भारतेंदु हरिश्चंद्र और हिन्दी / साहित्य शास्त्र / रामचन्द्र शुक्ल

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हिंदी की वर्तमान गति का आरम्भ भारतेंदु बाबू हरिश्चंद्र की लेखनी ही से है। इनके पूर्व हिंदी का प्रवाह किस ओर को था और इन्होंने उसे किस ओर फेरा यही दिखलाने का यत्न इस लेख में किया जायगा। भारतेंदु ने जिस अवस्था में हिंदी को पाया वह विलक्षण थी। पद्य में जायसी, सूर, तुलसी आदि के आख्यान काव्यों का समय एक प्रकार से बीत चुका था। केशव के चलाए हुए नायिका भेद, रस, अलंकार आदि को लक्ष्य करती हुई स्फुट कविताओं के छींटे उड़ रहे थे। गद्य प्रेमसागर, सिंहासन बत्तीसी और बैताल पच्चीसी से संतोष किए बैठा था।

यद्यपि देश में नए नए भावों का संचार हो गया था पर हमारी भाषा उनसे दूर थी। यद्यपि लोगों की अभिरुचि बदल चली थी पर हमारे साहित्य पर उसका आभास नहीं पड़ा था। शिक्षित लोगों के विचारों और व्यापारों ने दूसरा मार्ग तो पकड़ लिया था पर उनका साहित्य उसी पुराने मार्ग ही पर था। ये लोग समय के साथ स्वयं तो कुछ आगे बढ़ आए पर जल्दी से अपने साहित्य को साथ न ले सके। उसका साथ छूट गया और वह उनके कार्यक्षेत्र में अलग पड़ गया। प्राय: सब सभ्य जातियों का साहित्य विचारों और व्यापारों से लगा हुआ चलता है। यह नहीं कि उनकी चिंताओं और कार्यों का प्रवाह तो एक ओर हो और उनके साहित्य का प्रवाह दूसरी ओर। फिर यह विचित्र घटना यहाँ कैसे हुई? बात यह है कि जिन लोगों के हृदय में नई शिक्षा के प्रभाव से नए विचार उत्पन्न हो चले थे, जो अपनी ऑंखों से देश काल का परिवर्तन देख रहे थे उनमें अधिकांश तो ऐसे थे जिनका कई कारणों से हिंदी साहित्य से लगाव टूट सा गया था और शेष ऐसे थे जिन्हें हिंदी साहित्य का मंडल बहुत ही बद्ध और परिमित दिखाई देता था, जिन्हें इन नए विचारों को सन्निवेशित करने के लिए स्थान हीं नहीं सूझता था। उस समय एक ऐसे साहसी और प्रतिभासंपन्न पुरुष की आवश्यकता थी जो कौशल से इन बढ़ते हुए विचारों का मेल देश के परम्परागत साहित्य से करा देता। बाबू हरिश्चंद्र का प्रादुर्भाव ठीक ऐसे ही समय में हुआ।

इन्होंने कविता पर जो दृष्टि डाली तो देखा कि बहुत से ऐसे शब्द जिन्हें बोलचाल से उठे कई सौ वर्ष हो गए, कविता और सवैयों में बराबर खपाए जाते हैं जिससे जनसाधारण का ध्याीन उनकी ओर से फिरता जाता है। चक्कवै, अमेजे, मजेजे, ठायो, करसायल, ईठ, दीह, ऊनो, लोह आदि के कारण बहुत से लोग हिंदी कविता से किनारा खींचने लगे हैं। दूसरा दोष जो बढ़ते बढ़ते बहुत बुरी सीमा को पहुँच गया था वह शब्दों का तोड़ मरोड़ और गढ़े हुए मनमाने शब्दों का प्रयोग था। जैसे कपियों का स्वभाव रूख तोड़ना गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा है वैसे ही इन कवियों का स्वभाव शब्द तोड़ना हो चला था। बाबू हरिश्चंद्र ने इन बातों का संशोधान करना आरम्भ किया और व्रजभाषा की फुटकल कविताओं के लिए भी अच्छा मार्ग दिखलाया। उन्होंने अपने रसीले कवित्तों और सवैयों में ऐसे शब्दों का प्रयोग बहुत कम किया है और उनकी भाषा बोलचाल की भाषा से मिलती हुई रखी है, जैसे

