भूतनाथ / सुशांत सुप्रिय

Gadya Kosh से
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रात के नौ-सवा नौ का वक्त रहा होगा। आकाश बादलों से घिरा हुआ था। हल्की बूँदा-बाँदी हो रही थी। बादलों के बीच में से कभी-कभी आधा चाँद निकलता और झाँक कर फिर छिप जाता। हवा न ज्यादा तेज बह रही थी, न कम। बीच-बीच में बिजली कड़कती और बादल गरजते। ऐसे समय में एक उदास और अकेला भूत किसी इलाके से गुजर रहा था। वह पुराने जमाने का भूत था। शायद गांधीजी और सुभाष चंद्र बोस जैसे स्वतंत्रता-सेनानियों का समकालीन रहा होगा। उसके बाकी सभी साथी भूत की योनि से मुक्त हो गए थे। पर यदि ईश्वर था तो वह शायद इस भूत को भुला चुका था। एक ही इलाके में रहते-रहते यह भूत अपनी नियति से इतना तंग आ गया था कि वह ऐसे मौसम में भी कहीं जाने के लिए निकल पड़ा था।

सामने एक व्यक्ति सड़क पार कर रहा था। तभी पीछे से तेज गति से आ रही एक गाड़ी ने उसे टक्कर मार दी। शायद कोई पी कर गाड़ी चला रहा था। गाड़ी वाला टक्कर मार कर रफूचक्कर हो गया। वह व्यक्ति सड़क पर लहूलुहान पड़ा था। आसपास से गुजर रहे कुछ लोग वहाँ रुके। पर कोई भी उस व्यक्ति की मदद के लिए आगे नहीं आया। वह व्यक्ति दर्द से कराह रहा था पर लोग आपस में बातें कर रहे थे :

ऐक्सिडेंट का मामला है।

पुलिस-केस बनता है।

देखा, गाड़ी वाला कैसे टक्कर मार कर भाग गया!

ये अमीर लोग अपने-आप को समझते क्या हैं?

सारी गाड़ियों को जला देना चाहिए।

कितने निर्दयी होते हैं लोग !

अरे, कोई इसकी मदद करो भाई, नहीं तो यह मर जाएगा...

यह सारा हादसा भूत की आँखों के सामने हुआ था। अपने जमाने में भूत भी आम इनसान की तरह स्वार्थी और मतलबी था। पर जब से वह मर कर भूत बना था, उसके चरित्र में बदलाव आ गया था। उसमें परोपकार और दूसरों की मदद की भावना बलवती हो गई थी। ऐसा लगता था जैसे वह अपने जीवन-काल के दौरान किए गए कार्यों के लिए अब प्रायश्चित्त करना चाहता था।

जब घायल व्यक्ति की मदद के लिए कोई आगे नहीं आया तो भूत से रहा नहीं गया। यूँ भी कोई इनसान बिना मदद के किसी भूत के सामने तड़प-तड़प कर मर जाए और भूत कुछ न करे, यह भूत के भूतत्व की तौहीन होती। लिहाजा भूत ने मोर्चा सँभाला। उसने इनसान का रूप धर कर एक रिक्शा रुकवाया और घायल व्यक्ति को रिक्शे में लादकर सरकारी अस्पताल पहुँचाया।

भूत जब अस्पताल से बाहर आया तो रात के बारह बज रहे थे। वह थक कर चूर हो चुका था। बहुत अरसे से उसने किसी बुरी तरह घायल इनसान को इतने करीब से नहीं देखा था। उस लहूलुहान व्यक्ति को देखकर भूत की रूह काँप गई थी। थकान की वजह से उसने फैसला किया कि आस-पास में ही रहने के लिए कोई इलाका ढूँढ़ा जाए। कुछ ही दूरी पर एक रिहाइशी इलाका था। पास ही एक पार्क था जिसके किनारे एक बहुत पुराना वट-वृक्ष था। भूत को वह इलाका पसंद आ गया। उसने सोचा -

क्यों न कुछ दिन यहीं रहा जाए। शायद यहाँ का हवा-पानी रास आ जाए। यह सोचकर उस उदास और अकेले भूत ने उस वट-वृक्ष पर अपना डेरा जमा लिया।

