भूमंडलोत्तर कथा पीढ़ी: विकास और प्रस्थान / राकेश बिहारी

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उदारीकरण के एजेंडे के साथ हमारे देश के कैलेंडर में दाखिल हुआ नब्बे का दशक उन आर्थिक बदलावों की भूमिका का कालखंड है, जिसका स्पष्ट और मुखर प्रभाव आज जीवन के हर क्षेत्र में देखा जा सकता है। यहाँ प्रक्रिया और एजेंडे के बुनियादी फर्क को समझने की जरूरत है। प्रक्रिया जहाँ समय और समाज की जरूरतों, अपेक्षाओं, सहूलियतों, संवेदनाओं आदि के साथ घटित होनेवाली एक स्वाभाविक और गतिशील स्थिति है वहीं, एजेंडा सुनियोजित तरीके से किन्हीं पूर्वनिर्धारित अवधारणाओं, योजनाओं, कार्यक्रमों आदि को समय और समाज की अनिवार्य नियति के रूप में स्थापित करने का उपक्रम है। यही कारण है कि प्लानिंग, मार्केटिंग और ब्रांडिंग जैसी शब्दावलियाँ एजेंडे की अनिवार्य सहगामिनी होती हैं। प्रक्रिया और एजेंडे का यही फर्क आधुनिकीकरण और भूमंडलीकरण को एक दूसरे से अलग करता है। फिलहाल इन अवधारणाओं को मैं हिंदी कहानी की दुनिया में पीढ़ी और नमोन्वेष के नाम पर हो रहे शोर के आलोक में देखना चाहता हूँ।

पुरानी पीढ़ी का शिथिल होना, नई पीढ़ी का आना और इस दौरान पीढ़ियों के बीच एक व्यावहारिक अंतराल की उपस्थिति एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। लेकिन यदि इस स्वाभाविक प्रक्रिया को किसी खास एजेंडे की शक्ल में पेश किया जाय तो? जाहिर है ऐसे में कई सत्य सुनियोजित प्रचार से ढक दिए जाएँगे। सच को विखंडित, विस्मृत या काट-छाँट कर किसी झूठ या अर्ध्यसत्य को स्थापित करने का उपक्रम तेज हो जाएगा। पीढ़ी-अंतराल की स्वाभाविकता पीढ़ियों की टकराहट का रूप ले लेगी और इस दौरान कब कैसे कोई ब्रांड एंबेसडर तो कोई सेल्स प्रोमोटर की तरह इस्तेमाल कर लिया जाएगा इसका पता भी नहीं चलेगा। इससे पहले कि प्रक्रिया और एजेंडे के द्वंद्व के बीच हिंदी कहानी में लगभग स्थापित हो चुकी नई पीढ़ी के विकास पर कालक्रमानुसार विचार किया जाए, दो-एक वक्तव्यों पर गौर करना जरूरी है -

'लेकिन जैसे-जैसे संपादक कहानीकार न रहकर, विमर्शकार होता गया, हंस कहानी की पत्रिका न रहकर विमर्श की पत्रिका होती गई, कहानीकारों ने - और खासकर युवा पीढ़ी ने दूसरे ठिकानों की खोज शुरू कर दी। ऐसे ही युवाओं में चर्चित कथा लेखिका नीलाक्षी सिंह और क्विजमास्टर पंकज मित्र हैं, जिन्हें हमने 'तद्भव' में देखा था। लेकिन हमें इस बात की जरा भी भनक नहीं थी कि युवा कहानीकारों की एक बड़ी संख्या बिखरी हुई जहाँ-तहाँ पड़ी है और कहानीकार रवींद्र कालिया के कोलकाता में 'वागर्थ' का संपादन सँभालने का इंतजार कर रही है' (काशीनाथ सिंह, यथार्थ का मुक्ति-संघर्ष : नई सदी की कहानी; वागर्थ, युवा पीढ़ी विशेषांक - दिसंबर 2005)

