भाग तीन / नानबाई / मकसीम गोरिकी

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सुअरों को किसी ने जहर दे दिया।

दो दिन बाद सुबह को जब मैं सुअरों के दरबे में गया तो पहले की तरह मुझ पर झपटे नहीं बल्कि अंधियारे कोने में एक-दूसरे पर लदे पड़े रहे। अनजानी भारी गुर्राहट सुनाई दीं। लालटेन की रोशनी से मैंने उन्हें गौर से देखा। और मुझे यह देखकर आश्‍चर्य हुआ कि रात भर में जानवरों की आँखें पहले से बड़ी हो गयी हैं और पीली पलकों में दीदे उबल पड़े हैं। उन आँखों से मुझे एक इल्तिजा नजर आ रही थी, खौफ-सा छाया नजर आता था जिसमें एक हद तक शिकायत भी मिली-जुली थी। उनकी उखड़ी-उखड़ी साँस दुर्गन्धमय अन्धकार को दहला रही थी। और इन्सान के कराहने की-सी आवाजें गूँजती सुनाई दे रही थीं।

‘खत्म हो गये?’ मैंने अपने आप ही से कहा। अपने दिल में मुझे एक कसक-सी महसूस हुई।

मैं भटियारखाने में गया और बंजारे को बुलाकर बरामदे में लाया। वह हँसता हुआ और अपनी दाढ़ी-मूँछों पर हाथ फेरता हुआ बाहर आया।

‘क्या तुमने सुअरों को जहर दिलवाया है?’

वह बेचैनी की स्थिति में कभी एक टाँग पर खड़ा हुआ, कभी दूसरी पर फिर बड़ी उत्सुकता से पूछा :

‘मर गये क्या? आओ जरा चलकर देखें।’

आँगन में उसने चिढ़ाते हुए पूछा :

‘मालिक से कहने जा रहे हो?’

‘मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। दाढ़ी के बालों को अपनी उँगली में लपेटते हुए उसने लज्जित हो कहा :

‘याश्का की कारस्तानी है यह! बदमाश कहीं का। उसने हमें बातें करते सुन लिया था। और कल क्या कहता है मुझसे, ‘चचा याश्का मैं करूँगा यह काम! मैं पिलाऊँगा उन्हें नमक का पानी! मैंने उससे कहा, ‘कहीं कर ना बैठना ऐसा...।’

डरबे के दरवाजे पर रुककर और आँखें सिकोड़कर अँधेरे में झाँकते हुए जहाँ जानवरों की उखड़ी हुई साँस की गर-गर और फश-फश सुनाई दे रही थी– उसने अपनी ठोढ़ी खुजाई, माथे पर शिकनें डालीं और तुर्श लहजे में कहा :

‘कितना सड़ियल काम है यह! झूठ बोलने में तो मैं पटु हूँ। और सच तो यह है कि मुझे यह अच्छा लगता है। लेकिन कभी-कभी तो ऐसा होता है कि मुझसे झूठ बोला ही नहीं जाता... बोलते ही नहीं बनता।’

वापसी पर सर्दी में सिकुड़ते हुए, बड़बड़ाते हुए उसने मेरी आँखों में आँख डालकर देखा और चबा-चबाकर बोलते हुए कहा :

‘अरे तूफान खड़ा हो जायेगा। मालिक तो अपने आपे में न रहेगा याश्का की तो समझो गर्दन मोड़ कर रख देगा।’

‘याश्का से इसका क्या सम्बन्ध?’

‘लेकिन हुआ तो यही है।’ बंजारे ने आँखें मारते हुए कहा। ‘हमारे यहाँ हमेशा यही होता है कि करें बड़े और भुगतें छोटे।’

यह कहकर उसने फौरन ही मुझे घूरा और चुभती हुई निगाहों से देखता हुआ और यह बड़बड़ाता हुआ दालान में चला गया :

‘जाओ शिकायत कर दो।’

मैं आका के पास गया। वह अभी-अभी सोकर उठा था। उसका चेहरा मुर्झाया हुआ और मटियाला-सा था। उसके स्याह बाल समतल खोपड़ी के गूमड़ों पर चिपके हुए थे। टाँगें चीरे वह मेज के सामने बैठा था उसकी लम्बी गुलाबी कमीज घुटनों तक खिंची हुई थी और कमीज के दामन में लिपटी लिपटाई एक भूरी बिल्ली बैठी थी।

मालकिन चाय के लिए मेजें सजा रही थी और जब वह कमरे में इधर से उधर जाती तो ऐसा मालूम होता था कि जैसे कोई छिपे हुए हाथ चिथड़ों की किसी पोटली को घसीट रहा हो।

‘क्या बात है?’ उसने कुछ मुस्कराते हुए पूछा। ‘सुअर बीमार हो गये हैं।’

उसने बिल्ली को उठाकर मेरे कदमों में फेंक दिया और मुट्ठियाँ भींचकर बैल की तरह मुझ पर झपटा। उसकी दाहिनी आँख से शोले से निकल रहे थे और बायीं आँख सुर्ख होती जा रही थी, उसमें आँसू डबडबा आये थे।

‘क्या-क्या?’ उसने हाँफते हुए कहा।

‘जरा जल्दी से डाक्टर को बुला लाओ।’

मेरे करीब आते हुए उसने मसखरेपन से अपने कानों पर हाथ फेरे जो यकायक सूजे हुए मालूम हो रहे थे और नीले पड़ गये थे। उसने दुख भरे स्वर में कुछ अजीब ढंग से गुर्राते हुए कहा :

‘बदमाश कहीं के! मुझे मालूम है क्या मामला है?’

मालकिन भी सरकती हुई करीब आ गयी और मैंने उसकी कँपकँपाती हुई, भर्राई आवाज पहली बार सुनी।

‘पुलिस को बुलाओ! वासिया, जल्दी पुलिस को बुलाओ।’

उसके मुरझाये हुए चीथड़ों जैसे गाल लरज रहे थे मारे डर के उसका बड़ा-सा मुँह खुला का खुला रह गया था और असमान स्याह दाँत दिखाई देने लगे थे। आका ने उसे बड़ी बेदर्दी से एक तरफ ढकेल दिया। दीवार पर लटके हुए कुछ कपड़े घसीटे और उसकी पोटली बगल में दबाकर दरवाजे की तरफ लपका।

लेकिन बाहर आँगन में पहुँचकर सुअरों के डरबे में झाँककर और जानवरों की उखड़ी-उखड़ी साँसें सुनकर उसने संतोष के साथ कहा :

‘तीन आदमियों को बाहर बुला लाओ।’

और जब शातुनोक, आर्तेम और भूतपूर्व सैनिक भटियारखाने से बाहर आ गये तो उसने हमारी तरफ देखे बगैर ही तड़खकर कहा :

‘बाहर निकालो इन्हें।’

हम चार गंदी लाशों को उठाकर लाये उन्हें आँगन में डाल दिया। आसमान पर हल्की-सी रोशनी फैल गयी थी। जमीन पर रखी हुई लालटेन आहिस्ता-आहिस्ता गिरते हुए बर्फ के गालों पर और सुअरों के भारी सिरों पर किरणें डाल रही थीं। सुअरों में से एक का दीदा आँख में से निकल पड़ा था जैसे कि काँटें में फंसी हुई मछली का दीदा।

अपने कन्धों पर लोमड़ी के समूर का कोट डाले और आखिरी साँसें लेते जानवरों पर सिर झुकाए आका खामोश और अचल खड़ा था।

‘जाओ, अपना काम करो! येगोर को यहाँ भेज दो।’ उसने खोखली आवाज में कहा :

‘बड़ा सदमा हुआ है उसे!’ जब हम बरामदे में पड़ें हुए बोरों के पास पहुँचे तो आर्तेम ने सरगोशी में कहा, ‘ऐसा धक्‍का पहुँचा है उसे कि नाराज होना भी भूल गया।’

दालान में मैं सबसे पीछे रह गया। और दरारों में से झाँककर सहन में देखा कि लालटेन की रोशनी सुबह के अँधेरे से जूझ रही थी। उसकी रोशनी में चार सफेद बोरे मुश्किल से दिखाई दे रहे थे जो सीटी-की-सी आवाज और एक किस्म की घड़घड़ाहट के साथ कभी फूल जाते और फिर पिचक जाते थे। मालिक नंगे सिर उन पर झुका हुआ था। उसके बालों की लटें चेहरे पर बिखरी हुई थीं। इसी हालात में वह बहुत देर तक चुपचाप खड़ा रहा। समूर के कोट से ढंका हुआ उसका शरीर घण्टी की भाँति दिखाई दे रहा था। फिर मैंने सूँ-सूँ की आवाज और इन्सानी खुसर-पुसर की आवाज सुनी।

‘क्या हुआ मेरे प्यारो। दुख होता है? बेचारे... त्व-त्व...।’

ऐसा मालूम हुआ जैसे जानवर और ज्यादा जोर से साँस लेने लगे हों।

उसने अपना सर उठाया, चारों तरफ देखा और मुझे ऐसा दिखाई दिया कि उसके गाल आँसुओं से तर थे। अब उसने अपने दोनों हाथों से आँसू पोंछ डाले थे और एक रंजीदा बच्चे की तरह वहाँ से परे हट गया, खाली पीपे में से मुट्ठी भर घास निकाली, वापस गया और जमीन पर बैठकर सुअर की गन्दी थूथनी पोंछने लगा। फिर जैसे चौंककर घास फेंक दी, उठ खड़ा हुआ और आहिस्ता-आहिस्ता सुअरों के गिर्द घूमने लगा।

एक चक्‍कर लगाया, फिर दूसरा जरा तेज कदमों से, फिर तो एकदम उसने दौड़ लगाना शुरू कर दी। उछलता-कूदता, घूँसे तानकर और बेतहाशा तेज दौड़कर चक्‍कर लगाने लगा उसके कोट के दामन टाँगों में फरफरा रहे थे वह उनमें उलझ गया और गिरते-गिरते बचा। और फिर मुण्डियाँ हिलाता, मुँह बिसूरता रुक गया। आखिरकार– यह भी अचानक हुआ जैसे कि उसकी टाँगों में दम न रहा हो। कूल्हे टिकाकर वह जमीन पर बैठ गया और जैसे तातारी लोग प्रार्थना के बाद करते हैं उसने हथेलियों से अपना चेहरा मलना शुरू कर दिया।

‘पुच-पुच... मेरे नन्हे-मुन्‍ने जानवरों पुच-पुच।’

येगोर झूमता-झामता, मुँह में पाइप दबाए एक कोने के पीछे से प्रकट हुआ। पाइप की चिंगारी कभी-कभी उसके अँधेरे में छिपे हुए चेहरे को रोशन कर देती थी। जो ऐसा मालूम होता था जैसे किसी ने एक गठीले तख्ते को जल्दी-जल्दी तराशकर इन्सानी चेहरे की शक्ल दे दी हो। उसके सुर्ख कान की मोटी-सी लौ में बाली भी चमक उठती थी।

‘येगोरी!’ मालिक ने आहिस्ता से आवाज दी।

‘हाँ।’

‘जानवरों को उन्होंने जहर दे दिया है।’

‘उसने?’

‘नहीं।’

‘तो फिर किसने?’

