भारतीय दर्शन परंपरा: सार-संक्षेप / कविता भट्ट

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विश्वगुरु की उपाधि से विभूषित भारत की सभ्यता जितनी प्राचीन है; उतना ही प्राचीन है यहाँ का दर्शन भी है या ऐसा कहा जाए कि दर्शन यहाँ के मूल में रचा बसा है। संस्कृत की 'दृश' धातु से व्युत्त्पन्न दर्शन शब्द का अर्थ है-देखना-'दृश्यते अनेन इति दर्शनम्' अर्थात् जिसके माध्यम देखा

जाए वह दर्शन है। इस प्रकार दर्शन सामान्य ढंग से देखना नहीं अपितु गहन चिंतन का पर्याय है। दर्शन भारतवर्ष के लिए कोई अदभुत क्रिया नहीं अपितु यहाँ के आबालवृद्ध में रचा बसा है। प्राकृतिक संसाधनो के अनुकूलन के कारण मूलभूत आवश्यकताओं की परिधि से उच्च स्तर का बौद्धिक चिंतन प्रारंभ से ही यहाँ के जनमानस में बसा रहा। अर्थात रोटी, कपड़े और मकान जैसी सामान्य सोच का दास यहाँ का जनसामान्य भी नहीं रहा तो फिर दार्शनिक चिन्तन में निरत महान विभूतियों की तो बात ही निराली है। सामान्य से सामान्य व्यक्ति भी हमेशा एक मनीषी की भांति चिंतन में व्यस्त रहा। इसी का प्रभाव है कि यहाँ का सामान्य बालक भी नचिकेता के रूप में भी उपनिषद् जैसी दर्शन परम्परा का माध्यम बना। आज वेदों, उपनिषदों एवं श्रीमदभगवद्गीता को समस्त विश्व की अनेक भाषाओँ में अनूदित करके उन्हें समझने का प्रयास किया जा रहा है; किन्तु आशचर्यजनक कि इनके मूल में उपस्थित गूढ़ निहितार्थ तक पहुँच पाना आज भी पूर्ण रूप से संभव नहीं हो सका। विदेशी आक्रमणों में बार-बार यहाँ के ग्रंथो को जलाकर मिटाये जाने पर भी यहाँ के ज्ञान-विज्ञान को समाप्त नहीं किया जा सका। वस्तुत: यह कभी समाप्त किया ही नहीं जा सकता-

वृक्ष कट-कट कर बढ़ा है, दीप बुझ-बुझ कर जला है

कुछ प्रारंभिक प्रश्न ऐसे थे जिनसे दर्शन का प्रादुर्भाव हुआ जैसे-मैं कौन हूँ, मेरा जन्म किस कारण हुआ, मैं कहाँ से आया, क्यों आया तथा कहाँ जाऊँगा, इसके कारण मनुष्य यह भी सोचने लगा कि क्या मेरा लक्ष्य भी पशु-पक्षियों के सामान शयन, भोजन और मैथुन ही है या इससे कुछ अलग इन सभी प्रश्नों से भी अधिक महत्त्वपूर्ण प्रश्न था कि जीवन के दुखों से मुक्ति का उपाय क्या हो सकता है ये दुःख मात्र मूलभूत आवश्यकताओं से सम्बन्धित नहीं अपितु आत्यंतिक प्रकृति से सम्बन्धित थे।

दु: खों के निवारण हेतु प्राकृतिक शक्तियों की उपासना का क्रम प्रारंभ हुआ यही कालान्तर में वेदों की ऋचाओं के रूप में विकसित हुआ। दर्शन की परंपरा को समझना एक गूढ़ एवं जटिल विषय है और इसके बारे में लिखना इसके विशाल जलनिधि में मात्र एक डुबकी के सामान है, किन्तु सामान्य रूप से समझने हेतु इस लेख में इसे सामान्य ढंग से प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे। पूरे विषय की अपेक्षा करना निरर्थक है; क्योंकि मात्र मुख्य तथ्यों का अतिसंक्षिप्त प्रस्तुतीकरण होगा।

