भूमिका एवं परिचय / सहजानन्द सरस्वती / राघव शरण शर्मा

Gadya Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

स्वामी सहजानन्द सरस्वती अपने युग-धर्म के अवतार थे। वे नि:संग थे। अपने समय के पदचाप के आकुल पहचान थे। किसान विस्फोट के प्रतीक थे। किसान आंदोलन के पर्यायवाची थे। उत्कट राष्ट्रवादी थे। राष्ट्रवादी वामपंथ के अग्रणी सिद्धांतकार, सूत्रकार एवं संघर्षकार थे। ये दुर्द्धर्ष व्यक्‍तित्व के धनी थे। सामाजिक न्याय के प्रथम उद्घोषक थे। संगठित किसान आंदोलन के जनक एवं संचालक थे। अथक परिश्रमी थे। तेजस्वी व्यक्‍तित्व के स्वामी थे। वेदांत और मीमांसा के महान पंडित थे। मार्क्सवाद के ठेठ देसी संस्करण थे। ऐसे किसान क्रांतिकारी थे जिनकी वाणी में आग होती थी एवं क्रिया में विद्रोह। आडंबरविहीन थे। उत्पीड़न के खिलाफ दुर्वासा थे, परशुराम थे। स्वामी जी में खाँटी खरापन, खुरदुरापन, बेधड़कपन, बेलौसपन था। अजीब मस्ती के धनी थे। धुनी थे जो ठान लिए तो कर के ही दम लेनेवाले। लल्लो-चप्पो से जल-भुन जानेवाले थे। उनके पास दोस्त दुश्मन की एक ही पहचान थी - किसानों के प्रति उनका व्यवहार। किसानों के सवाल पर, आजादी के सवाल पर समझौताविहीन संघर्षरत योद्धा थे। ये दलितों के योद्धा संन्यासी थे। भारत के पूरे राजनीतिक क्षितिज पर यही एक अकेला, भिन्न, अलग, विशिष्ट, अलबेला व्यक्‍ति नजर आते हैं जिन्होंने पूरे जीवन में कभी भी असत से समझौता नहीं किया। यही कारण था कि सुभाषचंद्र बोस और योगेंद्र शुक्ला ऐसे राष्ट्रवादी क्रांतिकारी इनके चरण चूमते थे। बेनीपुरी, दिनकर, रेणु, अज्ञेय, प्रभाकर माचवे, राहुल सांकृत्यायन, नागार्जुन, मुल्कराज आनन्द, महाश्‍वेता देवी, उग्र, रामनरेश त्रिपाठी, मन्मथनाथ गुप्त, ए.आर. देसाई, सरदेसाई, राजनाथ पांडेय, शिवकुमार मिश्र, केशव प्रसाद शर्मा ऐसे साहित्यकार इनसे जुड़े रहे एवं अधिकांश ने इन्हें अपनी रचना के केंद्र में रखा। मगर, स्वामी जी को जितना आदर सुभाषचंद्र बोस, इंदुलाल यागनिक, यदुनन्दन शर्मा, राहुल सांकृत्यायन ने दिया उतना उन लोगों ने किसी और को नहीं दिया।

विचारणीय बात है - आखिर क्या बात थी स्वामी जी में, जिसके कारण सुभाषचंद्र बोस हृदय से यह समझते थे और कलम से अभिव्यक्‍त भी करते थे कि यदि कोई 1939-40 में देश में क्रांति करने की, पूरे देश में आंदोलन करने की, पूरे देश को नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता रखता है तो वह व्यक्‍ति है स्वामी सहजानन्द सरस्वती। इन्हीं के नेतृत्व में आजादी का दूसरा पर्व सफलतापूर्वक लड़ा जा सकता है। सुभाषचंद्र बोस स्वामी जी को उग्र-वामपंथ का अग्रणी चिंतक एवं क्रांतिकारी धारा का पथप्रदर्शक समझते थे। (फारवर्ड ब्लाक पत्रिका, कलकत्ता, 20 अप्रैल का संपादकीय)। आइए, हम स्वामी जी के जीवन-काल-समसामयिक, घटनाक्रम-समकालीन व्यक्‍तित्वगण सभी पर उड़ती सी सटीक नजर डालें तभी सुभाषचंद्र बोस के हार्दिक उद्‍गार का रहस्य हमारी समझ में आ सकता है। सुभाषचंद्र बोस ऐसे व्यक्‍ति न थे जो आसानी से किसी से प्रभावित हो जाएँ अथवा इतने अधिक उच्च भाव से श्रद्धावनत हो कर किसी की अभ्यर्थना करें (1942 अगस्त का बर्लिन ब्रॉडकास्ट सहजानन्द को संबोधित)। वेदांत और मार्क्स के बीच एवं ज्ञान और कर्म के बीच सेतु बनानेवाले स्वामी सहजानन्द का अध्ययन, मूल्यांकन विश्‍लेषण, व्याख्या सहज नहीं है। फिर भी पूरी परिस्थितियों पर समेकित नजर डालने से सत्य की झलक प्राप्त होने की संभावना जरूर बन सकती है। यह लेख इसी प्रयास की कड़ी है अप्रिय होने की हद तक दो टूक है। मगर सहजानन्द को इतिहास की मम्मी बना कर अथवा चुप्पी के षडयंत्र के व्याप्त आलम को तोड़ने के लिए इस पद्धति का सहारा लिया गया है और इस हेतु संदर्भ को समग्रता से टटोला गया है।


