलाय षेरबिना और इवान सूरिकफ़ की कविताओं के संग्रह थे– भद्दे और छोटे-छोटे खण्ड जो मैंने पुरानी किताबें बेचने वालों की दुकान से खरीदे थे। मैं बड़े जोशीले ढंग से गुनगुनाकर पढ़ने लगता :
किस कदर ऊँचे हैं ऐ इन्सान तेरे सारे काम
तूने दुनिया को दिया है एक जैसा ही निजाम
कितने दिलकश, वैसे हैरतखंज, कितने शानदार
पड़ रही हैं खुद खुदा के नूर की जैसे फुहार
तू ही देता है हमें सच्ची मुहब्बत बेहिसाब
और सबको अपने-अपने काम का सच्चा जवाब
याश्का ने आहिस्ता-आहिस्ता आँखें झपकाते हुए इधर-उधर से किताब को झाँककर देखा और आश्चर्यचकित होकर बड़बड़ाया :
‘वाह, क्या खूब! बिल्कुल बाइबिल की तरह! अरे, गिरजे में यही गीत गाया जा सकता है तो भगवान मेरी सहायता कर...।’
कविता लगभग सर्वदा ही उसके भावों में उत्तेजना-सी उत्पन्न कर देती थी और उस पर एक पश्चाताप की स्थिति छा जाया करती थी। कभी-कभी जो पद उसे बहुत अधिक प्रभावित करते उन्हें वह हाथ हिला-हिलाकर अपने घुँघराले बालों को मुट्ठी में भींचकर और बड़ी निर्भीकता से गालियाँ देकर, जमा-जमाकर दोहराता :
‘वाह, वाह क्या खूब कहा है!’
जब लिखी है मेरी किस्मत पर सदा यह मुफलिसी
सारी उम्मीदें भुला दे अब तो अच्छा है यही
‘अरे वाह! क्या कहा है! भगवान की कसम कभी-कभी तो भाई अपनी जिन्दगी पर ऐसा ही दुख होता है। बरबाद हो जाती है, व्यर्थ नष्ट हो जाती है। ऐसी कसक होती कि दिल को मसोस कर रख देती है– ऐसी कि नरक से भी बदतर। कोई करे तो क्या करे? डाकू बन जाये? एक छोटे से पत्थर से तो चिड़िया भी नहीं मारी जा सकती और तुम हो कि हमसे कहते रहते हो– लड़को, मिल-जुलकर रहा करो ! दोस्तों की तरह रहो ! हे भगवान !’
आर्तेम कविता सुनते समय ऐसी आवाजें निकालता जैसे कोई चीज निगल रहा हो। होंठों पर इस तरह जीभ फेरता मानो कोई गरम-गरम स्वादिष्ट चीज खा रहा हो।
प्राकृतिक दृश्यों के वर्णन पर वह सर्वदा चकित होकर रहा जाता था।
सिरों पर सुनहरे दरख्त जगमगाये
दरख्त झील पर हैं खड़े सर झुकाये
‘ठहरो! उसने विस्मित होकर और खुशी में उछलकर कहा। और जब उसने मेरा कंधा पकड़कर मुट्ठी में भींचा तो उसका चेहरा मारे खुशी के दमक रहा था, मैंने भी देखा है! आर्स्क के समीप! वहाँ के एक सामन्त के इलाके में! हे भगवान मेरी मदद कर!’
‘अच्छा तो इससे क्या हुआ?’ याश्का ने झल्लाकर पूछा।
‘लेकिन तुम समझते क्यों नहीं? मैंने यह हाथ देखा है और इसी पर यह पद भी लिखा हुआ है।’
‘बीच में मत बोलो! बेकार बकवास लगा रखी है।’
एक बार आर्तेम सुरिकोव की कविता ‘गाँव में’ से बड़ा प्रभावित हुआ। और कोई तीन-चार दिन तक वह उस कविता को एक पुराने सैनिक गीत की लय पर गाता फिरा यहाँ तक कि लोग सुनते-सुनते उकता गये :
जैसे-तैसे यों ही जारी है सफर
जा रहा हूँ मैं खुदा जाने किधर
है किसे परवाह कुछ ही क्यों नहीं
घूमता फिरता रहूँ चाहे जिधर
जानता हूँ इस सफर का खात्मा
मुझको पहुँचा देगा आखिर अपने घर
शतुनोफ़ पदों व कविताओं से जरा भी प्रभावित न होता था और वह कविताएँ बिल्कुल उदासीनता से सुनता रहता था। पर कभी-कभी वह एक शब्द को ही पकड़कर बैठ जाता और उसके अर्थ को समझे बिना पीछा न छोड़ता था।
‘एक मिनट! एक मिनट ठहरो! वह क्या है– कब्र?’
शब्दों के पीछे उसकी इस भाग-दौड़ से मैं बड़ा अचम्भित था और मुझे इसका पता लगाने की उत्सुकता हुई कि आखिर वह मालूम क्या करना चाहता है।
एक बार सवालों व आग्रहों की बौछार समाप्त होने के बाद ओसिप ने कुछ बड़प्पन-भरी मुस्कान के साथ यह रहस्य भी खोल ही दिया।
‘क्यों, तुम भी कारण जानने के लिए उत्सुक हो?’
फिर रहस्यमय ढंग से चारों ओर देखते हुए उसने आहिस्ता-आहिस्ता खुसर-पुसर के स्वर में कहा।
‘दरअसल एक ऐसा रहस्यमय पद है कि जिस किसी को भी मालूम हो जाये वह जो चाहे सो कर सकता है! लेकिन कहते हैं कि अब तक पूरा पद किसी को मालूम नहीं। इस पद के सारे शब्द विभिन्न लोगों में बाँट दिये गये हैं और ये लोग सारी दुनिया में फैले हुए हैं। और उस समय तक फैले रहेंगे जब तक कि नियत घड़ी न आ पहुँचे। अच्छा– तो भाई इन तमाम शब्दों को एकत्र करना है और जोड़कर पूरा पद बनाना है।’
उसकी आवाज और भी धीमी हो गयी और वह बिल्कुल ही मेरे ऊपर झुक गया।
‘अरे इस पद को हर तरफ से पढ़ा जा सकता है, चाहे आदि से पढ़ो चाहे अन्त से अर्थ एक ही निकलता है। मेरे पास कुछ शब्द तो एकत्र हो चुके हैं। अस्पताल में एक खानाबदोश ने मरने से पहले मुझे बताये थे। समझे भाई, तो ये खानाबदोश दुनिया भर में मारे-मारे फिरते हैं और जहाँ कहीं भी इन्हें ये गुप्त शब्द मिलते हैं, वे याद कर लेते हैं। जब वे सब शब्द याद कर लेंगे तो फिर सभी को इसकी खबर हो जायेगी...।’
‘वह कैसे?’
उसने अविश्वास से मुझे सिर से पाँव तक गौर से देखा और कुछ नाराजगी के स्वर में कहा :
‘कैसे, कैसे! तुम खुद भी तो जानते हो...।’
‘भई धर्म-ईमान से कहता हूँ मुझे कुछ भी तो नहीं मालूम...।’
‘अच्छा, अच्छा।’ वह जाने के लिए मुड़ते हुए गुर्राया, ‘बस बनो नहीं ...!’
और एक रोज सुबह आर्तेम दौड़ा-दौड़ा मेरे पास आया। वह बड़ा ही खुश था, उसकी साँस फूली हुई थी। हाँफते हुए बोला :
‘बड़बड़िये मैंने भी अपने आप एक पद रचा है, सचमुच रचा है!’
‘अच्छा?’
‘मैं झूठ बोलू तो जो चोर की सजा हो मेरी। शायद मैंने सपने में देखा हो क्योंकि मैं सोकर उठा और लो पद तैयार। मेरे दिमाग में किसी पवित्र चक्कर की तरह लगा रहा है चक्कर। लो सुनो...।’
खूब तनकर खड़े होकर उसने बड़े जोरदार अन्दाज में लेकिन आहिस्ता-आहिस्ता गुनगुनाते हुए पढ़ना शुरू किया :
हो रहा है गर्क दरिया में रंगी आफताब
जंगलों में डूबने वाला है अब उसका शबाब
और गड़रिया अपने गल्ले को सँभाले चल पड़ा
और... वह... गाँव
‘क्यों यह कविता कैसी रही?’
उसने बेचारगी से छत की ओर देखा, उसका चेहरा पीला हो गया था। होंठ चबा-चबाकर वह खामोश और मायूसी के साथ आँखें झपकाने लगा। फिर उसके दुबले-पतले कंधे आगे को झुक गये। और उसने घबराहट से तंग आकर हाथ हिलाते हुए कहा:
‘भूल गया, मारो गोली। बिल्कुल ही याद नहीं रहा।’
और बेचारे की आँखों से टप-टप आँसू गिरने लगे– उसकी बड़ी-बड़ी आँखों से आँसुओं की सरिता-सी बहने लगी। उसका भयभीत मुर्झाया हुआ चेहरा भौचक्का-सा हो गया था। और उसने सीने के ऊपर से दिल को सहलाते हुए अपराधी की नाईं कहा :
‘देखो तो... च च... कितना अच्छा पद था। दिल को लगता था... हाय... तुम समझते हो मैं मजाक कर रहा हूँ?’
सिर झुकाये वह एक कोने की ओर चल दिया और वहीं कंधे व कमर झुकाये खड़ा रहा। फिर चुपचाप अपना काम करने चला गया। सारा दिन वह खोया-खोया और उदास रहा। और शाम को शराब इतनी पी, इतनी पी कि बदमस्त हो गया और बात-बात पर लड़ने-मरने को तैयार हो गया। चीखकर बोला :
‘कहाँ है याश्का,? क्या हो गया मेरे छोटे भाई? अरे भगवान तुम्हें समझे...’
कारीगर उसे खूब पीटना चाहते थे लेकिन बंजारे ने उसका पक्ष लिया और हमने बदमस्त आर्तेम को बोरियों में लपेटकर सुला दिया।
सपने में जो पद उसे मस्तिष्क में आये थे वे फिर कभी याद न आये।
बेकरी और हमारे मालिक के कमरे के दरम्यान लकड़ी के पतले-पतले तख्तों की एक दीवार थी जिस पर कागज चढ़ा हुआ था और अक्सर जब मैं जोर-जोर से पढ़ना शुरू कर देता तो मालिक तख्तों की दीवार पर जोर से मुक्का रसीद करके मुझे चौंका देता और झींगरों को भी। मेरे साथी चुपचाप सोने चले जाते। उछलते-कूदते झींगर फटे हुए कागज में सरसराते रहते और मैं अकेला रह जाता।
लेकिन कभी-कभी ऐसा भी होता कि मालिक अचानक और दबे पाँव, खामोशी के साथ बादल के एक टुकड़े की तरह तैरता हुआ दरवाजे में दाखिल होता और बिना आशा के हमारे झुरमुट में आ खड़ा होता और दाँत कटकटाकर कहता।
‘आधी-आधी रात तक बैठे रहो कमबख्तों! और सुबह न जाने कब तक खर्राटे लेते रहना।’
यह याश्का और दूसरे लोगों के लिए था। मुझपर वह यों गुर्राता :
‘अरे गवैये, ये रात की गोष्ठियाँ फिर शुरू कर दीं तुमने? देख लो तुम्हारी किताबें सुन-सुनकर उनके दिमाग खराब न हो जायें और जब धींगामश्ती पर उतर आयें तो कहीं तुम्हें ही सबसे पहले अपना निशाना न बनायें।’
यह सब वह एक उदासीन ढंग से कहता – महज दिखावे के लिए महफिल तितर-बितर करने के लिए नहीं। वह खुद भी हमारे पास फर्श पर बैठ जाता और बेतकल्लुफी से कहता :
‘हाँ तो पढ़ो, मैं भी जरा सुनूँ। शायद मुझे भी कुछ अक्ल आ जाये।...’