‘याश्का और आर्त्युखोव ने। कुजिन ने मुझे बताया है।’

‘तो क्या ठोकें उनको?’

उठकर खड़े होते हुए आका ने थकी हुई आवाज में कहा :

‘नहीं, अभी ठहरो।’

‘कितने नीच है ये सब।’ येगोर गुर्राया।

‘हाँऽऽ..., नहीं। लेकिन मैं पूछता हूँ जानवरों का क्या कसूर था, इसमें?’

येगोर ने जमीन पर थूका लेकिन थूक इत्तेफाक से उसके जूते पर जा गिरा। फिर उसने अपना पैर उठाया और अपने कोट के दामन से जूता पोंछ डाला।



सफेद, ठण्डा असमान छोटे से आँगन पर शामियाने की तरह झुका हुआ था। जाड़ों का उजाड़-उजाड़ दिन बड़ी अनिच्छा से निकल रहा था।

येगोर दम तोड़ते हुए जानवरों के पास गया।

‘इन्हें मार डालना चाहिए।’

‘किसलिए?’ मालिक ने सिर को झटका देकर पूछा। ‘जी लेने दो जब तक जीते हैं!’

‘मैं तो इन्हें मारकर रहूँगा और फिर हम इन्हें भटियारे के हाथ बेच देंगे। इनका गोश्त तो नहीं बेचा जा सकता।’

‘भटियारा इन्हें नहीं लेगा।’ सेम्योनाव ने जमीन पर बैठ और एक सुअर की सूजी हुई गर्दन टटोलते हुए कहा।

‘क्या बातें करते हो, लेगा क्यों नही? मैं कहूँगा कि तुम इनसे उकता गये थे इसलिए इन्हें जिबह करा दिया। मैं कहूँगा कि ये बिल्कुल तन्दुरुस्त थे।’

मालिक खामोश हो गया।

‘अच्छा बोलो अब इनका क्या किया जाये?’ येगोर ने जोर दिया।

‘क्या?’

आका उठ खड़ा हुआ और एक बार फिर सुअरों के चारों तरफ आहिस्ता-आहिस्ता टहलने लगा और दबी आवाज में गुनगुनाने लगा :

‘नन्हे-मुन्‍ने, मेरे प्यारे-प्यारे...।’

वह रुक गया चारों तरफ देखा और अनायास बोल पड़ा :

‘कर दो जिबह!’

हम जबरदस्त तूफान बरपा होने, नौकरियों से बरखास्त होने की आशा कर रहे थे। हमारा विचार था कि मालिक सजा के तौर पर एक और बोरा नानखताईयाँ बनवाने के लिए डलवा देगा। बंजारा बहुत दुखी नजर आ रहा था लेकिन वह बनने की कोशिश कर रहा था और कृत्रिम लापरवाही से जोर-जोर से कह रहा था :

‘सेंको और जोश दो!’

कारखाने में घुटी-घुटी खामोशी छाई हुई थी। सब मजदूर मुझे प्रकोपपूर्ण द‍ृष्‍टि से देख रहे थे और कुजिन बड़बड़ा रहा था :

‘सजा सभी को मिलेगी– कसूरवार को भी और बेकसूर को भी...।’

वातावरण और भी दूषित हो गया। बातों-बातों में झगड़े होने लगे। और जब हम खाना खाने बैठे तो सिपाही मिलोव जबड़े चीरकर मुस्कराने लगा और फिर मूर्खतापूर्ण ठहाका उसने लगाया और कुजिन की पेशानी पर अपने चमचे से ठोंग मार दी।

बूढ़े ने कराहते हुए अपना सिर हाथों में दबा लिया। अपनी इकलौती आँख से आश्‍चर्यचकित होकर चारों तरफ देखने लगा और बिसूरते हुए बोला :

‘भाइयो! यह क्यों?’

एक आम शोर व गुल बुलंद हो गया। बीच-बीच में गालियाँ सुनाई देती थी और तीन आदमी मुक्‍का ताने सिपाही पर बरस पड़ने को पर तोलने लगे। और वह दीवार से टेक लगाये हँसी के साथ फुदकने लगा और बोला :

‘यह मक्‍कारी की सजा है। येगोर ने मुझे सब बता दिया है...। आका जानता है कि सुअरों को जहर किसने दिया है...।’

पीला चेहरा और कुछ अजीब तनी हुई-सी हालत में बंजारा तंदूर के पास बैठा-बैठा एकदम कुजिन पर झपटा और उसकी गुद्दी दबोच ली।

‘फिर? अबे इस तेरी जबान ने जो तेरी मरम्मत कराई है उससे पेट नहीं भरा क्या! नीच बदमाश कहीं के?’

‘तुम कहोगे कि शायद सच नहीं है यह!’ कुजिन ने अपने मुरझाये हुए छोटे से चेहरे को छिपाते हुए थरथराती हुई बूढ़ी आवाज में कहा, ‘क्या तुमने शुरू नहीं किया था यह सब कुछ? क्या मैं सुन नहीं रहा था कि तुमने बड़बड़िये से यह काम कराने की कोशिश की थी?’

बनजारे ने गुर्राते हुए अपना मुक्‍का ताना। लेकिन आर्तेम उसके कंधे पर लटक गया।

‘मारो नहीं याश्का! छोड़ो, जाने भी दो।’

अब खींचातानी शुरू हो गयी। याश्का, शातुनोव और आर्तेम की पकड़ से निकलने के लिए लातें चला रहा था, भन्‍ना रहा था। और ‘आओ एक-एक करके लड़ लो! आओ हिम्मत हो तो!’

विकृत और जमा हुआ खून खराब खाने और दूषित वायु के कारण विषाक्त, संतोष तथा दैन्य से सहे हुए अत्याचार के विषय में बुझा हुआ रक्त आज इन लोगों के सिर पर चढ़ आया था; चेहरे सुर्ख हो गये थे; कानों में से ज्वालाएँ निकल रही थीं, लाल-लाल आँखें अन्धे गुस्से में चमक रही थीं और कटकटाते हुए दाँतों ने तमाम चेहरों को हवन्‍नक और विकृत कर दिया था।

आर्तेम दौड़ता हुआ आया और लेस्चोव के जंगलियों जैसे मुँह के सामने आकर चीखा :

‘मालिक आ गया।’

हुल्लड़बाजी इस प्रकार समाप्त हो गयी जिस प्रकार आँधी के सामने कूड़ा-करकट गायब हो जाता है। हर व्यक्ति अपनी जगह पर वापस आ गया। पलक झपकाते ही निस्तब्धता छा गयी। केवल थकावट और क्रोध के कारण फूली हुई साँस की धोंकनियाँ सी चलती सुनाई दे रही थीं। और चमचे दबोचे हुए हाथ कँपकँपा रहे थे।

दो नानबाई बेकरी के दरवाजे की मेहराब के अंदर खड़े थे एक तो था चुस्त व चालाक याकोव विश्‍नेवस्की और हृष्‍ट-पुष्‍ट, दमे का रोगी वाश्किन जिसका चेहरा ईंट जैसा लाल था और आँखें उल्लू जैसी गोल। उसकी कुपित आँखें बड़ी भयंकर मालूम हो रही थीं।

‘छोड़ दो मुझे! आज मैं इसे जान से मारकर ही दम लूँगा...

सत्यवादी, नाटे कद के बूढ़े की मैली कमीज का गरेबान बनजारे की मुट्ठी में था। उसके मुँह से झाग निकल रहे थे और वह हकला-हकलाकर कहे जा रहा था :

‘अगर कोई बात न होगी तो मैं कुछ भी न कहूँगा। लेकिन अगर बदमाशियाँ होती रहीं तो मैं कहूँगा और जरूर कहूँगा। हाँ कहूँगा चाहे तुम मेरी तिक्‍का-बोटी ही क्यों न कर डालो बदमाशों!’

यह कहकर वह अचानक याश्का पर धड़ाम से गिर पड़ा। उसके सर पर जोर का दुहत्तर मारकर उसे जमीन पर दे पटका। दो-तीन लातें रसीद कीं और युवकों की सी आश्‍चर्यजनक फुर्ती से उसका बदन रौंदना शुरू कर दिया।

‘तूने, तूने! हरामी पिल्ले तूने डाला था नमक... तूने।’

आर्तेम ने एक छलाँग लगाई और बूढ़े के सीने पर अपना सिर दे मारा। बूढ़ा एक चीख मारकर फर्श पर गिर पड़ा और वहीं पड़े-पड़े कराहता रहा।

झल्लाया हुआ याश्का मोटी-मोटी गालियाँ देता हुआ और सिसकियाँ भरता हुआ शेर की तरह उस पर झपटा और झट से उसकी कमीज फाड़कर उसे बेतहाशा मुक्‍के मारने शुरू कर दिये। और मैं उसे रोकने की कोशिश करता रहा। हमारे इर्द-गिर्द जन्‍नाटें के साथ लातें चल रहीं थीं धमाचौकड़ी हो रही थी और धूल व गर्द के बादल छा गये थे। जंगलियों की नाईं दाँत निकाले बनजारा दीवानों की तरह चीख रहा था। बड़े जोर का मल्ल आरम्भ हो चुका था। खुद मेरे पीछे से मुक्‍कों के धमाकों और दाँतों के कटकटाने की आवाजें आ रही थीं। घुँघराले बालों वाला एक भैंगा जिसका नाम लेचस्व था, मेरे कंधे हिलाकर ललकारा :

‘क्यों, क्या दो-दो हाथ भी नहीं होंगे?’ वाश्किन ने निराश व उदास स्वर में कहा। विश्‍नेवस्की ने अपने छोटे-से हाथ से जिस पर जले हुए के बहुत से निशान थे, अपनी बारीक मूँछों को मरोड़ते हुए बकरी की तरह मिमिया कर कहा :

‘अबे गँवारों। आटे के कीड़ों।...’

सभी का भरा हुआ गुस्सा उन पर उतरा। कारखाने के सब आदमी उन्हें बुरी तरह गालियाँ देने लगे। उन नानबाईयों से सभी को नफरत थी। उनका काम हमसे आसान था और तनख्वाहें ज्यादा। उन्होंने भी गालियों का जवाब गालियों से दिया। करीब था कि हाथापाई शुरू हो जाता कि अचानक रोता-बिसूरता हवन्‍नक याश्का मेज पर से उठा और डगमगाते हुए कदमों से जाने लगा। और फिर अपना सीना दबोचकर औंधे मुँह फर्श पर गिर पड़ा।

मैं उसे उठाकर डबलरोटी की बेकरी में ले गया जो अपेक्षाकृत अधिक साफ-सुथरा और हवादार थी। वहाँ ले जाकर मैंने उसे आटे के एक पुराने पीपे पर लिटा दिया। उसका चेहरा पीले हाथी दाँत की तरह पीला पड़ गया था। और वह ऐसा निश्‍चल व निस्पन्द पड़ गया था जैसे मुर्दा। शोर-गुल आहिस्ता-आहिस्ता खत्म हो गया। किसी आने वाली मुसीबत का खतरा मंडराता हुआ सा नजर आ रहा था। हर शख्स सहम गया था और दबी-दबी आवाज में कुजिन की निंदा कर रहा था :

‘तेरा ही किया-धरा है यह सब। काणे शैतान।’

‘बदमाश जेल की हवा खाने के काबिल है।’

बूढ़ा गुस्से में जवाब दे रहा था :

‘सब बकवास है। इसे तो कोई दौरा-वौरा पड़ गया है।’

आर्तेम और मैं लड़के को होश में लाये। उसने अपनी चुस्त, मनोहर आँखों की लम्बी-लम्बी पलकें आहिस्ता से उठाई और बेजान आवाज में पूछा :

‘क्या हम आन पहुँचे?’

