भुवन: भाग 2 / नदी के द्वीप / अज्ञेय

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दृश्यों का द्रुत परिवर्तन स्फूर्तिप्रद होता है शायद, लेकिन जहाँ उस परिवर्तन के साथ रागावस्थाओं का भी उतना ही द्रुत परिवर्तन हो वहाँ स्फूर्ति ही आवश्यक नहीं है, व्यक्ति चकित-विमूढ़ होकर भी रह जाता है...काम के दबाव में उसका मन नौकुछिया अधिक नहीं भागा था-यों भी उसकी प्रवृत्ति पीछे देखने की नहीं थी, हठात् कभी अतीत की किरण मानस को आलोकित कर जाये वह दूसरी बात है-पर श्रीनगर की झील और नौकुछिया का अन्तर स्वयं मन पर चोट करता था। निस्सन्देह श्रीनगर में सब कुछ बड़े पैमाने पर था, बड़ी चौड़ी उपत्यका, बड़े पर्वत-शृंग, बड़ी झील-बड़े लोग!-पर नौकुछिया एक सुन्दर हरे निर्जन में जड़ा हुआ छोटा-सा नगीना था, और यह-जनाकीर्ण मग में आभूषणों से लदी बैठी पुंश्चली स्त्री...क्या हुआ अत्यन्त सुन्दरी है तो? 'पब्लिक फ्रे॓सेज़ इन पब्लिक प्लेसेज़!' उसे खुशी ही थी कि श्रीनगर में अधिक समय नहीं बिताना पड़ेगा, दिल्ली में ही रुके रह जाना बहुत अच्छा हुआ, नहीं तो यहाँ वह घबड़ा जाता-और नौकुछिया के बाद तो-!

डेढ़ ही दिन उसे वहाँ लगा, इतने में उसकी तैयारी हो गयी। यहाँ से घोड़ों पर सामान लद कर जायेगा, पहलगाँव और वहाँ से तुलियन-चौथे दिन पहुँच जायेगा। वह पहलगाँव में प्रतीक्षा करेगा, तम्बू पहलगाँव से ही तुलियन ले जाने होंगे-उसके लिए उसने नये खानसामा को आगे भेज दिया था।

लेकिन अपना आवश्यक सामान लेकर जब वह पहलगाँव की मोटर पर पहुँचा तब अचकचा कर रह गया। मोटर के बानेट के सहारे रेखा खड़ी थी।

मुस्करा कर बोली, “नमस्कार!”

“नमस्कार। तुम-”

“मैं आपसे एक दिन पहले यहाँ पहुँच गयी-आप दिल्ली ही रह गये, मैं सीधी इधर चली आयी।”

“लेकिन-”

“आप भूलते हैं, मैं बांग्ला बोलने वाली कश्मीरिन हूँ-यहाँ किसी को पहचानती नहीं पर मेरे रिश्तेदार और बुजुर्ग चारों ओर बिखरे पड़े हैं।”

“पर मेरे जाने का कैसे पता लगा?”

“मैं कल पूछने गयी थी। यों तो न भी जाती तो भी लग जाता-आप वैज्ञानिक यन्त्रादि ले जाने का परमिट लेने गये थे-वह अधिकारी मेरे कुछ लगते हैं मामा-वामा।”

भुवन हँसने लगा, क्योंकि इन सज्जन से बड़ी मनोरंजक भेंट हुई थी उसकी। वह मानते ही नहीं थे कि युद्ध-काल में यन्त्रादि लेकर कोई उत्तर के पहाड़ों में जा रहा है तो रूस से सम्बन्ध जोड़ने के सिवा उसका कोई उद्देश्य हो सकता है। फिर जब उसने कहा कि उसका काम कई विश्वविद्यालयों के काम से सम्बद्ध है जिन में केम्ब्रिज और अमेरिका के कुछ विश्वविद्यालय भी हैं तो उन्होंने मान लिया कि वह ब्रिटेन का चर है। परमिट तो दे दिया, लेकिन बड़ी भेद-भरी दृष्टि से उसे देखते रहे।

फिर उसने कहा, “मुझे तो किसी ने नहीं कहा-”

“मैंने कहा था कि मैं स्वयं मिल लूँगी-”

“तो तुम जा कहाँ रही हो-पहलगाँव?”

“जी-मैं काम्पिलमेंट्स रिटर्न करने आयी हूँ-पहलगाँव तक पहुँचाने आयी हूँ-तुलियन तक जाने को तैयार होकर अगर आप कहेंगे। यह मेरा प्रदेश है, आप मेहमान हैं।” फिर सहसा गम्भीर होकर कहा, “आपका हर्ज तो नहीं होगा? मैं अभी लौट सकती हूँ-रास्ते में ही कहीं उतर सकती हूँ-”

“इसका जवाब तो मैं दे चुका।”

“क्या?”

“पिछली भेंट का मेरा आखिरी वाक्य-”

विषाद की एक हल्की-सी छाया रेखा के चेहरे पर दौड़ गयी। फिर वह मुस्करा दी। “हाँ, सो तो हूँ।”

अगली सीट भुवन की थी। उसने कहा कि रेखा वहाँ बैठ जाये, पर रेखा ने आग्रह किया कि वहाँ कोई बैठेगा तो भुवन, नहीं तो दोनों साथ बैठेंगे पहली सीट पर; वहीं वे बैठे।

पामपुर-अवन्तिपुर के खुले प्रदेश के पास से मोटर बढ़ती चली। भुवन ने कहा, “यही सब केशर का प्रदेश है न?”

“हाँ। इसी से इसे काश्मीर कहते हैं-भारत में तो और कहीं होता नहीं। और पामपुर असल में पद्मपुर है।”

भुवन ने कहा, “बंगालिन, अभी कश्मीर से तुम्हारा नाता छूटा नहीं?”

रेखा हँस दी। “जो असम्पृक्त हैं, उनका सब देशों से नाता है!”

“तो, तुम्हारे लिए सब जगहें बराबर हैं?”

“उस दृष्टि से-हाँ। मेरे लिए महत्त्व है व्यक्तियों का-विशेष व्यक्तियों का।” और एक अर्थ-भरी दृष्टि से उसने भुवन की ओर देख लिया। थोड़ी देर दोनों चुप रहे। फिर रेखा ने पूछा, “पहलगाँव रुकोगे?”

“सोचा तो था। पर अब नहीं-मुझे तुलियन पहुँचाने चलोगी न?”

“आप कहें तो! और पहलगाँव में टूथ-ब्रश न मिलेगा, इसलिए मैं सब साथ लायी हूँ।”

“सामान आने में दो-तीन दिन लगेंगे ही। चल सकते हैं। पर पहलगाँव से तुलियन सामान के साथ मैं स्वयं जाना चाहता हूँ-”

“बाधा नहीं बनूँगी, भुवन। जिस दिन सामान आवेगा उसी दिन चली जाऊँगी। बल्कि-”

“यह मेरा मतलब नहीं था-”

“जानती हूँ-” कह कर रेखा ने उसे चुप करा दिया।

ज्यों-ज्यों बस आगे जाती थी, त्यों-त्यों भुवन का मन अधिकाधिक तीखे झटकों के साथ पीछे जाता था-एक लघु क्षण के लिए, बस, लेकिन प्रत्येक बार एक टीस के साथ, और प्रत्येक बार न जाने कहाँ से उखड़े-उखड़े वाक्यांश लाता हुआ...'स्वाधीनता का जोखिम'...'आन्तरिक आलोक का जोखिम'...'एण्ड द स्टार्स इन हर हेयर वेयर सेवन'...'जुगनू तो सीली-सड़ी जगह में होते हैं'...'आत्मा के नक्शे'...'क्षण सीमान्त है'...'वहाँ बालू होगी?' 'मैं शैरन का गुलाब हूँ, और उपत्यका की तितली...' 'डर, सुन्दर का डर, विराट् का डर'...'दुःख जाना है, पर डर नहीं'...देर-एक बार अशान्त भाव से वह अपनी सीट में इधर-उधर मुड़ा। 'मेरी प्रिया बोली, उसने कहा, उठो प्रिय, और मेरे साथ आओ, क्योंकि शीत ऋतु बीत गयी है, वर्षा चुक गयी है, धरती में फूल जागते हैं, पक्षियों के गाने का समय आ गया है, और कुमरी का गूँजन सुन पड़ने लगा है। अंजीर के वृक्ष में नया फल आता है, और अंगूरी के कचिया अंगूर मधुर गन्ध दे रहे हैं। उठो, प्रिय, और चले आओ।' सहसा स्पष्ट हो गया कि सालोमन के गीत के ये अंश उसे रेखा की कापी में से याद आ रहे हैं-क्यों? वह सीधा होकर बैठ गया। कापी के वाक्य और स्पष्ट होकर उसके आगे दौड़ने लगे-एक के बाद एक पंक्ति, जैसे सिनेमा की पंक्तियाँ मानो बेलन पर चढ़ी हुई घूमती जाती हैं और एक-एक पंक्ति आलोकित होती जाती है...

