भाषा : एक प्रवहमान नदी / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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एक ज़बान से दूसरी ज़बान पर चढ़ते-चढ़ते शब्दों में ही परिवर्तन नहीं आता; वरन् अर्थ भी बदल जाता है। कुछ शब्दों का अर्थ संकुचित हो जाता है, तो कुछ का विस्तृत। भाषाविज्ञान की सीमा में यह विकार, विकास का ही पर्याय है, न कि ह्रास का। व्याकरण जिस परिवर्तन को पतन या अशुद्धता का नाम देता है, भाषाविज्ञान उसे भी विकास का एक सोपान समझकर ग्रहण करने के पक्ष में है। ‘परिवार’ शब्द को ही लीजिए। इस शब्द का अर्थ है-घेरनेवाला अर्थात् नौकर -चाकर, अनुचरवर्ग, चादर, म्यान आदि। यह शब्द अब ‘कुटुम्ब’ के अर्थ में प्रयुक्त होता है। बदमाश( फ़ारसी) शब्द का अर्थ है-बुरी जीविका / पेशा रहा है; लेकिन यही शब्द अब चरित्रहीन अथवा गुण्डागर्दी करने वाले के लिए इस्तेमाल होता है। बंगाल में इसका प्रयोग शरारती और नटखट के लिए होता है। उत्तर भारत में हम घर के शरारती बच्चों को प्यार से भी बदमाश कह देते हैं। इसी प्रकार बांग्ला शब्द ‘दादा’ (भाई) हिन्दी भाषी क्षेत्र में ‘गुण्डे’ का भी पर्याय बन गया है। ‘बला’ का मूल अर्थ परीक्षा है। ‘परीक्षा’ स्वय में एक कठिन कार्य है; अतः ‘बला’ का अर्थ परिवर्तित होकर ‘मुसीबत’ हो गया है, जो अपने मूल शब्द से बहुत दूर जा पहुँचा है। इम्तिहान भी मुसीबत का ही पर्याय है, जो परीक्षा का पर्याय बनकर छात्रों की धड़कने बढ़ाने का काम करता है।

‘बावर्ची’ शब्द का अर्थ है विश्वासपात्र। भोजन बनाने का काम उसी को सौंपा जा सकता है, जो विश्वासपात्र हो। विश्वासघाती कब क्या खिलाकर जान ले ले, कहा नहीं जा सकता। शायद इसी विश्वासपात्रता के कारण रसोई बनानेवाले को बावर्ची का नाम दे दिया। अब तो वह भी बावर्ची है, जो रसोईघर के सामान को भी आँख बचाकर ले भागे।

संस्कृत भाषा का ‘वेदना’ शब्द ‘सुख-दुःख’ दोनों भावों में प्रयुक्त हो रहा है; परन्तु यही शब्द हिन्दी में केवल ‘पीड़ा’ या ‘दुःख’ ही दे रहा है। संस्कृत भाषा का ‘घृणा’ शब्द दया, तरस, निन्दा और नफ़रत के लिए आता है; लेकिन हिन्दी में केवल नफ़रत तक सीमित हो गया है। हिन्दी का शब्द ‘दूल्हा’ दुर्लभ से विकसित है। अच्छ पति मिलना दुर्लभ तो है ही, ढूँढना भी मुश्किल है, पहले भी रहा होगा। कठिनता से प्राप्य होने के कारण दुर्लभ ही दूल्हा बन गया। आज यह शब्द ‘वर’ के लिए प्रयुक्त होने लगा है।

संस्कृत में ‘साहस’ शब्द व्यभिचार, हत्या, लूटपाट, बलात्कार आदि दुष्कर्मों के लिए प्रयुक्त होता रहा है। ऐसे कार्यों के लिए विशेष हिम्मत की ज़रूरत पड़ती है। शायद इसीलिए अच्छे एवं कठिन कार्यों को करने के लिए भी जिस शक्ति की आवश्यकता पड़ी, उसे भी साहस का नाम दे दिया। आज यह शब्द अपने मूल अर्थ से एकदम परिवर्तित अर्थ का द्योतक बन गया है।

‘बज्रबटुक’ ( बज्र+बटुक) दो शब्दों से मिलकर बना है, जिसका अर्थ है पक्का( नैष्ठिक) ब्रह्मचारी। अब यह बदलकर बन गया है-‘बजरबट्टू’ जिसका अर्थ ‘महामूर्ख’ व्यक्ति होता है। ऐसा ही एक शब्द है ‘बौद्ध’, जिसका मूल अर्थ आज भी ज्यों का त्यों बरकरार है अर्थात् बुद्ध का अनुयायी। दूसरी ओर बुद्ध का एक विकृत और परिवर्तित शब्द बन गया ‘बुद्धू’, जिसका अर्थ हो गया अज्ञानी। कितनी भिन्नता हो गई दोनों शब्दों में। ‘भद्र’ (भला, कल्याण, शुभ) ’सर्वे भद्राणि पश्यन्तु’ का वाचक था, इससे परिवर्तित शब्द ‘भद्दा’ बन गया, जिसका अर्थ मूल शब्द से कोसों दूर हो गया; लेकिन भद्र व्यक्ति के रूप में अपना पहला अर्थ( भला) भी बचाए हुए है।