‘अबे आन कहाँ पहुँचे मरदूद।’ उसके भाई ने चिंतित हो कहा।

‘हर जगह अपनी टाँग अड़ाता फिरता है। मैं भी अब तेरी खूब ही ठुकाई करूँगा। गिर क्यों पड़ा था बे?’

‘कहाँ पे?’ उसने आश्‍चर्य से भवें सिकोड़ते हुए कहा। ‘मैं क्या गिर पड़ा था? भूल गया हूँगा।... मैंने एक सपना देखा था। हम एक नाव में थे– तुम और मैं। केकड़े पकड़ रहे थे।... हम खाना भी ले गये थे और एक बोतल वोदका की भी...।’

कुछ थकावट महसूस करते हुए उसने अपनी आँखें बन्द कर लीं। फिर थोड़ी देर बाद मुरझाई हुई आवाज में आहिस्ता-आहिस्ता बड़बड़ाना शुरू कर दिया :

‘अब मुझे याद आया। मेरे दिल में इस जोर का दर्द उठा कि मालूम होता था निकल पड़ेगा। कुजिन ने किया है यह। मुझे उससे नफरत है। मेरी साँस अच्छी तरह नहीं आ रही। गधा कहीं का। मैं जानता हूँ उसे– अपनी पत्‍नी को मार-पीटकर मार डाला था उसने। अपनी बहू पर भी नियत बिगाड़ बैठा था। हम दोनों एक ही गाँव के हैं इसलिए मुझे सब मालूम है।’

‘अच्छा अब चुप तो रह।’ आर्तेम ने डाँट कर कहा, ‘बस अब सो जा।’

‘हमारे गाँव का नाम योगिल्देयेवो था। बातें करने से मेरे दर्द होता है वरना मैं–’

वह ऐसे बोल रहा था जैसे कि अब नींद के गोते में आने ही वाला है और बीच-बीच में अपने सूखे, काले होंठों को जीभ से तर करता जाता था।

बेकरी में से कोई दौड़ता हुआ और मारे खुशी के चीखता हुआ आया।

‘अरे भाइयो! और उड़ाओ! मालिक अब फिर नशे में धुत है।’

पूरा कारखाना गगनभेदी कहकहों और सीटी की तेज आवाजों से गूँज उठा। हर शख्स एक-दूसरे को भलमनसाहत, खुशी और उत्साह भरी द‍ृष्‍टि से देख रहा था। सुअरों के कारण मालिक के बदले के भय ने आग लगाई हुई थी और अब उसकी मदहोशी के दौरान में कम काम किया जा सकता था।

वानुक उलानोव जो लड़ाई-झगड़े के मौकों पर धूर्तता से गायब हो जाता था अब एक छलाँग मारकर बीच कारखाने में आ कूदा और उसने नारा लगाया :

‘आओ गाएँ!’

बंजारे ने आँखें बन्द करके गला साफ करके बारीक और तेज आवाज में गाना शुरू कर दिया :

एक कच्ची दाढ़ी वाला नौजवां है आ रहा

वह रंगीला जोश-मस्ती में अकड़ता-झूमता।

बीस आदमियों ने मेज पर ताल दी और गाने में शामिल हो गये।

दाढ़ी देखो उसकी लहराती हुई

बंजारे ने अगली पंक्ति गाई, पाँव से ताल देता रहा और सबने मिलकर बेतुकी पंक्ति को इस प्रकार पूरा किया :

साँप की मानिन्द बलखाती हुई

चिकटे हुए फर्श पर कोई नर्म व नाजुक आकृति वाला ठुमकियाँ और मरोड़ियाँ देकर केंचुलीदार कीड़े की तरह बल खा रहा था और इस तरह धूल के बादल उड़ने लगे थे।

‘शाबाश नौजवान! डटे रहना!’ एक जोरदार नारा बुलन्द हुआ और खुशी व शादमानी का यह तूफान अभी हाल के प्रकोप व गुस्से से कुछ कम हेय और दुखद न था।

रात को झुनझुने की हालत और भी खराब हो गयी। बुखार तेज हो गया और साँस कुछ उखड़ी सी नजर आयी। हिचकियाँ ले-लेकर गंदी और बदबूदार हवा साँस के साथ उसके फेफड़ों में जाती और सिकुड़े हुए होंठों में से फौव्वारे की तरह निकलती। मानो वह मुँह से सीटी बजाने की कोशिश कर रहा हो। लेकिन पूरी ताकत लगाकर एक-दो घूँट लेकर ही बस कर देता। और अपनी धुँधली आँखों की मधुर मुस्कान के साथ धीरे से कहता :

‘मेरा ही कसूर है! बस और नहीं पीना चाहता...।’

मैंने उसके बदन पर वोदका और सिरके की मालिश की और वह थोड़ी ही देर में बेखबर सो गया। उसके चेहरे पर आटे की गर्द जमी हुई थी और हलकी सी मुस्कराहट खेलती हुई नजर आ रही थी। उस के घुँघराले बाल कनपटी पर चिपक गये थे और खुद वह ऐसा मालूम होता था कि पिघलकर पानी-पानी हो गया हो। गंदी, फटी-चिथड़ी कमीज आटे में बुरी तरह लिथड़ी हुई थी। इस कमीज के नीचे उसके सीने में सिर्फ हल्की-सी हरकत का संदेह होता था।

सब लोग मुझ पर गुर्राये :

‘अच्छा बस अपनी डाक्टरी रहने दो। इस तरह व्यर्थ समय गँवाना हमको भी आता है।’

मुझे बड़ा ही दुख हुआ। और इस बात का बड़ी तेजी से मुझे अहसास होने लगा कि मैं उन लोगों में बिना बुलाया अजनबी हूँ। सिर्फ आर्तेम और याश्का ही शायद मेरे भावों को समझते थे। बंजारे याश्का ने खुशमिजाजी से कहा :

‘हँसी-खुशी रहो! ओ नन्ही-मुन्‍नी छोकरी जरा आटा गूँध ले। देख तो तेरे प्रेमी कैसे-कैसे उपहार लिये तेरी प्रतीक्षा में खड़े हैं।’

आर्तेम भी मेरे साथ छेड़खानी करता रहा। उसने बड़ी कोशिश की कि वह मुझसे दिलचस्प मजाक करे लेकिन आज वह भी असफल रहा। और आखिरकार ठण्डी साँस लेकर दुख भरी आवाज में उसने मुझसे दोबारा पूछा :

‘क्यों, क्या तुम्हारा ख्याल है कि याश्का को बहुत खतरनाक चोट आयी है?’

शातुनोव ने हमेशा से ज्यादा गला फाड़कर अपना मनोनीत गीत गाना शुरू किया–

जरा झाँकना तंग गलियों के अन्दर

जरा देखना आम रास्तों पे जाकर

कि मेरे गम व ऐश हमराह लेकर

कहाँ खो गया आज मेरा मुकद्दर

रात को मैं झुनझुने के पास ही फर्श पर सोया। अभी मैं बोरियाँ बिछा ही रहा था कि वह उठ बैठा और चौंककर बोला :

‘कौन है यह? क्या तुम हो बड़बड़िये?’

उसने उठकर बैठने की कोशिश की; लेकिन बैठ न सका और फिर लेट गया। उसका सिर स्याह चीथड़ों के तकिये पर बेजान होकर गिर पड़ा।

सब सो रहे थे। गहरे साँस लेने की सरसराहट हो रही थी और बलगम की खाँसी घुटी हुई बदबूदार हवा में थरथराहट पैदा कर रही थी। खिड़की के मैले और धुँधले शीशों में से गहरी नीली रात के तारे सर्द आँखों से घूर रहे थे। तारे इतने छोटे और इतने दूर दिखाई दे रहे थे कि दिल पर उदासी छाई जाती थी। बेकरी के एक कोने में दीवार पर लगी हुई तेल की डिबिया जल रही थी। और उसकी मद्धम रोशनी में ताक में रखे हुए रोटी के साँचे धुँधले-धुँधले दिखाई दे रहे थे डबलरोटियों से गंजी खोपड़ियों का शक होता था। आटे के एक बड़े तसले पर गूँगा निकान्दर सिकुड़ा-सिकुड़ा गेंद बना पड़ा था और नानबाई की पीली नंगी टाँग जिस पर कई घाव थे उस मेज के नीचे से झाँक रही थी जिस पर डबलरोटियाँ तोली और बण्डलों में बाँधी जाती थीं।

याश्का ने आहिस्ता से आवाज दी :

‘बड़बड़िये!’

‘क्या?’

‘मुझे बड़ी तकलीफ हो रही है...।’

‘अच्छा आओ हम बात करें। मुझे कोई किस्सा सुनाओ...’

‘क्या कित्था थुनाऊँ? किथी देवता ता कित्था थुनाऊँ?’

‘चलो देव का ही सही...।’

थोड़ी देर तक वह खामोश रहा। फिर डिब्बे पर से कूदकर नीचे लेट गया। झुलसता हुआ सिर मेरे सीने पर रख लिया और आहिस्ता-आहिस्ता तल्लीनता की स्थिति में कहना शुरू किया :

‘मेरे पिता के जेल जाने थे पहले की बात है। गर्मियों का मौसम था और मैं बिलकुल छोटा-सा था। मैं बाहर थो रहा था थूथे की गाड़ी में। बड़ा मजा आ रहा था। एकदम मेरी आँख खुल गयी। दरवाजे के थामने वष कूद रहा था– बहुत छोटा था था मुट्ठी थे भी बड़ा नहीं था। दत्थाने की तरह उथ पर बाल ही बाल थे। भूरे और हरे। आँखें भी उथके नहीं थीं। मैं चिल्लाने लगा। माँ ने मुझे जगा दिया। मुझे चिल्लाना नहीं चाहिए था, उथको डराना नहीं चाहिए नहीं तो वह नाराज हो जाता है और फिर चला जाता है और लौटकर नहीं आता यह बड़ी बुरी बात है। जिथ घर में देव नहीं होता उथ घर में भगवान की दया नहीं उतरतीं तुम्हें मालूम है देव कौन होता है?’

‘नहीं! कौन होता है?’

‘वे देवताओं के द्वारा भगवान को थूचना भेजते हैं। देवता आथमान से उतरते हैं और थुना है कि वे हम लोगों की जबान नहीं थमझे, नहीं तो वे अपवित्र हो जाते हैं। और आदमियों को भी देवताओं की बात नहीं थुननी चाहिए ...।’

‘क्यों नहीं सुननी चाहिए?’

‘इथलिए नहीं थुननी चाहिए कि मेरे ख्याल में तो यह शर्म की बात है। देखते नहीं इथ जबान ने लोगों को भगवान की ओर से कितना विमुख कर दिया है?’