'तुम चले जाओगे-मैं जानती हूँ कि तुम चले जाओगे। मैं आदी हूँ कि जीवन में कुछ आये और चला जाये-मैंने हाथ बढ़ा कर उसे पकड़ना चाहना भी छोड़ दिया है-कौन पकड़ कर रख सकता है? बचपन में माँ एक कहानी सुनाया करती थी, कोकिल का स्वर सुनकर राजा उसे पकड़वा मँगाते थे पर वह चुप हो जाता था। माँ कहती थीं, कोकिल को पकड़ लिया जा सकता है, पर गान बन्दी नहीं होता। तब मैं सोच लेती थी, बन्दी करना मैं क्यों चाहने लगी? मैं स्वयं गाऊँगी! पर अब माँ की बात याद आ जाती है...नहीं, गान को बन्दी करना नहीं चाहूँगी। और हाँ, गाऊँगी भी, चाहे टूटे स्वर से-मेरा गान तुम सुनोगे?'...

'हम हार गये। तुम ने कहा था, हम हार गये, सूर्यास्त को नहीं पकड़ सके। फिर तुमने कहा था-कहा नहीं, उद्धृत किया था, “उसके केशों में सात तारे थे।” पर अब अपनी ओर देखती हूँ तो सोचती हूँ, मुझमें? नहीं, मुझमें केवल अन्धकार की एक बहुत बड़ी लहर-हट जाओ भुवन, मैं तुम्हें प्यार करती हूँ पर मेरा संस्पर्श विषाक्त है...!

“तुमने डर की बात कही थी। वह एक चीज़ है जो मैंने पहले कभी नहीं जानी। दुःख-हाँ, वह खूब जाना है, अपमान, ग्लानि, ईर्ष्या-ये भी सहे हैं, पर डर...मगर डर को छूत होती है शायद, और तुम्हारा वह नामहीन डर मुझे भी छूता है, एक सिहरन-सा वह मेरी रीढ़ पर से उठता हुआ मेरे मन पर छा गया है-था-किसका डर? तुम से डर? तुम से!! तुम्हारे लिए डर?-? तुम्हें खो दूँगी, यह? लेकिन तुम्हें पाया है, यही तो कभी नहीं सोचा। जागने का डर? न जाने कब से मेरा मन, मेरी आत्मा, मेरी देह, सब सोयी हैं, जड़ हैं, और जड़ से इतर कोई स्थिति मैं सोचती ही नहीं। आग सुलगती है, धधकती है, ईंधन चुका कर धीमी पड़ जाती है; वैसी आग फिर भड़क सकती है। लेकिन मुक्त आग को बुझा दो-तब राख, कोयले, अध-जली लकड़ी-वह मैं हूँ। उठी हुई लहर जो वहीं जम गयी है। पीछे नहीं जा सकी, पीछे गर्त है-हर तरंग के पीछे गर्त होता है। आगे नहीं जा सकती-गति जड़ हो गयी है। जम गयी हूँ, पिघलूँगी तो पछाड़ खा कर गिरूँगी-क्या वही डर है जो मुझमें जाग गया है-पिघलने का डर? लेकिन मैं तुम्हें अपने से बचाऊँगी भुवन...'

“मैं स्वप्न देख कर उठी हूँ, तुम सो रहे हो, सोओ, मैं जगाऊँगी नहीं। पहले मन हुआ था, स्वप्न तुम से कह दूँ, पर नहीं। तुम्हें देखकर न जाने क्यों एक पंक्ति मन में आयी-तुमने पूछा था एक बार, “कविता लिखती हो?” हाँ, एक कविता मैंने भी लिखी है, पर मेरी कविता उसके शब्द में नहीं है, उसकी भावना में है-तुम पहुँचोगे?

शुभाशंसा चूमती है भाल तेरा-

स्नेह-शिशु, उठ जाग।

“तुम सोओ। अपने स्वप्न के लिए तुम्हें नहीं जगाऊँगी। स्वप्न में मैंने तुम्हारे प्रिय किसी को देखा था। न मालूम कौन होगी वह, लेकिन मैंने उसे देखा था, पहचाना था और वह तुम्हें बहुत प्रिय थी। उसे देखकर मेरे मन में स्नेह उमड़ आया-ईर्ष्या होनी चाहिए थी पर नहीं हुई। भुवन, मैं तुम्हारे जीवन में आऊँगी और चली जाऊँगी-मैं जानती हूँ अपने भाग्य की मर्यादाएँ!-पर तुम्हें जो प्रिय हैं उन्हें प्यार कर सकूँगी-सहज भाव से, बिना आयास के। और सोचती हूँ, तुम्हारी करुणा सदैव मुझे शान्ति दे सकेगी।”...

'तुमने मेरे जूड़े में लाल फूल खोंस कर मेरा सिर ढक दिया है; तुमने मेरी पलकें, मेरा मुँह...एक धधकते हुए प्रभा-मण्डल से मेरा शीश घिर गया है...क्या इसकी दीप्ति दुर्भाग्य के उस मण्डल को छार न कर डालेगी जो मेरे साथ रहा है?'

'मैंने तुम्हें गाना सुनाया था : शारद प्राते आमार रात पोहालो। मेरी वंशी, तुम्हें किसके हाथ सौंप जाऊँगी? अब सोचती हूँ, क्या उसमें भवितव्य की सूचना थी-क्या मैं तब जान गयी थी, देख सकी थी...मूक मेरी वंशी, अभी सहसा तुम्हारी बहकी हुई साँस से मुखर हो उठी है, और अभी मूक हो जाएगी। होने दो, चुकने दो रात-! मैंने गाया था, महाराज, यह किस साज में आप मेरे हृदय में पधारे हैं? उसमें कौतुक भी है, अचरज का चकित भाव भी है, और अपनापे की द्योतक ठिठोली भी है-कोटि शशि-सूर्य लजाकर पैरों में लोट रहे हैं; महाराज, यह किस ठाठ से आप मेरे हृदय में पधारे हैं-मेरा देह-मन वीणा-सा बज उठा है...'

“शीत में बहुत ठिठुर जायें, तो नाक के ठिठुरने के साथ घ्राण-शक्ति मर जाती है। फिर बाहर, भीतर, फूलों में, मन्दिर के धूमायित वातावरण में-कहीं कोई गन्ध नहीं मिलती...लेकिन फिर बिजली की कौंध की तरह सहसा और तीखी वह लौटती है, नासापुट गन्ध से भर जाते हैं, सौरभ की तरंग में मानो डूबने लगता है व्यक्ति, साँस बन्द हो जाता है...वैसी ही स्थिति में मैं थी-बरसों की घ्राण-शक्ति-हत, और अब सहसा तुम्हारे धाम में तुम्हारे सौरभ ने छा लिया है...मैं लड़खड़ा गयी हूँ, मूक हूँ, क्या कहूँ नहीं जानती, कैसे कहूँ नहीं सोच सकती...और तुम अभी चले जाओगे-कभी भी...फिर मिले-अगर मिले!-तो शायद कुछ कह पाऊँ-मेरी स्तब्ध आत्मा कुछ...'

'मैं जागती हूँ कि सोती हूँ? तुम हो, कि स्वप्न हो? मुझे लगता है कि मैं जागती हूँ, और आश्वस्त होकर सो जाती हूँ। लेकिन शायद सोती हूँ, सोते में देखकर जाग उठती हूँ...'

रेखा बीच-बीच में उसकी ओर देख लेती थी। जानती थी कि वह कुछ सोच रहा है। पर उसने पूछा नहीं। सहसा भुवन के विषय में एक नये संकोच ने, एक व्रीडा ने उसे जकड़ लिया था। क्षण-भर के लिए उसका मन नौकुछिया की उस घटना की ओर गया जब भुवन उसकी गोद में रोया था-कैसे वह कह सकी थी जो भी उसने कहा था? वह पछताती नहीं है, उसने जो कहा था उन्मुक्त उत्सृष्ट भाव से कहा था, पर...लाज से सिहर कर वह सिमट गयी, पल्ला खींच कर उसने मानो अपने को और लपेट लिया।

भुवन ने पूछा, “ठण्ड लगती है?”

“नहीं, नहीं।” उसकी वाणी के अतिरिक्त आवेश को लक्ष्य कर भुवन ने उसकी ओर देखा; दोनों की आँखें मिली : भुवन की आँखों में स्नेहपूर्ण कौतुक था, रेखा की आँखों में एक अन्तर्मुख लज्जा; पर सहसा उसका मन हुआ, वहीं बाँह फैलाकर भुवन को खींच ले, इस पुरुष को, इस शिशु को, इस-'शुभाशंसा चूमती है भाल तेरा...'

× × ×

मानो पहाड़ की छत पर एक हवा-धुली, धूप-मँजी झील; ओट को अधिक कुछ नहीं था, एक ओर खुला घास का पहाड़, जिसके नीचे एक झुरमुट; कुछ दूर पर झील से निकल कर बहता हुआ मुखर पहाड़ी नाला। तेज सनसनाती ठण्डी हवा; आकाश में अत्यन्त शुभ्र उड़ते मेघ-खण्ड, मानो पवन अप्सराओं के नये धुले कंचुक-उत्तरीय उड़ाये लिए जा रहा हो। तुलियन।

घास में से उभरी हुई एक चट्टान पर धूप में दोनों बैठ गये : सामान और तम्बू आने में थोड़ी देर लगेगी-कुलियों को पहले रवाना किया गया था पर राह में वे उन्हें पीछे छोड़ आये थे।

“रेखा, उनके आने से पहले गाना गा दो।”

“कैसा?”

