भाग पाँच / नानबाई / मकसीम गोरिकी

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हर शख्स ने अपनी-अपनी शक्ति के अनुसार चोरी की। चोरी की और वह भी बड़ी शान व लापरवाही के साथ। और यह आमदनी फौरन शराबखोरी पर खर्च हो गयी। तीनों की तीनों बेकरियाँ नशे में मस्त थीं। ऊपरी काम करने वाले छोकरों को जब शराबखानों से वोदका लेने भेजा जाता तो वे भी कुछ बिस्कुट अपनी कमीजों में छिपाकर ले जाते और उनके बदले में कहीं से मिठाई की गोलियाँ ले आते।

‘इस तरह से तुम लोग सेम्योनोव का जल्दी ही दीवाला पीट दोगे।’ मैंने एक दिन बंजारे से कहा। वह अपने खूबसूरत सिर को हिलाते हुए बोला :

‘अरे भैया, मेरे हर रूबल के पीछे वह तो 36 कोपेक कमाता है।’

वह तो इस तरह बातें करने लगा जैसे उसे अपने मालिक के कारोबार का पूरा-पूरा और ठीक-ठीक ज्ञान हो।

मैंने कहकहा लगाया। पाशा ने मुझे इस तरह घूरा जैसे उसे मेरा कहकहा अच्छा न लगा हो और फिर मुँह बनाकर बोला :

‘तुम्हें तो छोटी-मोटी बातों की फिक्र हो जाती है। यह क्या हो गया है तुम्हें?’

‘अरे भई, फ्रिक हो जाने की बात नहीं। लेकिन यहाँ की गड़बड़ मेरी समझ में तो खाँक नहीं आती।’

‘अरे भई जब गड़बड़ी है तो फिर समझ में क्या आयेगी?’ शातुनोव ने विस्मित होकर कहा। सारा कारखाना हमारी बातचीत बड़ी गौर से सुन रहा था।

‘तुम ही मालिक की बड़ाई करते हो कि बड़ा होशियार आदमी है। इतना बड़ा कारोबार सँभाले हुए है। केवल तुम्हारी मेहनत के बल पर, समझे? लेकिन फिर भी तुम्हीं हर मुमकिन कोशिश उसे तबाह करने की कर रहे हो।’

कई आवाज़ों ने एक साथ जवाब दिया :

‘उसे तबाह करना असम्भव है!’

‘जो हाथ लगे हड़प कर जाओ। बस यही बेहतर है!’

‘हम तो खुलकर साँस ही उस घड़ी ले सकते हैं जब वह शराब के नशे में धुत हो।’

मेरी बातचीत का साश्का को फौरन पता चल गया और वह लपका हुआ बेकरी में आया। वह हल्के कत्थई रंग का सूट पहने हुए बड़ा जँच रहा था। दाँत निकालकर गुर्राते हुए बोला :

‘मेरी नौकरी पर दाँत हैं तुम्हारे, क्यों? कोई डर नहीं। हो तो तुम बड़े चालाक पर अभी कच्चे हो जरा।’

हर शख्स भूखे शेर की तरह इस ताक में था कि उस पर टूट पड़े और उससे एक झड़प हो जाये। साश्का मुस्तैद तो था पर साथ ही सावधान भी। उसकी निरंतर छेड़छाड़ और व्यंग्य से तंग आकर एक दिन मैंने उससे साफ कह दिया था कि वह अपनी इन हरकतों से बाज आ जायें वरना मैं अच्छी तरह मरम्मत कर दूँगा। एक बार छुट्टी के दिन शाम के वक्त का जिक्र है। सब लोग चले गये थे। मैं और वह आँगन में अकेले रह गये।

‘आ जाओ तो फिर!’ उसने अपना कोट उतार कर बर्फ पर फेंक दिया और ललकार कर कहा। आस्तीनें चढ़ाईं और लड़ने को तैयार हो गया। हो जाये आज। मुँह पर मारने की नहीं है बस सिर्फ बदन पर। यह मुँह तो मुझे कारखाने के लिए चाहिए तुम तो जानते ही हो।’

और अन्त में हारा हुआ साश्का ही मुझसे गिड़गिड़ाकर कह रहा था, ‘देखना मेरे अच्छे भैया, किसी और से मत कहना कि तुम मुझसे ज्यादा ताकतवर हो। मैं तुम्हारा बड़ा आभारी हूँगा। तुम तो यहाँ पर अस्थायी रूप से काम कर रहे हो– उड़ती चिड़िया हो– आज यहाँ हो कल कहीं और चले जाओगे। लेकिन मुझे तो इन्हीं लोगों के साथ रहना है। समझ गये मेरा मतलब? खूब! धन्यवाद! चलो आओ अन्दर चलकर एक प्याला चाय का पिएँ।’

उसके छोटे से कमरे में हम दोनों किवाड़ बन्द किये बैठे चाय पी रहे थे तो वह एक-एक शब्द जमा-जमाकर और समझा-समझाकर कह रहा था :

‘अरे यार तो... हाँ यह तो बिल्कुल ठीक है जरा यों समझ लो कि हाथ की सफाई खूब जानता हूँ। भई, मैं भी इन्सान, तुम भी इन्सान। ठण्डे दिल से तमाम हालात पर गौर तो करो।’ और मेज पर झुककर उसने जोर देते हुए इस अन्दाज में कहा जैसे गीत गा रहा हो। उसकी आँखें पता दे रही थीं कि वह चोट खाया हुआ है।

‘क्या सेम्योनोव से भी बुरा हूँ? उससे कम चालाक हूँ? क्या मैं नौजवान नहीं, खूबसूरत नहीं, चुस्त व चालाक नहीं? अरे मुझे कहीं भी पाँव टिकाने को मौका दे दो। कोई बहुत ही छोटा-सा कारोबार मेरे सुपुर्द कर दो। फिर मैं सब कुछ सँभाल लूँगा। दिखा दूँगा तुमको कि मैं क्या हूँ। और देखकर अगर मुँह चाटते न रह जाओ तो मुझसे कहना। मेरी यह शक्ल व सूरत है, क्या इस पर भी मैं किसी धनवान विधवा से शादी नहीं कर सकता? क्यों? या किसी तरुण श्रीमंत घराने की लड़की से जो भारी दहेज लेकर आये। क्या मैं उस लायक भी नहीं? मैं तो सैकड़ों आदमियों का पेट पाल सकता हूँ। सेम्योनोव की क्या हस्ती है? अरे उसे तो देखकर कै आती है। अजीब भोंदू-सा शख्स है। देखो तो भला यहाँ मौज करता है। पड़ा होता कहीं दलदल में तो अच्छा भी लगता। इस हालत में तो वह मुझे बड़ा खटकता है।’

उसका लाल लालची मुँह गोल हो गया– बटुए के मुँह की तरह और उसमें से सीटी की-सी आवाज़ निकली।

‘हाँ तो यार मेरे! ईमानदार की जिन्दगी अगर किसी की हो सकती है तो यह पादरी है। लेकिन हर शख्स जानता है कि पादरी हमेशा कुछ सुस्त-सुस्त और उदास रहते हैं। और उनका शरीर भी दुर्बल होता है। थाने के मुहर्रिर को जानते हो? वह लोश्‍नि? उसी ने लिखी है वह कविता जिसका शीर्षक है ‘पादरी गाथा’। बड़ा ही विद्वान व्यक्ति है। हालाँकि है पक्‍का शराबी। खैर तो उस किस्से में पादरी ने साफ कहा है, ‘हे भगवान तू भी बड़ा अन्यायशील है। चोरी बिना जीवन बिता देना भी संभव ही नहीं।’

यह चुस्त व सुडौल जिस्म और उस पर सुर्ख सिर मुझे प्राचीन भाले का-सा नज़र आ रहा था। एक अग्‍निवाण की भाँति कोई वस्तु जो रात्रि के समय मृत्यु और सर्वनाश का अपना कार्य सम्पन्‍न कर रहा हो।

मालिक की शराबनोशी के इन दिनों में याश्का के हाथ की सफाई पूरी तीव्रता के साथ जारी थी। छोटे-छोटे परिन्दों पर झपटते हुए शिकरे की तरह उसे दौड़ते और रूबल एकत्र करते देखकर बड़ी घृणा होती थी। पर साथ ही वह द‍ृश्य आकर्षक भी होता था।

‘अब तो यहाँ जेलखाने का-सा वातावरण पैदा हो गया है।’ शातुनोव ने एक दिन मेरे कान में कहा : ‘जरा बचकर रहना, कहीं तुम भी लपेट में न आ जाओ।’

अब दिन-ब-दिन वह मेरा ज्यादा ख्याल रखने लगा था। और मेरा काम करने के लिए हर वक्त मेरे इर्द-गिर्द ही घूमता रहता जैसे कि मैं कोई लंगड़ा-लूला या अपंगु हूँ। कभी आटा लिए चला आ रहा है तो कभी मेरे वास्ते लकड़ियाँ ला रहा है और कभी आटा गूँधने पर जिद कर रहा है।

‘आखिर मतलब क्या है तुम्हारा?’

मुझसे निगाहें चुराकर, बड़बड़ाते हुए उसने कहा :

‘कोई हर्ज नहीं, तुम्हारी ताकत कहीं और अधिक और उपयोगी बातों में काम आयेगी। तुम्हें इसका ध्यान रखना चाहिए। अच्छी सेहत इन्सान को जिन्दगी में बस एक बार मयस्सर होती है।’

फिर सदा की भाँति उसने दबे स्वर में पूछा :

‘मुहावरे का क्या अर्थ है?’

