भाग दो / नानबाई / मकसीम गोरिकी
लकड़ी की खपच्चों को जोड़-जोड़कर मैंने एक बुक-स्टैण्ड सा बना लिया था और जब मैं आटा गूँध चुकने के बाद नानखताईयाँ चुनने के लिए अपनी मेज पर आता तो उस स्टैण्ड पर मैं अपनी किताब खोलकर रख लेता था और जोर-जोर से पढ़कर सबको सुनाता था। मेरे दोनों हाथ तो बराबर काम में लगे रहते थे इसलिए पन्ने उलटने का काम मीलफ़ के सुपुर्द था – वह इस काम को बड़ी श्रद्धा से करता, हर बार बनावटी अन्दाज में जोर लगाता और उँगलियों में काफी थूक लगाकर पन्ना उलटता। यह काम भी उसी के सुपुर्द था कि यदि मालिक सहसा आन धमके तो वह मेज के नीचे लात चलाकर मुझे इशारा कर दे।
लेकिन भूतपूर्व सैनिक कुछ खोया-खोया सा रहता था। और एक दिन जब मैं तलस्तोय की ‘तीन भाइयों की कहानी’ पढ़ रहा था तो मुझे अपने कन्धे के ऊपर से सिम्योनफ़ की घोड़े की सी हिनहिनाहट सुनाई दी। उसका छोटा-सा गोल-मटोल हाथ अचानक बाहर निकला और उसने किताब झपट ली और इसके पहले कि मैं सम्हलूँ, मैंने देखा वह किताब हाथ में झुलाता हुआ तंदूर की ओर जा रहा है और कह रहा है :
‘वाह! यह बात मुझे बहुत पसन्द है, क्यों? बड़ा चालाक है...’
मैंने लपककर उसे पकड़ा और उसका बाजू दबोचकर कहा :
‘किताब नहीं जला सकते तुम!’
‘कौन कहता है!’
‘नहीं जला सकते! मैंने कह दिया।’
भटियारखाने में सन्नाटा छा गया। मुझे नानबाई की चढ़ी हुई त्योरियाँ मुस्कराते हुए दाँत नजर आये और मुझे लगा वह गरजने ही वाला है :
‘टूट पड़ो इस पर!’
‘मेरी आँखों के आगे अँधेरा छा गया। हरे-हरे चक्कर नजरों में घूमने लगे और मेरी टाँगें लरजने लगीं। सब लोग तन-मन से काम में लगे हुए थे मानों उन्हें जल्दी हो कि एक काम खत्म करके फौरन दूसरा शुरू कर देना है।
‘नहीं जला सकता?’ मालिक ने मेरी ओर देखे बिना ही शांतिपूर्ण स्वर में दुहराया। उसका सिर एक ओर झुका हुआ था मानों कुछ सुनने का प्रयत्न कर रहा हो।
‘लाओ, इधर लाओ।’
‘अच्छा... लाओ।’
मैंने मसी-कुचली किताब ले ली और मालिक की बाजू छोड़कर वापस अपनी जगह पर आ बैठा। वह सर झुकाये हमेशा की तरह चुपचाप बाहर आँगन में चला गया। भटियारखाने में बड़ी देर तक निस्तब्धता छाई रही। फिर नानबाई ने बड़े भद्दे अन्दाज से अपने चेहरे का पसीना पोंछा और जमीन पर पाँव फटकारते हुए बोला :
‘आय हाय, कम्बख्तो! क्या दिन दिखाये हैं! मुझे तो पूरा यकीन था कि वह तुम सब पर टूट पड़ेगा।’
‘और मुझे भी।’ मीलफ़ ने खुशी-खुशी उसकी हाँ में हाँ मिलाई।
‘अरे साहब लड़ाई होते-होते रह गयी।’ बंजारे ने खेदपूर्ण स्वर में कहा।
‘अच्छा तो बड़बड़िये! अब जरा चौकन्ना रहना। अब के तो छोड़ दिया उसने, पर आइन्दा बदला ले लेगा।’ कूजिन ने अपना सिर हिलाकर बड़बड़ाते हुए कहा :
‘यह जगह तेरे लिए ठीक नहीं, समझा भाई! हम झगड़ा-टण्टा नहीं चाहते। मालिक को गुस्सा तू दिलायेगा, भुगतना पड़ेगा हम सबको।’
याश्का अर्त्यूखफ़ ने सैनिक को दबी आवाज में गालियाँ देते हुए कहा :
‘क्या उसे आते हुए नहीं देखा था तूने, क्यों बे बौड़म?’
‘हाँ, ऐसा ही लगता है।’
‘तो त्या तुझसे तहा नहीं था ति दरा देथते रहना।’
‘हाँ, पर चूक गया इस बार, क्या करें...।’
भटियारखाने के अधिकतर मजदूर उदासीन थे और चुप्पी साधे हुए थे। और बैठे हुए बाकी लोगों का गुर्राना सुन रहे थे। मैं भाँप ही न सका कि वे मेरे बारे में क्या सोच रहे हैं। मैं कुछ घबराया-सा था ही, चुनाँचे मैंने फैसला किया कि यहाँ से चले जाना ही बेहतर होगा। ऐसा लगा जैसे बंजारे ने मेरे इरादे का अनुमान लगा लिया हो क्योंकि वह नाराज़ होकर बोला :
‘देख बे बड़बड़िये! ऐसा कर, अपना हिसाब साफ कर ले। वरना देखना, तेरी नाक में दम हो जाएगा। येगोर को तेरे पीछे लगा देगा वह, और बस समझ कि हुआ काम तमाम।’
उसी वक्त याश्का फर्श पर से उठ खड़ा हुआ जहाँ अभी तक वह दर्जियों की तरह आलती-पालती मारे चटाई पर बैठा था। जब वह उठकर खड़ा हुआ तो कमानदार, टेढ़ी हुई टाँगों के ऊपर उसका पेट बाहर को निकल पड़ा। उसकी दूधिया नीली आँखों में भयानक चमक पैदा हो गयी और वह मुक्का तानकर बोला:
‘त्या? ताम छोड़ कर चला दाये? अरे मार मुत्ता इसते जबड़े पर! अगर यह तुमसे लड़ेदा तो मैं तुम्हारा साथ दूँदा।’
क्षण भर के लिए तो सन्नाटा छाया रहा और फिर सहसा कहकहों का बादल फट पड़ा– ताजगी भरे और सबल कहकहे, जो गर्मियों में बारिश के जोरदार छींटे की तरह मनुष्य की आत्मा के सारे विकार और मुर्झाहट धोकर उसे पवित्र और निर्मल कर देता है। इनसानों को एक ठोस चट्टान बनाकर एकजान कर देता है। और जो परस्पर मैत्री और सहानुभूति के सम्बन्धों से और भी दृढ़ हो जाता है।
तमाम आदमियों ने अपना काम छोड़ दिया और हँसी के मारे पेट पकड़कर लोटने लगे, उनकी आँखें लोट-पोट हो गयीं और आँसू उनके गालों पर बहने लगे। याश्का भी कुछ भौचक्का हो हँस रहा था और अपनी कमीज झटक रहा था।
‘त्यों नहीं? मैं चथाऊँदा उसे मजा! ढैया या तोई लतड़ी-डण्डा उठातर दे मारूँदा...’