प्रारंभिक जीवन

स्वामी सहजानन्द सरस्वती का जन्म महाशिवरात्रि के दिन सन 1899 में हुआ था। वंश परम्परा से ये जुझौतिया ब्राह्मण थे। जुझौतिया शब्द यौधेय का अपभ्रंश है। यौधेय के गणराज्य सिकंदर की चढ़ाई के समय पंजाब में थे। इन्होंने 325 ई.पू. में सिकंदर के दाँत खट्टे किए थे। ऐसा भी खुदाई से विदित होता है कि यौधेय गण अस्त्र-शस्त्र संचालन में कुशल आयुधाजीवी ब्राह्मण थे। ब्राह्मणों के पेशागत परिवर्तन के उदाहरण वैदिक काल में परशुराम, द्रोण, कृप, अश्‍वत्थामा, वृत्र, रावण एवं ऐतिहासिक काल में शुंग, शातवाहन, कण्व, वाकाटक, खारवेल, भारशीव का एक अंश, बंगाल के सेन, अंग्रेजी काल में काशी की रियासत, दरभंगा, बेतिया, हथुआ, मल्हेया, सांबे, मंझवे, माँझा, बैजनाथपुर, अहियापुर, धारहरा, मनातू इत्यादि के जमींदार हैं। कालक्रम में जुझौतिया ब्राह्मण मध्य प्रदेश के जैजाक भुक्‍ति क्षेत्र बुंदेलखण्ड आए। ये कान्यकुब्ज ब्राह्मण (1865 की जनगणना) की एक शाखा हैं। मालवा के पठार में बसने के कारण इन्हें इलाहाबाद में मालवीय भी कहा जाता है। स्वामी के पूर्वज बुंदेलखण्ड से गाजीपुर के देवा गाँव आए एवं अपने समतुल्य ब्राह्मण की दूसरी उपजाति भूमिहार ब्राह्मणों (बाभन) से रक्‍त-सम्बन्ध द्वारा घुल-मिल गए। स्वामी जी का जन्म एक निम्न मध्यवर्गीय किसान परिवार में हुआ। उनका विशिष्ट मूल एवं विशिष्ट वर्गाधार उनके जीवन चरित्र को आँकने की कुंजी है। वे एकांत प्रिय, सरलचित्त, सत्यनिष्ठ, विचारक, जिज्ञासु, साधनारत, धुनी, नि:संग अनासक्‍त, कर्मशील, योद्धा क्रांतिकामी, सक्रिय वेदांत के मर्मज्ञ, मीमांसा के ज्ञाता, बहुपठित शास्त्रज्ञ, वर्ग-संघर्ष के पैरोकार, व्यावहारिक मार्क्सवाद के जानकार, राष्ट्रवादी-वेदांती मार्क्सवादी थे। ये सत पर अडिग रहनेवाले संत थे। कई भाषाओं के जानकार थे। इनकी असली पढ़ाई शास्त्रीय ढंग से, स्वाध्याय से और अपने खुद के जीवन-संघर्ष से जूझते हुए, सीखते हुए हुई थी। वे भारतीय अस्मिता, पुरुषार्थ के प्रतीक एवं दर्पण दोनों थे। यदि राजा राममोहन राय को उषाकाल का सूर्य, महर्षि दयानन्द को उगता हुआ सूर्य, विवेकानन्द को उदित सूर्य कहा जावे तो स्वामी सहजानन्द सरस्वती दोपहर के प्रचंड सूर्य थे। विवेकानन्द ने अद्वैत वेदांत को नई ऊँचाई दे कर भारत को बेटी बंदी, रोटी बंदी, जाति बंदी, समुद्र बंदी, हुक्काबंदी से मुक्‍त कराने का प्रबल उपक्रम किया था और आदर्शवाद को खींच कर भौतिकवाद के कगार पर खड़ा किया था तथा ओज, शौर्य, पराक्रम, आत्मविश्‍वास की चाशनी में नियतिवादी वेदांत को तर किया था। स्वामी सहजानन्द विकास के क्रम में विवेकानन्द की अगली कड़ी थे। स्वामी सहजानन्द ने वेदांत को भौतिकवाद के बीचोंबीच स्थिर किया एवं वेदांत को प्रवचन सभागार से निकाल कर जनसंघर्षों में, नित्य के सामाजिक जीवन में जी कर एवं जिला कर नए ओज एवं तेवर से अश्रुतपूर्ण अगतनुगतिक रास्ते से स्थापित किया। वे सक्रिय वेदांत एवं देशज मार्क्सवाद के प्रवक्‍ता एवं प्रयोगकर्ता दोनों साथ-साथ बने। इनके गीताधर्म के अन्तर्गत मार्क्स, इस्लाम, क्रिस्तान सबके लिए पर्याप्त जगह थी। इनकी गीता सार्वभौम, सार्वकालिक थी जिसमें जनहित-लोकसंग्रह के रास्ते कर्म, अकर्म, सुकर्म, विकर्म कुछ भी करते हुए पूर्णता पाई जा सकती थी। वेदांत के अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष में मार्क्स के अर्थ को पहला स्थान था, इसी कारण इन्होंने राजनीति को आर्थिक कसौटी पर कस कर कबूल किया, जबकि दूसरे लोग राजनीति के चश्मे से आर्थिक नीति को देखते थे। स्वामी जी की क्रांति का रास्ता उग्र अर्थवाद, वर्ग-संघर्ष, किसान हित के रास्ते से तय होता था।

