भाव / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

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भाव / रस मीमांसा / रामचन्द्र शुक्ल

पहले कह आए हैं कि काव्य का लक्ष्य 'भावों' के उपर्युक्त विषयों को सामने रखकर सृष्टि के नाना रूपों के साथ मानवहृदय का सामंजस्य स्थापित करना है। 'भाव' ही कर्म के मूल प्रवर्तक और 'शील' के संस्थापक हैं। अत: कहा जा सकता है कि मनुष्य के जीवन की सच्ची झलक काव्य में ही दिखाई पड़ती है।

सुख और दु:ख की इंद्रियज वेदना के अनुसार पहले-पहल राग और द्वेष आदिम प्राणियों में प्रकट हुए जिनसे दीर्घ परंपरा के अभ्यास द्वारा आगे चलकर वासनाओं और प्रवृत्तियों का सूत्रपात हुआ। रति, शोक, क्रोध, भय आदि पहले वासना के रूप में थे, पीछे भावरूप में आए। जात्यंतर परिणाम द्वारा समुन्नत योनियों का विकास और मनोविज्ञानमय कोश का पूर्णविधान हो जाने पर विविध वासनाओं की नींव पर रति, हास, शोक, क्रोध इत्यादि 'भावों' की प्रतिष्ठा हुई। इंद्रियज सुख-दु:ख से भावगत हर्ष, शोक आदि में सबसे बड़ी विशेषता तो यह हुई कि पहले में प्रत्यय-बोध आवश्यक नहीं था, पर दूसरे में प्रत्यय की प्रधानता हुई-पहले में ध्यान मुख्यत: सुख-दु:ख पर रहता था और दूसरे में हर्षशोक के विषय में रहने लगा। इंद्रियज संवेदन वेदनाप्रधान होता है, वासना प्रवृत्तिप्रधान होती है और भाव वेद्यप्रधान (आलम्बनप्रधान) होता है। वासनात्मक प्रवृत्ति में 'लक्ष्य' और 'आलम्बन' भावना या प्रत्ययरूप में निर्दिष्ट नहीं होते। बहुत से जीव जंतु कोई भारी शब्द या खटका सुनते ही भाग खड़े होते हैं। मनुष्य भी कभी-कभी ऐसा करता है। इस प्रकार की चेष्टा केवल इंद्रियज संवेदन पर निर्भर रहती है। प्रत्येक 'भाव' का आदिम वासनात्मक रूप प्राय: इसी प्रकार का होता है और उसका विधान शरीर की भीतरी और बाहरी बनावट के अनुसार होता है। जिन क्षुद्र से क्षुद्र जीवों के शरीर में बचाव के लिए शस्त्राविधान होता है वे बाधा पहुँचाने पर आप-से-आप संस्कारवश जिधर से बाधा आती हुई जान पड़ती है उस ओर झपट पड़ते हैं। दुर्गंधयुक्त सड़े-गले आहार से जो विशेष प्रकार का क्षोभ घ्राणेंद्रिय और रसनेंद्रिय में होता है उसकी अनुभूति जो कभी-कभी वमनेच्छा या मतली के रूप में होती है-घृणा की प्रवृत्ति का मूल है। आगे चलकर अंत:करण में प्रत्यय या भावना का विधान हो जाने पर ऐसे पदार्थों के दर्शन और स्पर्श क्या श्रवण मात्र से भी घृणा जाग्रत होने लगी। इसी प्रकार क्रमश: जुगुप्सा के 'भाव' का विधान हुआ। भावयोजना के सहारे मनुष्य गंदे और मैले-कुचैले लोगों से ही नहीं बल्कि मलिन अंत:करण वाले पापियों से भी घृणा करने लगा। 'प्रत्ययबोध' की ओर लक्ष्य करके ही साहित्यिकों ने 'भाव' शब्द का प्रयोग किया है जिसका अर्थ है चित्त की चेतन दशा विशेष। रति, क्रोध, भय आदि की वासनात्मक अवस्था में किसी चेतन दशा की अपेक्षा नहीं।

वासना या संस्कार प्राणी में केवल क्रिया के समय में ही नहीं और काल में भी बराबर निहित रहता है; पर भाव का विधान केवल उद्दीपन और क्रिया के समय होता है, उसके उपरांत नहीं रह जाता। पात्र के भाव की ही प्रतीति श्रोता या पाठक को रसरूप में होती है। इसी से साहित्य-दर्पणकार ने प्रतीतिकाल में ही रस की सत्ता मानी है आगे पीछे नहीं-'न तु दीपेन घट इव पूर्वसिद्धो व्यज्यते।1'