“गाने को कैसा भी होता है? जो चाहो-तुलियन के सम्मान में-झील, धूप, हवा, बादल, सबके-”

रेखा खड़ी हो गयी। सामने आकर उसने उँगलियों से ठोड़ी पकड़ कर भुवन का मुँह उठाया कि उस पर पूरी धूप पड़े, क्षण-भर उसे निहार कर झुककर चूम लिया। हँसकर कहा, “यानी भुवन के सम्मान में-सारे भुवन के।”

थोड़ी देर बाद फिर वह बैठ गयी :

यदि दो घड़ियों का जीवन कोमल वृन्तों में बीते कुछ हानि तुम्हारी है क्या? चुपचाप चू पड़ें जीते। निश्वास मलय में मिलकर ग्रह-पथ में टकराएगा, अन्तिम किरणें बिखरा कर हिमकर भी छिप जाएगा।*


(* जयशंकर 'प्रसाद ' )

आरम्भ उत्साह से हुआ था, पर फिर मानो स्वर अनमने हो गये। फिर भी वह गाती रही, फिर गान रुक गया। रेखा ने कहा, “भुवन, क्षमा करो, वह उदासी मेरी अपनी है, गान की नहीं। पर और एक सुनाऊँगी थोड़ी देर बाद-”

भुवन उठा। “चलो, धूप में टहलें।”

रेखा भी खड़ी हो गयी। “लेकिन सूर्यास्त के पीछे नहीं दौडूँगी। वैसे इस ऊँचाई पर दौड़ भी नहीं सकती-”

भुवन ने कहा, “तुम्हें तकलीफ़ तो न होगी रेखा? इतनी ऊँचाई पर काफ़ी कष्ट भी हो सकता है-”

“नहीं, नहीं-नहीं!” रेखा ने दृढ़ता से प्रतिवाद किया, मानो दृढ़ता से हृद्गति का भी नियन्त्रण हो जाता हो।

दोनों झील से कुछ ऊँचाई पर, सम-तल आगे-पीछे टहलने लगे।

दूर कुलियों का स्वर सुनायी दिया।

रेखा ने कहा, “अच्छा भुवन, फिर सही-रात को-आज तो पूर्णिमा होगी न?”

“सच? हाँ, आज-कल में ही होनी चाहिए। अच्छा आओ तम्बू की जगह ठीक करें पहले-”

तम्बू भी लग गये घासवाली पहाड़ी पर, झुरमुट से आगे बड़ा तम्बू रहने के लिए, झुरमुट से इधर जहाँ से नाला फूटता था उसके निकट एक छोलदारी सामान और खानसामा के लिए, दूसरी रसोईघर की। दिन छिपते खानसामा ने चाय भी तैयार कर दी। भुवन ने कहा, “इसी समय कुछ डिब्बे-बिब्बे खोलकर खा लिया जाये, रात को और बनाने की ज़रूरत है क्या?”

रेखा ने सहमति प्रकट की। खानसामा को कह दिया गया। वह प्रबन्ध में लग गया। भोजन समाप्त होते न होते उसने कहा, “हूज़ूर हुकुम करें तो चाय फिर दे सकता हूँ-”

भुवन ने कहा, “अच्छा शुक्रिया-ठीक नौ बजे चाय दे देना।”

रेखा ने एक शाल कन्धे पर डाल ली और कहा, “मैं उस समय तक तम्बू के भीतर नहीं आऊँगी।”

“तो मैं ही कौन बैठ रहा हूँ।”

दोनों फिर बाहर टहलने लगे।

दिन छिप रहा था, लेकिन छिपा ठीक नहीं, क्योंकि द्वाभा में एक आलोक के क्षीण होते न होते दूसरा उज्ज्वल हो गया : बड़े-से चाँद की चन्द्रिका सारे वातावरण में फैल गयी।

दोनों किनारे-किनारे बढ़ते हुए काफ़ी आगे निकल गये। यहाँ पानी के बिलकुल पास एक चट्टान पर बैठकर रेखा झुककर हाथ से पानी उछालने लगी। भुवन भी बैठ गया, पानी में हाथ उसने भी डाल दिये। पानी बहुत ठण्डा था। लेकिन उसकी छलछलाहट बड़ी मधुर थी; ठण्ड, ऊँचाई और चाँदनी से स्फटिक से निखरे हुए वातावरण में उसमें छोटे घुँघरुओं की-सी रुनझुनाहट थी।

“अंग्रेज़ी हो तो माइंड करोगे?”

भुवन ने प्रश्न समझते हुए कहा, “बिलकुल नहीं।”

रेखा गाने लगी :

लव मेड ए जिप्सी आउट आफ़ मी!

(प्यार ने मुझे खानाबदोश बना दिया।)

भुवन ने आगे झुककर पानी में खेलता हुआ उसका ठिठुरा हुआ हाथ बाहर निकाल लिया, फिर छोड़ा नहीं।

लव मेड ए जिप्सी आउट आफ़ मी!

बाहर चाँदनी थी, सुन्दर शीतल; ठण्ड से जड़ित वातावरण ऐसा लगता था, मानो सारा दृश्य एक विशाल हिम-शिला के अन्दर बँधा हो, और बाहर का प्रकाश उस शिला को जगमगा दे...परन्तु फिर भी तम्बू के भीतर की पीली रोशनी सुन्दर और आकर्षक थी। साढ़े नौ बजे थे, तम्बू के निकट आते हुए दोनों ने देखा, भीतर सब सामान ठीक-ठाक सज गया है; मेज़ पर लैम्प के प्रभा-मण्डल के छोर पर दो प्याले रखे हैं, और हरे रंग के तौलिये में लिपटी हुई चायदानी-'चा-पोची' तो थी नहीं, और चाय गर्म रखने के लिए यह व्यवस्था की गयी होगी...

आगे एक ओर सफ़री पलंग पर रेखा का बिस्तर बिछा था, चारखाने नीले पलंगपोश से ढँका हुआ; दूसरी ओर नीचे लकड़ी के बड़े पटरों पर भुवन का। ये पटरे उसने इसलिए मँगा लिए थे कि वर्षा में कदाचित् यन्त्रादि को फ़र्श से ऊँचा रखना पड़े।

रेखा ने कहा, “यह क्या बात है-किफ़ायत, या कि मेरा अतिरिक्त सम्मान”

“रेखा, खानसामा को तो एक ही खाट का पता था न? और ये पटरे कम नहीं हैं-फिर मेरा हवाई गद्दा है-” कहकर भुवन ने बिछौने का कोना उठा कर दिखा दिया। “बल्कि, मेरा किसी तरह कम सम्मान नहीं किया गया है, इसका प्रमाण यह है कि चाहो तो मैं बदल लेता हूँ।”

दोनों चाय पीने लगे। कुछ बिस्कुट भी ढँके रखे थे।

थोड़ी देर बाद भुवन बिना कुछ कहे उठ कर बाहर चला गया। जाते हुए तम्बू का पल्ला गिरा गया। रेखा ने इसका अभिप्राय समझ लिया, उसने कपड़े बदल लिए, भीतर जाकर मुँह-हाथ धोया, फिर शाल लपेट ली और पल्ला उठा कर बाहर चली आयी। भुवन कुछ दूर पर टहल रहा था, वहीं चली गयी।

थोड़ी देर साथ टहलता रहकर भुवन तम्बू की ओर लौट गया।

रेखा कुछ और आगे बढ़ गयी। एक चट्टान पर बैठ गयी। थोड़ी देर बाद उसने एक-एक काँटा निकाल कर जूड़ा खोला, बाल खोल डाले, फिर सिर को एक बार झटककर उन्हें कन्धों पर फैला लिया। फिर उसने चाँद की ओर मुँह उठाकर आँखें बन्द कर लीं, उसका सारा शरीर शिथिल हो आया।

ऐसा ही भुवन ने उसे लगभग घण्टे-भर बाद पाया। वह कपड़े बदल कर फिर लौटा नहीं था, यह सोच कर कि रेखा उसी के कारण बाहर रुकी है तो थोड़ी देर में स्वयं आ जाएगी, पर जब वह बहुत देर तक न आयी तब वह देखने निकला। पहले एक बार यों ही चारों ओर नज़र दौड़ायी, पर कहीं गति का कोई लक्षण नहीं देखा, सर्वत्र निश्चलता; तब वह आगे बढ़ा।

जब उसकी आँखों ने सहसा रेखा का आकार पहचाना, तो वह वहीं ठिठक गया। रेखा ठीक वैसे बैठी थी जैसे लखनऊ में उसने देखा था, शिथिल, शान्त, दूर।

और वह वैसा ही ठिठका रहता, अगर यह न देखता कि रेखा की शाल उसके कन्धों से गिर गयी है, और उसे होश नहीं है। कन्धों पर का सफ़ेद रेशम चाँदनी में ऐसा चमक रहा है, जैसे छोटे-छोटे पंख।

उसने शाल उठाते हुए कहा, “पगली, चाँदनी है, सब पी न सकोगी। चलो, जमी जा रही हो ठण्ड से-ऐसे तो तुम्हीं चाँदनी हो जाओगी।”

× × ×

“हाँ, बत्ती बुझा दो, पर पल्ला आधा खोल दो कि चाँदनी दीखती रहे।”

भुवन ने एक ओर का पल्ला ऊँचा करके ऐसे बाँध दिया कि ऊपर से खुला रहे, उससे चाँदनी का एक वृत्त रेखा के पास फ़र्श पर पड़ने लगा।

“अभी थोड़ी देर में यह बढ़कर तुम्हारे ऊपर आ जाएगा, न?” रेखा ने कहा।

“अँ-हाँ।”

भुवन लेट गया और उस खुली जगह में से बाहर आकाश देखने लगा। बहुत देर तक वह मुग्ध भाव से देखता रहा, कुछ बोला नहीं। न रेखा कुछ बोली।

