भारत की व्यंजन थाली में खाली कटोरियां / जयप्रकाश चौकसे

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भारत की व्यंजन थाली में खाली कटोरियां

प्रकाशन तिथि : 04 जनवरी 2011


जानकारों का कहना है कि देश की आर्थिक प्रगति का आकलन लोगों के भोजन प्रेम और निरंतर फैलते भोजन व्यवसाय से भी किया जा सकता है। यह दुख की बात है कि भूख किसी आकलन में निर्णायक नहीं मानी जा रही है। सीमित वर्गों के खरीदने की ताकत के साथ उनकी अय्याश जीवनशैली के कारण भोजन उद्योग जादुई प्रगति कर रहा है। भारत में जागे इस नए भोजन प्रेम को उसकी नैतिक अवनति के साथ नहीं जोड़ा जाना चाहिए, क्योंकि उसके बहुप्रचारित आध्यात्मिक स्वरूप और दावे में कोई खास दम नहीं है। लक्ष्मी पूजन सबसे बड़ा त्योहार है और तथाकथित भौतिकवादी देशों में ऐसा कुछ नहीं होता।

अपनी किताब 'हिंदुइज्म-ए रिलीजन टू लिव बाय' में नीरद सी.चौधरी इस आशय की बात करते हैं कि भारत में पुनर्जन्म की अवधारणा के पीछे भी यह तथ्य है कि हमें धरती, प्रकृति, भोजन और भोग से इतना प्रेम है कि हम मरने के बाद भी मनुष्य के रूप में ही बार-बार लौटना चाहते हैं। इस भोग भावना से ही हमने आनंद को भी जोड़ दिया है। दरअसल भोजन प्रेम को लेकर पूर्व-पश्चिम के भेद की बात करना बेकार है, क्योंकि भूख और भोजन सभी सरहदों के परे जीवन का यथार्थ है। स्वाद के अनोखे संसार में नित-नए प्रयोग होते हैं। पेटू व्यक्ति अधिक मात्रा में खाता है। दौलत के मामले में जिसे हम लालची कहते हैं, भोजन के मुहावरे में वह पेटू कहलाता है। हर चीज को थोड़ी मात्रा में चखने वाले को चटोरा कहते हैं। दरअसल भूख ही भोजन के स्वाद का निर्णायक तत्व है।

भोजन का मनोरंजन से गहरा रिश्ता है। भारत में भोजन की थाली में अचार, पापड़, दाल, सब्जियां इत्यादि विविध चीजें रहती हैं। हमारी फिल्में भी थाली की तरह हैं। अमेरिका में स्टेक खाते हैं। उनकी फिल्में भी सिंगल ट्रैक होती हैं। वहां हॉरर फिल्म में हास्य और एक्शन में रोमांस नहीं होता। वहां सिनेमा का श्रेणी भेद पक्का होता है। भारत में चीनी, लेबनानी, इटैलियन इत्यादि विविध भोजन अब उपलब्ध हैं, परंतु सब विदेशी शैलियों में भारतीय तड़का होता है। यहां उपलब्ध चायनीज खाना चीन में कोई नहीं खाता। यह भारतीय स्पर्श ही हमारा जीनियस है। आजकल डोसा, इडली इत्यादि अनेक विदेशी शहरों में उपलब्ध हैं, परंतु दाल-बाटी, बाफला इत्यादि सभी जगह खाया और पचाया नहीं जा सकता। कहीं-कहीं डोसे में कीमा भरकर भी पकाया जाता है और कहीं शिमला मिर्च और करेले में कीमा भरकर बनाया जाने लगा है। हमारी सरकारें तो इंसानों को भी भरवां बैंगन की तरह बनाती रही हैं।

मल्टीप्लैक्स मनोरंजन संकुल में सिनेमा के टिकटों की बिक्री से अधिक आय फूड कोर्ट से होती है। उन्हें यह सुझाव दिया गया है कि टिकट की दरें घटाने पर दर्शक संख्या बढऩे के कारण पॉपकॉर्न और समोसे भी ज्यादा बिक सकते हैं, परंतु सोच में श्रेष्ठि वर्ग की सहूलियत का महत्व इतना बढ़ गया है कि वे नहीं चाहते कि सस्ती टिकट दर के कारण आम आदमी अमीरों से कंधा मिलाकर चले। यह एक्सक्लूसिविटी नामक नई व्याधि समाज में फैल गई है, जो डेमोक्रेसी की भावना के विपरीत है। आज अवाम की सरकार अवाम के लिए नहीं वरन अवाम के मतों से चुनी गई सरकार है जो चुनिंदा लोगों के लिए ही काम करती है। एक एयरलाइन के प्रबंधक ने बताया कि भले ही बिजनेस क्लास खाली रहे, लेकिन हमें उसका प्रावधान रखना ही होता है, वरना हमें चालू मान लिया जाता है।

बहरहाल, आज भारतीय भोजन में विविधता उपलब्ध है और लोग पारंपरिक भोजन के साथ प्रयोग भी चाहते हैं। आज भोजनालय, अस्पताल और शिक्षण संस्थाएं सबसे अधिक धन पैदा करने वाले व्यापार हो चुके हैं। उदारवाद के कारण समृद्ध हुआ न्यून वर्ग अपने धन का उपयोग करना चाहता है और विविध भोजन व्यवसाय का स्वर्णकाल चल रहा है। इस समय पूरा देश एक विशाल थाली बन चुका है, जिसमें चायनीज, लेबनीज, जापानी, थाई, स्टेक इत्यादि पारंपरिक पदार्थ भी कायम हैं और बैंगन के भर्ते के साथ नूडल भी आ गए हैं। यहां तक कि गरीब भी अपनी थाली में खाली कटोरियों की संख्या बढ़ा चुका है। भूख सात कोर्स में बंटकर भी भूख ही है।