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Gadya Kosh से
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(प्रस्तुत कहानी की मौलिकता का दावा नहीं कर सकता हूँ। कहानी दादा जी के खजाने से निकली है। उस खजाने जिसमें परियों, जिन्नों, भूतों, शापित राजकुमारी को मुक्त कराने वाले राजकुमार, सिंहासन बत्तीसी, बैताल पचीसी, अलिफ लैला, पुराण, महाभारत जैसे अनेक आख्यान होते। उनकी यादो में बसे यथार्थ के साथ निस्सीम कल्पना के संसार से रोज़ नई कहानियाँ निकलतीं। काकभुषुण्डि की तरह मैं उनका श्रोता। यदि आज वे होते जादुई यथार्थ मैं उनसे समझता। उन्हे सभी दादा जी कहते लेकिन वे मेरे असली दादा जी नहीं थे। असली-नकली समझने की तब न उम्र थी, न परिवेश। हवेली जैसे भुतहे मकान के भूतल में उनका बडा़ परिवार। पत्नी बहुत पहले गुजर चुकी थीं। ऊपरी हिस्से में हम - पिता, चाचा, ताऊ, दादी, बुआ, चचेरी-फुफेरी बहने, अक्सर बने रहने वाले मेहमान। बहुत दिन बाद मालूम हुआ था वे, मेरे जन्म के बहुत पहले, हमारे यहाँ किराएदार के रूप में आए थे। उनके आने का वक़्त लगभग वही रहा होगा, जब मेरे असली वाले दादा जी का परिवार उनके आकस्मिक निधन के बाद इस मकान में रहने आया था। दादी बतातीं - भगत सिंह की फांसी के शोक से उबर भी नहीं सके थे, यह हादशा गुजरा था। रिश्तेदारों को लगता सरकारी बंगले को छोड़ कर आने की तकलीफ है। शुरुआत के दिनों में हो सकता है ऐसा रहा भी हो, लेकिन बाद में आदत बन गर्इ थी। पिता भी तब छोटे रहे होंगे। इसी घर में उनका विवाह हुआ, बड़ी बहनों, मेरा जन्म भी। मुझे मकान के अंधेरे कोने, तहखाने, कुआं अपनी ओर खींचते। यद्यपि मुझे कुएँ के पास जाने की इजाज़त नहीं थी। तहखानों में उतरने की सीढ़ियों के दरवाजे हमेशा बंद रहते। मालूम नहीं कि मकान के तिलिस्म ने दादा जी की कहानियों में दिलचस्पी पैदा की थी या मकान के आकर्षण के पीछे यह कहानियाँ थीं। मैं जब दादाजी के पास न होता, उनकी लड़कियों, जो मुझसे काफ़ी बड़ी थीं, के साथ लुका-छिपी खेलता। मकान के ऐसे अंधेरे कोने में छिपता जहाँ ढूढ़ना उनके लिए आसान न होता।

उनके बेटे सुबह से अपने रोजी-रोजगार के सिलसिले में निकल जाते। सबकी अपनी-अपनी व्यस्तताएँ थीं। खाली थे केवल दादा जी और मैं। अब सोचता हूँ वे, जब वे कहानियाँ न सुनाते अक्सर बीते हुए समय में रहते या वक़्त ही उनका पीछा नहीं छोड़ रहा था। शायद विस्मृतियों के खिलाफ उनकी स्मृतियों का लगातार निरन्तर चलने वाला संघर्ष था। परिवार में कोर्इ मेरा हमउम्र नहीं था। मुझे स्कूल बहुत बाद में भेजा गया था। मैं दिन भर शाम की प्रतीक्षा में रहता। जब दादा जी मुझे लेकर ठंडी सड़क से होते हुए कंपनी बाग़ जाते। रास्ते में मूंगफलियाँ या अमरूद खरीदते। ठंडी सड़क के दोनों ओर घने छायादार पेड़ थे। उन्होने बताया था कि बहुत पहले इस सड़क पर हिंदुस्तानियों को चलने की इजाज़त नहीं थी। मेरी समझ में न आता, पूछना चाहता लेकिन देखता वे कहीं खोए हुए हैं। कंपनी बाग़ के अंदर प्रवेश करते ही वे गहरी-गहरी सांसे भरते। अब महसूस होता है वे पूरी हवा, हरियाली, वातावरण सबकुछ अपने अंदर पी लेना चाहते थे। उन दिनों बाग़ के केन्द्र में ऊँचे प्लेटफॉर्म पर एक विशाल मूर्ति होती थी। उन्होने उसका नाम बताया था -रानी विक्टोरिया! वे यहाँ आते ही बदल जाते, बिल्कुल अपरिचित लगते। आंखों में गहरी उदासी, होंठों पर गुनगुनाहट, तब मैं नहीं समझ सका था, ‘हैफ हम जिसपे तैयार थे मर जाने को/ जीते जी हमने छुड़ाया उसी कशाने को!’ मैं उनके पीछे मुग्ध बढ़ता जाता। बहुत अंदर एक विशाल बरगद के पेड़ की तरफ़ जिसकी अनेक शाखाएँ-प्रशाखाएँ नीचे ज़मीन में उतर, जड़ बन कर, फिर नए पेड़ की शक्ल अख्तियार कर चुकी थीं। उनकी गुनगुनाहट स्पष्ट होती जाती, ‘फिर न गुलशन में हमें लाएगा सैयाद कभी/ याद आयेगा किसे ये दिल-ए-नाशाद कभी!’ वे किसी अनजान लोक की यात्रा पर होते। देर बाद वे अपने में लौटते। पेड़ का इतिहास किस्तों में इतनी बार बताया था कि मुझे रट गया था- मैं बरगद की टहनियों, पत्तों के बीच अंग्रेजों द्वारा 1857 में पेड़ पर फांसी दिए लोगों के अदृश्य चेहरों को पहचानने की कोशिश करता। बहुत बाद मैं उनकी बातों का मतलब और बिस्मिल की पंक्तियों को समझ सका था। खैर अब मैं विदा लेता हूँ। आगे है दादाजी की सुनार्इ कहानी। मालूम नहीं उनकी कल्पना या यादों की गठरी से निकली स्मृति! इसका अंदाज़ मैं कभी नहीं लगा सका। बहुत मुमकिन है उनके शब्द बदल गए होंगे, प्रविधि और शिल्प भी। लेकिन हलफ उठा सकता हूँ कि कथ्य उन्ही का है। इस लिए यह कहना लाजिमी है कि इसके पात्र-घटनाएँ सभी काल्पनिक हैं। किसी से मिलती छवि मात्र संयोग मात्र होगा)