या फिर वह कोई अजीब-सी बात कह देता :

‘खिलिस्ती सम्प्रदाय के लोग ठीक कहते हैं कि हमारी माँ (ईसामसीह की माँ मरियम) एक नहीं बल्कि कई हैं।’

‘क्या मतलब?’

‘उसके अर्थ पर न जाओ बस।’

‘लेकिन तुम खुद ही तो कहते हो कि भगवान सबका एक है?’

‘सो तो है ही। लेकिन लोग तो विभिन्‍न हैं। वे उसको अपनी आवश्यकतानुसार बना लेते हैं। उदाहरण के लिए तातारी, मोर्डवीनियर! बस यही पाप है।’

एक बार रात को वह मेरे पास तंदूर के सामने बैठा हुआ था कि बोला :

‘क्या ही अच्छा हो कि एक बाजू टूट जाय! या टाँग टूट जाये। या कोई ऐसी बीमारी हो जाये जो दिखाई दे।’

‘वह क्या?’

‘मेरा मतलब है किसी प्रकार का कोई ... लँगड़ा-लूला होना ... समझे?’

‘दिमाग तो ठीक है तुम्हारा?’

‘बिल्कुल!’

चारों ओर द‍ृष्‍टि डालकर उसने अपने कथन की व्याख्या आरम्भ की, ‘मेरा ख्याल था कि मैं जादूगर बनूँगा। मुझे बड़ा ही शौक था उसका। मेरे नाना जादूगर थे और पिता के चाचा भी। हमारे गाँव में उनके चाचा मशहूर जादूगर थे। और गाँव में झाड़-फूँक और इलाज भी किया करते थे। शहद की मक्खियाँ भी पाला करते। जिले का हर आदमी उनको जानता था। यहाँ तक कि तातारी और चूवाशी और चेरेमेसी भी उनका लोहा मानते थे। अब वह कोई सौ से भी ऊपर है। कोई सात वर्ष हुए उन्होंने एक नौजवान लड़की रख ली थी– एक अनाथ तातारी लड़की। और उससे उनके सन्तान भी हुई। अब और शादी वह नहीं कर सकते। तीन शादियाँ उनकी पूरी हो चुकीं।’

एक गहरी साँस लेकर उसने आहिस्ता-आहिस्ता और सोच-सोचकर फिर बयान करना शुरू किया :

‘भला बतलाओ, तुम उसे ढोंग कहते हो! सौ बरस तक कोई ढोंग नहीं रचा जा सकता ढोंग तो कोई भी कर सकता है लेकिन उससे आत्मा सन्तुष्‍ट नहीं होती।’

‘पर सुनो तो, लंगड़ा-लूला क्यों बनना चाहते हो तुम?’

‘हाँ-हाँ, जी तो किसी ओर लगा हुआ है। मैं दुनिया भर की सैर करना चाहता हूँ। एक-एक कोना छानना चाहता हूँ। देखना चाहता हूँ कि आखिर दुनिया की क्या हालत है। कैसी जिन्दगी वह बसर करती है, क्या-क्या उसकी उम्मीदें हैं। हाँ, मगर मुझ जैसा हट्टा-कट्टा आदमी क्या बहाना बना सकता है तीर्थ यात्रा को जाने का। लोग कहेंगे क्या बात है? क्यों मारे-मारे फिर रहे हो? क्या बहाना बना सकता हूँ कुछ भी नहीं। इसलिए अब मैं सोच रहा था कि मेरा बाजू कट कर गिर गया होता या फोड़े पक-पककर नासूर हो गये होते तो... नासूर तो और भी बुरे हैं, लोगों को उनसे घृणा होती है।’

वह अचानक खामोश हो गया, उसकी तिरछी आँखें आग को घूर रही थीं।

‘तो तुम उसका पक्‍का निश्‍चय कर चुके हो?’

‘अगर निश्‍चय न कर चुका होता तो मैं उसका जिक्र ही न करता’ उसने एक कश लेते हुए कहा, ‘वह जो कहते हैं ना कि निर्णय किये बिना कहते फिरना खाली-खुली रौब जमाना है, वैसे ही...’

उसने मायूसी के आलम में अपने हाथ हिलाये और खामोश हो रहा।

आर्तेम जम्हाइयाँ लेता और मुस्कराता हुआ और अपने झाड़-झंखाड़ बालों वाले सिर को खुजाता दबे पाँव हमारे पास आया।

‘मैंने सपने में देखा है कि मैं नहा रहा हूँ और नदी में गोते मारने वाला हूँ। दो-चार कदम पीछे गया और लगा दी छलाँग... बड़ाँग! और मेरा सिर दीवार से टकरा गया! मेरी आँखों से सुनहरे आँसू बहने लगे।’

और वास्तव में उसकी आँखें डबडबाई हुई थीं।

कोई दो दिन बाद रात के वक्त जब मैं तंदूर में रोटियाँ रखकर मीठी नींद सो चुका था तो किसी की डरावनी चीखों ने मुझे जगा दिया। बिस्किट की बेकरी की ड्योढ़ी की महराब में मालिक खड़ा गंदी-गंदी गालियाँ बक रहा था। गालियाँ उसके मुँह से ऐसे निकल रही थीं जैसे फटे हुए बोरे में से चने के दाने। वह भी एक से एक बढ़कर गंदा।

उसी क्षण मालिक के कमरे का दरवाजा भी एक झटके के साथ खुला और क्लर्क साश्का दरवाजे की चौखट पर घिसटता हुआ आ पड़ा। मालिक उस पर बुरी तरह पिला हुआ था, कभी सीने पर कभी पसलियों में लात और घूँसे इस तरह लगातार पड़ रहे थे जैसे यह उसका काम है जिसे वह एकाग्रचित्तता के साथ पूरा कर रहा है।

‘हाय! तुम तो मुझे मार डालोगे!’ लड़का बुरी तरह चीख रहा था।

सेम्योनोव बड़े सन्तोष के साथ लात रसीद करता और फिर इत्मीनान के साथ हुँकारता। इतनी देर में साश्का जमीन पर दुहरा पड़ा लुढ़कता रहता लेकिन जब भी कभी वह उठकर खड़े होने की कोशिश करता वह उसे वहीं उठाकर जमीन पर पटक देता।

सब मजदूर बिस्कुटों की बेकरी से निकलकर दौड़े हुए पहुँचे और खामोशी के साथ एक गुट सा बनाकर खड़े हो गये। सुबह तड़का था और उस सुरमई रोशनी में किसी के चेहरे साफ नजर नहीं आ रहे थे। लेकिन उनमें एक सनसनी और भय उत्पन्‍न हो जाने का आभास जरूर मालूम होता था। साश्का हाँफता-कराहता उनके कदमों में जा पड़ा।

‘भाइयो! वह तो मुझे मार डालेगा!’

वे सब के सब पीछे हट गये जैसे आँधी के एक झोंके में सूखी हुई टहनियों की बाड़ झकोला खाकर गिर पड़े। इतने ही में अचानक अार्तेम भीड़ को चीरता हुआ बाहर आया और मालिक के मुँह के ठीक पास जाकर बोला :

‘बस, बस बहुत हो चुकी!’

सेम्योनोव ठिठक गया। मौका पाते ही साश्का मछली की तरह फड़का और भीड़ में गायब हो गया।

एकदम सन्‍नाटा छा गया। कई सेकेन्ड तक भयानक निस्तब्धता छाई रही। और कोई फैसला न कर सका कि जीत किसकी– इन्सान की या हैवान की।

‘कौन है?’ मालिक ने भर्राई हुई आवाज में पूछा और हाथ उठाकर आर्तेम को गौर से देखने लगा। इस अर्से में उसका हाथ सिर से ऊँचा उठ गया था।

‘मैं हूँ!’ आर्तेम ने आवश्यकता से अधिक जोर लगाकर कहा और एकदम पीछे हट गया। मालिक ने उस पर भी हाथ छोड़ा लेकिन ओसिप फौरन ही लपककर आगे बढ़ा और उसने मुक्‍का अपने मुँह पर रोक लिया।

‘देखो!’ उसने बड़े इत्मीनान के साथ अपने सिर को एक झटका देकर कहा, ‘बस करो, लड़ो मत!’

और उसी क्षण सैनिक याश्का पतला-दुबला लापतेव और निकिता कोई पीठ पर हाथ बाँधें, और जेबों में ठूँसे मालिक को घेरने के लिए आगे बढ़े। सभी के सिर झुके हुए थे मानों उसे टक्‍कर मारने जा रहे हों। सब के सब एक साथ हमेशा के विपरीत जोर-जोर से चीख रहे थे।

‘बस हो चुकी बहुत! हमें क्या तुमने खरीद लिया? वाह, वाह! अब हम आगे सहन नहीं कर सकते!’

मालिक निश्‍चल व निस्पन्द खड़ा था मानों कीड़ा खाए और टूटे-फूटे फर्श में पैवस्त हो गया हो। उसके हाथ पीठ पर बंधे थे। सिर एक ओर को झुका हुआ था मानो गडमड आवाजों को सुनने और समझने की कोशिश कर रहा हो। जैसे-जैसे आदमियों का काला जमघट उसके चारों तरफ बढ़ता गया, कोलाहल में वृद्धि होती गयी। दीवार पर लगे हुए लैम्प का पीला प्रकाश उस अन्धकार के विरुद्ध असफल चेष्‍टा कर रहा था। लेकिन जब कोई सख्त दाँत निकाले उसके ठीक सामने आ जाता वही हिस्सा प्रकाश में जाकर ऐसा लगने लगता जैसे कि जिस्म के बाकी हिस्से से कटकर अलग हो गया हो। सबके-सब चीख-चीखकर आसमान सिर पर उठाए हुए थे। मगर फिर भी निकिता की आवाज उन सबमें बुलन्द थी।

‘तुमने मेरी सारी शक्ति चूस डाली। भगवान के सामने क्या मुँह लेकर जाओगे? हाय रे इन्सान, हाय!’

