भारतीय शिल्पकला / रामचन्द्र शुक्ल

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मिस्टर विन्सेंट स्मिथ ने, जो भारतीय शिल्प के बड़े जानकार समझे जाते हैं, 11 जनवरी को लन्दन की रायल एशियाटिक सोसाइटी में एक लेख पढ़ा। उन्होंने पहले तो उन बहुत से योरोपियन महापुरुषों के मतों का उल्लेख किया जिनकी समझ में भारत में कोई कला थी ही नहीं और यदि थी भी तो बहुत निम्न श्रेणी की। इसके पीछे उन्होंने मि. हावेल और डॉक्टर कुमार स्वामी का यह सिध्दान्त-जो कि उन्हें बिलकुल नया और अनोखा मालूम हुआ-कह सुनाया कि “भारतीय शिल्पकला संसार में सबसे उत्तम है।” मि. हावेल कलकत्ता और मद्रास के आर्ट स्कूलों के प्रिंसिपल रहे हैं। स्मिथ साहब ने मि. हावेल के नव प्रकाशित ‘Indian Sculpture and Painting’ और डॉक्टर कुमार स्वामी के Mediaeval Singhalese Art नामक पुस्तकों की ओर ध्यान दिलाया जिनमें उदाहरण की भाँति हिन्दुस्तानी चित्रकारी और शिल्प के बहुत से नमूने दिए गए हैं। वक्ता महाशय ने कहा कि भारतीय शिल्पकला को लोग हेय और निकृष्ट दृष्टि से देखते थे। इसका कारण यह है कि देवताओं की जो साधारण मूर्तियाँ बनाई जाती हैं वे बेढंगी, विकराल और घृणोत्पादक होती हैं। पर अच्छी चीजें भी ढूँढ़ने से मिल ही जाती हैं। फर्गुसन साहब ने भारतीय शिल्प की सुन्दरता अच्छी तरह से दिखलाई।

भारतीय शिल्प दो भागों में बँट सकता है। (1) हिन्दू, जिसके अन्तर्गत बौध्द और जैन भी हैं (2) और मुसलमानी। आपने कहा कि हिन्दू लोग पशु और वृक्ष अंकित करने में यूनानियों से बढ़कर थे। सारनाथ में जो चमचमाता हुआ अशोक का स्तम्भ निकला है उसे मि. मार्शल एशियावासी यूनानियों का बनाया बतलाते हैं। इस पर स्मिथ साहब ने कहा-”भारतीय कला की सब शाखाओंमें यूनानी प्रभाव को बढ़ाकर कहने की उधर हम लोगों की आदत पड़ गई थी”। (छूटी कि नहीं?) फिर आगे चलकर आप यह भी कहते हैं “हिन्दू लोग विदेशी वस्तुओं को ग्रहण करने में बड़े चालाक थे और जिस विदेशी वस्तु को लेते थे उसे ऐसा कर डालते थे कि वह उन्हींी के देश की मालूम होने लगती थी।”

उत्तर पश्चिम सीमा प्रान्त में निकली हुई यूनानियों और बौध्दों की सम्मिलित कारीगरी पहिले (शायद उसी ग्रीस भक्ति के कारण) सबसे उत्कृष्ट समझी जाती थी। अब मि. हावेल और डॉ. कुमार स्वामी उन्हें सबसे निकृष्ट बतलाते हैं। स्मिथ साहब ने कहा कि मैं इन दोनों की बातों से सहमत नहीं हो सकता। आगे चलकर हिन्दुस्तानी देव मूर्तियों के विषय में आपने फिर कहा कि “अब यह सिध्द हो चुका है कि इन मूर्तियों की देह जो कहीं कहीं बिलकुल चौरस देखने में आती है इसका कारण यह नहीं कि हिन्दुस्तानी शिल्पी पुट्ठे और उभार बनाने में (समर्थ नहीं थे।) हाथ और पैर बनाने में उन्होंने अपनी इस सामर्थ्य का पूरा परिचय दिया है। अंगों और अवयवों की अस्वाभाविकता धार्मिक कारणों से है न कि अनाड़ीपन के कारण।”

भारतीय चित्रकारी के विषय में आपने कहा कि इसके पुराने नमूने जो ईसा से दो शताब्दी पहिले के हैं ओड़िसा की गुफाओं में है। अजन्ता गुफा की चित्रावली भी ध्यान देने योग्य है जो 642 ई. तक की है। इसके उपरान्त पारसी कारीगरों का उल्लेख करते हुए आपने कहा कि यह भारतवर्ष में जनप्रिय न हुई। मुसलमान बादशाहों और नवाबों ही के शौक की चीज रही। सर क्लार्क के ये वाक्य आपको बहुत पसन्द आए कि “हिन्दुस्तानी कारीगरी का आगम व्यर्थ की प्रशंसा से मारा गया।”

व्यागख्यािन के पीछे डॉक्टर कुमार स्वामी ने एक बंगाली चित्रकार की कारीगरी के नमूने दिखलाए और सभा समाप्त हुई।

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 1910 ई )

[ चिन्तामणि: भाग-4]