'वास्तव में साहित्य में युवा पीढ़ी की दस्तक एक सहयोगी प्रयास का परिणाम है। इसमें युवा कहानीकारों के साथ-साथ रवींद्र कालिया (वागर्थ और अब नया ज्ञानोदय), अखिलेश (तद्भव), ज्ञानरंजन (पहल), शैलेन्द्र सागर (कथाक्रम) जैसे संपादकों और कृष्णमोहन, भारत भारद्वाज और परमानंद श्रीवास्तव सरीखे आलोचकों की महत्वपूर्ण भूमिका है और फिर, विरोध के द्वारा सहयोग करनेवाले तो हैं ही हमेशा की तरह!' (प्रियम अंकित, बेचैन जल में डगमगाते चाँद का यथार्थ; नया ज्ञानोदय, युवा पीढ़ी विशेषांक - मई 2007)

यह लापरवाही का नतीजा हो कि एक सुचिंतित विचार, उपर्युक्त दोनों उद्धरणों में जिस तरह, हंस, कथादेश, इंडिया टुडे, परिकथा आदि जैसी महत्वपूर्ण पत्रिकाओं और युवा रचनाशीलता के विभिन्न संदर्भों को बार-बार रेखांकित करनेवाले जरूरी आलोचकों यथा - रोहिणी अग्रवाल, शंभु गुप्त आदि को नजर अंदाज कर कथाकारों की नई पीढ़ी और उनके शुभचिंतकों का जो खाका खींचा गया है वह पूर्वाग्रहों से प्रेरित तो है ही अक्टूबर 2004 में प्रकाशित वागर्थ के नवलेखन विशेषांक में व्यक्त उस संपादकीय एजेंडे को आगे बढ़ाने का प्रायोजित उपक्रम भी है कि - 'जैसे महानगरों में शाम के झुटपुटे में रेल की पटरियों की आड़ में देह व्यापार चलता है, उसी प्रकार साहित्य में भी कुछ संभ्रांत नागरिक प्रेमचंद की आड़ में दैहिकता का धंधा चलाते हैं। नई पीढ़ी के युवा रचनाकार इस यौनाचार के प्रति पूर्णरूप से उदासीन हैं, सामाजिक अन्याय और आर्थिक विषमता के विरुद्ध रचनारत युवा रचनाकारों का तथाकथित दलित विमर्श के प्रति भी ठंडा रुख है'। स्पष्ट है कि तब 'यौनाचार' का नाम लेकर रवींद्र कालिया अस्मितावादी विमर्श के नकार का एक सुनियोजित एजेंडा प्रस्तावित कर रहे थे जो मूल रूप में ढोल-नगाड़े के साथ बाजार में अपना ब्रांड स्थापित करने की एक रणनीति थी। दरअसल विज्ञापन एक दुधारी तलवार है जो न सिर्फ अपने उत्पाद की स्वीकॄति के लिए जरूरी माहौल तैयार करता है बल्कि उपभोक्ताओं के मानस पटल पर पहले से अंकित हो चुके अन्य समानधर्मी उत्पादों की स्मृतियों को पोंछने का काम भी करता है। वागर्थ के नवलेखन विशेषांक में बिना सीधे-सीधे किसी पत्रिका या संपादक का नाम लिए अपने एजेंडे की प्रस्तावना और बाद के अंकों में उसके सुनियोजित प्रचार-प्रसार के नव उदारवादी टोटकों से लैस अपने प्रोडक्ट की ब्रांडिंग और मार्केटिंग की इस तकनीक को देखकर मुझे टीवी पर दिखाए जानेवाले रिन और निरमा जैसे डिटर्जेंट साबुनों के उन विज्ञापनों की याद आती है जिनमें अपने चमकते-दमकते उत्पाद के समानांतर बिना नाम लिए गले-पिघले, तेजविहीन दूसरे समानधर्मी उत्पादों को रख दिय जाता है।