‘वक़्त अपनी दुकान सजाए बैठा है’

क्लीनिक मुख्य सड़क पर थी। समय ने कितनी करवटें लीं लेकिन उसमें किसी तरह की तब्दीली लोगों ने नहीं देखी थी। दवाखाने के ऊपरी हिस्से में डॉक्टर परिवार का आवास था। नीचे बड़े से फाटक के बगल में दीवार पर जड़े पत्थर पर उसके दिवंगत बाबा और पिता का नाम डॉ0 विश्वंभरनाथ, डॉ0 राजनाथ, अंग्रेज़ी और उर्दू, में अंकित था। पत्थर मकान बनवाते समय लगा होगा। बगल में टंगी एक काली तख्ती पर डॉ देवनाथ, उसका नाम, उतना भव्य न लगता। युवा-सुदर्शन देव, चिकित्सक परिवार की तीसरी पीढ़ी में थे। कलकत्ता (कोलकाता) मेडिकल कॉलेज से पहले बैच के एम0बी0बी0एस0 करने वाले गिने-चुने डॉक्टरों में एक। पिता और दादा मेडिकल कॉलेज ऑफ बंगाल से एल0एम0पी0 थे, देश में उस वक़्त मिलने वाली एक मात्र मेडिकल डिग्री। उनका स्थानीय प्रशासन में सम्मान था। सिविल सर्जन बिल ब्रेंट जटिल मामलों में ज़रूरत पड़ने पर डॉ0 राजनाथ की सलाह लेता था। पिता के सक्रिय रहने तक मरीज देव को ज़्यादा तवज्जो न देते। वह पिता के आने के पहले दवाखाने में बैठता। लेकिन मरीज डॉ0 राजनाथ का इन्तजार कर लेते। उन दिनो विशेषज्ञ कम होते। सर्जरी के सामान्य केस एम0बी0बी0एस0 ही करते। टी0बी0 की अंतिम स्टेज पर फेफड़ों से पानी निकालने के लिए न्यूमोथोरेक्स प्लॉम्बेज सर्जरी होती। देव इस प्रविधि में दक्ष हो गया था, लोकप्रिय भी।

क्लिनिक के अगल, बगल और सामने तीन तरफ़ सड़कें थीं। बड़े गेट के बाद सहन, एक ओर ऊपर जाती सीढ़ियाँ, दूसरी ओर गैरेज। गैरेज में सफेद रंग की मॉरिस ऑक्सफोर्ड खड़ी रहती। सप्ताहाँत की शाम, क्लिनिक बंद होती यदि कोई गंभीर मरीज न होता, डॉक्टर लंबी ड्राइव पर निकल जाता। तीन सीढ़ियाँ चढ़ कर बड़ा हाल। हाल में घुसते ही बाई ओर कमरा था जिसकी खिड़की से उसका कंम्पाउंडर नुसखे में लिखी दवाएँ, मिक्सचर, गोलियाँ आदि मरीजों को देता। हाल के पिछले सिरे पर ऊँचे से डायस पर डॉक्टर की बड़ी-सी मेज, जांच के उपकरण, कुछ मोटी किताबें, दवाइयाँ रहतीं। उसके सामने पीछे तक मरीजों के लिए बेंचों की कतारें थीं। मरीज क्रम से बैठते, अपनी बारी आने तक इंतज़ार करते। गंभीर हालत वाले मरीजों को डॉक्टर पहले बुला लेता। हाल की पिछली दीवार में, डॉक्टर की कुर्सी के पीछे, अंदर की ओर जाने का दरवाज़ा हमेशा खुला रहता। वहाँ बरामदे के बाद आंगन, पीने के लिए पानी की व्यवस्था, शौचालय, आपात्कालीन ऑपेरशन कक्ष, दूर गॉवों, छोटे शहरों से आए गंभीर मरीजों के लिए, जो उस दिन वापस न जा सकते, ठहरने-रुकने के लिए कमरे, ऊपर आवास तक जाने के लिए सीढ़ियाँ थीं। गैरेज के बगल की गैलरी से भी आंगन में जाने का रास्ता था। क्लिनिक बंद होने पर भर्ती मरीज के परिजन वहीं से बाहर आते जाते।

ऊँची छत वाले हाल का दृश्य कुछ-कुछ फ़िल्मों में दिखाए जाने वाले अदालत की तरह लगता। डॉक्टर की कुर्सी से बाहर सामने सड़क पर बहुत दूर तक दिखता। डॉक्टर के हाथों में मरीज की नब्ज होती। वह लंबी-पतली उंगलियों से मरीज के अंदर और झील-सी गहरी-नीली आंखें क्लिनिक से बाहर दूर देख रही होतीं। मरीजों को देखते अचानक कुछ सोचने लगता, शून्य में देखते हुए। पैदल, इक्कों-तांगों पर आते-जाते लोग। वह उन चेहरों पर अदृश्य लिपि में लिखी इबारत पढ़ने में काफ़ी हद तक सफल रहता। प्रैक्टिस की शुरुआत के दिनों में शहर में चलने वाली ट्राम कब की बंद हो चुकी थी। उन दिनों ट़्राम से उतरने वाली भीड़ में अधिकांश पर्व-स्नान करने वाले, परिवार में दिवंगत किसी बुज़ुर्ग की अस्थियाँ पवित्र नदी में प्रवाहित करने, नौकरी की तलाश में आए बेरोजगार अथवा बीमारी की अंतिम अवस्था में ठीक हो जाने की उम्मीद लिए चेहरों पर टिमटिमाती रोशनी लिए चेहरे। कुछ लोग जेल में सजा काट रहे परिजनो से मिलार्इ करने के लिए भी आते। ट्राम का आखिरी पड़ाव स्टेशन से चल कर वहीं तक था। वह अक्सर उनके आने का मकसद जान लेता।