‘सुनो याश्का, जरा मेरे लिए चाय तो बनाओ।’
बंजारा मजाक में कहता :
‘वासिली सेम्योनिच! हम चाय से आपकी खातिर करें और आप हमारी वोदका से।’
मालिक खामोशी से एक खाली– खुली नजर उस पर डाल कर रह जाता।
और कभी ऐसा होता कि वह थकी हुई गमगीन आवाज में यह कहता हुआ हमारे साथ शामिल हो जाता।
‘अरे लड़कों... नींद नहीं आती... चूहे खड़बड़-खड़बड़ कर रहें हैं, कमबख्त! बाहर बर्फ चुरमुरा रही है। लानत हो इन विद्यार्थियों पर मटरगश्त करते फिर रहें हैं। दूकान के अन्दर-बाहर लड़कियाँ ही लड़कियाँ हैं। अन्दर आती हैं आग सेंकने, वेश्याएँ कहीं की! तीन कोपेक की एक खरीदी और आध घंटे तक आग तापने को अन्दर ही टहलती फिरी।’
बस फिर क्या था, हमारे मालिक की फिलासफी शुरू हो जाती :
‘सब ऐसे ही होते हैं, दो कुछ नहीं और लो सब कुछ। तुम भी– तुम लोग भी बस इस फिक्र में रहते हो कि कोई आसान सा काम मिल जाये। बस यही तुम्हें आता है। जितनी जल्दी हो सके काम छोड़-छाड़ के चल दो। और खाक छानते फिरो गली-कूचों की!’
याश्का चूँकि कारखाने का सरदार था इसलिए यह बात उसे काँटे की तरह चुभती थी और वह तड़प उठता फिर ख्वामखाह की बहस छिड़ जाती :
‘तुम अब भी सन्तुष्ट नहीं हो, वासिली सेम्योनिच! अब भी हम जिन्नात की तरह काम करते हैं, समझे! हाँ यह सम्भव है कि जब तुम स्वयं काम करते थे तब वैसा ही...’
हमारा आका भूली-बिसरी बातों का स्मरण पसन्द नहीं करता था। थोड़ी देर तक तो वह नानबाई की बातें खामोशी से सुनता रहा; उसके होंठ भिंच गये और मंजरी आँख कठोरता से उसे घूरती रही, फिर उसका मेढक-जैसा मुँह खुला और अनुनासिक ध्वनि में उसका भाषण उमड़ पड़ा।
‘बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध ले! पहले की पहले से रही, अब तो मैं तुम्हारा आका हूँ और जो मुझे रूचे, कर सकता हूँ– कानून है कि तुम्हें मेरी आज्ञा का पालन करना पड़ेगा समझे? हाँ बड़बड़िये पढ़े जाओ।’
एक दिन मैंने ‘डाकू बन्धु’ शीर्षक कविता पढ़ी। सबने यह कविता पसन्द की और उससे रस लिया। यहाँ तक कि हमारे मालिक ने भी विचार- मग्न हो कर सिर हिलाते हुए कहा :
‘ऐसा हुआ होगा... क्यों नहीं? हो सकता था ऐसा। इंसान सब कुछ हो सकता है – सब कुछ!’
बंजारे ने नाक-भौं सिकोड़ी और सिगरेट अपनी उँगलियों में दबाकर उस पर जोर से फूँक मारी और आर्तेम एक हल्की-सी मुस्कराहट के साथ कविता को कण्ठाग्र करने के लिए सचेष्ट था।
भाई मेरा और मैं! हम थे फकत दो ही जने
और न था बचपन खुशी से पुर अपने लिए
शातुनोव तंदूर के अन्दर के गड्ढे को घूर रहा था, और वहीं घूरते हुए बोला :
‘मुझे इससे अच्छी कविता आती है।...’
‘अच्छा तो फिर सुनें हम भी!’ हमारे मालिक ने राय दी और बेडौल जिस्म के लम्बे हाथ पर ठोड़ी जमाकर व्यंग्यपूर्ण ढंग से ध्यानमग्न होकर कहा। ओसिप इतना घबरा गया कि उसकी गर्दन तक लाल हो गयी और उसके कान फुरेरियाँ लेने लगे।
‘मुझे याद नहीं आ रही अब...’
‘अरे चलो, शुरू तो करो!’ बंजारे ने डाँट बताई, ‘कोई तुम्हारी जबान नहीं पकड़े ले रहा।’
आर्तेम ने ओसिप को चिढ़ाया :
‘बेहतर है ना? तो आओ फिर सुना डालो ना। बोझ हल्का कर लो।...”
शातुनोव ने लाचारी और अपराधी की-सी निगाहों से मेरी ओर देखा, फिर मालिक की ओर, और एक गहरी साँस ली।
‘अच्छा तो सुनो।’
अब भी तंदूर की खोह में घूरते हुए– जहाँ डबलरोटी के टूटे हुए साँचे, लकड़ियाँ और झाड़ुएँ बिखरी पड़ी थीं और जो एक ऐसे अधखुले काले मुँह की भाँति दिखाई दे रहा था जिसमें बिना चबाया हुआ ग्रास पड़ा हो। उसने अपनी भारी आवाज में गाना आरम्भ किया :
वोल्गा के करीब एक रहजन
झाड़ियों में पड़ा था खस्ता तन
उसके सीने पर था जख्म कारी
और हंगामा-ऐ मौत था तारी
आखिरी वक्त में दुआ के लिए
जख्म अपना दबा के हाथों से
पहले घुटनों के बल वह बैठ गया
गिड़गिड़ाकर यह फिर खुदा से कहा
रूह बदकार है मेरी या रब
यह गुनाहगार है तेरी या रब
तू मेरी रूह को जुदा कर दे
जिस्म की कैद से रिहा कर दे
कितनी बदकार है यह मेरी रूह
हाँ गुनाहगार है यह मेरी रूह
जबकि अहदे शबाब था मुझ पर
मुझको बनना था राहिने खुश्बू
आज मैं बन गया मगर डाकू
शातुनोव गुनगुनाकर कविता पढ़ रहा था। अपनी कमर दुहरी करके और अपने नंगे पाँव का अँगूठा हाथ में दबोचकर उसने अपना चेहरा छिपाया हुआ था और न जाने क्यों वह अपना पाँव निरन्तर उछालता रहा। ऐसा प्रतीत होता था कि जैसे वह कोई जादू कर रहा हो और साथ-साथ कोई मंत्र पढ़ाता जाता हो–
कारनामों में सरफरोशी के
उम्र अपनी गुजार दी मैंने
जो बहादुर हो खौफ क्या जाने
मुझको अच्छे लगे न हंगामे
जिन्दगी काट दी समझने में
मैंने उस रूह को परखने में
सुबह हस्ती की शाम कर डाली
अपनी कुवत तमाम कर डाली
रूह से पूछता रहा हूँ मैं
क्या खुदा ने सिफत तुझे दी है
तुझमें क्या खासियत है खूबी है
पाक मरियम के तोहफाए नायाब
सुन तो ऐ मेरी रूह आलमताब
तीरगी का हसीन शहजादा
यानी शैतां सितम का दिलदादा
कौन सा बीज बो गया तुझ में
हाय क्या शैसमो गया तुझ में
‘तुम बिल्कुल मूर्ख गधे हो, ओशिप!’ मालिक ने अचानक तेज आवाज में डाँटते हुए और अपने कन्धों को उचकाते हुए कहा, ‘और तुम्हारी कविता भी बेहूदा है, किताब वाली कविता की तो यह पासंग भी नहीं! तुम झूठे हो, तुम्हारे दिमाग में गोबर भरा हुआ है।’
‘ठहरो तो, वासिली सेम्याविच!’ बंजारे ने उसकी बात काटकर झल्लाकर कहा, ‘खत्म तो कर लेने दो उसे!’
परन्तु मालिक सुनी-अनसुनी करते हुए भावावेश में कहता ही गया :
‘यह तो बिल्कुल नीचता है! तेरी आत्मा, मेरी आत्मा... पहले तो खूब गुलछर्रे उड़ाए फिर डर गया और हाय-तौबा करने लगा : हे भगवान, हे भगवान! भगवान का इससे क्या वास्ता? पहले तो खूब छककर पाप किये अब उसके परिणाम से नानी मरती है!...’
उसने जम्हाई ली और मैं समझता हूँ जानबूझ कर ली। फिर भर्राई आवाज में कहा :
‘आत्मा, आत्मा! और है नहीं कौड़ी बराबर महत्त्व की।’
बर्फ का तूफान खिड़की के शीशों को अपने कुरूप पंजों से खुरच रहा था। मालिक ने खिड़की को कनखियों से देखा और फिर एक ही साँस में कहना शुरू किया :
‘मुझसे पूछो जो व्यक्ति अपनी आत्मा की बड़ी हाँकता है, उसे जरा भी अक्ल नहीं है। उससे कहा अच्छा भई, तुम्हें यह काम इस तरह करना चाहिए और वह कहता है मेरी आत्मा ने इसकी अनुमति नहीं दी। अन्तःकरण कहो या कुछ और जब तक कोई किसी काम के करने से झेंपता रहे उसका फल एक ही जैसा होता है– उसे आत्मा कहो या अन्तःकरण। कोई समझता है हर चीज निषिद्ध है। वह जाता है और साधु बन जाता है। कोई और व्यक्ति है जो समझता है कि कोई वस्तु निषिद्ध नहीं है वह डाकू बन जाता है। ये दो प्रकार के मनुष्य हैं, एक प्रकार के नहीं। और उन्हें एक-दूसरे के साथ गड़बड़ नहीं करना चाहिए। जो काम करने का है वह तो करना ही होगा...।’ और जब कोई काम करना ही है तो अन्त:करण तंदूर में जाकर कहीं छिप जाएगा और आत्मा पड़ोसिन से मिलने चली जाएगी।
बहुत बेढंगेपन से उसने अपनी टाँगे घसीटी और खड़े होकर किसी पर नजर डाले बगैर ही अपने कमरे में चला गया।
‘अच्छा, अब जाओ सो रहो।’ बैठे हुए उपदेश दे रहे हो, हूँह आत्मा! भगवान से प्रार्थना करना बड़ी साधारण बात है और डाकू बन जाना बड़ी बहादुरी नहीं है हरगिज नहीं। अरे मूर्खों! कुछ काम करो काम! हाँ!!
किवाड़ बन्द करके जब वह चला गया तो बंजारे ने शातुनोव के कुहनी मारते हुए कहा :
‘हाँ तो फिर आगे सुनाओ वह गीत!’
ओसिप ने अपना सिर उठाया, एक सिरे से दूसरे तक सब पर दृष्टि दौड़ाई और दबे स्वर में कहा :
‘झूठा है वह!’
‘कौन हमारा मालिक?’
‘हाँ, आत्मा तो है उसके भी। लेकिन उसे सुख-चैन नसीब नहीं है। मुझे खूब मालूम है!’
‘उससे हमें क्या गरज?... तुम कहो क्या कहते हो?’
ओसिप चकरा गया, वह तन्दूर में से रेंगता हुआ निकला और अपने बड़े से सिर को झटका देकर बोला :
‘मैं तो भूल ही गया!’
‘अच्छा, झूठ मत बोलो!’
‘नहीं, नहीं वास्तव में मुझे नींद आ रही है।’
‘अरे तुम्हारी... याद करने की कोशिश तो करो!’
‘नहीं अब तो नींद सता रही है...।’
जब अँधेरे में वह बिल्कुल छिप गया; हल्की-सी आवाज में बोला :
‘अरे भाइयों! यह जिन्दगी भी बड़ी मुसीबत की है हमारी!’
‘वास्तव में?’ आर्तेम बड़बड़ाया। ‘और हमें पता ही नहीं–धन्यवाद!’
बंजारे ने बड़ी सफाई से अपने लिए एक सिगरेट बनाई और ओसिप की परछाई अँधेरे में लुप्त होती देखते हुए सरगोशी के अन्दाज में कहा :
‘इस आदमी का दिमाग कुछ कमजोर मालूम होता है।’
फरवरी का बर्फानी तूफान आया हुआ था; हवा चिंघाड़ रही थी; खिड़कियाँ सिर पीट रही थीं; धुआँकाश में तेज हवा घुसकर सीटियाँ बजाने लगती थी। बेकरी के निविड़ अन्धकार में तेल का टिमटिमाता लैम्प रोशनी पैदा करने की असफल चेष्टा कर रहा था और अँधेरा काँपता हुआ नजर आ रहा था। सर्द हवा की लहरें कहीं से बराबर अन्दर आ रही थीं और टाँगें ठण्डी बर्फ हुई जा रही थीं। मैं आटा गूँध रहा था और मालिक नाँद के पास आटे के एक बोरे पर बैठा कह रहा था :
‘जब तक तुम जवान हो, हर बात पर गौर करो। जब तक कोई पेशा विशेष न अपना लिया हो, हर प्रकार के काम के बारे में सोचो। हर पहलू पर दृष्टिपात करो। शायद कोई ऐसा काम सूझ जाए जो तुम्हारे लिए उचित हो। बस जरा सोच लो– ऐसी कोई जल्दी नहीं है...’