संन्यास

गाजीपुर के जर्मन मिशन स्कूल में प्रारंभिक शिक्षा के बाद स्वामी जी 1917 ई. में कुल अट्ठारह वर्ष की उम्र में ही संन्यासी हो गए। संन्यासी बन कर स्वामी जी ने ईश्‍वर और सच्चे योगी की खोज में हिमालय, विंध्यांचल, जंगल, पहाड़, गुफा की दर-दर खाक छानी पर कहीं भी न 'हरि ही मिले न विशाले सनम।' स्वामी जी योगी और ईश्‍वर की खोज को विराम दे कर ज्ञान यज्ञ की ओर प्रवृत हुए। काशी और दरभंगा के उद्‍भट विद्वानों के संग वेदांत, मीमांसा, न्याय शास्त्र का गहन अध्ययन किया। इस अध्ययन से वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि हृदय, मस्तिष्क और हाथ तीनों के बीच उचित तालमेल अर्थात श्रद्धा पर बुद्धि का, बुद्धि पर संवेदना का, विश्‍वास का, श्रद्धा का, पहरा जरूरी है तथा श्रद्धा और बुद्धि का शिल्प से जुड़ाव आवश्यक है। बुद्धिहीन श्रद्धा अन्ध-विश्‍वास में धकेल सकती है और श्रद्धाविहीन बुद्धि बेलगाम घोड़े ऐसा पटक कर हाथ-पैर तोड़ सकती है। तर्कशून्य, विवेकशून्य धर्म दैववाद में, परलोकवाद में भटका सकता है और भावनाहीन बुद्धि सहृदयता छीन सकता है, संवेदना छीन सकता है। अत: श्रद्धा, बुद्धि और श्रम तीनों मनुष्य को पूर्ण बनाने के लिए एक साथ जरूरी हैं।

सामाजिक कार्य

परिस्थितिवश स्वामी जी 1915 ई. में सामाजिक कार्य में पड़ गए। इस अवधि में इन्होंने पुरोहितवाद, कथावाचन के ब्राह्मण जाति के एक उपजाति के एकाधिकार के खिलाफ खड़ा होना पड़ा। स्वामी जी किसी भी प्रकार के अन्याय के खिलाफ डट जाने का स्वभाव रखते थे। गिरे हुए को उठाना अपना प्रधान कर्तव्य मानते थे। स्वामी जी ने इस क्रम में ब्रह्मर्षि वंश विस्तार, झूठा भय, मिथ्या अभिमान, ब्राह्मण समाज की स्थिति इत्यादि पुस्तकें लिखीं। सुनील कुमार चाटुर्ज्या, पंडित हजारीप्रसाद द्विवेदी, कान्यकुब्ज सभा, सर्यूपारीण सभा इत्यादि व्यक्‍ति और संगठन ब्रह्मर्षि वंश विस्तार में उद्घाटित तथ्यों के आलोक में स्वामी जी से अपनी सहमति जताई पर डुमराव के शाकद्वीपी-मागी ब्राह्मण रजनीकांत शास्त्री एवं उनके समर्थकों ने विरोध नहीं छोड़ा और पूजा कराना बंद कराने की धमकी दे दी। इस परिस्थिति में स्वामी जी ने खुद कथावाचन, संस्कृत अध्ययन की राय समाज को दी एवं पूजा-पाठ, शादी-ब्याह, सोलह संस्कार, नित्य कर्म, संध्यावंदन इत्यादि कर्मों हेतु अत्यन्त सरल, सुबोध, पुस्तक 'कर्मकलाप' लिख कर दे दी ताकि अपना काम खुद चला लें। 1935 ई. के आस-पास बेला के पास शिलौजा गाँव में हुए शास्त्रार्थ में सभी पुरोहितवाद को अपनी जागीर समझनेवाले जमात एवं उनके प्रमुख रजनीकांत शास्त्री की हार हुई और खुद उनकी पुरोहिती एवं जीविका खतरे में पड़ गई तब उन्होंने स्वामी जी का पैर पकड़ कर कहा -

'आप संन्यासी हैं। दयालु हैं। सब कुछ कीजिए पर पेट पर लात न मारें।'

इसके पहले स्वामी जी ने बलि के खसी के मुड़ी पुजाई में लेकर बेचने पर पंडितों को मांस की खरीद-बिक्री करनेवाला कह कर ऐसी-तैसी कर दी थी और श्रोताओं में उनसे पुरोहिती न कराने का संदेश गया। पुरोहित वर्ग ने पेट पर लात की आशंका में शीघ्र घुटने टेक दिए। इस तरह इस अध्याय का पटाक्षेप हो गया।