वासना और भाव में दो बातों का और भेद है। वासना की प्रेरणा से जो क्रिया होती है उसका रूप निर्दिष्ट होता है, वह सदा उसी रूप की होती है, पर भाव के अनुसार जो क्रिया होती है वह बहुरूपिणी होती है-अर्थात् वह कभी किसी प्रकार की होती है, कभी किसी प्रकार की। दूसरी बात यह है कि वासनात्मक प्रवृत्ति का 'जीवन प्रयत्न' से सीधा लगाव होता है, पर भाव के और लक्ष्य हुआ करते हैं। पर इससे यह न समझना चाहिए कि 'भाव' का वासनात्मक प्रवृत्ति से कोई लगाव नहीं रह जाता। मूल में वासनात्मक प्रवृत्ति बनी रहती है और 'भाव' से उस प्रवृत्ति को उत्तेजना मिलती है। 'भाव' की प्रतिष्ठा से बड़ी भारी बात यह होती है कि वासनात्मक प्रवृत्ति में जहाँ पहले केवल विषय के संपर्क काल में ही क्रिया होती थी वहाँ 'भाव' के संकेत रूप में स्थिर होने के कारण उक्त काल के पहले और पीछे भी क्रिया होने लगी। गाय अपने बछड़े को सामने पाकर ही प्रसन्न नहीं होती, जंगल से चरकर लौटते समय अपने बछड़े का ध्यायन करके भी बड़े उत्साह के साथ बोलती हुई घर लौटती है। मनुष्य अपने विरूद्ध शत्रु की तैयारियों की खबर पाकर भी क्रुद्ध होता है और आक्रमण के पीछे उसका स्मरण करके भी। इस प्रकार 'भाव' की प्रतिष्ठा से प्राणियों के कर्मक्षेत्र का विस्तार बढ़ गया। 'भाव' मन की वेगयुक्त अवस्था विशेष है। वह क्षत्पिपासा, कामवेग आदि शरीर वेगों से भिन्न है।

'भाव' का विश्लेैषण करने पर उसके भीतर तीन अंग पाए जाते हैं-

(1) वह अंग जो प्रवृत्ति या संस्कार के रूप में अंतस्संज्ञा में रहता है (वासना)।

(2) वह अंग जो विषय बिंब के रूप में चेतना में रहता है और 'भाव' का प्रकृत स्वरूप है (भाव, आलम्बन आदि की भावना)।

(3) वह अंग जो आकृति या आचरण में अभिव्यक्त होता है और बाहर देखा।

1. साहित्यदर्पण, तृतीय परिच्छेद 1।

जा सकता है (अनुभाव और नाना प्रयत्न)।

इनमें से प्रथम का वह अंश जो पितृपरंपरा के बीच उत्तरोत्तर बद्धमूल होता आया है और विषयसंपर्क होते ही उत्तेजित होकर सदा एक ही ढंग की क्रिया (जैसे सुकड़ना, भागना, छिपना) उत्पन्न करता है 'वासना' या संस्कार कहलाता है। दूसरे के अंतर्गत आलम्बन के प्रति अनुभूति विशेष के बोध के अतिरिक्त अनेक प्रकार की भावनाएँ और विचार भी आ जाते हैं। इस रीति से किसी एक 'भाव' के अधिकार में उच्च और निम्न श्रेणी की अंत:करण वृत्तियों और शरीर व्यापारों का विधान मिलता है। विवेकात्मक बुद्धिव्यापार भी 'भावों' के शासन के भीतर आ जाते हैं।

