भूगोल की कला / अखिलेश

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जन्म उ.प्र. के सुल्तानपुर जनपद के कादीपुर कस्बे में हुआ था। पाँचवी कक्षा तक यहीं मेरा ठिकाना था। आज भी मेरे मष्तिष्क में बसी सबसे शांत मंथर आत्मीय यादें उन्हीं दिनों की हैं। वहाँ छोटा सा घर था। एक कमरा, बरामदा फिर एक मड़ैया या, बड़ा सा आँगन और आँगन में अमरूद का पेड़ था। अमरूद का पेड़ एक सरल उदास बूढ़ी गाय की तरह सदैव खड़ा रहता था। वह हमें छाँह देता था, फल देता था और अपनी शाखों पर झूला डालने की इजाजत देता था। थोड़ी दूर पर तहसील थी जहाँ मेरे मेरा पिता कर्मचारी थे। माँ घर में गृहस्थी सँभालती और हम दो भाई एक बहन को अपनी ममता से सराबोर करती रहती। हम निम्न मध्यवर्ग में थे और उन दिनों इस तबके के लोगों में ख्वाहिशों की ऊँची उड़ान नहीं थी। भविष्य को लेकर दीर्घसूत्री योजनाएँ और कामनाएँ नहीं थीं। ईश्वर के दरबार में मेरे पिता की जो अर्जियाँ लगी थीं उनमें यही था कि बेटे इंटर तक पढ़ लें और उसी तहसील में नौकरी करने लगें। बेटी जितना पढ़ना चाहे पढ़े फिर अच्छी शादी हो जाए। स्वयं अपने को लेकर भी उनके खास ख्वाब नहीं थे। न जमीन खरीदनी थी न मकान बनाना था। सेवानिवृत्ति के बाद गाँव जाकर जिंदगी गुजारनी थी। वे दिन थे, हमारे जैसे घरों में न अखबार आता था न रेडियो था न पंखा था। मेरे घर तो इस्तरी करने के लिए प्रेस भी न था जिसको तब हम लोहा कहते थे। हम अधिकतर बगैर इस्तरी किए कपड़े पहना करते। विशेष अवसर पर लोटा में दहकते हुए कोयले डालकर उसकी पेंदी गर्म होने पर उसे कपड़े पर घुमाते थे। इस तरह हम कपड़े की सिकुड़नें दूर करके उसे बढ़िया बना लेते थे।

कादीपुर कस्बे में एक इंटर कॉलेज था, उससे आगे उच्च शिक्षा की पढ़ाई के लिए बाहर सुल्तानपुर इलाहाबाद लखनऊ जाना होता था जिसकी हमारे घर के आर्थिक ढाँचे में कोई गुंजाइश न थी। इस तरह भरपूर चाकचौबंद व्यवस्था थी कि घर में कोई लेखक न बन सके। वैसे भी हमारी सात पुश्तों में साहित्य की कोई परंपरा नहीं थी और जाहिर है कि हमारे वर्तमान में भी इसके लिए संभावनाएँ नहीं थीं। लेकिन संसार एक तरह से चलता है तो संसार दूसरी तरह से भी चलता है। ठीक है कि बचपन के मेरे परिवेश में साहित्य की किताबें नहीं थीं, बच्चों के लिए अच्छी पत्रिकाएँ और पोथियाँ नहीं थीं, कोई प्रेरक या मार्गदर्शक नहीं था किंतु बहुत कुछ इनके अलावा होता है जो असर डालता है। कुदरत के बहुतेरे रंग गंध ध्वनियाँ, छवियाँ तथा इनसानी इल्म से तैयार नियामतों का संयोजन और कादीपुर का संसार मुझ पर छाप छोड़ रहे थे। मेरे घर की बगल में एक रामलीला वाली बाग थी जहाँ रामलीला हुआ करती थी। नौटंकी भी होती जिसमें दहीवाली, भक्त पूरनमल, अमर सिंह राठौर जैसे ड्रामा होते। नौटंकी हो या रामलीला, शुरू होने के पहले ही मैं बाग में पहुँच कर जगह छेका लेता था। एक दूसरी बाग भी थी जहाँ साल दो साल में कोई बड़ी नौटंकी कंपनी आती थी। एक बार मथुरा की कोई नामी कंपनी थी जिसमे स्त्री पात्रों का अभिनय पुरुष नहीं स्त्रियाँ खुद करती थीं। इसमे मैंने सुल्ताना डाकू और गंगा जमुना खेला देखा था। 15 अगस्त, 26 जनवरी, 2 अक्टूबर को मैं अपने बड़े भाई के नेशनल इंटर कॉलेज वहाँ के सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने चला जाता था जिसमे मेरे गाँव के दुबले पतले युवा देवी प्रसाद त्रिपाठी जी महात्मा गांधी बनते। देवी प्रसाद जी बाद में जे एन यू छात्र संघ के अध्यक्ष, प्रखर वक्ता, विद्वान हुए और आजकल सांसद हैं। सांस्कृतिक कार्यक्रमों से बाहर जब भी मैं त्रिपाठी जी को देखता, चाय की दुकान पर देखता और सिगरेट फूँकते हुए देखता था। यह बहुत अनोखा था उन दिनों कि इंटर का विद्यार्थी दुकान पर चाय पीता है और सिगरेट धौंकता है। त्रिपाठी जी एक बार कुछ छात्रों के साथ किसी राजनीतिक सभा पर पथराव करने की वजह से भी चर्चा में आए थे। वह राजनीतिक सभा रामलीला वाली बाग में ही हुई थी। यहीं मैंने बाबू जगजीवन राम को भी एक सभा में देखा था और चौधरी चरण सिंह को देखा था जब कि श्रीमती इंदिरा गांधी को मिडिल स्कूल के मैदान में। बाग में रामलीला और राजनीतिक सभाएँ ही नहीं होती थीं वहाँ दशहरे का मेला भी लगता। रावण-मेघनाथ दहन होता था। कभी कभी आल्हा का आयोजन किया जाता, खटिया पर बैठे गायक एक हथेली कान पर रखकर दूसरी हवा में उठाते हुए तान छेड़ते थे और बहुत जल्द श्रोता वीर रस में भीग उठते।

बाग की बात अपनी जगह, दरअसल वह पूरा वक्त ही मुझ पर बिंबों, रंगों, स्वाद की बारिश कर रहा था। तब मष्तिष्क और ह्रदय सादा, ग्रहणशील और व्यापक थे। मुहर्रम के जुलूस के ताजिये अपनी तरफ खींचते तो गाजी मियाँ की बारात में हम जत्थे के पीछे पीछे लग जाते। बाइस्कोप में आँखें घुसाकर आगरे का ताजमहल, दिल्ली का लालकिला और नौ मन की धोबन देखा करते। यदा कदा दो पैसे की एक आइसक्रीम लेकर चूसते हुए अपने होठों को लाल कर डालते। साल में कभी जब रात में झाँकियाँ निकलतीं, उन्हें देखने की खातिर लोग घरों से निकलकर सड़क पर आ जाते। घूमता हुआ लट्टू, नाचता हुआ भालू बंदर, एक स्थान पर उछलकर दूसरी जगह बैठ जाता मेढक, अपनी ठंडक तजकर खौल उठता पानी, टिकोरे का आम में बदल जाना, हरे फल का पीला लाल बन जाना, आँधी का चलना, पानी का बरसना, आरा मशीन का लकड़ी के बड़े बड़े कुंदे चीर देना, धुनिया का रुई धुनना, हारमोनियम ढोल मजीरे का संगीतमय बजना, पत्तियाँ फूल परिंदे... इनसान को छोड़कर सब कुछ में उन दिनों रहस्य, सौंदर्य और कौतुक था। सब कुछ आहिस्ता, तेज या बहुत तेज या काफी धीमे आकर मुझमें बसकर अमिट हो जा रहा था। मैं सीख रहा था : संसार में हर चीज हर शै अनोखा है। साईकिल का घूमता हुआ पहिया, बैलगाड़ी इक्का का चक्का या हवाई जहाज सभी की गतियाँ आकर्षक हैं। सभी रंग और रंगों का मिलाप दिलकश होता है। पपीहा कोयल की बोली, बिल्ली की म्याऊँ, बादल की गर्जना, बच्चे का सिसकना - प्रत्येक ध्वनि में संगीत निवास करता है।