स्वाभाविक रूप से बढ़ती-पनपती एक कथा-पीढ़ी जिसमें स्त्री और दलित चेतना से संपन्न कथाकारों की भी महत्वपूर्ण उपस्थिति थी, को सीधे-सीधे नकारते हुए फसल की एक नई डाली को ही संपूर्ण पेड़ की तरह सुनियोजित रूप से प्रचारित-प्रसारित करने का यह एजेंडा एक तरह से अस्मिता विमर्श के महत्व को नकारने की एक अव्यावहारिक कोशिश थी। हमारे समय का इतिहास दरअसल सदियों से दमित-प्रताड़ित वंचितों, चाहे वे स्त्री हों या दलित, के उन्मेष का ही इतिहास है। ऐसे में किसी एक ऐसी कथा-पीढ़ी की प्रस्तावना जिसमें ये दोनों ही स्वर अनुपस्थित हों एक बहुत बड़े सामाजिक सत्य की उपेक्षा का नतीजा थी। यहाँ इस बात का उल्लेख किया जाना भी युवा पीढ़ी-युवा पीढ़ी के तमाम शोर के बीच इस सामाजिक यथार्थ की उपेक्षा का भान काशीनाथ जी को भी था - 'इस तरह यह है कहानी की नई पीढ़ी - चंदन, राकेश, कुणाल, विमलेश, मो. आरिफ, दीपक, तरुण, मनोज, राजेश प्रसाद, पंकज सुबीर। न इसमें कोई स्त्री है न दलित। ऐसा क्यों है, कैसे हुआ - यह संपादक से बेहतर कोई नहीं जानता होगा। जबकि संपादक स्वयं एक महत्वपूर्ण कथाकार हैं और जानते हैं कि इनके बगैर नई सदी का कोई भी साहित्य मुकम्मल नहीं होगा।' (यथार्थ का मुक्ति-संघर्ष : नई सदी की कहानी; वागर्थ, युवा पीढ़ी विशेषांक - दिसंबर 2005) जाहिर है कि नई रचनाशीलता को प्रोत्साहित करने के उत्साह में काशीनाथ जी ने यह भले ही कह दिया हो कि कथाकारों की एक पीढ़ी वगर्थ के उक्त नवलेखन अंक का इंतजार कर रही थी, लेकिन कहीं न कहीं कथाकारों की इस नई खेप को ही नई पीढ़ी का मुकम्मल चेहरा मानने में उनके भीतर भी संशय था, जिसे बाद में उन्होंने 'पाखी' द्वारा आयोजित कथा केंद्रित आयोजन 'पीढ़ियाँ आमने सामने' (पाखी, नवंबर 2010) में और स्पष्ट कर दिया है।

हालाँकि जिस तरह तथाकथित 'यौनाचारों' और दलित विमर्श के प्रति इन कथाकारों की उदासीनता, जिसकी तरफ रवींद्र कालिया ने वागर्थ (अक्टूबर, 2004) के अपने संपादकीय में इशारा किया था, का जो पुरुषवादी और उत्श्रंखल रूप 'साइकिल कहानी' से लेकर 'ग्यारहवीं ए के लड़के' तक जैसी कहानियों में देखने को मिला है या फिर जिस तरह से स्त्री जीवन में आए सार्थक बदलावों को बिना पहचाने कई कहानीकारों ने बदलती स्त्री के नाम पर सिर्फ कैरियरिस्ट और अपौर्चुनिस्ट लड़कियों की कहानियाँ लिखी हैं, या फिर जिस तरह सामंती मानसिकता के साथ दलित विरोधी कहानियाँ लिखी जा रही हैं, वह न सिर्फ चिंताजनक है बल्कि अस्मिता विमर्श की जरूरतों को नए सिरे से रेखांकित करनेवाला भी है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से विकसित होती कथाकरों की एक नई पीढ़ी को एक खास जगह से अवरुद्ध कर उसकी सबसे ताजा परत को ही पूरी पीढ़ी का नाम दे देने की इस कवायद से सहमत होना नई कथा-पीढ़ी की एकांगी और अधूरी तसवीर पेश करना ही होगा।