बोरे पर बैठे हुए उसने अपने घुटने फैला रखे थे। एक पर उसने शराब का एक कनस्टर टिकाया हुआ था, और दूसरे पर गदली शराब से आधा भरा हुआ एक गिलास मैले-कुचैले फर्श पर झुके हुए उसके बेडौल चेहरे पर मैं कभी-कभी चुपके से घूर कर देख लेता और जलकर दिल-ही-दिल में सोचता :
‘एक आध गिलास मुझे भी दे-दे...।’
उसने सर उठाया, बाहर की चिंघाड़ गौर से सुनी और धीमी आवाज में पूछा :
‘क्या तुम अनाथ हो?’
‘यह तो पहले भी पूछ चुके हो मुझसे।’
‘भगवान कसम, कितनी कर्कश आवाज है तुम्हारी!’ उसने एक ठण्डी साँस भरके अपने सिर को झटका देते हुए कहा, ‘आवाज तो है ही, तुम्हारी बात भी!’ काम समाप्त कर चुकने के बाद, मैं अपने हाथों में चिपका हुआ सूखा आटा खुरचकर साफ कर रहा था। होंठ चाटते हुए उसने शराब पीकर गिलास खाली किया और दुबारा भरकर मेरी ओर बढ़ाया।
‘लो पियो!’
‘शुक्रिया।’
‘हाँ, हाँ लो, पियो। मैं झट से बता सकता हूँ कि काम करना कौन आदमी जानता है। और ऐसे आदमी की गलतियों को मैं अक्सर अनदेखा कर जाता हूँ। अब मसलन यास्का ही को ले लो। वह मूर्ख भी है और चोर भी। लेकिन फिर भी मैं उसका आदर करता हूँ। उसे अपने काम से शौक है। शहर में उससे अच्छा नाईं कहीं नहीं मिलेगा। जो शख्स काम करना पसन्द करता है, जिन्दगी में उसके साथ रियाअत करना और मरने के बाद उसका सम्मान करना हमारा कर्तव्य हो जाता है। निश्चय ही!’
नाँद को ढँककर मैं आग सुलगाने चला गया। मेरा मालिक कराहता हुआ उठा और एक भूरी गेंद की तरह लुढ़कता हुआ चुपचाप मेरे पास आया और बोला :
‘जब कोई आदमी अच्छा काम कर रहा हो तो उसके अनेक दोष व त्रुटियाँ क्षम्य हैं।... उसके उसके अवगुण उसकी मृत्यु के साथ समाप्त हो जायेंगे किन्तु उसके गुण जीवित रहेंगे।’
तंदूर में टाँगें लटकाते हुए वह धम्म से जमीन पर बैठ गया, शराब का कनस्टर अपनी बाजू में रख लिया, आग को देखने के लिए झुका और देखकर बोला :
‘लकड़ियाँ काफी नहीं हैं। देखो तो जरा।’
‘बहुत है, सूखी वैसे हैं और फिर आधी उसमें चीड़ की हैं।’
‘हूँ... उख ...।’
वह धीरे से कहकहा मारकर हँसने लगा और मेरे कंधे पर हाथ मारते हुए बोला, ‘बड़े होशियार हो। यह न समझना कि मैंने यह देखा नहीं था। बहुत काफी है लकड़ियाँ! हर चीज पर नजर रखनी पड़ती है। लकड़ी और आटा, और बाकी सब कुछ!’
‘और आदमी की नहीं?’
‘आदमी की बात भी बताऊँगा, घबराओ नहीं। मेरी बातें जरा गौर से सुनो, तुम्हें कोई खराब बात नहीं सिखाऊँगा!’
अपने सीने पर हाथ मारते हुए, जो उसकी तोंद की तरह फूला हुआ और मोटा था, उसने कहा :
‘मैं अन्दर से अच्छा आदमी हूँ। मेरे सीने में भी दिल है। ऐसी बातें समझने के लिए अभी तुम बच्चे हो, और बेवकूफ भी। लेकिन फिर भी अच्छा है कि ये बातें तुम्हारे कान में पड़ जाएँ! और सुन मेरे भाई, आदमी जो है ना वह किसी सैनिक की वर्दी का बटन नहीं है। आदमी विविध प्रकार से चमकता है...। और हाँ यह तुम्हारा मुँह क्यों उतरा हुआ है?’
‘बात दरअसल यह है कि मुझे नींद आ रही है और तुम जाने नहीं देते। बड़ी दिलचस्प हैं तुम्हारी बातें भी।’
‘अगर दिलचस्प हैं तो फिर मत सोओ। जब मालिक बन जाओगे तो बहुत समय मिला करेगा सोने के लिए।’
उसने एक ठण्डी साँस भरी और कहा :
‘नहीं, तुम कभी मालिक नहीं बनोगे। तुम हरगिज व्यापार नहीं करोगे। आवश्यकता से अधिक वाचाल होना... बातों-बातों ही में तुम अपने आप को समाप्त कर लोगे और योंही नष्ट-भ्रष्ट हो जाएगा तुम्हारा सारा जीवन। किसी को तुमसे कोई लाभ न होगा।’
अचानक उसने एक जोर की साँस खींचते हुए बहुत गंदी गाली दी। उसके चेहरे का मांस इस प्रकार थिरक रहा था जैसे फालूदे के भरे हुए प्याले को किसी ने जोर से हिला दिया हो। और गुस्से की एक रौ उसके जिस्म में दौड़ गयी; उसका चेहरा और गर्दन सुर्ख हो गये और आँखों की पुतलियाँ भयानक रूप धारण करके उबल पड़ीं हमारा मालिक वासिली सेम्योनोव धीरे-धीरे और कुछ विलक्षण ढंग से हुँकार रहा था। मानो बाहर भी बर्फानी तूफान आहें भर रहा था और जिसके साथ सारी धरती बड़े दयनीय ढंग से आँसू बहाती प्रतीत हो रही थी वह उसकी नकल कर रहा हो।
‘अरे गोली मारो इसे! काश मेरे पास अच्छे विश्वासपात्र आदमी होते! फिर मैं तुम्हें दिखाता कि कारोबार किसे कहते हैं। सारा जिला और वोल्गा का पूरा इलाका दाँतों तले उँगली दबाता! लेकिन ऐसे लोग मिलते ही नहीं। सबके सब गरीबी के कारण या अपनी व्यक्तिगत निर्बलता के कारण शराबी बन गये हैं। और अधिकारी लोग, वे मरदूद अफसर, अधिक है उन पर।’
उसने अपनी गठीली कलाइयों की मुट्ठियाँ मुझ पर तानकर उँगलियाँ खोलीं और हवा में इस तरह पंजे चलाए जैसे वह किसी के बाल पकड़कर उसे नोच-खसोट रहा हो। और इसी दौरान में वह भूखे शेर की नाईं गुर्रा-गुर्राकर और मुँह से झाग छोड़ते हुए बोलता रहा :
‘बचपन ही से देखना चाहिए कि किसी की पसन्द और रुचि क्या है, यह नहीं कि किसी भी पुराने काम पर अंधाधुंध लगा दिया। इसी का तो यह नतीजा है कि आज कोई व्यक्ति सौदागर है तो कल वही भिखारी बन गया। आज नानबाई है तो एक सप्ताह बाद उसे किसी के यहाँ लकड़ियाँ चीरते हुए पाया। स्कूल खोल और हर ऐरे-गैरे-नत्थू-खैरे को घेरकर वहाँ ले गये कि जाओ पढ़ो। हरएक को एक ही लाठी से हाँकना शुरू कर दिया। हर आदमी को मौका देना चाहिए कि वह रुझान खुद मालूम करे।’
उसने मेरा बाजू दबोचकर अपनी ओर घसीटा और बड़ी भयानक सिसियाती हुई आवाज में कहता रहा :
‘यही तुम सोच रहे होगे और इसी की बातें कर रहे होगे कि हरेक को ऐसी जिन्दगी बसर करने पर मजबूर किया जाता है जो उसको नापसंद हो बल्कि इस तरह की जैसी कि बसर करने का उनके अफसर हुक्म दें। आखिर हुक्म देने का अधिकार किसको है? उसे जो काम कर रहा हो। यानी मुझे हुक्म देने का हक है। मैं खूब समझ सकता हूँ कि कौन किस काम के लिए उचित है।’
फिर मुझे धक्का देते हुए उसने अपनी बेबसी प्रकट करते हुए हाथ हिलाया।
‘लोगों के व्यक्तिगत मामलों में अधिकारीगण यदि हस्तक्षेप करेंगे तो उससे कोई फायदा नहीं होगा। कोई काम नहीं चलेगा। सबसे अच्छा तो यह है कि सारे बखेड़े को लात मारकर जंगल में निकल जाओ। सब कुछ छोड़कर भाग जाओ।’
अपने गोल-मटोल जिस्म को इधर-उधर झुलाते हुए उसने धीरे-धीरे और चबा-चबाकर कहना शुरू किया :
‘एक आदमी तक नहीं मिलता। सब चापलूस और जी हजूरी करने वाले हैं, किसी में जरा भी हिम्मत नहीं। जाने के लिए कहो तो वह गया और रुकने को कहो तो फौरन रुक गया। ठीक वैसे ही जैसे रंगरूट करते हैं। और जब कोई शरारत करने की सूझती है तब भी रंगरूटों की-सी हरकत करते हैं और असल में इससे मिलता-जुलता खाक नहीं। और सच कहता हूँ मैं तुमसे भगवान आसमान पर बैठा-बैठा ये सब झाड़े-टंटे देखता रहता है। और आप ही आप सोचा करता है– अरे मूर्खों! भर पाया मैं तुमसे! ... दुनिया के किसी मसरफ के भी नहीं हो तुम।’
‘तो तुम अपने आप को दुनिया के किसी मसरफ का नहीं समझते क्यों?’
अब भी वह पहले की तरह अपने शरीर को झुलाता रहा और फौरन जवाब न दिया।
‘मेरे... मेरे बारे में कह रहे हो तुम... हर चिंगारी तो ज्वाला नहीं बन जाती, सम्भव है कि करद्धे में चमककर रह जाये। मुझे कहते हो तुम, मैं तो चालीस से कुछ ऊपर हूँगा और जल्दी ही शराब की लत मेरा काम तमाम कर देगी। और शराब की लत पड़ती है जिन्दगी की उलझनों और परेशानियों से। और परेशानियाँ... अब देखो क्या मैं सिर्फ इसी काम के लायक हूँ? मैं तो दस हजार आदमियों के किसी कारोबार को चलाने की योग्यता रखता हूँ। और यदि ऐसा हो जाता तो मेरा सारा काम इस खूबसूरती के साथ चलता कि देश के सारे बड़े-बड़े गवर्नर हक्का-बक्का रह जाते।’
उसने शान में आकर अपनी मंजरी आँख चमकाई और फुल्ली आँख मलिनता से आग के शोलों को घूरती रहीं फिर उसने अपने हाथ तेजी से आगे को फूँकते हुए कहा :
‘क्या महत्त्व है इसका मेरे लिए? इससे अधिक उपयोगी तो चूहेदान होता है। एक आधे दर्जन आदमी दो मुझे– ईमानदार आदमी। अच्छा, चलो ईमानदार न सही चोर-बालक तो हों। और मैं तुम्हें दिखा दूँगा कि क्या हूँ मैं!... और काम? अरे ऐसा शानदार कारोबार कायम करूँ कि जो देखे चकरा जाए। और फिर काम भी ऐसा-वैसा नहीं, जोरदार!’
थक-हारकर वह उस गंदे फर्श पर ही लेट गया। उसने एक लम्बी अंगड़ाई ली और नाक से सूँ-सूँ करते हुए, अपने पाँव तंदूर के मुँह में लटका दिये जो भड़कते-लपकते शोलों की रोशनी से दमक रहे थे।
‘औरतें भी!’ वह सहसा गुर्राया।
‘औरतों का क्या जिक्र?’