सबसे पहले शतूनफ़ की हँसी रुकी हथेली से मुँह पोंछते हुए और किसी की ओर देखे बिना उसने कहा :
‘अबके भी याश्का ही ने हिम्मत की, लौंडा ठीक कहता है! बेकार बेचारे को डरा रहे हो। वह तो तुम्हारे भले की बात करता है और तुम उसे निकाल बाहर करने पर तुले हुए हो...।’
‘अरे, पर सावधान कर देने में तो कोई हर्ज नहीं है!’ याश्का अपनी हँसी पर काबू पाने के बाद बोला। ‘हम कुत्ते तो हैं नहीं, क्यों? है न?’
और सब-के-सब बड़ी दिलचस्पी ले लेकर यह उपाय ढूँढ़ने लगे कि मुझे येगोर के पंजे से किस तरह बचाया जाये।
‘किसी को मार डाले या अपाहिज कर दे – उसके लिए सब समान है। फर्क ही क्या पड़ता है, कुछ भी नहीं।’
बचाव के और हमले के निरर्थक और मूर्खतापूर्ण मंसूबे बनाने में याश्का सबसे बाजी ले गया। उधर बूढ़ा कूजिन एक कोने में ताकते हुए गुर्राया :
‘क्यों रे, तुम लोगों को कितनी बार कहना पड़ेगा कि मूर्ति झाड़-पोंछकर साफ कर दो...?’
बंजारा अपना बेलचा अँगीठी में चला रहा था और जैसे अपने आप ही से तर्क-वितर्क कर रहा था :
‘मुसीबत के लिए हरेक को तैयार रहना चाहिए... यहाँ तो अब दिन-रात झगड़ा- टण्टा होने लगा है।’
आँगन में कोई भारी कदमों से चलता हुआ आया और खिड़की के पास से गुजर गया और बूझ-बुझक्कड़ याश्का ने जोरदार लहजे में कहा :
‘येगोर है। सुअरों को एक नजर देखकर आया होगा अब फाटक बन्द करने गया है...।’
कोई बुदबुदाया :
‘हाय! अस्पताल में ही किसी ने उसका काम तमाम न कर दिया।
फिर नीरवता और उदासी छा गयी। एक मिनट बाद नानबाई ने फिर सुझाया :
‘सिम्योनफ़ को परेड करते देखना चाहते हो?’
बरामदे में खड़ा मैं दीवार की दरार में से झाँककर बाहर आँगन में देख रहा था। आँगन के बीच में हमारा मालिक एक खाली बक्स पर बैठा था। उसकी टाँगें नगी थीं। कुर्ते के दामन में कोई दो-तीन दर्जन पावरोटियाँ थीं। चार बड़े-बड़े नस्ली सुअर उसके घुटनों से अपनी थूथियाँ रगड़-रगड़कर जोर-जोर से खरखरा रहे थे और वह उनके लाल जबड़ों में पावरोटियाँ ठूँसता जाता और सुअरों के पेट थपथपा-थपथपाकर बड़ी नर्म, फीकी और अनजानी आवाज में बड़बड़ा रहा था।
‘हूँ-हूँ, खाओगे? पावरोटी खाओगे? लो, लो खाओ...।’
उसका भरा हुआ चेहरा, हल्की, स्वप्निल मुस्कान से खिला हुआ था उसकी फुल्ली आँख में जान पड़ गयी थी और वह गहरा लगाव प्रकट कर रही थी। कहना चाहिए कि उसके इर्द-गिर्द की हरेक चीज में कुछ विलक्षण अजनबियत पैदा हो गयी थी। उसकी पुश्त पर एक चौड़ा-चकला, चेचक मुँह दाग, मुछेल सफाचट नीली ठोड़ी वाला कोई व्यक्ति खड़ा था जिसके बायें कान में चाँदी की बाली पड़ी थी। सिर पर टोपी गुद्दी की तरफ तिरछी किए उसने बटन जैसी गोल-गोल धुँधली आँखों से सुअरों की ओर देखा जो उसके मालिक के साथ खेल रहे थे। उसके दोनों हाथ जेबों में ठुँसे अन्दर-ही-अन्दर बल खा रहे थे।
‘अब समय आ गया है इन्हें बेचने का,’ उसने कर्कश आवाज में कहा। उसके चेहरे पर कोई शिकन तक नहीं पड़ी थी।
‘बड़ा वक्त पड़ा है।’ मालिक ने तड़ख कर जवाब दिया। ‘ऐसे जानवर फिर कब मिलेंगे –?’
एक सुअर ने उसकी पसलियों में अपनी थूथनी रगड़नी शुरू कर दी। सिम्योनफ़ सन्दूक पर बैठे-ही-बैठे झूम गया और अपना बेडौल शरीर फुदकाते हुए उसने इस प्रकार दाँत निकाले कि चेहरे की मोटी-मोटी शिकनों में उसकी बेजोड़ आँखें गायब हो गयीं।
‘रोगी-पोगी साधु!’ उसने ठहाका मारकर चिंघाड़ते हुए कहा। ‘अँधेरे में रहते हैं बेचारे अँधेरे में! हाय-हाय, देखो तो चू-चू! ओहो, देखो तो अरे मेरे नन्हे-मुन्ने साधु, सीधे-सादे...’
सुअर सब-के-सब उकता देने की हद तक समान थे और मालूम होता था जैसे एक ही पशु सारे आँगन में दौड़ता फिर रहो हो। हास्यास्पद और भद्दी समानता, छोटे-छोटे उनके सिर, उनकी छोटी-छोटी टाँगे और उनकी नंगी-नंगी तोंदे जमीन से लगती हुई और वे अपनी बेकार छोटी-छोटी आँखों की सफेद पलकों को जोर-जोर से झपकाकर उस आदमी से टकराते फिर रहे थे। और मैं खड़ा उनको यों देख रहा था जैसे कोई भयानक सपना देख रहा हूँ।
गुर्राते, हिनहिनाते और दाँत कटकटाते ये सुअर अपनी ललचाती थूथनियाँ मालिक के घुटनों में ठूँस रहे थे। उसकी टाँगों और पसलियों से रगड़ रहे थे। और वह खुद भी चिंघाड़े, मार रहा था। एक हाथ से उनको धक्का देकर भगा देता और दूसरे से, जिसमें वह रोटी के टुकड़े लिए था, उनको सताता जाता। कभी तो रोटी वाला हाथ उनके एकदम समीप ले जाता और फिर एकदम हटा लेता। दबा-दबा-सा कहकहा उसके पूरे जिस्म को थलथल हिला देता। इस हाल में खुद भी वह सुअरों जैसा मालूम हो रहा था। फर्क अगर कुछ था तो सिर्फ यह कि वह उनसे भी अधिक डरावना घृणित और विलक्षण था।
आहिस्ता-आहिस्ता अपने सिर को ऊपर उठाकर येगोर बड़ी देर तक आकाश को ताकता रहा जो इतना ही धुँधला और सर्द था जितनी खुद उसकी आँखें – चमकती हुई बालियाँ उसके कन्धों पर थिरक रही थीं।
कुछ अस्वाभाविक ऊँची आवाज में उसने कहा, ‘अस्पताल में उसने मुझे राजदाराना तौर पर बताया था कि कयामत कभी आयेगी ही नहीं।’
सिम्योनफ़ ने जो एक सुअर के कान पकड़ने की कोशिश कर रहा था, पूछा :
‘अच्छा नहीं आयेगी?’
