भाषा : जीवन संगीत का एक रूप / हेमन्त जोशी

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जहाँ-जहाँ मनुष्य है उसने अपने आसपास की छोटी से छोटी बात को अभिव्यक्त करने के लिए जो भाषाएँ विकसित की हैं उनके समवेत से एक ऐसा संगीत निकलता है जिसे किसी व्याकरण की आवश्यकता नहीं। एक नज़रिए से अख़बार, रेडियो और टेलीविज़न जैसे सभी संचार माध्यमों को इसी संगीत का विस्तार माना जा सकता है।

इस संसार में जीवन की अगाध धारा को बहने के लिए प्रकृति से इतर नियमों की आवश्यकता नहीं है। इसी तरह मानवीय समाजों में भी भाषा और संस्कृति के नियामक की तरह व्यवहार से बढ़कर कोई और रूढ़ि या व्याकरण नहीं। इस सबके बावजूद हम प्रकृति में व्याप्त संगीत को आत्मसात् करके अपने लिए नियमबद्ध संगीत रचते हैं। यह जानते हुए भी कि ईश्वर सर्वव्यापी है, कण-कण में मौजूद है लोग उसे नए-नए रूप और आकार देते हैं, उसकी इबादत के अलग-अलग ढंग बनाते हैं और फिर उन्हीं कर्मकांडों में उलझ कर रह जाते हैं। पर जब भाषा की बात आती है तो हमें उसमें संस्कार और परिष्कार की इच्छा कम ही होती है।

भाषा विज्ञान जैसे विषय का विद्यार्थी होने के बावजूद मैं जीवन के संगीत का रस लेने वाला व्यक्ति हूँ लेकिन जब अपने आस-पास लोगों को भाषा का प्रयोग करते नहीं बल्कि चाहे-अनचाहे उसके अटपटे मानक गढ़ते हुए पाता हूँ तब कुछ कहने को लालायित हो उठता हूँ।

जब तक भाषाएँ रहेंगी लोग उनका प्रयोग अपनी योग्यता के अनुरूप करते रहेंगे। कुछ सही प्रयोग होंगे, कुछ ग़लत, तो कुछ असहनीय। भाषाओं के अध्येता हमेशा ही सही-ग़लत, प्रचलित और वरेण्य जैसी धारणाओं में उलझे रहते हैं और भविष्य में भी ऐसा ही करेंगे और उधर भाषा बोलने वालों का कारवाँ आगे बढ़ता रहेगा। तिस पर भी पिछले दस वर्षों में किसी न किसी अख़बार में भाषा के सवालों पर स्तंभ छपते रहे हैं। वागर्थ को भी इसी कड़ी का हिस्सा माना जा सकता है। आने वाले दिनों में भी लोग भाषा के सवालों और प्रयोगों पर लिखते रहेंगे।

संचार माध्यमों में काम करने वालों को अपने-अपने माध्यम में भाषा का प्रयोग करते समय अधिक सतर्क रहने की आवश्यकता है क्योंकि उनके भाषा प्रयोग लाखों-करोड़ों लोगों तक पहुँचते है और लोगों की भाषिक क्षमता पर सकारात्मक या नकारात्मक प्रभाव डालते हैं। हम यह कह सकते हैं कि जहाँ व्याकरणाचार्य और बड़ी-बड़ी पोथियाँ काम न आ पाएँ वहाँ संचार माध्यम ही किसी भाषा के विशाल व्याकरणों का काम कर सकते हैं। साथ ही इन संचार माध्यमों के संपादकों की भी यह ज़िम्मेदारी है कि वह भाषा के नित नए प्रयोगों को अपनाने या नकारने से पहले अच्छी तरह विचार करें।

मेरे लिए हर्ष की बात यह है कि भारत सरकार ने इंटरनेट पर हिन्दी और अन्य भाषाओं के प्रयोग को आसान बनाने के लिए अपनी वचनबद्धता दर्शाई है और तमिल और हिन्दी के मुफ्त फ़ोंट जन साधारण को मुहैया कराए हैं। आने वाले दिनों में भारतीय भाषाओं को अपने प्रसार के लिए जहाँ एक ओर सूचना प्रौद्योगिकी का सहारा मिलेगा वहीं भाषाओं के मानक के प्रयास भी तेज़ होंगे। जब भाषाएँ वापरी जाएँगी तब उनमें क्लिष्ट से क्लिष्ट विचारों को भी संप्रेषणीय बनाने के लिए उन्हें सरल बनाना होगा। भले ही साहित्य, विज्ञान और समाज विज्ञान के अमूर्त विचार भाषा की सर्जनात्मक शक्ति का भरपूर उपयोग करते रहें लेकिन संचार माध्यमों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुँचने के लिए भाषा को सरल और शुद्ध लिखने की चुनौती का सामना करना पड़ेगा।

सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय ने कंप्यूटर में हिन्दी में काम कर पाने के लिए जो युक्तियाँ (औज़ार नहीं) जनता जनार्दन के लिए निशुल्क जारी कीं उनका मुआइना करने पर हिन्दी के अनेक अजीब प्रयोग दिखाई दिए। टूल बार के लिए 'औजार पट्टी', केरेक्टर के लिए 'विशेष अक्षर' और प्रिव्यू के लिए 'पृष्ठ पूर्वदृश्य' आदि बहुत सटीक तो नहीं फिर भी चल सकते हैं लेकिन 'अक्षरें', 'परिवर्तनें', 'पसंदें', 'सुझावें' और 'विकल्पें' जैसे प्रयोग तो निश्चय ही आने वाले दिनों में हिन्दी के भविष्य की गाथा कह रहे हैं। फ़ुल स्क्रीन के लिए 'संपूर्ण पर्दा', इंपोर्ट के लिए 'निर्यात', हेडर के लिए 'पृष्ठ के ऊपर की टीका' और फ़ुटर के लिए 'पृष्ठ के नीचे की टीका' जैसे अद्भुत प्रयोग इसमें हैं। वाक्यों के स्तर पर 'कनेक्शन टूट गया है, होस्ट से कनेक्टेड नहीं कर पाया' या 'आपके इंटरनेट कनेक्शन की गली चुनिए' मज़ेदार ही नहीं भ्रष्ट प्रयोग भी हैं। ऐसे प्रयोग भाषा के वाद्यवृंद में बेसुरे बाजों से प्रतीत होते हैं और इन्हें दुरुस्त करना किसी की भी प्राथमिकता होनी चाहिए।


(2006)