हमारे घर के पीछे सड़क थी। सड़क के किनारे एक मकान में बैद्यनाथ आयुर्वैदिक दवाओं की दुकान थी। एक रोज मैंने देखा : उस दुकान की एक बड़ी सी दीवार को नीले रंग से पेंट किया जा रहा है फिर उस पर दूसरे रंगों से अक्षर लिखे जा रहे हैं और कुछ विविधरंगी चित्र रचे जा रहे हैं। इसी प्रकार तहसील की ज्यादा बड़ी दीवार रंगी गई जिसकी विषयवस्तु थी : हम दो हमारे दो। तीसरी ब्लाक कार्यालय की दीवार भी रंगीन हुई। पूरे कस्बे में केवल यही तीन जगहें चटख थीं और मुझ पर असर डाल रही थीं। इनसान के बनाए रंगों का ऐसा गहरा प्रभाव मुझ पर छोड़ने का यह पहला वाकया था। रंगों की लीला की गिरफ्त में था मैं। लेकिन अब सोचता हूँ : वह पहला वाकया कतई नहीं था। उन तीन दीवारों के अतिरिक्त समूचा कादीपुर फीका, उदास, धूसर, मटमैला था। ये प्राकृतिक रंग नहीं थे ये मनुष्यों की हरकत से उपजे रंग बदरंग थे और धीरे धीरे मंथर गति से मेरे अंदर उतर गए थे, ये इतने पक्के थे कि आज भी मेरे मन की स्लेट पर अखंडित मौजूद हैं।

कादीपुर में रहते हुए हम लंबी छुट्टियों में, विशेष रूप से गर्मी की छुट्टियों में, गाँव जाते। हमारे गाँव का नाम मलिकपुर है जो कादीपुर से 6 मील की दूरी पर है। हालाँकि अब गाँव जाना बहुत कम हो गया है लेकिन वह मेरे अंदर ऐसा सुदृढ़ है कि जब मैं गाँव के विषय में पढ़ता हूँ, गाँव पर केंद्रित कोई लेख अथवा विश्लेषण देखता हूँ या प्रेमचंद रेणु, बशीर, पन्नालाल पटेल या पोट्टेकाट को पढ़ता हूँ तो इन महान कथाकारों के गाँव के समानांतर मलिकपुर को भी महसूस करता चलता हूँ। यही हाल कादीपुर का : धरती पर कहीं भी स्थित कस्बे का जिक्र हो कादीपुर चमक उठता है। दूसरी तरह से भी कहूँ : जब भी अपनी रचनाओं में मैं गाँव या कस्बा रचता हूँ तो उसकी नींव में मलिकपुर कादीपुर की ईंट अवश्य लगी होती है। मेरे जैसे मामूली की बात छोड़िए, वाल्मीकि तुलसीदास ने जब लंका चित्रित किया होगा या जायसी ने सिंहलद्वीप, निश्चय ही इन काल्पनिक जगहों के रूपवर्णन की पृष्ठभूमि में उनके अपने अनुभवक्षेत्र का कोई अतिपरिचित इलाका अवश्य रहा होगा।

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आइए आपको अपनी साहित्य संबंधी रंग-बिरंगी मूर्खताओं की दुनिया की सैर कराता हूँ। इस सफर की शुरुआत काफी मुश्किल है क्योंकि आरंभ के लिए जैसे ही एक मूर्खता को छूता हूँ, असंख्य सिर उठाकर चिल्लाने लगती हैं : मैं भी हूँ... मैं भी हूँ। जैसा कि रिवाज है : लेखकों कलाकारों शायरों से पूछा जाता है कि वे यह बने कैसे? जवाब में कभी गर्दिश कभी बेवफाई कभी इश्क कभी जुदाई वगैरह बताया जाता रहा है। जबकि मेरा उत्तर होगा - मूर्खता! हाँ मूर्खता ने मुझे लिखने के लिए प्रेरित किया...।

उन दिनों मैं कक्षा 8 का छात्र था और मेरी एक बुआ के बेटे कक्षा 9 के। उनका नाम भी अखिलेश था। 9 के अखिलेश ने 8 वाले से कहा - इस हफ्ते दशहरे की छुट्टियाँ हैं, चलो दशहरे पर कविता लिखी जाए। किंतु उस रोज के बाद उनका जो चंद सप्ताहों का कविजीवन निर्मित हुआ वह अमूमन निम्नलिखित किस्म की शायरी से समृद्ध था -

कदम तुम जो रखती हो कमर बल खा ही जाती है खुदा जब हुस्न देता है नजाकत आ ही जाती है

फिलहाल 8 का मैं काव्य रचना की उपरोक्त राह का पथिक नहीं हुआ और मैंने सचमुच एक कविता लिख डाली, वह कुछ इस भाँति थी : दशहरे का त्यौहार बहुत ही पावन मंगलमय है... बाद में इसी कविता में दशहरे की जगह कभी दीपावली, कभी होली, कभी रक्षाबंधन रखकर उसे अनेक बार प्रस्तुत किया गया। इस कविता से मेरा हौसला इतना बढ़ गया कि मैंने सुल्तानपुर के राजकीय इंटर कॉलेज के मंच से गणतंत्र दिवस पर बाकायदा स्वरचित कविता का पाठ किया : गणतंत्र दिवस है पुकार रहा ओ बापू फिर से आ जा! बताने में हर्ज नहीं, आगामी 15 अगस्त को स्थानीय आर्यसमाज मंदिर में मैंने सुनाया : स्वतंत्रता दिवस है पुकार रहा ओ बापू फिर से आ जा ! मेरी काव्य प्रतिभा से वहाँ उपस्थित तत्कालीन सुप्रसिद्ध स्थानीय कवि श्री दूधनाथ शुक्ल “करुण” जी ने मुझे दो रुपये का पुरस्कार दे डाला। इस सम्मान से मैं इतना अभिभूत हुआ कि सड़क पर बड़े भाई के दिखने पर मैंने दौड़कर उनके पैर छू लिए। उन्होंने सोचा होगा कि छोटा भाई पगला गया है क्या, इसीलिए उनके स्वर में चिंता थी - क्या हुआ ?

- मुझे कवितापाठ के कारण करुण जी ने दो रुपये का पुरस्कार दिया है।

उनकी फिक्र खत्म हुई - अच्छा ठीक है तब।

इन सफलताओं के बावजूद मैं जल्द ही कविता से अधिक गद्य की और उन्मुख हो गया।

सोचने पर लगता है कि गद्य बचपन से मुझे आकर्षित करता था। मुझे गानों गीतों की तुलना में कहानियाँ, चुटकुले, गप्पें, लंतरानियाँ, चुगली, निंदा आदि गद्यरूप अधिक प्रिय थे। पद्य के प्रति कम लगाव का कारण यह भी हो सकता है कि मेरे घर क्या मेरे पूरे खानदान में किसी के गले में सुर नहीं था। यह दीगर बात है कि मेरे कुल में एक दो ऐसे बेसुरे भी हुए हैं जो अपने को सुर सम्राट से कमतर नहीं समझते थे। पुरुष तो पुरुष कुछ स्त्रियों में भी यह रोग था और उत्सव पर्व के मौकों पर होने वाले समूह गायन में वे सगर्व हिस्सेदारी करतीं। मैं निष्पक्षता से कह रहा हूँ कि अपने बेसुरेपन के कारण उनकी आवाज अलग से पहचान में आ जाती थी। वे स्वर को मधुर बनाने के लिए गले को बैठाकर आवाज को पतली करतीं। मेरी माँ ऐसी न थी, वह अपनी आवाज के चरित्र से वाकिफ थी अतः एकल गायन नहीं करती थी। खैर ये अलग बातें हैं, वास्तविक चीज है कि मुझको पद्य की तुलना में गद्य ज्यादा प्रिय था।

बचपन में पिता माँ नाना नानी सभी मुझे गीत नहीं कहानियाँ ही सुनाते थे। माँ की कहानियों की बुनियाद में दुख रहता था जो सुखांत में परिणत हो जाता। मुसीबतों की मारी युवती... कोई अनाथ संतान... या गरीबी की बेरहम मार सह रहा एक परिवार... लेकिन अंततः सुख में रूपांतरण। भाग्य अथवा किसी मनुष्येतर शक्ति की मेहरबानी से समस्त कष्ट खत्म हो जाते थे और जिंदगी की झोली में नियामतें गिरने लगतीं। मेरी माँ की जिंदगी में भी दुख थे। वह गीली लकड़ियों से तमाम मेहमानों के लिए खाना बनते हुए सुलगती रहती जबकि उसमे अच्छी गृहस्थी के स्वप्न और इच्छाएँ थीं। हालाँकि पिता भी तंगी, संघर्षों और विपरीतताओं की चपेट में थे किंतु उनके किस्से दुखमय नहीं मजाकिया रहते, शायद वह मुसीबतों का मजाक बनाकर मुसीबतों से भिड़ते थे। वह दैत्यों देवताओं की कहानियाँ सुनाते या गरीबी की तो उनमें हँसोड़गीरी रहती। महसूस होता है : माँ और पिता दोनों ही अपने अपने ढंग से समस्याओं का मुकाबला कर रहे थे। माँ का शस्त्र रुलाई था पिता का हास्य।