बहरहाल भूमंडलीकरण-उदारीकरण के बीच हिंदी कहानी में विकसित होती एक नई पीढ़ी पर चर्चा के क्रम में एक नजर पिछले पंद्रह वर्षों में आए विभिन्न पत्रिकाओं के नवलेखन अंकों पर। इस श्रंखला में जो सबसे पहला विशेषांक मेरी स्मृति में है, वह है - 'आजकल' (मई-जून 1995) का विशेषांक - 'संभावनाओं और सामर्थ्य का जायजा'। इस अंक में जो कथाकार शामिल थे उनमें प्रमुख हैं - अलका सरावगी, आनंद संगीत, जयनंदन, मीरा कांत, प्रेमपाल शर्मा, संजय सहाय, प्रियदर्शन आदि। उल्लेखनीय है कि प्रियदर्शन को छोड़कर इस अंक में शामिल सभी कथाकार पूर्ववर्ती कथा-पीढ़ी के हैं। इस तरह हम आजकल के इस विशेषांक को इस पीढ़ी से ठीक पहले के कथाकारों पर केंद्रित आखिरी युवा विशेषांकों की श्रेणी में रख सकते हैं। हाँ, प्रियदर्शन उन कथाकारों में से जरूर हैं जिनका विकास 1997 के बाद हुआ। लिहाजा उन्हें पिछली पीढ़ी से जोड़ने वाली कड़ी या वर्तमान कथा पीढ़ी के शुरुआती कथाकार के रूप में देखा जाना चाहिए। आजकल के उस उक्त विशेषांक के बाद 1997 में प्रकाशित इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी - 'शब्द रहेंगे साक्षी' में पहली बार दिखते हैं - पंकज मित्र, अपनी 'पड़ताल' शीर्षक कहानी के साथ, जिसे युवा कथाकार प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ था। उल्लेखनीय है कि यही कहानी इसके ठीक दो-एक महीने के बाद 'हंस' में भी प्रकाशित हुई थी। तत्पश्चात फरवरी 2001 में प्रकाशित हंस की विशेष प्रस्तुति - 'नई सदी का पहला बसंत' में दिखाई पड़ते हैं - नीलाक्षी सिंह, जयंती और निलय उपाध्याय। इसके तुरंत बाद जून 2001 में प्रकाशित कथादेश के नवलेखन अंक - 'ताजा पीढ़ी : बहुलता का वृत्तांत' में शामिल महत्वपूर्ण कथाकारों में हैं - रवि बुले, शशिभूषण द्विवेदी, अल्पना मिश्र, सुभाषचंद्र कुशवाहा, महुआ माजी, कमल आदि। उल्लेखनीय है कि उसके बाद बाद 2002 में प्रकाशित इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी - (संभावनाओं के साक्ष्य) भी तब तक प्रकाश में आ चुके इन्हीं नए कथाकारों - नीलाक्षी सिंह, रवि बुले, प्रियदर्शन, सुभाषचंद्र कुशवाहा और अल्पना मिश्र, को ही संभावनाशील काथाकारों के रूप में रेखांकित करती है। इसके बाद जुलाई 2003 में प्रकाशित 'उत्तर प्रदेश' के संभावना विशेषांक में जो नए कथाकार दिखते हैं, उनमें प्रमुख हैं - अभिषेक कश्यप, चरण सिंह पथिक, कविता, अंजली काजल, तरुण भटनागर आदि। इस बीच 2004 के पूर्वार्द्ध में राष्ट्रीय सहारा द्वारा आयोजित कहानी प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार प्राप्त कर प्रभात रंजन अपनी कहानी 'जानकी पुल' के साथ कथा परिदृश्य पर उपस्थित हो जाते हैं। जुलाई 2004 में प्रकाशित कथादेश के नवलेखन अंक में जो महत्वपूर्ण कथाकार सामने आए, उनमें अजय नावरिया और अरविंद शेष का नाम प्रमुख हैं। उल्लेखनीय है कि अलग-अलग पत्रिकाओं के नवलेखन विशेषांकों में प्रकाशित इन कथाकारों में से कई कथाकारों की दो-एक कहानियाँ दूसरी पत्रिकाओं के सामान्य अंकों में छपकर पहले भी चर्चित हो चुकी थीं। अलग-अलग पत्रिकाओं के सामान्य अंक से अपनी पहचान बनानेवाले अन्य कथाकारों में वंदना राग, पंखुरी सिन्हा आदि को शुमार किया जा सकता है। नवलेखन अंकों की सुदीर्घ परंपरा से चुन-छनकर आए इन्हीं कथाकारों से परत-दर-परत बनती है भूमंडलोत्तर समय की यह कथा पीढ़ी। अक्टूबर 2004 में प्रकाशित 'वागर्थ' के नवलेखन अंक के माध्यम से आए कथाकारों की नई खेप इसी पीढ़ी की अगली परत थी जिसके महत्वपूर्ण नामों में चंदन पांडेय, विमलेश त्रिपाठी, दीपक श्रीवास्तव, मो. आरिफ, कुणाल सिंह, मनोज कुमार पांडेय, पंकज सुबीर, राकेश मिश्रा आदि शामिल थे। उल्लेखनीय है कि इनमें से अधिकांश की यह पहली कहानी नहीं थी, यानी उनकी अन्य कहानी पहले वागर्थ के अन्य अंक सहित किसी न किसी पत्रिका में प्रकाशित हो चुकी थी। नए कथाकारों को पहचानने और प्रकाश में लाने का यह समवेत और सहयोगी सिलसिला लगातार जारी है। इस क्रम में 'परिकथा' के नवलेखन अंकों और युवा कहानी विशेषांकों के अतिरिक्त 'प्रगतिशील वसुधा' का युवा कहानी अंक तथा 'हंस' और 'कथाक्रम' जैसी पत्रिकाओं के 'मुबारक पहला कदम' और 'कथा दस्तक' जैसे स्तंभों की भूमिका उल्लेखनीय है। मिथिलेश प्रियदर्शी, कैलाश वानखेड़े, जयश्री रॉय, ज्योति कुमारी, सुशांत सुप्रिय, इंदिरा दांगी, उमाशंकर चौधरी, गीताश्री आदि कथाकार इसी सतत शोध यात्रा की उपलब्धियाँ हैं। कहने का मतलब यह कि पीढ़ियाँ किसी खास पत्रिका के अंक विशेष से किसी खास तारीख को पैदा नहीं होती बल्कि यह एक सतत प्रक्रिया है जिसे अपने समय की सभी पत्रिकाएँ एक समवेत प्रयास के तहत पहचानती और प्रकाश में लाती हैं।