धीरे-धीरे भूत को वह इलाका अच्छा लगने लगा। शाम में पार्क में बच्चे खेलने के लिए आते। एक दिन भूत से रहा नहीं गया। वह भी इनसान का रूप धरकर बच्चों के खेल में शामिल हो गया। धीरे-धीरे वह इलाके के बच्चों से घुल-मिल गया। वह उनके साथ कबड्डी, गिल्ली-डंडा, हॉकी, फुटबॉल और क्रिकेट खेलने लगा। बच्चे उससे पूछते - अंकल, आपका नाम क्या है? वह बोलता - भूतनाथ। मैं तुम्हारा भूतनाथ चाचा हूँ।

धीरे-धीरे 'भूतनाथ चाचा' बच्चों के लाड़ले अंकल हो गए। वह बच्चों के साथ खेलते और उन्हें स्वतंत्रता-संग्राम की कहानियाँ सुनाते।

पार्क के पास ही एक हैंड-पंप था। इलाके की महिलाएँ वहाँ सुबह-शाम घड़ों और बर्तनों में पानी भरने आती थीं। भूतनाथ अक्सर पानी भरने में बीमार महिलाओं और वृद्धाओं की मदद कर देता था। धीरे-धीरे 'भूतनाथ भैया' इलाके की महिलाओं में भी लोकप्रिय हो गया। शाम को पार्क के किनारे पड़ी बेंचों पर इलाके के वृद्ध आ बैठते थे। इनसान अपने बुजुर्गों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं , यह बात भूतनाथ से छिपी नहीं थी। वह अक्सर इन उपेक्षित वृद्धों के पास जा बैठता। उनकी बातें सुनता। उनका दुख-दर्द बाँटता। उन्हें गांधीजी और सुभाषचंद्र बोस की कहानियाँ सुनाता। और अफसोस जताता कि इतनी कुर्बानियों के बाद प्राप्त की गई आजादी के महत्व को बाद की पीढ़ियों ने नहीं समझा। उन्होंने देश का क्या हाल कर दिया।

धीरे-धीरे वह इलाके के बुजुर्गों का चहेता 'भूतनाथ बेटा' हो गया। जब वह इलाके के बुजुर्गों के के पैर छूता और वे उसे 'जीते रहो बेटा' का आशीर्वाद देते तो वह हँस देता। शुरू-शुरू में भूतनाथ ने उन्हें बताया कि वह एक भूत था पर उन लोगों को लगा कि वह शायद उन से मजाक कर रहा है। किसी को उसकी बात पर यकीन ही नहीं हुआ।

भूतनाथ जहाँ भी मौजूद होता वहाँ उसके चारों ओर गेंदे के फूलों की खुशबू छाई रहती। लोग जब उससे इस बारे में पूछते तो वह भोलेपन से कहता - दरअसल मैं एक आम आदमी का भूत हूँ। यदि मैं किसी राजा, मंत्री या अमीर आदमी का भूत होता तो शायद मुझ में से गुलाब के फूलों की गंध आती। लोग यह सुनते तो इसे मजाक समझ कर खूब हँसते।

देखते-ही-देखते भूतनाथ पूरे इलाके के लोगों का चहेता बन गया। यदि बीच रात में किसी की तबीयत खराब हो जाती और उसे अस्पताल पहुँचाने की नौबत आ जाती तो भूतनाथ झट से वहाँ मौजूद हो जाता। यहाँ तक कि इलाके में किसी को किसी भी तरह की मदद चाहिए होती तो भूतनाथ वहाँ हाजिर मिलता। कभी भूतनाथ स्थानीय लोगों के लड़ाई-झगड़े सुलझा कर उन में सुलह करवा रहा होता, कभी वह सुबह बच्चों को स्कूल-बस में चढ़ा रहा होता तो कभी वह किसी बीमार गृहिणी की रसोई में उस परिवार के सदस्यों के लिए खाना बना रहा होता। इलाके के लोग उसे अपना मानने लगे थे।