सहसा उसे ध्यान आया कि चाँदनी का वह वृत्त उसके ऊपर आ गया है। तब यह देखने को कि रेखा जग रही है या नहीं, उसने उधर देखा।

रेखा ज्यों-की-त्यों बैठी थी, चाँदनी के प्रतिबिम्बित प्रकाश में उसे देखती हुई।

भुवन ने हड़बड़ा कर कहा, “रेखा, ठिठुर जाओगी-”

रेखा ने जैसे सुना नहीं।

भुवन ने उठकर उसके कन्धे पकड़े-ठण्डे, जैसे बर्फ। बलात् उसे लिटा दिया, कम्बल उढ़ा दिये। धीरे-धीरे उसके चेहरे पर हाथ फेरने लगा; चेहरा भी बिल्कुल ठण्डा था। उसने खाट के पास घुटने टेककर नीचे बैठते हुए रेखा के माथे पर अपना गर्म गाल रखा, उसका हाथ धीरे-धीरे रेखा के कन्धे सहलाने लगा। भुवन ने कम्बल खींचकर कन्धे ढँक दिये। कम्बल के भीतर उसका हाथ रेखा का वक्ष सहलाने लगा-

सहसा वह चौंका। झीने रेशम के भीतर रेखा के कुचाग्र ऐसे थे, जैसे छोटे-छोटे हिम-पिण्ड...और अब तक जड़ रेखा के सहसा दाँत बजने लगे थे।

“पगली-पगली!”

भुवन ने एकदम खड़े होकर एक हाथ रेखा के कन्धे के नीचे डाला, एक घुटनों के; उसे कम्बल समेत खाट से उठाया और अपने बिछौने पर जा लिटाया। अपने कम्बल भी उसे उढ़ाये, और उसके पास लेटकर उसे जकड़ लिया।

सहसा रेखा ने बाँहे बढ़ाकर उसे खींच कर छाती से लगा लिया; उसके दाँतों का बजना बन्द हो गया। क्योंकि दाँत उसने भींच लिए थे; भुवन को उसने इतनी जोर से भींच लिया कि उन छोटे-छोटे हिम-पिण्डों की शीतलता भुवन की छाती में चुभने लगी...

फिर स्निग्ध गरमाई आयी। भुवन ने धीरे-धीरे उसकी बाहु-लता की जकड़ ढीली कर के उसे ठीक से तकिये पर लिटा दिया; और हाथ से उसकी छाती सहलाने लगा। चाँदनी कुछ और ऊपर उठ आयी थी; रेखा की बन्द पलकें नये ताँबे-सी चमक रही थीं।

दिस दाइ स्टेचर इज लाइक अंटु ए पाम ट्री, एण्ड दाइ ब्रेस्ट्स टू क्लस्टर्स आफ ग्रेप्स।

आइ सेड, आइ विल गो अप टू द पाम ट्री, आइ विल टेक होल्ड आफ़ द बाउज़ देयराफ : नाउ आल्सो दाइ ब्रेस्ट्स शैल बी एज़ क्लस्टर्स आफ़ द वाइन, एण्ड द स्मेल आफ़ दाइ नोज़ लाइक एपल्स।

(यह तुम्हारा कलेवर खजूर के तरु की भाँति है, और तुम्हारे उरोज दो अंगूर-गुच्छों से। मैंने कहा, मैं खजूर के तरु के समीप जाऊँगा और उसकी शाखाएँ गहूँगा, तेरे उरोज अँगूर-गुच्छों से होंगे और तेरे नासापुटों की गन्ध सेबों-सी।)

सहसा भुवन ने कम्बल हटाया, मृदु किन्तु निष्कम्प हाथों से रेखा के गले से बटन खोले, और चाँदनी में उभर आये उसके कुचों के बीच की छाया-भरी जगह को चूम लिया। फिर अवश भाव से उसकी ग्रीवा को, कन्धों को, कर्णमूल को, पलकों को, ओठों को, कुचों को...और फिर उसे अपने निकट खींच कर ढँक लिया-सालोमन का गीत उस घिरे वातावरण में गूँजता रहा।

आई स्लीप, बट माइ हार्ट वेकेथ; इट इज़ द वॉयस आफ़ माइ बिलवेड दैट नाकेथ, सेइंग : ओपन टु मी, माइ सिस्टर, माइ लव, माइ डव, माइ अनडिफ़ाइल्ड, फ़ार माइ हेउ इज़ फिल्ड विथ ड्यू, एण्ड लाक्स विथ द ड्राप्स आफ़ द नाइट...

. (मैं सोती हूँ, पर मेरा हृदय जागता है; मेरे प्रियतम का स्वर दस्तक देकर कहता है : खोलो, मेरी सगी, मेरी प्रिया, मेरी पंडुकी, मेरी अक्षता; मेरे बाल रात के ओस-बिन्दुओं से भींग गये है...)

भुवन ने अपना माथा रेखा के उरोजों के बीच में छिपा लिया : उनकी गरमाई उस के कानों में चुनचुनाने लगी : फिर उसके ओठ बढ़कर रेखा के ओठों तक पहुँचे, उन्हें चूमकर प्रतिचुम्बित हुए।

माइ बिलवेड इज़ माइन, एण्ड आइ एम हिज़, ही फीडेथ एमंग द लिलीज़...

(प्रियतम मेरा है, मैं उसकी हूँ, पद्मवन में वह विहार करता है।)

क्यों भुवन के ओठ शब्दहीन हो गये हैं, स्वरहीन हो गये हैं, क्या वह गीत के ही बोल स्वरहीन हिलते ओठों से कह रहा है या कुछ और कह रहा है?

“रेखा, आओ...”

आइ रोज़ अप टु ओपन टु माइ बिलवेड, एण्ड माइ हैंड्स ड्राप्स विथ मर्ह, एण्ड माइ फिंगर्स-...

(मैं प्रिय की ओर उमंग कर खिल गयी, मेरे हाथों से अगुरु झरने लगा...)

“चाँदनी बहुत है, सब पी न सकोगी...ऐसे में तुम्हीं चाँदनी हो जाओगी।”

"और तुम, भुवन, तुम? तुम भी, लेकिन जम कर नहीं, द्रवित होकर!”

× × ×

कभी रेखा जागी। तब चाँदनी शायद दोनों के सटे हुए चेहरों को लाँघ कर ऊपर उठती हुई फिर खो गयी थी; रात का एक ठण्डा स्पर्श उस खुली जगह से अन्दर आता हुआ दोनों के तपे माथे और गालों को सहला रहा था; रेखा ने एक लम्बी साँस खींच कर उसे पी लिया; उसके जिस हाथ पर भुवन सोया था उसकी उँगलियाँ उसके माथे के उलझे बालों से बड़े कोमल स्पर्श से खेलने लगी, कि वह जागे नहीं; फिर वह दुबारा सो गयी।

कभी भुवन जागा। उसकी चेतना पहले केन्द्रित हुई उस हाथ में जो रेखा के वक्ष पर पड़ा उसकी साँस के साथ उठता-गिरता-उफ़, कितने कोमल आलोड़न से, जिससे भुवन को लगता था कि उसकी समूची देह ही मानो धीरे-धीरे आलोड़ित हो रही है, मानो बहती नाव में वह सोया हो...अवश हाथ, जिन्हें वह हिला भी नहीं सकता, अवश देह, लेकिन एक स्निग्ध गरमाई की गोद में अवश-चाँदनी वह अधिक

पी गया है-'चाँदनी, मदमाती, उन्मादिनी'!...और उस मीठी अवशता को समर्पित वह भी फिर सो गया...

× × ×

फिर भुवन जागा, इस बार सहसा सजग; कुहनी पर जरा उठकर उसने देखा, रेखा सीधी सोयी है। उसने झुककर धीरे से उसके ओठ चूम लिए; रेखा जागी नहीं पर उसके ओठ ऐसे हिले मानो स्वप्न में कुछ कह रही है। फिर सालोमन का गीत गूँज गया :

एण्ड द रूफ़ आफ़ दाइ माउथ लाइक द बेस्ट वाइन फ़ार द बिलवेड, दैट गोएथ

डाउन स्वीटली, काजिंग द लिप्स आफ़ दोज़ दैट आर एस्लीप टु स्पीक...

(और तेरा मुख प्रियतम के लिए उत्तम मदिरा की भाँति है जिसका स्वाद मधुर है और जिस से सोये हुओं के ओठ भी मुखर हो उठते हैं।)

और उसने बड़े जोर से रेखा के ओठ चूम लिए, वह जागी और उसकी ओर उमड़ आयी :

लेट अस गेट अप अर्ली टु द विनयार्ड्स, लेट अस सी इफ़ द वाइन फ्लरिश, ह्वेदर द टेंडर ग्रेप्स एपीयर, एण्ड द पोमेग्रेनेट्स बड फ़ोर्थ : देयर विल आइ गिव दी आफ़ माइ लब्ज़।

(भोर होते ही अंगूरों के कुंज की ओर चलें; देखें कि लता कैसी है, कि नये अंगूर आये या नहीं, अनार की कलियाँ फूटीं या नहीं; और वहीं मैं तुम पर अपना प्रेम निछावर करूँगी।)

और वह उमड़ना फिर एक आप्लवनकारी लहर हो गया।

आइ एम ए वाल, एण्ड माई ब्रेस्ट्स लाइक टावर्स; देन वाज़ आइ इन हिज़ आइज़ एज़ वन दैट फाउंड फेवर...