‘नहीं।’
‘शायद वह झूठी, मक्कार है।’
‘हाँ, होगी।’
मालिक उन चुलबुले, साफ और चिकने शरीर वाले सुअरों से खेलता रहा। लेकिन अब उसके हाथों की हरकत में सुस्ती पैदा हो गयी थी। मालूम होता था कि वह थक गया है।
‘उसकी छातियाँ बड़ी सुन्दर हैं और आँखें नशीली।’ येगोर ने बीते दिन याद करके ठण्डी साँस भरते हुए कहा।
‘कौन, नर्स?’
‘और नहीं तो क्या! कयामत तो, वह कहती थी, कभी आयेगी ही नहीं, पर अगस्त में सूर्य-ग्रहण पूरा हो जायेगा।’
सिम्योनफ़ ने फिर उसी अविश्वास से पूछा–
‘बिल्कुल पूरा? सच बताना।’
‘हाँ हाँ, पूरा। लेकिन वह कहती है कि ज्यादा देर तक नहीं रहेगा। बस, एक परछाईं आयेगी और चली जायेगी।’
‘परछाईं कहाँ से आती है?’
‘मुझे क्या मालूम शायद भगवान के पास से...
मालिक उठ खड़ा हुआ और कठोर व कर्कश स्वर में बोला :
‘मूरख है वह। सूरज के सामने कोई परछाईं नहीं टिक सकती। उसकी किरणें उसे भी चीरकर निकल जायेंगी। यह तो हुई एक बात। दूसरी यह कि लोग कहते हैं भगवान स्वयं प्रकाशमान है। तो फिर भला उसकी छाया कहाँ से आयी? फिर आकाश में शून्य के सिवाय कुछ भी नहीं है। कभी तुमने ऐसी चीज की परछाईं देखी है जो कुछ भी न हो? वह निरी बुद्धू है, बिल्कुल बेवकूफ।’
‘बेशक, बेशक। हर औरत की तरह।’
‘यही तो बात है... अच्छा तो इन बच्चों को सुअरखाने में बन्द कर दो।’
‘मैं किसी लड़के को बुलाता हूँ।’
‘अच्छा बुला लो! लेकिन हाँ देखो वे उन्हें मारें नहीं। और अगर उन्होंने मारा तो मुझे बताना। मैं उनकी खबर लूँगा।’
‘मुझे मालूम है।’
मालिक आँगन में से गुजरता हुआ चला गया और सुअर उसके पीछे-पीछे दौड़े जैसे सुअरनी के पीछे दौड़ते हैं।
दूसरे दिन सुबह सवेरे मालिक ने बरामदे की ओर से हमारे भटियारखाने का दरवाजा धक्का देकर खोला और चौखट के सहारे खड़ा होकर विषैली मधुरता से कहा :
‘मि. बड़बड़िये, जरा जाओ तो आँगन में से आटे के बोरे लाकर बरामदे में तो रख दो।’
खुले हुए दरवाज़े में से सर्द हवा के सफेद बादल अन्दर घुस आये और उबालने वाले निकिता के गिर्द छा गये। उसने मुड़कर मालिक को देखा और निवेदन किया :
‘जरा दरवाजा बन्द कर दीजिए वासिली सेम्योनोविच! बड़ी तेज आँधी चल रही है?’
‘क्या? आँधी?’ सेम्योनोव गुर्राया और अपनी छोटी-सी मुट्ठी से उसकी टाँट पर ठोंगा मार कर दरवाजा यों ही खुला छोड़ चला गया। निकिता की आयु कोई तीस वर्ष की थी लेकिन देखने में वह लड़का ही मालूम होता था– बुजदिल-सा नाटे कद का आदमी जिसके पीले चेहरे पर बेरंग बालों के गुच्छे-से थे। बड़ी-बड़ी आँखें जो हमेशा खुली रहती थीं और कसक व वेदना तथा भय के कारण पथराई हुई सी नजर आती थीं। विगत छः वर्षों से दिनचर्या यह थी कि सुबह 5 बजे से रात के 8 बजे तक वह उबलते हुए पानी के कढ़ाव के सामने खड़ा होकर उसमें निरन्तर हाथ डुबोता रहता था। सामने से तो दहकती हुई आग के शोले उसका जिस्म झुलसाते रहते थे और पीछे से दिन में सैकड़ों बार दरवाजा खुलता और ठण्डी हवा के झोंके आकर उसकी पीठ सुन्न कर देते। गठिया की बीमारी के कारण उसकी उँगलियाँ ऐंठ गयी थीं; फेफड़ों पर सूजन आ गयी थी और टाँगों में नीली-नीली नसों की गाँठे उभर आयी थीं।
एक खाली बोरा पीठ पर संभाल मैं बाहर आँगन में चला गया। ज्यों ही मैं निकिता के पास आया उसने दाँत पीसते हुए बड़बड़ा कर कहा :
‘सब तेरा ही कसूर है, गारत हो जाए तू...।’
गंदले पसीने की तरह आँसू उनकी बड़ी-बड़ी आँखों से बहने लगे।
मैं निढाल हो बाहर आया और सोचने लगा : मुझे यहाँ से जाना ही पड़ेगा।
एक जनाना समूर का कोट पहने मालिक आटे के बोरे के ढेर के पास खड़ा था– कोई डेढ़ सौ बोरे होंगे और उनके एक तिहाई भी बरामदे में नहीं आ सकते थे। यही मैंने मालिक से भी कहा और उसने मुँह बनाकर जवाब दिया :
‘अगर नहीं आये तो मैं तुम्हीं से उन्हें फिर बाहर निकलवाऊँगा। तुम काफी बलशाली हो ...।’
मैंने कंधे पर से बोरा घसीटकर फेंक दिया और सेम्योनोव से कह दिया कि मैं इस बकवास को बर्दाश्त नहीं कर सकता।
मेरा हिसाब साफ कर दो।
‘चलो-चलो, काम करो।’ उसने व्यंग्य किया, ‘सर्दी का मौसम है कहाँ जाओगे? भूखों मर जाओगे।’
‘मेरा तो तुम हिसाब साफ कर दो।’
उसकी फुल्ली आँख सुर्ख अंगारा हो गयी और मंजरी आँख की पुतली दुष्टता से घूमने लगी। मुक्का तान कर और सिसकियाँ लेते हुए उसने कहा :
‘घूँसा खाना चाहते हो?’