लेकिन पुराने आने वाले मरीज उसकी आदत से वाक़िफ़ थे। उन्हे चिंता न होती। डॉक्टर पर पूरा भरोसा था उनको। अगले क्षण डॉक्टर के चेहरे की सदाबहार मुस्कराहट लौट आती, उन्हे मोह लेती। मरीज ही नहीं, उसके परिजनो-तीमारदारों को आश्चर्य होता कि वह आले (स्टेथेस्कोप) से दिल की धड़कने सुनता ही नहीं अंदर गहरे तक देख लेता है। वे सोचते - डॉक्टर है या जादूगर! जाने कैसे जान लेता है कि मरीज के इलाज़ के लिए उन्होने गाँव में बीवी के जेवर, खेत गिरवी रख या साहूकार से कर्ज़ लेकर पैसे जुटाए हैं? वह फीस ही नहीं छोड़ देता, दवाखाने से दी जाने वाली दवाओं के बहुत कम दाम या यूंही दे देता। मरीज को यक़ीन न आता। उनके दुबारा इसरार करने पर वह मुस्कराता, ‘ठीक होने पर फिर कभी, फ़सल के बाद दे जाना। यह पैसा साहूकार को वापस कर बीवी की चूड़ियाँ छुड़ा लेना!’ शहर के दूसरे डॉक्टर उसे बेवकूफ या पागल कहते, बतकही करते, ‘बाप-दादा की संपत्ति ही नहीं, नाम भी डुबा रहा है!’

दरअसल दादा विश्वंभर दयाल जी के समय से ही शासक वर्ग में उसके परिवार की आदमरफ्त थी। सरकारी कार्यक्रमों में उन्हे विषेश अतिथि की हैसियत से आमंत्रित किया जाता। उनके द्वारा दी जाने वाली पार्टियों में आंग्ल अधिकारी शामिल होते। पिता के रहने तक यह सिलसिला जारी रहा। देव न तो क्लब जाता, न किसी पार्टी में। सार्वजनिक कार्यक्रमों में भी कम ही दिखता। मेडिकल एसोसिएशन की मीटिंग्स में उपस्थिति रहती, बस पर्चा पढ़ने या मतदान तक। शासक वर्ग में उसकी गतिविधियाँ शक के घेरे में थीं लेकिन उसके विरुद्ध कोई प्रमाण नहीं था। दादा-पिता के अंग्रेजों से पूर्व सम्बंध भी मददगार थे। सुराजियों-सत्याग्रहियों से तो सम्बंध खुलेआम थे। सुनने में आता कि विप्लवियों की वह मदद करता है। अफवाहें उड़तीं कि पुलिस मुठभेड़ में घायल क्रांतिकारी इलाज़ के लिए उसके पास आते हैं, रात में वह क्लीनिक के पीछे के आपरेशन कक्ष में उनके शरीर में लगी गोली निकालता, मरहम पट्टी करता, आर्थिक मदद भी करता है। अफवाहें उसके दिलफेंक होने की भी कम नहीं थीं। सप्ताहाँत में लॉंग ड्राइव में उसकी बगल की सीट पर किसी ब्रिटिश महिला के होने के कई प्रत्यक्षदर्शी गवाह थे, जिन्होने स्वयं तो नहीं देखा था, परन्तु इस तथ्य पर उन्हे पूरा यक़ीन था। इस शक को पुख्ता करने में डॉक्टर के पास आने वाले मरीजों में जवान खातूनों की अच्छी-खासी संख्या का कम हाथ नहीं था। युद्ध के दौरान शहर के सेठों-व्यापारियों ने अच्छा-खासा पैसा कमाया था। बढ़ी थीं उनकी मसरूफियत और पत्नियों की बीमारियाँ। डॉक्टर के आस-पास सुन्दरियों का जमघट रहता। वे ठीक ही न होना चाहतीं। लेकिन आम मरीज को इस सबसे मतलब नहीं था। वे तो उसकी दयानतदारी, अहेतुक मदद, सहृदयता और चमत्कारी षिफाए काबलियत पर फिदा थे।

‘हर नए मोड़ पर कुछ लोग बिछड़ जाते हैं’

डॉक्टर को ख़ुद आश्वर्य होता - कैसे होता है यह? उसके अंदर, कहीं बहुत अंदर यकायक एक कौंध उठती, घटित होने वाला झलक जाता। उसके ज्ञान, अनुभव के अनुसार बीमारी की अंतिम स्टेज होती। लेकिन मरीज धीरे धीरे चंगा हो जाता या मामूली-सी तकलीफ में अचानक ऊपर चल देता। उसे बरसों पहले का वह चेहरा नहीं भूलता। उस दिन वह रहस्यमय दिखता युवा इलाज़ के लिए उसके पास आया था। आया क्या उसके साथ की घूंघट वाली स्त्री उसे जबर्दस्ती लायी थी। तेज बुखार, खांसी, बदन में दर्द, सर्दी से कांपता। देव ने उसे दवा दी। उसने उसे पीछे कमरे में रुकने, आराम की सलाह दी थी। वह बार-बार किसी ज़रूरी काम के लिए जाने की बात कर रहा था। वे दोनों चले गए थे। उसके अंदर अचानक कौंधा था - उसे नहीं जाने देना चाहिए था। उसी शाम अपुष्ट और अगले दिन अखबारों में पूरी ख़बर थी- ‘शहर के प्रसिद्ध ज्वैलर्स, बैंकर्स बांकेलाल एँड सन्स की दुकान पर सरकारी खजाने से लूटे गए सोने के सिक्के, आभूषण बेचने आए एक क्रांतिकारी को पुलिस ने मुठभेड़ में मार गिराया था। वह माल बेच कर भुगतान लेकर दुकान से निकला ही था। मुखबिर से मिली ख़बर पर पुलिस ने उन्हे घेरा था, समर्पण के लिए चेतावनी दी थी। लेकिन उसने देर तक मुकाबला किया था। उसके साथ की युवती मौका पाकर निकल गयी थी।’