कोई एकाध मिनट तक छत को घूरते रहने के बाद मालिक निरुत्साह व उदासी भरे स्वर में कहते हुए बैठ गया :
‘काश स्त्री बस यह समझ ले कि पुरुष किस तरह उसके बिना एक कदम नहीं बढ़ सकता! कारोबार में वे कितनी बड़ी भूमिका अदा कर सकती हैं यह वे समझ ही नहीं सकती। कोई बेचारा अकेला है। यह तो भेड़िये का-सा जीवन हुआ न! जाड़ा हो, अँधियारी रात हो, जंगल हो और बर्फ गिर रही हो पर वह एक भेड़ जरूर हजम कर जायेगा! लेकिन फिर? क्या फायदा हुआ? पेट भर लेने पर भी इसकी हालत वही दयनीय बनी रही। वह बैठकर मनहूस आवाज में रोयेगा, अपनी तकदीर को कोसेगा!’
सर्दी से उसके शरीर में झरझरी पैदा हुई, उसने झट तंदूर के अन्दर झाँका घूरकर मेरी ओर फिर फौरन ही मालिक की सी रोबदार आवाज बनाकर गुर्राया :
‘कोयले झाड़ो, खड़े देख क्या रहे हो? खड़े-खड़े कान फटफटा रहे हो?’
तंदूर में से उठकर वह ऊपर आया और बड़ी देर खड़ा खिड़की से बाहर देखता और अपनी पसलियाँ खुजाता रहा। शीशों के बाहर सफेद भँवर पटाख-पटाख की आवाज़ निकाल रहे थे। दीवार पर लगे हुए लैम्प की लौ, धुएँ से भरी चिमनी में बिल्कुल ही छिप-सी गयी थी। और वहाँ से लौ के भड़कने और चटखने की आवाज आ रही थी।
मालिक ‘हे भगवान, हे भगवान!’ बड़बड़ाता हुआ, भारी-भारी कदमों से बिस्कुटों की बेकरी में चला गया और जाते हुए वह ऐसा लगा मानो अंधकारपूर्ण मेहराब ने उसे निगल लिया हो। जब वह चला गया तो मैंने तंदूर में डबलरोटियाँ जमानी शुरू की और फिर ऊँघते-ऊँघते सो गया।
‘देखो, दिन चढ़े तक मत सोते रहना।’ मेरे सिर के ठीक ऊपर से किसी की जानी-पहचानी आवाज आयी।
मालिक पीठ पर अपने हाथ बाँधे खड़ा था। उसका चेहरा तर था और कमीज सीली हुई।
‘बड़ी बर्फ पड़ रही है। ढेर के ढेर लगे हुए हैं। सारा आँगन बर्फ से पटा पड़ा है।’
उसने अपने होंठ फैलाकर लटका लिये और कुछ देर यों ही चुपचाप खड़ा मेरा मुँह चिढ़ाता रहा। फिर आहिस्ता से बोला :
‘एक दिन ऐसा आयेगा कि ऐसी ही बर्फबारी पूरे हफ्ते, पूरे महीने सारे जाड़ों और सारी गर्मियों होती रहेगी।... और धरती की हर चीज उसके नीचे दब जायेगी।... बेलचों से बर्फ कितनी ही क्यों न हटाओ कुछ फायदा न होगा।... हाँ-हाँ ख्याल कुछ बुरा नहीं है। तमाम बेवकूफों का एकदम खात्मा हो जायेगा...’
झूमता-झामता वह दीवार के पास पहुँचकर कुछ हिचकिचाया और फिर अँधेरे में गायब हो गया।
हर रोज सुबह पौ फटते ही ताजा डबलरोटियों की एक टोकरी लेकर मुझे कारखाने की एक दुकान पर जाना पड़ता था। और मालिक की तीनों रखैलों से मेरी जान-पहचान हो गयी थी।
उनमें से एक नौजवान, घुँघराले बालों और भरे जिस्म वाली दर्जिन थी जो एक औसत दर्जे का चुस्त व सफेद गाउन पहने रहती थी। संसार को वह अपनी मुर्दा, मलिन और खाली-खाली, निराशामय आँखों से देखा करती थी। और उसके पीले चेहरे पर वैधव्य का-सा गम छाया रहता था। मालिक के पीठ पीछे भी वह उसका जिक्र बड़े डरते-डरते और दबी हुई आवाज में करती थी; उसका नाम और प्यार का नाम लेकर याद करती। और जो चीजें लेकर जाता उन्हें वह एक अजीब घबराहट के साथ लेती और जाँचती, मानों वह कोई चोरी का माल ले रही हो।
‘हाय कितनी प्यारी-प्यारी डबलरोटियाँ हैं? नन्ही-नन्ही!’ वह बड़ी मधुर आवाज में कहा करती।
दूसरी एक ऊँची, साफ-सुथरी, कोई तीस वर्षीय स्त्री थी– देखने में बहुत स्वस्थ व हृष्ट-पुष्ट तथा नेक नज़र आती थी। उसकी कीली आँखें सदा झुकी रहती थीं और उसकी वाणी में बड़ा माधुर्य व विनम्रता थी। चीजें वसूल करते समय गिनती में वह मुझे ठगने की कोशिश किया करती थी और मुझे पूरा विश्वास था कि एक न एक दिन यह स्त्री अपने दुबले-पतले और प्रकट रूप में ठण्डे जिस्म पर जरूर कैदियों के धारीदार कपड़े पहनेगी। जेलखाने का सफेद रंग का लबादा उसके कंधों पर होगा और बालों पर सफेद रूमाल बंधा होगा।
उन दोनों को देखकर घृणा का एक तूफान मेरे दिल में उमड़ पड़ता जो किसी हाल रोके न रुकता था। और मैं हमेशा यह कोशिश किया करता था कि मैं तीसरी औरत के पास सामान लेकर जाया करूँ। उसकी दुकान आम रास्ते से जरा ज्यादा हटकर थी। और इस अजीब औरत के पास जाने का सुखद अवसर दूसरे लड़के मुझे खुशी से दे दिया करते थे।
उसका नाम सोफिया पलाखिना था; शरीर भारी और गाल गुलाब के से थे! और कुल मिलाकर वह एक विलक्षण-सी बेडौल औरत थी, मानों किसी ने इधर-उधर से बचे-खुचे टुकड़े जमा करके और जल्दी-जल्दी में जोड़-जाड़ कर गढ़ दिया हो उसके बाल लहरिये और झबरे थे, काले भँवर जैसे, जैसे किसी यहूदन के हों और वह हमेशा उलझे रहते थे। फले हुए गुलाबी गालों के बीच में तोते के चोंच की तरह खमदार नाक थी और आँखें भी साधारण रूप में सुन्दर थीं। गहरी, सुर्खी मायल, बादामी रंग की पुतलियाँ साफ-सफ्फाफ ढेलों पर अजीब तरह से तैरती हुई नजर आती थी। और उनमें बच्चों की-सी मस्ती भरी चमक थी। उसका मुँह भी बच्चों का-सा ही था– छोटा-सा और सिकुड़ा हुआ। उसकी ठोस-मोटी ठोढ़ी एक हृष्ट-पुष्ट स्त्री की बदनुमा, उभरी हुई छातियों पर धरी रहती थी। अपने फूहड़पन के कारण सदा एक मैला-कुचैला, बदबूदार ब्लाउज पहने मिलती थी जिसमें एक बटन भी न होता था। नंगी टाँगे और पैर में स्लीपर। देखने में तीस वर्ष की स्त्री मालूम होती थी। हालाँकि यह थी केवल अठारह वर्ष की। जैसा कि उसने मुझे अपनी टूटी-फूटी रूसी भाषा में बताया था। उसे यहाँ एक अनाथ समझकर नैरोन्स्क से लाया गया था और उसके मालिक ने उसे वेश्यालय में पहुँचा दिया था जहाँ से उसने अपना रास्ता तलाश कर लिया। वह कहा करती :
‘ऐसा हुआ कि जिसकी कोख से मैं पैदा हुई थी वह मेरी माँ मर गयी, और बाबा एक जर्मन औरत से शादी कर लिया और वह भी मर गया। उधर जर्मन औरत एक जर्मन मरद के साथ शादी कर लिया। इस तरह मेरा एक और माँ और एक और बाबा हो गया। पर उन दोनों में से मेरा कोई भी नहीं। वो दोनों खूब दारू पीता था। जब मेरी उमर तेरह वर्ष का हो गया तो उस जर्मन मरद ने मुझे सताना शुरू करा इस वास्ते कि मैं शुरू से मोटी थी। वह मुझे खूब मारता, पीठ पर घूँसे लगाता फिर वो मेरे साथ रहने लगा और मेरा पेट रह गया। फिर तो वह सब घबरा गया और घर छोड़कर भाग गया। सब कुछ खत्म हो गया और कर्जे में घर बेच दिया और मैं औरत के साथ जहाज में बैठकर यहाँ आया पेट गिरवाने। फिर मैं ठीक हो गयी और उन लोगों ने मुझे एक रण्डीखाने में दे दिया। वो बड़ा गंदा, भयंकर! बस मेरे को तो जहाज में अच्छा लगता था।’
ये सब बातें उसने मुझे उस समय बताईं जब हम आपस में दोस्त बन गये थे और जिस तरह हमारी दोस्ती हुई वह भी अजीब थी।
उसका बेजोड़ चेहरा, उसकी टूटी-फूटी बातें, उसकी सुस्ती और उसका असह्य घमण्ड और बड़बड़िया बातें, मुझे ये कुछ भी पसन्द न था। दूसरी बार जब मैंने सामान उसको दे दिया तो उसने कहकहा लगाकर कहा :
‘कल मैंने मालिक को घर से निकाल दिया और उसका मुँह नोच लिया। तुमने देखा?’
देखा तो था मैंने। एक गाल पर तीन खराशें पड़ी थीं और दूसरे पर दो। लेकिन उससे बात करने को मेरा जी न चाहा और मैं खामोश रहा।
‘बहरे हो तुम?’ उसने पूछा, ‘या गूँगे हो?’
मैंने कोई जवाब न दिया। फिर उसने मेरे पर जोर से फूँक मारी और कहा :
‘उल्लू!’
बस उस मरतबा सिर्फ इतना ही हुआ। अगले दिन जब मैं अपनी टोकरी पर झुका हुआ खुश्क और फफूंदी हुई रोटियाँ, जो बिकी नहीं थीं, छाँट रहा था तो वह आकर मेरी पीठ पर सवार हो गयी। उसने अपने छोटे-छोटे नर्म बाजुओं से मेरी गर्दन कस ली और चिल्लाई :
‘चड्डी दो, मुझे चड्डी!’
मुझे बड़ा तैश आया और मैंने उससे कहा, ‘मुझे छोड़ दो!’ लेकिन वह और भी बोझ डालकर लटक गयी और कहने लगी :
‘चलो-चलो मुझे पीठ पर लेकर चलो!’
‘हट जाओ वरना मैं तुम्हें पटखी दे दूँगा।’
‘नहीं!’ उसने बहस शुरू की, तुम मुझे नहीं पटख सकते। मैं नारी हूँ और तुम्हें एक नारी की बात माननी चाहिए। चलो!’
उसके चिकटे हुए बालों में से तेल की ऐसी बदबू आ रही थी कि दिमाग़ फटा जाता था और वह खुद भी उस तेज और चिकटी हुई बू में बसी हुई थी। जैसे कोई पुरानी प्रिंटिंग मशीन हो।
मैंने एक झटका देकर उसे अपने सिर के ऊपर उसे इस तरह उछाला कि उसके पाँव दीवार से जाकर टकराए। उसने बच्चों की तरह आहिस्ता-आहिस्ता बिसूरकर रोना और कराहना शुरू कर दिया।
मुझे उस पर तरस भी आया और अपनी उस हरकत पर शर्म भी। फर्श पर मेरी ओर पीठ किए बैठी झूम-झूमकर वह अपनी चिकनी-चिकनी खुली हुई टाँगें अपने दामन में छिपा रही थी और उसकी नग्नता में कुछ ऐसी बेचारगी थी जो दिल पर असर करती थी। विशेषतया अपने नंगे पाँव के अँगूठों को जिस तरह बल दे रही थी क्योंकि गिरते समय उसके पाँव के स्लीपर फिसल कर गिर पड़े थे।
‘मैंने पहले ही कह दिया था।’ मैं गड़बड़ाकर बड़बड़ाया और उसे उठाकर खड़ा करने लगा। उसने मुँह बनाया और कराहते हुए कहा :
‘हाय, हाय ... गुस्ताख लड़के!’