मारे गुस्से से मेरे तन-बदन में आग लग गयी। उसके तने हुए हाथ पर मैंने हाथ मार कर गिरा दिया और उसका कान पकड़कर चुपचाप मसलना और खींचना शुरू कर दिया। इतने ही में उसका बायाँ हाथ मेरे सीने पर पहुँच गया और उसने बौखलाई हुई और दबी-दबी आवाज में चीखना शुरू कर दिया।
‘ठहरो, ठहरो! क्या कर रहे हो? तुम्हारा मालिक हूँ। छोड़ो भी कमबख्त...।’
फिर बारी-बारी अपने चोट खाये हुए दाहिने हाथ को बायें हाथ से दबाते हुए अपने सुर्ख कान को हिलाते हुए उसने मुझे अपने लाल-लाल दीदे निकालकर घूरा और बड़बड़ाकर कहने लगा :
‘अपने आका के साथ यह हरकत? क्यों बे! अबे तू कौन? अरे मैं... मैं पुलिस को बुलाऊँगा! मैं अभी...।’
और अचानक अपने होंठों को भींचते हुए जैसे कि उसे बड़ी तकलीफ हो रही हो उसने लम्बी-सी दर्द भरी सीटी बजाई और अपनी दाहिनी आँखों को झपकाते हुए मुड़ गया।
मेरा गुस्सा मुट्ठी भर सूखी घास की तरह भड़ककर एकदम ठण्डा हो गया। धीरे-धीरे एक कोने की तरफ भारी कदमों से जाते हुए उसने बहुत ही भद्दी-सी आकृति बनाई। छोटे से समूर के कोट में से झाँकते हुए उसके मोटे-मोटे पुट्ठे चोट खाये हुए से थिरक रहे थे।
मैं ठण्ड में बिल्कुल अकड़ गया था और चूँकि वापस भटियारखाने में जाने की इच्छा नहीं थी इसलिए बोरों को ढोकर बरामदे में ले जाकर अपने आपको गर्म करने का फैसला किया, जब मैं पहला बोरा लेकर दौड़ता हुआ अन्दर गया तो शातुनोव पर नजर पड़ी। वह जमीन में उकड़ू बैठा दीवार की दरार में से झाँक रहा था और देखने में बिल्कुल उल्लू मालूम हो रहा था। उसके सख्त बाल दरख्त की छाल की एक लम्बी-सी पट्टी से बंधे हुए थे जिसके दोनों सिरे उसकी पेशानी पर पड़े भाव के साथ-साथ हिल रहे थे।
‘मैंने देख लिया है,’ उसने सन्तोष से कहा। लालटेन के कल्ले जोर-जोर से हरकत कर रहे थे।
‘अच्छा तो फिर क्या हुआ?’
उसकी छोटी-छोटी मंगोलियन आँखें रहस्यमय ढंग से फैल गयीं, उनसे कुछ व्यग्रता भी प्रकट हो रही थी।
‘देखो।’ उसने खड़े होकर और करीब आकर कहा, ‘इसके बारे में मैं किसी से भी जिक्र नहीं करूँगा और न ही तुम करना...।’
‘मेरा तो इरादा ही न था।’
‘बिल्कुल ठीक। कुछ भी हो वह है तो हमारा मालिक। क्यों है ना?’
‘हाँ तो फिर?’
‘हमें किसी-न-किसी का तो हुक्म मानना ही होगा। वरना आपस में धींगा-मुश्ती शुरू न हो जायेगी?’
वह अत्यन्त गम्भीरता और आहिस्तगी से बल्कि खुसर-पुसर के अन्दाज में बोल रहा था :
‘कुछ अन्दर सम्मान भी होना चाहिए, समझे!’
मेरी समझ में नहीं आया कि उसका मतलब क्या है और मुझे गुस्सा आ गया।
‘जहन्नुम में जाओ तुम!’
शातुनोव ने मेरा हाथ पकड़ लिया और बड़े रहस्यमय ढंग से मन्द स्वर में कहा :
‘येगोर से डरने की कोई बात नहीं। भयावने सपनों को रोकने का कोई मन्त्र आता है तुम्हें? येगोर को रात के समय बड़े डरावने ख्वाब आते हैं। उसे मृत्यु से बड़ा डर लगता है। उसने बड़ा पाप किया है और उसकी आत्मा उसी के भय से दुखित रहती है...। एक बार रात को संयोगवश मैं अस्तबल के पास से गुजरा ताे देखता क्या हूँ कि वह वहाँ मौजूद है और घुटनों के बल खड़ा गिड़गिड़ा रहा है ‘हे परमपिता परमेश्वर मुझे अचानक मृत्यु से बचाना! समझे तुम?’
‘नहीं, मैं नहीं समझा!’
‘इस तरह उसको अपने वश में करो!’
‘किस तरह?’
‘डर से...। ताकत की हवा में न रहना। वह तुमसे पाँच गुना अधिक शक्तिशाली है।’
मुझे अनुभव हुआ कि यह व्यक्ति मेरी भलाई चाहता है। इसलिए मैंने उसे धन्यवाद दिया और हाथ मिलाने के लिए अपना हाथ बढ़ाया। कुछ संकोच के बाद उसने भी अपना हाथ आगे किया। और जब मैंने उसकी गठीली हथेली गर्मजोशी से दबाई तो उसको शायद कुछ अफसोस हुआ और वह अपने होंठ चबाता हुआ आँखें नीची करके कुछ बड़बड़ाया जो मेरी समझ में न आया।
‘जाने दो, अब कुछ नहीं कहता।’ उसने झुंझलाहट दर्शाते हुए कहा और भटियारखाने के अन्दर चला गया। मैंने बोरे ढोने शुरू कर दिये। मेरे मस्तिष्क पर कुछ मिनट पहले की घटना बादल की नाईं छाई हुई थी।
मैंने रूसी जनता के बारे में पढ़ा था– उसकी मैत्रीपूर्ण भावना और समाज प्रेम भलाई की ओर उसका झुकाव। लेकिन लोगों को मैं अपने व्यक्तिगत अनुभवों के आधार पर और भी ज़्यादा निकट से जानता था क्योंकि दस वर्ष की आयु से ही मुझे अपनी जीविका आप कमानी पड़ी थी। घर और स्कूल के प्रभाव से मैं बिल्कुल स्वतन्त्र हो चुका था।
जो कुछ भी मैंने पढ़ा था मेरे व्यक्तिगत अनुभव स्वयं उसकी पुष्टि कर रहे थे। यह सच है कि लोग हर अच्छी चीज में कुछ आकर्षण अनुभव करते हैं, उसे सराहते हैं, उसे प्राप्त करने की चेष्टा करते हैं और इस अनपढ़, निराश जीवन को सुखमय और आशावान जीवन में परिणित करने की प्रतीक्षा करते हैं कि अच्छी चीजें किसी तरह उनके पास आ जायें।
लेकिन मैं बहुधा सोचा करता हूँ कि अच्छी चीज से लोग इस प्रकार प्रेम करते हैं जिस प्रकार बच्चे परियों की कहानियों से। उसकी सुन्दरता और अप्राप्तता पर आश्चर्य प्रकट करते हैं। उसकी ऐसी प्रतीक्षा करते हैं जिस तरह किसी त्योहार की। लेकिन अक्सर लोगों को उसकी शक्ति में विश्वास नहीं होता। और ऐसे तो बहुत ही कम होते हैं जो उसका संरक्षण और उसके विकास की देखभाल करते हों। उनका उदाहरण तो ऐसी बिन जुती धरती का-सा है जिस पर ढेरों घास उग आयी हो और जहाँ अगर कहीं हवा के झोंके के साथ गेहूँ का कोई दाना आ जाये तो उसकी नर्म व नाजुक कोंपलें पनपने ही नहीं पातीं बल्कि यों ही ठिठुरकर रह जाती हैं।
शातुनोव से मुझे दिलचस्पी पैदा हो गयी थी– यह व्यक्ति मुझे कुछ असाधारण-सा प्रतीत होता था।
कोई एक सप्ताह तक मालिक भटियारखाने में आया ही नहीं और न ही उसने मुझे नौकरी से अलग किया। उधर मैंने भी कोई जोर नहीं दिया। मेरा कोई ठौर-ठिकाना था नहीं और फिर जिन्दगी यहाँ दिनों-दिन ज्यादा दिलचस्प होती जा रही थी।
शातुनोव जानबूझकर मुझसे कतराता था। मैं उससे घुलमिलकर बातें करने का मौका ढूँढ़ता रहा, लेकिन सफल न हो सका। मेरे प्रश्नों का गोलमोल उत्तर ज्यादा से ज्यादा यह होता जो वह नजरें नीची किये हुए और जुगाली करते हुए देता :
‘हाँ, काश मैं कोई सही शब्द जानता! लेकिन फिर भी कोई व्यक्ति अपने मस्तिष्क का आप मालिक होता है।
उसका व्यक्तित्व कुछ विलक्षण, अन्धकार में छिपा हुआ था– संन्यासी का सा व्यक्तित्व, स्वभावतया वह अल्पभाषी था। बाज़ारी भाषा का कभी प्रयोग न करता था, परन्तु आराधना वह न तो सुबह उठकर करता था और न सोते समय। हाँ जब खाना खाने बैठता तो अपनी गहरी छाती पर क्रास का चिन्ह जरूर बना लेता था। अवकाश का उसे यदि एक भी क्षण मिलता तो वह अन्धियारे से अन्धियारा कोना देखकर वहाँ जा बैठता। और या तो अपने फटे कपड़े सीने लग जाता या फिर अँधेरे में बैठा जुएँ मारा करता। और हमेशा वह बहुत ही नीचे सुरों में करीब-करीब फटी हुई आवाज में यह गीत गुनगुनाता :
हाय कैसा दुखों ने घेरा है?