गाँव में एक चचेरे बाबा थे और शहर सुल्तानपुर में ताई थीं। दोनों हकीकत का दावा करते हुए ऐसे वृत्तांत कहते जिन्हें गल्प से अधिक हैरतंगेज तथा कुतूहलधर्मी कहा जा सकता है। दोनों भूत प्रेत चुड़ैल की सत्यकथाओं का वर्णन करते। बाबा का कहना था कि गाँव में जो बड़का तालाब है उसमें से प्रतिदिन रात को सोने चाँदी से भरे घड़े लिए हुए भूत निकलते हैं। उनका एक किस्सा भूतों की नौटंकी के बारे में होता जिसके अनुसार गाँव में खसहड़ के पास रात को भूत नौटंकी खेलते हैं। इन बाबा की पत्नी यानी मेरी छोटकी दादी की बतकही अधिक यथार्थवादी रहती : मैं बाग से गुजर रही थी। देखा कि सफेद साड़ी पहने एक ठो चुरैल बैठी है। मैंने कहा - कौन हाँ है रे? बोल काहे नहीं रही है? फिर पूछा कि कौन हे रे, बोल कहे नहीं रही है? वह वैसे ही चुपचाप सन्नमन्न बैठी रही। तब हम उठा के ढेला फेंक के मारे उसको - बुजरी चुरैल है क्या! तब ससुरी खुरखुर करती हुई भागी और पलभर में गायब हो गई। साफ साफ उसके उलटे पैर दीख रहे थे।

ताई उर्फ बड़की अम्मा के पास अपने मायके कानपुर के किस्से थे जिन्हें वह अपनी देवरानी उर्फ मेरी माँ को सुनातीं : दुलहिन कानपुर में एक से बढ़कर एक भूत पिशाच जिन्नात रहते हैं। एक बार हम लोग कानपुर के रेलवे स्टेशन पर बहुत रात में पहुँचे। घर जाने के लिए ताँगा किए। चला रात में ताँगा, घोड़ा टपटप दौड़ रहा था और ताँगेवान उसकी पीठ पर चाबुक चलाए जा रहा था - छपाक छपाक! घोड़ा और तेज दौड़ा। जब हम घर पहुँचे और ताँगेवाले को भाड़ा का पैसा देने लगे तो यह क्या... ताँगेवाला की हथेली उल्टी थी... पैर भी उल्टे... घबड़ाकर उसका चेहरा देखे... आँख कान नाक कुछ नहीं, पूरा चेहरा सपाट। मगर वह निहायत शरीफ जिन्नात था, जाते जाते बोला - इतनी रात को सफर न किया करें, शहर में ढेर सारी आत्माएँ भटकती हैं। बाबा ताई माँ पिता ही नहीं अनेक थे किस्सों कहानियों का पिटारा रखने वाले। किसी के पास पहलवानों के, किसी के पास गुंडों डकैतों के, जादूगरों जादूगरनियों के, किसी के पास पड़ोसियों की कथाएँ थीं। कहने का आशय कि हर इनसान में किस्सागो होता है और हम सभी का बचपन ऐसे कथाकारों से जगमग रहता है किंतु जैसे ही हम बड़े होते हैं, किताबें पढ़ने लगते हैं, धारावाहिकों, प्रबंधकाव्यों, इंटरनेट आदि की पहुँच में चले जाते हैं या वे हमारी पहुँच में चले आते हैं : हमारे बचपन के अफसानानिगार हमसे दूर होते जाते हैं। लेकिन अगर कोई बड़ा होने पर कथाकार बन गया... कहानियाँ उपन्यास लिखने लगा तब छुटपन के वे किस्सागो लौटकर उसकी आत्मा में उतर आते हैं। मैं आज अपनी लिखी हुई चीजों के बारे में सोचने पर पाता हूँ कि उनके रचयिता की जो शैली है, भाषा है, जर्रा सी जो भी खासियत है उनकी निर्मिति अकेले उसकी नहीं, उसमें बचपन के तमाम किस्सागो लोगों की छाप है। किसी कथाकार की प्रसिद्धि में तमाम अनाम गुमनाम लोगों का हुनर सम्मिलित रहता है।

जैसाकि पहले मैंने बताया था कि मैं कक्षा 8 में ही कवि बन गया था, अब उसके बाद की कुछ चीजें उद्घाटित करना चाहता हूँ।

मैं कक्षा 9 में विज्ञान का विद्यार्थी हो चुका था मगर हिंदी अनिवार्य विषय के रूप में साथ में थी और हिंदी की पाठ्यपुस्तक के रूप में प्रेमचंद की श्रेष्ठ कहानियाँ किताब हाथ में थी। किसी भी प्रकार के मुद्रित साहित्यिक ग्रंथ से यह मेरा पहला संपर्क था। बेशक उन कहानियों ने गहरा असर डाला था और वैसी तमाम कहानियाँ मैं पढ़ना चाहता था पर मेरा दुर्भाग्य कि उस तरह का अन्य साहित्य मेरे पास नहीं था। वह कहाँ मिलेगा? वह कहाँ है? कोई बताने वाला न था। इसलिए मैं उपन्यास पढ़ने लगा। कहना होगा कि जासूसी और रोमांटिक उपन्यासों के संसार में मेरा स्वागत हो चुका था। मेरे बड़े मामा जासूसी उपन्यासों के घनघोर पाठक थे। मैंने उनको जब भी देखा जासूसी उपन्यासों में नजरें गड़ाए देखा। इस चस्के के कारण अक्सर उनकी बस छूट जाती थी या सामान चोरी हो जाता था। वह उस समय की मशहूर बालक छाप बीड़ी फूँकते रहते थे और इब्ने शफी बी.ए., कर्नल रंजीत, ओम प्रकाश शर्मा की कृतियों के पन्ने पलटते रहते थे। उनके एक दोस्त थे शिवप्रसाद जो गुलशन नंदा, रानू, प्रेम बाजपेयी आदि के भावुक उपन्यासों के दीवाने थे जिनको कुछ ऐसी शैली में लिखा जाता : उसकी आँखें डबडबा आईं... आवाज काँपने लगी... उसने थरथराते हुए कहा - मेरे सरताज तुमने आज मेरे दिल के टुकड़े टुकड़े कर दिए...। जब मेरे मामा का जासूसी साहित्य का खजाना खाली हो जाता तो वह अपने मित्र शिवप्रसाद के भंडार से काम चलाते और इस प्रकार उस समय मेरे जीवन में उक्त दोनों ही तरह की रचनाओं की पर्याप्त उपलब्धता थी। अतः मैं अपने घरवालों की इच्छानुसार डॉक्टर इंजीनियर बनने की जगह एक धोखा खाया बरबाद आशिक और उच्चकोटि का गुप्तचर बनने की ख्वाहिश करने लगा था। इन सबसे मैं बच सका क्योंकि मेरे ऊपर अल्लाह की मेहरबानी थी और मेरे शहर सुल्तानपुर में मेहता पुस्तकालय था।