कई दिनों तक शहर में चर्चाओं का बाज़ार गर्म रहा था - सेठ ने ही पुलिस को ख़बर की थी। वह तो हमेशा से चोरी-डकैती का माल खरीदता रहा है। पुलिस की जानकारी में, उनके हिस्से के साथ। विप्लवी भी आते रहे हैं। इस बार उस पर पुलिस का दबाव था। उसके सिर पर ईनाम घोषित था। उसकी लाश के पास से खजाने का सोना या रुपए कुछ भी बरामद नहीं हुआ था। शक किया जा रहा था कि वह झोला युवती ले गई। सेठ जी को सरकार की तरफ़ से पुरस्कार-सम्मानित किया गया था। संयुक्त प्रांत के गवर्नर से प्राप्त प्रमाणपत्र बड़े फ्रेम में मढ़ा उनकी दुकान की शोभा बढ़ा़ता रहा था। शहर के लोगों ने देखा था कि डॉक्टर के चेहरे पर हमेशा रहने वाली मुस्कान अचानक गायब हो गई थी। शून्य में देर तक देखने, सोचते रहने की अवधि बेमियाद हो गई थी। मरीज देर तक इंतज़ार में रहता फिर धीरे से संकोच के साथ टोकता - ‘डॉक्टर साहब - -!’ डॉक्टर जाने किस लोक की यात्रा से वापस क्लिनिक में आ जाता।

‘एक-एक कत़रे का मुझे देना पड़ा हिसाब’

जमाना बीत गया उन बातों को। अंग्रेज मुल्क को आज़ादी बख्श गए थे। दो-तीन बरसों में ही बहुत कुछ बदल गया था, बाहर और अंदर दोनों जगह। शहर में स्वराज्य आश्रमों की संख्या बढ़ गई थी। अंग्रेज़ी राज्य के समय विदेशी कपड़े के बहिष्कार के दौरान खादी के कपड़ों की जितनी मांग थी उससे कई गुना ज़्यादा अब थी। दुकानो-सार्वजनिक स्थलों ही नहीं घरों के बाहर झंडे, तस्वीरे साज-सज्जा रातोरात बदल गई थी। बरसों से रह रहे, दिखाई देती शक्लें अचानक कहीं गुम हो गई थीं। उनमें कितने तो टी0बी0 के मरीज थे। स्ट्रेप्टोमाईसिन आ चुकी थी। डॉक्टर को चिंता थी, यदि उन्होने दवा का कोर्स पूरा नहीं किया तो बीमारी और घातक हो जाएगी। मरीज का बचना मुश्किल होगा। हर सड़क, गली में नए चेहरे दिखाई देते - बेसहारे भटकते, चेहरे पर वीरानगी, नरक की यातना के चिह्न स्थायी रूप से जम गए थे। जो जाने-पहचाने चेहरे दिखाई देते उनके चेहरों पर टूटे हुए सपनो और उम्मीदों के खंडहरों की झुर्रियाँ थीं।

बांकेलाल ज्वैलर्स के मालिक सेठ सोहनलाल ने पचपन साल की उम्र में तीसरी शादी की थी। लड़की उससे बहुत छोटी सुनी जाती थी। वंश कैसे चलता! विवाह उसके लिए भाग्यशाली सिद्ध हुआ। विवाह के बाद उन्हे एक प्रमुख पार्टी की नगर कमेटी की कार्यकारिणी का मानद सदस्य नामित किया गया था। डॉक्टर इस सब से अलग होते हुए भी असम्प्रक्त नहीं रह पा रहा था। वह भी युवा से प्रौढ़ता की तरफ़ बढ़ रहा था। कनपटी के बालों पर हल्की सफेदी झलकने की शुरुआत हो गई थी। चेहरे की मुस्कान लौट आर्इ थी, एक स्थायी गंभीरता के अंदर से झांकती। लेकिन उसे पुराने जानने वाले जानते थे कि यह मुस्कान कितनी नकली है या त्रासद।