इस दार्शनिक परंपरा को समझने से पूर्व इसके विषय वस्तु को संक्षेप में जानना अनिवार्य है। उल्लेखनीय है कि श्रेष्ठ मानवीय चिंतन दर्शन के तीन अनुभागों की सरंचना करता है-तत्त्व मीमांसा-सृष्टि के मूलतत्त्व पर केन्द्रित चिंतन; ज्ञान मीमांसा-मूलतत्त्व को जानने की क्रिया अर्थात् ज्ञान एवं उसके साधनों का विश्लेषण तथा नीति मीमांसा-एक सुव्यवस्थित मानव समाज के निर्माण हेतु आचरणगत नियमो का विवेचन। इस प्रकार वेदों एवं तत्जनित तथा उनसे विलग समस्त दर्शन विभिन्न शाखाओं के रूप में पल्लवित होता चला गया। यह दो प्रकार का था वेद-सिंद्धांतों से सहमत या आस्तिक दर्शन एवं दूसरा वेदों से असहमत या नास्तिक दर्शन। नास्तिक दर्शन तीन हैं-चार्वाक, जैन एवं बौद्ध तथा आस्तिक दर्शन छ: हैं-सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा तथा वेदांत। इन्हें षड्दर्शन भी कहा जाता है।

वेदकालीन परंपरा-ऐसा माना जाता है कि भारतवर्ष में अन्यत्र से निवास हेतु आए लोग, जो आर्य कहलाते हैं उनका यहाँ के मूल लोगों सभ्यता के सम्बन्ध में संघर्ष था। अपनी रक्षा उनसे समन्वय आदि हेतु आर्यों ने विशेष ज्ञान का प्रतिष्ठापन किया। यह ज्ञान देवताओं, स्तुतियों, यज्ञों, सृष्टि संरचना तथा आचारगत नियमन आदि पर केन्द्रित था। उस समय आज के समान प्रिंटिंग के साधन नहीं थे इसलिए यह ज्ञान गुरु के समीप बैठकर सुनकर प्राप्त किया जाता था। इसे श्रुति कहा जाता था, यह ज्ञान इतने प्रामाणिक स्तर का है कि यह भारतीय ही नहीं अपितु सम्पूर्ण मानव समाज की धरोहर हैं। वेद चार हैं-ऋक, यजु, साम तथा अथर्व। इनके तीन भाग-मंत्रसंहिता, ब्राह्मण और उपनिषद हैं। अनेक विद्वान इन्हें 6000 ई पू तथा अनेक इसके बाद का मानते हैं; लेकिन इनका काल लगभग 1500 ई पू निर्विवाद रूप से स्वीकार्य है।

पुराणकालीन परंपरा-अठारह पुराण वेदों द्वारा स्थापित भिन्न-भिन्न देवों की शक्तियों पर केन्द्रित, प्रत्येक देव का अद्वितीय शक्ति के रूप में प्रतिष्ठापन का प्रयास है। विश्व की पालन तथा संहार शक्ति का विष्णु-शिव आदि के रूप में यशोगान विभिन्न पुराणों का केंद्रीय विषय रहा।

उपनिषद् कालीन परंपरा-वेदों का ही ज्ञान उपनिषदों के रूप में आगे बढ़ा। वेदों का अंतिम भाग होने के कारण इन्हें वेदांत भी कहा गया; ये वेदों का सार हैं। उप, नि: एवं सद तीन पदों से मिलकर बने उपनिषद् शब्द का अर्थ है-समीप बैठना-अर्थात ज्ञान प्राप्ति हेतु गुरु के समीप बैठना। उपनिषदों में एक ही तत्त्व के रूप में परम चेतन-ब्रह्म या ईश्वर का चिंतन, सत्य की खोज, ज्ञान की खोज, दुःख का आत्यंतिक निवारण, विशुद्ध आनंद और इसके मार्ग आदि का व्यवस्थित वर्णन है। उपनिषद् संख्या में 108 हैं तथा इनमे से भी ११ उपनिषद प्रमुख हैं, जिन पर शंकराचार्य के भाष्य उपलब्ध हैं। उपनिषदों के ही श्रेष्ठ उद्घोष हैं जो भारतीय जनमानस के चरित्र को उत्त्थान की ओर ले जाने का उद्घोष करते हैं-

असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मामृतं गमय

महाकाव्य कालीन परंपरा-रामायण महाकाव्य एवं महाभारत के युद्ध में श्रीमद्भागवतगीता के द्वारा अधर्म पर धर्म की विजय का उद्घोष करने वाले दर्शन इसी काल के माने जाते हैं। बौद्धिक जागरूकता, स्फूर्ति, आचरण नियमन, दुःख-निवृत्ति, भगवद्भजन, कर्म, ज्ञान एवं भक्ति जैसे श्रेष्ठ मार्ग का प्रतिपादक यह दर्शन विश्व को भारत की अनमोल भेंट हैं। इसका प्रमाण यह है कि रामायण एवं श्रीमद्भागवदगीता के विश्व की विभिन्न भाषाओँ में अनुवाद हो चुके हैं और इन पर निरंतर शोध जारी हैं।

नास्तिक परंपरा

चार्वाक दर्शन-वेदों का प्रबल विरोध करने वाले एवं भौतिकवाद के मुख्य सिद्धांतो को अपना आदर्श मानने वाले चार्वाक प्रणीत इस मत का मुख्य कथन था-जब तक जियो इन्द्रिय सुख के लिए जियो, चाहे ऋण लेकर ही घी पीना पड़े पियो, मृत्यु के बाद किसने देखा, इस जीवन में खाओ-पियो और सुख से रहो। यह दर्शन आदर्शात्मक आचार संहिता के दृष्टिकोण से भारतीय दर्शनों के मौलिक सिद्धान्तों से किसी भी प्रकार मेल नहीं खाता।

जैन दर्शन-^जिन पद से व्युत्पन्न जैन शब्द इन्द्रियों पर विजय प्राप्ति को दु: खों से मुक्ति का मुख्य आधार मानता है। महावीर स्वामी प्रणीत इस दर्शन के समर्थक ईश्वर को नहीं मानते। मात्र अपने मत के प्रवर्तकों को तीर्थंकर कहकर उनकी उपासना करते हैं। सम्यक चरित्र, सम्यक ज्ञान एवं सम्यक दर्शन को आधार मानने वाले जैन दर्शन पाँच महाव्रत को मानता है-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह।

बौद्ध दर्शन-जीवन-दु: खों को देखकर वैराग्य की ओर उन्मुख एवं कर्म-उत्कृष्टता पर बल देने वाले महात्मा बुद्ध इस दर्शन के उपदेशक थे। चार आर्य सत्य-हेय (दुःख) , हेतु (दुख का कारण) , हान- (दुःख निवारण की संभावना) हानोपाय-दुःख निवारण का मार्ग। दुःख-निवारण के साधनस्वरूप अष्टांगिक मार्ग-सम्यक–दृष्टि, संकल्प, कर्मांत, आजीव, व्यायाम, स्मृति तथा समाधि।

आस्तिक परंपरा:

सांख्य दर्शन-सांख्यसूत्र के रचयिता महर्षि कपिल द्वारा प्रणीत यह दर्शन ज्ञान को दुःख से मुक्ति हेतु आवश्यक मानता है। इस दर्शन की तत्त्व मीमांसा में दो तत्त्व-प्रकृति (जड़) पदार्थ तथा पुरुष (चेतन पदार्थ या आत्मा) माने गये हैं। तीन प्रकार के दुःख-आध्यात्मिक (शारीरिक-मानसिक रोग से उत्त्पन्न) , आधिभौतिक (अन्य प्राणियों-साँप, विच्छू आदि से उत्त्पन्न) तथा आधिदैविक (दैविक आपदा-बाढ़, भूकम्प आदि से उत्त्पन्न) मात्र ज्ञान से ही निवृत्त होते हैं। इसी दर्शन की तत्त्वमीमांसा से योग दर्शन का विकास हुआ।