आज क्यों हर तरफ अँधेरा है?
कोई व्यंग्य से उससे पूछता :
‘सिर्फ आज? कल क्या तुम बहुत खुश थे?’
जवाब दिये बिना नजरें झुकाए ही वह गुनगुनाता रहता :
घर की खिंची शराब है मैं चाहता नहीं ...
‘खैर तुम्हारे पास तो है ही नहीं। मेरा मतलब है घर की खिंची हुई शराब।’
उसने अपनी भवें तक न हिलाईं मानो वह बहरा हो। और दुखित लय में गाता रहा :
अपनी महबूब से मिलूँ जाकर
पाँव इनकार कर रहे हैं मगर
पाँव चलने की खो चुके ताकत
और दिल में भी कुछ नहीं हसरत
बंजारे याश्का को उदासीनपूर्ण गीत नहीं आते थे।
‘ओ बे भेड़िये!’ वह नाराज होकर चीखा और उसकी बत्तीसी दिखाई देने लगी। वह फिर हुँकारने लगा।
अन्धकारमय कोने से मातमी गीत के शब्द धीरे-धीरे सुनाई देते रहे :
दिल पे रंजोअलम का साया है
हाय गम ने मुझे सताया है
गम से बोझिल है इस कदर छाती
रात को नींद तक नहीं आती
‘वानुक!’ नानबाई ने हुक्म दिया। मुँह बन्द करो। यह तो इस धुएँ में घोंट कर मार देगा! आओ हम कोई और गीत गायें।’
सभी ने नृत्य का एक अश्लील गीत आरम्भ कर दिया। शातुनोव गहरी और भर्रायी हुई आवाज निकाल रहा था और उसके अंदाज में कुछ उदासीनता थी। गीत के असाधारणतया अश्लील शब्दों के मुकाबले में यह उदासीनता अश्लीलता की एक निराली अदा मालूम होती थी। कभी-कभी गीत उसकी आवाज में दबकर लुप्त हो जाता था।
वजाहिर नानबाई और आर्तेम मुझ पर कुछ मेहरबान मालूम होते थे– यह एक नयी किस्म का रवैया है जिसे शब्दों में व्यक्त करना असंभव है। लेकिन इसको मैं महसूस जरूर कर सकता हूँ। रहा याश्का ‘झुनझुना’ तो मालिक से मेरी झड़प के बाद पहली ही रात को वह भूसे से भरा हुआ एक बोरा उस कोने में घसीट लाया जहाँ मैं सोया करता था और ऐलान कर दिया :
‘हाँ तो अब मैं तुम्हारे पाथ थोया तरूँगा।’
‘अच्छा।’
‘मैं तहता हूँ, हम तुम दोस्त बन दायें।’
‘चलो बन जाते हैं।’
वह फौरन लुढ़कता हुआ मेरे पास आ पहुँचा और बहुत ही राजदाराना अन्दाज में अपनी मोटी जबान तेजी से चलाते हुए उसने मुझे अपना राजदार बनाया।
‘देतो मैंने एक तूहे तो धींदर से बातें तरते देथा था। सच तहता हूँ मैंने देथा। एत दफा रात तो मेरी आँथ थुल दई। चाँदनी रात थी मैंने देथा कि मेरे पास ही एत तूहा नानथताई ततर-ततर तर था रहा है। मैं चुपचाप रेंदता हुआ उसते पास आया। उसी वक्त एत धींदर वहाँ आ दया। फिर दो और आये और तूहे ने नानथताई थाना थोड़ दिया और अपनी भूरी मूँछें हिलाने लगा। हमारे गूँगे नितान्दर की तरह वे एत दूथरे ते बातें तर रहे थे। ना जाने त्या बातें तर रहे होंगे। तुछ बड़े मजे की बात होगी, है ना! थो गये क्या?’
‘नहीं तो। फिर क्या हुआ?’
‘ऐथा मालूम होता था जैथे वह झींदरों थे पूछ रहा हो– तुम तहाँ ते आये हो? और उन्होंने कहा– गाँव से!... तुम्हें मालूम है जब गाँव में अकाल पड़ता है या जब आग लग जाती है तो गाँव थे आतर ये शहर में जमा हो जाते हैं उन्हें मालूम रहता है कि आग कब लगेगी। बुड्ढा बाबा कहता है उनथे, ‘भाग जाओ तुम थब।’ और उछल तर भाग जाते हैं। तुमने तभी देखा है?’
‘अभी तक तो नहीं।’
‘मैंने देथा है।’
और यह कहते ही उसने अचानक बड़े जोर से खर्राटा लिया जैसे उसका दम घुट रहा हो और फिर सुबह तक ‘झुनझुने’ की आवाज नहीं सुनाई दी।
अब मालिक ने अपना कायदा बना लिया था कि करीब-करीब रोजाना ही हमारे भटियारखाने में आये। और वह भी छाँट कर ऐसे समय आता था कि जबकि मैं कोई किस्सा कह रहा हूँ, अपने साथियों को किताब पढ़कर सुना रहा हूँ। दबे पाँव अन्दर आकर वह मेरे बाईं तरफ खिड़की के पास लकड़ी के एक खाली डिब्बे पर बैठ जाता और अगर मैं उसे देखकर रुक जाता तो वह बड़े पैने व्यंग्यपूर्ण स्वर में कहता :
‘बड़बड़ाए जाओ प्रोफेसर साहब। चलो काते जाओ अपना सूत, डरो नहीं।’
और वह बड़ी देर तक बैठा रहता। खामोशी से गाल फुला-फुलाकर अपनी चंदिया के छिदरे बालों के नीचे अपने छोटे-छोटे कान हिलाता रहता। बाल उसके इतने बारीक कटे हुए थे कि खोपड़ी पर चिपके हुए मुश्किल से नजर आते थे। कभी-कभी वो फटी हुई आवाज में पूछता :
‘क्या, क्या?’
और एक दिन जब मैं भूमण्डल के बारे में बता रहा था तो वह बारीक और तेज आवाज में चीखा :
‘ठहरो! और खुदा कहाँ से आ गया?’
‘वह यहीं है?’
‘झूठ! कहाँ है!’
‘अपनी बाइबिल भी नहीं जानते?’