गालियाँ बढ़ते-बढ़ते बहुत ही गन्दी हो गयी थीं और कभी-कभी तो लोग घूँसे तान-तानकर सेम्योनोव को धमकियाँ देते और वह तो मालूम होता था जैसे खड़े-खड़े ही सो गया हो।

‘तुम्हें धनवान किसने बनाया! हमने?’ आर्तेम चिल्लाया। और बेचारा किताब खोलकर पढ़ने लगा।

‘याद रखो, हम सात बोरे आटे के हर रोज बिस्कुट बनाने के लिए हरगिज तैयार नहीं हैं।’

आखिरकार मालिक मुड़ा और अजीब अन्दाज में सिर को हिलाता हुआ खामोशी के साथ चला गया।

बिस्कुट की बेकरी में शांतिपूर्ण किन्तु उत्साह भरे उत्सव का द‍ृश्य उपस्थित था। हर व्यक्ति अपने-अपने काम में संलग्‍न नजर आता था। और सब के सब एक-दूसरे को जैसे नयी आँखों से देख रहे थे– विश्‍वास नर्मदिली, और कुछ उलझन से। और बंजारा तो चहचहा रहा था।

‘चलो यारो! लग जाओ काम पर कान फड़फड़ाकर।’

“चल जवान हमेशा। बिल्कुल ठीक-ठीक और न्याय के साथ। हम भी दिखा देंगे कि काम किसको कहते हैं। चलो जुट जाओ काम में।”

लापतेव आटे की बोरी कंधे पर लादे कारखाने के बीचों-बीच खड़ा अपने होंठ चाट-चाटकर चूस रहा था।

‘देखा क्या होता है ... जब तुम सब ऐसा कर लेते हो तो...’

शातुनोव जो नमक तोल रहा था, हुमककर बोला :

‘अरे, बच्चे एका कर लें तो अपने बाप को भी पीट सकते हैं।’

सब लोग ऐसे व्यस्त नजर आ रहे थे जैसा कि वसन्त ऋतु में शहद की मक्खियाँ... आर्तेम विशेषतया प्रमुख था। सिर्फ बूढ़ा कुजिन हमेशा की तरह अपनी गनगनी आवाज में कह रहा था :


‘अरे शैतानो! क्या सोच रहे हो तुम, कमबख्तो।’

गिरजाघर के घंटों, मीनारों और मकानों की छतों पर सुरमई धुँध छाई हुई थी। सारा शहर मुंडा-मुंडा सा नज़र आता था। और लोग भी दूर से ऐसे मालूम होते थे। जैसे सिर फटे फिर रहे हों। वायुमंडल पर एक सर्द-सी बौछार छाई हुई थी और साँस लेना तक मुश्किल हो रहा था। आस-पास की हर चीज पर मलगुजा-सा सफेद रंग चढ़ा हुआ था। और जहाँ अभी तक रात की जली हुई रोशनियाँ बुझाई नहीं गयी थीं वहाँ हल्की-सी जर्दी छाई हुई थी।

पत्थर की पटरियों पर छतों से टपकता हुआ पानी उदास-उदास सी आवाज़ पैदा कर रहा था। पथरीली सड़क पर घोडे के खुरों की चाप खोखली हो-होकर गूँज रही थी। और धुँध में ऊपर कहीं से मुअज्जिन शोकपूर्ण आवाज से सुबह की नमाज के लिए लोगों की पुकार रही थी।

मैं अपनी पीठ पर वनों की एक टोकरी उठाए लिए जा रहा था। और मुझे यों महसूस होने लगा था कि मैं निरन्तर और सदा ही चलता चला जाऊँगा। उस धुंध से गुजरकर खेतों को पार करता हुआ किसी राज मार्ग पर पहुँच जाऊँगा जहाँ वसन्त ऋतु का चमकता-दमकता सूर्य निश्‍चित ही उदय हो गया होगा।

एक घोड़ा गर्दन ताने, अपनी टाँगें उछालता धुंध में से निकला और मेरे पास से होता हुआ गुजर गया। घोड़ा बड़ा मोटा-ताजा और कत्थई रंग का था जिस पर काले दाग पड़े हुए थे और उसकी लाल आँखों में दुख व उदासी की एक झलक। बग्घी पर गाड़ीवान की जगह पर येगोर बागें ताने ऐसा तना हुआ बैठा था जैसे कि लकड़ी पर नक्शा खुदा हुआ हो। बग्घी के अन्दर मालिक हिचकोले खाता दिखाई दिया। उस समय वह लोमड़ी की खाल का कोट पहने हुए था जबकि गर्मी काफी हो रही थी।

यह तेज व तर्रार घोड़ा कई बार बग्घी के टुकड़े-टुकड़े कर चुका था। अभी पिछले दिनों येगोर और मालिक को कीचड़ और खून में लथपथ घर लाया गया था। पसली की हड्डियाँ चुर्र-मुर्र हो गयी थीं लेकिन फिर भी दोनों को इस मोटे-ताजे जानवर से बड़ी मुहब्बत थी।

एक बार जब येगोर घोड़े को साफ कर रहा था जिसने अभी एक मिनट पहले ही उसके कंधे पर काट खाया था, तो मैंने सलाह दी कि अच्छा तो यह हो कि इस जानवर को तातारियों के हाथ बेच दिया जाये ताकि वे उसे जिबह कर डालें! यह सुनते ही येगोर तनकर खड़ा हो गया और भारी खरेरे से मेरे सिर को निशाना बाँधते हुए धमकाकर बोला :

‘भाग जाओ!’

वह शख्स मुझसे फिर कभी न बोला और अगर मैंने उससे बातचीत शुरू करनी भी चाही तो वह बैल की तरह सिर झुकाकर एक तरफ चल दिया सिर्फ एक बार उसने अचानक पीछे से आकर मेरा कंधा दबोच लिया और झिंझोड़ते हुए बोला :

‘अरे बुद्धू! मैं तुमसे कई गुना ज्यादा ताकतवर हूँ तुम जैसे तीन से निपट सकता हूँ और तुमसे तो सिर्फ एक हाथ से। समझे? बस मालिक सिर्फ...’

यह बातचीत उसने बड़े भावुक ढंग से की और उसका इस पर इतना असर हुआ कि वह वाक्य तक पूरा न कर पाया उसकी कनपटियों पर नीली रगें उभर आयीं और माथा पसीने से तरबतर हो गया।

जबानदराज नन्हा याश्का उसके बारे में कहा करता था :

‘हाथ तो उसके तीन जरूर हैं मगर खुद वह बोंगा है।’

सड़क और भी तंग होती गयी। हवा और ज्यादा नम हो गयी थी मुअज्जिन की अजान भी खत्म हो गयी थी। घोड़े की टापों की आवाज दूर जाकर गुम हो गयी थीं और हर चीज एक आशाजनक स्तब्धता में छिप गयी।

नन्या याश्का साफ-सुथरी लाल कमीज पहने और सफेद एप्रन बाँधे दरवाजा खोलने आया और टोकरी उतरवाते हुए उसने मुझे चुपके से सावधान किया :

‘मालिक...’

‘मुझे मालूम है।’

‘गुस्से में है...’

उसी दम अल्मारी के पीछे से गुर्राने की आवाज़ आयी।

‘बड़बड़िये, यहाँ आओ।’

वह पलंग पर बैठा हुआ था और उसका एक तिहाई हिस्सा घेरे हुए था। अर्धनग्‍न सोफिया करवट लिए लेटी थी। उसने अपने हाथ सरहाने रखे हुए थे। एक टाँग अन्दर को सुकेड़ रखी थी और दूसरी जो नंगी थी वह उसने मालिक के घुटनों पर डाल रखी थी। उसने मुस्कराते हुए अपनी उन विचित्र-सी साफ शफ्फाफ आँखों से मुझे देखा। नजर आ रहा था कि आका आकर उसके कार्य में बाधक हुआ है। उसके घने बाल आधे तो चोटी में गुंथे हुए थे और बाकी आधे एक लाल और मसले हुए तकिये पर बिखरे पड़े थे। लड़की को छोटा-सा घुटना अपने हाथ में लेकर दूसरे से उसके पाँव की उँगलियों के लाल नाखूनों को भींचा।

‘बैठ जाओ!... अच्छा तो आज हम गंभीरता से बात कर लें।’

सोफिया के पाँव को थपथपाते हुए उसने आवाज दी :

‘याश्‍का, समोवार! चलो सोवा उठ बैठो।’

उसने जम्हाई लेते हुए धीरे से कहा :

‘मेरा तो जी नहीं चाहता।’

‘आओ, चलो उठ भी जाओ।’

उसने उसकी टाँग अपने घुटनों पर से सरका ली और आहिस्ता से खाँसते हुए कहा :

‘बाज बातें ऐसी हैं जो हमें करनी ही पड़ती हैं चाहे हमें अच्छी लगें या न लगें। खुद जिन्दगी ही हमारे स्वभाव के विपरीत गुजरती है।’

सोफिया बेढंगेपन से फिसलकर फर्श पर लेट गयी और उसकी टाँगें घुटनों से ऊपर तक खुल गयी। मालिक ने उसे डाँटते हुए कहा :

‘तुम्हें इतनी भी शर्म नहीं आती, सोवा?’