और अचानक फर्श पर जोर से पाँव पटखते हुए उसने खुशमिजाजी से कहकहा लगाते हुए कहा :
‘जा जहन्नुम में जा! चल भाग यहाँ से।’
मैं दौड़कर बाहर गली में आ गया। मुझे बड़ी शर्मिन्दगी थी और मैं अपने आपको बुरी तरह कोस रहा था। छतों के ऊपर रात का जमा हुआ मटियाला कुहरा जो बाकी बचा था, वह भी पिघल गया था और धुँधली सुबह रंगती हुई शहर पर छा रही थी। लेकिन सड़क की लालटेनों की पीली रोशनियाँ अभी गुल नहीं हुई थीं और सन्नाटे पर पहरा दे रही थीं।
‘सुनो!’ लड़की ने सड़क की तरफ का दरवाजा खोलकर मुझे आवाज देते हुए कहा, ‘डरना नहीं, मैं मालिक से कुछ भी नहीं कहूँगी!’
दो दिन बाद उसके यहाँ सामान ले जाने का मुझे फिर मौका मिला। उसने बड़ी सुखद मुस्कान के साथ मेरा स्वागत किया, फिर एकदम किसी सोच में पड़ गयी और पूछा :
‘तुम्हें पढ़ना-लिखना आता है क्या?’
और नकदी रखने की दराज खोलकर उसने उसमें से एक खूबसूरत बटुआ निकाला और कागज का एक पुर्जा खींच लिया।
‘इसे पढ़ो तो जरा!’
मैंने कविता के दो पद पढ़े जो बड़े सुन्दर लेखन में थे :
चंदा खा जाने में पिताजी हैं बड़े बदनाम
कम-से-कम भी वह चुरा बैठे हैं शायद एक लाख
‘उफ कैसा जानवर है!’ वह चिल्लाई और कागज का पुर्जा उसने मेरे हाथ से छीन लिया। फिर जल्दी-जल्दी और गुस्से में कहने लगी :
‘एक उल्लू के पट्ठे ने लिखकर दी है यह कविता। वह है तो बड़ा उद्दण्ड लेकिन अभी विद्यार्थी ही है। मुझे विद्यार्थियों से बड़ी दिलचस्पी है। वे भी फौजी अफसरों की तरह होते हैं और वह तो मुझसे इश्क लड़ा रहा है। अपने बाप के बारे में ऐसी ही बातें किया करता है उसका बाप कोई बड़ा आदमी है। बड़ा-बूढ़ा है, सीने पर तमगे लगाये कुत्ते को साथ लिए फिरा करता है। हाय हाय, मुझे कितनी घृणा होती है जब कोई बूढ़ा आदमी कुत्ते साथ लिए फिरे। कोई और नहीं मिलता उन्हें साथ ले जाने को? इधर उसका बेटा उसे बुरा-भला कहता है, चोर कहता है, यहाँ तक कि लिख भी दिया–यहाँ!’
‘तुम्हें उनकी क्या परवाह?’
‘ओह!’ उसने कहा और उसकी आँखें दुःखी होकर फटी की फटी रह गयीं। ‘अपने बाप को बुरा-भला नहीं कहना चाहिए। और उसे खुद को तो देखो दुश्चरित्र स्त्रियों के साथ चाय पीने जाता है।’
‘कौन है वह?’
‘क्यों मैं जो हूँ!’ उसने अचम्भे और क्रोध मिश्रित आवाज में झल्ला कर कहा। ‘कितने बुद्धू हो तुम?’
एक विचित्र प्रकार की कहना चाहिए जबानी जान-पहचान हममें पैदा हो गयी थी हम हर मसले पर बातचीत करते थे। लेकिन यह बात संदिग्ध है कि हम एक-दूसरे के स्वभाव को बिल्कुल समझ सके हों। कभी-कभी तो वह बड़ी गम्भीरता के साथ लड़कियों की बातें बड़े राजदराना अंदाज में मुझे बताती और आप ही आप मेरी निगाहें झुक जातीं और मैं सोचने लगता :
‘कहीं वह मुझे औरत तो नहीं समझती?’
लेकिन असल में यह बात नहीं थी। जब से हमारी दोस्ती हुई थी वह मेरे सामने मैली- कुचली पोशाक में कभी न आती थी। उसके ब्लाउज के बटन लगे हुए होते, बगलों के नीचे फटी हुई आस्तीनों की सिलाई की हुई होती। यहाँ तक कि वह लम्बे मोजे भी पहन लिया करती थी। मेरे सामने वह दयापूर्ण मुस्कान अपने चेहरे पर बिखेरे आती और ऐलान करती :
‘मैंने समोवार गर्म कर दिया है।’
अल्मारी के पीछे हम चाय पिया करते थे जहाँ उसकी एक छोटी चारपाई बिछी हुई होती थी। दो कुर्सियाँ, एक मेज और कपड़ा रखने की पुरानी बदनुमा अल्मारी जिसके नीचे की दराज बन्द ही न होती थी। आते-जाते सोफिया की पिंडलियाँ उस दराज से अक्सर टकराती रहती थीं। और जब कहीं उसे वह जोर से लग जाती– और खाल छिल जाती– तो वह पाँव को सहला-सहलाकर, मुँह बनाकर बुरा-भला कहने लगती थी :
‘भोंदू कहीं की, मूर्खा! ऐसी ही जैसे सेम्योनोव है। थलथल, घृणित और मूर्ख!’
‘तो क्या तुम्हारे ख्याल में मालिक मूर्ख है।’
उसने आश्चर्य प्रकट करते हुए अपने कंधे उठाये और उसके बड़े-बड़े कान भी साथ ही थिरकते हुए उठ गये।
‘निश्चित रूप से।’
‘क्यों?’
‘इसलिए कि वह है!’
‘नहीं, लेकिन क्यों?’
अब चूँकि वह जवाब न दे सकी तो उसे गुस्सा आ गया :
‘क्यों, क्यों इसलिए कि वह बेवकूफ है। हर तरफ से बेवकूफ है!’
लेकिन एक दिन उसने मुझे समझाया और समझाते हुए कुछ नाराज-सी हो गयी :
‘क्या तुम समझते हो, वह मेरे साथ रहता है? बस दो बार वह मेरे साथ रहा। उन दिनों मैं वेश्यागृह में थी। लेकिन यहाँ ऐसी कोई बात नहीं है। मैं उसके घुटनों तक पर बैठती थी और वह मुझसे थोड़ी देर तक तो छेड़छाड़ करता और फिर कहता, ‘भाग जाओ!’ वह तो उन दोनों के साथ रहता है। मुझसे न मालूम वह चाहता क्या है? उस दुकान से कोई आमदनी नहीं होती, मैं अच्छी दुकानदार भी नहीं और न ही मुझे यह पसन्द है। न जाने क्या मसलेहत है? मैं पूछ लेती हूँ कभी तो वह चीख पड़ता है, ‘इससे तुम्हें कोई मतलब नहीं! ‘ऐसी-ऐसी हजारों बेवकूफियाँ गिन लो!’
आँखें बन्द किये हुए उसने अपना सिर हिलाया और उसका चेहरा बिल्कुल खाली-खाली सा लगा जैसे कि लाश का।
‘उन दोनों को जानती हो तुम?’
‘क्यों नहीं। जब वह पिये हुए होता है तो उनमें से किसी एक को मेरे यहाँ लाता है और पागलों की नाईं चीखता है, ‘लगे एक उसके लाल-लाल मुँह पर!’ छोटी वाली को तो मैं हाथ नहीं लगाती, तरस आता है उस पर। वह हमेशा थर-थर काँपने लगती है। लेकिन दूसरी– उसे एक बार मैंने मारा था। मैं खुद भी नशे में थी और मैंने उसे मारा। मुझे फूटी आँख नहीं भाती वह! और फिर मेरी तबियत बड़ी खराब हो गयी। और मैंने उसके भी खूब निहट्टे मारे!’
अपने विचारों में वह गुम हो गयी, मूर्तिवत् अकड़ी हुई बैठी रही। फिर उसने धीरे-धीरे कहना शुरू किया :
‘उसे मारने का मुझे जरा भी अफसोस नहीं... सुअर कहीं का! लेकिन फिर भी वह धनवान है। अच्छा होता कि वह भिखारी या बीमार होता। मैं कहती हूँ उससे, अरे मूर्ख! तुम इस तरह कैसे रह सकते हो? किसी-न-किसी तरह अच्छी जिन्दगी बसर करो। अब क्यों नहीं तुम किसी अच्छी औरत से शादी कर लेते कि बच्चे हों।’
‘लेकिन वह तो शादीशुदा है।’
सोफिया ने कंधे सिकोड़ कर सादगी से कहा :
‘उसने क्या किसी को जहर दे कर नहीं मारा? अपनी पत्नी को भी वह जहर दे सकता है। अब तो वह बेकार सी बुढ़िया है न! वह तो बिल्कुल पागल आदमी है। न वह कुछ चाहता ही है।’
मैंने उसे समझाना चाहा किसी को जहर देना अच्छी बात नहीं लेकिन उसने बड़े इत्मीनान और सुकून के साथ जवाब दिया :
‘मगर यह तो होता ही रहता है।’
उसके कमरे की खिड़की में से गुलमेंहदी का पौधा दिखायी देता था खूब फूल आये हुए थे। एक दिन उसने बड़े गर्व से पूछा :
‘कितना सुन्दर है यह सूरजमुखी?’
‘हाँ, खासा है। लेकिन यह सूरजमुखी तो नहीं है।’
उसने अपना सिर हिला कर बहुत जोर से इनकार कर दिया!
‘नहीं, नहीं यह ठीक नहीं। मामूली फूल तो वही होता है जो छींट पर छपा होता है। लेकिन सूरजमुखी तो देवता का फूल होता है। सूर्य देवता का! ये सब सूरजमुखी के फूल होते हैं। फर्क सिर्फ रंगों का होता है। गुलाबी, नीले, लाल– सब रंगों की मुझे पहचान है।’
इस प्रकार के दिखावे भरे, सादे लेकिन असल में अजीब व बहुत ही गडमड लोगों के साथ जीवन बिताना मुझे दिन-ब-दिन असहय मालूम होने लगा था। वास्तविकता एक भयानक स्वप्न बन कर रह गयी थी। किताबों में जो बातें पढ़ीं थीं उनकी आब व ताब व उनकी सुन्दरता में और भी वृद्धि हो गयी थी। और वह सदियों से तारों की तरह आकाश में दूर से दूरतर होती जा रही थीं।
एक दिन मालिक ने मेरी आँखों में अपनी मंजरी आँख डालकर जो उस समय तपे हुए ताँबे की तरह धुँधली हो रही थी, मुझसे बड़े उदास स्वर में पूछा :
‘मैंने सुना है कि आजकल तुम छोटी दुकान में जाकर चाय पिया करते हो?’
‘हाँ।’
‘मेरा भी यही ख्याल था। सँभल जाओ तो बेहतर है।’
वह मेरे पास बैठ गया और कुछ बेखुदी के आलम में बातें शुरू कर दीं। बोलते समय उसकी आँखें पुचकारी हुई बिल्ली की तरह जल्दी-जल्दी झपक रही थीं और वह होंठों को इस तरह चाट रहा था मानों एक-एक शब्द का मजा ले रहा हो।
‘लड़की क्या है टमाटर है क्यों? मुझसे पूछो, मैं बताऊँ। वास्तव में वह भगवान की पथभ्रष्ट सृष्टि में से नहीं है। जैसी बातें वह मुझसे करती है कोई पादरी भी क्या करेगा। हाँ, हाँ जानबूझकर, उसकी परीक्षा लेने के लिए मैं उसे धमकाता हूँ, डराता हूँ। अरी पगली, मैं तुझे लातें मारकर निकाल दूँगा। लेकिन वह जर्रा बराबर भी तो परवाह नहीं करती, सच्ची बात कहने में जरा भी तो नहीं हिचकिचाती।’
‘सच्चाई की तुम्हें क्या जरूरत है?’