‘अच्छा अब मुझे बनाओ नहीं– कहाँ है वह?’
‘और पृथ्वी का और कोई आकार नहीं था। गहरी कंदराओं में घोर अन्धकार छाया हुआ था और समुद्रों की सतह पर परमेश्वर की आत्मा उड़ रही थी।’
‘समुद्र!’ उसने विजेता की नाईं चीखकर कहा, और तुम तो यह सिद्ध करने की चेष्टा कर रहे थे कि पृथ्वी आग का गोला थी। ठहरो, मैं पादरी साहब से पूछूँगा कि किताबों में क्या आया है...।’
वह उठ खड़ा हुआ और गमगीन लहजे में यह कहता चला गया :
‘तुम बहुत कुछ जानते हो बड़बड़िए!– क्या ख्याल है? तुम्हारे लिए यह अच्छा है क्या?’
याश्का ने अपना सिर हिलाते हुए चिंतित स्वर में कहा :
‘तुम्हें फाँसने के लिए वह जरूर कोई चाल चलेगा!’
उसके दो रोज बाद मुन्शी साश्का दौड़ता हुआ हमारे भटियारखाने में आया और हुक्म देते हुए चीखकर बोला :
‘मालिक बुला रहा है तुम्हें!’
‘झुनझुने’ ने चपटी नाक वाला अपना दागदार मुँह उठाकर गम्भीरता से सलाह दी :
‘दुसेरी अपने साथ लेते जाना।’
मैं उठकर बाहर चला गया। बाकी सब हँसी रोकने की असफल चेष्टा कर रहे थे। तहखाने का कमरा सामान से खचाखच भरा हुआ था। चाय के समोवार के करीब मेज के सामने हमारे मालिक के अलावा दो और मजदूर दोनोव और कुवशीनाव बैठे थे। मैं दरवाजे में आकर रुक गया। मेरे मालिक ने बड़ी ही नर्म आवाज में, जिसमें कुछ दुर्भावना निहित थी, हुक्म दिया :
‘अच्छा प्रोफेसर बड़बड़िए! अब जरा मेहरबानी करके सूर्य और तारों का किस्सा सुना दीजिए कि ये सब कहाँ से और कैसे आये?’
उसका चेहरा तमतमाया हुआ था। फुल्ली आँख सिकुड़ी हुई थी और मंजरी में एक नटखट चमक थी। दो और मुस्काते हुए चेहरे थे, एक सुर्ख अंगारे जैसा खरखरी बालों के चौखटे में से झाँकता हुआ और दूसरा मटियाला फफूंद खाया हुआ सा नक्शा। समोवार धीरे-धीरे सनसना रहा था। और ये अद्भुत लगने वाले सिर भाप के छल्लों में छिपे जा रहे थे। दीवार के सहारे लगे हुए पलंग पर बैठी हुई मालकिन सफेद चिमगादड़ मालूम होती थी। मसले हुए सोने के कपड़ों में से उसके बाजू निकले हुए थे। निचला होंठ लटका हुआ था और वह झूम-झूमकर मरीजों की तरह खाँस रही थी। कोने में पवित्र मूर्ति के पास रखे हुए दीये की मंद लौ भड़क रही थी मानों सर्दी के मारे काँप रही हो। खिड़कियों के दरम्यान दीवार पर एक तस्वीर लटक रही थी। जिसमें एक स्त्री कमर तक नग्न अपनी गोद में एक बिल्ली लिए बैठी थी। जो खुद उसी तरह उल्लेखनीय रूप से मोटी थी। कमरे में वोडका अचार और भुनी हुई मछली की मिली-जुली बू घुटी हुई थी। राहगीरों की टाँगों की परछाइयाँ खिड़की में से यों दिखाई देती जैसे कोई बड़ी-बड़ी कैंचियों से कुछ काट रहा हो।
मैं आगे बढ़ा और मेरा आका मेज पर से दस्ती काँटा उठाकर खड़ा हो गया। और उसको मेज के किनारे पर बजाते हुए मुझसे कहा :
‘नहीं, तुम वहीं खड़े रहो। पहले हमें कहानी सुनाओ और फिर मैं तुम्हारी आवभगत करूँगा...।’
मैंने सोचा कि बाद में मैं भी उसकी खातिर करूँगा और यह निश्चय करके मैंने बातचीत शुरू कर दी :
पृथ्वी पर जो जीवन था उसमें कोई आनन्द नहीं था, सुख नहीं था और यही कारण था कि मुझे आकाश इतना प्यारा लगता था। अक्सर गर्मियों के मौसम में रात के समय मैं खेतों में निकल जाता। धरती पर चित्त लेटकर आसमान की ओर देखता तो मुझे ऐसा मालूम होता कि हर एक सितारा अपनी सुनहरी किरण मेरे पास भेज रहा है। मेरे दिल में उतार रहा है। करोड़ों की संख्या में वे एक ही व्यवस्था में लगे हुए थे। और मैं भी जमीन के साथ उनके दरम्यान शून्य में तैर रहा था जैसे किसी बहुत बड़ी वीणा के तारों में रात के समय जमीन की जिन्दगी का खामोश राग मुझे जीवन के अनन्त सुख का गीत सुनाने लगता। ब्रह्माण्ड से आध्यात्मिक मिलन की ये भरपूर साअतें दिन भर के चिन्ताजनक प्रभावों की कटुता हृदय पर से इस प्रकार साफ कर देती जैसे किसी ने जादू कर दिया हो।
और यहाँ इस गन्दे छोटे से कमरे में तीन आकाओं और एक शराबी बुढ़िया खूसट के सामने जो मुझे मदहोश, बेरंग निगाहों से घूर रही थी, मैंने अपने आस-पास की हर घृणा करने वाली चीज़ की उपस्थिति भुलाकर अपने विचारों की रौ में बहना शुरू कर दिया। मैंने देखा कि दो कुरूप चेहरे अपमानजनक अन्दाज में दाँत निकाल रहे थे और मेरे मालिक ने अपने मुँह की चोंच बनाकर आहिस्ता-आहिस्ता सीटी बजानी शुरू कर दी थी और उसकी मंजरी आँख मेरे चेहरे पर तेजी के साथ दौड़ रही थी और एक अद्भुत ढंग से मेरा परीक्षण कर रही थी। मैंने दोनोव को भर्राई हुई थकावट भरी आवाज में कहते सुना :
‘कमबख्त बड़ा ही बातूनी है।’
और कुवशीनोव ने झुंझलाकर कहा :
‘मुझसे पूछो तो यह शख्स बड़ा ही चालाक है।’
लेकिन इसके बावजूद मैं बिल्कुल भी नहीं घबराया मैं उनको अपनी बातें सुनने पर मजबूर करना चाहता था। और ऐसा मालूम होता था कि मेरी बातचीत का जादू उन पर चढ़ता जा रहा था।
अचानक मेरे मालिक ने मूर्ति की नाईं बैठे-बैठे आहिस्ता से अनुनासिक आवाज में कहा :
‘अच्छा बस काफी है बड़बड़िये! बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ा मजा आया। तुमने तमाम सितारों को अपनी-अपनी जगह जमा दिया है। अब जाओ और जाकर मेरे नन्हे-मुन्ने सुअरों को खाना खिलाओ।’
अब मैं जब वह जमाना याद करता हूँ तो बड़ा आनन्द आता है। लेकिन उस समय मजे का तो खैर सवाल ही क्या उल्टा इतना गुस्सा आया कि अब याद भी नहीं आता मैंने अपने आपको संभाला क्योंकर!