उस दिन दवाखाने में मरीज कम थे। वह मरीज की जांच के साथ बीच बीच में बाहर निहार लेता, पुरानी आदत थी। पैदलों के साथ सवारियाँ और उनकी किस्में भी बढ़ गई थीं। ट्राम बंद हुए तो ज़माना हुआ। बग्घियाँ भी बहुत कम रह गई थीं। मोटर कारें पहले से ज़्यादा थीं। सायकिल रिक्शा बढ़ गए थे। उसने देखा, एक इक्का, जिसके चारो ओर चादर का घेरा था, उसकी क्लिनिक के बाहर रुका था। अभिजात-पर्दानशीं स्त्रियों की सामान्य परंपरा अभी बची रह गई थी। इक्केवान ने पर्दा हटाया था। एक सभ्रांत महिला दवाखाने के अंदर आकर पीछे की बेंच पर किनारे बैठ गई थी। डॉक्टर ने नज़रे उठाई - ग़ौर वर्ण, सुन्दर, बड़ी आंखें। उसने खादी की सूती साडी़ पर काली चादर ओढ़ रखी थी। माथे पर आंखों तक खींचा हुआ पल्ला। उस समय की महिलाओं की पारंपरिक वेष-भूषा। अकेले आने वाली महिलाएँ ऐसे वक़्त बिना पारी डॉक्टर को दिखा लेतीं। दूसरे मरीजों को यह अस्वाभाविक न लगता। हालांकि ऐसे अवसर कम आते। लेकिन उस महिला ने ऐसी कोई जल्दी नहीं दिखाई। मरीज कम थे। मरीजो के जाने, अकेले होने पर वह डॉक्टर के पास आयी थी। उसकी बड़ी, काली आंखों में रहस्यमय गहराई थी। डॉक्टर को उस अतल गहराई तक उतरने में दुविधा हुई। उसके बोलने पर डॉक्टर को आवाज-टोन सुनी हुई लगी, लेकिन कब, कहाँ? उसे याद नहीं आया। उसने बहुत आहिस्ता से फुसफुसाते हुए कहा था - ‘‘मैने आपका बहुत नाम सुन रखा है। मैं ‘बांकेलाल ज्वैलर्स’ के मालिक, वह नाम लेते हुए झिझकी, सेठ सोहनलाल जी की पत्नी हूँ। कब से आपसे मिलना चाहती थी, अपने सम्बंध में। शादी हुए पांच बरस होने को आ रहे हैं। सेठ जी के कोई वारिस नहीं है। मैं उनकी तीसरी पत्नी हूँ। उनको मुझसे पूरी उम्मीद थी। लेकिन इस वक़्त मैं सेठ जी की बीमारी के कारण आपके पास आई हूँ। कुछ दिनों से उनको अजीब-सी बीमारी हो गई है, पिछले कई महीनों से। हो सकता है कि उनका निस्संतान होना या कुछ और कारण हो। वे दुकान से लौटने के बाद, सुबह दुकान जाने-तैयार होने के दौरान, अक्सर रात में भी सोते समय या अचानक जग कर बुदबुदाते रहते हैं, -’भाई पहले बिल का भुगतान करो, पिछला भी कितने दिनों से बकाया है! दुकान पहले से ही घाटे में चल रही है।’ अब तो हालत यह हो गई है कि घर के नौकरों, आने वाले मेहमानों से पहले बिल के भुगतान करने को कहते हैं। एक दिन तो मुझे सोते से जगा कर कहने लगे - तुम्हारा बिल जाने कब से बकाया है, अभी तक भुगतान नहीं किया है।’ मैने दुकान के मुनीम और दूसरे नौकरों से पूछा है। उनका कहना है - ‘दुकान में घाटे ऐसा कुछ नहीं है। उधारी तो थोड़ा-बहुत हमेशा चलती ही रहती है।’ मैं पढ़ी-लिखी हूँ, एफ0ए0 विवाह के पहले ही पास कर लिया था। मेरे पिता सेठ जी के पुराने मुनीम थे। मैने कुछ बहीखाते ख़ुद देखे हैं, ऐसा कुछ भी नहीं जिससे वे चिंतित हैं। अब तो घर में आने से लोग कतराने लगे हैं। बदनामी हो रही है, उसने साड़ी के पल्ले से आंखे पोंछी थीं, ‘‘अगर उन्हे या उनके दिमाग़ को कुछ हो गया तो मेरा कोई ठिकाना नहीं है। पिता के बाद अब तो मॉ भी नहीं रहीं। रिश्तेदार तो इसी दिन का रास्ता देख रहे हैं। हो सकता है सेठ जी को किसी ने कुछ करवा दिया हो या कोर्इ ऊपरी बाधा। मैं इस पर विश्वास नहीं करती, फिर भी ऐसी जगह जाने को तैयार हूँ। लेकिन वे ऐसी किसी जगह या डॉक्टर के पास जाने को तैयार ही नहीं होते।’’ उसने सिसकियों को छिपाने के लिए चेहरा चादर के अंदर छिपा लिया था।

‘उम्र बढ़ने के साथ ऐसा होना नामुमकिन नहीं है। परंतु इलाज़ के लिए मरीज का सहयोग और डॉक्टर पर विश्वास ज़रूरी है। आपको किसी न किसी बहाने उन्हे लाना होगा। झाड़-फूंक ऐसे केसों को और बिगाड़ देती है। यह सब अंधविश्वास हैं। आप पढ़ी लिखीं हैं। मस्तिष्क में डोपामिन ऐसे कुछ रसायन - हारमोन्स पैदा हो जाते हैं। दवा से ज़्यादा परिवार-मित्रों के सहयोग से लाभ होता है।’