(मैं एक प्राचीर हूँ, और मेरे उरोज मानो दुर्ग; मुझे तुम ने अपनी अनुकम्पा का पात्र पाया है।)

ऐसा ही भोर के चोर-पैर आलोक ने उन्हें पाया। पर जगाया नहीं, चुपके से एक ओर हो गया। फिर धूप की एक किरण तम्बू के पल्ले से झाँकती हुई आयी-पर आगे नहीं बढ़ी।

रेखा उठी। पल्ले को खोल कर उसने गिरा दिया, एक क्षण-भर भुवन की ओर निहारा, फिर बाहर चली गयी।

अनन्तर भुवन उठा। अचंचल हाथों से उसने रेखा के कम्बल उठाकर उसके बिस्तर पर डाले, अपने बिस्तर की सलवटों को ठीक-ठाक किया, पल्ले की ओर बढ़ा पर लौट गया, भीतर जाकर मुँह धोया और पोंछता हुआ बाहर निकला; एक बार चारों ओर नज़र दौड़ायी; रेखा के तकिये में जो गड्ढा था जहाँ उसका सिर रहा होग।

सहसा झुककर उसे चूमा, फिर तम्बू के दोनों पल्ले उलट दिये और बाहर निकल दोनों बाँहें फैला कर सूर्य की धूप को गले से लगाते हुए मानो नये दिन का अभिनन्दन किया।

× × ×

धूप चढ़ आयी। नाश्ते के बाद भुवन ने पूछा, “तैरने चलोगी?”

“हाँ। मैं कास्ट्यूम लायी हूँ!”

“पानी बहुत ठण्डा है-जम जाओगी।”

यह वाक्य प्रतिध्वनि-सा लगा। सहसा स्मृति की बाढ़ आयी। “तुम तो-चाँदनी में ही जम गयी थी!” भुवन की आँखें मिलीं, उनमें कौतुक था। रेखा ने आँखें नीचे करते और मुँह दूसरी ओर फेरते हुए कहा, “और तुम-तुम पिघल गये थे?”

फिर सहसा लज्जित होकर सिमटती-सी दूसरी ओर चल दी।

भुवन ने पास जाकर कहा, “लजाती हो-मुझ से-अब?”

“हटो-तुम से नहीं तो और किस से लजाऊँगी? और कौन-” और रेखा तम्बू के अन्दर भाग गयी।

भुवन ने नीचे जाकर खानसामा से कहा कि दोपहर का कुछ हल्का भोजन तैयार करके रख दे, और फिर पहलगाँव जाकर और जो-कुछ ताज़ा सामान लाना हो ले आवे-दो दिन के लायक, क्योंकि परसों फिर नीचे जाना होगा बाकी सामान के लिए। अभी वे लोग तैरने जाएँगे, लौट कर स्वयं कुछ खा लेंगे। खानसामा ने केवल कहा, “हुजूर, पानी बहुत ठण्डा है,” और अपने काम में लग गया।

भुवन तम्बू में गया। रेखा मेज़ के पास खाट के सिरे पर बैठी कुछ सोच रही थी।

“फिर कुछ लिखना चाहती हो? तुम पहले जीती हो और फिर लिखती हो, कि पहले लिखती हो फिर जीती?”

“यही भेद नहीं पहचान पा रही हूँ-यह मेरा सौभाग्य है। और तुम्हारा वरदान।” कुछ रुककर वह बोली, “मैं कहानी लिखने जा रही थी-तुम्हारे पढ़ने के लिए। पर तुम्हें सुना ही देती हूँ।”

भुवन ने घुटने टेककर कुहनियाँ मेज़ पर रखी, ठोड़ी हथेली पर जमायी, बिलकुल बच्चों की-सी मुद्रा बनाता हुआ बोला-”सुनाओ।”

“हँसना मत! तुम ने पंडितराज कोक का नाम सुना है?”

“हाँ, पर यह भी सुना है कि सभ्य लड़कियाँ उसका नाम नहीं लेतीं।”

“नहीं लेती होंगी। उनको हक ही नहीं होगा। पर बीच में मत बोलो, नहीं तो नहीं कह पाऊँगी। कोक कश्मीर-राज के मन्त्री थे, पर कैसे हुए इसी की कहानी है। राजा की एक कन्या थी। राज-भर में नंगी फिरा करती थी। टोकने पर कहती थी, 'मुझे काहे की शरम? राज्य में मैं किसी को पुरुष मान कर देखूँ तब तो लजाऊँ? मैं किसी को देखती ही नहीं।”

“एक दिन कोक वहाँ आये, उन्होंने राजकुमारी को देखा। उससे आँखें चार होते ही सहसा वह लजा गयी; उसे लगा वह नंगी है; भाग गयी और जाकर कपड़े पहन लिए।”

वह बहुत देर तक रुकी रही। फिर भुवन ने कहा, “ 'फिर' पूछने की इजाज़त है?”

“बस। इतनी ही कहानी मैं सुनाना चाहती थी। वैसे बाद में कोक से उसका विवाह हुआ, और उसी को अपने सब रहस्य सिखाने के लिए कोक ने अपना ग्रन्थ लिखा। पर वह अलग कहानी है।”

“ओः!” कहकर भुवन चुप हो गया।

रेखा ने सहसा फिर कहा, “यह कहानी मुझे जानते हो किसने सुनायी थी? देखो, मेरा शाप छूट गया है, मैं नाम ले सकती हूँ-हेमेन्द्र ने। क्यों, कब, यह नहीं बताना होगा। पर-उसे भी पुरुष करके मैंने जाना नहीं था।”

भुवन उसे चुपचाप देखता रहा। फिर एक लम्बी साँस उसने ली। उठकर आया, धीरे-धीरे रेखा के केश सहलाता रहा।

थोड़ी देर बाद बोला, “अच्छा चलो तैरने-”

“चलो, मैं आती हूँ।”

× × ×

तीसरे पहर दोनों पहाड़ की चोटी पर थे, खुली धूप में। हाथ पकड़े-पकड़े एक बार उन्होंने चारों ओर देखा। निर्जन-कहीं कोई नहीं दीख रहा था। एक ओर झील का विशाल मुकुर, और सब ओर आकाश, नीला, मुक्त-अतल...

रेखा ने कहा, “देखो, हम दुनिया की छत पर हैं।”

तैरने के बाद बदन सुखा कर वह धूप में लेटे रहे थे। फिर लौट कर खाना खाया था, और थोड़ी देर के लिए फिर धूप में आये थे, उससे शरीर अलसा गया तो जाकर थोड़ी देर सो गये थे। फिर रेखा ने उठकर उसे उठाया था, दोनों बिस्तर ठीक कर दिये थे, “घूमने नहीं चलोगे-फिर धूप चली जाएगी?” और उसी तरह भटकते हुए नंगे पैर ही दोनों यहाँ तक चढ़ आये थे...

भुवन एक चपटी चट्टान पर पाँव फैलाकर बैठ गया।

रेखा ने खड़े-खड़े पूछा, “भुवन, मेरी मोहलत कब तक की है?”

भुवन अचकचा गया। कुछ उत्तर न दे सका।

“बोलो?”

भुवन ने धीरे-धीरे कहा, “परसों पहलगाँव जाना होगा, सामान लिवाने...”

रेखा ने शान्त स्वर से कहा, “अच्छा।” उसमें कोई आक्रोश, प्रतिवाद, आवेश, कुछ नहीं था, केवल एक स्थिर स्वीकार। उसने दोनों हाथ उठाकर एक बड़ा वृत्त बनाते हुए फैलाये और फिर नीचे गिरा लिए-न मालूम अँगड़ाई लेते हुए, या उस विस्तीर्ण आकाश को बाँहों में समेटते हुए।

सहसा भुवन ने भर्राये कण्ठ से कहा, “आओ!” रेखा ने मुड़कर देखा, उसका हाथ रेखा की ओर बढ़ा है एक आह्वान में; उसी पुकार को उसने समझा, भुवन के पास घुटने टेकते और झुकते हुए उसने फुसफुसाते स्वर में उत्तर दिया, “आयी, लो”

साक्षी हों सूर्य, और आकाश, और पवन, और तले बिछी घास और चट्टानें, साक्षी हों अन्तरिक्ष के अगणित देवता और अकिंचन वनस्पतियाँ-

लेकिन यह एक सत्य है जो कोई साक्षी नहीं माँगता, सिवाय अपने ही भीतर की निविड़ समर्पण की पीड़ा के, अपने ही में निहित, स्पन्दित और क्रियाशील असंख्य सम्भावनाओं के...

× × ×

साँझ, रात, दूर टुनटुनाती गोधूली की घंटियाँ, शुक्र तारा, तारे, चाँद, लहरियों पर चाँदनी की बिछलन, छोटे-छोटे अभ्र-खण्ड, ठण्डी हवा, सिहरन, ऊँचाई, ऊँचाई के ऊपर आकाश में चुभता-सा पहाड़ का सींग, आकाश...सबका अर्थ है, सब-कुछ का अर्थ है, अभिप्राय है; ठिठुरे हाथ, अवश गरमाई, रोमांच, सिकुड़ते कुचाग्र, कनपटियों का स्पन्दन, उलझी हुई देहों का घाम, कानों में चुनचुनाते रक्त-प्रवाह का संगीत-इन सबका भी अर्थ है, अभिप्राय है, प्रेष्य सन्देश है; नहीं है तो इन सबके योगफल और समन्वय प्रकृति का ही अर्थ नहीं है, अभिप्राय नहीं है, केवल उद्देश्य...