उसे जोश आ गया और उठकर बैठ गया। और वह जल्दी-जल्दी बोलने लगा बिल्कुल जिस तरह तन्दुरुस्ती की हालत में बोला करता था।

हर आदमी परमात्मा थे थीघा जाकर कह देता है कि उथे क्या चाहिए लेकिन नहीं बीच में देव है– तभी वह लोगों थे नाराज हो शायद लोग उथे खुश नहीं करते और देवताओं थे झूठी बातें कह देगा। थमझे कुछ? अब वे उससे पूछते हैं यह किथान कैथा है? और वह चूँकि नाराज होता है इथलिए कहता है वह तो खराब आदमी है और फिर मैं तुम थे शर्त लगाता हूँ कि उथ आदमी के घर में मुथीबतों का पहाड़ टूट पड़ेगा। लोग चीखते-चिल्लाते हैं– हे परमात्मा हम पर दया कर– और लोगों को मालूम नहीं होता कि उनकी शिकायत कर दी गयी है। वह उनकी बात नहीं थुनता और वह भी इनथे नाराज हो जाता है।’

लड़के के चेहरे पर दुख के बादल छा गये थे और वह गम्भीर हो गया था। उसने अपनी आँखें घुमाईं और छत को घूरने लगा जो जाड़ों के आकाश की तरह सफेद थी! और गीले धब्बे बादलों जैसे दिखाई दे रहे थे।

‘तुम्हारे पिता की मृत्यु कैसे हुई?’

‘वह अपनी ताकत की बड़ी डींगें हाका करते थे। यह उथ जमाने की बात है जब वह जेल में थे उन्होंने कहा कि मैं पाँच आदमियों को हरा थकता हूँ। उनथे कहा कि वे एक दूथरे की कमर में हाथ डाल लें और फिर उन्होंने उन्हें उठाना शुरू किया और उनका दिल फट पड़ा। खून निकलता रहा और वह मर गये।

झुनझुने ने एक ठण्डी साँस भरी और दोबारा मेरे पास लेट गया। उसने अपने तमतमाते हुए कल्ले मेरे हाथों पर रगड़े और अपना किस्सा फिर शुरू कर दिया।

‘वह बड़े पहलवान थे। मन भर का वजन उठाकर वह बगैर दम लिए बारह बार अपने ऊपर क्रास का निशान बना लेते थे। मगर उन्हें काम ही नहीं मिलता था और जमीन भी बड़ी थोड़ी थी, बहुत ही थोड़ी–मालूम नहीं कितनी थी। पेट भरने को कुछ भी नहीं था, बिल्कुल कुछ भी नहीं। भीख माँगो जाकर और बथ। मैं छोटा था लेकिन मुझे भी ततारियों थे भीख माँगने जाना पड़ता था। हमारे गाँव में सब तातारी हैं, पर है, अच्छे तातारी। एथ जो हमेशा कहते हैं, लो भई! ये लो जाओ। थब एथ ही हैं। अच्छा तो हमारे पिताजी ने घोड़े चुराना शुरू कर दिये। उन्हें हम पर बड़ा तरस आता था।’

उसकी बारीक आवाज थर्रा गयी थी और धीरे-धीरे थकी-सी होती जा रही थी। लड़का बूढ़े आदमी की नाईं खाँसकर और ठण्डी साँस भरके बोला :

‘जब वह घोड़ा चुरा लाते तो फिर थब ठीक हो जाता। हमारे पाथ खाने को होता और हम थब बहुत खुश होते। माँ तो रो-रोकर आँथें थुजा लेती थी... लेकिन ऐसे मौकों पर वह भी शराब पीती और गीत गाती। बड़ी अच्छी थी, थबको प्यार करती थी... पिताजी के मरने पर रो-रोकर कहती थी, ‘हाय मेरे प्यारे, मेरी आत्मा!’ गाँव वाले मेरे पिताजी को लाठियों से मारा करते थे। लेकिन वह किसी की परवाह नहीं करते थे। आर्तेम को फौज में भरती होना था। हम थोचते थे कि वह बूढ़ी औरत मालूम होता था। तंदूर के कोने के पीछे एक हाथ मे वोदका की बोतल दूसरे में आंजूरा लिये वह कुछ चोरों की तरह छिपा खड़ा था। उसके हाथ कँपकँपाते मालूम हो रहे थे। शीशे टकराने और कलकल की आवाज आ रही थी जैसे कोई शराब निकाल रहा हो।

‘यहाँ आओ!’ उसने मुझे आवाज दी और जब मैं क़रीब पहुँच गया तो एक झटके के साथ शराब का गिलास बढ़ाया और कुछ छलका भी दी; ‘लो पियो!’

‘मैं तो नहीं पीना चाहता!’

‘नहीं क्यों?’

‘यह कोई वक्त नहीं है।’

‘अगर कोई शराब पीता है तो पीने के लिए हर वक्त ठीक है। पियो!’

‘मैं शराब पीता नहीं!’

उसने अपना भारी सिर हिलाया।

‘मुझसे तो किसी ने कहा कि तुम पीते हो!’

‘एकाध गिलास वह भी उस समय जबकि मैं थक जाता हूँ।’

उसने दाहिनी आँख से गिलास को घूरा और एक गहरी ठण्डी साँस भरकर वोदका तंदूर के मुँह में फेंक दी। फिर तंदूर पर चढ़ गया और उसके मुँह में पाँव लटकाकर बैठ गया।

‘बैठ जाओ। मैं तुमसे कुछ बातें करना चाहता हूँ।’

अँधेरे में मुझे उसका थाली सा चेहरा तो नजर नहीं आ रहा था लेकिन आवाज सुनकर मुझे बड़ा आश्‍चर्य हुआ। इसलिए कि वह कुछ विलक्षण रूप से अनजानी-सी प्रतीत हो रही थी। मैं उसके समीप बैठ गया। उसमें मुझे बड़ा आनन्द आ रहा था। अपना सिर झुकाए वह गिलास पर अपनी उँगलियाँ बजा रहा था और हल्की-सी टनटन की आवाज आ रही थी।

‘हूँ, तो कुछ सुनाओ...।’

‘याश्का को अस्पताल पहुँचाना बहुत जरूरी है...।’

‘क्यों, क्या बात है?’

‘बीमार है न वह! कुजिन ने उसे बुरी तरह पीटा है।’

‘कुजिन बड़ा नीच है, बदमाश है। तुम लोगों की चुगलियाँ खाता है। क्या तुम सोचते हो कि मैं इस कारण उसके साथ कोई पक्षपात करता हूँ? उसको कोई इनाम देता हूँ? उसके मूर्खों के से थोबड़े पर तो मैं मुट्ठी भर धूल भी न फेंकूँ। पैसे देने की तो अलग रही।’

वह मरी हुई आवाज़ में बोल रहा था लेकिन बातें साफ सुनाई दे रही थीं और हालाँकि उसका एक-एक शब्द वोदका में बसा हुआ था लेकिन वह नशे में धुत नहीं था।

‘मुझे सब कुछ मालूम है। तुम सुअरों को मार डालना क्यों नहीं चाहते थे? सच बताना मैंने तुम्हारे साथ ज्यादती की है, है ना? और मेरे साथ तुमने भी अन्याय किया है, क्यों?’

मैंने सब कुछ बता दिया।

‘हाँ।’ उसने कुछ रुककर कहा, ‘तो मैं सुअर से भी बदतर हूँ, क्यों? मुझे भी जहर दे देना चाहिए, है ना?’

उसकी आवाज़ ऐसे आयी जैसे कि वह मुस्करा रहा हो। और मैंने दुबारा कहा :

‘तो फिर क्या मैं याश्का को अस्पताल ले जाऊँ?’

‘तुम चाहे उसे बूचड़खाने में ले जाओ, मेरी बला से। मुझसे उसका वास्ता क्या?’

‘तुम्हारे खर्चे पर?’

‘हरगिज नहीं।’ उसने लापरवाही से कहा। ‘ऐसा पहले कभी नहीं हुआ। फिर तो सभी अस्पताल में जाकर पड़े रहना चाहेंगे...। मैं कहता हूँ तुमने मेरे कान क्यों अमेठे थे उस दिन?’

‘मुझे क्रोध आ गया था।’

‘यह तो मैं भी समझता हूँ। लेकिन मेरे सवाल का मतलब यह नहीं था। अरे तुमने मेरे कान पर मुक्‍का मार दिया होता या गले पर घूँसा, पर तुमने मेरे कान क्यों खींचे? क्या मैं बच्चा हूँ?’

‘मैं लोगों को मारना पसन्द नहीं करता।’

बड़ी देर तक वह शान्त बैठा रहा। उस समय ऐसा मालूम होता था जैसे कि नींद का झोंका आ गया हो। फिर उसने द‍ृढ़ता से और स्पष्‍ट स्वर में कहा :

‘तुम भी अजीब आदमी हो! बाकी सब नौकरों की-सी कोई भी बात तुममें नहीं है। तुम्हारी खोपड़ी भी किसी और ही ढंग की है।’

उसने यह बात मुझे भड़काने के लिए नहीं कही लेकिन उससे उसकी खिन्‍नता अवश्य प्रकट होती थी।

‘अच्छा अब बताओ कि क्या मैं वास्तव में बुरा आदमी हूँ?’

‘और आप क्या समझ रहे थे?’

‘मैं? तुम झूठे हो, मैं अच्छा आदमी हूँ। अरे भाई मेरे, मैं बहुत चालाक आदमी हूँ। अच्छा देखो, तुम पढ़े-लिखे हो, बातें करने की तुम्हें ईश्‍वरदत्त प्रतिभा है। कोई बात हो तुम बराबर बोले जाओगे। तारों की बात हो, चाहे फ्रांसीसियों की, या भद्रलोक की– मैं मानता हूँ; यह सब बड़ी अच्छी, दिलचस्प और मजेदार बातें हैं। मैंने तुम्हें एक ही नजर में भाँप लिया था! याद है उस दिन जब तुम मुझसे पहली बार मिले थे और कहा था कि मुझे सर्दी लग जायेगी और मैं मर जाऊँगा। आदमी का मूल्य मैं बड़ी जल्दी ताड़ लिया करता हूँ!’

उसने भद्दी और मोटी उँगलियों से अपना माथा ठोका, एक ठण्डी साँस भरी और समझाने लगा :

‘अरे मेरे भाई, मेरी स्मरण शक्ति बड़ी तेज है...। अरे भाई मुझे तो यहाँ तक याद है कि मेरे दादा की दाढ़ी में कितने बाल थे। शर्त लगा लो चाहे, क्यों?’

‘शर्त काहे की?’

‘इस बात की कि मैं तुमसे ज्यादा चुस्त व चालाक हूँ। जरा सोचो तो मैं अनपढ़ आदमी हूँ, मुझे क ख भी नहीं आता सिर्फ गिनती जानता हूँ। लेकिन फिर भी मैं इतना बड़ा कारोबार सँभाले बैठा हूँ। तैतालीस आदमी नौकर हैं, एक दुकान के और तीन हैं शाखाएँ। तुम एक पढ़े-लिखे आदमी मेरे यहाँ नौकर हो। अगर मैं चाहूँ तो सचमुच एक अच्छे-खासे विद्यार्थी को नौकर रखकर तुम्हें लात मारकर निकाल बाहर कर सकता हूँ। मैं अगर चाहूँ तो हरेक को लात मारकर निकालकर शराब पर अपना सारा धन लुटा सकता हूँ क्यों ठीक कहता हूँ ना मैं?’