हिन्दू शब्द भी काफी विवादास्पद है। प्राचीन इरानी साहित्य में ‘हिन्दु’ शब्द ‘नदी’ के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । कुछ विद्वानों ने खींच तानकर इसकी संस्कृत व्युत्पत्ति भी कर डाली है- 1-हिन् +दुष् +डु ( प्रत्यय)=हीनों को दूषित करने वाला

2-यो हिंसाया दूयते सः हिन्दू

3-हिन्+दु= दुष्टों का विनाश करने वाला।

अब विचार करें, तो इसका अर्थ बहुत व्यापक हो गया है। यह किसी व्यक्ति विशेष का पर्याय न होकर विशाल धर्म का नाम है। अगर और भी विस्तार में पहुँचा जाए तो ‘हिन्दुस्तान’ जैसे विशाल देश के निवासी का पर्याय बन गया है। कुछ ऐसे भी शब्द हैं जो विदेशी भाषा से गृहीत होने पर भी ज्यों के त्यों सुरक्षित हैं। ‘असुर’ असीरियन शब्द ईरानी में ‘अहुर’ हो गया ( ‘अहर’ नहीं जैसा की मुक्ता में दिए गए एक लेख में बताया गया था।), जो संस्कृत में अपने मूल रूप में ही सुरक्षित है। मज़े की बात यह है कि वहाँ असीरियन में यह ‘देवता’ का सूचक है। असुर शब्द( 'असु' ='प्राण', और 'र' = 'वाला' यानी प्राणवान् अथवा शक्तिमान,) से मिलकर बना है। असु सम – प्राणों के समान प्यारा। सुर शब्द इसी उदात्त अर्थ में पारसियों के प्रधान देवता 'अहुरमज़्द' ('असुर: मेधावी') के नाम से विद्यमान है। बाद के समय में धीरे-धीरे असुर भौतिक शक्ति का प्रतीक हो गया। देवताओं से विरोध होने पर यह राक्षस के रूप में तथा इसके विलोम के रूप में ‘सुर’ का प्रयोग होने लगा। ॠग्वेद में 90 बार इस शब्द का प्रयोग ‘अच्छे’ अर्थ में तथा केवल 15 बार देवताओं के शत्रु के रूप में किया गया है।

ऐसा ही फ़ारसी शब्द ‘मिहिर’ ( सूर्य) है। संस्कृत में शब्द एवं अर्थ दोनों ही रूप से ज्यों का त्यों है। इसी प्रकार कदली( केला), बाण, ताम्बूल, पिनाक , लिंग आदि आस्ट्रिक शब्द संस्कृत में मूल रूप में इस प्रकार समा गए हैं कि आज इन्हें किसी अन्य भाषा का बताना अटपटा लगेगा। एक मुख्य बात और ‘लिंग’ का एक ही रूढ़ अर्थ नहीं है, जिसे हम शरीर के एक अंग के रूप में ही समझते हैं। इसके विभेदक चिह्न, निशान,चिह्न, प्रतीक देवमूर्त्ति, प्रतिमा, आलिंगन आदि कई अर्थ हैं। जब हम ’शिवलिंग’ शब्द का प्रयोग करते हैं, तो वह -शिव की मूर्त्ति, शिव का प्रतीक या शिव का चिह्न है, शिव का अंग विशेष नहीं है। पारसियों का आगमन भारत में काफी बाद में हुआ; लेकिन उनका ‘पाषण्ड’ धार्मिक कर्मकाण्ड के साथ संस्कृत में भी रहा, कर्मकाण्ड का दिखावा होने के कारण यह नास्तिक, धर्मभ्रष्ट आदि अर्थ के साथ हिन्दी में केवल ‘पाखण्ड’ अर्थात् आडम्बर का रूप बनकर रह गया।