× × ×

क्यों सब-कुछ का अर्थ है-दूसरा, गहरा अर्थ? ऐसा ही रहा, तो और एक-आध दिन में हर स्थान का, हर दृश्य का, हर बात का एक गहनतर, गोपनतम अर्थ हो जाएगा, एक रागात्मक ऐश्वर्य-तब रेखा किसी ओर मुड़ नहीं सकेगी बिना उस अर्थ से अभिसिंचित हुए...भुवन पूछता है, “पहाड़ पर चलोगी?” तो वह सिहर उठती है, “ठण्ड तो नहीं लगती?” तो लजा जाती है, “आओ, बैठें” तो मानो उसके घुटने मोम हो जाते हैं...लेकिन ऐसा रहेगा नहीं, और एक दिन भी नहीं, यह दोपहर ढलेगी तो जो रात होगी, उसके बाद जो सवेरा होगा...

तीसरे पहर फिर घूमने पहाड़ पर जाने की बात थी, शायद उस पार तक, पर दो-पहर की संक्षिप्त नींद से उठकर उन्होंने देखा, बादल का एक बड़ा-सा सफेद साँप झील के एक किनारे से उमड़ कर आ रहा है, और उसकी बेडौल गुँजलक धीरे-धीरे सारी झील पर फैली जा रही है, थोड़ी देर में वह सारी झील पर छाकर बैठ जाएगा, और फिर शायद उसका फन ऊपर पहाड़ की ओर बढ़ेगा-

भुवन ने कहा, “शायद बारिश हो, नहीं जाएँगे।”

तम्बू के सामने के चँदोवे में, नीचे पटरे डालकर उन पर कुछ बिछा कर दोनों बैठ रहे, देखते रहे बादल को धीरे-धीरे झील पर छाते हुए। जब वह घाटी में उमड़ कर आया, तब उसका बड़ा स्पष्ट आकार था, पर झील की सतह को दुलराता हुआ...

“देखते हो, बादल कैसे झील को दुलराता है-”

ओफ़, ये गहनतर अर्थ...रेखा की छाती में गुदगुदी होने लगती है, वह चाहती है कि भुवन का सिर खींच कर वहाँ छिपा ले, भुवन के ओठों को भींच ले कुचों के बीच जहाँ उसने दो दिन पहले पहली बार चूमा था...लेकिन वह निश्चल बैठी है, बिल्कुल निश्चल, भुवन का ही हाथ उसका हाथ खोजता आता है और उस पर टिक जाता है, बहुत धीरे-धीरे उसे दुलराता हुआ...

उसमें अर्थ है, गहनतर अर्थ, उस धीरे-धीरे दुलराते हाथ में...

झील बिल्कुल छिप गयी। केवल एक सफेद धुन्ध की दीवार : कहीं कोई दिशा नहीं, क्षितिज नहीं; दोनों धुन्ध में खो गये, केवल वे दोनों, तम्बू का चँदोवा, और धुन्ध, धुन्ध, व्यापक धुन्ध...

भुवन ने सहसा उदास होकर कहा, “कल-”

रेखा ने सहसा उसे रोक दिया। कल कल, आज क्यों? वह नहीं कहने देगी भुवन को कुछ भी-पर भुवन ने जब फिर कहना चाहा, “कल इस समय-” तो रेखा ने बढ़कर अपने ओठ उसके ओठों पर रख दिये और उसे चुप करा दिया।

बस इतना ही, चँदोवा भी नहीं, धुन्ध में केवल चेहरे, केवल मिली हुई आँखें, ओठ-

× × ×

लेकिन रात को जब भुवन ने बड़े आदर से उसे अपने पास लिटा कर अच्छी तरह उढ़ा दिया, और एक कुहनी पर टिके-टिके धीरे-धीरे उसे थपकने लगा, तब एक बड़ी गहरी उदासी ने उसे पकड़ लिया। भुवन की किसी बात का कोई उत्तर उसने न दिया, उसके पास लेटी, एक शिथिल हाथ उसकी कमर पर डाले, अपलक, शून्य, न देखती हुई दृष्टि से उसकी छाती की ओर देखती रही। भुवन जब बहुत आग्रहपूर्वक पूछता, तो कभी अंग्रेज़ी में, कभी बांग्ला में, कभी हिन्दी में कुछ गुनगुना देती-कभी पद्य, कभी गद्य-अपनी ओर से कुछ न कहती। एक बार भुवन ने कुछ शिकायत के-से स्वर में कहा, “तुम सिर्फ कोटेशन बोल रही हो-अपना कुछ नहीं कहोगी?”

तब उसने खोये-से स्वर में कहा, “अपना? अपना क्या? मैं सिर्फ कोटेशन बोलती हूँ, भुवन, क्योंकि मैं स्मृति में जी रही हूँ।”

भुवन चुप हो गया। धीरे-धीरे रेखा की आविष्ट उदासी उस पर छा गयी, उसने धीरे-धीरे अपना सिर रेखा के माथे पर टेक दिया और निश्चल हो गया। बीच-बीच में वह अनमने हाथ से उसे दो-एक बार थपक देता, या अनमने ओठों से उसकी पलकें छू लेता, बस।

बहुत हल्की-सी बारिश होने लगी। तम्बू पर बूँदों की थाप पहले तीखी पड़ी, पर वह जैसे-जैसे भीगता गया वह थाप भारी होती गयी; थोड़ी देर में एक मन्द्र एक स्वर उनके उदास राग में तानपूरे की संगत करने लगा...

न जाने कब धीरे-धीरे दोनों सो गये। प्रकृति का कोई अर्थ नहीं है, अभिप्राय नहीं है, केवल उद्देश्य; प्राणिमात्र उनके अनुगत हैं।

× × ×

वापसी का रास्ता सदैव बहुत छोटा होता है; विशेषकर जब दुनिया की छत पर से नीचे उतरें : वह उतराई वैसी नहीं होती कि पैर पसार कर, पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण से मानो मुक्त, हवा पर तिर जायें और जाकर उतरें न जाने कहाँ दूर, दूर वायुमण्डल के पार एक श्वासरुद्ध, निरे आलोक की दूसरी दुनिया में; यह उतराई होती है नीचे-मिट्टी की, लोगों के पैरों से रौंदी हुई, धरती पर...

पहलगाँव दीखने लगा, तो रेखा ने धीरे-धीरे, बिना आग्रह के, मानो उसकी बात न भी मानी जाये तो कोई बात नहीं ऐसे कहा, “अभी तो नहीं पहुँचे होंगे-उधर से ऊपर से चलें-”

भुवन तुरत मुड़ गया।

चलने से पहले भुवन ने कहा था, “रेखा, अभी क्या जल्दी है; और दो दिन रह जाओ-मैं कल जाकर सामान लिवा लाऊँ-”

रेखा ने उसकी आँखों में देखा था। नहीं, औपचारिक बात नहीं थी; भुवन सचमुच उसे ठहरने को कह रहा था।

यही ठीक है, यही ठीक है। यहाँ वह विदा लेने नहीं आयी, विदा देने आयी है। भुवन उसे रहने को कहता रहे, सुनते-सुनते ही वह चली जाये। यही ठीक है...उसने सहसा कड़े पड़ कर कहा था, “नहीं भुवन, जाऊँगी। मैंने वचन दिया था।”

चलते हुए वे सीधे रास्ते से नीचे नहीं उतरे थे, पहले ऊपर चढ़े थे-पहाड़ की छत पर-रेखा आगे-आगे। ऊपर पहुँच कर रेखा ने एक बार चारों ओर देखा था, रुक-रुक कर, मानो एक-एक स्थल को दृष्टि में बसाते हुए, स्मृति की गाँठ बाँधते हुए; फिर कहा था, “भुवन, जाने से पहले मैं एक बात कहना चाहती हूँ। आइ एम फुलफ़िल्ड। अब अगर मैं मर जाऊँ तो परमात्मा के-प्रकृति के प्रति यह आक्रोश लेकर नहीं जाऊँगी कि मैंने कोई भी फुलफ़िल्मेन्ट नहीं जाना-कृतज्ञ भाव ही लेकर जाऊँगी-परमात्मा के प्रति और-भुवन, तुम्हारे प्रति।” और हठात् वह भुवन के पैरों की ओर झुक गयी थी और भुवन के चौंकते-चौंकते उसने भुवन के पैरों की धूल ले ली थी।

चुपचाप वे उतरते गये थे। रुद्ध-कण्ठ, स्तब्ध-प्राण, आविष्ट।

फिर सहसा पहलगाँव दीख गया था। रेखा रुक गयी थी; पहलगाँव की ओर ताकते-ताकते ही उसने भुवन का हाथ पकड़ा था और दबा कर छोड़ दिया था।

जिस रास्ते से वे चले, उससे नदी या कि बड़ा पहाड़ी नाला पड़ता था। पुल था, वे पार हो गये। पर पहलगाँव इसी पार था, इस नदी और शेषनाग नदी के संगम पर। फिर भी दोनों उसी पार से धीरे-धीरे नाले के साथ उतरने लगे।

आधा मील आगे जाकर भुवन ने देखा; एक पेड़ का तना नदी के आर-पार पड़ा है। स्पष्ट ही वह पुल का काम देने के लिए डाला गया है, पैदल इस पर आ-जा सकते हैं। भुवन ने पूछा, “इससे पार चलें-सकोगी?”