‘करवटें लेती है तारीख - -‘

सेठ सोहनलाल दोपहर के भोजन के लिए घर जाते। पहले, दूसरी पत्नी के निधन के बाद, महराज खाना नौकर से दुकान पर ही भिजवा देता था। लेकिन शादी के बाद यह क्रम बदल गया था। वंश वृद्धि के लिए विवाह तो करना ही था। दो औरतें तो उन्हे औलाद का सुख दिए बिना इस दुनिया को छोड़ गई। लोग पीठ पीछे भले ताना दें, विवाह करना उनकी मजबूरी थी। अब पचास-पचपन की उम्र में लोग शादी न करते हों ऐसा भी नहीं। दुकान-व्यवसाय के बाद घर में समय कटना तो मुश्किल था ही। उनके बाद इस अथाह संपत्ति का वारिस कौन होगा? रिश्तेदार तो चाहते थे वे उनके किसी बेटे को गोद ले लें। उनके सजातीय एक पुराने मुनीम की एक मात्र बेटी थी, अतीव सुन्दर। मुनीम की मृत्यु के बाद उसका उद्धार करना उनको धर्म संगत लगा। उम्र में अंतर ज़रूर ज़्यादा रहा होगा। पत्नी धर्मनिष्ठ थी। उसका तो जीवन ही बदल गया था। विवाह के तीन साल बीत गए थे। सेठ जी ने संतान की आस नहीं छोड़ी थी। तमाम आयुर्वैदिक-हकीमी कुश्ते-बाजीकरण की औषधियाँ लगातार लेते। अंग्रेज़ी ढंग की डाक्टरी पर उनको ज़्यादा भरोसा न था। उस दिन वह उठने को थे। ड्राइवर को बोल दिया था। तभी उन्होने ‘बांकेलाल ज्वैलर्स एँड बैंकर्स’ के विशाल द्वार से उस सभ्रांत महिला को अंदर प्रवेश करते देखा था। ग़ौर वर्ण, सुन्दर देह यष्टि, मझोला कद, आधुनिक, कीमती सिल्क की साड़ी, चेहरे पर अभिजात्य का आत्मविश्वास। वे रुक गए। दोपहर में इस वक़्त ग्राहक कम होते। पुराने विश्वस्त कर्मचारी, मुनीम सब देख लेते। परंतु वे ग्राहक का स्तर चेहरा देख पहचान लेते, पुराना अनुभव था। वे मुख्य काउण्टर पर स्वागत मुद्रा में मौजूद हो चुके थे। महिला शालीनता से उनसे मुख़ातिब हुई, ‘मैं डॉ0 देव के घर से हूँ, उनकी पत्नी। बेटे की पढ़ाई पूरी हो चुकी है। एक अच्छा रिश्ता आया है। विवाह करीब करीब तय हो चुका है। होने वाली बहू के लिए अच्छे आभूषण चाहिए। आप तो जानते होंगे, डॉक्टर साहब कितने व्यस्त रहते हैं। मैं बाहर कम ही निकलती हूँ। लेकिन किसी को तो देखना होगा।’ वह धीरे से हंसी। उसके स्वर में शिकायत के भाव से सेठ जी निहाल हो गए - होंगे कितने काबिल, बड़े नामी डॉक्टर! उन्हे महिला का चेहरा देखा हुआ-सा लगा था। याद नहीं आ रहा था-कहाँ? शायद मेम साहब को डॉक्टर के साथ ही कहीं देखा होगा। अभी थोड़ी देर पहले उन्होने सफेद मॉरिस ऑक्सफोर्ड दुकान के सामने से जाती देखी थी। हालांकि अब शहर में इस तरह की कई गाड़ियाँ हो गई थीं। सोहनलाल का कहाँ आना-जाना कम ही होता। दुकान का झमेला। पिता बांकेलालाल की छोटी-सी दुकान उन्होने इतने बड़े प्रतिष्ठान के रूप में खड़ी की थी। लोग उनको पूरे दिन गद्दी पर बैठे देखते। दुकान के नौकर पुराने थे। परंतु उनकी निगाह सब तरफ़ रहती। पूरे शहर की छोटी से छोटी ख़बर उनके पास पहुँच जातीं। यही कारण था कि वह, अंग्रेज़ी राज्य रहा हो या अब इन सफेद टोपी वालों का, हमेशा ख़ास बने रहे। वार-फंड या पार्टी को चंदा देने वाले तो बहुत हैं। लेकिन इतने भर से कुछ नहीं होता। उन्होने सुन रखा था कि डॉक्टर साहब का एकलौता बेटा लखनऊ में डाक्टरी का पढ़ाई कर रहा है।

काउण्टर के पीछे अपनी गद्दी पर उन्होने पहले मेवे की प्लेटें, मिठाई, नमकीन पेश कीं फिर पूरी पूरी दुकान सजवा दी। सेठ सोने-जवाहरात के ही नहीं आदमी के पारखी भी थे। पसंद किए गए जेवरों की न केवल क़ीमत ऊँची, आधुनिक, नए फैशन के थे। उन्होने मन ही मन पसंद की तारीफ की- पढ़े लिखे होने की बात ही अलग होती है। जेवरों के अंतिम चयन के बाद, आख़िर में व्यापार पटु सोहनलाल ने तिजोड़ी से पन्ना-हीरे जड़ा कीमती हार निकाला था - ‘यह चीज आप मेरी राय से बहू के लिए ज़रूर रखिए, कल ही बंबई से आया है। रोज़ी कसम, इसे मैं लागत भर में आप के लिए दे दूंगा। केवल दस हज़ार मे।’ सोहनलाल ने वह सेट मंगवा तो लिया था लेकिन उन्हे संदेह था कि यहाँ इसका खरीददार मिलेगा। पैसे वाले तो शहर में बहुत हैं लेकिन वे कलकत्ता-बंबर्इ से सीधे माल मंगवाते। यदि यह मंहगा सेट निकल जाता है तो इस राशि से ऐसे ज़ेवर स्टाक किए जा सकते हैं जो मध्यवर्गीय परिवारों में खप सकते थे। महिला मुस्कराई, ‘हॉं, जंच तो रहा है। लेकिन इसकी क़ीमत - -?’ उसके चेहरे पर असमंजस के भाव पैदा हुए। सोहनलाल बिछ से गए, ‘डाक्टर साहब के परिवार में पहली शादी है, वह भी एकलौते बेटे की। उन्हे शहर में कौन नहीं जानता। आप क़ीमत की चिंता न करें। पैसे आगे-पीछे आ जाएँगे।’

‘‘नहीं पैसों की बात नहीं है। घर में तो पुराने दिनों का बहुत सामान रखा हुआ है। इनकी दादी के समय का और पहले का भी। आजकल इतने भारी ज़ेवर पहनता कौन है! नए ज़माने के पढ़-लिखे बच्चे हैं। हमें उनकी पसंद तो देखनी है। लेकिन पुराना सामान एक दिन निकालना तो पड़ेगा ही।’