कोई भी पर्व या त्योहार होता , भूतनाथ लोगों के बीच मिलता। रक्षा-बंधन पर वह महिलाओं से राखी बँधवा रहा होता। होली के अवसर पर वह रंगों में रँगा होता। दीवाली पर वह दीप जला रहा होता और पटाखे चला रहा होता। और ईद पर वह लोगों से गले मिल रहा होता। भूतनाथ को लोगों से जितना प्यार मिलता उससे ज्यादा प्यार वह लोगों में बाँटता।

एक बार उस इलाके में बहुत चोरी-डकैतियाँ होने लगीं। जब एक रात वहाँ एक हत्या भी हो गई तो लोग सकते में आ गए। लोग पुलिस-वालों से शिकायत करते तो वे अपनी मजबूरी गिना देते - क्या करें? इतना बड़ा इलाका है। पर पुलिस-स्टाफ इतना कम है। ऊपर से वी.आइ.पी. ड्यूटी, चुनाव-ड्यूटी...

हार कर लोगों ने भूतनाथ से बात की। कुछ ही दिनों के भीतर भूतनाथ ने इलाके के सारे चोरों-बदमाशों को पकड़ कर पुलिस के हवाले कर दिया। एक भूत के लिए यह कौन-सा मुश्किल काम था। अब तो पुलिस-वाले भी भूतनाथ का लोहा मान गए। उन्होंने कहना शुरू कर दिया - भूतनाथ हमारा अपना आदमी है। हमारा ही मुखबिर है। वह हमारे लिए काम करता है। इस तरह भूतनाथ की लोकप्रियता बढ़ती चली गई।

इलाके के लोग इलाके की समस्याओं के प्रति अपने निर्वाचित प्रतिनिधियों की उदासीनता से बेहद क्षुब्ध रहते थे। सड़कें पाँच-पाँच सालों तक टूटी-फूटी रहतीं। बिजली सुबह से शाम तक गायब रहती। नगर निगम के नलों में एक बूँद पानी नहीं आता।

हार कर लोगों ने भूतनाथ की शरण ली। भूतनाथ के लिए यह कौन-सा मुश्किल काम था। उसने चुटकी बजाई और पूरे इलाके में नई सड़कें बिछ गईं। उसके चुटकी बजाते ही इलाके में चौबीसों घंटे बिजली रहने लगी। उसकी चुटकी के असर से म्यूनिसिपैलिटी के नलों में से सारा दिन पानी आने लगा।

इलाके के लोगों के हर्ष का ठिकाना नहीं रहा। भूतनाथ की लोकप्रियता आसमान छूने लगी। खबर फैलते ही अखबार वाले और टी.वी. चैनल वाले भूतनाथ का इंटरव्यू लेने के लिए इलाके का चक्कर लगाने लगे। जब मीडिया वाले भूतनाथ को ज्यादा तंग करते तो वह गायब हो जाता।

इस बीच कुछ लोगों को एक विचार सूझा। उन्होंने पेशकश की कि भूतनाथ जी को आगामी विधानसभा या लोकसभा के चुनावों में इलाके से उम्मीदवार घोषित किया जाए। उनका मानना था कि भूतनाथ जी एक सच्चे समाज-सेवी हैं। इस पर किसी ने चुटकी ली कि अब जीवित लोगों से ज्यादा 'मृतात्माएँ' ही इनसानों का दुख-दर्द समझ सकती हैं। इलाके में नारे लगने लगे - हमारा नेता कैसा हो, भूतनाथ भइया जैसा हो। इलाके के पढ़े-लिखे लोगों ने इस प्रस्ताव के समर्थन में हस्ताक्षर-अभियान चलाया, मानव-श्रृंखला बनाई और एक मशाल-जुलूस निकाला। पर भूतनाथ को जब लोगों की इस मुहिम का पता चला तो उसने विनम्रतापूर्वक लोगों की इस माँग को मानने से इनकार कर दिया। इसकी वजह क्या थी यह कोई नहीं जानता। कुछ लोगों ने दबी जबान से जरूर यह कहा कि शायद अब शिष्ट और शालीन लोग राजनीति में आने से कतराते हैं। कारण चाहे जो भी रहा हो, भूतनाथ के इनकार की वजह से राज्य और देश एक ऐतिहासिक मौके से वंचित हो गया जब कोई भूत पहली बार किसी विधानसभा या लोकसभा का सदस्य बन पाता।