उसने अपने बाल सँवारने शुरू कर दिये और जम्हाई लेते हुए बोली :

‘तुम्हें मेरी शर्म की क्या परवाह?’

‘अकेला तो नहीं हूँ मैं ही? सामने लड़का बैठा है।’

‘उससे मेरी जान-पहचान है।’

गंभीर भाव-भंगिमा लिए, भवें सुकेड़े और गाल फुलाये हुए याश्का समोवार लेकर अन्दर दाखिल हुआ। समोवार देखने में बिल्कुल याश्का जैसा ही था वैसा ही छोटा-सा साफ-सुथरा और ठस्सेदार!

‘उँह नालायक!’ सोफिया ने झटके के साथ अपनी चुटिया खोलकर और सामने लहरियेदार बाल कंधे पर डालते हुए कहा और सिंगार मेज के सामने बैठ गयी।

‘खैर तो...’ मालिक ने कहना शुरू किया। इस समय उसकी तेज वाली मंजरी आँख अधखुली और दूसरी मुर्दावाली आँख बिल्कुल बन्द थी।

‘तो यह झगड़ा-फसाद करने की शै तुमने ही दी थी?’

‘तुम्हें तो मालूम ही है!’

‘निश्‍चित रूप से। पर तुम क्या कहते हो? क्या कारण है उसका!’

‘बड़ी मुसीबतें झेलनी पड़ती हैं बेचारों को।’

‘बहुत खूब! मगर ऐश कौन कर रहा है?’

‘तुम्हीं उनसे अधिक सुख-चैन से हो।’

‘वाह वाह!’ उसने खिल्ली उड़ाते हुए कहा, ‘खूब समझते हो! सोवा! चाय दो इनको। नींबू है? मैं नींबू डालूँगा!’

ऊपर रोशनदान वाली खिड़की में, जो मेज के ऐन ऊपर थी, एक जंगदार पंखा गुनगुना रहा था। समोवार भी सनसना रहा था। मालिक की बातचीत के बावजूद ये तमाम आवाजें सुनाई दे रही थीं।

‘चलो छोड़ो। बात को क्या खींचना। अगर तुम्हारे आदमी गड़बड़ करते हैं तो भई, गड़बड़ को खत्म तो करना ही होगा। क्यों ठीक है ना? वरना तो तुम किस काम के? क्यों सोवा, मैं कुछ गलत कह रहा हूँ?’

‘मैं क्या जानूँ? मुझे क्या वास्ता?’ उसने इत्मीनान के साथ जवाब दिया मालिक एकदम बिगड़ पड़ा :

‘किसी से कुछ वास्ता ही नहीं, मूर्खा कहीं की। मैं पूछता हूँ तुम आखिर गुजारा कैसे करोगी?’

‘मैं तुमसे कुछ नहीं सीखूँगी, खातिर जमा रखो।

वह अपनी कुर्सी पर आराम से लेटी हुई थी। चाय की एक छोटी-सी नीली प्याली में पाँच डलियाँ शकर की डालकर मजे से घुला रही थी। उसकी सफेद चोली सामने से खुल गयी थी और बड़ी-सी सुडौल छाती नजर आने लगी थी जिसकी नीली नीली नसों में रक्त-संचार तेज मालूम होता था। उसके मूर्खतापूर्ण चेहरे से नींद के लक्षण द‍ृष्‍टिगोचर हो रहे थे। या फिर मालूम होता था कि वह किसी गहरे सोच में है। होंठ उसके इस तरह खुले हुए थे जैसे किसी बच्चे के।

‘अच्छा तो खैर!’ मालिक ने बातचीत का क्रम जारी रखते हुए कहा और उसकी चमकदार आँख मेरे चेहरे के भाव टटोलने लगी।

‘मैं तुम्हें याश्का की जगह लगाना चाहता हूँ, क्यों?’

‘धन्यवाद! पर मैं कर नहीं सकता वह काम।’

‘नहीं क्यों?’

‘वह उचित नहीं है मेरे लिए।’

‘मगर कैसे, कुछ बताओ तो सही।’

‘यों ही, मेरा दिल नहीं चाहता उस काम के करने को।’

‘फिर वही दिल!’ उसने एक ठण्डी साँस खींचते हुए कहा और बड़े ही सुन्दर शब्दों में दिल, जान और आत्मा को भला-बुरा कहकर वह जरा जोश में आ गया और चीखते हुए उसने बोलना शुरू किया :

‘हाय, कहीं यह आत्मा मुझे देखने को मिल जाये एक बार फिर जरा अपने नाखून से कुरेदकर देखूँ भला काहे की बनी हुई है। यह सब खब्तीपन नहीं तो और क्या है? जिसे देखो वही इसकी बात करता है! मगर देखा किसी ने नहीं कभी। मूर्खता के अतिरिक्त और तो कुछ नजर आता नहीं। उफ्फो! अगर कहीं कोई ऐसा आदमी मिल भी जाये जिसमें ईमानदारी जर्रा बराबर भी हो तो अवश्य ही वह मूर्ख निकलता है।’

सोफिया ने आहिस्ता-आहिस्ता अपनी पलकें उठाईं। भवों के साथ-साथ व्यंग्यपूर्ण ढंग से मुस्कराई और पूछा :

‘आश्‍चर्य है, कभी तुम्हें कोई ईमानदार आदमी भी मिला?’

‘मैं खुद ईमानदार था अपनी जवानी में!’ उसने कुछ अनजानी सी आवाज में कहा और अपने सीने पर जोर से हाथ मारा। फिर लड़की के कंधे थपथपाये।

‘अच्छा अब तुम्हीं ईमानदार हो लेकिन भला इससे क्या फायदा? तुम ठहरी बेवकूफ! अब बताओ क्या हो?’

उसने जोरदार कहकहा लगाया, ‘तो यह बात। ...बस तुमने सब मेरे ही जैसे लोग देखे हैं। खूब ढूँढ़ी ईमानदार औरत तुमने।’

अब वह तैश में आकर चीखने लगा उसकी आँखें शोले बरसा रही थीं।

‘मैं खुद काम किया करता था और जिस कद्र बन पड़ता दूसरों की मदद भी किया करता। सच जानो दूसरे की सहायता करके मुझे बड़ी ही खुशी और इत्मीनान हुआ करता था। मैं यह भी चाहता था कि मेरे साथी भी, और मुझसे मिलने-जुलने वाले भी अच्छी तरह रहें और वातावरण जरा सुखद बन जाए। लेकिन मैं अन्धा नहीं हूँ। कोई क्या करे? जिसको देखो वही चीलर की तरह खून चूसने को चिपटा करता है।’


उदासी व विषाद इतना कष्‍टकर था कि रोने को जी चाहता था व्यर्थ ही दिल भारी-भारी सा रहता, एक टीस सी उठती। क्या इन्हीं लोगों के साथ जीवन व्यतीत करूँ? साफ मालूम होता था कि ये लोग एक स्थायी विपदा में फंसे हुए हैं। उनके दिल व दिमाग में कोई बुनियादी कमजोरी है, उनको देखकर अफसोस होता, दिल कटने लगता उनकी मदद करने की कोई सूरत न देखकर तबियत निढाल होने लगती और खुद भी इस बेनाम रोग का असर होने लगता।

‘बीस रूबल बुढ़ापे तक– है मंजूर?’

‘नहीं।’

‘पच्चीस? बोलो! मौज करना, लड़कियाँ मिलेंगी और हर तरह के ऐश रहेंगे।’

जी चाहा कि मैं किसी सूरत से उसे यह समझाऊँ कि हमारा साथ-साथ रहना मिल-जुलकर काम चलाना कितना असम्भव है। लेकिन मुझे समुचित शब्द ही न मिल सके और उसकी भारी उत्सुक एवं अविश्‍वसनीय आँखों की ताब न लाकर मैं कसमसा रहा था।

‘छोड़ो भी बेचारे को।’ सोफिया ने प्याली में चीनी ढालते हुए कहा। मालिक ने सिर का इशारा करते हुए कहा :

‘अब चीनी क्यों ठूँसे जा रही हो इतनी?’

‘तुम क्यों जलते हो?’

‘अरी मूर्खा। यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। देखो तो कैसी फूलती जा रही हो? ...अच्छा तो हाँ, हमारी तुम्हारी निभ नहीं सकती।’

‘तुम हमेशा के लिए मेरे खिलाफ हो गये?’

‘मैं चाहता हूँ कि तुम मुझे बर्खास्त कर दो।’

‘हूँ, हूँ... ठीक है।’ मालिक ने चुटकी बजाते हुए और कुछ सोचते हुए कहा, ‘अच्छा चलो चाय तो पियें। ... मिले थे तब तो कोई खुशी न हुई अब बिछुड़ रहे हो तो लड़-झगड़ कर नहीं।’

बड़ी देर तक खामोशी के साथ हम चाय पीते रहे। समोवार एक संतुष्‍ट फाख्ता की भाँति गुड़गुड़ाता रहा और हवा निकलने का पंखा किसी बूढ़ी भिखारिन की तरह गनगनाए गया। सोफिया किसी गहरे सोच में पड़ी मुस्कराती रही और अपने प्याले में घूरती रही।

‘सोवा, क्या सोच रही है? छोड़ भी इस फिक्र को।’

उसने गर्दन उठाई और फिर ठण्डी साँस भरकर आहिस्ता-आहिस्ता बेसुरी आवाज़ में– एक बहुत ही बीमार औरत की आवाज़ में–वे शब्द कहे जो हमेशा-हमेशा के लिए मेरे हृदय पर अंकित हो गये।

‘मैं सोच रही थी निकाह के बाद दुलहन और दूल्हा को गिरजे में एक साथ और अकेले बन्द करके ताला लगा दिया जाना चाहिए। बस यही करना चाहिए।’

‘हक थू!’ मालिक ने जोर से थूका। ‘क्या फिजूल बातें सोचा करती है ये!’