सेठ जी को लगा कि ग्राहक को पैसों के बाद में आने की बात बुरी लगी है। बड़े आदमी हैं, पुराने, खानदानी रईस। उन्हे सम्हल कर बोलना चाहिए था। उन्होने बात सम्हालने की कोशिश की, ‘मेरे कहने का मतलब यह नहीं था। आपको कौन नहीं जानता! घर की ऐसी बात है।’

‘ठीक है, आप यह सेट भी जोड़ लें, यह सब पैक करवा कर अलग रख दें। कल किसी समय हम, डॉक्टर साहब भी यदि खाली हुए, आकर उठा लेंगे। आज तो मैं पैसे भी नहीं ला सकी। जल्दी में भूल गई। दवाखाने में भीड़ ज़्यादा थी। इनकी मौसी आ रही हैं। गाड़ी भी उन्हे लेने के लिए ड्राइवर स्टेशन ले गया है। परिवार में बड़ी-बूढ़ी जो भी हैं, वही हैं। उनको भी पसंद कराना होगा न। अब उनकी उम्र इतनी हो चुकी है। उनका यहाँ भी आना मुश्किल है।’

सोहनलाल पुराने अनुभवी, तुरंत सौदे पर यक़ीन करते थे। कल का क्या भरोसा? कितनी तो नए फैशन की दुकाने खुल गई हैं। पैसे कहीं भागे जाते हैं। उनके स्वर में आत्मीयता थी, बड़ी विनम्रता से बोले, ‘आप हमें गैर समझ रही हैं बहू जी।’ बड़ी देर से वह सोच रहे थें इन्हे क्या कह कर सम्बोधित करें। मेम साहब कुछ जंचता नहीं था, दूरी का अहसास कराता, ‘आपने जो माल पसंद किया है, आज ही ले जाएँ। मौसी जी भी तो आ रहीं हैं। उन्हे पसंद करा लें। पैसे बाद में आ जाएँगे। गाड़ी आपको छोड़ आऐगी। मैं ड्राइवर से कहे देता हूँ।’

‘नहीं!’, उसने स्पष्ट कहा, ‘ऐसा हमारे उसूल के खिलाफ है। डॉक्टर साहब भी इसे पसंद नहीं करेंगे। आप ऐसा कर सकते हैं,’ उसने कुछ रुकते हुए कहा, ‘मैं जा रही हूँ, मालूम होता है, ड्राइवर को स्टेशन पर देर लगेगी। आप एक इक्का या रिक्शा बुलवा दें। शाम तक यह सामान आप भिजवा दें। घर, आप जानते तो होंगे, दवाखाने के ऊपर। डॉक्टर साहब तो मिलेंगे ही। उसी समय आपको पूरा भुगतान नकद कर देंगे।

सोहनलाल के चेहरे पर दयनीयता झलक आई, ‘आप मुझे गैर समझ रही हैं। डॉक्टर साहब की मैं बहुत इज़्ज़त करता हूँ। आप सवारी बुलाने की बात कर रही हैं, गाड़ी आपकी है। मैं दुकान के लड़के को आपके साथ भेज देता हूँ। अब आप नहीं मान रहीं तो उसे पेमेंट करा दीजिएगा।’

‘सेठ जी, बुरा न मानिए। साठ-सत्तर हज़ार की रक़म कम नहीं होती। यदि आप कह ही रहे हैं तो आप साथ में चलें। डॉक्टर साहब से मुलाकात भी हो जाएगी। आपके चरणों की धूल - -’ कहते कहते वह मुस्करा दी। सोहनलाल गद्गद् हो गए। उनका बस चलता तो उस मुस्कान की छांव में आजन्म रह जाते। दुकान के सामने नई फिएट का पिछला दरवाज़ा उन्होने स्वयं खोला था। बहू जी के बैठने के बाद उनके बगल में जेवरों का बैग भी रख दिया। वह आगे ड्राइवर की बगल में मगन बैठे थे।

क्लीनिक में मरीजों की ज़्यादा भीड़ नहीं थी। डॉक्टर ने उन्हे देख स्वागत मुद्रा में मुस्कराते हुए हल्के से सिर हिलाया था। आज स्त्री की वेषभूषा अलग थी, माथे पर आगे तक चादर भी नहीं। उसने पहचान लिया। इतनी सुन्दर-युवा स्त्री के बूढ़े पति का अवसाद में जाना असंभव नहीं। उन्होने सेठ जी की ओर देख कर बैठने का इशारा किया वह डॉक्टर के पास फुसफुसाई थी, ‘मैं किसी तरह उन्हे ले आर्इ हूँ। मेरे या किसी के सामने वह बिल्कुल बात नहीं करेंगे। अब आप पर है। फीस की चिंता आप न करें। मैं अंदर इंतज़ार करती हूँ।’ डॉक्टर के होंठों की मुस्कान गहरी हो गई थी। वह बैग लिए पीछे दरवाजे से अंदर चली गयी थी। दवाखाने में कुछ मरीज रह गए थे। सेठ सोहनलाल प्रतीक्षा में बैठ गए। उन्होने पहली बार डॉक्टर को इतने करीब से देखा था। उन्होने सोचा इसकी काबिलियत की चर्चा बहुत है। किसी वक़्त इससे सलाह ली जाए। आजकल अंग्रेज़ी दवाओं ने बहुत तरक्क़ी की है। उनकी पिता बनने की इच्छा प्रबल हो आई। मरीजों के बाद वह डॉक्टर के बगल में मरीजों वाली कुर्सी पर थे, ‘जै राधे-क्रिस्ना, डॉक्टर साहब, मैं ‘बांकेलाल ज्वैलर्स’ से सोहनलाल हूँ। बिल के भुगतान के लिए - -!’ अभिवादन के जवाब में डॉक्टर ने धीरे से सिर हिलाया था, ‘जरूर बिल का भुगतान तो व्यापार की पहली शर्त है। आप आराम से बैठें, फिर पूरी बात शुरू से बताएँ।’ डॉक्टर को मानसिक रोगों के इलाज़ का विशेष अनुभव न होने पर भी जीवन का तजुरबा था। वार्तालाप बढ़ने के क्रम में उसने समझाने की कोशिश की थी -’सेठ जी, आपको तो जीवन का गहरा अनुभव है। आप भगवान पर विश्वास, पूजा-पाठ भी करते होंगे। ज़िन्दगी में उतार-चढाव, हानि-लाभ आते-जाते रहते हैं। आपकी पत्नी आपकी कितनी चिंता करती हैं। वैसे यह तकलीफ आपको कब से है?’