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हमारा परिवार जब कादीपुर से सुल्तानपुर स्थानांतरित हुआ मैं पाँच की परीक्षा पास कर चुका था। सुल्तानपुर में जहाँ हम रहने आए वह भिन्नताओं वाले भारतीय समाज का जैसे एक लघु रूप था। हमारे एक बाजू में किसी व्यवसायी का घर था, दूसरे में चौका बासन करने वाली महिला का परिवार रहता था जिसके बगल में एक मुसलमान कुनबा था जहाँ पतंगें और लिफाफे बनाना बेचना रोजी था। सामने ऊपर के माले पर वकील साहब किरायेदार थे नीचे सेठ खुद रहते थे। सेठ की सेठानी मुझे उस वक्त की प्रसिद्ध अभिनेत्री मुमताज की तरह लगतीं। सेठानी के पड़ोस में जो घर था उसमें न जाने कौन कौन रहता था : एक मजदूर एक रिक्शावाला एक सँपेरा एक भालू का नाच दिखाने वाला। इसी तरह वह पूरी गली अलग अलग ढंग के लोगों से गुलजार थी। हम ऊपर की मंजिल पर रहते थे, नीचे मकानमालिक बचऊ सपरिवार रहते हुए टाइपिंग सिखाने का स्कूल चलाते। दिन भर टाइप मशीनों की खटरपटर होती रहती। बचऊ बहुत शराब पीते थे। वह शाम होते ही टाइपिंग स्कूल बंद करके पीने निकाल जाते और देर रात धुत लड़खड़ाते हुए लौटते तब उनकी पत्नी चूल्हे की लुकाठी हाथ में लिए चिल्लाती हुई क्रोध में काफी रात तक लड़ने के लिए तैयार मिलतीं। अतः बचऊ अर्द्धरात्रि के बाद ही सो पाते थे और सुबह सूर्य उग जाने के काफी उपरांत तक सोते। यह परिवेश मेरे लिए बेहद मुफीद रहा क्योंकि इसके जरिये मैं बहुस्तरीय सामाजिक जीवन से रूबरू था, साथ ही मैं प्रत्यक्ष जीवन से इतर विशाल दुनिया के सानिध्य में आ रहा था - मैं अखबार के सम्मुख था। तब अखबार की आमद मध्यवर्गीय घरों में आम नहीं थी। हमारे यहाँ भी वह नहीं मँगाया जाता था पर बचऊ के टाइपिंग स्कूल में उसका प्रवेश था। वहाँ अखबार भोर में आकर लावारिस पड़ा रहता क्योंकि बचऊ और उनकी पत्नी रात्रि की लंबी कलह के बाद सवेरे देर तक सोते ही रहते थे। एक सवेरे मुझे बाहर निकलना था, देखता हूँ कि अखबार फिंका हुआ है, मैं उठाकर पढ़ने लगा। धीरे धीरे नित्य का नियम बन गया : मैं सीढ़ियाँ उतारकर आता और अखबार पढ़ने लगता। उसके पृष्ठ खोलता, एक गंध नथुनों में समाँ जाती जो ताजा छपे हुए कागज की खुशबू थी। जाने क्या बात थी, मुझको अखबार पढ़ने का जनून हो गया। मेरे राजकीय इंटर कॉलेज के मुख्य गेट से सटकर कामरेड कोमल की चाय की दुकान थी जहाँ अनेक अखबार आते। मैं स्कूल खुलने के पूर्व ही वहाँ पहुँचकर अखबार चाटने लगता। वहाँ कम्युनिस्टों और समाजवादियों का जमावड़ा लगता था जो चाय पीते हुए गर्मागर्म बहसें करते। मैं उन्हें ध्यान से सुनता। ऐसा नहीं कि मैं उन बहसों तथा अखबारों के शब्दों को पूरी तरह समझ रहा था लेकिन जैसे भी हो, मेरे अंदर बहुत कुछ शामिल हो रहा था, घटित हो रहा था, स्थापित हो रहा था। कितना विरोधाभासी था कि एक ओर समाचारपत्रों के तथ्यात्मक, तार्किक शब्दों से मेरा रिश्ता बन रहा था तो दूसरी ओर जासूसी, रोमांटिक उपन्यासों को भी मैं उतनी ही लगन से पढ़े जा रहा था। इस अंतर्विरोध से छुटकारा दिलाया मेहता पुस्तकालय ने।

वह समृद्ध पुस्तकालय था। उसके सौजन्य से मैंने प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र, अज्ञेय, अमृत लाल नागर को पढ़ा। सिलसिला आगे बढ़ा : राग दरबारी, मैला आँचल, तमस, आधा गाँव, मुर्दाघर, अलग अलग वैतरणी हाथ लगे। निर्मल वर्मा, अमरकांत, भीष्म साहनी, मोहन राकेश, कमलेश्वर, मन्नू भंडारी, राजेंद्र यादव, काशीनाथ सिंह आदि की कहानियाँ भी यहीं मिलीं। नतीजा यह निकला कि मैं इंटर तृतीय श्रेणी में उत्तीर्ण होने के बावजूद बीए में ज्यादा साहित्यिक और आवारा हो गया था।

थोड़ा ठहरकर मैं अपनी एक अन्य महत्वपूर्ण मूर्खता के विषय में बताना चाहूँगा। हुआ यह कि जब एमए करने के लिए मैंने इलाहाबाद में प्रवेश लिया तो गुरूर से अकड़ा हुआ था। क्योंकि उस समय तक मेरी कहानियाँ प्रसिद्ध पत्रिका सारिका में प्रकाशित हो चुकी थीं और बकौल खुद मैं काफी कुछ पढ़ चुका था। ऐसा अहंकार धारण किए इलाहाबाद में पहली साहित्यिक गोष्ठी में गया। उस गोष्ठी ने मुझे आईना दिखा दिया था। वहाँ मार्क्सवाद, वर्गदृष्टि, रामविलास शर्मा और नवजागरण, मुक्तिबोध ने नए साहित्य का सौंदर्यशास्त्र में कहा, नामवर सिंह, लूकाच, राल्फ फाक्स वगैरह जाने क्या क्या कहा जा रहा था और सुल्तानपुर का बाशिंदा, मेहता लाइब्रेरी का सदस्य भौचक सब सुन रहा था।

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इलाहाबाद का साहित्यिक वातावरण मौलिक था। देश भर में इलाहाबाद की ख्याति इसलिए भी थी कि वह नौकरी संबंधी प्रतियोगी परीक्षाओं का स्वर्ग था। वहाँ के लोग सर्वाधिक कामयाब होते और नौकरी पाते थे जबकि इलाहाबाद के अधिकतर लेखक नौकरी नहीं करते थे। इस बात की पुष्टि उपेंद्रनाथ अश्क, नरेश मेहता, भैरव प्रसाद गुप्त, शैलेश मटियानी, मार्कंडेय, लक्ष्मीकांत वर्मा, रवींद्र कालिया, सतीश जमाली जैसे दिग्गजों के दृष्टांत करते थे। इन्होंने नौकरी करी नहीं और यदि कभी की भी तो सब ठुकराकर स्वतंत्र जीवनयापन कर रहे थे। जो लोग नौकरी कर रहे थे वे भी एक प्रकार से ड्यूटी नहीं, ड्यूटी का प्रहसन करते। एजी ऑफिस में बहुतेरे रचनाकार सेवारत थे, उनके बारे में लोक विश्वास था कि वे कार्यालय आते ही अपना बैग या कोट या मफलर अपनी कुर्सी पर टाँगकर कविता कहानी गीत गजल सुनने सुनाने निकल जाते। ममता कालिया जी सरीखे जिम्मेदारी से नौकरी करने वाले कुछ अपवादों को छोड़ दें तो जो नौकरियों में थे और जो नहीं थे सभी लेखन, अध्ययन, काफी हाउस, गोष्ठियों में व्यस्त रहते थे। वहाँ की एक विशेषता यह भी थी कि जो धनी, व्यवस्थित और दुनियावी नजरिए से सफल रहता था, इलाहाबाद उसे हिकारत से देखता। भिड़ना, बरबाद होना और शक्तिकेंद्रों की खिलाफत करना उसका मनपसंद शगल था। किंतु जैसा कि है : किसी भी सामान्य प्रवृत्ति को गौर से देखो तो उसमे भेद तथा उपभेद नजर आते हैं। इलाहाबाद की अखंड दीखती सामान्यता में भी अनेक स्तर और उपस्तर थे। वह उन दिनों कई बड़े बड़े साहित्यकारों से चमक रहा था। महादेवी वर्मा, फिराक गोरखपुरी, अमृत राय, विजयदेव नारायण साही, रघुवंश, राम स्वरूप चतुर्वेदी, जगदीश गुप्त जैसी शख्सियतें भी वहाँ थीं मगर उनका आभामंडल अन्य तरह का था और नए रचनाकार उनके करीब जाने में संकोच करते। हालाँकि हम अमरकांत, शेखर जोशी, दूधनाथ सिंह, सत्य प्रकाश मिश्र, राजेंद्र कुमार आदि को भी बहुत आदर देते लेकिन इनसे हम खूब हिलेमिले रहते थे। इस तरह इलाहाबाद के साहित्यिक परिवेश में एक से बड़े एक थे। ज्यादातर से मेरा सघन परिचय था फिर भी अमरकांत जी और कालिया जी से अधिक निकटता हुई। कालिया जी का तत्कालीन निवास 370 रानीमंडी, इलाहाबाद, उ.प्र. मेरा प्रिय स्थल था, जब भी मौका मिलता मैं वहाँ चला जाता। अक्सर मैं हीं रह जाता। कई बार तीन चार रोज के लिए रुकता, विश्वविद्यालय भी नहीं आता। वह मेरे घर की भाँति था जहाँ ममता जी, कालिया जी का स्नेह था, उनकी सरपरस्ती थी, लेखन का बेहतरीन प्रशिक्षण था। कालिया जी के ही यहाँ मेरा अमरकांत जी से परिचय हुआ। तब वह शाम को प्रायः ममता जी रवींद्र जी के यहाँ आते थे। यदि मैं वहाँ हुआ तो लौटते वक्त मैं भी अमरकांत जी के साथ हो लेता। उनसे बात करता, उन्हें सुनता हुआ, गुनता हुआ, साथ चलता हुआ उनके घर तक चला जाता था। मेरे कुछ महीने इलाहाबाद के पत्रिका प्रकाशन समूह मित्र प्रकाशन में बीते। तब मैंने यहाँ से छपने वाली माया पत्रिका में काम किया। अमरकांत जी यहाँ की मनोरमा पत्रिका का संपादन करते थे। शाम को हम दोनों दफ्तर से एक साथ निकलते और बड़ी देर तक मैं अमरकांत जी को साहित्य, समाज, संस्कृति, राजनीति, जिंदगी आदि के विषय में बोलते हुए सुनता। अनेक कहानियों उपन्यासों के संबंध में उनकी व्याख्याएँ अचूक और अद्वितीय थीं।

