भाषा में उभरते संकेत / जयप्रकाश चौकसे

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भाषा में उभरते संकेत
प्रकाशन तिथि : 15 मार्च 2013


कृषिप्रधान भारत के फिल्ममय भारत होने के लक्षण बोलचाल की भाषा में भी देखे जा सकते हैं। कुछ नए मुहावरे भी सामने आते हैं और प्रचलन के कारण उन्हें भाषायी मान्यता भी प्राप्त हो जाती है। किसी भी उत्सव या व्यवसाय के परिणाम में सफल या असफल के बदले हिट या फ्लॉप कहना लोकप्रिय है। एक बार एक मित्र के दावतनामे को यह कहकर मैंने अस्वीकार किया कि एक परिचित की क्लाइमैक्स रील चल रही है, अत: दावत में शरीक नहीं हो सकता। मेजबान मुझसे कई दिनों तक अबोला पालते रहे, क्योंकि उनका ख्याल था कि फिल्म देखना उनकी दावत से ज्यादा जरूरी समझा गया। जबकि मेरा आशय था कि एक वृद्ध परिचित गंभीर रूप से बीमार हैं और डॉक्टर फिल्मी लहजे में कह चुके थे कि अब इन्हें दवा की नहीं, दुआ की जरूरत है। अत: उनके 'क्लाइमैक्स' के कारण दावत में आना संभव नहीं था। दरअसल व्यक्ति अपने व्यवसाय से जुड़े शब्दों से अपनी साधारण बातें भी व्यक्त करता है। मसलन सोने-चांदी और हीरे का व्यापारी कहता है कि यह बात चौबीस कैरेट सही है। एक हॉलीवुड फिल्म में चालीस वर्ष की नायिका की कहानी थी और फिल्म का नाम था 'फोर्टी कैरेट वीमन।' देसी शराब का ठेकेदार किसी वस्तु की गुणवत्ता बताने के लिए कहता है कि 'पहली धार' का माल है। अपराध जगत में ठेके पर हत्या के काम को 'सुपारी' देना कहते हैं। नेता अपने परिवार के युवा के इरादों को 'वीटो' कर देते हैं। घर में भी 'क्वेश्चन आवर' होता है। भाषा के भी अपने 'फैशन' के दौर होते हैं। भाषा का सबसे खराब स्वरूप न्यूज चैनल के उद्घोषक प्रस्तुत करते हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया अपने को अदालत की तरह प्रस्तुत करता है और फतवे की तरह फैसले सुना देता है। भाषा समाज का थर्मामीटर है।

युवा वर्ग सबसे पहले भाषा के 'फैशन' को अपनाता है। शिक्षा परिसर में सजी-धजी लड़की को 'आइटम' कहा जाता है और फिल्म में 'आइटम' करने वाली सितारा को आदर देता है। मोबाइल पर संदेश देने वाली भाषा का इस्तेमाल वह रोजमर्रा के जीवन में करने लगा है। कल परीक्षा में भी इसी भाषायी स्वरूप में उत्तर लिखेगा। मोबाइल पर संदेश देने में तीव्रगति से चलने वाली उंगलियां अनचाहे ही भाषा की 'जेबकतरी' कर रही हैं। जेबकतरों की भी अपनी जुबान होती है। एक क्षेत्र का जेबकतरा अपने 'शिकार' को दूसरे चोर के क्षेत्र में जाता देख उस इलाके के अपनी बिरादरी वाले को अपनी भाषा में खबर देता है और जैसे प्रॉपर्टी के दलाल एक-दूसरे की सहायता करके माल का बंटवारा भी कर लेते हैं, वैसे ही जेबकतरों और अन्य अपराध क्षेत्रों में भी होता है। अमेरिका में मूक सिनेमा के दौर में की-स्टोन कंपनी की फिल्मों में प्राय: पुलिसवाले को नायक चकमे देता रहता है और उसे पीटने का अवसर नहीं छोड़ता। कुछ दिनों पहले हमने अनुराग बसु की फिल्म 'बर्फी' में की-स्टोन कॉप देखा है। वह भोला-भाला मूर्ख-सा पुलिसवाला सारे प्रहसन का प्रिय निशाना होता है या बॉक्सिंग के मुहावरे में सैंडबैग कहा जा सकता है या उसे सिटिंग डक भी कहते हैं अर्थात जिस पर आसानी से निशाना लगाया जा सकता है। सौरभ शुक्ला ने यह 'की-स्टोन कॉप' बखूबी निभाया था।

