भारतीय समाज - विकलांगता के परिप्रेक्ष्य में / सुमित्रा महरोल

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समय बड़ा मरहम है, इस मरहम की शिफा से हर दुख के निशान फीके पड़ जाते है, ऐसा माना जाता है। पर शारीरिक विकलांगता से ग्रस्त व्यक्ति के साथ ऐसा नहीं है, उन्हें अपनी ज़िन्दगी इस दुख और तद्जन्य उपजी पीड़ा के साथ ही व्यतीत करनी पड़ती है। किसी तमगे की भाँति उनके अस्तित्व के साथ पैवस्त होती है उनकी विकलांगजन्य पहचान।

जीवन चक्र के साथ-साथ ये पीड़ा घटती नहीं, धीरे-2 बढती ही जाती है और जीवन की सांझ में तो और विकराल रूप धारण कर लेती है दो किस्म की चुनौतियाँ उनके समक्ष होती हैं-एक उनके शरीर से उपजी और दूसरी समाज द्वारा प्रस्तुत

किसी बीमारी के कारण निपट बचपने में शारीरिक विकलांगता का शिकार हुआ बालक होश सम्भालते ही स्वंय को हतप्रभवस्था में पाता है। (प्रस्तुत आलेख में पैरो से विकलांग व्यक्तियों की जीवन दशाओं और चुनौतियों को केन्द्र में रखा है) वह देखता है कि उसके आस-पास का दृष्टिमान संसार निरन्तर गतिशील है माता पिता समेत परिवार के सभी जन, घर के बाहर पड़ोसी, अन्य बच्चे, बूढे़, जवान-और भी दृष्टि की सीमा में आने वाले सभी लोग गतिमान हैं अकेला वही गतिहीन है और वह गतिहीन क्यों है इसका भी कोई सन्तोषजनक जवाब उसे नहीं मिलता। अन्यों के समान गतिमान होने के प्रयास उसके द्वारा भी शुरू हो जाते हैं। उठकर खड़ा होने और चलने के प्रयास में अनेक बार उन्हें चोटें भी खानी पड़ती है। यहाँ ध्यातव्य है कि ज़रूरी नहीं कि सारे ही पैरों से निषक्त जन चल पाने में सफल हो जाते हो निष्क्तता अगर ज़्यादा है तो पहियों या बैसाखियो पर ही उन्हें अपनी ज़िन्दगी का सफ़र तय करना पड़ता है। पर कुछेक घुटने पर हाथ रख भचक-2 कर या लहरा-2 कर चल पाने में कामयाबी हासिल कर लेते है। पर इस तरह चलते हुए ज़्यादा दूर तक वह चल नहीं पाते। लंबी दूरी अपने पैरों के दम पर तय करने में उनकी साँसे फूलने लगती है।

उनका भचक-2 कर चलना जहाँ उनके लिए उपलब्धि है वहीं अन्यों के लिए मनोरंजन का विषय, बच्चे तो बच्चे बडे़ भी उनके भचकपन का मजाक बनाने में पीछे नहीं रहते। बच्चे तो बाकायदा तुकबंदी कर उन्हें चिढ़ाने लगते है... यथा लंगडदीन बजाए बीन, घड़ी में बज गए साडे़ तीन।

किसी भी तरह चल पाने में कामयाबी हासिल कर आत्मनिर्भर बनने की दिशा में उठाया गया उनका ये नन्हा कदम चाहता तेा पीठ पर थपथपाहट था और मिल जाते हैं मखौल के कोडे़। तब मासूम दिल तो टूटता ही है आत्मविश्वास की दीवारों में भी दरारे पड़ने की शुरूआत हो जाती है।

शिक्षित संवेदनशील और जागरूक माता पिता ऐसी परिस्थितियों में अपनी भूमिका बखूबी समझते है और निभाते हैं, पर ग्रामीण परिवेश के किसी निर्धन परिवार में पैदा हुआ विकलांग बच्चा बहुत ही दयनीय स्थितियों में अपना जीवन व्यतीत करने के लिए विवश होता है। उसे और उसकी स्थितियों को समझ उसे सहयोग देने और उसके आगामी भविष्य के लिए आवश्यक कदम उठाने का उसके अभिभावको के पास ना समय होता है, ना विवेक और ना संवेदना ... वह तो बस भगवान भरोसे उस बालक को छोड़ देते हैं। उसे ना ईलाज मिलता है ना शिक्षा और न ही उसके पुर्नवास की किसी को कोई चिन्ता होती है। जब तक माँ पिता जिंदा रहते है तब तक दो जून रोटियाँ उसे मिल भी जाती है, माँ बाप की मृत्यु के बाद उनका भी कोई ठिकाना नहीं रहता। जीने के लिए कई बार वह कोई छोटा मोटा काम कर लेते है और कुछ भी कर पाने मंे अक्षम होने की स्थिति में भीख ही उनका एक मात्र सहारा रह जाती है। उपेक्षा उपहास, तिरस्कार के कारण मन पर पड़े घाव उम्र भर रिसते है पर उनकी किसी को परवाह नहीं होती।