राजनीति में प्रवेश

1919 ई. में बाल गंगाधर तिलक की मृत्यु हो गई। प्रखर राष्ट्रवादी की मृत्यु से उपजी संवेदना के कारण स्वामी जी खिंच कर राजनीति में आ गए। इन्होंने तिलक स्वराज्य फंड के लिए कोष इकट्ठा करने में शिरकत की। इसी दर्म्यान असहयोग आंदोलन में जेल भी गए। जेल में त्यागी कहे जानेवाले कांग्रेसी नेताओं की विलासिता, भोगवादिता, उनके काले कारनामे प्रत्यक्ष देखने का मौका मिला एवं कांग्रेस के वैसे नेताओं के वर्ग से इनका विश्‍वास उठ गया। जेल से आने पर इनका संपर्क सर गणेशदत्त से हुआ। सर गणेशदत्त दानी और ऋषि तुल्य उदारचेता जमींदार राजनेता थे। स्वामी जी की लोकप्रियता के बल पर सर गणेशदत्त बिहार में डॉ. राजेंद्र प्रसाद के विरोध के बावजूद चुनाव में सफल रहे। ये अंग्रेजों के अधीन लोकल बोर्ड के मन्त्री भी बने। इन्होंने स्वामी जी को बिहटा के सीताराम आश्रम में टिकाया एवं अपने पैसे से आश्रम में अध्ययन, पूजा, भजन, ध्यान का समुचित प्रबंध किया। सर गणेशदत्त जमींदार ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व करते थे। परिस्थितिवंश स्वामी जी खेतिहर ब्राह्मणों के बीच नायक की छवि रख रहे थे। भूमिहार ब्राह्मण महासभा में जमींदार एवं गरीब किसान ब्राह्मणों के हित टकराने लगे एवं स्वामी छोटबभना के पक्ष में दृढ़ता से खड़े हो गए। बड़बभना लोग ही जाति सभा का खर्च जुटाते थे मगर वे अल्पमत में थे। इस परिस्थिति में यह महासभा टूट कर समाप्त हो गई। इस छोटबभना और बड़बभना के संघर्ष के अंदर किसान-जमींदार संघर्ष के बीज अन्तरवस्तु में छिपे थे जो बाद में चल कर पुष्पित-पल्लवित हो कर प्रबल किसान संघर्ष में दृष्टिगत हुआ।

भारत में राजनीति का जन्म पूर्व में भी सामाजिक आंदोलन की कोख से ही हुआ करता था। मराठा, जाट, कूका, सिक्ख, अनुशीलन समिति सभी विद्रोहों का जन्म सामाजिक चेतना के विकास के साथ ही संभव हुआ। हाल में गांधी, पटेल, अरविंद, तिलक सभी सामाजिक आंदोलन से ही केंद्रीय राजनीति में आए थे। आज भी झारखण्ड मुक्‍ति आंदोलन, टिकैत के नेतृत्व का किसान आंदोलन सभी की कोख सामाजिक आंदोलन ही है। यह कहा जा सकता है कि भारत में राजनीतिक संघर्ष की पूर्व पीठिका सामाजिक आंदोलन ही है। स्वामी जी का राजनीतिक प्रादुर्भाव भी इसी क्रम से हुआ और यह रास्ता भविष्य के राजनीतिक आंदोलनों की सफलता की एक पूर्व शर्त एवं पथ फाइंडर है।

किसान सभा का जन्म

1927 ई. में स्वामी जी ने पश्‍चिमी किसान सभा की नींव रखी। स्वामी जी के मन से दु:खियों, शोषितों को छोड़ मुक्‍ति की कामना जाती रही। स्वामी जी ने 'मेरा जीवन संघर्ष' में लिखा है -

'मुनि लोग तो स्वामी बन के अपनी ही मुक्‍ति के लिए एकांतवास करते हैं। लेकिन, मैं ऐसा हर्गिज नहीं कर सकता। सभी दु:खियों को छोड़ मुझे सिर्फ अपनी मुक्‍ति नहीं चाहिए। मैं तो इन्हीं के साथ रहूँगा और मरूँगा-जीऊँगा।'

सोनपुर मेले के अवसर पर 1929 ई. में बिहार प्रान्तीय किसान सभा की नींव रखी गई। स्वामी सहजानन्द इसके अध्यक्ष एवं डॉ. श्रीकृष्ण सिंह इसके सचिव बनाए गए। इस कार्य में रामदयालु बाबू एवं यमुना कार्यी जी स्वामी जी के प्रमुख सहयोगी थे। इसके पूर्व चार किसान संघर्ष बड़े ही उल्लेखनीय हैं।