पहले पंख से लिखा जाता था। ‘पेन’ शब्द का प्रयोग इसी शब्द के साथ होता रहा। रूढ़ होने पर पेन अपने मूल अर्थ से दूर चला आया है। ‘जंघा/ जङ्घा’ संस्कृत का मूल अर्थ है-घुटने से लेकर टखने के बीच का भाग अर्थात् ‘पिंडली’। हिन्दी में इसका अर्थ घुटने से ऊपर का भाग है। इसी प्रकार ‘कटि’( संस्कृत) का अर्थ कूल्हा है, जो हिन्दी में कमर हो - गया। ब्रज बोली में इसका प्रयोग मूल अर्थ ‘कूल्हा’ के लिए भी हुआ है। ‘पदवी’ / ‘पद्धति’ का अर्थ है -रास्ता। हिन्दी में पदवी तो उपाधि हो गया। पद्धति तौर-तरीके के अर्थ में प्रयुक्त होने लगा। इसी प्रकार प्रणाली( सं- नाली) हिन्दी में पद्धति का पर्याय बन गया। ‘निर्भर ( संस्कृत-पूर्ण रूप से भरा हुआ)हिन्दी में आश्रित का पर्याय बन गया। ‘त्रुटि’ (संस्कृत में टूट या टूटना) हिन्दी में ‘भूल’ के अर्थ में प्रयुक्त होता है।

‘अधर’ का अर्थ है नीचे का, नीच, कमीना , अधरोष्ठ= निचला होंठ, हिन्दी में केवल होंठ के रूप में विद्यमान है। महाराज(बड़ा राजा) हिन्दी में रसोइया, संग्रह( रक्षण) हिन्दी में केवल एकत्र करना, सम्पादक( प्राप्तकर्त्ता) हिन्दी में एडिटर के अर्थ में, समाचार ( अभ्यास, आचरण, व्यवहार) हिन्दी में केवल ख़बर ( फिर ख़बर से ही अख़बार भी बन गया), अकाल ( असमय) हिन्दी में दुर्भिक्ष( दुर्भिक्ष भी इसलिए कि इस विषम समय में भिक्षा मिलना भी दुर्लभ है।

दारुण ( सं) भीषण , घोर, भयानक, भयंकर आदि अर्थों में प्रयुक्त होता है; लेकिन बांग्ला में ‘बहुत’ अर्थ के साथ अच्छे-बुरे दोनों ही अर्थ में प्रयुक्त होता है। बहुत अच्छे के लिए ‘दारुण भालो’ कहा जाता है। यहाँ हिन्दी का सामान्य शब्द ‘बाल’ सिर के बालों के लिए प्रयुक्त नहीं होता। ‘आमूलचूल’ में ‘चूल’ सिर के केश के लिए बांग्ला में प्रयुक्त होता है। किसी नाई से ‘बाल कटवाने हैं’ कह देंगे , तो वहाँ कहासुनी हो जाएगी। केश अगर घुँघराले हों, तो उन्हें अलकें ही कहा जाएगा। जयशंकर प्रसाद भी इड़ा के सौन्दर्य के लिए –‘’बिखरी अलकें ज्यों तर्क जाल’ का चित्रण करते हैं। संस्कृत का राग( प्रेम, हर्ष , आनन्द , क्रोध , रोष, संगीत के राग आदि) हिन्दी में रोष/ क्रोध के अर्थ में प्रयोग नहीं होता। बांग्ला में यह शब्द क्रोध के रूप में भी प्रयोग होता है। ये परिवर्तन केवल बांग्ला तक ही सीमित नहीं हैं।

‘महक’ खुशबू के अर्थ में प्रचलित है, लेकिन उत्तर प्रदेश और बिहार के कुछ स्थानों पर महकना का अर्थ बदबू है, जैसे जूते से निकाली जुराबों का महकना। ‘सड़ना’ जहाँ होगा, तो बदबू भी ज़रूर आएगी। तवे पर पड़ी रोटी पर कुछ देर तक ध्यान न जाए , तो वह जल जाएगी ; लेकिन पंजाबी में जलेगी नहीं, सड़ जाएगी। असमिया में दूध के लिए गोखीर( गौ क्षीर = गाय का दूध से परिवर्तित, भैंस मैंने वहाँ देखी ही नहीं) का प्रयोग होता है। दूध तो केवल माँ अपने शिशु को पिला सकती है। तेलुगु में उपन्यास-मु ( भाषण) , कृषि ( परिश्रम), चरित्र-मु( इतिहास), व्यवसाय-मु( खेती), शिक्षा ( सज़ा-कन्नड़ , मलयालम और तमिल में भी), राष्ट-मु( राज्य), भाषण( बातचीत) के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं। ‘कुद’ का अर्थ उड़िया में ‘नदी; है। ‘हीराकुद’ बेचारा लोगों की ज़ुबान पर जाकर हीराकुण्ड हो गया।