विश्वविद्यालय में दूधनाथ जी को सुनना भी विरल अनुभव था। जब वह क्लास में पढ़ाते, गोया वह कम ही पढ़ाते थे, तो हम विद्यार्थी मंत्रमुग्ध उनके शब्दों को अभ्यंत्रीकृत करते। उनकी मीमांसा, उनकी आलोचनात्मक भाषा, उनका निःशस्त्र रचना में दाखिल होना... सब इतना प्रभावपूर्ण कि शिष्य जितना हासिल कर लेते उतना कई किताबें पढ़कर प्राप्त नहीं हो सकता था।

इलाहाबाद...

अब मैं ऊबने लगा हूँ और ज्यादा मुमकिन है कि आप भी ऊब रहे होंगे। बहरहाल मेरी ऊब की वजह यह है कि अपने बारे में अधिक वक्त तक कहते और सुनते हुए प्रत्येक आदमी को ऊबना ही चाहिए। खुद के विषय में ज्यादा समय तक सुनते हुए मैं झेंपने लगता हूँ तथा अधिक देर तक स्वयंचर्चा करते हुए मेरी जबान शिथिल पड़ने लगती है। लेकिन जब किसी लेखक को सृजनात्मक लेखन करना हो तो क्या होगा? सारी तासीर बदल जाएगी। कहानी या उपन्यास जब लिखा जाता है तो उसमें लेखक अपने को जरूर और विस्तृत व्यक्त करता है। यह व्यक्त करना दो तरह से होता है : एक - वह निज के जीवन के तजुर्बों जिसे आपबीती कहते हैं को रचता है। इस कड़ी में वह अपनी संवेदनाओं विचारों को भी जबान देता है। दो - कथाकार दूसरों की दास्तान लिखता है पर वहाँ भी स्वयं के बारे में कह रहा होता है किंतु यह भिन्न ढंग से निर्मित होता है। वह अपने पात्र में अवतरित होता है। वह शैतान, देवता, गरीब, जुलाहा, कातिल, उपदेशक सभी कुछ बनने में समर्थ होता है। यहाँ तक कि स्त्री कथाकार होकर पुरुष के संसार में दाख़िल हो सकता है। इसी तरह वह पुरुष हुआ तो स्त्री के संसार में। इसे बाबा नागार्जुन कविता में यूँ रखते हैं : कालिदास सच सच बतलाना अज रोया या तुम रोए थे। ऐसे ही प्रेमचंद ने रंगभूमि उपन्यास में सूरदास को चित्रित किया तो वह खुद एक अंधे मनुष्य में तब्दील होकर समस्त घटनाओं को भुगतते हुए उस कृति को रच रहे होंगे। प्रेमचंद निर्मला में स्त्री बने होंगे और कफन में घीसू भी वही थे और माधव भी। गोदान में प्रेमचंद को होरी, धनिया, गोबर, झुनिया, राय साहब, खन्ना, मालती, दातादीन, मातादीन सभी बनकर समाज की कथा कहनी पड़ी थी। एक रचनाकार इनसान ही नहीं पेड़ पर्वत परिंदे वस्तुएँ समस्त में कायांतरित हो जाता है और जब वह किसी की गाथा कहता है तो एक तरह से अपनी भी गाथा कहता है। कहा जा सकता है कि लिखना समाज को अभिव्यक्त करने के साथ अपने को रचना और व्यक्त करना भी है। श्रेष्ठ कृति एक नहीं अनेक तत्वों के सम्मिलन से आकार पाती है। संभवतः इसीलिए उत्कृष्ट कृतियाँ अपनी एक उल्लेखनीय विशेषता के बगैर भी महत्वपूर्ण बनी रहती हैं। जैसे रेणु के मैला आँचल को उसकी स्थानीयता के इंद्रियबोध से अलगाकर पढ़ा जाए तो भी वह आजादी के मूल्यों की पतनगाथा, जाति व्यवस्था के दमनकारी भेद और अद्भुत चरित्रांकन के कारण यादगार महसूस होगा। अथवा बाद के किसी तत्व को हटा देने पर वह शेष एवं आंचलिक इंद्रियबोध की वजह से अमर रहेगा। श्रीलाल शुक्ल की औपन्यासिक कृति रागदरबारी विलक्षण व्यंगात्मकता से इतर गैर रूमानी दृष्टिकोण और भारतीय लोकतंत्र के क्षरण के महाआख्यान के कारण अमिट रहेगा। लेकिन यही कसौटी क्या अज्ञेय, निर्मल वर्मा, विनोद कुमार शुक्ल के साहित्य पर भी लागू करने पर उनकी कृतियाँ क्या अपनी जगह पर बरकरार रह पाएँगी! इनकी रचनाओं को काव्यात्मकता, लालित्य के कवच से निकलकर यदि साधारण भाषा में लिख दिया जाए, वे मामूली लगने लगेंगी। इस पैमाने पर अगर कुछ चर्चित यथार्थवादी रचनाओं से उनका यथार्थवाद या उनका चरित्रचित्रणवाद या विचारधारावाद या शोधवाद छीन लिया जाए तो शायद और ज्यादा हीनतर संरचना में वे फिसल जाएँगी।

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इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सर्वश्री रघुवंश, जगदीश गुप्त, राम स्वररूप चतुर्वेदी, दूधनाथ सिंह, सत्यप्रकाश मिश्र आदि के साथ राजेंद्र कुमार जी भी मेरे शिक्षक थे। वह अभिप्राय नाम की साहित्यिक पत्रिका निकलते थे। लेखन से जुड़े छात्रों पर उनका बेहद स्नेह रहता था। ऐसे छात्रों के लिए उनका घर तीर्थ हुआ करता था। एक दिन की बात है : मैं उनके घर से लौट रहा था, उन्होंने पूछा - यहाँ से कहाँ जाओगे ? मैंने बताया - अमरकांत जी के यहाँ जाना है। राजेंद्र जी ने निर्देश दिया - अमरकांत जी को प्रयोजन के लिए कहानी देनी है, तैयार हो गई हो तो लेते आना।