गांधी का किसान-संघर्ष बनाम सहजानन्द का किसान-संघर्ष

यह महात्मा गांधी द्वारा 1917 ई. में चलाया गया। महात्मा गांधी को चंपारन खोंदर राय जमींदार एवं राजकुमार शुक्ला सूदखोर बुला कर लाए थे। गांधी जी का मुद्‍दा 20 वर्ग मील जमीन में नील की हो रही खेती में अंग्रेज निलहे द्वारा बढ़े हुए कर में मामूली राहत था, पर जनता की जरूरत निलहों को बसानेवाले दो हजार वर्ग मील जमीन पर राज करनेवाले बेतिया राज के खिलाफ उसके शोषण के विरुद्ध संघर्ष की थी। गांधी जी जमींदार वर्ग के खिलाफ लड़ने को कतई तैयार नहीं थे और अंग्रेजों से भी ससम्मान सहयोग के इच्छुक थे, अत: संघर्ष की सीमा थी। इस परिस्थिति में अंग्रेजों से गांधी जी का 'ससम्मान समझौता' शीघ्र संपन्न हो गया। नकली नील के कारखाना में बनने से यह मुद्‍दा स्वत: समाप्त हो गया। हलचल खड़ा कर गांधी जी रंगमंच से विदा हो गए पर जनता साम्राज्यवाद के साथ-साथ सामंतवाद के विरुद्ध जोर आजमाने को मचलने लगी। दूसरा संघर्ष राँची में जतरा उराँव के नेतृत्व में ताना भगतों का 1914 ई. में हुआ। इस वैष्णववादी सामाजिक आंदोलन से गांधी जी काफी सीखे और बाद के समय में उनका यह शराबबंदी, अहिंसक आंदोलन गांधी जी का रहबर बना। तीसरा आंदोलन चंपारन के खेड़ा जिला एवं बारडोली जिला में क्रमश: 1922 ई. एवं 1928 ई. में हुआ। गांधी पटेल जमींदारों द्वारा शुरू किया गया पर यहाँ भी आंदोलन पटेल जमींदारों के हाथ से फिसल कर रानी परजा, दुबला, हाली इत्यादि गरीब जातियों के हाथ में जाने लगा तब यहाँ भी ससम्मानजनक समझौता कर किसानों को बेहाल ही छोड़ दिया गया। पटेल पट्टीदार की कुछ माँगें मंजूर की गईं। इस आंदोलन में गांधी जी का दृष्टिकोण इस तरह प्रकट हुआ।

'कांग्रेस इकाइयाँ रैयत को यह जानकारी दें कि जमींदार का लगान रोकना कांग्रेस के प्रस्तावों के विरुद्ध है तथा यह राष्ट्र के हितों के लिए अत्यधिक हानिप्रद है।' (सुनील सेन, भारत का कृषि आंदोलन, पृष्ठ 38)

गांधी जी ने इन अनुभवों से यह निष्कर्ष निकाला कि किसानों को एक हद से अधिक आंदोलनरत रखना कांग्रेस एवं इसके संचालक जमींदार वर्ग, बाबू वर्ग के हित के प्रतिकूल है और बारडोली के बाद आजीवन गांधी, पटेल, बाबू राजेंद्र प्रसाद ने कभी भी भूल कर भी किसान आंदोलन का नाम न लिया और न यह सुनना उन्हें अच्छा लगा। इसी कारण से चौरी-चौरा में हिंसा का बहाना ले कर गांधी जी अपना असहयोग आंदोलन ठप्प कर रचनात्मक काम के नाम पर आश्रम में आराम फरमा रहे थे। आंदोलन के लंबा खिंचने पर मुमकिन था कि जनवर्ग से ही नेतृत्व पैदा हो जाता। यह खतरा भारत का बाबू वर्ग नहीं उठा सकता था। नतीजा असहयोग की समाप्ति की घोषणा में हुआ। असहयोग और सत्याग्रह प्रखर राष्ट्रवादी तिलक के हथियार थे जो अब मुलायम, गांधी द्वारा सीमित तौर पर प्रयुक्‍त किया जा रहा था। धर्म के माध्यम से, सामाजिक कार्य के माध्यम से, पत्राकारिता के माध्यम से राजनीति गरमाने का गुर पूर्व में तिलक आजमा चुके थे। समाजवाद की अवधारणा आने के पूर्व कांग्रेस का संचालन 1935 ई. तक तिलक के 'राष्ट्रवाद' की अवधारणा के तहत जारी था। गांधीवाद तिलक के विपरीत संविधानवादी गोखले, मोतीलाल नेहरू की विचारधारा से उद्‍भूत हुआ था जिसके हथियार केवल तिलक से लिए गए थे। गांधी ने बोअर युद्ध में अफ्रीका में एवं प्रथम विश्‍वयुद्ध में अंग्रेजों का साथ दे कर अंग्रेजों से इनाम में क्रॉस खिल्लत, शाबाशी प्राप्त की थी। गांधी जी ने 'भारत ग्राम सभाओं का देश है' अवधारणा हैनरी मन से प्राप्त की थी। गांधी जी ने तिलक के सक्रिय सत्याग्रह की जगह 'अक्रिय सत्याग्रह' की अवधारणा टालस्टाय के साहित्य से अपने यूरोप प्रवास में प्राप्त की थी। 'सर्वोदय' का सिद्धांत रस्किन से लिया गया था। अहिंसा का मत ईसाई ग्रन्थ बाइबिल से लिया। यह समझ बौद्धों की अहिंसा से भिन्न है। बौद्धों की अहिंसा में भाईचारा, करुणा और सामाजिक न्याय की गूँज है। ईसाइयों की अहिंसा लक्ष्य के लिए हथियार है। गांधी ने भी वैचारिक हिंसा से कभी परहेज नहीं किया मामला चाहे कस्तूरबा के उत्पीड़न का हो, नेहरू की नामजदगी का हो, सहजानन्द, सुभाष के निष्कासन का हो, मोहानी के सर फोड़ने का हो (कानपुर अधिवेशन), पाकिस्तान से 1947 में युद्ध का हो, 1947 में बँटवारे से संबंधित हिंसा का हो, गांधी जी अहिंसा से कभी चिपके नहीं रहे। अंदर एक डिक्टेटर का निवास था जो सत्ता की जिम्मेवारी दूसरे पर डालता था पर सूत्र-संचालन कभी भी फिसलने नहीं देता था।