आजु लौं जो न मिले तो कहा, हम तो तुम्हरे सब भाँति कहावैं।

मेरो उराहनो है कछु नाहिं सबै फल आपने भाग को पावैं।।

जो हरिश्चंद भई सो भई अब प्रान चले चहैं तासो सुनावैं।

प्यारे जू है जग की यह रीति विदा के समय सब कंठ लगावैं।।

इसी कारण इनकी कविताओं का प्रचार भी देखते देखते हो गया। लोगों के मुँह से इनके सवैये चारों ओर सुनाई देने लगे; इनके गीतों को स्त्रियाँ तक घर घर में गाने लगीं। इनकी कविता बहुत ही जनप्रिय हुई। इनके समय ही में जो जो संग्रह बने उन सबमें प्राय: इनकी कविताएँ विशेषकर सवैये दिए गए। इन्होंने मनुष्य के मनोवेगों को बड़ी सीधी सादी पर परिपूर्ण भाषा में निकालने का प्रयत्न किया है। लीक पीटने वालों की उस शब्दावली को जो पुरानी पड़ गई थी, इन्होंने बहुत कुछ छाँटा। ये बड़े भारी साहित्य संशोधक हुए। इनके सीधे सादे शब्दों से भाव टपके पड़ते हैं। जिसे इनकी कविता 'साधारण' जँचे उसे समझना चाहिए कि खव् बव् वाले कविन्दों ने भावुकता का नाश करके उसके हृदय को कुरुचिपूर्ण कर दिया है।

पर सबसे बड़ा काम तो इस महात्मा को यह करना था कि वह स्वदेशाभिमान, स्वजाति प्रेम, समाज सुधार आदि के आधुनिक उद्गारों के प्रवाह के लिए हिंदी को चुने तथा इतिहास, विज्ञान, पुरावृत्त आदि समस्त समयापेक्षित विषयों की ओर हिंदी को दौड़ा दे। इन्होंने अपनी लेखनी को इन नवीन विषयों पर चलाया। स्वदेशाभिमान और स्वदेश प्रेम को लेकर तो मानो यह कवि उतरा ही था। देश के प्राचीन गौरव को स्मरण कराके उसके एक एक यशस्वी महापुरुष का नाम लेकर उसकी वर्तमान दुरवस्था पर ऑंसू बहवाने के लिए तो ये आए ही थे। इनके जीवन में 'भारत, भारत' की जो धुन बँधी वह बराबर बँधी रही। विजयिनी विजय वैजयंती लेकर आप मिस्र से लौटी हुई हिंदुस्तानी सेना की बड़ाई करने और सरकार को बधाई देने चले पर बीच में इस विचार में पड़ गए कि

सहसन बरसन सों सुन्यो जो सपनेहुँ नहिं कान।

सो 'जय भारत' शब्द क्यों पूरयो आज जहान।।

फिर क्या था भारत का भूत सिर पर सवार हो गया।

हाय वही भारत भुव भारी।

सबही विधि सों भई दुखारी।।

भारत भुज बल लहि जग रच्छित।

भारत विद्या सों जग सिच्छित।।

भारत किरिन जगत उँजियारा।

भारत जीव जियत संसारा।।

उन ऐतिहासिक स्थलों और घटनाओं को स्मरण कराने से यह कवि कब चूकता जिनके नाममात्रा हिंदू संतान के लिए कविता है। कविता वही जिससे चित्ता किसी आवेग में लीन हो जाय1। कौन ऐसा इतिहासविज्ञ भारत संतान होगा जिसका रक्त पानीपत, थानेश्वर, चित्तौर, रणथंभौर आदि का नाम सुनते ही चंचल न हो उठे। कौन ऐसा स्तब्ध और जड़ हिन्दू होगा जिसके हृदय में इन नामों को सुनते ही अनेक प्रकार के भाव न उठने लगें। यदि कोई कवि इन दो चार नामों को केवल एक साथ ले ले तो वह अपना काम कर चुका। इन नामों ही में भाव भरे हैं। वे अकेले ही कल्पना को उभार सकते हैं। मेकाले ने मिल्टन की कविता का इटली के एक कवि की कविता से मिलान करते हुए कहा है कि मिल्टन जब किसी वस्तु का वर्णन करता है तब उसे अपने शब्दों से नाप जोख कर बिलकुल परिमित नहीं कर देता वरन् कुछ काम अपने पाठकों की कल्पना के लिए भी छोड़ देता है। अब देखिए इन नामों को भारतेन्दु ने किस प्रकार लिया है :