अमरकांत के यहाँ से वापस आते समय मैंने कहानी के बारे में पूछा। उनका जवाब था - कहानी तैयार है बस शीर्षक नहीं रखा गया है। पाँच मिनट रुको, रख देता हूँ। मुझको लगा, देर तक बैठना पड़ेगा। आखिर शीर्षक रखना वाकई कोई पाँच मिनट का काम तो है नहीं। मैं स्वयं शीर्षक रखने में काफी समय लेता था और जतन करता कि वे आकर्षक दीर्घ कुतूहलपूर्ण हों। देखा : अमरकांत जी कहानी का नामकरण कर रहे थे। वह कहानी के पृष्ठों पर सरसरी निगाह डालते हुए हल्की आवाज निकल रहे थे जिसे बड़बड़ाहट, निरर्थक ध्वन्यात्मकता या अस्पष्ट शब्दोच्चार जैसा कुछ कहा जा सकता था। उन्होंने अं...अं...अं सरीखा कहते हुए अचानक कहा – मिल गया। उन्होंने पाँच मिनट से पेश्तर कहानी का शीर्षक कबड्डी रख दिया था। उनकी इस कला से मैं इतना प्रभावित हुआ कि भविष्य में लगभग इसी विधि से अपनी रचनाओं के नाम तय करने का प्रयत्न करने लगा।

रचना के जीवन में उसके शीर्षक की क्या भूमिका होती है? इनसानों के नाम और रचनाओं के शीर्षक क्या समानधर्मा होते हैं? आदमी का नाम जब रखा जाता है या पाठशाला में लिखाया जाता है तो उसकी खसूसियतें, उसके गुण, लक्षण विकसित नहीं हुए होते हैं इसलिए प्रायः लोगों के नाम में उनकी शख्सियत की छवि, उनके होने का अर्थ नहीं निहित रहता है। दरअसल नाम क्या है, एक निशान है परिचय की सुविधा प्रदान करने के लिए, व्यक्ति को वैधानिकता प्रदान करने के लिए। लेकिन रचना के नाम में उस रचना का अर्थ शामिल होता है या कम से कम शीर्षकों से ऐसी अपेक्षा की जाती है कि वे रचना की काया की छाया बनें। ऐसे शीर्षक रचनाविरोधी होते हैं जो रचना का समूचा रहस्य खोल देते हैं या रचना में क्या होगा इसकी तुरंत मुखबिरी करने करने लगते हैं। घोर वैचारिक आग्रहों वाली और लबालब भावुकता वाली कथाओं के शीर्षक प्रायः ऐसे ही होते हैं।

कुछ लेखक रचना आरंभ करने के पहले उसका शीर्षक निश्चित कर देते हैं, कुछ होते हैं जो रचना समाप्त कर चुकने के उपरांत शीर्षक की तलाश करते हैं। रचना के नामकरण की ये दो भिन्न पद्धतियाँ क्या रचना के स्वरूप को प्रभावित करती होंगी? पहले ही तय कर लिया गया शीर्षक क्या अपनी रचना के विकास को गतिरुद्ध करता है? क्या वह रचनाकार को अपना गुलाम बना देता है कि मुक्त होकर उड़ान न भर पाए वह? वह बेड़ी तो नहीं जिसकी गिरफ्त में फँसी हुई रचना अपनी आजादी थोड़ी ही सही खो देती है? इसीलिए कई लिखने वाले लिखने के पूर्व शीर्षक रख तो लेते हैं मगर समापन के बाद उसे बदल देने के लिए विवश हो उठते हैं।

प्रेमचंद की परंपरा का वाहक होने की सामर्थ्य मुझमें कतई नहीं है किंतु शीर्षकों के स्वरूप के मामले में मैं उनकी विरासत से जुड़ने की कोशिश अवश्य कर रहा हूँ। प्रेमचंद की अधिसंख्य रचनाओं के शीर्षक प्रायः एक शब्द के हैं – वरदान, सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, कायाकल्प, गोदान, निर्मला, कर्मभूमि, कफन, सद्गति, मंत्र, निमंत्रण, ईदगाह, लाटरी, जुलूस...।

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आजकल सुविधा है कि कुछ लिख चुकने के पश्चात लोगों की प्रतिक्रिया के लिए, रायशुमारी के लिए सैकड़ों को ई-मेल कर दें, फेसबुक या ब्लॉग पर डाल दें पर मैं तब की बात सुना रहा हूँ जब मैं इलाहाबाद में था और रचना सुना सुना कर प्रतिक्रिया, सलाहें जानी जाती थीं। यह इतनी स्वीकार्य गतिविधि थी कि महत्वपूर्ण वरिष्ठ साहित्यकार भी नए रचनाकारों को रचना सुनाते और नए तो खैर उनको सुनाते ही थे। सुनने सुनाने में दीर्घ आकार की रचनाओं से परहेज न करते हुए उनको भी पाठ और श्रवण का सम्मान दिया जाता था। रचनापाठ दो प्रकार से होता था : 1 - गोष्ठियों आदि में समूह के सम्मुख 2 - व्यक्तिगत रूप से किसी के सामने। दूसरी तरह का वाचन भी कम नहीं था। मैंने खुद अपनी कहानियाँ जो उन दिनों लिखी थीं और जाहिर है कि काफी खराब थीं, अमरकांत जी, शेखर जी, भैरव जी जैसे शिखर स्तंभों को सुनायी थीं। कालिया जी के यहाँ अतिरिक्त लाभ रहता कि ममता जी भी, दो बड़े लेखक सुनने के लिए मिल जाते। जैसाकि मैं बता चुका हूँ कि यह एकतरफा नहीं दोतरफा मामला होता था। हम युवा ही नहीं सुनाते थे, ऊपर जिन कथाकारों का इस प्रसंग में जिक्र किया गया है, उनने मुझको भी अपनी रचनाएँ गाहेबगाहे सुनाई थीं तो यह करीब करीब बराबरी का, लोकतांत्रिक क्रियाकलाप था।

एक बार मैंने एक दोस्त के सामने अपने लिखे जा रहे पहले उपन्यास अन्वेषण के एक अंश को पढ़ा। अन्वेषण को लिखते हुए मैंने भाषा के स्तर पर खुद को बदला था और इस बात को लेकर खुश था। मित्र ने सराहा किंतु कहा - सृजनात्मक भाषा को रचना चाह रहे हो मगर यह बताओ कि फिर ये क्यों लिख रहे हो : वह गुस्से से काँपने लगा या यह कि शर्म से उसका चेहरा लाल हो गया या उसके चेहरे पर हवाइयाँ उड़ने लगीं। इस तरह लाखों लोगों ने कितने लाख बार कहा लिखा होगा। असंख्य बार इस्तेमाल होते होते अब इनमें भाव प्रकट करने की शक्ति पहले जैसी नहीं रही। चलते चलते घिस गए हैं ये शब्दप्रयोग। अभिव्यक्ति के लिए प्रदत्त मुहावरों पर निर्भर होने के बजाय, उन्हें हूबहू उसी अर्थ के साथ इस्तेमाल करने के बजाय तुम्हें नवीन शब्दधर्मिता पर परिश्रम करना चाहिए। कोई शब्द लिखो तो लगे कि वह अभी अभी जन्मा है केवल तुम्हारे आशय को जन्म देने के लिए। फिलहाल रूढ़ हो चुके शब्दों मुहावरों का तुम्हारा चयन मुझको खाद्य पदार्थ के बीच में कंकड़ की तरह लग रहा है। दोस्त ने खाद्यपदार्थ के बीच में कंकड़ कहकर स्वयं एक पिटा हुआ मुहावरा प्रयुक्त किया था किंतु इस गुस्ताखी के लिए मैंने उसको माफ कर दिया क्योंकि भाषा को लेकर उसके विश्लेषण ने मुझमें विकट खलबली पैदा कर दी थी। मैं सोचने लगा : क्या ऐसा हो सकता है कि शब्द एक ही इरादे से, वाक्य में एक ही जगह पर एक ही तरीके से इस्तेमाल होते होते ऊब जाते हों और समुचित या अपेक्षित अर्थ देने से इनकार कर देते हों। आखिर ऊबना किसी भी संवेदनशील अस्तित्व का गुणधर्म है और शब्द तो सबसे अधिक संवेदनशील तथा संवेदनजनक होते हैं। शब्दों को सर्वाधिक प्यार करने वाले यानी लेखक समुदाय के लिए भी ऊबना उसकी सृजनशक्ति हेतु प्राणवायु है। जरूरी है कि लेखक ने लेखन के जिन तत्वों से सफलता पाई है, अपनी जिन खूबियों के चलते उसने कामयाबी हासिल की है, उन्हें बारबार दोहराने के बजाय वह उनसे ऊब जाए। अपनी सिद्धियों से, अपनी जीत के औजारों से ऊबने का अर्थ है, उन्हें छोड़कर आगे बढ़ जाने का साहस दिखाना - रचना के संसार में एक बार फिर से निहत्था हो जाना - पुनः नई सिद्धियों, सृजन और कला के नवीन उपकरणों को आविष्कृत करने के मकसद से। अपने समय की रचनात्मकता से गहरी ऊब महान रचयिता को जन्म देती है। ऊबकर उससे भिन्न रचने की प्रक्रिया में वह श्रेष्ठता की सीढ़ियाँ चढ़ता है।