स्वराज्य पार्टीवाले हाउस में जा कर कुछ नहीं कर पाए। कांग्रेसवाले चौरी-चौरा के बाद किंकर्तव्यविमूढ़ थे। क्रांतिकारी राष्ट्रवादी आतंकी कार्रवाइयों से मोहभंग में थे। बिस्मिल की आत्मकथा, भगत सिंह के दस्तावेज इस बात के लिए प्रमाण हैं कि वे हलचल के स्तर को किसान-मजदूर आंदोलन की ऊँचाई पर ले जाने की तमन्ना लेकर ही फाँसी पर झूल गए। भगत सिंह का अन्त निष्कर्ष स्वामी सहजानन्द का प्रस्थान बिंदु का प्रारंभिक चरण साबित हुआ। बिहार का किसान दानाबंदी, भावली, बेगारी, डोला, बकाश्त बेदखली, ऋणग्रस्तता, मंदी के असर से सस्ती से बेहाल था। इस भौतिक परिस्थिति में जहाँ चारों ओर तमस पसरा हुआ था, स्वामी सहजानन्द का किसान आंदोलन राष्ट्रीय आंदोलन में नया खून, नया आवेग देकर नई आशा का संचार करनेवाला साबित हुआ। अब, कांग्रेस की पहचान किसान आंदोलनों से ही होने लगी और राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में आने के लिए माध्यम बना कर विदेश पढ़े बाबू वर्ग ने भी दिलचस्पी लेना शुरू किया। इस क्रम में नेहरू, जयप्रकाश, लोहिया, एन.जी. रंगा सभी सहजानन्द जी के संपर्क में आने लगे। स्वामी जी ने अपनी आत्मकथा में लिखा है −

'जिसका हक छीना जावे या छिन गया हो उसे तैयार कर के उसका हक उसे वापस दिलाना, यही तो मेरे विचार से आजादी की लड़ाई तथा असली समाज सेवा का रहस्य है।'

सहजानन्द का सामंत-विरोधी संघर्ष ही आजादी की असली लड़ाई अन्तत: साबित ठहरी।

रचनात्मक काम का रहस्य

डॉ. राजेंद्र प्रसाद डालमिया के बिहटा चीनी मील के डायरेक्टर थे। मील की स्थापना के पूर्व उन्होंने वचन दिया था कि अंग्रेजों की तुलना में मेरी देशी मील ज्यादा ऊख का दाम किसानों को देगा पर मील खुल जाने पर हुआ उल्टा। वे आधे दाम देकर ही किसानों को ठगने पर तुल गए। स्वामी जी ने मजदूर नेता अनिल मित्रा को बिहटा किसान फ्रंट पर रख किसान नेता श्यामनन्दन सिंह को मजदूर फ्रंट पर लगा कर एक साथ संश्रय से किसान-मजदूर सफल हड़ताल करवा कर डालमिया और राजेंद्र प्रसाद की हेंकड़ी गुम कर दी। डालमिया स्वामी जी के पास बड़ा विद्यापीठ बनाने का खर्च उठाने का लालच भरा प्रस्ताव ले कर खुद आया। स्वामी जी ने डंडा ले कर उसे खदेड़ा। स्वामी जी की समझ में अब रचनात्मक काम का रहस्य समझ में आ गया। सेठ किसानों के शोषण से जो एक बाल्टी खून पीता है, उसमें से एक गिलास वापस नेताओं को चंदा, आश्रम, खादी संघ, चरखा संघ, इत्यादि हेतु लौटा देता है। इसी पैसे से पुरुषोत्तम दास सेठ अपना काम वल्लभ भाई पटेल द्वारा घनश्याम दास सेठ अपना काम गांधी द्वारा टाटा सेठ अपना काम नेहरू द्वारा निकाल लेते थे। गांधी के प्रभाव से अंग्रेजों से ठेका पाकर भारी मुनाफा का एक हिस्सा सेठ अपने चहेते नेताओं को देते थे। जिससे नेता अपनी राजनीति करते थे एवं मीडिया में शोहरत पाते थे। स्वामी जी ने एक ओर ऐसे ही प्रसंग में कहा − 'मैं ऐसे पैसे पर पेशाब करता हूँ।' (मेरा जीवन संघर्ष)