‘मेरी तो समझ में आता नहीं, इसके लिए दिमाग की क्या जरूरत है?’

‘सब बकवास! दिमाग क्या चीज होती है? अगर मेरे पास नहीं है तो फिर किसी के पास भी नहीं है। तुम समझते हो कि दिमाग वाला होने के लिए बातूनी होना जरूरी है। नहीं मियाँ यह कारोबार की बात है। यहीं आपको मिलेगा दिमाग।’

उसने एक हल्का सा लेकिन विजयपूर्ण कहकहा लगाया जिसके साथ उसके बोझिल शरीर का लटका हुआ मांस थलथल फुदकने लगा। फिर उसने मैत्रीपूर्ण ढंग से और भारी स्वर में बात जारी रखते हुए कहा :

‘तुम एक आदमी का पेट नहीं पाल सकते थे और मैं चालीस को खिला रहा हूँ। अगर चाहूँ तो सौ को खिला सकता हूँ। दिमाग की बातें करने चले हो।’

जैसे-जैसे वह बोलता गया उसका स्वर कठोर और उपदेशात्मक होता गया और जबान लड़खड़ाने लगी।

‘मुझे क्या पाठ पढ़ाने चले हो तुम? सब बकवास है! बहरहाल उसमें फायदा ही क्या? न ही कुछ तुम्हारा भला होता है। खूब कोशिश करो ताकि मैं भी तुम्हें इसका मजा चखा सकूँ।...’

‘चखा तो चुके हो।’

‘अच्छा वास्तव में?’

उस पर उसने क्षण दो क्षण गौर किया और मेरा कन्धा थपथपाते हुए इकरार किया :

‘हाँ ठीक है। बस अब जरूरत इस बात की है कि मैं तुम्हें एक मौका दूँ।... हालाँकि मैं सब कुछ देखता हूँ। सब कुछ जानता हूँ... यह मेरा गारास्का चोर है लेकिन यह भी बड़ा चालाक और यदि पकड़ा न जाये और जेल न चला जाये तो वह भी मालिक बन सकता है। अपने नौकरों की खाल खिंचवाकर भूसा भरवा देगा वह। यहाँ सबके सब चोर हैं जानवर से भी बदतर। पक्‍के बदमाश! और तुम उनके साथ भलाई करने की कोशिश कर रहे हो। मेरी तो कुछ समझ में नहीं आता। यह तुम्हारी घोर मूर्खता है।’

नींद मुझ पर सवार हो चुकी थी। दिन भर की मेहनत से मेरा जिस्म थककर चूर हो गया था और थकावट से सिर चकरा रहा था।

आका की उकता देने वाली चपचपी आवाज विचारों को चिपकाये दे रही थी :

‘मालिकों के बारे में तुम बड़ी भयानक बातें कहते हो। यह सब तुम्हारी मूर्खता है, तुम्हारी तरुणाई ही इसका कारण है। मेरी जगह यदि कोई और व्यक्ति होता तो फौरन पुलिस वाले को बुलाता, एक रूबल उसके हाथ में थमाता और तुम्हें सीधा थाने भिजवा देता।’

उसने अपना भारी और नर्म हाथ मेरे घुटने पर मारा :

‘चालाक आदमी को मालिक बनने की फिक्र करनी चाहिए। इधर-उधर टक्‍करें मारने से क्या लाभ? लोग तो इतने असंख्य हैं जैसे मेढक। मालिक बहुत थोड़े हैं। यही मुश्किल है। ...यह सब असमान और गलत है अगर तुम आँख खोलकर देखो तो तुम्हें बहुत कुछ नजर आयेगा। फिर तुम्हारा दिल मजबूत हो जायेगा और तुम समझ जाओगे कि खुद ये लोग ही खराब हैं यानी वे लोग जो नौकरी करते हैं। तमाम फालतू आदमियों को काम पर लगाना चाहिए ताकि वे बेकार मारे-मारे न फिरें। एक पेड़ को बेकार पड़ा सड़ते रहने देना लज्जास्पद है, उसको जला डालो गर्मी तो देगा। यही बात इन्सान के साथ है, समझे कि नहीं।’

याश्का के कराहने की आवाज आयी और मैं उसे देखने के लिए उठ खड़ा हुआ। वह चित्त लेटा हुआ था– भवें तनी हुईं और मुँह खुला हुआ था। दोनों हाथ सीधे और जिस्म के साथ चिपके हुए थे। उस लड़के में कुछ फौजियों जैसी चुस्ती पाई जाती थी।

निकान्दर आटे के कढ़ाव पर से नीचे कूदा और तंदूर की ओर लपका ही था कि रास्ते में मालिक से टकरा गया और कोई एक मिनट तक हक्‍का-बक्‍का खड़ा रहा। फिर बड़ा-सा मुँह फाड़कर अपनी मछलियों जैसी आँखें अपराधी की नाईं झपकाईं और अपनी फुर्तीली उँगलियों से हवा में कुछ पेचीदा आकृतियाँ बनाते हुए भुनभुनाया :

‘मू-ऊ-ऊ-ऊ!’

आका ने उसे चिढ़ाया और यह कहते हुए उठकर चला गया, ‘गूँगा पत्थर!’...

जब वह दरवाजे के पीछे गायब हो गया तो बहरे-गूँगे ने मेरी तरफ देखकर आँख मारी और अपना हलक दो उँगलियों से दबाकर संकेत किया, ‘कोख-कोख!...’


अगले दिन सुबह याश्का और मैं अस्पताल गये। हमारे पास सवारी के लिए पैसे नहीं थे और लड़का बड़ी कठिनाई से चल रहा था। क्षीण स्वर में खाँस-खाँसकर बातें करते हुए अपनी तीव्र वेदना का मर्द की भाँति सामना कर रहा था।

‘थाँथ ही नहीं ली जाती। फेफड़े बेकार हो गये हैं... बदमाश।’

बाजार में चिलचिलाती हुई, चाँदी की तरह चमकती हुई धूप में और गर्म कपड़ों में अच्छी तेरह लिपटे-लिपटाये राहगीरों के दरम्यान वे अपने काले चीथड़े पहने असलियत से ज़्यादा छोटा और सूखा नजर आ रहा था। उसकी आसमानी नीली आँखें कारखाने के अँधेरे की आदी थीं और इसलिए उनमें पानी डबडबा आया था।

‘और मैं मर गया तो आर्तेम तो कुत्ते की मौत मरेगा, शराब बुरी तरह पीने लगेगा। उल्लू! और अपनी तो वह जरा भी देखभाल नहीं करता। बड़बड़िये, तुम उथकी डाँट-डपट करते रहना, कहना मैंने कह दिया था।’

उसके सूखे, काले, छोटे-छोटे से होंठ बेचैनी के दर्द के कारण भिंच गये।

उसकी बच्चों जैसी ठोढ़ी थरथराई। मैं उसको बगल में दबोचे हुए था और मुझे डर था कि कहीं वह रोना न शुरू कर दे और मैं राहगीरों को मारना और खिड़कियों के शीशे न तोड़ना शुरू कर दूँ और फिर अच्छा-खासा तमाशा बन जाये।

‘झुनझुना’ रुक गया। एक लम्बी-सी साँस ली और बड़े-बूढ़ों की तरह रोबदार आवाज़ में बोला :

‘बस उससे इतना ही कह देना कि मैंने उसे हुक्म दिया है कि वह तुम्हारा हुक्म माने...!’

कारखाने में वापस आकर मुझे एक और दुर्घटना का पता चला। सुबह जब निकान्दर बिस्किट लेकर दूसरी दुकान में देने को ले जा रहा था तो वह फायर ब्रिगेड के घोड़ों की सीमा में आ गया और वह भी अस्पताल पहुँच गया।

‘अब, शातुनोव ने अपनी छोटी-छोटी चुंधी आँखों से मुझे देखते हुए बड़े विश्‍वास के साथ कहा, तुम देख लेना कोई-न-कोई मुसीबत आयेगी। जब कोई दुर्घटना घटती है तो उसके बाद दो और आवश्यक होती हैं– हमेशा तीन हुआ करते हैं। हजरत ईसा से लेकर सेंट निकोलस और सेंट जार्ज तक। फिर पुनीत माता उनसे कहेंगी : ‘बस काफी है बच्चो! और फिर वे सत्पथ पर आ जायेंगे।’

निकान्दर का कोई जिक्र न हुआ। वह उनके लिए अजनबी था हमारे कारखाने का आदमी न था। लेकिन फायर ब्रिगेड के घोड़ों की रफ्तार, ताकत और सहिष्णुता के बारे में बड़ी-बड़ी बातें होती रहीं।

अभी हम खाना खा ही रहे थे कि गारास्का आया। वह एक चुस्त व चालाक, खूबसूरत लड़का था। आँखें उसकी व्यभिचारियों और चोरों जैसी निडर थीं मानों कह रही हों– डरता कौन है– उसने बड़ी गम्भीरता से घोषणा की कि मुझे निकान्दर की जगह देकर छोटा नानबाई बनाया गया है और मेरी तनख्वाह छः रूबल मासिक हो गयी।

‘बधाई!’ याश्का खुशी से उछल पड़ा। फिर फौरन ही भवें सिकोड़कर पूछा :

‘यह किसकी आज्ञा है?’

‘मालिक की!’

‘लेकिन वह तो नशे में धुत है ना!’

‘बिल्कुल भी नहीं! ’ गारास्का ने चहककर कहा। ‘मरने वालों की स्मृति में कल ज़रूर एक दौर चला था। लेकिन आज होश व हवास बिल्कुल दुरुस्त है बल्कि इससे भी ज्यादा और आज आटा खरीदने गया है...।’

‘तो अभी सुअरों वाला मामला खतम नहीं हुआ?’ बनजारे ने दबी आवाज में झुंझलाकर कहा।

सब लोग मुझे मुँह फुलाये देख रहे थे और जलन के मारे बुरे-बुरे ताने दे रहे थे कठोर तथा असह्य अपशब्दों से कारखाना गूँज रहा था।

‘हाथ मार रहा है खूब...।’

‘निराला पंछी सदा निराला होता है...।’

शातुनोव अपनी विशिष्‍ट भाषा में चबाचबाकर कह रहा था :

‘काँटों की अपनी जगह होती है, फूलों की अपनी!’

और कुजिन ने अपने विचार उन्हीं शब्दों से छिपाये जिन्हें वह अपनी दुर्भावनायें छिपाने के लिए सदैव इस्तेमाल करता था।

‘अरे शैतानो! कितनी बार तुमसे कहूँ कि मूर्ति को जरा साफ कर दिया करो।’

केवल आर्तेम ने बुलन्द आवाज में कहा :

‘हो गयी शुरू – वही काट-छाँट, थोलियाँ ठिठोलियाँ!’