कुछ लोग क्रिकेट विश्व-कप में भारत की हार से इतने पीड़ित हुए कि उन्होंने इलाके में पोस्टर छपवा कर जगह-जगह चिपका दिए जिसमें बी.सी.सी.आई. से पुरजोर माँग की गई कि भूतनाथ को भारतीय क्रिकेट टीम में एक आलराउंडर के रूप में शामिल किया जाए। पार्क में इलाके के लड़कों के साथ क्रिकेट खेलते समय भूतनाथ न केवल चौके-छक्कों की झड़ी लगा देता था बल्कि वह अपनी सधी हुई गेंदबाजी से कई बार हैट-ट्रिक भी ले चुका था। यही नहीं, भूतनाथ ने हॉकी और फुटबॉल के खेलों में भी झंडे गाड़ रखे थे। जब वह गोलकीपर बन जाता तो गेंद की क्या मजाल थी कि वह गोल-पोस्ट के भीतर जा पाती। देखते-ही-देखते लोगों की यह माँग भी जोर पकड़ने लगी कि कि भारतीय हॉकी और फुटबॉल के उद्धार के लिए भूतनाथ को राष्ट्रीय हॉकी और और फुटबॉल टीमों में भी स्थान दिया जाए।

लोगों को विश्वास था कि ओलंपिक खेलों में सौ करोड़ लोगों वाले देश भारत के लिए स्वर्ण-पदक का अकाल यदि कोई दूर कर सकता है तो वह भूतनाथ ही है। पर पता नहीं क्यों एक बार फिर भूतनाथ ने विनम्रतापूर्वक लोगों से अपील की कि वे इस संबंध में अपनी माँगें छोड़ दें। और इस तरह राष्ट्र एक बार फिर उस ऐतिहासिक अवसर से वंचित हो गया जब कोई भूत किसी खेल की राष्ट्रीय टीम में शामिल हो कर अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत को विजय दिलाता।

इधर कुछ दिनों से भूतनाथ कुछ चिंतित रहने लगा था। हुआ यह था कि इलाके के कुछ लोगों ने पहले उससे उसकी जाति पूछ ली। फिर वे उससे उसका धर्म पूछने लगे। भूतनाथ चकरा गया। उसे मरे हुए पचास-साठ साल हो चुके थे। इस लंबे अरसे में वह अपनी जाति या धर्म के बारे में सब कुछ भूल चुका था। यूँ भी भूतों में कोई जाति-व्यवस्था तो होती नहीं। न भूतों में धर्म के नाम पर ही कोई विभाजन होता है। इसलिए भूतनाथ को कभी जाति या धर्म के बिल्ले या पट्टे की जरूरत महसूस नहीं हुई। भूतनाथ ने अपने दिमाग पर बहुत जोर डाला कि शायद कुछ याद आ जाए कि वह किस जाति या धर्म का था, पर निराशा ही हाथ लगी। दरअसल भूतनाथ तो इनसानियत का भूत था। यूँ भी इनसानों में अब इनसानियत कहाँ बची थी।

भूतनाथ को इलाके के लोग अब जाति और धर्म के धड़ों में बँटे नजर आने लगे थे। उसे ले कर इलाके में तनाव हो गया। सवर्णों का यह कहना था कि भूतनाथ जैसा सर्वगुण-सम्पन्न व्यक्ति अवश्य ही किसी ऊँची जाति का होगा। दूसरी ओर इलाके के दलितों का यह दावा था कि भूतनाथ जैसी शख्सियत का स्वामी कोई दलित ही हो सकता था। इस विवाद के चलते सवर्णों और दलितों में तनाव बना हुआ था। दोनों पक्षों पर भूतनाथ के समझाने का भी कोई असर नहीं हो रहा था। वे अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए थे।

प्रशासन अभी इस समस्या से जूझ ही रहा था कि एक राजनीतिक दल ने यह घोषणा कर दी कि भूतनाथ गर्व से सारे हिंदू पर्व-त्योहार मनाता है। इसलिए वह एक देशभक्त हिंदू है, और वह आगामी चुनावों में उनकी राष्ट्रवादी पार्टी के लिए चुनाव-प्रचार करेगा। एक अन्य राजनीतिक दल ने इस बात पर कड़ा ऐतराज जताया। उस पार्टी का कहना था कि भूतनाथ तो शुरू से रोजे रखता रहा है। वह हमेशा से ईद और मोहर्रम मनाता रहा है। इसलिए वह पक्का मुसलमान है। लिहाजा वह आगामी चुनावों में केवल उन्हीं की पार्टी के लिए चुनाव-प्रचार करेगा।