गांधीवाद से मोहभंग

1934 के भूकंप में उत्तर बिहार के लोगों की भारी तबाही हुई। दरभंगा जिला के आस-पास इलाके में महाराजाधिराज कामेश्‍वर नारायण सिंह द्विज राज का शासन था। उनके प्रधानमन्त्री गिरींद्र मोहन मिश्र कांग्रेस के थैलीशाह एवं महत्वपूर्ण व्यक्‍ति थे। दरभंगा राज के अमले उस भारी विपत्ति में भी किसानों की नोच-खसोट जारी रखे हुए थे। स्वामी जी ने गांधी जी से यह छीना-झपटी, उत्पीड़न बंद करने को कहा। गांधी जी का जमींदार के पक्ष का उत्तर सुन कर स्वामी जी अवाक रह गए और उनका झटके से मोहभंग हो गया। गांधी की विचारधारा से, गांधी के तौर-तरीके से स्वामी जी को नफरत हो गई। समस्या के निदान के लिए गांधीवाद को स्वामी जी ने न केवल नाकाफी समझा बल्कि प्रतिलोम में पाया। स्वामी जी इस तरह गांधीवाद की लक्ष्मण रेखा के पार चले गए।

जाति सभा गठन का रहस्य

इसी अवधि में कलकत्ता की एक जातीय पत्रिका 'भूमिहार ब्राह्मण' के संपादक ने स्वामी जी से एक लेख माँगा। स्वामी जी का लंबा लेख किश्तों में पत्रिका में छपा। लेख की विषय-वस्तु पढ़ कर संपादक जी आठ-आठ आँसू रोए, पर उन्होंने हार कर लेख को छापा। यह लेख बाद में 'किसानों के फँसाने की तैयारियाँ' नाम से अलग पुस्तिका के रूप में छापा गया। प्रथम बार यह 1935 ई. में ही पत्रिका में छापा गया। लेख में स्वामी जी ने लिखा था। उसका आशय यह है -जमींदार जातीय सभा बना कर किसान की चेतना को तोड़ते हैं, उन्हें विभक्‍त करते हैं, उन्हें फँसाते हैं, जातीय सभा के संचालक की भक्‍ति ब्रिटिश ताज और झंडे के प्रति होती है। जनता को चाहिए कि इनसे वे सावधान रहें। साम्राज्यवाद को टिकाने वाली चीज भारत में जमींदारी है। यही पाया है कि जिस पर ब्रितानी सरकार टिकी है। यही जमींदार जातीय सभाओं के संरक्षक हैं।

स्वामी जी कांग्रेसियों की चरित्रहीनता, कर्तव्यहीनता, अंग्रेजों से उनकी मिली-भगत अपने जेल प्रवास में पूर्व में देख चुके थे।