डबलरोटी की बेकरी में काम करने के बाद पहली ही रात को जब मैं एक बारी का आटा गूँधकर और दूसरी बार का भिगोकर किताब लिए हुए चिराग के पास बैठा था कि आका आ गया। नींद के मारे आँखें बोझिल थीं और वह उन्हें जल्दी-जल्दी झपकाकर अपने होंठ झपकाये जा रहा था।

‘पढ़ रहे हो, यह बड़ी अच्छी बात है। पढ़कर सो रहने से बेहतर है। ज़्यादा देर तक आटा पड़ा रहने का खतरा ही नहीं।’

बातें वह धीरे-धीरे कर रहा था। फिर बड़ी सावधानी से मेज के नीचे नजर दौड़ाकर जहाँ नानबाई पड़ा खर्राटे ले रहा था वह मेरे करीब आटे के एक बोरे पर बैठ गया। किताब मेरे हाथ से लेकर बन्द कर दी और अपने मोटे से घुटने पर रखकर उस पर अपनी हथेली जमा दी।

‘क्या किताब है यह?’

‘रूसी जनता के बारे में है।’

‘कौन-सी जनता?’

‘रूसी जनता कहा ना!’

उसने कनखियों से मुझे देखा और समझाते हुए बोला :

‘हम काजान के लोग भी रूसी हैं– तातारियों के अलावा सिंबर्स्क के लोग भी रूसी हैं। किसके सम्बन्ध में लिखा है?’

‘इसमें हरेक के बारे में लिखा है...’

उसने पुस्तक खोली। पुस्तक वाले हाथ को फैलाकर पुस्तक को जाँचते हुए सिर हिलाया और अपनी मंजरी आँख से पृष्‍ठों को आँका और निर्णय सुना दिया :

‘पता चल गया, तुम इस किताब को समझ नहीं सकते।’

‘यह कैसे जान गये तुम?’

‘बात बिल्कुल साफ है, चित्र कहाँ है? एक भी तो नहीं है। तुम्हें तो ऐसी किताबें पढ़नी चाहिए जिनमें तस्वीरें हों। शर्तिया कहता हूँ उसमें ज्यादा मजा आता है। जनता के बारे में क्या कहती है यह किताब?’

‘इसमें उनकी श्रद्धा, उनके रस्म व रिवाज और उनके गीतों के बारें में बातें लिखी हैं।’ मालिक ने किताब बन्द कर दी और अपनी टाँग के नीचे सरका दी। और एक लम्बी-सी जम्हाई ली उसका मुँह यद्यपि भाड़-सा खुला हुआ था लेकिन उसने उस पर क्रास का चिह्न न बनाया।


‘ये तो आम बातें हैं जो सब जानते हैं।’ उसने कहा, ‘लोग भगवान पर आस्था रखते हैं उनके यहाँ अच्छे गाने भी हैं और बुरे गाने भी। और उनके रीति-रिवाज सब सड़े-सड़े। उन सबके बारे में तुम मुझसे पूछ लो। रीति-रिवाज तो मैं तुम्हें इतनी अच्छी तरह समझा दूँ कि क्या कोई किताब बतायेगी। उनके बारे में किताबें पढ़कर तुम्हें जानने की जरूरत नहीं। सड़क पर निकल जाओ, बाज़ार में चले जाओ, शराबखाने में जा बैठो या त्योहार के दिन गाँव चले जाओ। वहाँ तुम्हें सब रिवाजों का पता चल जायेगा। या जी चाहे तो किसी अदालत में चले जाओ। छोटे-मोटे अपराधों की अदालत में भी...।’

‘तुम तो बुरी बातों का जिक्र कर रहे हो!’

उसने घूरकर गुस्से से मुझे देखा और कहा :

‘हाँ-हाँ मुझे मालूम है मैं क्या कह रहा हूँ। रह गयी ये किताबें तो यह सब मनगढ़न्त किस्से-कहानियाँ हैं, बिल्कुल मूर्खतापूर्ण! तुम क्या मुझे यह समझा रहे हो कि एक किताब में पूरी कौम का हाल लिखा जा सकता है।’

‘एक से ज्यादा किताबें हैं।’

‘तो क्या हुआ, कौमें और जातियाँ भी तो हजारों-लाखों हैं। इनमें से हरेक के बारे में एक-एक किताब तो लिखने से रहा कोई!’

उसके स्वर में तुर्शी थी और उसकी आँखों के ऊपर के पीले रोयें गुस्से के मारे खड़े हो गये। यह बातचीत मुझे भयानक सपना-सा मालूम हो रही थी और मैं उससे उकता गया था।

‘तुम भी अजीब आदमी हो, बिल्कुल औंधी खोपड़ी के।’ उसने एक लम्बी-सी साँस लेकर खरखराते हुए कहा, ‘तुम्हारी समझ में नहीं आता कि यह सब व्यर्थ की बकवास है। किताबें किसके बारे में हैं? लोगों के बारे में। लेकिन कौन लोग हैं जो अपने सम्बन्ध में सच-सच बातें बता देंगे? तुम बता दोगे? मैं तो हरगिज न बताऊँ। अगर तुम मेरी जिन्दा खाल उड़वा दो तब भी न बताऊँ। मैं तो शायद भगवान के सामने भी कुछ न बोलूँ। वह कहेगा– ‘हाँ तो वासिली अपने पापों की सूची तो पेश करो!’– और मैं जवाब दूँगा – ‘हे परमपिता परमेश्‍वर वह तो तू मुझसे अधिक जानता है। यह आत्मा तो तेरी ही है मेरी नहीं।’

उसने मुझे कुहनी मारी और हँसकर आँख मारते हुए पहले से नीची आवाज़ में कहता गया :

‘हाँ मैं तो यह भी कह सकता हूँ– किसकी है यह आत्मा? उसकी है। उसने मुझसे ले ली, और बस अब उसका जिक्र क्या!’

उसने एक हाय की और दोनों हाथ मुँह पर इस प्रकार फेरे जैसे मुँह धो रहा हो फिर उसी उत्साह व उमंग से अपनी बातें जारी रखीं :

‘बोलो, क्या उसी ने नहीं दी थी मुझे आत्मा? निश्‍चय ही उसने दी है। और बाद में क्या उसी ने फिर वापस नहीं ले ली? निश्‍चय ही उसी ने ली बस तो फिर हिसाब बेबाक और हम बरी।’

मेरा सर चकराने लगा। लैम्प हमारी पुश्त पर और हमसे ऊपर दीवार पर लटका हुआ था और हमारी परछाइयाँ सामने हमारे कदमों पर पड़ रही थीं। कभी-कभी आँका अपने सिर को झटका देता और जर्द रोशनी उसके चेहरे पर चमकने लगती। नाक दिखाई देती जिसे विभिन्‍न परछाइयों ने असलियत से ज्यादा लम्बा कर दिया था। और आँखों के नीचे स्याह हल्के नजर आते और उसके मोटे चेहरे के उतराव-चढ़ाव और भयानक मालूम होने लगते। हमारे दाहिनी ओर दीवार में एक खिड़की थी जो हमारे सिरों के बराबर ऊँचाई पर थी। खिड़की के धूल-धूसरित शीशों में से मुझे नीले आकाश और मटर के छोटे-छोटे दानों की तरह जर्द सितारों के एक झुमके के अलावा और कुछ नजर नहीं आ रहा था। आलसी, सुस्त नानबाई खर्राटे ले रहा था। झींगूर झनझना रहे थे और चूहे कहीं कोई चीज खुरच रहे थे।

‘लेकिन क्या तुम्हें भगवान पर विश्‍वास नहीं है?’ मैंने अपने मालिक से पूछा उसने अपनी मुर्दा आँख तिरछी करके मुझे देखा और काफी देर तक कुछ जवाब न दिया।

‘यह तुम मुझसे नहीं पूछ सकते। तुम्हें मजाल नहीं है कि अपने काम की बात के अलावा और कुछ बात मुझसे पूछो। जो कुछ मेरा दिल चाहेगा मैं तुमसे पूछूँगा। और तुम्हें जवाब देना पड़ेगा। आखिर तुम चाहते क्या हो?’

‘यह मेरा अपना मामला है।’

वह सोच में पड़ गया और मुँह भींचे नाक से धीरे-धीरे साँस लेता रहा।

‘यह क्या जवाब हुआ? बदतमीज! शैतान!...’

उसने अपने नीचे से किताब निकाली और अपने घुटनों पर थपथपाकर फर्श पर फेंक दी।

‘कहानी! कौन जान सकता है मेरी कहानी। और तुम्हारी– तुम्हारी कोई कहानी ही नहीं है और न होगी कभी।’

वह एकदम हँस पड़ा– एक बेपरवाह हँसी। इस अजीब सुबकी-सी हल्की और मरी हुई आवाज से। मेरे दिल में मुर्झाहट और मालिक के लिए सहानुभूति का भाव पैदा होता था। और वह अपने बेडौल जिस्म को लिए झूम-झूमकर व्यंग्यपूर्ण और तीखे स्वर में कहता रहा :

‘मैं यह सब कुछ जानता हूँ। तुम जैसे मैंने बहुतेरे देखे हैं। मेरी एक रखैल है जो मेरी एक दुकान में सौदा बेचती है। उसका एक भतीजा है जो ढोरों की डाक्टरी पढ़ता है; घोड़ों और गायों का इलाज करना सीख रहा है। अब वह पक्‍का शराबी है और शराबी बनाया है मैंने। गाल्किन है उसका नाम, कभी-कभी आता है मेरे पास शराब के लिए दस कोपेक लेने। बिल्कुल फक्‍कड़ है। उसने यह जानने की कोशिश की थी कि दुनिया के कारोबार कैसे चलते हैं, वह भी बकवास किया करता था। लोगों में कहीं-न-कहीं सच्चाई जरूर होगी। मेरे दिल की गहराइयों में यथार्थ की खोज की धुन समाई हुई है तो फिर दिल की उन गहराइयों के बाहर भी कहीं सच्चाई मौजूद है। और मैं उसे शराब पिला-पिलाकर नशे में धुत करता रहा। कमबख्त पक्‍का शराबी बन गया; दीदे निकाल-निकालकर मुझे घूरा करता। आँखें उसकी कोमल रमणी की-सी थी, पर यह नहीं कहूँगा कि उसमें मक्‍कारी थी, वह अपने आपे ही में न रहता था। कहा करता : ‘वासिली सेम्यानोव तुम कुहरा हो। जिन्दगी में तुम एक भयानक मनुष्य हो।’

तंदूर गर्म करने का समय हो गया था। मैं उठ खड़ा हुआ और मैंने मालिक को यह बात बताई तो वह भी खड़ा हो गया। नाँद खोलकर आटे को थपका और बोला : ‘अच्छा तो यह बात है।...’

वह टहलता हुआ मेरी ओर देखे बिना ही वहाँ से चला गया। मैंने संतोष की साँस ली कि उसकी चिकनी-चुपड़ी और शेखी भरी आवाज रुक गयी थी और बेहूदा बातचीत का तूफान बेकरी से बाहर चला गया था।

बिस्किटों की बेकरी में नंगे पाँव चलने की आहट हुई और घुप्प अँधेरे में आर्तेम मुझसे टकरा गया। उसके बाल बिखरे हुए और उदास आँखें फटी-फटी थीं जैसे कोई नींद में चलने के रोग का शिकार हो।

‘अच्छा तो इस प्रकार तुम्हें काबू में किया जा रहा है।

‘हाय, तुम सोए नहीं?’