कहने की जरूरत नहीं कि काशीनाथ सिंह जी को तद्भव में दिखीं नीलाक्षी सिंह हों या पंकज मित्र या फिर प्रियम अंकित के उपर्युक्त लेख में इसी पीढ़ी के कहानीकारों के तौर पर विश्लेषित अल्पना मिश्र, शिल्पी, प्रभात रंजन, मनीषा कुलश्रेष्ठ, वंदना राग और तरुण भटनागर जैसे आधा दर्जन से ज्यादा अन्य कथाकार, इन सबकी शुरुआती पहचान रवींद्र कालिया द्वारा संपादित वागर्थ के नवलेखन अंक से पहले बन चुकी थी। कई के पहले संग्रह तक प्रकाशित हो चुके थे और कई पुरस्कृत-सम्मानित भी हो चुके थे। वागर्थ के नवलेखन अंक को उसी प्रक्रिया की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में देखा जाना चाहिए।

नई कथा-पीढ़ी के विकास और निर्मिति पर यह टिप्पणी अधूरी होगी, यदि उन प्रवृत्तियों पर चर्चा न की जाए जो इस पीढ़ी को अपने पूर्ववर्ती कथाकारों से अलग करती है। कहने की जरूरत नहीं कि नब्बे के दशक में कल्ले फोड़ता भूमंडलीकरण आर्थिक-सामाजिक रूप से एक नया प्रस्थान बिंदु है। यह वही समय है जब भूमंडलीकरण के समानांतर सूचना और संचार क्रांति का उल्लेखनीय विस्तार आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक स्तर पर एक बड़े बदलाव की भूमिका लिखता है। नई-नई सूचनाओं और नए-नए उत्पादों के बीच हम मनुष्य से उपभोक्ता में तब्दील होने लगते हैं या कि कर दिए जाने लगते हैं। ज्ञान और जानकारी के खुलते नए गवाक्षों के बीच बाजार हमारी संवेदना को लगभग अपनी मुट्ठी में कैद कर लेता है और इसी बीच सदियों से दलित-दमित समुदाय अपने अधिकारों को लेकर सचेत हो जाते हैं। इस बदलते समय की शुरुआती धमक को नब्बे के दशक के पूर्वार्द्ध में उदय प्रकाश, अखिलेश, संजय सहाय, गीतांजलि श्री जैसे कथाकारों ने अपनी कहानियों में पहचान लिया था। भूमंडलोत्तर समय में विकसित नई कथा-पीढ़ी की कहानियाँ बाजार और अस्मिता संघर्ष के विस्तार से उत्पन्न उन्हीं सामाजिक-आर्थिक परिणतियों के बहुकोणीय विस्तार की उल्लेखनीय गवाहियाँ है।