सोहनलाल कुछ समझ नहीं सके। इस तरह की बातें न कभी की थीं, न सुनी। बात समाप्त करने के लिए उन्होने कहा था - ‘डाक्टर साहब, मैं ज़्यादा पढ़ा लिखा नहीं हूँ। आप विद्वान पुरुष हैं। जहाँ तक मेरी बीमारी की बात रही एक आस है संतान का मुख देख लेता। वैद्य-हकीमों का बहुत इलाज़ करा लिया। किसी दिन आपसे इस सम्बंध में मिलूंगा। इस समय तो मुझे जल्दी है। मैं तो मेमसाहब के कहने पर बिल के भुगतान के लिए आया था। उसका भुगतान करा दें। अभी न करें तो, जब आप कहें कल, परसों मैं आ जाऊँगा। कोई जल्दी नहीं है। आपने हमें सेवा का मौका दिया, मेरे लिए बहुत बड़ी बात है। बहू जी जो सामान लाई हैं, आप और मौसी जी को पसंद न आए तो मैं बदल दूंगा।’

वार्तालाप के अंतिम निष्कर्ष तक आते आते दोनों पूरी घटना के तह तक पहुँच चुके थे। सेठ जी को भारी सदमा लगा था। उनका दिल बैठने लगा। आने वाली सहालगों के लिए उन्होने दुकान भर ली थी। पूरी दुकान खाली हो गई। वह निढाल हो गए। डॉक्टर ने पानी मंगवाया। पानी पीने के बाद कुछ सम्हले थे। डॉक्टर ने पूरी क्लीनिक अंदर तक उनको दिखाई, अपनी पत्नी से मिलवाया था, ‘यह मेरी पत्नी रानी सहाय। मुमकिन है किसी समय आपने इन्हे देखा हो। अब इनकी पहली और अंतिम रुचि केवल सितार है। आप हैं शहर के प्रसिद्ध ज्वैलर्स ‘बांकेलाल एँड सन्स के मालिक सेठ सोहनलाल।’ सेठ जी ने हाथ जोड़े, यदि कहीं दूसरी जगह देखते तो विश्वास न होता। सुन्दर, सादगी, आभूषण रहित, खादी की सूती साड़ी। बाद में उन्हे मालूम हुआ कि रानी सहाय आज़ादी के पहले जुलूसों, पिकेटिंग, विदेशी कपड़ों के बहिष्कार, उनकी होली जलाने में सक्रिय तौर से जुड़ी रही थीं। डॉक्टर ने पुलिस में रिपोर्ट की सलाह दी थी। परंतु सेठ जी का पूरा व्यवसाय नम्बर दो में होता। उनके द्वारा खरीदे या बेचे गए माल का कोई लिखित अभिलेख नहीं था। बदनामी ऊपर से होती। आने वाले असेम्बली चुनाव में उन्हे प्रत्याशी के रूप में उतारने का वायदा किया गया था। नुक़सान भारी हुआ था। लेकिन बर्दास्त करने के अलावा कोई चारा नहीं था। अगले दिन सेठ जी सपत्नीक डॉक्टर के यहाँ अतिथि के रूप में आए थे। सेठ जी की पत्नी का ब्योरा ज़रूर वही था जो डॉक्टर के पास आई स्त्री ने बताया था, परंतु वह महिला नितांत अलग थी।

‘अब तुमसे रुख़्सत होता हूँ’

आगे की कहानी कहानी सुनाते समय दादा कुछ इस तरह शब्दों की हेराफेरी करते मैं समझ न पाता। पूरी तरह समझ सकने की बात तो इस उम्र में भी नहीं कर सकता। डॉक्टर और सेठ परिवार का परिचय प्रगाढ़ होता गया। सेठ जी डॉक्टर की दवाइयाँ नियमित रूप से ले रहे थे। दंपति अक्सर देव परिवार में आते। सेठ जी युवा पत्नी सितार सीखने रानी सहाय के पास अकेली भी आने लगीं। अक्सर डाक्टरनी किसी सामाजिक कार्य में गई होतीं। सेठानी इन्तजार करतीं। कहानी का अंत सुखद रहा। सेठानी जी के जन्मांक को देख कर ज्योतिषियों की बताई भविष्य वाणी सही निकली। डॉक्टर की चिकित्सा ने बुढ़ापे में उनकी मुराद पूरी की थी। देर में ही सही, ‘बांकेलाल एँड सन्स’ के मालिक सेठ सोहनलाल को वारिस की प्राप्ति हुई थी, अति सुन्दर, नीली-बड़ी आँखों वाले पुत्र के रूप में।

वक़्त के साथ सब कुछ बदल गया। डॉक्टर का बेटा विवाह के बाद अमेरिका में बस गया। अब न डॉक्टर हैं, न सेठ जी। क्लीनिक की जगह मल्टीप्लेक्स बन गया है। ‘बांकेलाल एँड सन्स’ की दुकाने-ब्रांचें शहर में ही नहीं पूरे पूरे मुल्क में फैली हुई हैं। अब तो उनका वारिस भी प्रौढ़ हो रहा है।