भारतीय जन के व्यक्तित्व के निर्माण में संस्कृति की भूमिका / प्रताप सहगल

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किसी भी व्यक्ति या कौम के व्यक्तित्व के निर्माण में संस्कृति क्या भूमिका अदा करती है? यह वाकई एक दिलचस्प खोज हो सकती है। दिलचस्प इसलिए कि 'व्यक्तित्व' तथा 'संस्कृति' के सूक्ष्म सूत्रों को पकड़ने में चूक की गुंजाइश हमेशा बनी रहती है। व्यक्तित्व सिर्फ़ व्यक्ति का ही क्यों, संस्कृति का भी होता है और इस मायने में एक बड़ा व्यक्तित्व जन के व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक होता है।

यों टेक्नॉलॉजी के दबावों के परिणामस्वरूप गति इतनी बढ़ी है, सीमाएँ इतनी संकुचित हुई हैं और 'टाइम-स्पान' इतना कम हुआ है कि किसी भी देश की विशुद्ध संस्कृति की खोज या केवल उसी देश के सांस्कृतिक दबावों की बात करना बेमानी लग सकता है और इस खोज में भटक भी सकते हैं। इस भटकाव से बचने का रास्ता यही नज़र आता है कि हम दूसरी संस्कृतियों के प्रभावों को स्वीकार करते हुए अपनी संस्कृति के स्वरूप तथा उसके होने वाले प्रभावों को रेखांकित करें।

भारतीय संदर्भों में संस्कृति तथा धर्म और धर्म और दर्शन को इतना मिला कर देखा जाता रहा है कि इनमें फ़र्क करना कई बार मुश्किल लगता है। फिर भी यह मानना होगा कि संस्कृति का स्वरूप धर्म की तरह से कठोर न होकर काफ़ी लचीला होता है और रहा है, अभी भी है।

संस्कृति अपने लचीलेपन के बावजूद बहुत धीरे बदलती है और बिल्कुल अपनी इसी प्रक्रिया के अनुरूप वह व्यक्ति के व्यक्तित्व को भी धीरे-धीरे प्रभावित करती है। यह प्रभाव इतना गहरा और असरदार होता है कि मात्र प्रभाव न रहकर उसके व्यक्तित्व का हिस्सा ही बन जाता है। संस्कृति के यही प्रभाव ही तो व्यक्तित्व का निर्माण करते हैं और हम किसी भी व्यक्ति से बात करके यह जान लेते हैं कि वह कितना सुसंस्कृत या असंस्कृत है।

आइए, जब ज़रा भारतीय संदर्भों में संस्कृति के स्वरूप को पहचानने की कोशिश करें। हम जब भारतीय संस्कृति कहते हैं तो हमारा अर्थ विभिन्न संस्कृतियों के सम्मिलित रूप से होता है। यह सम्मिलित रूप क्या है? हमारे देश में जैन धर्म या बौद्ध धर्म तो है, लेकिन जैन संस्कृति या बौद्ध संस्कृति नाम की कोई चीज़ नहीं। हिंदू संस्कृति या मुस्लिम संस्कृति की बात हो सकती है, क्योंकि उनके स्वरूप में भिन्नता है। कई तरह से एकरूपता भी है। इसी प्रकार से आभिजात्य संस्कृति या लोक संस्कृति की बात कर सकते हैं। आभिजात्य संस्कृति के तौर तरीक़े या मूल्य, लोक संस्कृति के मूल्यों से अलग हो सकते हैं। इसी तरह से पाश्चात्य संस्कृति का अलग स्वरूप है और उससे हमारी संस्कृति भी प्रभावित है। तो यह सब मिलकर जिस संस्कृति का निर्माण करते हैं, वहीं तो भारतीय संस्कृति है यानी संस्कृति का एक समग्र रूप। यही समग्र रूप ही आज जन के व्यक्तित्व के निर्माण में अपनी भूमिका अदा कर रहा है।