यहाँ इंडिया टुडे की साहित्य वार्षिकी (1997) - 'शब्द रहेंगे साक्षी' में प्रकाशित पंकज मित्र की कहानी 'पड़ताल' का उल्लेख जरूरी है, जो अपने कथ्य और कहन दोनों ही स्तर पर हिंदी कहानी में एक नई पीढ़ी के आगमन की दस्तक है। दिनानुदिन हमारे जीवन-जगत में पोषित होता बाजार कैसे हमारे आचार-व्यवहार को ही नहीं हमारी जिंदगी की प्राथमिकताओं को भी प्रभावित करने लगता है इसे यह कहानी बहुत प्रभावी तरीके से चित्रित करती है। एक मध्यवर्गीय परिवार में दहेज में मिला रंगीन टेलीविजन पूरे परिवार की चेतना और संवेदना को इस हद तक कुंद और शिथिल कर देता है कि उसी परिवार का एक बुजुर्ग, जिसने अपने खून-पसीने से उस परिवार के बिड़वे को सींचा था, पारिवारिक उपेक्षा का शिकार हो टेलीविजन के आने के ठीक आठवें दिन बरसाती में पड़ा दम तोड़ देता है। पंकज मित्र की इस कहानी को मैं रेणु की 'पंचलाइट' और संजय खाती की 'पिंटी का साबुन' से जोड़कर देखना चाहता हूँ। बाजारवादी शक्तियाँ कैसे हमारे निजी और सामाजिक जीवन-व्यवहार को सुनियोजित और चरणबद्ध तरीके से बदलती हैं उसे समझने के लिए ये तीनों कहानियाँ एक जरूरी सूत्र देती हैं।

बाजार अपनी शुरुआती अवस्था में हमारे ज्ञानचक्षु खोलता है, हमारे भीतर कौतूहल और जिज्ञासा के बीज रोपता है। 'पंचलाइट' में इस तथ्य को आसानी से रेखांकित किया जा सकता है। लेकिन बाजार का वही उत्पाद जब रोज नई-नई शक्लों में हमारे जीवन में दाखिल हो हमें लुभाना शुरू करता है तो हमारे भीतर पहले से बैठा कौतूहल और जिज्ञासा का शुरुआती भाव आसानी से प्रतिस्पर्धा में परिणत हो जाता है। नए उत्पाद का आकर्षण हमें हर कीमत पर उसे हासिल करने को प्रेरित करता है। 'पिंटी का साबुन' कहानी में साबुन की एक नई टिकिया को हासिल करने के लिए छोटे भई द्वारा बड़े भाई का सिर फोड़ देना बाजारप्रदत्त इसी प्रवृत्ति का परिचायक है। गौर किया जाना चाहिए कि कौतूहल से स्पर्द्धा तक का यह सफर भूमंडलीकरण के पहले तक का सच था। लेकिन नई अर्थिक नीतियों के लागू किए जाने के बाद बाजार का चेहरा और ज्यादा घातक और आक्रामक हो गया, इतना घातक कि कौतूहल से स्पर्द्धा तक की यात्रा कर चुका हमारा बर्ताव अब हमें इस कदर आत्मकेंद्रित करने में सफल हो गया कि हम निजी हितों के कारण रिश्ते, परिवार और समाज की उपेक्षा करने लगे। निजी हितों के संधान में पारिवारिकता और सामाजिकता की एक ऐसी उपेक्षा जिसे किसी के जीने-मरने की भी परवाह नहीं। रंगीन टेलीविजन पर अमिताभ की फिल्म देखने में मशगूल परिवार के सभी सदस्यों के बीच उपेक्षित किशोरीरमण बाबू का ठंड से ठिठुर कर मर जाना बाजार के दवाब में कुंद होती संवेदना और संबंधों के प्रस्तरीकरण का ही नतीजा है।

सामूहिकता के संकुचन और 'मैं' के महत्वाकांक्षी विस्तार के बीच होनेवाले सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक परिवर्तनों को बारीकी से पकड़नेवाली किसी नए कथाकार की पहली कहानी होने के कारण 'पड़ताल' को इस पीढ़ी का प्रस्थान बिंदु माना जाना चाहिए।