‘बिना सत्य के जीवन अजीर्ण हो जाता है।’ उसने विस्मयपूर्ण सादगी से कहा।
फिर उसने एक गहरी साँस ली और मुझे घूरकर देखा। चिड़चिड़े अन्दाज में मानो मुझसे क्रुद्ध होकर बोला :
‘तुम शायद सोचते होगे जिन्दगी बड़ी सुखद चीज है।’
‘नहीं तो, और विशेषकर तुम्हारे आसपास।’
‘तुम्हारे आसपास! उसने मुँह चिढ़ाया और फिर देर तक मुँह फुलाये खामोश बैठा रहा। गर्दन का ढीला-ढाला मांस इस तरह लटक रहा था जैसे गर्मी के मारे हाँफते हुए कुत्ते के जबड़े। कान झुक गये थे और निचला होंठ बेजान होकर छीछड़े की तरह लटक पड़ा था। आग के शोलों के प्रतिबिम्ब ने उसके दाँतों में सुनहरी चमक पैदा कर दी थी।
‘मूर्ख होते हैं वे जिन्हें जीवन सुखद नजर आता है। होशियार आदमी तो वोदका पीता है। उसको तो आस्तीनें चढ़ाकर जिन्दगी से टक्कर लेनी होती है। मुझे देखो! कभी-कभी तो मैं रात भर पड़ा रहता हूँ सारी रात पड़ा रहता हूँ लेकिन कमबख्त एक जूँ तक नहीं काटती मुझे! जब मैं मजदूर था तो जुएँ भी बड़े शौक से मुझे काटा करती थीं। दौलत की निशानी होती हैं यह हमेशा! जैसे ही मैं साफ-सुथरा रहने लगा कि उन्होंने मेरा साथ छोड़ दिया। हर चीज मेरा साथ छोड़ रही है। बस केवल घटिया, सस्ती चीजें शेष हैं– औरतें! और वह तो बहुत दुखदाई और दुश्वार होती है।’
‘और क्या तुम वहीं सत्य की खोज कर रहे हो?’
उसने झल्लाकर जवाब दिया :
‘तुम समझते हो कि क्या वे तुम लोगों से कम चलती हुई हैं? तुम लोगों से? कुजिन ही को देखो, भगवान से डरता है और सच बातों की खबर देना उसको अच्छा लगता है। सोचता है कि शायद मैं उसका पारिश्रमिक दूँगा। मैं तो खुद ही सड़ी-बुसी चीजें अच्छे दामों बेच डालता हूँ, समझे?’
फिर उसने आग की ओर ग्लानिपूर्वक संकेत किया और बोला :
‘यगोर तो कुल्हाड़ी है। उल्लू की तरह बेवकूफ! तुम भी टाँय-टाँय करते फिरते हो और हर घड़ी इस घात में रहते हो कि जरा कोई मौका मिले और अपने किसी साथी की गर्दन पर सवार हुए। तुम चाहते हो सब उसी तरह रहें-सहें जिस तरह तुम कहो। और मैं यह नहीं चाहता। खुद भगवान ने मुझे बीच मझधार में छोड़ दिया और मानों कह दिया, ‘जाओ मिस्टर सेम्योनोव, जैसे चाहो जिन्दगी बसर करो मैं दखल नहीं देता। मेरी बला से जहन्नुम में जाओ तुम!’
उसका सँवलाया हुआ सुर्ख चेहरा भड़कते हुए शोलों की लपेट में दमक रहा था और पसीने में तर हो गया था। उसकी आँखें ठहर गयी थीं। जैसे नींद आ गयी हो और जबान में लड़खड़ाहट आ गयी थी।
‘लेकिन सोवका तो मुँह पर कहती है तुम आवारा की-सी जिन्दगी बसर कर रहे हो! आवारा की-सी? हाँ और नहीं तो क्या! तुम कोई भेड़िये या सुअर नहीं हो।... तो फिर इन्सान जिये किस तरह मूर्खा? मुझे क्या पता? वह कहती है तुम खुद ही मालूम करो। तुम काफी होशियार हो, अब बनो मत कि मुझे मालूम नहीं– लो यह है सच्चाई! जिन्दगी है इस तरह बसर नहीं की जाती। मुझे मालूम नहीं कि फिर दूसरा कौन-सा रास्ता है? यह है बिल्कुल सच! और तुम, तुम...।’
उसने एक मोटी-सी गंदी गाली दी और फिर और भी ज्यादा तैश में आकर कहने लगा :
‘मैं उसे सोवा कहा करता हूँ। दिन के समय तो वह बिल्कुल अन्धी मूर्खा-सी लगती है हालाँकि रात के समय भी वह होती मूर्ख ही है। लेकिन रात के समय कम-से-कम वह चंचल और ठीक तो होती है।’
उसके स्वर में स्नेह था और आवाज में वही मिठास मालूम होती थी जो मैंने पहली बार सुअर के बच्चों से उसे बातें करते समय पाया था।
‘तीन रख छोड़ी है मैंने।’ अब फिर उसने अपनी गाथा शुरू की। एक तो गोश्त-पोस्त के आनन्द के लिए– नादिया घुँघराले बालों वाली। शोखी और चंचलता तो उसमें कूट-कूटकर भरी है। देखने में यों लगता है जैसे वह निहायत ही डरपोक है लेकिन दरअसल है वह बिल्कुल निर्भीक। न तो भय को वह जाने कि किस चिड़िया का नाम है और न यह जाने कि अन्तःकरण क्या बला है। बस लोभ-लिप्सा उसका अन्तःकरण है। जोंक है वह जोंक! कोई भिक्षु या साधु-संत उसे देखें तो दंग रह जाएँ। दूसरी कुरोचकीना है मानसिक व्यभिचार के लिए। इसके अलावा और कोई नाम उसके लिए जँचता ही नहीं। उसका नाम तो है गलाशा, ग्लाफिरा; लेकिन कहना उसको पड़ेगा कुरोचकीना हो। ...बस यही उसकी विशेषता है। उसे सताने में मुझे बड़ा मजा आता है। मैं कहता हूँ, करे जाओ पूजा, खूब कर लो, जलाए जाओ दीये, इन मूर्तियों पर लेकिन भूत तुम्हारी ही ताक में बैठे हैं। भूतों से उसे बड़ा डर लगता है, घिग्घी बंध जाती है उसकी। डर के मारे पर खोटे सिक्के खूब चलती है चुपचाप। अभी कल की बात है एक खोटा सिक्का उसने मुझे चेप दिया था– तीन रूबल का था वह और उससे पहले एक पाँच रूबल वाला थमा दिया था उसने। मैं पूछता हूँ कहाँ से आते हैं तुम्हारे पास? तो कहती है कोई आँखों में धूल झोंककर चलता बना। झूठी है वह। जालसाजों की किसी टोली से मिलीभगत है मालूम होता है शायद कमीशन तय कर लिया होगा। लेकिन भई है बड़ी घुन्नी। जब तक उसे गुस्सा न दिला दो, उसके साथ मजा नहीं आता। फिर तो उसका गरम होना देखो। कभी-कभी तो मुझे भी फुरहरी आ जाती है। उसका बस चले तो आदमी का गला घोंटकर दम निकाल दे। एक तकिये से दम घोंट सकती है, हाँ-हाँ, सिर्फ एक तकिये से। और जब काम तमाम कर चुकेगी तो दुआ माँगेगी। हे भगवान मुझे क्षमा कर दो। तुम बड़े दयालु हो भगवान। हाँ-हाँ, वह ऐसा ही करती है।’
शोले और भी ज्यादा तेज हो गये थे, गर्मी खूब बढ़ गयी थी। आग की रोशनी में उसकी बदनुमा और बदसूरत शक्ल और भी साफ नजर आने लगी थी जो घृणापूर्ण होने के साथ दुखप्रद भी थी। लपट से बचने के लिए उसने बल खाने शुरू कर दिए थे, पसीना बह निकला था और साँस के साथ सड़ी हुई, चिकटी बदबू निकल रही थी जैसे कि गर्मियों में गंदे नालों से भभक उठती है। जी चाहता था कि खूब ही तो उसे सुनाई जाएँ, मरम्मत की जाए, गुस्सा दिलाया जाए ताकि वह शख्स किसी और अन्दाज में बातचीत करे। लेकिन इसके साथ ही वह उन घृणित बातों में जादूभरी दिलचस्पी लेने पर मजबूर भी कर देता। उन बातों से गंदगी टपकी पड़ती थी। लेकिन उनमें एक दर्द और एक प्रकार की चुभन का भी एहसास पाया जाता था।
‘झूठ सब बोलते हैं– मूर्ख अपनी मूर्खतावश और चालाक अपनी मक्कारी के लिए। लेकिन सोवका सच बोलती है... सच बोलती है... अपने लिए नहीं, अपनी आत्मा के बहिष्कार के लिए भी नहीं, आत्मा, छिः बकवास! बस सच बोलती है, इसलिए कि वह सच बोलना चाहती है। मैंने सुना था कि विद्यार्थी सत्य की खोज करते हैं। इसलिए मैंने शराबखाने झाँके जहाँ वे मस्त होकर मदिरा-पान करते हैं। कुछ भी नहीं। वे सब मनघड़न्त किस्से हैं। वे सब शराबी होते हैं, हाँ-हाँ, शराबी।’
अब वह बड़बड़ाने लगा था। मेरी मौजूदगी का उसे जरा भी भान न था। मानों मैं उसके पास बैठा हुआ ही नहीं हूँ।
‘कुछ लोगों के लिए सच्चाई मानो... मानो ऐसी होती है जैसे कि वह किसी ऊँचे घराने की सुन्दरी के प्रेम में बंध गया हो। एक ही नजर में जिन्दगी भर के लिए उसी का होकर रह गया हो और उस तक पहुँचा न जा सके जैसे उसे कहीं सपने में देखा हो।’
कोई कह नहीं सकता था कि मालिक नशे में है या होश में। शायद तबियत खराब हो। उसकी जबान और होंठ सुस्त थे जैसे कि वह उन संगीन शब्दों को सीधा करने का यत्न कर रहा हो। जो उसका दिमाग गढ़ रहा था। उस वक्त वह कुछ घृणित जान पड़ता था और मैं ऊँघ-ऊँघकर शोलों को घूर रहा था। अब उसकी भर्राई हुई आवाज मुझे सुनाई नहीं दे रही थी।
लकड़ियाँ गीली थीं और तड़ख रही थीं, सनसनाकर झाग उगल रही थीं, नीला और बोझिल धुआँ लगातार निकल रहा था। हल्के लाल रंग की लपटें लकड़ी के गुद्दों के इर्द-गिर्द लिपट गयी थीं और भयावह आकृति बनाकर भड़क रही थीं। साँप की जबान की तरह नीची मेहराब की ईंटें चाट रही थीं। और तंदूर के मुँह की तरफ मुड़े हुए और दबे हुए थे और धुआँ घनघोर घटा की तरह– काला और बोझिल धुआँ– उन्हें छिपाये ले रहा था।
‘बड़बड़िये छि:!’
‘जी?’
‘जानते हो मुझे तुम्हारी किस बात पर आश्चर्य हुआ?’
‘बताया तो था तुमने एक बार।’
‘हाँ।’
अब फिर वह खामोश हो गया और फिर एक भिखमंगे के से शिकायत भरे स्वर में कहा :
‘तुम्हें इससे क्या कि आया मुझे सर्दी लग जाती और मैं मर जाता या न मरता तुमने तो यों ही कह दिया था बिना सोचे-समझे। महज मजाक के लिए?’
‘तुम अब जाकर सो जाओ तो अच्छा है क्यों?’