इतना याद है कि जब मैं बेतहाशा भागता हुआ भटियारखाने में आया तो शानोव और आर्तेम ने मुझे सम्भाला, सहारा देकर दालान में ले गये और पानी का एक गिलास पिलाकर मेरे होश व हवाश ठीक किये। याश्का ‘झुनझुने’ ने बड़े विश्वास से कहा :
‘क्यों मैं न कहता था? हाय, तुमने मेरी बात न मानी ना!’
और बंजारे ने गुर्राते, बड़बड़ाते हुए मेरी पीठ थपथपाई।
‘मैं भला क्या करूँगा? मेरा इसमें क्या बस चले... जब उस पर भूत सवार होता है तो वह किसी की नहीं सुनता चाहे लाट पादरी ही क्यों न आ जायें।’
सुअरों को खिलाना बड़ा ही नीच काम और अत्यन्त कठोर दण्ड समझा जाता था। और जब बाल्टियाँ भर के उनका खाना आता तो वे लाने वाले पर इस बुरी तरह झपटते कि उसका संभलना मुश्किल हो जाता, अपनी मोटी-मोटी थूथनियाँ उसकी टाँगों में दे देते और अगर कोई फिसल कर कीचड़ में लथपथ न हो जाता तो वह बड़ा ही भाग्यशाली होता था।
सुअरों के अहाते में दाखिल होते ही फौरन दीवार का सहारा ढूँढ़ना पड़ता था। सुअरों को लातें मार-मार के भगा कर बर्तन में उनका खाना उलट कर फौरन ही वहाँ से भाग आना पड़ता था, क्योंकि जब उन सुअरों की लातें पड़तीं तो गुस्से में आकर वे काटने दौड़ते थे। उस समय और भी बुरा मालूम हुआ जब येगोर ने भटियारखाने का दरवाजा खोलकर भयानक आवाज में ऐलान किया :
‘ऐ ओ कात्सावी। चल सुअरों को अन्दर ला।’
इसका अर्थ यह था कि बेकाबू जानवर आँगन में छुपे हुए थे और दरबे में जाना नहीं चाहते थे। ऐसी सूरत में पाँच-छः आदमी आँगन में दौड़ जाते। इस तरह छीन-छान, गाली-गलौज और भाग-दौड़ शुरू हो जाती। और मालिक इस तूफाने बदतमीजी से बड़ा आनन्द लेता। पहले-पहल तो वे लोग इस दीवानेपन में खुद भी मजा लेते क्योंकि इस तरह किसी हद तक उनकी काम की समानता का जादू टूटता था। लेकिन जल्दी ही वे थक कर चूर हो जाते। और उनका दम फूल जाता। जिद्दी सुअर आँगन में इधर-उधर लुढ़कते फिरते और पीछा करने वाले आदमियों को धक्के देकर गिरा देते और मालिक खड़ा तमाशा देखता रहता। इस भागम-दौड़ का नशा उस पर भी छा जाता और वह अपनी ही जगह खड़े-खड़े उछलता, कूदता, सीटियाँ बजाता और नारे बुलन्द करता।
‘शाबाश छोड़ना नहीं! खाल खेंच लेना इनकी।’
जब कोई आदमी उलझकर जमीन पर गिर पड़ता तो मालिक बड़ा ही खुश होता और फिर जोर-जोर से चीख कर अपनी मोटी-मोटी औरतों जैसी जाँघों को पीटता और मारे हँसी के लोट-पोट हो जाता।
गुलाबी-गुलाबी थूथनियाँ पूरे आँगन को चीरती फिर रहीं होतीं और उनके पीछे दौड़ते-दहाड़ते हुए चंद मरियल सूखे इन्सान जिनके जिस्म आटे में लिथड़े हुए होते, बदन पर गंदे चिथड़े और नंगे पैरों में फटे जूते– ये लोग दौड़ते और गिरते और सुअर की पिछली दोनों टाँगे पकड़े पूरे आँगन में घसीटते फिरते। यह दृश्य भी वास्तव में बड़ा ही विलक्षण और हास्यास्पद होता था।
एक दिन एक सुअर सहन में से भागकर सड़क पर जा निकला और हम छः लड़के दो घण्टे तक उसका पीछा करते बाजारों में दौड़ते फिरे यहाँ तक कि एक राह पर एक तातारी ने सुअर की अगली दोनों टाँगे डंडा मारकर जख्मी कर दीं और उसके बाद हम सुअर को चटाई पर रख कर घर वापस ले आये। और हमारे पड़ोसियों को यह तमाशा देखकर बड़ा मजा आया। तातारी देखकर अपने सर हिलाते और घृणा से थूकते लेकिन रूसियों ने एक छोटा सा जुलूस बना लिया और हकोरे साथ-साथ चलने लगे। एक सँवलाए हुए तेज-तर्रार विद्यार्थी ने अपनी टोपी उतार कर मचलते हुए जानवर की तरफ इशारा किया और सहानुभूति भरे स्वर में आर्तेम से पूछा :
‘कौन है, माँ या बहन?’
‘मालिक!’ थके-माँदे और झुंझलाए हुए आर्तेम ने झिड़क कर उत्तर दिया।
हमें सुअरों से नफरत थी। ये हमसे अच्छी तरह रहते थे और सिवाय मालिक के सबके लिए कष्टकर और अपमानजनक थे। फिर हमें उनकी सेहत और तन्दुरुस्ती की खबरगीरी करनी पड़ती थी जो बड़ी ही कष्टकर थी।
जब भटियारखाने वालों को मालूम हुआ कि मुझे एक हफ्ते तक सुअरों की देखभाल करनी होगी तो कुछ लोगों ने मुझसे इस खास रूसी उत्साह से सहानुभूति प्रकट की जो वैसे बहुत आसह्य होता है और दिल पर गोंद की तरह चिपकता है। और उसकी सारी शक्ति छीन लेता है। अक्सर लोगों ने उदासीनतापूर्ण चुप साध ली लेकिन कुजिन ने उपदेश देते हुए भुनभुनाते हुए कहा :
‘कोई परवाह नहीं! मालिक हुक्म देता है अब वह हुक्म बजा लेना तुम्हारा काम है! आखिर हम किसकी रोटी खाते हैं?’
आर्तेम चीखकर बोला :
‘ओ बुड्ढे खूसट! काणे चुगलखोर...।’
‘अच्छा, और नहीं तो क्या?’ बूढ़े ने कहा।
‘आज, आज भी जाकर कह दे। कह देना जाकर मालिक से...।’
कुजिन ने बात काटते हुए बड़े सन्तोष से उत्तर दिया :
‘सो तो कहूँगा ही! मेरे यार मैं तो सब कुछ ही कह दूँगा। मैं जीता ही सच बोल कर हूँ...।’
बंजारे ने एक मोटी-सी गाली दी और फिर हमेशा के विपरीत मुँह फुलाकर खामोश बैठ गया।
रात के इस संवेदनशील क्षण में जबकि मैं अपने कोने में लेटा भय व आतंक के कारण पत्थर बना थके-हारे आदमियों के जोर-जोर के खर्राटे सुन रहा था और पड़े-पड़े अपने दिमाग में जिन्दगी, इन्सान, सच्चाई और आत्मा जैसे गूँगे और समझ में न आने वाले शब्द बार-बार व्यवस्थित ढंग से जमा रहा था तो नानबाई चुपके-चुपके रेंगता हुआ मेरे पास आया और करीब ही लेट गया।
‘सो तो नहीं रहे?’