सभ्यता की वृद्धि के साथ-साथ ज्यों-ज्यों मनुष्य के व्यापार बहुरूपी और जटिल होते गए, त्यों-त्यों उनके मूल रूप बहुत कुछ आच्छन्न होते गए। भावों के आदिम और सीधे लक्ष्यों के अतिरिक्त और लक्ष्यों की स्थापना होती गई; वासनाजन्य मूल व्यापारों के सिवा बुद्धि द्वारा निश्चित व्यापारों काविधान बढ़ता गया। इस प्रकार बहुत से ऐसे व्यापारों से मनुष्य घिरता गया जिनके साथ उसके भावों का सीधा लगाव नहीं। जैसे आदि में भय का लक्ष्य अपने शरीर और अपनी संतति ही की रक्षा तक था; पर पीछे गाय, बैल, अन्न आदि की रक्षा आवश्यक हुई, यहाँ तक कि होते-होते धान, मान, अधिकार, प्रभुत्व इत्यादि अनेक बातों की रक्षा की चिंता ने घर किया और रक्षा के उपाय भी वासनाजन्य प्रवृत्ति से भिन्न प्रकार के होने लगे। इसी प्रकार क्रोध, घृणा, लोभ आदि अन्य भावों के विषय भी अपने मूल रूपों से भिन्न रूप धारण करने लगे। कुछ भावों के विषय तो 'अमूर्त' तक होने लगे जैसे कीर्ति की लालसा। ऐसे भावों को ही बौद्ध दर्शन में 'अरूपराग' कहते हैं; पर भावों के विषयों और प्रेरितव्यापारों में यह प्रत्यक्ष अनेकरूपता आने पर भी उनका संबंध भावों के मूल रूपों और उनके मूल विषयों से परोक्ष रूप में बना है और बराबर बना रहेगा। किसी का कुटिल भाई उसे संपत्ति से एकदम वंचित रखने के लिए वकीलों की सलाह से एक नया दस्तावेज तैयार कराता है। इसकी खबर पाकर वह क्रोध से नाच उठता है। प्रत्यक्ष रूप में उसके क्रोध का विषय है वह नया दस्तावेज। पर उस दस्तावेज का संबंध अन्तत: जाकर इस बात से ठहरता है कि उसे और उसकी संतति को अन्न, वस्त्र न मिलेगा। अत: उसके क्रोध में और उस कुत्तेा के क्रोध में जिसके सामने का भोजन कोई दूसरा कुत्तात छीन रहा है, सिद्धांतत: कोई भेद नहीं है, भेद है केवल विषय के थोड़ा रूप बदलकर आने में। इसी रूप बदलने का नाम है सभ्यता। इस रूप बदलने से होता यह है कि उससे उत्तेहजित क्रोध आदि को भी अपना रूप बदलना पड़ता है-वह भी कुछ कपड़े-लत्तेस पहनकर समाज में आता है जिससे मारपीट, छीन-खसोट आदि भद्दे समझे जानेवाले व्यापारों का कुछ निवारण होता है।

पर यह प्रच्छन्नरूप उतना मर्मस्पर्शी नहीं हो सकता। इसी से इस प्रच्छन्नता का उद्धाटन 'काव्य' का एक मुख्य कार्य है। ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती जाएगी त्यों-त्यों यह काम बढ़ता जायगा, मनुष्य की मूल रागात्मिका वृत्ति से सीधा संबंध रखनेवाले रूपों को प्रत्यक्ष करने के लिए उसे बहुत से परदों को हटाना पड़ेगा। इससे यह स्पष्ट है कि ज्यों-ज्यों सभ्यता बढ़ती जाएगी त्यों-त्यों एक ओर तो काव्य की आवश्यकता बढ़ती जाएगी दूसरी ओर कविकर्म कठिन होता जायगा। ऊपर जिस क्रुद्ध व्यक्ति का उदाहरण दिया गया है वह यदि क्रोध से छुट्टी पाकर अपने भाई के चित्त में दया का संचार करना चाहेगा तो क्षुब्ध होकर उससे कहेगा-'भाई! तुम सब प्रयत्न इसीलिए न करते हो कि तुम पक्की हवेली में बैठकर हलवा-पूरी खाओ और मैं एक झोपड़ी में बैठा सूखे चने चबाऊँ, तुम्हारे लड़के दुशाले ओढ़कर निकलें और मेरे बच्चे ठंड से काँपते रहें।' यह हुआ प्रकृत रूप का प्रत्यक्षीकरण। इसमें सभ्यता के बहुत से आवरणों को हटाकर वे मूल गोचर रूप सामने रखे गए हैं जिनसे हमारे भावों का सीधा लगाव है और जो इस कारण भावों को उत्तेजित करने में समर्थ हैं। कोई बात जब इस रूप में आयगी तभी उसे काव्य का रूप प्राप्त होगा। 'तुमने हमें नुकसान पहुँचाने के लिए जाली दस्तावेज बनाया' इस वाक्य में रसात्मकता नहीं। इसी बात को ध्याुन में रखकर ध्वीनिकार ने कहा है-नहि कवेरितिवृत्तमात्रनिर्वाहेणात्मपदलाभ:1। इसी प्रकार देश की आजकल की दशा के वर्णन में यदि हम केवल इस प्रकार के वाक्य कहते जायँ कि 'हम मूर्ख, बलहीन और आलसी हो गए हैं, हमारा धन विदेश चला जाता है, रुपये का डेढ़ पाव घी बिकता है, स्त्रीऔशिक्षा का अभाव है तो वे छंदोबद्ध होने पर भी काव्य पद के अधिकारी न होंगे। सारांश यह कि काव्य के लिए अनेक स्थलों पर हमें भावों के विषय के मूल और आदिम रूपों तक जाना होगा जो मूर्त और गोचर होंगे। जबतक भावों से सीधा लगाव रखनेवाले मूर्त और गोचर रूप न मिलेंगे तब तक काव्य का वास्तव रूप खड़ा नहीं हो सकता। भावों के अमूर्त विषयों के आधार भी मूल में मूर्त और गोचर मिलेंगे, जैसे यशोलिप्सा में कुछ दूर चलकर उस आनंद के उपभोग की प्रवृत्ति छिपी हुई पाई जाएगी जो अपनी तारीफ कान में पड़ने से हुआ करता है।