‘हाँ!’ उसने भवें सुकेड़कर और जोर देते हुए कहा, ‘मैं शर्त लगाती हूँ रिश्ता तब ही मजबूत होगा... तब तुम जैसे सड़ियल...।’

मेज को जोर से धक्‍का देते हुए, मालिक कुर्सी पर से उठ खड़ा हुआ।

‘बन्द करो यह बकवास। फिर वही रट लगानी शुरू कर दी?’

वह फिर खामोशी में खो गयी। और चाय के बर्तन उठाने लगी। मैं उठ खड़ा हुआ।

‘अच्छा अब चल दो।’ मालिक ने रुखाई के साथ कहा, जाओ अच्छा हुआ।’

बाहर गली अब भी कुहरे में लिपटी हुई थी। मकानों की दीवारों से गंदले आँसू बह रहे थे। अँधियारी परछाइयाँ भीगे हुए अँधेरे। अकेली भटक रही थी। कहीं दूर लोहारखाने में काम हो रहा था ‘वहाँ हथौड़ों की आवाज एक बंधे हुए वक्त के साथ लगातार सुनाई दे रही थी। और यह पूछती हुई मालूम दे रही थी, क्या ये लोग इन्सान हैं। क्या इसी का नाम जिन्दगी है?’

मैंने अपनी आखिरी तनख्वाह शनिवार को ली। और इतवार के दिन सब लड़कों ने मिलकर विदाई पार्टी का आयोजन किया। एक गंदे किन्तु आरामदायक और गर्म मयखाने में शातुनोव, आर्तेम, बंजारा, नाजुक मिजाज लापतेव, सैनिक मिलोव, निकिता और वानुक उलानोव एकत्र हुए। उलानोव एक सस्ते मगर भड़कीले कपड़े का पतलून पहने था, लम्बे जूतों में पाँयचे दबे हुए थे और नयी कमीज पर बड़ी भड़कीली बास्कट थी जिसमें काँच के बटन लगे हुए थे। उसकी पोशाक की भड़क और नयेपन ने उसकी बेशर्म आँखों की उद्दण्डता और कर दी थी। उसके मुर्झाए हुए छोटे-से चेहरे पर कायरता के भाव अंकित थे। और उसकी एक-एक हरकत से सावधानी और घबराहट के लक्षण दिखाई देते थे। मानों उसे हर वक्त डर लगा हुआ हो कि कहीं उसके कपड़े खराब न हो जायें या कोई वास्कट उतरवाकर न ले जाये।

एक रोज पहले शाम को सबने स्‍नान किया था और आज बालों में खूब तेल लगाकर आये थे इस वजह से त्योहार की सी रौनक हो गयी थी।

बंजारे ने उस पार्टी का सारा प्रबन्ध सम्भाल लिया था और नीलाम में बोली देने वाले खरीदार की तरह जल्दी-जल्दी आर्डर दे रहा था।

‘बाय थोड़ा गरम पानी और।’

हम एक साँस में चाय भी पी रहे थे और वोदका भी। और इसी कारण हम सब पर एक घटे-दबे नशे की हालत छाई हुई थी। लापतेव ने अपने कंधे से मुझे टहोका दिया और दीवार पर धकेलते हुए आग्रह किया :

‘जाने से पहले हमें कुछ उपदेश देते जाओ, ऐसे कि आँखें खुल जायें।... तुम तो जानते ही हो हमें कितनी सख्त जरूरत है।... सीधी-सादी और सच्ची बातें बताना, हाँ।’

शातुनोव ने, जो मेरे रूबरू बैठा हुआ था निगाहें नीची करके मेज के नीचे देखते हुए निकिता को समझाया :

‘इन्सान तो आने-जाने वाली चीज है।’

‘कहाँ जाये कोई?’ निकिता ने ठंडी साँस भरकर कहा, ‘कैसे जाये कोई?’

इनमें से हरेक मुझे इस तरह देखे जा रहा था कि मुझे उलझन-सी होने लगी और तबियत बड़ी उदास हो गयी। शायद मैं दूर कहीं बहुत दूर चला जाऊँ और फिर उन लोगों की सूरत भी कभी देखना नसीब न हो जो आज इस कदर अजीब तरीके से मेरे नजदीक हैं और मुझे प्रिय है।’

‘लेकिन मैं तो यहाँ शहर में रहूँगा।’ मैंने उनको बार-बार याद दिलाया। ‘हम तो मिलते रहा करेंगे।’

लेकिन बंजारे ने अपनी स्याह लटों को झटका देते हुए और साथ ही साथ इस बात का ध्यान रखते हुए कि चाय जो वह बना रहा है सब प्यालियों में एक सी बने, खाँस-खखारकर और गला साफ करके कहा :

‘हालाँकि रहोगे तो तुम इसी शहर में लेकिन अब तो हमारे खटमल तुम्हारे खून में हिस्सा न बटा सकेंगे।’

आर्तेम ने बड़ी मृदुल मुस्कान के साथ दबे स्वर में कहा :

‘अब तुम हमारे गीत में बोल नहीं रहे।’

शराबखाने में गर्मी हो रही थी। स्वादिष्‍ट पदार्थों की खुशबुएँ नथुनों में घुसी चली आ रही थीं और तम्बाकू का धुआँ नीली-नीली धुँधली लहरों में तैरता फिर रहा था। कोने वाली खिड़की में से वसन्त के साफ दिन की बुलन्द आवाजें अन्दर स्पष्‍टतया सुनाई दे रही थीं और रंगबिरंगे फूलों से लदी हुई डालियाँ मस्त होकर झूम रही थीं।

मेरे सामने दीवार पर एक दीवार-घड़ी लगी हुई थी। उसका पेण्डुलम मानों थक-हारकर रुक गया था। सुईयाँ गायब थीं और घड़ी का डायल शातुनोव के चौड़े-चकले चेहरे की तरह मालूम हो रहा था जो आज हमेशा से कहीं अधिक मलिन व उदास था।

‘इन्सान मैं कहता हूँ आनी-जानी चीज है।’ उसने अपना आग्रह दोहराया। ‘इन्सान अपने रास्ते तक आता है और गुजर जाता है।’

उसके चेहरे पर जर्दी-सी आ गयी थी। एक मुस्कराहट के साथ उसकी आँखें आहिस्ता-आहिस्ता बन्द हो गयीं।

शाम के समय बाहर दरवाजे पर आकर बैठना और राहगीरों की सूरतें देखना मुझे बड़ा अच्छा लगता है। अनजान लोग किन्हीं अज्ञात मंजिलों की ओर लपके चले आ रहे हैं। ...और उनमें से शायद कई ऐसे होंगे... जो नेक दिल भी हों। भगवान भला करे उनका।’ उसकी आँखें डबडबाईं और पलकों में दो छोटे-छोटे आँसू झिलमिलाने लगे और फौरन ही गायब हो गये वैसे उसके तमतमाए हुए चेहरे पर पड़ते ही भाप बन गये हों। उसने भर्राई हुई आवाज में फिर कहा।

‘भगवान इन पर दया करे। और आओ अब हम दोस्ती, प्रेम और घनिष्‍ठता के लिए मदिरापान करें।’

हमने प्याले टकराये और पी गये। फिर एक-दूसरे को हवाई चुम्बन दिये और इस दौरान में मेज पर रखी हुई तमाम चीजों को गडमड कर दिया। मेरे सीने के अन्दर बुलबुले चहचहाने लगी और दिल में एक तीव्र वेदना अनुभव करते हुए मुझे उन तमाम लोगों पर बड़ा प्यार आया। बंजारे ने अपनी मूँछ पर हाथ फेरा और साथ ही हल्की सी व्यंग्यपूर्ण मुस्कराहट भी जो उसके होंठों पर खेल रही थी, मिट गयी। और उसने भी इसी तरह एक भाषण आरम्भ कर दिया :

‘भगवान की कसम कभी-कभी तो भाइयो, अपना दिल भी इतनी शानदार लय निकालता है कि जैसे कोई मार्डविनियन बाजा बजा रहा हो। अब वही दिल याद कर लो जब हम सब सेम्योनाव के खिलाफ उठ खड़े हुए थे। और आज... यहाँ अब... कोई कर ही क्या सकता है।’ बस जी भर आता है। कोई अच्छी बात कहने को जी चाहता है। लेकिन हम अभागे कह नहीं सकते कि क्या हमारा जी चाहता है। भगवान साक्षी है मैं भले मानुसों का सा जीवन बिताऊँगा और किसी से जरा नहीं दबूँगा। तुम्हारा जो जी चाहे कहो। साफ-साफ कहो! कोई कुछ मेरे विरुद्ध शिकायत हो मुँह से कहो। मैं जरा भी बुरा न मानूँगा यकीन ही न करूँगा, इसीलिए मैं नाराज नहीं होऊँगा। और मैं जिन्दगी का सन्मार्ग जानता हूँ... ओसिप! तुमने लोगों के बारे में जो कुछ कहा था वह बिल्कुल सही है मैं सोचा करता था भाई कि तुम कूड़मगज हो लेकिन यह मेरी भूल है। तुम ठीक कहते हो हम सब अच्छे और योग्य लोग हैं।’

निकिता ने भरी हुई आवाज में उस रोज पहली बार बोलते हुए कहा :

‘हम सब... बहुत ही नाखुश और बेजार हैं।’

जहाँ आनन्द-मग्‍न हो लोग हँसी-दिल्लगी कर रहे थे वहाँ उन शब्दों पर किसी ने भी ध्यान न दिया जैसे खुद यह बात कहने वाला उन सब लोगों में दिखाई ही नहीं दे रहा था। अब उसकी हालत बहुत ही खराब और खस्ता हो चुकी थी और वह एक तरफ बैठा ऊं जा रहा था, उसकी आँखें बुझ गयी थीं। उसका झुर्रियोंदार चेहरा मुर्झाई हुई जर्द पत्ती की तरह नजर आ रहा था।

‘शक्ति तो मित्रता में है!’ लापतेव आर्तेम से कह रहा था।

शातुनोव ने मुझसे कहा :

‘ध्यान से सुनते रहो सब बातें और याद भी रखना। शायद इन्हीं से वह कविता बनती हो!’