अब प्रश्न यह है कि यह संस्कृति किस तरह से व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक हो रही है? भारतीय जन जितनी तेज़ी से बाहरी तौर पर बदला है, अंदर से उतनी तेज़ी से नहीं बदल पाया। यहाँ यह कहना अनावश्यक न होगा कि उसका यह बाहरी बदलाव सांस्कृतिक दबावों के परिणामस्वरूप न होकर सभ्यता के विकासमान प्रतीकों को अपना लेने के कारण है। उसकी वेश-भूषा, रहने का ढंग, चाल-ढाल बदला है, यह भी उसके व्यक्तित्व का हिस्सा ज़रूर है, लेकिन यह प्रभाव तेज़ी से बदलती हुई सभ्यता का है। यानी सभ्यता बाहरी तौर पर तो व्यक्ति का आमूल बदल सकती है, लेकिन उसके मूल्यों, उसके आदर्शों को नहीं। वह मूल्य और आदर्श बचाकर रख सके, यहीं संस्कृति की भूमिका शुरू होती है। संस्कृति मात्र इतना ही नहीं करती, वह व्यक्ति को संस्कार भी देती है।

भारतीय संस्कृति पर भाषा के हमले के बाद दृश्य एवं श्रव्य माध्यमों से विदेशी संस्कृति के हमले हुए हैं, लेकिन उन सभी हमलों को हमारी संस्कृति ने झेला है। अगर कोई अच्छी बात मिली है तो ग्रहण किया है और अवांछित तत्त्वों को अस्वीकार किया है।

आर्थिक दबावों तथा पाश्चात्य संस्कृति के प्रभाव के बावजूद आज भी भारतीय जन 'वसुधैव कुटुम्बकम्' को आदर्श मानता है। यह सीख संस्कृति ही देती है कि वह बड़ों के सम्मान देने के भाव तथा घर पर आए मेहमान के स्वागत की आदत को अपने व्यक्तित्व का ही एक हिस्सा बना लेता है। उन सबके लिए उसे कोई अतिरिक्त प्रयास नहीं करना पड़ता, बल्कि यह सांस्कृतिक मूल्य परंपरा से उसे परिवार और समाज के माध्यम से मिलते हैं। इनसे न वह जूझता है, न अस्वीकार करता है, बल्कि उन्हें अपने व्यक्तित्व की पहचान के लिए आवश्यक मानता है। इन मूल्यों को अभिव्यक्त करने के तरीकों में अंतर अवश्य आया है। कहना होगा कि यह अंतर भौतिक-विकास के कारण या दूसरे दवाबों के फलस्वरूप आया है। मूल भाव या मूल चेतना आज भी वही है, तो क्या हम इस बात को महत्‍तवपूर्ण नहीं मानें कि पश्चिम की बड़बोली संस्कृति के हमलों के बावजूद भारतीय जन अपनी संस्कृति की इयत्ता को सिर्फ़ पहचानता ही नहीं, उसे स्वीकार भी करता है। तभी तो हज़ारों सालों की परंपरा किसी न किसी रूप में ज़िंदा है और भारतीय जन के व्यक्तित्व को कुंठित होने से बचा रही है।

यह बात बहुत दूर की नहीं है कि अमरीकी संस्कृति की 'बाई-प्रोडक्ट' 'हिप्पी संस्कृति' का हमला पूरे ज़ोर से हुआ और हताशा, कुंठा, आक्रोश तथा निराशा के स्वर सुनाई पड़ने लगे। युवा-वर्ग नशीली दवाइयों का शिकार होने लगा। इस सांस्कृतिक हमले ने एक पूरी की पूरी पीढ़ी को कुंठाग्रस्त करने का प्रयास किया, लेकिन यह स्वीकार करना ही होगा कि ऐसा मात्र अपनी संस्कृति की भूमिका के कारण ही संभव नहीं हो सका। दूसरी क़िस्म की जानकारियों में जाकर यह तो कहा ही जा सकता है कि आज भारतीय जन फिर से पूरी तरह से स्वस्थ सांस्कृतिक हवा में सांस ले रहा है।

आज केवल शहरी आभिजात्य संस्कृति नहीं, बल्कि लोक संस्कृति तथा उसकी समृद्ध परंपरा को साहित्य, संगीत, चित्रकला तथा रंगमंच के माध्यम से अभिव्यक्ति मिलने लगी है। संगीत के क्षेत्र में फिलहाल एक वर्ग अभी भी ऐसा है, जो पॉप या डिस्को संगीत का दीवाना है, लेकिन वह कहीं भी उनके व्यक्तित्व के निर्माण में सहायक नहीं हो रहा। लोक नृत्यों, नाटक में लोक नाट्य, शैलियों की प्रसिद्धि तथा विशुद्ध मानवीय मूल्यों की रक्षा के प्रति जो सजगता नज़र आ रही है, उसके पीछे संस्कृति की भूमिका सर्वाधिक महत्‍तवपूर्ण है।