किसी भी प्राचीन ग्रन्थ का अध्ययन करते समय उसके मूल अर्थ में पहुँचने की ज़रूरत है। वास्तविकता तो यह है कि शब्द की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। जैसे -जैसे कोई समाज उन्नति करता जाता है, उसके अनुरूप शब्दों के रूप और अर्थ में भी परिवर्तन होता जाता है। नए-नए विचारों को प्रकट करने के लिए जब पुराने ही शब्द प्रयुक्त होते हैं, तब उनके अर्थ में परिवर्तन होगा ही। ‘गवेषणा’ का अर्थ -गौ को ढूँढना, गौ की (एषणा) इच्छा था, बाद में इसका अर्थ ‘ढूँढना’ हो गया। कुश घास को उखाड़ने में सावधानी चाहिए, इसलिए कुशल( कुशान् लातीति=कुश+ला( उखाड़ना) +क ) का अर्थ योग्य, दक्ष , चतुर हो गया। वीणा बजाना भी आसान नहीं; इसलिए वही गति प्रवीण(प्रकृष्टा संसाधिता वीणा येन) के अर्थ चतुर , कुशल,जानकार हो गए। मृग का अर्थ हिरन के साथ -साथ ‘पशु’ भी है, तभी सिंह मृगराज ( हिरनों का राजा नहीं, बल्कि पशुओं का राजा) कहलाता है। शिकार के लिए ‘मृगया’ बन गया। कन्नड़,तेलुगु और तमिल में मृग का अर्थ केवल जानवर है। तिलों से तेल निकाला जाता था, इसलिए ‘तैल’/ तेल हो गया। सूरजमुखी , सरसों हो या बिनौला इन सबके तेलों के साथ अब तो मिट्टी का तेल भी है।

‘अभ्यास’ शब्द बाण आदि को बार -बार फेंकने के अर्थ( अभि+आ+अस्+ घञ्) में आया है। ॠग्वेद के मन्त्र-‘शूरो अस्तेन शत्रून् बाधते’ में ‘अस्ता’ का अर्थ बाण फेंकनेवाला ही है। , जो अब लगातार किसी कार्य को करने के उपलक्ष्य में ही आता है। अनजाने में कुछ लोग उपलक्ष्य के लिए भी उपलक्ष( लक्ष= लाख) लिख जाते हैं। ‘अरि’ शब्द का अर्थ वैदिक संस्कृत में ईश्वर , धार्मिक, शत्रु है। लौकिक संस्कृत में यह शब्द अब शत्रु का पर्याय हो बनकर सीमित अर्थ का बोध कराता है। इसी प्रकार ‘क्षिति’( घर , बस्ती, मनुष्य) लौकिक संस्कृत में ‘पृथ्वी’ है। ये शब्द भी देखिए-

1-अवसर, आलोचना,केवल तमिल में क्रमशः (जल्दी, सलाह नीच),विज्ञापन, सम्भव, पाषाण कन्नड़ में क्रमशः( प्रार्थना, घटना, विष) -गवेषणा-मार्च 1966, पृष्ठः 73-विजय राघव रेड्डी

2-नीरस, तालीम, शिकार, संगति , लोटा-तेलुगु में क्रमश: ( कमज़ोर, व्यायाम, सैर, समाचार, गिलास)- गवेषणा-मार्च,1966, पृष्ठः 106-तेजनारायण लाल

3-उद्योग, प्रपंच, खिलाड़ी( हिन्दी में प्रयत्न, धोखा, खेलने वाला) तेलुगु, कन्नड़, मलयालम और तमिल में क्रमश:( नौकरी, दुनिया, बदमाश-कन्नड़ में चालाक)-गवेषणा-मार्च 1966, पृष्ठः 121-एल. श्रीकण्ठमूर्ति

भाषा जलधारा के प्रवाह की तरह अपने निरन्तर प्रवाह के कारण बदलती रहती है। यह बदलाव शब्द के रूप का भी हो सकता, अर्थ का भी हो सकता। यह बदलाव ही भाषा की सुन्दरता है। भाषा का प्रवाह रुकेगा, तो वह नदी की जलधारा न बनकर , पोखर बन जाएगी। प्रवाह का रुकना ही भाषा का सिमटना है। भाषा एक ऐसा यात्री है , जो बिना रुके , बिना थके अपने पथ पर अग्रसर रहता है। यही उसका जीवन है, निरन्तर आगे बढ़ने में ही उसका अस्तित्व है।

(30 जनवरी 1977, बैरकपुर, प्रकाशन-हिन्दी शिक्षण पत्र-जून 1977-सम्पादक डॉ बरसाने लाल चतुर्वेदी-हिन्दी अधिकारी केन्द्रीय विद्यालय संगठन नई दिल्ली , गवेषणा का सन्दर्भ बाद में जोड़ा गया)