‘चुपके-चुपके मुस्कराते हुए उसने अपना सिर हिलाया और इसी शिकायती अंदाज से बोला :
‘लो यह सुनो! मैंने तो इसके साथ भलाई की और यह है कि मुझे ही भगा रहा है।’
यह पहला मौका था कि हमारे मालिक ने सहानुभूति प्रकट की थी और मैं उसकी हमदर्दी की सच्चाई या बनावट की परीक्षा करना चाहता था।
मैंने कंटकपूर्ण मार्ग पर चलते हुए कह डाला :
‘क्यों न नन्हे याश्का की कुछ मदद कर दो।’
मालिक ने भारीपन से अपने कंधे सिकोड़े और खामोश रहा।
इस बातचीत से दो-तीन दिन पहले झुनझुना बेकरी में गिर पड़ा था। उसके सिर के बाल सब जल गये थे और गंजी टांट निकल आयी थीं आँखों की तरह उसका सिर भी बिलकुल शफ्फाफ हो गया था। अस्पताल में रहने से उसकी आँखें पहले से भी चमकीली और साफ हो गयी थीं। उसका दागदार नन्हा सा चेहरा दुबला गया था। नाक और भी ज्यादा ठण्डी और ऊपर को उठ गयी थी। बच्चे के मुँह पर कुछ स्वप्निल मुस्कान खेलने लगी थी। कारखाने में वह कुछ अजीब चाल से चल रहा था मानों अभी लड़खड़ाकर गिरने वाला हो। उसको डर लगा रहता था कि कहीं कमीज मैली न हो जाए। और अपने हाथ साफ देखकर उसको शायद उलझन हो रही थी, क्योंकि वह उन्हें अपनी नयी पतलून की जेबों में हर वक्त ठूँसे रहता।
‘यह सिंगार तुम्हारा किसने कर दिया?’ नानबाईयों ने पूछा।
‘मिथ जूलिया ने।’ उसने अपनी नन्ही-सी मद्धम आवाज़ में जवाब दिया और फिर चलते-चलते रुककर और अपना बायाँ हाथ जेब से निकालकर हवा में नचाते हुए कहा :
‘डाक्टरनी है वह! कर्नल की बेटी। तुर्कों ने उसके पिता की टाँगें काट डालीं– घुटनों तक, मैंने भी उसको देखा है। थाफ गंजी टांट है उसकी। और वे कहते रहते हैं– कुछ नहीं, कुछ नहीं। उससे क्या होता है।’
‘वाह, वाह! भाइयों, अस्पताल में तो बड़ा मजा है। और पूछो भई और कुछ पूछो।’
‘दाहिने हाथ में तुम्हारे क्या है?’
‘कुछ नहीं।’ उसने झट से जवाब दिया और बेकसी के आलम में उसकी निगाहें चारों तरफ जा रही थीं।
‘झूठ! लाओ, लाओ हमें भी तो दिखाओ।’
बेचारा घबरा गया। उसने अपना हाथ जेब में और भी अन्दर ठूँस लिया। और खुद भी दुहरा हो गया। अब तो लोगों को और भी उत्सुकता हुई और जेबों की तलाशी लेने का फैसला हुआ। सबने लपककर उसे दबोच लिया और थोड़ी देर की कशमकश के बाद उसकी जेब से बीस कोपेक का एक नया और चमकदार सिक्का तथा एक मूर्ति ‘माँ’ व ‘बच्चे’ की निकली। सिक्का तो फौरन ही याश्का को वापस कर दिया गया और मूर्ति हाथों हाथ घूमने लगी। पहले तो बच्चा अपना नन्हा हाथ फैलाए और खिंची हुई मुस्कान के साथ मूर्ति वापस माँगता रहा। फिर उसे गुस्सा आ गया और फिर रफ्ता-रफ्ता वह भी जाता रहा। जब सैनिक मिलोव ने मूर्ति वापस की तो याश्का उसे लापरवाही से जेब में डालकर कहीं गायब हो गया। रात को खाने के बाद वह उदास व मलिन चेहरा लिए जगह-जगह गीले आटे के लोदे चिपकाये और खुश्क आटे का उबटन मले मेरे पास आया। लेकिन उसकी वह पुरानी जिंदादिली कहीं नजर न आयी।
‘अच्छा तो लाओ देखें क्या भेंट लाये हो?’
उसकी नीली आँखें कहीं और देख रही थीं।
‘मेरे पास नहीं है!’
‘फिर कहाँ गया?’
‘खो गया।’
‘सचमुच खो गया क्या?’
याश्का ने एक लम्बी साँस ली।
‘वह कैसे?’
‘फेंक दिया।’ उसने मरी हुई आवाज में कहा।
मेरी शक्ल देखकर वह समझ गया कि मुझे विश्वास नहीं हुआ, इसलिए उसने अपने सीने पर क्रॉस बनाते हुए कहा :
‘भगवान मेरा साक्षी है। तुमसे मैं झूठ हर्गिज नहीं बोलूँगा। उसे मैंने आग में फेंक दिया। पहले तो वह लाख की तरह पकने लगा, फिर जलकर खाक हो गया।’
फिर वह एकदम सिसकियाँ ले-लेकर रोने लगा और मेरे दामन में मुँह छिपाकर और हिचकियाँ ले-लेकर कहने लगा :
‘थूअर कहीं का नहीच!... हमेशा हर चीज झपट लेता है... वह ... फौजी ने ऐसी उँगलियाँ गड़ाईं कि उथकी एक किरच उखड़ गयी। गल जायें उँगलियाँ इथकी। मिथ जूलिया ने जब वह मूर्ति मुझे दी थी तो पहले उथको चूमा था और बाद में मुझे भी कहा था, ‘लो यह तुम्हारी है। यह तुम्हारे... काम आयेगी।’
मारे सिसकियों के जी उसका हलकान हो गया और बड़ी देर तक मैं उसे चुप न कर सका। मैं नहीं चाहता था कि बेकरी के नानबाई उसको रोता देख लें और उसके दर्दनाक माने समझ जाएँ।
अचानक मालिक ने पूछा, ‘वह याश्का वाली क्या बात थी?’
‘वह बहुत कमजोर है और बेकरी में तो वह वैसे भी काम करने योग्य नहीं है। उसे तो कहीं दुकान पर काम करने को लगा दिया जाये।’
मालिक किसी सोच में पड़ गया और होंठ चबाते हुए बड़ी गम्भीरता के साथ बोला :
‘अगर कमजोर है तो दुकान पर भी किस काम का? वहाँ ठण्ड है उसे सर्दी लग जायेगी और गारास्का भी उससे दुर्व्यवहार करेगी। सोवका वाली दुकान पर भेज दो तो अच्छा है। वह है भी फूहड़। सारी दुकान धूल में अटी रहती है। वहाँ जाकर उसका हाथ बटाए। यह कोई सख्त काम नहीं है।’
तंदूर के अन्दर अंगारों के सुनहरी ढेर पर नजर डालकर उसने गड्ढे में से पाँव निकाल लिये।
‘राख झाड़ो, बस अब वक्त हो गया।’
मैं लम्बी छड़ तंदूर में डालकर राख झाड़ने लगा और उसने धीरे-धीरे जैसे ख्वाब में बड़बड़ाते हुए कहा :
‘तुम भी हो बुद्धू! देखो तो सही तकदीर खड़ी तुम्हारी राह देख रही है। जो चाहे बन जाओ। और तुम हो कि... ऊँह... हमारी बला से, अजीब आदमी है।’
पुराने, टूटे-फूटे मकानों के गहरे सायों वाली संकीर्ण एवं अँधियारी गलियों में मार्ग का सूर्य बड़ी सतर्कता के साथ जरा नाक-भौं चढ़ाकर झाँक रहा था। सुबह-सबेरे से रात गये तक शहर के बीचोंबीच अँधियारे तहखाने में कैद रहने के कारण हमें वसंतागमन का अनुभव सील पैदा हो जाने से होता, जो दिन-ब-दिन बढ़ती चली जाती।
दोपहर के बाद कोई बीस मिनट के लिए सूर्य की एक किरण कारखाने की आखिरी खिड़की में से अन्दर झाँकती और मुद्दतों का मैला व गंदा शीशा कुछ देर के लिए खूबसूरत और चमकदार दिखाई देने लगता। छोटे से रोशनदान में से बिना पहियों की गाड़ी चलाने वाले घोड़ों की टापों की आवाज सुनाई देने लगती क्योंकि अब बर्फ पिघलने से सड़क के पत्थर उभर आते। बाजार का कोलाहल भी अब पहले से तेज और ज्यादा सुनाई देता।
बिस्कुटों वाली बेकरी में गानों की आवाज लगातार गूँजती रहती। लेकिन अब उनमें जाड़ों की-सी बात न रही थी। समूहगान मंद पड़ गये, हर व्यक्ति अपनी पसन्द के गीत अपनी-अपनी पसन्द की लय में गाने लगता। बार-बार धुनें व तर्जें बदली जातीं, मानों बसन्त के उस दिन की आत्मा के साथ एक सुर होने वाला कोई गीत ही न मिल रहा हो।
छोड़कर मुझको विरह में प्रियतमे
तंदूर के पास से बंजारे ने गाना शुरू किया और वानुक ने अगली पंक्ति मानो बड़े यत्न से पूरी की :
मेरे चरणों में पड़ा है मेरा यह निराश जीवन
गीत उसने अधूरा ही छोड़ दिया और जिस सुर में गा रहा था उसी सुर में बोला :
‘दस दिन और है फिर हमारे गाँव में लोग हल चलाना शुरू कर देंगे'
शातुनोव अभी आटा गूँधकर उठा था। उसके नग्न शरीर पर पसीना चमक रहा था, और अधखुले नेत्रों से खिड़की को निर्निमेष देखते हुए वह अपने बालों को छाल के एक फीते से बाँध रहा था।
उसकी उदास वाणी बड़े मन्द स्वर में गरजी :
भगवान के ये नन्हे, ये कोमल यात्री अग्रसर हैं,
बोलते कुछ भी नहीं चुपचाप चले जा रहे हैं।
आर्तेम एक कोने में बैठी फटी हुई बोरियों की मरम्मत कर रहा था और सुरिकोव की एक कविता– जो उसे कंठाग्र थी वह जनानी आवाज में खाँस-खाँसकर गाता जा रहा था :
तू हमारे अभिन्न हृदय मित्र
लकड़ी के संदूक में पड़ा चुपचाप
सिर से पैर तक कफन में ढँका
पीला चेहरा लिए पड़ा बेहोश
‘हकथू।’ कुजिन ने उसकी तरफ थूकते हुए कहा, ‘क्या निकाला है गीत कब्र में से खोदकर... उल्लू कहीं का, गधा... अरे शैतान! हजार बार तुमसे कहा।’
‘हे भगवान!’ बंजारा गाना अधूरा छोड़कर चीखा।
‘मजा आने वाला है इस दुनिया में अब!’
अपने पाँव से ताल देते हुए उसने ऊँचे सुरों में गीत शुरू किया :
एक मदमस्त सुन्दरी आ रही है
दूर ही से मुस्काती फूल बरसाती हुई
यह वही गुड़िया तो है जिस पर
मेरा सर्वस्व न्यौछावर है आज
अगली पंक्ति उलानोव गाता है :
है वही गंभीर मेरी प्यारी ऐन
जिसने सारे कबीले को वश में किया
जब यहाँ आता है मौसम बसंत का
वह हरेक चीज में जादू भर देती है
इन क्रमहीन गीतों और छीना-झपटी की बातचीत में बसंत की मस्तियों और नवीनता की तड़पती हुई उम्मीदों का अनुभव होता। भाँति-भाँति के गीतों और तरह-तरह के गानों का अन्तहीन क्रम जारी रहा। ऐसा प्रतीत होता था जैसे कि ये सब लोग किसी समूहगान का अभ्यास कर रहे हों। जिस बेकरी में मैं काम कर रहा था वहाँ विविध प्रकार की इन आवाज़ों का मानों एक धारा बहता हुआ आ रहा था। सब आवाजें एक-दूसरे से कितनी भिन्न थीं किन्तु अपने लुभा लेने वाले आकर्षण में कितनी समान थीं।
और चूँकि मेरे मस्तिष्क पर भी बहार छाई हुई थी इसलिए मेरी कल्पना में एक ऐसी स्त्री थी जो पृथ्वी की प्रत्येक वस्तु से अपार प्रेम करती थी, अतः मैंने यास्का को सम्बोधित करते हुए बुलन्द आवाज में कहा :
है वही गम्भीर...
शातुनोव ने मैली-कुचैली खिड़की की तरफ से मुँह मोड़ लिया और बंजारे के जवाब को अपनी पाटदार आवाज में गुम करते हुए गाने लगा :
और मंजिल सख्त...