‘नहीं!’
‘बड़ी मुसीबतें आ रही हैं भाई?’
उसने अपने लिए एक सिगरेट बनाया और सुलगाया। छोटी-सी सुर्ख लौ में उसकी दाढ़ी के रेशमी तार और उसकी नाक की चोंच रोशनी के हाले में आ गयी। जली हुई राख फूँक मारकर उड़ाते हुए बंजारे ने मेरे कान में कहा :
‘देखो, सुअरों को जहर दे दो। बड़ी आसान बात है। बस यह करना कि गर्म पानी में थोड़ा सा नमक मिलाकर उन्हें दे देना। जानवरों के हलक में सूजन आ जाएगी और दम घुटकर मर जायेंगे।’
‘लेकिन इससे फायदा क्या?’
‘पहले तो यह कि हमारी मुश्किलें आसान हो जायेंगी और मालिक को एक नुकसान पहुँच जायेगा। मैं तुमको सलाह दूँगा कि तुम यहाँ से चले जाओ मैं साश्का से कहकर तुम्हारा पहचान-पत्र आका के पास से चोरी करा लूँगा– भगवान ने चाहा तो जरूर! क्यों क्या कहते हो?’
‘नहीं मैं नहीं जाऊँगा!’
‘तुम्हारी मर्जी! बहरहाल तुम यहाँ ज्यादा टिक नहीं सकते। तुम्हारी कमर वह जल्दी ही तोड़ देगा।’ अपने दोनों घुटने सिकोड़कर सीने से लगाकर और नींद की-सी हालत में झूमते हुए उसने बहुत धीरे से कहा :
‘मैं तो तुम्हारी भलाई चाहता हूँ, भगवान की कसम दिल से चाहता हूँ। सचमुच तुम चले जाओ...। जब से तुम यहाँ आये हो हमारी हालत बदतर हो गयी है। मालूम होता है तुम उसे छेड़ते हो और वह बरसता है हम सब पर। समझ लो सब लोग तुमसे आजिज आ गये हैं। बहुत मुमकिन है कि वे तुम्हारे साथ बुरी तरह पेश आयें।’
‘और तुम?’
‘मैं?’
‘क्या तुम भी आजिज आ गये हो मुझसे?’
जवाब देने से पहले वह अपनी सिगरेट की पीली चमक को खामोशी के साथ घूरता रहा। फिर बेदिली से बोला –
‘मुझसे अगर पूछते हो तो सुनो– मटर के पौधे दलदल में नहीं लगाये जाते।’
‘लेकिन जो कुछ मैं कहता हूँ क्या वह सच नहीं...?’
‘सच तो है, ठीक है लेकिन इससे फायदा क्या? एक चना तो भाड़ नहीं फोड़ सकता। तुम कहो या न कहो इससे फर्क ही क्या पड़ता है? तुम दूसरों पर हद से ज्यादा एतबार कर लेते हो। भैया! खबरदार! लोगों पर एतबार करना खतरनाक होता है।’
‘तुम पर भी?’
‘हाँ-हाँ मुझ पर भी। मैं कौन हूँ? क्या मुझ पर भरोसा किया जा सकता है? आज मैं कुछ हूँ, कल कुछ और...! बाकी सब भी...।’
मौसम सर्द था और खमीरी आटे की तेज बू नथुनों को चीरती हुई घुस रही थी। चारों तरफ लोग मिट्टी के ढेर की तरह पड़े जोर-जोर से साँस ले रहे थे। एक आदमी सोते सोते बड़बड़ा रहा था :
‘नताशा... नता... हा...।’
कोई कराह रहा था और बुरी तरह सिसकियाँ भर रहा था। शायद वह ख्वाब देख रहा होगा कि कोई उसे मार रहा है। तीन अंधियारी खिड़कियाँ गंदी दीवार में से रात को घूर रही थीं– गहरी सुरंगों के मोखो की तरह। खिड़कियों के छज्जों से पानी की बूँदें टपक रही थीं। बेकरी से तमाचे मारने और थपथप की धीमी आवाज आ रही थी। नानबाई का सहायक गूँगा और बहरा निकांदर आटा गूँध रहा था।
बंजारे ने सोच-विचार करते हुए बहुत नर्मी और आहिस्तगी से कहा :
‘तुम्हें चाहिए कि देहात में चले जाओ और स्कूल मास्टर बन जाओ। तुम्हारे लिए सबसे ज्यादा मुनासिब काम यही है। विश्वास करो बड़ी मजेदार जिन्दगी होती है। और बिल्कुल सीधी-सादी! निश्चित और आत्मा को सुखी रखने वाली। यदि मैं शिक्षित होता तो शुरू से ही स्कूल मास्टर बन जाता मुझे छोटे-छोटे बच्चों पर बड़ा ही प्यार आता है और औरतों पर भी। ये औरतें तो मेरे दुर्भाग्य का कारण हैं। ज्योंही कोई मामूली-सी लड़की पर मेरी नजर पड़ी और बस मैं गया काम से। मुझे ऐसा मालूम होता है जैसे कि वह मुझे घसीटे लिए जा रही हो। अगर मेरी खसलत ऐसी न होती और अगर मुझे खेती पसन्द आ जाती तो शायद मैंने किसी अच्छी औरत से शादी करने का फैसला कर लिया होता... हम... मैं और वह मिलकर बच्चों का लालन-पालन करते– कम से कम एक दर्जन तो होते साले। और वहाँ– एक अच्छी सूरत वाली औरत है और दूसरी इतनी भी हसीन और सब की सब सहज ही प्राप्य हैं और इसी तरह लश्टम-पश्टम गुजर होती रहती है। ...भगवान जाने क्यों? बिल्कुल ऐसी बात हुई जैसे कोई जंगली बेर तोड़कर इकट्ठे किये जाते हों। लालच इतना हो जाता है कि हालाँकि देख रहे हैं कि टोकरी भर चुकी है लेकिन नहीं जी यही चाहता है कि अभी दो-चार और तोड़ लो...।’
उसने अंगड़ाई लेते हुए दोनों हाथ उसी तरह फैला दिये जैसे किसी से बगलगीर होने वाला हो। लेकिन फिर अचानक गंभीर और दो टूक फैसला करने के स्वर में बोला :
‘अच्छा तो फिर सुअरों के बारे में क्या ख्याल है?’
‘नहीं मैं ऐसा नहीं करूँगा।’
‘बड़े अफसोस की बात है। तुम्हारा क्या जाता है?’
‘नहीं।’
बंजारा चुपचाप सरकता हुआ आतिशदान के पास अपने कोने में वापस चला गया।
निस्तब्धता छाई हुई थी। मुझे कुछ ऐसा गुमान हुआ जैसे कुजिन की इकलौती आँख मेज के नीचे से चमक रही हो। जहाँ वह सोया करता था।
यह काल्पनिक चित्र भयभीत चिमगादड़ की नाईं गंदे फर्श पर सोये हुए लोगों के ऊपर से फड़फड़ाता हुआ, सीली हुई काली दीवारों की चौकट मेहराबों से टकरा-टकराकर आखिरकार बेजान होकर गिरता हुआ दिखाई दिया।
‘ओ बे!’ कोई ख्वाब में बड़बड़ाया। ‘इधर दे!... मुझे कुल्हाड़ी दे...!’