इससे पहले कि भूतनाथ कुछ समझ पाता, स्थिति बेकाबू हो गई। देखते-ही-देखते शरारती तत्वों की वजह से इलाके में दंगे शुरू हो गए जिनमें कई बेकसूर मुसलमान और हिंदू मारे गए। प्रशासन ने इलाके में कर्फ्यू लगा दिया और अर्द्ध-सैनिक बल गलियों में गश्त करने लगे।

भूतनाथ सन्न रह गया। वह तो लोगों का प्यार पाना चाहता था और बदले में लोगों में प्यार बाँटता था। उसके कारण लोग एक दूसरे के खून के प्यासे हो जाएँगे, ऐसा तो उसने कभी सोचा ही नहीं था। उसका दिल खट्टा हो गया। दिल पर पत्थर रख कर उसने फैसला किया कि उसका इस इलाके चले जाना ही सब के हित में होगा।

और उसी रात भारी मन से भूतनाथ ने वह इलाका छोड़ दिया। उदास और अकेला भूतनाथ एक बार फिर न मालूम कहाँ के लिए चल पड़ा। रात के बारह बज रहे थे। आकाश में चाँद और सितारे स्तब्ध खड़े थे। जाने से पहले भूतनाथ ने अंतिम बार उस इलाके की ओर मुड़ कर देखा। वहाँ उसे बहुत प्यार मिला था। पर वहीं उसका इनसानों से मोहभंग भी हुआ था। यदि भूत रोते होंगे तो तो उस रात भूतनाथ जरूर रोया होगा।

इलाके की एक युवती को भूतनाथ अच्छा लगने लगा था। वह भूतनाथ से बातें करके खुश होती थी। भूतनाथ के चले जाने के बाद वह युवती गुमसुम, खोई-खोई और उदास रहने लगी। इलाके में फिर किसी ने उसे कभी हँसते हुए नहीं देखा।

कुछ दिनों के बाद इलाके में तनाव कम हो गया। धीरे-धीरे स्थिति सामान्य हो गई। इलाके के कुछ हिंदुओं ने भूतनाथ को शिवजी का अवतार मान कर एक मंदिर बनाया और उस में भूतनाथ की प्रतिमा स्थापित कर के पूजा-अर्चना शुरू कर दी। इलाके के कुछ मुसलमानों ने भूतनाथ को एक पहुँचा हुआ मुस्लिम फकीर करार दिया। उन्होंने भूतनाथ की मजार बना ली जहाँ चादर चढ़ाई जाने लगी, और धागा बाँध कर मन्नत मानी जाने लगी।

लेकिन इलाके के ज्यादातर लोगों का कहना है कि जब रात में आकाश बादलों से घिरा हुआ होता है, हल्की बूँदा-बाँदी हो रही होती है, बादलों के बीच में से कभी-कभी आधा चाँद निकलता है और झाँक कर छिप जाता है, बीच-बीच में बिजली कड़कती है और बादल गरजते हैं और हवा न ज्यादा तेज बह रही होती है, न कम, तब उन्होंने उदास और अकेले भूतनाथ को कभी अस्पताल के पास, कभी पार्क के किनारे उगे वट-वृक्ष के पास भटकते हुए देखा है। जब लोग उसके पास जाते हैं तो वह गायब हो जाता है। ज्यादातर लोग अब मानते हैं कि भूतनाथ असल में भूत ही था। उनका अपना प्यारा भूत, जिसे उन्होंने अपनी गलतियों की वजह से हमेशा के लिए खो दिया।

और कुछ हुआ हो या न हुआ हो, भूतनाथ से मिलने के बाद इलाके के लोगों का भूतों के प्रति नजरिया जरूर बदल गया है। भूत दयालु, परोपकारी, मददगार और सहृदय भी हो सकते हैं, ऐसा तो किसी ने पहले कभी सोचा भी नहीं था।