‘मालूम नहीं, दिल में कुछ दर्द-सा हो रहा है। ही... ही... तो इस तरह वह...।’

‘उसकी भी बड़ी मुश्किल हैं।’

‘हाँ, शायद! बेकार आदमी है और सौदेबाजी में नीचता करता है...।’

अब लड़के ने तंदूर के सहारे खड़े होते हुए परिवर्तित स्वर में जैसे यों ही सरसरी तौर से कहा :

‘मेरे भाई बेचारे को इन लोगों ने अधमुआ कर डाला है। क्या ख्याल है तुम्हारा? जिन्दा निकल आयेगा वह अस्पताल से?’

‘क्या बात कही? हे भगवान दया कर!...’

वह एक झटके के साथ तंदूर से अलग होकर खड़ा हुआ और उदास स्वर में यह कहता हुआ बिस्किट की बेकरी में चला गया :

‘भगवान से हमें कुछ नहीं मिलेगा।...’


मालिक से रात की ये दो बातें एक निरन्तर और भयानक सपने की तरह जारी रहीं। हर रात पिछले पहर जब मुर्गे अजान दे रहे होते तो जहन्‍नुम में शैतान उछल-कूद करते होते। और मैं आग सुलगाने के बाद किताब हाथ में लिए पढ़ने को बैठता होता तो वह बेकरी में कहीं से आ टपकता।

गोल-मटोल और आलसी की नाईं वह अपने कमरे से लुढ़कता हुआ निकलता और एक हाय के साथ तंदूर के किनारे बैठ जाता। और तंदूर के अन्दर आकर उसकी टाँगें इस तरह लटक रही होतीं जैसे कि कब्र में। अपना छोटा-सा पंजा फैलाकर लपटों के सामने करके अपनी मंजरी आँख चुंधी करके देखता और पीली खाल में से झलकते हुए सुर्ख खून को देखकर आप ही सराहता और फिर दो घण्टे तक अजीब और उकता देने वाली बातचीत जारी रहती।

साधारणतया बातचीत की शुरुआत अपनी बुद्धिमता की डींगों से और अनपढ़ गँवार की शक्ति से करता जिसने एक बड़ा कारोबार खड़ा कर लिया जिसे वह मूर्खों और चोरों को काबू में करके उनकी मदद से चला रहा है। इस विषय पर वह बड़ी लम्बी-चौड़ी बातें करता रहता लेकिन एक प्रकार की ऊब के साथ। बीच-बीच में एक लम्बे अवकाश के बाद और बार-बार सर्द आहें इस तरह भर कर मानों सीटियाँ बज रही हों। कभी-कभी ऐसा मालूम होता था जैसे वह अपनी व्यावसायिक सफलताएँ गिनाते-गिनाते थक गया हो। और अपने ऊपर बड़ा जब्र करके उनका जिक्र कर रहा हो।

उसकी वास्तव में अनुपम प्रतिभा पर अचरज करते-करते मैं काफी समय हुआ थक चुका था, सड़े-बूसे और सीले हुए आटे का भाव-ताव करके सस्ते दामों खरीद लेने, फफूंदे हुए खराब बिस्किट मनों की मात्रा में गाँव के व्यापारियों के हाथ बेच देने में उसे कमाल हासिल था। धोखे भरा साम्य और लज्जास्पद सादगी के साथ सौदागरी की ये शोब्दाबाजियाँ विफल होकर रह गयी थीं और उन्होंने मनुष्य के लोभ व मूर्खता को बड़ी निर्दयता से नग्‍न कर दिया था।

तंदूर में जलती हुई लकड़ियों में से लपटें निकल रही थीं। मैं और मेरा मालिक तंदूर के आगे बैठे थे। उसकी तोंद की मोटी-मोटी शिकनें उसके घुटनों तक लटकी हुई थी। भड़कती हुई आग की लाली उसके अंधियारे चेहरे पर कौंदे की तरह लपक रही थी। घोड़े के जुए को धातु की तरह उसकी फुल्ली, पथराई हुई और डबडबाई हुई आँख, किसी बूढ़े फूस फकीर की आँखों के तुल्य थी। और मंजरी बिल्ली के दीदों की नाईं चमकती हुई आँख बड़ी तेजी के साथ झलक रही थी और उसमें एक विचित्र प्रकार के जीवन की झलक आती थी। उसकी अजीब आवाज कभी स्त्री की आवाज की तरह तेज और महीन हो जाती और कभी भारी चीख बनकर निकलती–संतोषपूर्ण और ग्लानिपूर्ण शब्द निकाल रही थी।

‘तुम दूसरों पर हद से ज्यादा भरोसा करते हो और बहुत सी ऐसी बातें कह जाते हो जो तुम्हें नहीं कहनी चाहिए। लोग दगाबाज होते हैं, उन्हें बड़ी सावधानी और खामोशी के साथ सम्हालना चाहिए आदमी को शेर की निगाह से देखो और एक शब्द न कहो। अपनी जबान बिल्कुल बन्द रखो। जरूरत ही नहीं कि वह तुम्हारी बात समझे। जरूरत इस बात की है कि वह तुमसे डरे और यही अन्दाज लगाते रहे कि तुम्हारा मकसद क्या है!’

‘मेरा तो यह इरादा बिल्कुल भी नहीं है कि मैं लोगों को संभालूँ।’

‘झूठ! इसके बिना तुम्हारा गुजारा ही नहीं हो सकता!’

उसने मुझे समझाना शुरू किया : ‘कुछ लोग ऐसे होते हैं जिन्हें काम करना पड़ता है और बाकी ऐसे जो इन्तजाम करते हैं और अफसरों को इस बात की निगरानी करनी पड़ती है कि काम करने वाले व्यवस्थापकों की आज्ञा का बिना चूँ-चरा के पालन करें।’

‘जिनकी ज़रूरत न हो उन्हें लात मारकर निकाल बाहर करो। ऐरे-गैरे का क्या काम?’

‘और वे जायें कहाँ?’

‘मेरी बला से कहीं जायें। आवारा मर्द और चोरों के लिए – तमाम निकम्मे लोगों के लिए ही तो अफसर-हाकिम हैं। जो आदमी किसी काबिल होता है उसे अफसरों की ज़रूरत ही नहीं होती; वह खुद अपना हाकिम होता है। अब गवर्नर-जनरल से तो यह आशा नहीं की जा सकती कि उसे यह मालूम हो कि मेरे लिए कौन-सा आटा अच्छा है और कौन-सा नहीं। उसका काम तो यह जानना है कि कौन-सा आदमी काम का है और कौन-सा बेकार।’

कभी-कभी मुझे ऐसा लगता कि उसकी आवाज में भावुक उत्साह है। शायद यह किसी और ही चीज़ की लगन थी, किसी ऐसी वस्तु की अभिलाषा जिसे वह स्वयं भी नहीं जानता था। और मैं उसकी बातचीत पूरी एकाग्रता के साथ और बड़ी उत्सुकता से सुनता ताकि उसका मतलब समझ में आ जाये। और नये-नये शब्द सुनने की मैं सदैव प्रतीक्षा करता रहता।

तन्दूर के नीचे से चूहों, जली हुई चटाई और धूल आदि की दुर्गन्ध आ रही थी। चीकट दीवारों में से गर्म और सीले हुए भभके निकल रहे थे। फर्श बहुत ही गन्दा और पुराना हो चुका था। खिड़की में से छन-छनकर आने वाली चाँदनी ने फर्श की काली दरारों को और भी अधिक स्पष्‍ट बना दिया था। खिड़की के शीशों पर जगह-जगह मक्खियों के गुच्छे चिपके हुए थे। मालूम होता था कि मक्खियों ने खुद आकाश को भी दागदार बना दिया है। यह जगह बड़ी घुटी हुई, गुंजान और इतनी गन्दी थी कि उसका साफ करना असम्भव था।

क्या एक आदमी का इस प्रकार जीवन व्यतीत करना शोभनीय है?

मेरा मालिक एक-एक शब्द आहिस्ता-आहिस्ता टटोलकर बोल रहा था। इस तरह बोलते हुए देखकर सहसा उस अन्धे फकीर की आकृति आँखों में फिर छा जाती थी जो अँधेरे में अपनी कँपकँपाती हुई उँगलियों से अपने कासे में पैसा-धेला टटोल रहा हो।

‘विज्ञान– अच्छा भई मान लिया ठीक है! तो फिर कोई वैज्ञानिक मुझे आकर बताये कि मिट्टी या कीचड़ से आटा कैसे बनता है। और हाँ, देखो तो सामने एक भव्य इमारत है– विश्‍वविद्यालय कहते हैं उसे। वहाँ के छात्र युवा और दिल्लगीबाज हैं; शराबखानों में मारे-मारे फिरते हैं। पी-पीकर मदमस्त हो जाते हैं और बाजारों में ऊधम मचाते फिरते हैं। सेंट वेर्लाम के बारे में अश्लील व गंदे गाने गाते हैं, पेस्की बाजार में वेश्याओं के यहाँ जाते हैं और आम तौर पर उनकी जिन्दगी पावन पादरियों की-सी होती है।...’

और फिर उसके बाद अचानक कोई डाक्टर बन जाता है तो कोई जज, कोई शिक्षक बन जाता है तो कोई वकील। क्या तुम मुझसे आशा करते हो कि उन पर विश्‍वास करूँ? क्यों वह तो शायद मुझसे भी ज्यादा बेईमान है। मुझे तो किसी पर भरोसा नहीं।...’

और भ्रष्‍टाचारियों की तरह होंठों पर जबान फेरते हुए उसने अत्यन्त भोंड़े तथा ग्लानिपूर्ण विवरण के साथ बताना शुरू किया कि विद्यार्थी लड़कियों के साथ किस प्रकार का व्यवहार करते हैं।

स्त्रियों के सम्बन्ध में वह बड़ी देर तक बात करता रहा। उसका ढंग बड़ा अरोचक एवं रूखा था। एक विलक्षण एकाग्रचित्तता के साथ वह बोल रहा था और उसकी आवाज शनैः-शनैः धीमी होते-होते मात्र खुसर-पुसर में परिणित हो गयी थी। औरतों की शक्ल व सूरत का वह कभी जिक्र नहीं करता था बल्कि उनकी छातियों, जाँघों और टाँगों का विस्तार से वर्णन करता था। उसके ये किस्से मुझे बड़े असह्य मालूम होते थे।

‘तुम जब देखो अन्तःकरण की और खरेपन की बातें करते रहते हो मैं तुमसे ज्यादा खरा आदमी हूँ; तुम उद्दण्ड तो ज़रूर हो। लेकिन खरे या स्पष्‍टवादी नहीं, जर्रा भर भी नहीं। मुझे तुम्हारी दो-एक हरकतें मालूम हैं। अभी थोड़े ही दिन हुए तुमने शराबखाने में एक अखबार के प्रतिनिधि से कहा था कि मेरे यहाँ आटे की नाँदों में सड़ांध है, आटे का खमीर उठता है तो सारा फर्श पर बह निकलता है। झींगरों की भरमार है और कारीगरों को आतशक है, हर जगह गंदगी है।’

‘तुमसे भी तो कहा था यह सब कुछ मैंने।’

