भास्कराचार्य द्वितीय / कविता भट्ट

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भास्कराचार्य द्वितीय

धर्मशील और विद्वान व्यक्ति के पुत्र के रूप में एक प्रतिभासंपन्न और सम्माननीय परिवार में भास्कराचार्य द्वितीय का जन्म सन् 1114 में हुआ था। भास्कर द्वितीय या पंडित भास्कर 12वीं सदी के श्रेष्ठ भारतीय खगोलविद् और गणितज्ञ थे। इन्होंने दशमलव संख्या प्रणाली के पूर्ण और पद्धतिबद्ध उपयोग के साथ प्रथम रचना लिखी।

भास्कर को कलन (कैलकुलस) की अवधारणओं की भी जानकारी थी। एक गोल क्षेत्र का आयतन ज्ञात करने के लिए अपने गणितीय हल में उन्होंने समाकलन समतुल्य विधि का उपयोग किया है। उसी तरह, तात्कालिक गति ज्ञात करने के लिए वह अवकलन की समतुल्य विधियों की व्याख्या करते हैं। भास्कराचार्य द्वितीय प्राचीन और मध्यकालीन भारत में खगोलीय और गणितीय अध्ययनों में परमोत्कर्ष का प्रतिनिधित्व करते हैं।

सन् 1150 ई. में 36 वर्ष की आयु में भास्कर ने संस्कृत में अपनी प्रख्यात गणितीय-खगोलीय रचना सिद्धांत शिरोमणि लिखी। उनका शोध ग्रन्थ चार भागों में है, लीलावती, बीजगणित, ग्रहगणित और गोलाध्याय। लीलावती अंकगणित, प्राथमिक बीजगणित और रेखागणित से संबंध रखती है। बीजगणित उच्च बीजगणित पर एक शोध प्रबंध है। ग्रहगणित खगोल विज्ञान और गोलाध्याय गोलीय त्रिकोणमिति के अध्ययन को समर्पित है।

लीलावती के मूल पाठ को लिखने के लिए भास्कर ने काव्यमय कल्पना और विलक्षण भाषायी दक्षता और गणितीय प्रवीणता का समन्वय किया। वे गणितीय उदाहरणों और निर्मेय को स्पष्ट करने के लिए महाकाव्यों से पक्षियों, प्राणियों और रोचक उपाख्यानों का प्रयोग करते हैं। अपने अंकगणितीय और बीजगणितीय पाठों में भास्कर ने शून्य संक्रियाओं पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला है। उन्होंने यथातथ्य यह भी अंकित किया कि एक परिमित संख्या का शून्य से भाग असीमितता (असीमित संख्या) के बराबर होगा। भास्कर ने बीजगणित के अपरिचित परिमाणों को निर्दिष्ट करने के लिए चिह्न-प्रथा (धन, ऋण) और वर्णों के उपयोग को पूर्वानुमानित किया। उन्होंने आवर्ती (साइक्लिक) विधि का आविष्कार किया। यह विधि स्वीडन के अप्पसाला विश्वविद्यालय के इलास-ओलोफ़ सेलेनियस द्वारा परीक्षित की गई, जिन्होंने माना कि ‘आवर्ती विधि’ भारतीय गणित की पराकाष्ठा है। मेरे विचार में न तो भास्कर के समय में और न ही बहुत बाद में, कोई भी यूरोपीय अनुपालन गणितीय जटिलता की इस अद्भुत ऊँचाई तक पहुँचा।’

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