“अब सब-कुछ सकूँगी, भुवन!” रेखा बोली। भुवन ठीक समझ नहीं सका कि इस का अभिप्राय क्या है : आगे बढ़कर तेज पैरों से तने पर चल चली। मँझधार में जाकर रुकी, नीचे पानी की ओर देखा, और फिर बैठ गयी। भुवन भी कुछ दूर आगे बढ़ कर बैठ गया।

रेखा गाने लगी। उसका गला भर्रा रहा था, स्वर मानो अब टूटा, पर वह चेहरे पर एक मुस्कान लिए गाये जा रही थी, किसी बात का उसे होश नही था, यहाँ तक कि भुवन को लगा, उसकी उपस्थिति की खबर भी रेखा को नहीं है :

तोमा सुरेर धारा झरे जेथाय तारि पारे

देवे कि गो वासा आमाय देवे कि एकटिधारे :

तोमार सुरेर धारा झरे जेथाय तारि पारे।

आमि शुनबो ध्वनि काने आमि भरबो ध्वनि प्राणे

आमि शुनबो ध्वनि

सेइ ध्वनि ते चित्त वीणाय तार बाँधिबो बारे -बारे।

देबे कि गो वासा आमाय देबे कि ...

तोमार सुरेर धारा झरे जेथाय तारि पारे।

देबे कि गो वासा आमाय देबे कि ...

(तुम्हारे स्वर की धारा झरती है जहाँ, वहीं एक किनारे क्या मुझे स्थान दोगे? मैं कान से ध्वनि सुनूँगी, प्राणों में ध्वनि भर लूँगी; उसी ध्वनि से चित्त-वीणा के तार बार-बार बाँधूँगी। -रवीन्द्रनाथ ठाकुर)

मानो दूर, अलग हटाया हुआ, भुवन सोचने लगा। एक अद्भुत भाव उसके मन में उठा। अभी पीछे देखने, सोचने, परखने का सामर्थ्य उसमें नहीं था, इतना ही उसके मन में उठा कि यह उसके जीवन का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण सन्धि-स्थल है...क्या वह भी रेखा की तरह कह सकता है कि, कि अब वह फुलफिल्ड है, कि अब वह मर सकता है? पर फुलफ़िल होना क्या है? एक तन्मयता उसने जानी है, एक अभूतपूर्व तन्मयता; लेकिन स्वयं वह जो जान पाया है उससे कुछ अधिक और कुछ अधिक गहरा रेखा उसके निमित्त से जान सकी है-अधिक गहरा क्योंकि वह स्त्री है, और स्त्री होते हुए भी उसने वह साहस किया है जो शायद भुवन में भी नहीं है; अधिक गहरा इसलिए कि उसे जानने के लिए पहले जाना कितना कुछ भुलाना भी पड़ा है...तो क्या यही फुलफ़िल्मेन्ट नहीं है कि कोई किसी को वह चरम अनुभूति दे सके-देने का निमित्त बन सके-जो जीवन की निरर्थकता को सहसा सार्थक बना देती है? सचमुच, ऐसे सन्धिस्थल पर ही मरना चाहिए, यह कहते हुए कि मैं कुछ दे सका जो मुझ से बड़ा है, मुझ से अच्छा है...अगर वह यहीं से नीचे कूद पड़े-रेखा गाना समाप्त करके मुड़ कर देखे कि वह नहीं है, गुम हो गया है, तो-

लेकिन रेखा ने सहसा गाना बन्द कर दिया। पुकारा “भुवन! भुवन!”

“हाँ।”

“यहाँ आओ।”

भुवन पास सरक आया।

“मेरा हाथ पकड़ो।”

“भुवन ने पकड़ लिया।

“भुवन, तुम वैज्ञानिक हो। लेकिन तुम्हारी आकांक्षा क्या थी-वैज्ञानिक होने की ही, या और कुछ?”

“क्यों?” कहकर भुवन तनिक रुका, फिर जैसे सच बता देने को बाध्य हो, ऐसे बोला, “मेरा स्वप्न था डाक्टर होने का-बहुत बड़ा सर्जन-”

“और मेरा था बीनकार होने का-बहुत बड़ी बीनकार।”

दोनों थोड़ी देर चुप रहे। फिर रेखा ने धीरे-धीरे कहा : “उसे मैं वीणा भी सिखाऊँगी-और वह बड़ा सर्जन भी होगा।”

एक सन्नाटा-नदी के स्वर से स्पन्दित।

थोड़ी देर बाद वह खड़ी हो गयी। भुवन का हाथ पकड़े-पकड़े उसे उठाया, और हाथ पकड़े ही पार हो गयी।

बस्ती के पास भुवन ने पूछा, “पहलगाँव ठहरोगी? मैं चौथे-पाँचवें दिन आऊँगा डाक-वाक देखने-”

“शायद, अभी कुछ सोचा नहीं-”

लेकिन भुवन के कुली जब आ गये, और वह उन्हें आगे चलाकर थोड़ी देर होटल के बरामदे में रेखा के पास खड़ा रहा, और फिर सहसा कुछ भी कहना असम्भव पाकर रेखा के हाथ को जोर से भींचकर, एक कन्धे से उसका आधा आलिंगन करके जल्दी से उससे टूटकर, अलग होकर बिना लौट कर देखे चला गया-रेखा भी बोली नहीं, केवल बेबस हाथ बढ़ाये खड़ी रह गयी-उसके घंटा-भर बाद जब कुली ऊपर से रेखा का सामान लेकर आ पहुँचा, तो वह रुकी नहीं, तत्काल बस में जा बैठी और श्रीनगर के लिए रवाना हो गयी।

× × ×

चौथे-पाँचवें दिन भुवन पहलगाँव आया। सीधा होटल गया। मालूम हुआ कि रेखा वहाँ ठहरी नहीं, उसी दिन चली गयी। फिर वह डाकघर डाक पूछने गया। हाँ, तीन-चार चिट्ठियाँ थीं। उसने ले ली। हाँ, एक बड़े लिफाफे पर रेखा के अक्षर थे। उसने लिफाफा खोला। एक पत्र नहीं था, अलग-अलग कागज़ के कई टुकड़े थे। भुवन ने जहाँ-तहाँ पढ़ा-एक-आध जगह कविता की पंक्तियाँ थीं-

आई सेड टु माइ सोल : बी स्टिल, एण्ड वेट विदाउट होप

फ़ार होप वुड बी होप आफ़ द रांग थिंग , वेट विदाउट लव

फार लव वुड बी लव आफ़ द रांग थिंग , देयर इज़ येट फेथ;

बट द फेथ एण्ड द लव एण्ड द होप आर आल इन द वेटिंग। ...


(मैंने अपनी आत्मा से कहा : स्थिर हो और बिना आशा के प्रतीक्षा कर क्योंकि आशा सत् की आशा होगी ; बिना प्रेम के प्रतीक्षा कर, क्योंकि प्रेम असत् का प्रेम होगा। श्रद्धा फिर भी रह जाती है, किन्तु श्रद्धा और प्रेम और आशा सब प्रतीक्षा में ही हैं।-टी. एस. एलियट)

फिर भुवन ने सब कागज़ जेब में डाल लिए कि तुलियन जाकर एकान्त में पढ़ेगा...”मैं सोचना चाहती हूँ, पर सोच नहीं सकती। ठीक सोचना ही चाहती हूँ, इसमें भी सन्देह हो आता है।

“कुछ महान्, कुछ विराट् घटित हुआ है, ऐसा थोड़ा-सा आभास होता है। लेकिन कहाँ? मुझ में? मैं उस विराट् का वाहन हूँ, माध्यम हूँ-मैं अकिंचन, नगण्य, मैं जो अगर कभी थी भी अब नहीं हूँ! मुझ को? मेरे साथ?

“कुछ स्तब्ध, कहीं निश्चलता, कहीं न जाने, कैसी एक शान्ति”...

“मैं एक खड़ा हुआ पानी थी : एक झील, एक पोखर, एक छोटा ताल, शैवालों से ढँका हुआ। तुम ने आँधी की तरह आकर मुझ को आलोड़ित कर दिया, मुझ में अनन्त आकाश को प्रतिबिम्बित कर दिया। मुझे कहने दो, भुवन, मेरी यह देह जैसे तुम्हारी ओर उमड़ी थी, वैसे कभी नहीं उमड़ी, शिरा-शिरा ने तुम्हारा स्पर्श माँगा, तुम्हारे हाथों का स्पर्श, तुम्हारी बाँहों की जकड़, तुम्हारी देह की उत्तेजित गरमाई...लेकिन-तुम में डर था-डर नहीं, एक दूर का कोई अनुशासन, कोई एक मर्यादा, जिसके स्रोत तक मेरी पहुँच नहीं थी। और जिससे छुआ जाकर मेरा तूफ़ान सहसा शान्त हो गया, मैं फिर उसी तल पर पहुँच गयी जिस तल पर ताल सदा से था-ढँका हुआ निश्चल, खड़े पानी का एक उद्देश्यहीन जमाव-

“लेकिन नहीं। यह ढँका नहीं, आकाश का प्रतिबिम्ब उसमें रहा; फिर तुम ने फिर मुझे जगा दिया-क्षण-भर के लिए, लेकिन पहचान के क्षण के लिए, अनन्य-सम्पृक्त एक क्षण के लिए-भुवन, मैं तुम्हारी हूँ, तुम्हारी हूँ, तुम्हारी हूँ...”