इस समुदाय के स्कूल की देहरी छु चुके बच्चों की चुनौतियाँ भी कुछ कम नहीं होती। स्कूल जाने पर साथियों का व्यवहार और अध्यापको की उदासीनता, उपेक्षा और असहयोग उन्हें और तोड़ता है। समाज में मिसफिट पाता है विकलांग बच्चा खुद को ... इसके अलावा स्कूल में दाखिले के बाद घर से स्कूल तक पहुँचना और दोपहर में स्कूल की छुट्टी के बाद घर तक चल कर आना उनके लिए एक कठिन चुनौती के समान होता है। पर रोज दिन में दो बार उन्हें इस कठिन चुनौती से जुझना पड़ता है। जो दूरी सामान्य बच्चे दस मिनट में तय कर लेते हैं वह उनके लिए आधे पौनें घन्टे का द्रविड प्राणायाम होती है। फिर स्कूल का परिवेश भी कोई उत्साहवर्द्धक नहीं होता। इतने सारे बच्चो के बीच वह स्वयं को सबसे जुदा पा संकुचित होने लगता है। ऐसे मंे अध्यापक या कोई और यदि, स्नेह, सहयोग, समझदारी और सराहना से काम ले-विकलांग बालक को और उसकी विकलांगता से जुड़ी परिस्थितियों को समझे ंतो कुछ सकारात्मक हो पाता है।

स्कूल में पढाई के सिलसिले मंे कभी साइंस लैब, कभी लायब्रेरी कभी असेम्बली कक्ष कभी यहाँ कभी वहाँ जाना ही पड़ता है। सामान्य विद्यार्थियों के लिए यह सब जहाँ चुटकियों का खेल है, उन सब के पीछे धीरे-2 आते हुए एकाकी विकलांग बालक के लिए पीड़ा का सबब। ज़्यादा दूर तक चल ना पाने की पीड़ा से भी ज़्यादा गहरी होती है एकंाकी रह जाने की, सबसे पीछे छूट जाने की पीड़ा। अन्य विद्यार्थी जहंाँ हो हुल्लड़ करते हुए कुछ ही पलों में गतंव्य तक पहँुच जाते है, विकलांग बच्चा सबसे पीछे चलता हुआ सबके बाद वहाँ पहुँचता है और वह भी बिल्कुल अकेला... और ऐसा हमेशा होता है उसके साथ।

स्कूल में होने वाली सांस्कृतिक गतिविधियाँ और खेलकूद के आयोजन उन्हें और भी उदास और असहज बना देते है, इस अहसास के कारण कि इन आयोजनों का आजीवन उसे दर्शक मात्र ही बना रहना है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि स्कूल द्वारा आयोजित पिकनिक, ऐतिहासिक स्थलों और अन्य पर्यटन स्थलों पर भ्रमण के कार्यक्रमों में विकलांग विद्यार्थी की भागीदारी बिल्कुल नगण्य होती है क्योंकि अध्यापक गण उन्हें साथ ले जाने के बिल्कुल भी इच्छुक नहीं होते। एक पल को भी वह ये नहीं सोचते कि सामान्य विद्यार्थियों के समान यह बच्चा भी साथियों के साथ बाहर जाने का कितना इच्छुक होगा और अगर उसे अकेले पीछे छोडा गया तो इसका कितना नकारात्मक असर उसके दिलोदिमाग पर पडे़गा, उसका पहले से ही चोटिल मन लहुलूहान हो जाऐगा। पर शायद ही किसी को उनके जख्मो और उनसे निरन्तर बहने वाले लहू का अहसास होता है।

विकलांगता शरीर के किसी एक अंग की क्रियाशीलता को ही प्रभावित करती है, शरीर के अन्य अंग सामान्य लोगों की भाँति ही कार्य कर रहे होते हैं। किशोर एवं युवा होने पर विपरीत लिंगी के प्रति आकर्षण व किसी का प्रेम पात्र बन पाने की इच्छा अन्यों के समान उनके मन में भी विद्यमान होती है। बचपन से स्वंय को उपेक्षित या शायद कुछ ज़्यादा ही प्रबल होती होगी, पर वास्तविकता बिल्कुल भी उनके अनुरूप नहीं होती। वह ना ही किसी के प्रेम के अधिकारी बनते हैं। बल्कि प्रेम के उपवन में उनका तो प्रवेश ही लगभग निषिद्ध होता है प्रायः उनकी शारीरिक अपूर्णताके कारण ज्यादातर विपरीत लिंगी उनमंे दिलचस्पी लेना तो दूर उन पर दृष्टिपात करना तक गवारा नहीं करते, प्रेम करना तो बहुत दूर की बात है। जो अन्यों के लिए सहज, सामान्य और प्राप्य है वह उनके लिए लगभग निषिद्ध और अप्राप्य। किसी का प्रेम, किसी की सहानुभूति और किसी का प्यार भरा सरोकार पाने की सहज स्वाभाविक इच्छा को उन्हें दबाना पड़ता है ऐसी स्थितियाँ कई बार विकलांग जनों को कुठिंत भी कर देती हैं।