योग दर्शन-विश्व में भारतीय दर्शन को गुंजायमान करने वाले योगदर्शन के प्रवर्तक पातंजलयोगसूत्र के रचयिता महर्षि पतंजलि थे। साधना को जीवन का मुख्य आधार मानने वाले इस दर्शन में यम, नियम, आसन, प्राणायाम, धारणा, ध्यान एवं समाधि हैं। आज योगदर्शन को आसन आदि सहित स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से अपनाया जा रहा है किन्तु इसके विस्तृत नैतिक तथा आत्मिक लक्ष्य हैं। यह दर्शन योगसाधना द्वारा मुक्ति या कैवल्य प्राप्ति को मुख्य लक्ष्य मानता है।

न्याय दर्शन-न्याय सूत्र के रचयिता महर्षि गौतम इस दर्शन के प्रणेता हैं। इस दर्शन की ज्ञानमीमांसा बहुत ही समृद्ध है। यह प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द प्रमाणों के द्वारा ज्ञान प्राप्ति तथा श्रवण, मनन एवं निदिध्यासन के द्वारा अपवर्ग या दुःख से मुक्ति की परिकल्पना को प्रस्तुत करता है।

वैशेषिक दर्शन

वैशेषिक सूत्र के रचयिता महर्षि कणाद द्वारा प्रणीत यह दर्शन अणु-परमाणु के सिद्धांत को प्रतिपादित करने के कारण तत्त्व मीमान्सीय दृष्टि से श्रेष्ठ है। इस दर्शन में द्रव्य, गुण तथा कर्म आदि के रूप में सात पदार्थ विवेचित किए गए. यह भौतिक ज्ञान-विज्ञान का दर्शन है।

मीमांसा दर्शन-मीमांसा का अर्थ है-पूजित विचार। जैमिनी सूत्र के रचयिता महर्षि जैमिनी प्रणीत यह दर्शन दुःख निवारण हेतु वैदिक कर्मकांड की पुष्टि करता है; जो तत्त्व तथा धर्म से सम्बन्धित विचारों पर केन्द्रित है। इसमे कर्मकांड द्वारा स्वर्गप्राप्ति के लक्ष्य को मुख्यतः प्रस्तुत किया गया है।

वेदान्त दर्शन-ब्रह्मसूत्र के रचयिता शंकराचार्य प्रणीत यह दर्शन मूलतत्त्व के रूप में एक ही तत्त्व ब्रह्म की विवेचना करता है। एक तत्त्व की व्याख्या के कारन इस दर्शन को अद्वैत वेदांत भी कहा जाता है। वेदांत के अहं ब्रह्मास्मि तथा तत्त्वमसि जैसे प्रमुख सिद्धांत हैं। यह ज्ञान द्वारा मुक्ति को जीवन का मुख्य लक्ष्य मानता है।

इस प्रकार जीवन को दुःख से मुक्त करने हेतु भारतीय दर्शन परंपरा में अनेकानेक समृद्ध शाखाएँ विकसित हुई. ये दर्शन भारतवर्ष ही नहीं विश्व को भी ज्ञान-विज्ञानं का मार्ग प्रशस्त करती रहेंगी। उल्लेखनीय है कि मात्र ये शुष्क ज्ञान की बात ही नहीं करती हैं; अपितु व्यक्ति को जीवन जीने की कला सिखाती हैं। इन दर्शनों का विधिवत् अध्ययन तथा इनमे प्रतिपादित तथ्यों का अनुगमन मानव मात्र हेतु आवश्यक है इसलिए धर्मं, जाति, संप्रदाय तथा राष्ट्रीयता जैसी परिधियों से ऊपर उठकर दर्शन को आत्मकल्याण हेतु समझना चाहिए।