“न, मैं कुछ माँगूँगी नहीं। तुम्हारे जीवन की बाधा नहीं बनूँगी, भुवन, उलझन भी नहीं बनूँगी। सुन्दर से डरो मत-कभी मत डरना-न डरकर ही सुन्दर से सुन्दरतर की ओर बढ़ते हैं।

“लेकिन भुवन, मुझे अगर तुम ने प्यार किया है, तो प्यार करते रहना-मेरी यह कुंठित, बुझी हुई आत्मा स्नेह की गरमाई चाहती है कि फिर अपना आकार पा सके, सुन्दर मुक्त, ऊर्ध्वाकांक्षी...”

“सोचती हूँ, जीवन के हर मोड़ पर मुझे स्नेह मिला है, करुणा मिली है, साहाय्य मिला है। इतनी करुणा, इतनी अनुकम्पा, इतनी भलाई-कभी मैं अपने ऊपर खीझ उठती हूँ कि मुझ में क्यों नहीं एक प्रतिस्फूर्ति जागती-क्यों मैं ऐसी अचल अचेतन हूँ? कृतज्ञता-हाँ, कृतज्ञता बहुत है, पर कृतज्ञता जीवन को सच नहीं बनाती, प्यार सच बनाता है; क्योंकि कृतज्ञता में व्यथा नहीं है, और बिना व्यथा के सत्य नहीं है, कितनी सच बात कही थी तुमने हमारे पहले विवादों में-आज व्यथा में मैं उस सच को जानती हूँ, भुवन! पर क्यों सब कुछ अयथार्थ है, क्यों कुछ भी मुझे नहीं छूता? तुम भी, भुवन,-तुमसे मैंने पूछा था कि तुम यथार्थ हो? क्योंकि मैं जागी थी और एक बड़ी विमूढ़ता मुझ पर थी-एक समर्पण मेरे भीतर रो रहा था पर अयथार्थ को मैं समर्पण करना नहीं चाहती थी...वह डर...अयथार्थ को समर्पण करने का डर क्या होता है भुवन, तुम जानते हो? न, तुम कभी न जानो वह डर...

“लेकिन उस शाप से मैं मुक्ति पा सकी, भुवन, थोड़ी देर के लिए ही, चाहे बीच-बीच में कुछ क्षणों के लिए ही, मैंने पहचाना कि तुम हो, सचमुच हो, कि तुम्हीं को मैंने समर्पण किया है।”

“मेरी यह सोयी अवस्था फिर से लौट आयी है, पर वैसी जड़ नहीं-मैं मानो स्वप्नाविष्ट हूँ। स्वप्न में चलती हूँ, खाती-पीती हूँ, काम करती हूँ, और करूँगी।”

“भविष्य मैं अब भी नहीं मानती। तुम्हारे मन, हृदय, आत्मा की बात मैं नहीं जानती; नहीं जानती कि मेरे तुम्हारे जीवन में आने का क्या अर्थ या महत्त्व है। यह भी नहीं जानती कि तुम्हारे जीवन में आयी हूँ कि नहीं। लेकिन पूछूँगी भी नहीं। साल-भर पहले-अभी कुछ महीने पहले तक भी-हम राह पर इस तरह मिलते-मिलने की सम्भावना भी होती-तो मैं उस मिलने का भविष्य जानना चाहती। जानना चाहना ही स्वाभाविक होता। पर अब मैं अपने को अंकुश देती हूँ कि पूछूँ, पर प्रश्न मेरी जीभ पर नहीं आता-मेरे मन में ही ठीक आकार नहीं लेता, कि स्वयं अपने से भी पूछ सकूँ। फुलफ़िल्ड : शान्त स्तब्ध, निर्वाक, मैं बस हूँ; कोई प्रश्न मेरे भीतर नहीं उठते और भविष्य से मैं कुछ पूछना नहीं चाहती।

“मैंने बार-बार कहा है कि भविष्य नहीं है, केवल वर्तमान का प्रस्फुटन है, उसी की अनिवार्य अन्तःसम्भावनाओं का स्फुरण : अब मैं यह अनुभव करती हूँ। पहले मानती थी, अब उसकी तीखी अनुभूति टीस-सी मेरे अन्तर में स्पन्दित हो रही है। वह सच है, और मैं उसके आगे झुकती हूँ...

“जब तक जो है, उसे सुन्दर होने दो भुवन; जब वह न हो, तो उसका न होना भी सुन्दर है...”

“एक कविता तुम्हारे लिए रख रही हूँ, नाम है, 'छतरी' :

वर्स दैन दोज़ ड्रीम्स इन ह्विच द अर्थ गिव्ज़ वे

आइ एम अवेक एण्ड वाक आन सालिड स्टोन ,

विदाउट यू डिसेम्बाडीड , एवरी डे

अगेंस्ट द ईस्ट विंड गोइंग होम एलोन।

इन ड्रीम्स आफ़ फ़ालिंग देयर इज़ ओनली ड्रेड ;

फ़ाल्स एण्ड , ड्रीम्स फ़ेल, नाइट फ़ाल्स, नाइटमेयर रिमेन्स;

ए गोस्ट आफ़ फ्लेश एण्ड ब्लड , आइ मस्ट बी फ़ेड

मस्ट ओपेन एन अम्ब्रेला ह्वेर इट रेन्स।

ह्वेर विल इट आल एण्ड ? विल इट एण्ड एट आल?

हाइ द विंड राइजेज़ , कोल्ड द रेन विल फ़ाल,

बट इफ़ द सन शोन इट वुड ओनली शाइन

आन अनरीएल सीन्स एण्ड ग्रीफ़ ऐज़ रीएल ऐज़ माइन :

अगेंस्ट द नाइट विंड गोज़ ए लिविंग गोस्ट ,

रीअल , फार इट लब्ज़, एण्ड लैक्स ह्वट इट लब्ज़ मोस्ट।

(उन स्वप्नों से भी भयानक जिनमें पैरों के नीचे धरती खिसक जाती है, मैं जागती हूँ, ठोस पत्थर पर चलती हूँ; तुम्हारे बिना विदेह, प्रतिदिन ठण्डी पूर्वी हवा के सम्मुख अकेली घर की ओर जाती हुई। गिरने के स्वप्नों में केवल डर होता है, गिरना समाप्त हो जाता है, स्वप्न चुक जाते हैं, रात आती है और रात का डर उभर आता है। मैं रक्त-माँस युक्त प्रेत हूँ जिसे भोजन भी करना होता है और वर्षा में छाता भी खोलना होता है।

इसका अन्त कहाँ है? अन्त है भी? हवा तीखी होती जाती है, वर्षा और ठण्डी हो जाएगी, किन्तु सूर्य निकलता भी तो उसकी धूप पड़ती केवल अयथार्थ दृश्यों पर और मेरे यथार्थ दुःख पर।

रात की सनसनाती हवा के सम्मुख जा रहा है एक जीवित प्रेत-यथार्थ, क्योंकि वह प्रेम करता है, और जिसे प्रेम करता है उसे पा नहीं सकता!)

“तुमने मुझे एक बार भी नहीं बताया कि मेरे लिए तुम्हारे हृदय में क्या भाव है। प्रेम, स्नेह, दया, समवेदना, करुणा, क्या? या कि केवल मेरे दुःख ने एक प्रतिध्वनि तुममें जगा दी, बस? क्यों तुमने मुझे अपने इतने निकट लिया?

“या कि मैं केवल एक धृष्णु साहसिका हूँ, जो अनधिकार तुम्हारे जीवन में घुस आयी? या...

“यही एक ही प्रश्न मैं तुमसे पूछना चाहती थी, भुवन, आगे-पीछे कुछ नहीं, केवल यही एक बात : और इसके लिए साहस नहीं बटोर पायी। तुम्हारे सामने न जाने क्यों एक संकोच जकड़ लेता है...”

“मैं उदास हो गयी थी, तुम भी उदास हो गये थे। तुम्हें उदास करना मैं नहीं चाहती थी। तुम्हें उदास देखना कभी नहीं चाहती...स्वभाव में मैं वैसी नहीं हूँ; तुम ने मुझे उदास, दुःखी, प्रतिमुखी, अवरुद्ध ही जाना है-सहा है, मेरे भुवन, बड़ी करुणा और स्नेह के साथ सहा है-पर मैं वैसी नहीं हूँ। मैं हँसती थी। पथ-तट के एक उपेक्षित फूल को देख मैं विभोर हो सकती थी, लहरों के साथ दौड़ सकती थी, और नदी की हवा के साथ मेरा मन उड़ जाता था हँसते सुनहले पंख फैलाकर, अन्तरिक्ष को मेरी हँसी से गुँजाता हुआ...

“लेकिन भुवन, धीरे-धीरे वह हँसी मरती गयी। मैं कहते लज्जित हूँ; पर वर्षों से वह मरती रही है, धीरे-धीरे।

ड्राप बाइ ड्राप स्लोली , ड्राप बाइ ड्राप आफ़ फ़ायर : एलास माइ रोज़ आफ़ लाइफ़ गान आल टु प्रिक्ल्स ...

(बूँद-बूँद धीरे-धीरे आग-सा-मेरे जीवन का गुलाब काँटा-ही-काँटा रह गया।-क्रिस्टिना रोजे॓टी)

“तुमने मुझे फिर वह हँसी दी। थोड़ी देर के लिए : लेकिन वही, सच्ची, मुक्त।”

“अब लगता है, क्या हुआ उसका? अकारण, निराधार हँसी, निष्परिणाम हँसी...

“लेकिन सच्ची हँसी तो स्वतःप्रमाण है, स्वयम्भू, निष्परिणाम...”