विकलांगता सिर्फ़ प्रेम के ही आड़े नहीं आती अपितु किसी से मित्रता कि राह में भी बहुत बाधक सिद्ध होती है। उनकी अक्षमता के चलते उनके घनिष्ठ मित्रो का दायरा बहुत सीमित होता है क्योंकि ना वह ज़्यादा दूर तक चल पाते, ना खेल पाते, ना नृत्य कर पाते, ना पहाड़ो पर टेेªकिंग, ना रमणीक स्थलों का पैदल भ्रमण और भी ना जाने क्या-2 अभिप्रेत यह है कि बहुत सारे आयोजनों में अपने मि़त्र, परिचित अथवा दायरे में आने वाले लोगों को कम्पनी नहीं दे पाते, इस कारण उनके मित्र, परिचित, सहकर्मी और रिश्तेदार उनसे बस औपचारिक सम्बध ही रखते है। बहुत हुआ किसी समस्या के आन खड़ा होने पर उसके विविध बिन्दुओं पर विचार विमर्श के लिए ही विकलांग जन को फोन करते है या उनसे मिलते है या कभी किसी वजह से दिल बहुत भरा होने पर अपनी भड़ास निकालने के लिए एक श्रोता कि तरह उनका इस्तेमाल करते है क्योंकि आज के युग में किसी की बात सुनने का समय किसी के पास नहीं है। यहाँ गौरतलब है कि यही स्थितियाँ होने पर विकलांग व्यक्ति अपना मन उनसे बाँटना चाहे तो वह उनके लिए कभी उपलब्ध ही नहीं होंगे ना कभी उनका फोन उठायेगे ना उनकी मिसकॉल पर कॉल बैक करेंगें। विकलांग व्यक्तियांे को ऐसी स्थितियाँ बहुत आहत करती है... बार-2 समाज से छले जाने का अहसास कराती हैं।

एक अन्य बड़ी समस्या है...विकलांग जनों का विवाह अव्वल तो उनका विवाह होता ही नहीं है और अगर होता भी है तो शिक्षित और आर्थिक स्तर पर मजबूत होने के बाद भी तद्नुरूप जीवन साथी (जिस से उनका सामाजिक मानसिक स्तर मिलता हो) अक्सर मिल नहीं पाते। कई बार उनकी बेहतर आर्थिक स्थिति से प्रभावित हो लोग उनसे विवाह तो कर लेते है पर ऐसे विवाहों का आधार उनकी सामाजिक आर्थिक स्थिति से लाभ उठाना अधिक होता है, प्रेम और समर्पण अक्सर नदारद ही होते हैं यहाँ, दुनिया उनसे अक्सर स्वार्थ आधारित सम्बध ही रखती है।

बचपन से लेकर मृत्युपर्यंत सबसे अधिक आहत होती हैं विकलांग व्यक्ति की भावनाएँ। जीवन भर उन्हें उपेक्षा, अपमान, उपहास अनदेखी और अन्यों के तीष्ण व्यंग्य बाणों को सहना पड़ता है। कई बार उच्चशिक्षित होने के बाद भी, अति प्रतिष्ठित पर-पर कार्यरत होने के बावजूद उपहास और कुटक्तियाँ उनका पीछा नहीं छोड़ती। ग्रामीण क्षेत्रों में तो शारीरिक अक्षमता के आधार पर ही उन्हे पुकारा जाता है यथा-लंगड़ा, अंधा, गूँगा इत्यादि चाहे उनके नाम कुछ भी क्योें न हों। शहरों में भी सामने तो नहीं पर पीठ पीछे ये उपाधियाँ उन्हें दी जाती है। इस तरह की अनेक चुनौतियाँ होती हैं विकलांग जन के समक्ष-अब उसे यह तय करना है कि शारीरिक अक्षमता से जूझते हुए वह समाज द्वारा प्रस्तुत इन चुनौतियों का कैसे सामना करे कैसे इन पीड़ादायी स्थितियों में अविचल रह वह अपने लक्ष्य के संधान में रत रहें।