तख्ते की दीवार की दरार में से मालिक के कमरे में से बूढ़ी मालकिन की आपत्तिपूर्ण और भिखारिन की-सी आवाज आयी :
‘वासिली प्यारे, वासिली जानी!’
एक हफ्ते से भी ज्यादा हो गया था कि मालिक बुरी तरह पी रहा था। लेकिन अब भी मदिरा-पान का यह दौरा थमता नजर न आता था। नशे में वह इस हद तक चूर हो गया था कि जबान से एक शब्द भी स्पष्ट नहीं निकलता था। हल्कों में उभरी हुई आँखें धुँधली और अप्रतिभ-सी हो गयी थीं, क्योंकि वह अन्धे आदमी की नाईं तनकर और सीधा होकर चलने लगा था। उसका सारा जिस्म इस तरह फूला हुआ और नर्म था जैसे अभी-अभी नदी में से घसीटकर निकाला गया हो। उसके कान पहले से बड़े लगने लगे थे और खड़े हुए मालूम देते थे। होंठ पिचक गये थे और चेहरा वैसे ही इतना भयंकर हो गया था कि खुले हुए जबड़ों में से नजर आते हुए दाँत फालतू मालूम देते थे। कभी-कभी वह अपनी छोटी-छोटी टाँगों को लड़खड़ाता ख्वामख्वाह भारी-भारी कदम रखता हुआ अपने कमरे से बाहर आता और जो भी कोई उसके रास्ते में आता उसी पर बुरी तरह ढह पड़ता। और अपने अप्रतिम नेत्रों से उसे ऐसे भयानक ढंग से घूरता कि मतली आने लगती। उसके पीछे वोदका से भरी हुई एक सुराही और एक गिलास अपने बड़े-बड़े पंजों में दबोच और नशे में उसी कद्र मदमस्त येगोर आता उसके चेचक भरे चेहरे पर लाल और सफेद धब्बे होते। बोझिल आँखें अधखुली होतीं और मुँह इस तरह खुला होता जैसे कि किसी ने अपने जिस्म पर चहका लगा लिया हो और साँस लेने के लिए बेदम होकर मुँह फाड़ रखा हो।
‘मुँह खोले बिना ही वह मुँह ही मुँह में बड़बड़ाता।’
‘हटो, हटो रास्ता दो। मालिक आ रहा है।’
और सबसे आखिर में बूढ़ी मालकिन सिर झुकाए आती। उसकी आँखों से पानी इस कदर रिसता होता मानो अब फौव्वारा छूटा। और जो ट्रे उसके हाथ में है उसको भरना शुरू किया। ट्रे के अन्दर रखी हुई नीली रकाबियों में मछली के कबाब और इसी किस्म के खाद्य बिखरे हुए होते।
कारखाने पर मौत का सा सन्नाटा छा गया था। मालूम होता था कि यहाँ दम घोंट रात ने डेरे डाल दिए हैं। खामोश मतवालों की यह टुकड़ी अपने पीछे तीखी और असह्य दुर्गन्ध के भभके छोड़ जाती। उन्हें देखकर भय और ईर्ष्या मिश्रित भाव उत्पन्न होते और जब वे दरवाजे में से अदृश्य हो जाते तो दो-तीन मिनट तक कारखाने में भयावह निस्तब्धता छाई रहती।
फिर दबी-दबी आवाज में व्यंग्य कसे जाने लगते :
‘पी-पीकर मर जायेगा।’
‘वह? तुम्हारे जीते जी तो मरता नहीं।’
‘ऐ लड़को! तुमने देखा कितने कबाब थे?’
‘खुश्बू बड़े मजे की थी...।’
‘अपने को तबाह कर रहा है वासिली सेम्योनिच...।’
‘कितनी बोतलें पी जाता है गिने तो मजा आये!’
‘अरे तुम तो उतनी एक महीने में भी न पी सको।’
‘तुम क्या जानो?’ सैनिक मिलोव ने कहा। उसकी आवाज़ में यद्यपि विनम्रता थी पर साथ ही अपनी शक्ति पर विश्वास भी। जरा आजमा कर देखो। एक महीना अपने पास से पिलाकर देख लो।’
‘अरे दीवाने हो जाओगे।’
‘चलो अच्छा है। जब तक दीवानगिरी रहेगी तब तक की मौज ही सही।’
मालिक को देखने के लिए मैं कई बार उठकर बाहर बरामदे में गया। येगोर ने बाहर आँगन में एक पुराना पीपा उलटकर धूप में रख दिया था जो दूर से ताबूत मालूम होता था। मालिक नंगे सिर था और बीच में बैठ गया था। उसके दाहिनी तरफ कबाबों वगैरह की ट्रे रखी हुई थी और बाईं तरफ सुराही। मालकिन भी इठलाकर नीचे के एक कोने में बैठ गयी। येगोर मालिक के पीछे उसकी बगलों में हाथ डाले और पीठ को अपने घुटनों का सहारा दिये उसको सम्हाले हुए खड़ा था। खुद मालिक ने अपना सारा बोझ पीछे की तरफ डाल रखा था। और बड़ी देर से पाला खाये हुए पीले आकाश को टिकटिकी लगाए घूर रहा था।
‘येगो... क्या तुम साँस ले रहे हो?’
‘जी हाँ।’
‘क्या हर साँस भगवान की महिमा प्रकट नहीं करती? हम पूछते हैं नहीं प्रकट करती क्या?’
‘नहीं, नहीं, जरूर करती है।’
‘ग्लास भरो।’
मालकिन ने एक भयभीत मुर्गी की तरह फड़फड़ाते हुए वोदका का एक गिलास अपने पति के हाथ में थमा दिया। उसने गिलास अपने मुँह में पैवस्त कर लिया और चुसकियाँ ले-लेकर पीने लगा। मालकिन ने बड़ी फुर्ती के साथ क्रास के छोटे-छोटे चिन्ह बनाये और होंठ इस तरह सिकोड़े जैसे चुम्बन लेने के लिए। यह दृश्य दुखद भी था और हास्यास्पद भी।
फिर उसने आहिस्ता-आहिस्ता मिनमिनाना शुरू किया :
‘येगोर प्यारे! हाय इस तरह तो यह शराब इनकी जान ले लेगी।’
‘तुम मत घबराओ माँ। भगवान की इच्छा के बिना कुछ नहीं होता।’ येगोर ने ऐसी आवाज़ में कहा जैसे मूर्च्छा में हो।
वसन्त ऋतु का सूरज बड़ी आव व ताव में चमक रहा था। बाहर गड्ढों में पानी की सतह और पत्थरों का प्रतिबिम्ब चमचमा रहा था।
एक दिन मालिक ने आकाश और मकानों की छत जाँचते हुए इतने जोर की झोंकी ली कि औंधे मुँह गिरते-गिरते बचा फिर सँभलकर पूछा :
‘यह किसका दिन है?’
‘भगवान का।’ येगोर ने बड़ी कठिनता से उत्तर दिया। क्योंकि अभी वह मालिक को गिरते-गिरते बचा ही रहा था। सेम्योनफ़ अपनी टाँग दिखाते हुए पूछा :
‘यह टाँग किसकी है?’
‘तुम्हारी’
‘झूठा। मैं किसका हूँ?’
‘सेम्योनोव का।’
‘झूठा!’
‘भगवान का।’
‘हः हः हः।’
मालिक ने पाँव उठाया और कीचड़ में जोर का छपका दिया। कीचड़ की छींटें उड़कर उसके सारे चेहरे और सीने पर आयीं।
‘येगोरी’ बुढ़िया गुनगुनाई।
येगोर ने उँगली से इशारा करते हुए कहा, ‘मैं मालिक की आज्ञा का उल्लंघन नहीं कर सकता माँ।’
मालिक ने आँखें झपकाते हुए और अपने चेहरे से कीचड़ की छींटें पोंछने की परवाह किये बिना ही पूछा :
‘क्या उसकी इच्छा के बिना एक बाल भी नहीं गिर सकता?’
‘हाँ अगर उस परम पिता की इच्छा न हो तो।’
‘लाओ इधर लाओ।’
येगोर ने अपने झबरे बालों वाला सिर मालिक के आगे झुका दिया। मालिक ने उस कोसेक के घुँघराले बालों का एक गुच्छा अपनी मुट्ठी में दबोचकर कई बाल नोच लिये। रोशनी में उन्हें बड़ी गौर से देखकर अपना हाथ येगोर के सामने कर दिया।
‘छिपा लो इन्हें कहीं गिर न पड़े।’
येगोर ने सावधानी से तमाम बाल अपने मालिक की मोटी-मोटी उँगलियों में से चुन लिए और हथेली पर रखकर दोनों हाथों को मलकर उनकी एक गोली-सी बना ली और अपनी ढीली-ढीली वास्कट की जेब की तह में कहीं ठूँस दी। उसके चेहरे को देखकर हमेशा ही से ऐसा मालूम होता था जैसे लकड़ी की तलाशी हुई कोई मूर्ति है। उसकी आँखें मुर्दा थीं। जब वह टटोल-टटोलकर कँपकँपाते हुए एक-एक चीज देखता तो पता चलता कि पीने-पिलाने के मामले में वह और भी बदतर है।
‘होशियारी से रखना।’ मालिक हाथ का इशारा करते हुए बड़बड़ाया।
‘हर बात के लिए उत्तरदायी होना पड़ता है। हरेक बात के लिए।’
मालूम होता था कि वे ये सब हरकतें पहले भी कर चुके हैं। उनके सारे क्रिया-कलापों में एक यांत्रिकता नजर आती थी। ऐसा लगता था कि मालकिन को उससे कोई भी दिलचस्पी नहीं है सिर्फ उसके काले और लाल होंठ निरन्तर हिल रहे थे।
‘गाओ!’ सहसा मालिक की भर्राई हुई आवाज आयी।
‘येगोर ने अपनी टोपी पीछे खिसका ली और बड़ा ही भयावना चेहरा बना लिया। और मालिक के पास बैठते हुए मोटी आवाज में गाना शुरू किया :
देखो लड़के आ रहे हैं डान के...
मालिक ने अपना हाथ फैला दिया जैसे कोई भिखारी भीख माँग रहा हो।
हो तरुण कोसेक तुम हो शूर-वार...
मालिक ने अपना सिर उठाया और हुँकारने लगा। और उसके भयावने अप्रतिभ मुख पर बहते हुए आँसुओं की लड़ियाँ देखकर ऐसा जान पड़ता था कि बस अब वह पिघलने ही वाला है।
इन्हीं तमाशों के दौरान में एक बार ओसिप ने जो मेरे पास ही बरामदे में खड़ा था, आहिस्ता से मुझसे पूछा :
‘देखा कुछ?’
‘अच्छा फिर?’
उसने मेरी ओर देखा और फिर मुस्कराने लगा। यह मुस्कान बड़ी दयनीय और निराशाजनक थी। कुछ दिनों से वह बड़ा ही निढाल दिखाई देने लगा था। उसकी मंगोलियन आँखें मालूम होता था जैसे बड़ी हो गयी हैं।
‘हैं, यह क्या?’
ओसिप ने झुककर मेरे कान में कहा :
‘मालदार है, क्यों है ना? सुख चाहिए? लो यह है सुख। याद है वह ...’
जब मालिक का शराबनोशी का दौर चल रहा होता तो क्लर्क साश्का भी कारखाने में इस तरह लड़खड़ाता फिरता जैसे कि वह भी नशे में हो। उसकी आँखें थरथराती और झपकती रहतीं। हाथ लटकते रहते जैसे टूट गये हों। और उसकी सुर्ख लटें चपचपाती हुई माथे पर थिरकती रहतीं। साश्का के चौट्टपन के बारे में कारखाने में हरेक कोई खुले बन्दों बातें करता और स्वीकार सूचक मुस्कराहट से उसका स्वागत करता।
कुजिन तो और भी चिकनी-चुपड़ी बातें मिलाकर क्लर्क के गुण गाता।
‘अरे वह? वह तो बाज की तरह है बाज की तरह। और देख लेना यह हमारा अलिक्सान्दर पितरोफ़ कितनी ऊँची उड़ान भरता है लिख के रख लो यह बात।’