‘हूँ, कहा तो था। लेकिन यह तो नहीं कहा था कि तुम यह सूचना अखबारों को देना चाहते हो? अच्छा अखबारों में ये सब बातें प्रकाशित हुईं, पुलिस आयी, सफाई के महकमे वाले भी आये। मैंने पाँच-पाँच के बीस नोट उनमें बाँट दिये। और देख लो, क्या बिगाड़ लिया किसी ने मेरा?’ उसने अपना हाथ चक्र की तरह अपने सीने पर फिराया और बोला: ‘देखा तुमने! जो पहले था सो अब भी है– झींगर सब मौजूद हैं, मजे से उछलते-कूदते फिरते हैं। धरे रह गये तुम्हारे अखबार, तुम्हारा विज्ञान, तुम्हारा अन्त:करण! अरे बौड़म, तेरी समझ में यह नहीं आता कि उल्टा तुझ पर ही वार हो जाता। आस-पास की सारी पुलिस मेरी जेब में है। सब अफसर मेरे इशारों पर नाचते हैं, तुम्हारी एक नहीं चलेगी। और तुम इसके खिलाफ डटकर खड़ा होना चाहते हो जैसे कोई झींगर कुत्ते के मुकाबले में आ खड़ा हो, हुँह! तुमसे बातें करने से तो मुझे मतली आने लगती है।’

वास्तव में ऐसा प्रतीत होता था कि उसको मतली हो रही हो, उसका मुँह उतर जाता, मारे थकावट के उसकी आँखें बन्द हो जातीं और वह एक हल्की-सी आवाज के साथ जम्हाई लेता। उसके खुले हुए सुर्ख जबड़ों में कुत्ते जैसी पतली-सी जबान दिखाई देने लगती।

उससे मुलाकात होने से पहले मैं इन्सानी गंदगी, निर्दयता और मूर्खता बहुत कुछ देख चुका था। और भलाई तथा वास्तविक मनुष्यता से भी कुछ कम मेरा वास्ता न पड़ा था। मैं कुछ अत्यन्त सुन्दर पुस्तकें पढ़ चुका था और मैं जानता था कि मुद्दतों से और हर जगह लोग एक विभिन्‍न प्रकार के जीवन के स्वप्‍न देख रहे हैं और यह भी कि कुछ जगहों पर उन्होंने अपने स्वप्‍नों को व्यावहारिक रूप देने के लिए कोशिशें भी की थीं। और अब भी वे उनकी पूर्ति के लिए सचेष्‍ट थे। और वर्तमान परिस्थिति से असन्तोष के मेरे दूध के दाँत अर्सा हुआ टूट चुके थे और अपने उस मालिक से मुलाकात होने से पहले तक मुझे विश्‍वास था कि मेरे ये दाँत काफी मजबूत हैं।

अब ऐसी हर बातचीत के बाद मुझे पहले से ज्यादा अच्छी तरह और अफसोस के साथ अनुभव होता कि मेरे विचार और स्वप्‍न कितने क्षीण और क्रमहीन हैं। मेरा मालिक उन्हें किस तरह तार-तार कर रहा था, उनके अंधकारमय पहलू मुझे दिखा रहा था और मेरा दिल दुखते संदेहों से डूबने लगा था। मैं जानता था, मुझे अनुभव था कि मेरी हर आस्था का संतोष के साथ विरोध करना उसकी गलती थी और मैंने एक क्षण के लिए भी अपने सिद्धांतों की सत्यता पर शक नहीं किया। लेकिन इस सच्चाई पर वह जो कीचड़ उछालता था उससे उसे बचाना मेरे लिए कठिन था। अब प्रश्‍न यह नहीं था कि मैं उसे झुठलाऊँ बल्कि अब समस्या थी अपनी अन्दरूनी दुनिया की सुरक्षा की जिस पर मालिक के नकचढ़ेपन के सामने मेरी अपनी अयोग्यता की घातक भावना आक्रमण कर रही थी।

उसके भद्दे और भारी मस्तिष्क ने पूरी जिन्दगी को इस तरह टुकड़े-टुकड़े कर दिया था जैसे कोई किसी जिस्म को कुल्हाड़ी से काट डाले और उन टुकड़ों का एक ढेर-सा उसने मेरे सामने लगा दिया था।

आत्मा और परमात्मा के बारे में उसकी बातों ने मेरी तरुण उत्सुकता को जगा दिया था। मेरी हमेशा यही कोशिश होती थी कि बातचीत का रुख इन समस्याओं की ओर मोड़ दूँ। शायद मेरी इन कोशिशों को महसूस न करते हुए मेरा मालिक यह साबित करने लगता कि जिन्दगी के रहस्यों और घातों से मैं कितना अनभिज्ञ हूँ।

‘जिन्दगी पार करना बड़ी सावधानी का काम है। जिन्दगी इन्सान से हर चीज की माँग करती है– यों समझो जैसे कोई रखैल, लेकिन उससे तुम कुछ अधिक माँगते हो? नहीं सिर्फ एक चीज– मजा! मक्‍कारी और चालाकी भी जीवन के लिए अत्यावश्यक है। खुशामद-दरामद से काम निकल सके तो निकाल लो अगर यह न कर सको तो झपट लो, या लेकर डण्डा मारो– तड़ाख! और फिर जिन्दगी तुम्हारी लौंडी है।’

‘यदि उसकी बातों पर झल्लाकर मैं सीधे प्रश्‍न करने लगता तो वह उत्तर देता :

‘इससे तुम्हारा कोई वास्ता नहीं। मैं भगवान में विश्‍वास रखता हूँ या नहीं इसका उत्तरदायी मैं हूँगा, तुम नहीं!’

और जब मैं अपनी मनोनीत समस्याओं पर बातचीत शुरू कर देता तो वह अपना सिर इस तरह हिलाता मानों कोई सुभीताजनक स्थिति ज्ञात करना चाहता हो। अपना छोटा-सा कान मेरे मुँह की ओर झुका देता और बड़े सन्तोष व धैर्य के साथ बैठा सुनता रहता। इस स्थिति में हमेशा ही उसकी पकौड़ा-सी नाक वाले चपटे चेहरे पर उदासीनता के भाव उभर आते। उस चेहरे को देखकर ताँबे का वैसा ही ढँकना अनायास स्मरण हो आता जिसके बीच में एक मुठिया लगी हो।

वेदना का एक कटु भाव मेरे हृदय में जम गया था, उसका कारण मेरा व्यक्तित्व न था। घृणा करते-करते अब मैं थक चुका था और जिन्दगी की ठोकरें काफी खामोशी के साथ सहन कर लेता और उन्हें हेय समझकर उनके सामने हट जाता था। बल्कि इस अनुभव का आधार वह सत्यता थी जो मेरी आत्मा में घुस आयी थी। और वही विकसित हो रही थी।

जब मनुष्य अपनी प्रिय और जीवन की महत्त्वपूर्ण तथा प्राप्य वस्तु की उसके लिए शोभनीय सुरक्षा करने का अपने को अपात्र समझता हो तो उसका अनुभव अत्यन्त दुखदाई और उसकी वेदना व कसक नितांत तीव्र हो जाती है। मनुष्य के लिए उसके दिल की बेजबानी से ज्यादा तेज और कोई चीज नहीं होती।


चूँकि हमारा मालिक रात को आकर मुझसे बातचीत किया करता था इसलिए कारीगरों की निगाहों में मुझे एक विशेष महत्त्व मिल गया था। बाज लोग जो मुझे ख़तरनाक आदमी समझते थे और बाकी जो एक विचित्र व्यक्ति तथा सनकी समझा करते थे अब उन्होंने अपनी राय बदल दी थी। अधिकतर कारीगर मेरे सौभाग्य पर मुझसें अपनी नफरत व जलन छिपाने की असफल चेष्‍टा करते और मुझे एक अत्यन्त धूर्त व्यक्ति समझते थे जो अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए कोई बड़ी गहरी चाल चल रहा हो।

कुजिन ने अपनी मैली, धूल भरी छोटी-सी दाढ़ी पर हाथ फेरते और अपनी चंचल आँख को कहीं एक कोने में छिपाते हुए आदर के साथ कहा :

‘अच्छा भाई, अब तो तुम बहुत जल्दी क्लर्क बना दिये जाओगे और अब आश्‍चर्य की कोई बात भी क्या है इसमें?...’

किसी ने धीरे से उसका साथ दिया :

‘हमें डराने-धमकाने के लिए...।’

मेरी पीठ पीछे और भी कई कटु वाक्य सुनाई दिये :

‘जिसके मुँह में जबान हो वह तो कवि क्या कहीं और जाने का रास्ता भी तलाश कर सकता है।’

‘घूस खिलाओ इसे।’

और बहुत-से तो अब मेरी आँख के इशारे की प्रतीक्षा करते कि फौरन ही एक अनिच्छा भरी आज्ञाकारिता से आज्ञा का पालन करें।

आर्तेम, याश्का और उनके अलावा दो-एक और कारीगरों ने जिनसे मेरी मित्रता हो गयी थी अब अपने इन सम्बन्धों से मेरी बातों पर अतिशयोक्तिपूर्ण गौर करना भी शामिल कर लिया था। एक दिन मेरा संतोष समाप्त हो गया और मैंने नाराज होकर बंजारे से कहा कि मैं इस हरकत को बिल्कुल अनावश्यक और बहुत दोषपूर्ण समझता हूँ।

‘अच्छा बस रहने दो, मेरी बात मानों!’ उसने मेरा मतलब समझते हुए कहा और शरारत में अपनी आँखें चढ़ा लीं। ‘अगर हमारा मालिक जो हम सबसे ज्यादा चालाक है तुमसे अपने मामलों पर बहस करता है तो मेरा विचार है कि तुम्हारे पास भी बड़े-बड़े गुर हैं।’

दूसरी ओर शातुनोव, जो सदैव खिंचा-खिंचा और खामोश रहता था, अब मेरे बहुत निकट आ गया और दिन-प्रतिदिन अधिक विश्‍वास करने लगा था। जब कभी हमारा आमना-सामना हो जाता तो उसकी उदास और रहस्यमयी आँखें चमक उठतीं और उसके मोटे-मोटे होंठ आहिस्ता-आहिस्ता फैलकर मुस्कराने लगते और उसके कठोर, पथरीले चेहरे में परिवर्तन झलक उठता।

‘क्यों, अब तो आराम से हो?’

‘आराम से तो नहीं, हाँ सफाई से...।’

‘सफाई अगर है तो उसका अर्थ है आराम!’ वह उपदेशकों की तरह कहता, फिर एक कोने की तरफ निगाहें फेरकर जैसे बिना किसी इरादे के पूछता :

‘सादरसन माम् क्या है, जानते हो?’

ऐसे ही शब्दों का उसके पास भण्डार था। और जब वह अपनी भारी व भयानक आवाज में उनका उच्चारण करता तो बड़ा ही विचित्र सा लगता। और उनमें एक प्रकार की प्राचीन, कल्पित कथा का आभास होने लगता था।

‘ये शब्द तुम कहाँ से सीख लेते हो?’ मैंने एक बार चकित हो पूछ ही लिया। मेरी उत्सुकता चरम सीमा को पहुँच चुकी थी। उसने भी जरा सम्हल कर प्रश्‍न किया :

‘तुम्हें आखिर यह जानने की लालसा क्यों है?’

फिर दुबारा मानो मुझे गच्चा देने की चेष्‍टा करते हुए वह अचानक एक सवाल और कर बैठा :

‘हर्ना का क्या अर्थ है?’