हाय पंचनद हा पानीपत।

अजहूँ रहे तुम धारनि विराजत।।

हाय चितौर निलज तू भारी।

अजहूँ खरो भारतहि मझारी।।

जा दिन तव अधिकार नसायो।

ताही दिन किन धारनि समायो।।

तुममें जल नहिं जमुना गंगा।

बढ़हु बेगि करि प्रबल तरंगा।।

बोरहु किन झट मथुरा काशी।

धोवहु यह कलंक की राशी।।

भारत दुर्दशा में आलस्य आदि को लाकर इस कवि ने देश दशा को इस ढंग


1 गत वर्ष की 'सरस्वती' में प्रकाशित मेरा 'कविता क्या है?' शीर्षक प्रबंध देखिए।

से झलकाया है कि नए और पुराने दोनों ढाँचे के लोगों का मन उसमें लगे। इस कारीगर में बड़ा भारी गुण यह था कि इसने नए और पुराने विचारों को अपनी रचनाओं में इस तरह मिलाया कि कहीं से जोड़ मालूम न हुआ। पुराने भावों और आदर्शों को लेकर इसने नए आदर्श खड़े किए। देखिए, नीलदेवी में एक देवता के मुँह से भारतवर्ष का कैसा मर्मभेदी भविष्य कहलाया है

सब भाँति दैव प्रतिकूल होइ यहि नासा।

अब तजहु वीर वर भारत की सब आसा।।

अब सुख सूरज को उदय नहीं इत ह्नै है।

मंगलमय भारत भुव मसान ह्नै जैहै।।

राजा सूर्यदेव के मारे जाने पर रानी नील देवी ने जिस रीति से भगवान् को पुकारा है वह कोई नई नहीं, यह वही रीति है जिससे द्रौपदी ने कृष्णचन्द्र को पुकारा था, भेद इतना ही है कि द्रौपदी ने अपनी लज्जा रखने के लिए पुकार मचाई थी, इसने देश की लज्जा रखने के लिए पुकारा

कहाँ करुणानिधि केशव सोए।

जागत नाहिं अनेक जतन करि भारतवासी रोए।।

इन्होंने समाज की कुरीतियों को दिखलाकर बराबर उनके सुधार पर जोर दिया है पर अपने विचारों को परंपरागत विचारों से बिलकुल अलग करते हुए नहीं वरन् उनसे लगाव रखते हुए कश्मीर कुसुम, बादशाह दर्पण, कालचक्र, पुरावृत्ता संग्रह आदि लिखकर इन्होंने इन विषयों की ओर हिंदी को लगा दिया। इनके कविवचनसुधा, मैगजीन की देखादेखी हिंदी में सामयिक पत्रा और पत्रिकाएँ निकल पड़ीं। आज जो हम लोग नए नए विचारों को मँजी हुई भाषा में प्रगट करते हैं वह इन्हीं बाबू हरिश्चंद्र की बदौलत। न तो लल्लू लाल की बोली से हमारा काम चलता और न वैद्यक आदि के ग्रंथों की टीकाओं की भाषा से। हिंदी को उन्नति के आधुनिक मार्ग पर लाकर खड़ा करनेवाले और उसे हमारे साथ फिर लगानेवाले बाबू हरिश्चंद्र ही हुए। अब हमें चाहिए कि राजनीति, विज्ञान, दर्शन, कला आदि के जो भाव हम अपनी संसार यात्रा में प्राप्त करते जायँ उन्हें इस अपनी मातृभाषा हिंदी को बराबर सौंपते जाएँ क्योंकि यही उन्हें हमारी भावी संतति के लिए संचित रखेगी।

(नागरीप्रचारिणी पत्रिका, 1910 ई.)

[चिन्तामणि भाग-3]