‘मुझे मालूम कैसे होगा कि कविता इन्हीं से बनती है?’

‘पता चल ही जायेगा तुम्हें तो।’

‘और अगर इससे कोई और ही कविता बनी तो?’

‘कोई और?’

आसिप ने मुझे संदेहपूर्ण द‍ृष्‍टि से देखा और फिर क्षण भर संकोच करने के बाद कहा :

‘और कोई कविता हो ही नहीं सकती। लोगों की खुशी व खुशहाली के लिए एक ही कविता है, कोई और है ही नहीं।’

‘लेकिन मुझे पता कैसे चलेगा कि यह वही है?’

उसने निगाहें नीची कर लीं और कुछ रहस्यमय ढंग से मुझसे कहा :

‘देख लेना, फौरन पहचान जायेंगे सब!’

वानुक अपनी कुर्सी में कसमसाया और उत्सुकतापूर्ण द‍ृष्‍टि से उसने पूरे कमरे को जाँचा जो अब खचाखच भर चुका था। वह बोला :

‘खिखी! क्या ही अच्छा हो अगर हम अब कोई गीत छेड़ दें!’

फिर अचानक गड़ाप से अपनी कुर्सी में धंसते हुए उसने बड़ी घबराई हुई आवाज में कहा :

‘शिश... मालिक...’

बंजारे ने वोदका की भरी हुई बोतल उठाकर झट मेज के नीचे छिपा दी। लेकिन फिर फौरन ही वापस मेज पर जमाकर रखते हुए झल्लाकर बोला :

‘यह तो है ही शराबखाना!’

‘है तो सही!’ आर्तेम ने जरा जोर से कहा और फिर सब यों खामोश होकर बैठ रहे मानो किसी ने भीमकाय मालिक को मेजों के दरम्यान से बच-बचकर निकलते और हमारी महफिल की तरफ रोबदार ढंग से बढ़ते हुए देखा ही न हो। आर्तेम ही ने सबसे पहले आँखें चार कीं। और अपनी कुर्सी से उठते हुए बहुत ही तपाक से कहा :

‘नमस्कार, वासिली सेम्योनिच!’

दो-चार कदम के फासले पर रुकते हुए सेम्योनोव ने खामोशी के साथ हमारे समूह को अपनी मंजरी आँख से जाँचा। सब आदमियों ने भी चुपचाप सिर के इशारे से उसे सलाम किया।

‘कुर्सी!’ उसने धीरे से कहा।

सैनिक उछलकर खड़ा हो गया और उसने अपनी कुर्सी पेश की।

‘वोद‍्का पी रहे हो?’ उसने कुर्सी पर बैठकर एक लम्बी साँस लेते हुए कहा :

‘चाय पी रहे हैं।’ याश्का ने दाँत निकोसते हुए कहा।

‘बोतलों में से निकालकर?’

सारे कमरे में एक सन्‍नाटा-सा छाया हुआ था जैसे कि अब किसी भी क्षण तू-तू, मैं-मैं शुरू हुई। लेकिन ओसिप शातुनोव ने उठकर अपना ग्लास वोदका से भरा और मालिक को पेश करते हुए बहुत ही नम्रता से कहा :

‘हमारे साथ हमारे स्वास्थ्य के लिए पियो, वासिली सेम्योनिच।’

मालिक ने धीरे-धीरे और सोच-सोचकर अपना छोटा-सा बोझिल हाथ उठाया। हम सबकी तबियतें बोझिल हो रही थीं। किसी को यकीन न था कि यह हाथ जो उठ रहा वह ग्लास को झटककर फेंकने के लिए है या उठाने के लिए।

‘क्यों नहीं?’ आखिरकार उसने ग्लास को अपनी उँगलियों के सहारे उठाते हुए कहा :

‘और हम आपके स्वास्थ्य के लिए पियेंगे!’

मालिक ने अपनी मंजरी आँख से ग्लास को गौर से देखा और अपने होंठ चूसते हुए कहा :

‘क्यों नहीं, अच्छा... तो फिर पियो!’

उसने अपने मुँह के मेढक जैसे सूराख में वोदका उड़ेल ली। याश्का का काला चेहरा दागदार सा हो गया। कँपकँपाते हुए हाथों से जल्दी-जल्दी ग्लास भरते हुए उसने पाटदार आवाज में कहा :

‘बुरा न मानना वासिली सेम्योनिच, हम भी आखिर इन्सान हैं, तुम तो जानते ही हो। तुम खुद भी तो मज़दूर थे, तुमको तो मालूम होना चाहिए।’

‘बस-बस, ज्यादा चालाक न बनो!’ आका ने बात काटते हुए गमनाक लहजे में कहा बारी-बारी हममें से हरेक के चेहरे को उसने गौर से देखा और फिर मेरे चेहरे पर नजरें जमाकर ग्लानिपूर्वक कहा :

‘इन्सान! ... तुम लोग इन्सान नहीं हो। तुम तो जेलखाने के पक्षी हो। लो अब आओ पियें।’

रूसी सुस्वभाव जो चालाकी से खाली नहीं होता उसकी आँख में टिमटिमा रहा था। और उस झिलमिलाहट ने हमारे दिलों में शोले भड़का दिये थे। हल्की सी मुस्कराहट सबके चेहरों पर प्रकट हुई और उनकी आँखों में लज्जा व पश्‍चाताप एक परछाईं की नाईं थिरकने लगा।

हमने ग्लास टकराए और पी गये। बंजारा फिर फट पड़ा :

‘मैं सच बोलना चाहता हूँ।’

‘बस-बस, ज्यादा हाय-हाय न करो!’ हमारे मालिक ने रूखा मुँह बनाकर उसे रोकते हुए कहा। ‘कान के पर्दे फाड़े देता है। और तेरे सच की जरूरत किसे है? काम प्यारा है काम।...’

‘जरा ठहरिए।– दिखा नहीं दिया अपना काम मैंने कल-परसों?’

‘सुनी-सुनाई बातें न दोहराओ। जरा अपने दिमाग पर भी जोर दो।’

‘नहीं मैं तो कहता हूँ, बताओ मैंने काम करके नहीं दिखाया?’

‘बस ऐसा ही होना चाहिए!’

‘और ऐसा ही होगा भी।’

हमारे आका ने एक निगाह ही में सबको भाँपा और सिर हिलाते हुए फिर वही बात दोहराई।

‘बस ऐसा ही होना चाहिए। मैं तो और कुछ नहीं कहता। अच्छी बात अच्छी है। ऐ सिपाही बच्चे, एक दर्जन बियर का आर्डर दो।’

यह आर्डर मानो विजय का नारा था। महफिल की जिन्दादिली और भी बढ़ गयी। हमारे मालिक ने अपनी आँखें बन्द कर लीं और बोला :

‘अजनबियों के साथ तो मैंने वोदका की नदियाँ पी डालीं, लेकिन खुद अपने भाई-बन्दों के साथ महफिल का रंग जमता देखे जमाना बीत गया।’

हमदर्दी के भूखे दिलों, जिन्दगी की खुशियों से वंचित दिलों पर तो इस वाक्य ने आग पर तेल का काम किया। सब के सब एक-दूसरे से और भी सटकर बैठ गये। शातुनोव ने एक आह भर कर मानो सबकी ओर से कहा :

‘हम तो तुम्हें जरा भी नुकसान नहीं पहुँचाना चाहते थे मगर आखिर करते क्या? तंग आ गये दे जिन्दगी से। पिछले जाड़े बड़ी मुसीबत से कटे। बस यही वजह है।’

मैंने महसूस किया कि मिलाप के इस उत्सव में मेरी उपस्थिति खटकती है और मेरे ही कारण द‍ृश्य कुछ असहाय सा होता जा रहा। शराब फौरन ही उन लोगों के सिर पर सवार हो गयी और वे मालिक के ताँबे जैसे चेहरे को देख-देखकर मस्त हुए जा रहे थे और मुझे तो यह चेहरा भी कुछ असाधारण-सा प्रतीत हो रहा था। मंजरी आँख में दयालुता, विश्‍वास और बुद्धिमता की चमक दिखाई दी।

वह बड़े धीरे-धीरे और लापरवाही से बोल रहा था जैसे वह आदमी जिसे मालूम हो कि उसका मतलब फौरन समझ लिया जायेगा। और वह बैठा अपनी घड़ी की चाँदी की जंजीर अपनी उँगलियों में लपेट रहा था।

‘यहाँ कोई अजनबी नहीं है... हम सब हमवतन हैं। मेरे ख्याल में सबका वतन एक ही है।’

‘सो तो है ही। हमवतन!’ लापतेव ने खुशी में काँपती हुई आवाज में कहा।

‘भेड़ियों की सी आदत के कुत्ते कौन-कौन चाहेगा? ऐसा कुत्ता घर में रखने योग्य तो होता नहीं।’

सैनिक ने अपनी पूरी आवाज से चीखते हुए कहा :

‘ख-ब-र-दा-र! सुनो!’