अपने आरंभिक दौर में किसी साहित्यिक भाषा का अभिधा रूप भी संप्रेषण के लिए प्रबल सक्षम होता है किंतु समाज और साहित्य में होने वाली बार बार की पुनरावृत्तियाँ, असंख्य दोहराव उसके सामर्थ्य को निस्तेज कर देते हैं, तभी भाषा के लक्षणा एवं व्यंजना स्वरूप प्रकट होते हैं। मुहावरे, कहावतें आदि इसी इरादे से ईजाद किए गए होंगे। जैसे अत्यधिक क्रोध के लिए अभिधात्मक वाक्य बना - वह बहुत क्रुद्ध हुआ। ज्यादातर लोग बहुत क्रोध की भावदशा को ऐसे ही बताएँगे मगर यह ढंग प्रयुक्त होते होते ढर्रा बन गया, इतना रगड़ खा गया कि पहले जैसा प्राकृत, अर्थप्रसूता नहीं रह गया होगा। वह अपनी मौजूदगी से पहले की भाँति गुस्से में आए इनसान की छवि नहीं उभार पा रहा होगा तभी दूसरी तरह से कहने का चलन हुआ और मुहावरे में कहा गया - वह क्रोध से काँपने लगा या गुस्से से आगबबूला हो गया। बेशक ऐसे में अर्थ का विस्फोट सरीखा हो गया होगा किंतु यह भी बारंबारता वाले हर प्रयोग की भाँति अंततः रूढ़ि में स्थिर हो चला। अच्छे लेखक इसीलिए लिखते समय परिपाटीगत भाषा में विक्षोभ पैदा कर देते हैं जिसको हमारे अलोचकगण आजकल तोड़फोड़ कह रहे हैं। कहने सुनने में अच्छा लगता है कि उम्दा रचनाकार वह है जो बोलचाल की भाषा में लिखता है मगर यकीन मानिए, शानदार लिखने वाले प्रचलित भाषारूप की हूबहू नकल नहीं करते। वे उसे अंगीकार जरूर करते हैं लेकिन फिर उसे खराद पर चढ़ाते हैं। उसे नई शक्ल और चमक देते हैं। उनका चमत्कार यह रहता है कि पाठक को उनकी कीमियागीरी का बिलकुल अहसास नहीं हो पाता। उसे तो प्राकृत, निश्छल, आमफहम ही महसूस होता है। वैसे वह भी क्या चमत्कार जो चमत्कार जैसा लगे।

बोलचाल की भाषा से याद आया : पहले मुझको कथोपकथन लिखने में कठिनाई का अनुभव होता था। मुझको अपने लिखे संवाद फीके और उबाऊ लगते। लिखने का आनंद वर्णन में ही मिलता। बाद में मैंने अपने शिक्षक और सुप्रसिद्ध साहित्यकार दूधनाथ सिंह के विचार जाने जिसका आशय यूँ था : जब संवाद लिखो तो दूसरे पात्र का संवाद पहले का जवाब भर नहीं होता, वह अपने आप में स्वतंत्र अर्थ की सृष्टि भी करे। एक संवाद अगले वाले का जनक या पूर्ववर्ती का पूरकमात्र न होकर खुदमुख्तार संरचना होता है और आत्मनिर्भर आशय की सृष्टि करता है। मैं इसे आगे बढ़ाना चाहूँगा : कथोपकथन ही नहीं, संपूर्ण रचना में कोई वाक्य कोई शब्द पूर्ववर्ती का अनुचर न हो, उसकी हाँ में हाँ मिलाने का काम न करे। हर शब्द हर वाक्य को अपनी गरिमा की दीप्ति से चमकना चाहिए। रचना में शब्दों की भूमिका उस दौड़ के धावकों की तरह रहनी चाहिए जिसमें एक धावक दौड़ते हुए आता है मशाल दूसरे को थमा देता है।

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इलाहाबाद में जनवादी लेखक संघ ने गोष्ठियों का सिलसिला शुरू किया था। ये गोष्ठियाँ सभागृहों में न होकर लेखकों के घरों में होतीं। कभी किसी कभी किसी लेखक के घर में। पच्चीस तीस लोग तक एकत्र हो जाते थे जिनमें महारथी नवोदित सभी तरह के प्रतिभागी रहते जो रचनापाठ के उपरांत बेमुरौव्वत विचारोत्तेजक बातें करते। ऐसी ही एक गोष्ठी दूधनाथ जी के कासिल्स रोड वाले मकान में हुई। इसमे प्रख्यात कथाकार शेखर जोशी को अपनी कहानी सिनारियो का वाचन करना था। फिर प्रारंभ हुई सिनारियो पर केंद्रित बातचीत। वहाँ भैरव प्रसाद गुप्त जी भी उपस्थित थे जो अपनी निरावरोध टिप्पड़ियों और कड़वी जबान के लिए राष्ट्रव्यापी विख्यात थे। उनकी आक्रामकता का अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि कामरेड हरिकिशन सिंह सुरजीत हों या नामवर सिंह हों, भैरव जी नरम नहीं पड़ते थे। वह किसी को फटकार लगा सकते थे किसी को डाँट लगा सकते थे। तभी अनेक लोग उनको पीठ पीछे सोंटा गुरू की उपाधि से विभूषित करते।

उपरोक्त गोष्ठी में भैरव जी ने कई मुँहफट बातें बोलीं और यह भी कहा - यह आइडिया पर निर्भर कहानी है। ऐसी कहानियों में अंत लेखक के दिमाग में पहले आ जाता है। शेष रचना अंत का अनुगमन है। इस प्रकार ये अंत का पीछा करती हुई कहानी है। यहाँ अंत है, बाकी सब अंत की सजावट है।

स्पष्ट है, इस तरह की रचनाशीलता को वह खारिज कर रहे थे। सिनारियो वाकई ऐसी कहानी थी या नहीं थी यह अलग से बहस का विषय है क्योंकि गोष्ठी में कुछ लोग मेरे सहित अलग राय रखते थे। जो भी हो यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि भैरव जी बेहद खास बात कह रहे थे। वैसे उन्होंने स्वयं अनेक ऐसी रचनाएँ दी हैं जो आइडिया न सही, लेकिन किसी विचार या विचारधारा का अनुगमन करती हुई रचनाएँ हैं। यह कहना तो बहुत कठोर होगा कि दुनिया में अनगिनत ऐसी रचनाएँ होंगी जिनमें सामाजिक यथार्थ को आइडिया, विचारधारा, शिल्प, कलाकारी या भाषिक चमत्कार की सेवा टहल में लगाया गया होगा। मंटो, मोपांसा, ओ हेनरी की भी अनेक कहानियाँ अंत का पीछा करती हुई रचनाएँ हैं जो अंत पर मुनहसिर कथाएँ हैं। इनके अंत को यदि हटाकर पढ़ें तो वे संभवतः वैसी शक्तिमान नहीं रह जाएँगी।

महान कृतियों का प्राण किसी एक अंश में बसा हुआ नहीं होना चाहिए। वह कृतित्व की समग्र काया में व्याप्त हो।