हाल ही में सागरिका घोष ने हिंदुस्तान टाइम्स में विचारोत्तेजक लेख लिखा है - 'अवर की-स्टोन कॉप'। उनका कहना है कि हमारी पुलिस राजनीतिक विचार एवं पूर्वग्रह को सबूत की तरह मानती है, इसलिए आतंकवादी पकड़े नहीं जाते क्योंकि अपराध की खोज का नजरिया ही दोषपूर्ण है। सबूत के बदले धर्म आधारित पूर्वग्रह की राह पर चलने से अपराधी तक नहीं पहुंच पाते। आतंकवादी घटना होते ही किसी धर्म विशेष के कुछ बदनाम लोगों के नाम हवा में उछाल दिए जाते हैं। कुछ समय पूर्व रहमान सिद्दीकी नामक पत्रकार और वैज्ञानिक एजाज मिर्जा को लंबे समय तक जेल में रखा गया और अदालत ने पाया कि उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं है। जब निर्दोष लोग महज उनके किसी मजहब में पैदा होने के कारण जेलों में ठूंसे जाएंगे और थर्ड डिग्री जुल्म सहकर अदालत द्वारा निर्दोष घोषित होंगे, तब उनके सोच में परिवर्तन होगा। दरअसल किसी भी धर्म के व्यक्ति के बारे में केवल धर्म के आधार पर राय बनाना अनुचित है। अच्छे और बुरे लोग सभी धर्मों में मौजूद हैं। दरअसल पुलिस और प्रशासन में धर्मनिरपेक्षता का लगभग लोप हो जाना एक गंभीर समस्या है। पुलिस की पूरी कार्रवाई पारदर्शी होना जरूरी है। कहीं ऐसा तो नहीं कि आतंकवादियों को पकडऩे की प्रक्रिया में पूर्वग्रह के कारण निर्दोष को जेलों में ठंूसना भी आतंकवादी के 'निर्माण' में सहायक हो रहा है? यह भीगौरतलब है कि गुलामी के दौर में हुकूमते बरतानिया के इशारे पर अखबारों में आरोपी के धर्म को नाम के साथ जोडऩा अनिवार्य कर दिया गया था और पुलिस की रिपोर्ट में भी आरोपी के धर्म को प्रमुखता दी जाती थी।

अत: 'बांटो और राज करो' की नीति अनेक जगह उजागर होने लगी थी और १९वीं सदी के अंतिम दशक की जनसंख्या गणना में भी इस पर पहली बार जोर दिया गया था। यह बात अलग है कि इस वैमनस्य के कारणों में 'डिवाइड और रूल' भी एक हो सकता है, परंतु वह एकमात्र नहीं रहा है। मौजूदा दौर में सत्ता के पीछे पागल नेता राष्ट्रीय हित अनदेखा कर रहे हैं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया इसमें घी डाल रहा है। विदेश की धनाढ्य कंपनियां भारत में निवेश से डर रही हैं, जिसके अनेक कारणों में एक यह भी है कि राजनीतिक सिद्धांत या आदर्श को अनदेखा करके सारा खेल महज एक-दूसरे को नीचा दिखाने और सत्ता पाने के लिए किया जा रहा है। इसीलिए हमारी पुलिस को की-स्टोन पुलिस कहा जा रहा है।