भारत इतना बड़ा देश है और प्रत्येक राज्य तथा लोगों की समृद्ध सांस्कृतिक परंपराएँ हैं। संस्कृति की विरासत से ही उन्हें विवाह के अवसरों या अन्य उत्सवों पर गाए जाने वाले गीत मिले हैं, संगीत मिला है, चित्रकला मिली है, भित्ति चित्रकला का स्वरूप मिला है। यह कोई नगण्य बातें नहीं, बल्कि महत्‍तवपूर्ण हैं। यह धीरे-धीरे भारतीय जन के व्यक्तित्व में इतनी रच-पच जाती हैं कि घूम-घूमकर उन्हीं की ओर लौटता है। उन्हीं में अपना अस्तित्व खोजता है, उन्हीं से उदात्त मूल्य प्राप्त करता है। उन्हें ही वह नए-नए अर्थ देता है और इस तरह वह अपने व्यक्तित्व को बहुआयामी रूप देता है। तब वह मात्र इंसान नहीं, एक बेहतर इंसान बनने की प्रक्रिया से गुज़रता है।

यही! बेहतर इंसान बनने में ही तो सहायक है संस्कृति।

संस्कृति उपदेश नहीं होती, संस्कृति कुछ करने या न करने की सलाह भी नहीं देती। संस्कृति संस्कार देती है, जो धीरे-धीरे हमारे व्यक्तित्व को निखारते हैं। संस्कृति साक्षरता भी नहीं, बल्कि समझ है। फिर यही वज़ह है कि भारतीय जन-समुदाय का एक बड़ा वर्ग निरक्षर भले ही है, लेकिन असंस्कृत नहीं है। किताबों के बीच से न गुज़रे होने के बावजूद वह अपनी संस्कृति को पहचानता ज़रूर है। यहाँ पर संस्कृति की भूमिका और भी महत्‍तवपूर्ण हो जाती है। शिक्षित व्यक्ति तो जागरूक होकर संस्कृति को ग्रहण करता है, लेकिन अशिक्षित व्यक्ति के व्यक्तित्व के निर्माण में संस्कृति अपनी भूमिका इस तरह से अदा करती है कि वह जानता ही नहीं कि वह समृद्ध सांस्कृतिक परंपरा के मूलभूत आदर्शों को आत्मसात् करके आगे बढ़ रहा है।

भारतीय जन का व्यक्तित्व बदला है, उसकी भूमिकाएँ बदली हैं। इसी तरह से संस्कृति का स्वरूप भी बदला है। कुछ घटा है। कुछ बढ़ा है। लेकिन अपने मानवीय आधार, उदात्त मूल्यों तथा संस्कारित करने की क्षमता को उसने नहीं छोड़ा और अनेकानेक यांत्रिक दबावों, विश्वयुद्ध जैसे अमानवीय कृत्यों तथा भौतिक उपलब्धियों की होड़ के बावजूद संस्कृति ने भारतीय जन को उदार, सहिष्णु तथा प्रयोगशील बनाया है। उसका व्यक्ति संस्कृति से केवल निर्मित ही नहीं होता बल्कि वह उन मूल्यों, आदर्शों और परंपराओं को आगे भी बढ़ाता है। संस्कृति ने ही भारतीय जन के व्यक्तित्व को कुण्ठित होने से बचाया है और एक ऐसी समझ दी है कि मात्र अपने परिवार, समाज या देश के बारे में ही नहीं, बल्कि पूरे विश्व के कल्याण की कामना करता है। वह आदर देना जानता है, प्यार देना जानता है। कलाओं का मर्म समझने की कोशिश करता है और लगातार एक बेहतर से बेहतर इंसान होने की चेष्टा करता है।

हम यह मानकर अपनी बात ख़त्म करते हैं कि यही तो वह भूमिका है जो संस्कृति भारतीय जन के व्यक्तित्व के निर्माण में अदा कर रही है।