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उन गोष्ठियों में, जो किसी घर की फर्श पर दरी गद्दा बिछा कर होती थीं, प्रायः रचना के शिल्प पर चर्चा नहीं होती थी। तब अमूमन शिल्प पर वार्ता किसी का तिरस्कार करने के उद्देश्य से की जाती थी कि अमुक लेखक शिल्प के चक्कर में फँस गया है और अब तो उसकी गई भैंस पानी में। जनवादी लेखक संघ, जिसका मैं भी एक सदस्य था, मार्क्सवादी प्रगतिशील लेखकों का संगठन था और इस समुदाय में उन दिनों चतुर्दिक यह धारणा प्रसारित थी कि शिल्प की कोई भूमिका नहीं होती और यथार्थ अभिव्यक्त होने की प्रक्रिया में अपने लिए जरूरी शिल्प तैयार कर लेता है। यूँ निष्पत्ति यह थी कि कथ्य एवं शिल्प में द्वंद्वात्मक संबंध रहता है। लेकिन यदि द्वंद्वात्मक रिश्ता है तो फिर जब कथ्य अपनी शक्ति से शिल्प को प्रभावित करता है, तो शिल्प को भी कथ्य पर असर डालना ही चाहिए। उसकी संरचनाओं से भी कथ्य की सूरत कुछ न कुछ परिवर्तित हो ही जाती होगी। मगर दूसरे पक्ष को स्वीकृति देने का माहौल न था। क्या सचमुच ऐसा होता है? क्या यथार्थ शिल्प की शक्ल तय करने का सर्वाधिकार अपने पास रखता है या जैसा पहले कहा कि शिल्प भी कभीकभार यथार्थ के चहरे का निर्माता हो सकता है? मैं इस प्रश्न को यथार्थ और भाषा के अंतरसंबंध पर भी लागू करने की आवश्यकता महसूस करता हूँ। इससे बिलकुल इनकार नहीं कि लेखक के लिए आला दर्जा कथ्य का ही होता है या यूँ कहूँ कि होना चाहिए। वह अभागा और नकली रचनाकार है जिसकी रचना का बुनियादी स्रोत शिल्प अथवा भाषा है। यानी की पहले उसकी चेतना में एक शिल्प या कोई भाषिक रूप आए जिसको सजीव करने हेतु उसे एक अदद कथ्य की दरकार हो। संसार नानाविधि जीवों से समृद्ध है तो ऐसे भी साहित्यकार मिलेंगे ही। लेकिन लेखक के लिए नैसर्गिक, उचित और सृजनोपयोगी यही है कि उसके मनोपट पर पहले कोई कथ्य आता है।

जब मैं कहानी, उपन्यास या सृजनात्मक गद्य में से कुछ लिखता हूँ तो हमेशा यह घटित हुआ है कि मैं प्रारंभ के पृष्ठों को बार बार लिखता और रद्द करता हूँ। वैसे लिखने और पुनः लिखने की पद्धति सदैव चलती रहती है लेकिन शुरुआत में यह बहुत ज्यादा रहता है। अजीब है, मेरे पास कहने को होता है और उसे लिख डालने के लिए वक्त रहता है... पूरा उपक्रम करता हूँ फिर क्यों विफल होता रहता हूँ और खुद के लिखे को काटते, खारिज करते, कूड़ेदान में फेंकते एक क्षण आता है जब ड्राफ्ट बनने लगता है और अहसास होता है कि मैं यथार्थ और संवेदन की अभिव्यक्ति कर सकने में कामयाब हो सकूंगा। आखिर वह कौन सी चीज थी जिसकी मुझे तलाश थी और उसकी नामौजूदगी में शिकस्त मिल रही थी। और जिसके हासिल होते ही लिखने की राह आसान हो गई? वह शिल्प और भाषा थी।

थोड़ा अनिश्चयपूर्वक ही सही, कहना चाहूँगा : शिल्प और भाषा भी यथार्थ के स्वरूप में कमोबेश दखल देते हैं। दुनिया की जो कालजयी कृतियाँ हैं वे अन्य रूपविधान या अन्य भाषिक संरचना में लिखी गई होतीं तो निश्चित रूप से हमारी आत्मा पर उनके यथार्थ, विचार और भावनाओं का यही छापा न रहता।

शिल्प और भाषा फंदा की तरह हैं। रेडीमेड स्वेटरों का युग आ गया है, वर्ना एक जमाने में माएँ बहनें पत्नियाँ प्रेमिकाएँ अपने प्रियजन के लिए स्वेटर बुनती थीं। ऊन के रंगबिरंगे मुलायम गोले या लच्छे होते थे और नौ दस ग्यारह वगैरह नंबरों की सलाई होती थीं। स्त्रियाँ स्वेटर तैयार करने बुनने के लिए ऊन और सलाइयों के सहमेल से सबसे पहले फंदा डालतीं। फंदा तय करता था कि रंगीन मुलायम ऊन से कैसा स्वेटर बनेगा। यही नियम दस्तानों, मोजों, गुलूबंद आदि पर भी लागू होते। लेखक के पास भी यथार्थ संवेदना विचार भावों इत्यादि के गोले लच्छे होते हैं और वह फंदा डालता है...।

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एक दिन कादीपुर, सुल्तानपुर की तरह इलाहाबाद भी छूटा। पहले भी इलाहाबाद छूटता था लेकिन वह दुबारा शरण दे देता। पढ़ाई पूरी होने के बाद उससे बिछुड़ा तो जल्द ही विभूति नारायण राय जी ने मौका दिया। उनके सौजन्य से निकलने जा रही मासिक पत्रिका वर्तमान साहित्य का संपादक उन्होंने मुझको बना दिया। मैं एम.ए. पास करके अभी निकला ही था और मुझे संपादन का अनुभव भी नहीं था अतः तमाम लोगों की तरह मुझे भी हैरत हुई कि राय साहब ने क्या सोचकर इतना भरोसा किया। बहरहाल राय साहब संबंध बनाने और निभाने के मामले में सदैव बेजोड़ रहे हैं। अगली बार छूटा तो माया प्रेस की नौकरी के बहाने मैं फिर वहाँ पहुँचा। कदाचित छह महीने भी नहीं बीते होंगे कि वहाँ से त्यागपत्र देकर मैं अपने घर सुल्तानपुर आ गया। अब दुबारा इलाहाबाद से जुड़ने की संभावना नहीं थी मगर संयोग देखिए, लखनऊ स्थित उ.प्र. हिंदी संस्थान में मुझे नौकरी मिली तो कहा गया कि मुझे फिलहाल इलाहाबाद में काम करना है। पर यह जन्नत लगभग एक साल की थी : हिंदी संस्थान के मुख्यालय बुला लिया गया और मुझे लखनऊ आना पड़ा। अबकी छूटा तो फिर छूट ही गया इलाहाबाद।

कादीपुर, सुल्तानपुर, इलाहाबाद तीनों जगहें छूटे लंबा अर्सा बीत चुका है। वैसे बीच बीच में मैं वहाँ जाता हूँ लेकिन मैं जल्द ही ऊब जाता हूँ। वे जगहें अब मुझे लुभाती नहीं हैं। शायद इसलिए कि जो मेरा कादीपुर सुल्तानपुर इलाहाबाद था वह अब नहीं रहा। सुल्तानपुर में मेरे पिता माँ की पीढ़ी का एक भी स्त्री पुरुष जीवित नहीं है। इलाहाबाद में महादेवी जी, अमरकांत जी, भैरव जी, लक्ष्मीकांत जी, मटियानी जी, मार्कंडेय जी, अश्क जी, नरेश मेहता जी, सत्य प्रकाश जी, जगदीश गुप्त जी, साही साहब, फिराक साहब, राम स्वरूप चतुर्वेदी जी, राम कमल राय साहब, विद्याधर जी, केशवचंद्र वर्मा जी दिवंगत हो गए। और मेरा इलाहाबाद और सुल्तानपुर और कादीपुर तो इन लोगों से भी पहले मिटने लगा था। वह जो मेरा था अब मेरा नहीं रहा क्योंकि वह वैसा नहीं है। किंतु वह मेरे भीतर अभी भी है, उसी तरह जीता जागता और धड़कता हुआ। लिखने की धुरी भी ऐसे ही बनाती है - आपके भीतर किसी समाज, देश, आदमी, स्थान, मनुष्यता का कोई स्वप्न, बिंब, स्मृति, कल्पना या यथार्थ होता है मगर बाहर उसकी अनुपस्थिति, उसका अभाव रहता है। इसी टकराहट से कहानियों, कविताओं, उपन्यासों आदि में शोक, संघर्ष, तनाव, विडंबनाएँ और द्वंद्व प्रकट होते हैं।

मगर जो आपके अंदर है, यदि आप सावधान न हुए, वह नष्ट भी करता है, रुग्ण बनाता है। चाहे जिंदगी हो या साहित्य, आप किसी आत्यंतिक छवि, विचार या उम्मीद से मोहाग्रस्त रहे और जो नया आपके नजदीक आने के लिए छटपटा रहा है, आपमें बसने के लिए चला आ रहा है, उस सबको अनदेखा किया, पुराने से ही अनुकूलित रहे तो फिर अंधकूप में गिरना होगा।

जिस भी नई जगह जाओ, नए इनसान से मिलो, नए विचार और नई कला के बीच से गुजरो तो उसे देखो, समझो। उसे प्यार और स्वीकार और इनकार करना सीखो। उस पर ऐतबार और संदेह करो।