बंजारे ने आँख बचाकर अपने मालिक की तेज आँखों में झाँककर कहा :

‘तुम समझते हो कि मैं कुछ नहीं समझता?’

महफिल का रंग और भी जम गया। बियर की एक दर्जन बोतलों का और आर्डर दिया गया। ओसिप ने मेरी तरफ झुककर लड़खड़ाती हुई जबान में कहा :

‘हमारा मालिक पादरी है। बिल्कुल लाट पादरी। ...लाट पादरी मठाधीश होता है।’

‘यहाँ बुलाया किसने उसे? कमबख्त ने सारा मजा किरकिरा कर दिया।’ आर्तेम ने जरा आवाज़ को दबाकर कहा।

हमारा मालिक मशीन की तरह बियर के ग्लास हलक में उड़ेलता रहा और बड़ी खामोशी के साथ। कभी-कभी बीच में बड़े रौब के साथ खखारकर गला साफ कर लेता जैसे अभी कुछ कहने ही वाला है। उसने मेरी मौजूदगी पर कोई ध्यान नहीं दिया। कभी-कभी जब उसकी उचटती हुई नजर मेरे चेहरे पर पड़ती तो खाली-खाली आँखों को जैसे कुछ दिखाई ही न देता।

मैं चुपके से उठकर बाहर खिसक आया। लेकिन आर्तेम लपककर मेरे पीछे आया। वह खूब डटकर पिये हुए था। फूट-फूटकर रोने लगा और सुबकियाँ लेते हुए बोला :

‘हाय भाई।... मैं तो अकेला रह गया अब। ...बिल्कुल अकेला!...’


राह चलते मालिक से कई बार भेंट हुई। हमने एक दूसरे को सलाम किया। अपने मोटे से हाथ से अपनी गरम टोपी उठाकर वह बड़ी संजीदगी के साथ कहता :

‘जिन्दा हो?’

‘जी हाँ, जिंदा हूँ।’

‘बस यही चाहिए!’ वह इस तरह कहता जैसे मंजरी दे रहा है। और मेरे कपड़ों का एक आलोचक की हैसियत से जाँचते हुए अपने भारी-भरकम जिस्म को लुढ़काता आगे बढ़ जाता।

ऐसी ही एक मुलाकात एक बार शराबखाने के सामने हुई और उसने सुझाव दिया :

“कहो बियर पियें तो कैसी रहे?”

हम तीन सीढ़ियाँ उतरकर तलघर नुमा कमरे में पहुँचे। उसने वहाँ सबसे ज्यादा अँधियारा कोना तलाश करके, एक भारी से स्टूल पर बैठकर चारों तरफ नजर दौड़ाई जैसे मेजें गिन रहा हो। हमारी मेज के अलावा वहाँ पाँच मेजें और थीं। सब पर मटियाले से लाल रंग के फटे-पुराने मेजपोश बिछे थे। एक ठिगनी सी बूढ़ी औरत काली शाल ओढ़े शराबखाने के मालिक की जगह बैठी मोजे बुन रही थी।

सफेद पत्थर की दीवारों पर तस्वीरों के चौखटे सजे हुए थे एक में भेड़िये के शिकार का द‍ृश्य था और दूसरी में जनरल लोरिस मेलिकोव का कनकटा चेहरा, तीसरी में येरूशलम का एक द‍ृश्य था और चौथी में दो नग्‍न लड़कियों की तस्वीर थी। इनमें से एक लड़की की चौड़ी छाती पर बड़े स्पष्‍ट शब्दों में यह इबारत लिखी हुई थी : ‘वीरा गालानोवा, विद्यार्थियों की प्रेमिका, मूल्य 3 कोपेक’ और दूसरी लड़की की आँखें किसी ने खोद ली थीं। उन बेहूदा और बेमौके तस्वीरों ने जो सारे वातावरण पर धब्बों की तरह पड़ी हुई थीं, तबियत को उदास कर दिया।

दरवाजे के शीशे में से एक नयी इमारत की हरी छत के ऊपर शाम के समय का निर्मल आकाश दिखाई दे रहा था। और बहुत ऊपर असंख्य कौवों की डारें उड़ती चली जा रही थीं।

मालिक ने हाँफ-हाँफकर साँस लेते हुए उस असुंदर भोंड़े स्थान को जाँचा और जम्हाइयाँ लेते हुए सवाल शुरू कर दिये कि मेरी क्या आमदनी है अपनी नौकरी से खुश भी हूँ या नहीं। उसकी तबियत दरअसल बातें करना न चाहती थी और खास रूसी किस्म की बेजारी और उकताहट उसके सिर पर सवार थी। आहिस्ता-आहिस्ता चुस्कियाँ लेकर उसने बियर पी और खाली ग्लास मेज पर रखकर अपनी उँगली से एक ऐसा झटका दिया कि अगर मैं न थाम लूँ तो ग्लास फर्श पर गिरकर चकनाचूर हो जाये।

‘क्यों पकड़ा?’ मालिक ने शांतिपूर्ण स्वर में पूछा, ‘गिर जाने दिया होता।... छन्‍न से गिरकर टूट जाता। मैंने दाम दे दिये होते!...’

गिरजाघर की घंटियाँ शाम की नमाज के लिए जोर-जोर से बजने लगीं और आसमान में उड़ते हुए कौवों की पंक्तियों में खलबली सी मच गयी।

‘मुझे ऐसी ही जगह पसन्द है।’ सेम्योनोव ने बातचीत जारी करते हुए कहा, ‘यहाँ सुकून है। और मक्खियाँ भी नहीं हैं मक्खियाँ धूप और उसकी गर्मी पसंद करती हैं।’

अचानक उसने घृणापूर्ण ढंग से मुस्कराते हुए कहा :

‘वह मूर्खा सोवका चली गयी। अब उसने एक छोटे पादरी से इश्क कर लिया है। सिर गंजा, मैले-कुचैले, फटे कपड़े– यह है हुलिया उसका और शराबी पक्‍का है। वैसे विधुर है। उसे मन्त्र सुनाया करता है। और वह बच्चों की तरह फूट-फूटकर रोया करती है।... मुझ पर अब चीखती-चिल्लाती है।... लेकिन मैं... मुझे क्या परवाह? मुझे उसी में मजा आता है।’

कोई शब्द उसके गले में आकर फंस गया और उसकी आवाज़ रुक गयी। फिर उसने झटके ले-लेकर बयान शुरू किया :

‘मेरा विचार था कि तुम दोनों की शादी करा दूँ– तुम्हारी सोफिया के साथ।... न जाने तुम दोनों की गृहस्थी कैसी होती?...’

इस बात से तो मुझे भी बड़ा आनन्द आया और मेरी हँसी पर उसने भी फुदक-फुदककर कुछ छोटे कहकहे लगाये।

‘शैतान!’ उसने अपने कंधे फुदकाकर गुर्राते हुए कहा, ‘पावन शैतान। हमारे भगवान के बनाये हुए नहीं... छि...।’

उसने अपनी रंगबिरंगी आँखों के छोटे-छोटे आँसू अपनी उँगली से पोंछ डाले।

‘ओसिप के बारे में तुम्हारा क्या ख्याल है? याद है ना वह? नौकरी छोड़ दी उसने, गधा कहीं का...’

‘गया कहाँ वह?’

‘कहते हैं तीर्थ-यात्रा को गया है।... जितना अनुभव उसे है और जो उम्र उसकी है– अब तक वह नानबाई हो गया होता कभी का। अच्छा कामगार है वह। अपना काम खूब अच्छी तरह जानता है।...’

सिर हिलाकर उसने चन्द घूँट बियर के पिये और आँखों पर हाथ का साया करते हुए बाहर देखकर बोला :

‘देखो तो कितने कौवे हैं। शादी के दिन हैं– अच्छा भाई बड़बड़िये कौन-सी चीज़ फिजूल है और कौन सी वास्तव में जरूरत की? कोई नहीं जानता भाई, ठीक-ठीक कोई नहीं जानता... छोटे पादरी ने कहा था, जरूरत की सब चीजें आदमियों के लिए हैं और फालतू चीजें भगवान के लिए।... वह पिये हुए था उस वक्त। अपनी बात न्यायोचित ठहराने के लिए सब कोई न कोई बहाना ढूँढ़ ही लेते हैं।... देखो तो सही शहर में कितने फालतू लोग हैं। सब खा भी रहे हैं पी भी रहे हैं। लेकिन वह खाना-पानी है किसका, क्यों?... हाँ और यह सब आता कहाँ से है?’

वह हड़बड़ाकर एकदम उठ खड़ा हुआ। एक हाथ जेब में डाला और दूसरा मेरी तरफ बढ़ाया। वह कुछ खोया-खोया सा नजर आता था! और उसकी आँख किसी फिक्र में सिकुड़ी हुई थी।

‘अब चलना चाहिए, अच्छा नमस्ते।’

उसने एक भारी सा बटुआ निकाला और उसके अन्दर उँगलियों को चलाते हुए इत्मीनान के साथ कहा :

‘अभी पिछले दिनों पुलिस इन्सपेक्टर तुम्हारे बारे में मुझसे पूछताछ कर रहा था।’

‘चाहता क्या था वह?’