काव्य में अर्थग्रहण मात्र से काम नहीं चलता, बिंबग्रहण अपेक्षित होता है। यह बिंबग्रहण निर्दिष्ट, गोचर और मूर्त विषय का ही हो सकता है। 'रुपये का डेढ़ पाव घी मिलता है' इस कथन से कल्पना में यदि कोई बिंब या मूर्ति उपस्थित होगी तो वह तराजू लिए हुए बनिये की होगी। जिससे हमारे करुण भाव का सीधा लगाव न होगा। बहुत कम लोगों को घी खाने को मिलता है, अधिकतर लोग रूखी-सूखी खाकर रहते हैं-इस बात तक हम अर्थग्रहण परंपरा द्वारा इस चक्कर के साथ पहुँचते हैं-एक रुपये का बहुत कम घी मिलता है इससे रुपयेवाले ही घी खा सकते हैं; पर रुपयेवाले बहुत कम हैं, इससे अधिक जनता घी नहीं पा सकती, रूखी-सूखी

1. धवन्यालोक, तृतीय उद्योत, पृष्ठ 148।

खाकर रहती है। यदि इसे व्यंजना कहें तो यह वस्तुव्यंजना होगी जिससे काव्य को उतना सरोकार नहीं। इस विषय का विस्तृत विवेचन 'शब्दशक्ति' के अंतर्गत होगा।

ऊपर जो भाव का विश्ले्षण किया गया उससे यह स्पष्ट है कि 'भाव' का विधान हो जाने पर भी वासनात्मक प्रवृत्ति मूल में बनी रहती है। बात यह है कि आदिम क्षुद्र जंतुओं में पहले सब व्यापार केवल बँधी चली आती हुई सहज प्रवृत्ति के अनुसार होते रहे फिर आगे चलकर उन्नत जंतुओं में प्रवृत्ति के उत्तेहजक विषय की 'प्रत्यय' के रूप में धारणा भी होने लगी। इस विषय-प्रत्यय के साथ सुख या दु:ख की अनुभूति का बोध भी मिला समझना चाहिए। अत: भाव उस विशेष रूप के चित्तविकार को कहते हैं जिसके अंतर्गत विषय के स्वरूप की धारणा, सुखात्मक या दु:खात्मक अनुभूति का बोध और प्रवृत्ति के उत्ते जन से विशेष कर्मों की प्रेरणा पूर्वापर संबद्ध संघटित हों। संक्षेप में-

प्रत्ययबोध, अनुभूति और वेगयुक्त प्रवृत्ति इन तीनों के गूढ़ संश्लेपष का नाम 'भाव' है।

मन के प्रत्येक वेग को भाव नहीं कह सकते, मन का वही वेग 'भाव' कहला सकता है जिसमें चेतना के भीतर आलम्बन आदि प्रत्यय रूप से प्रतिष्ठित होंगे।

मनोविज्ञानियों के अनुसार प्रधान भाव हैं-क्रोध, भय, हर्ष, शोक, घृणा, आश्चर्य और जिज्ञासा। भावविधान के भीतर जिस प्रकार प्रवृत्तियाँ हैं उसी प्रकार मनोवेग मात्र भी हैं जिन्हें आलम्बनप्रधान न होने के कारण हम 'भाव' नहीं कह सकते, जैसे चकपकाहट, घबराहट, सोने या टहलने को जी करना इत्यादि। इच्छा भी एक प्रकार का मनोवेग ही है, पर 'भाव' पर पहुँचता हुआ स्वतंत्रविधान नहीं। उसका अपना कोई लक्ष्य नहीं होता, दूसरे भावों के लक्ष्य को लेकर वह चलता है। उसमें निश्चयात्मिका बुद्धि का योग अधिक होता है। उसमें दूरस्थ लक्ष्य या परिणाम धारणा अधिक स्फुट होती है इससे वेग की मात्रा कम होती है। पर इस 'इच्छा' से स्थिति-भेद के अनुसार कुछ संचारी भावों की उत्पत्ति होती है, जैसे, इच्छा की पूर्ति के अच्छे लक्षण दिखाई देने पर आशा, पूर्ति में विलंब होने से व्याकुलता, पूर्ति न होने से नैराश्य, पूर्ति की ओर यथेष्ट अवसर न हो सकने पर विषाद इत्यादि। कहने की आवश्यकता नहीं कि प्रत्येक विधान का एक निर्दिष्ट लक्ष्य हुआ करता है और भाव एक मानसिक शारीरिक विधान या व्यवस्था है। मनुष्य के प्रधान भावों के लक्ष्य परिणाम कभी-कभी इतने दूरस्थ हुआ करते हैं कि पूर्ति के पहले 'इच्छा' के लिए अवकाश रहा करता है।