मालिक ने अपनी सिकुड़ी हुई भवों में से देखते हुए लापरवाही के साथ कहा :

‘तुम्हारे चाल-चलन और तुम्हारी जबान के बारे में पूछ रहा था। मैंने कह दिया कि तुम्हारा चाल-चलन खराब है और जबान कैंची की तरह चलती है! अच्छा, चल दिये!’

दरवाजा पूरा खोलकर और अपनी हाथी जैसी टाँगें सीढ़ियों पर जमाकर रखते हुए उसने अपनी तोंद बाहर बाजार में धकेल दी।

उसके बाद फिर मेरी उससे मुलाकात नहीं हुई। मगर दस वर्ष बाद– मुझे योंही संयोगवश मालूम हुआ कि उसकी कारोबारी जिन्दगी किस तरह खत्म हुई। सन्तरी (मैं उन दिनों राजनैतिक कैदी था) मेरे लिए कुछ सौदा अखबार में लपेटकर लाया और उस पुर्जे में मैंने यह खबर पढ़ी :

‘गुड फ्राइडे के त्योहार पर हमारे शहर में एक बड़ी ही विचित्र घटना घटी। वासिली सेम्योनोव ‘बन’ और बिस्कुटों की नानबाई जो क्षेत्रों में बहुत प्रसिद्ध व्यक्ति रुआँसी सूरत बनाये शहर में अपने ऋणदाताओं के घरों पर गया और उसने रो-रोकर उन्हें विश्‍वास दिलाना चाहा कि वह बिल्कुल तबाह हो गया है और उसने उनसे प्रार्थना की कि वे उसे जेल भिजवा दें। उस व्यक्ति के कारोबार से जो खूब चलता था, सभी लोग किसी ने भी उस पर विश्‍वास न किया। और त्योहार के दिन जेलखाने में गुजारने की उसकी बेमौके इच्छा से लोगों ने बड़ा आनन्द लिया। इस अद‍्भुत स्वभाव वाले व्यक्ति के सनकीपन से सभी परिचित थे। लेकिन चन्द ही दिनों बाद शहर भर के व्यावसायिक वर्ग में बड़ी खलबली मच गयी क्योंकि पता चला कि सेम्योनोव कोई पचास हजार रूबल का कर्जा छोड़कर लापता हो गया है और अपनी हरेक बिकाऊ चीज ठिकाने लगा गया है। निस्संदेह उस पर धोखेबाजी से दिवालिया हो जाने का मुकदमा कायम होगा।’

इसके बाद फिर दिवालिया भगोड़े की विफल तलाश की परेशानी और सेम्योनोव की विभिन्‍न विचित्र हरकतों का ब्योरा दिया गया था। मैंने कागज के इस मैले-कुचैले और चिकने पुर्जे को पढ़ा और खिड़की के सामने जाकर विचारों के तूफान में खो गया। धोखेबाजी, अदूरदर्शी एवं दुर्भाग्यपूर्ण दीवालियापन की घटनाएँ जीवन से पलायन, कायरता और अकर्मयता के अनुभव की घटनाएँ रूस में बहुत आम थीं।

क्या परेशानी है यह, कैसी मुसीबत है?

एक आदमी है जो जिंदा है और कुछ सृजन करना चाहता है अपनी कामनाओं और अपने विचारों की रौ में। और सैकड़ों लोगों का दिमाग ख्वाहिश और मेहनत शामिल करता है, जबरदस्त इन्सानी मेहनत हजम कर जाता है फिर अचानक और धोखा देकर सब कुछ अधूरा और अपूर्ण छोड़ देता है और अक्सर खुद अपने आप भी जिन्दगी की हलचल से निकल भागता है। और इस प्रकार इन्सान के गाढ़े पसीने की मेहनत बरबाद हो जाती है। उसका नामोनिशान तक बाकी नहीं रहता। और अक्सर दुख, दर्द भरी मेहनत व मशक्‍कत की कली बिना खिले ही मुरझा जाती है।

जेलखाने की दीवार पुरानी और नीची है और भयावनी भी नहीं है! इस दीवार के बाहर, करीब ही बसन्त ऋतु के आनंददायक नीलाकाश में लाल ईंटों का एक ऊँचा अम्बर नजर आता है। जो शराब के कारखाने के मालिक और इजारेदार की मिल्कियत है। उसके समीप ही बल्लियों में और ऊँचे-ऊँचे मचानों के झाड़-झंकाड़ के दरम्यान मकानों की एक नयी इमारत बन रही है जो किराये पर उठाई जाएगी।

इससे भी आगे एक मैदान फैला हुआ है जहाँ कहीं-कहीं गहरी लीकें हैं जिनके किनारों पर सब्जा उग आया है। और इधर दाहिनी ओर एक खंदक के ऊपर झुकी हुई चट्टान पर यहूदियों का कब्रिस्तान है, जिसके पास ही दरख्तों के एक अँधियारे झुण्ड पर मुर्दनी छाई हुई है। मैदान में सुनहरी रंग के फूल झूम-झूमकर आपस में सरगोशियाँ कर रहे हैं। एक मोटी-सी काली मक्खी खिड़की के मैले-कुचैले शीशे से अपना सिर टकरा-टकराकर दीवानी हो रही है और मुझे मालिक का साधारण सा वाक्य याद आता है :

‘मक्खियाँ धूप पसन्द करती हैं, उसकी गर्मी।...’

सहसा शराबखाने का अन्धकारमय तहखाना मेरी आँखों में फिर जाता है जहाँ खूबसूरत और शोख रंगों की बेजोड़ तस्वीर लगी हुई थी–भेड़िये के शिकार का द‍ृश्य, येरूशलम का शहर, वीरा गालानोव मूल्य तीन कोपेक और कनकटा जनरल।

‘मैं इस किस्म की जगह पसन्द करता हूँ।’ मालिक ने ऐसे स्वर में कहा था जिसमें इन्सानी ईमानदारी की आवाज थी।

मैं उसके बारे में सोचना न चाहता था। इसलिए मैंने खिड़की से बाहर मैदान में पार नीलमूं जंगल को घूरना शुरू कर दिया जिसके आखिरी सिरे पर महान वोल्गा नदी बहती है–ऐसा मालूम होता है कि वह आत्मा को परिष्कृत करती हुई, निरर्थक भूत के चिन्ह धोती हुई बहती चली जा रही है।

‘कौन-सी चीज़ फिजूल है और कौन-सी जरूरत की?’ मालिक का यह वाक्य मेरे दिमाग पर आरे चला रहा था।

मेरी आँखों में उसका भारी-भरकम जिस्म बग्घी की गद्दी पर लोटता-पोटता, उछलता-थिरकता फिर रहा है। और वह गाड़ी में से जिन्दगी की तेज धार को अपनी मंजरी और चमकीली आँख से देखता नजर आ रहा है। योगोर लकड़ी की भांति मूर्ति बना हाथ फैलाए रास पकड़े बैठा है और अक्‍कड़ मिजाज कत्थई घोड़ा अपनी मजबूत टाँगें झटकाता और सड़क के ठण्डे पत्थर पर अपने सुमों को खटपटाता चला जा रहा है।

‘येगो,... मैं किसका हूँ?... एक भेड़ निगल जाता है।... तोंद भर लेता है– लेकिन कसम भगवान की वह फिर भी मुसीबत में ही रहता है।’

सीने में किसी चीज के उठने से दम घुटने का सा एहसास हो रहा था जैसे किसी व्याकुल व पीड़ित भावना के कारण कलेजा मुँह को आ रहा हो उस शख्स के लिए जो नहीं जानता कि अपना क्या बनाये जो संसार में अपना कोई स्थान ही तलाश नहीं कर पाता। केवल किसी ‘रंगरूट’ के आलस्य और दासतापूर्ण चुहलों ही से नहीं बल्कि शायद शक्ति की हद से ज्यादा बहुतायत के कारण भी।

चाहे कोई हो ऐसी हालत में गिरफ्तार होकर बहुत ही तकलीफ होती है। और तरस आता है। अन्धी शक्ति के सर्वनाश पर दया आती है। वह बहुत ही तीव्र और परस्पर विरोधी भावनाओं को उकसाता है जैसे कोई नटखट बालक अपनी माँ के दिल में। अगर अनिच्छा से बालक को कभी प्यार करना पड़े तो उसके बजाय वह उसे सजा देना बेहतर समझी है।

नयी इमारत के सुर्ख ढेर के चारों ओर बल्लियों और मचानों के झाड़-झंखाड़ पर राज-मज़दूर चींटियों की तरह रेंगते नजर आ रहे हैं। इमारत की दीवारों की चोटियों पर छोटी-छोटी शहद की मक्खियों की भाँति चिपटे हुए हैं। और इमारत को दिन-ब-दिन ऊँची करते जा रहे हैं।

और मज़दूरों और उनकी व्यस्तताओं की इस धमाधमी को देखते-देखते मुझे यह विशाल और पेचीदा संसार की भूल-भुलैयों के घने जाल में एक अकेला मुसाफिर ओसिप शातुनोव आनंदमग्‍न हो चलता, अविश्‍वस्त निगाहों से चारों ओर घूरता और हर बात को शौक से और पूरे ध्यान से सुनता नजर आता है कि शायद कहीं वे शब्द मिल जाएँ जो ‘जन-साधारण की खुशी’ की कविता रचें।