गांधीवाद की कमियाँ

गांधीवाद के अन्तर्गत लूट और हिंसा से प्राप्त दौलत के क्षेत्र में कानून के प्रवेश की गुंजाइश नहीं थी। गांधी की अहिंसा नीति से जमींदार-मालदार बाबू वर्ग की सदियों से लूटी दौलत की सुरक्षा निश्‍चित हो जाती थी। ब्रितानी साम्राज्य भी गांधी की अहिंसा से ला एवं आर्डर की समस्या से मुक्‍ति पाकर चैन की नींद सोता था। गांधी के प्रति अंग्रेजों की हमदर्दी का राज यही है। गांधी को जेल देकर अंग्रेज गांधी का रुतबा जनता में कायम रखते थे ताकि जनता भ्रम में पड़ी रहे। जेल भी आगा खाँ ऐसे अरबपति की महल में पत्‍नी कस्तूरबा, सचिव महादेव देसाई, नौकर-चाकर, अमला बराहिल के साथ होता था जिससे निजी सहूलियत बाधित न हो। ट्रस्टीशिप के सिद्धांत से सेठ की मनमर्जी बनी रहती थी। त्याग के नाम पर मनपसंद प्रायोजित नेता को चंदा दे कर उससे लाभ कमा कर 'अपरिग्रह' पर्व का पालन हो जाता था। धर्म के माध्यम से राजनीति करने से सांप्रदायिक उन्माद अग्रगति प्राप्त करता था। औपनिवेशिक स्वराज्य की माँग भारत के स्वावलंबन एवं पूँजी के स्वतन्त्रता विकास की गति को अवरुद्ध करती थी। सामंती उत्पादन प्रणाली की बरकरारगी एवं विज्ञान के निषेध से बंगाल की भंयकर भुखमरी से निपटने का कोई उपाय नहीं था। गांधी की जमींदारपरस्ती और अहिंसा की नीति से बंगाल के अकाल के समय अनाज रहते वितरण न होने से चालीस लाख व्यक्‍ति भूख से मर गए। पूँजी के विकास की संरचना खड़ा करने की कोई बात गांधीवाद में न थी। गांधी ने छुआछूत से इनकार किया पर छुआछूत के पैदा करनेवाले डायनेमो वर्णाश्रम को कबूल किया। गांधी के मन्दिर प्रवेश आंदोलन ने पुरोहित वर्ग के धर्म साम्राज्य को विस्तारित ही किया। नारी को परम्परागत गृहिणी बनने का उपदेश देकर गांधीवाद ने लिंगभेद को कायम रखा। भारत में वर्ग की जगह जाति राजनीति की नींव गांधीवाद ने डाली। यह भस्मासुर आज पूरे फार्म में है। गांधी ने गाँव बनाम शहर मुद्‍दा बना कर गाँव के कुलक सामंत तबके को संरक्षण दिया। गांधीवाद अर्थव्यवस्था को पिछड़ेपन की ओर वापस धकेलती थी। विज्ञान के अभाव में आज सोवियत संघ बिखर गया, कल्पना की जा सकती है भारत ने गांधीवाद अपनाया होता तो सौ करोड़ की आबादी की क्या गत बनी होती? लठ, कुड़ी से क्या पंजाब में हरित क्रांति आती? और यदि भाखडा़, नांगल, बाँध न होता, हरित क्रांति न होती तो 1947 की तुलना में आज तिगुनी हुई आबादी भूख से तड़पड़ा कर मर जाती। गांधी की संविधान सभा में जनता द्वारा चुना गया कोई व्यक्‍ति न था। बँटवारे का प्रस्ताव महासमिति में गांधी के हस्तक्षेप एवं भाषण से ही किसी तरह पास हो सका। गांधी ने महासमिति में बँटवारे का खुल कर समर्थन किया। संविधान सभा का अध्यक्ष 'लार्ड' था एवं ड्राफ्ट कमेटी में 'सर' लोग भरे थे। यह था गांधी का गाँव प्रेम जिसमें गाँव की आम जनता को वोट का अधिकार ही नहीं था संविधान बनाने में। गांधीवाद में रोजगार गारंटी गायब है पर बेइंतहा मुनाफा पर जरा भी रोक नहीं है। गांधी पैदा हुए दौलत पर दौलतमंदों के साथ थे, नई दौलत पैदा करने की पुरानी प्रविधि से दौलत उत्पादन को ही खर्चीला, अपर्याप्त उत्पादन द्वारा बाधित कर रहे थे।

स्वाभाविक था कि तिलकवाद 1935 तक कांग्रेस की चालक विचारधारा बनी रही इसके बाद समाजवाद ने चालक विचारधारा का स्थान ले लिया।

समाजवादी पार्टी की स्थापना

स्वामी सहजानन्द सरस्वती गांधीवाद को अपर्याप्त, नाकाफी और नाकारा समझ कर चुप नहीं रह गए। उन्होंने सवाल किया - 'स्वराज्य' का असली मतलब क्या है? किसका स्वराज्य? जमींदार का या किसान का? पूँजीपति का या मजदूर का? बाघ का या हिरण का? बिल्ली का या चूहे का? एक का स्वराज्य दूसरे का यमराज हो जावेगा। जब समाज विविध वर्गों में बँटा हुआ है एवं उनके हित समरूप नहीं हैं तब एक को मिली आजादी दूसरे के लिए शामत की घंटी साबित होगी। सुभाषचंद्र बोस ने सवाल को दूसरी तरह से किया। पूर्ण आजादी या डोमिनियन आजादी। गांधी डोमिनियन आजादी यानी आधी आजादी की माँग कर ही संतोष कर लेते थे। नेहरू 1929-30 के लाहौर अधिवेशन में पूर्ण आजादी की माँग के समर्थन में आए पर 1930-31 के कराची अधिवेशन में गांधी पटेल गुट के दबाव में फिर औपनिवेशिक स्वराज्य की माँग में सिमट गए। स्वामी सहजानन्द का सवाल था - किसकी आजादी? सुभाष का सवाल था - कैसी आजादी? सुभाष-सहजानन्द की जोड़ी मिल कर सामंत-साम्राज्य विरोधी मोर्चा अपने उग्र तेवर के साथ मुकम्मल हो जाता था। यह वैकल्पिक राष्ट्रवाद की धारा थी। यह सवाल्टर्न धारा नहीं थी। यहाँ राष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य काम कर रहा था। भारत के आजादी के संघर्ष में गांधी और गांधीवाद के समझौता-मूलक लाइन ने, जमींदार परस्त नीति ने, पूँजीपति पर निर्भर राजनीतिक कार्रवाई ने जनता को गांधीवाद से विमुख कर 'समाजवाद' का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

समाजवादी पार्टी की स्थापना बिहार में स्वामी सहजानन्द सरस्वती के सहयोगी राहुल सांकृत्यायन, रामवृक्ष बेनीपुरी एवं क्रांतिकारी राष्ट्रवादी बसावन सिंह द्वारा 1931 में ही हो गई थी। अंजुमन इस्लामिया हाल पटना में 1934 में सम्मेलन किया गया। विदेश से पढ़ कर आए जयप्रकाश नारायण इसमें शरीक हुए। इस पार्टी ने भगत सिंह की हत्या से खिन्न युवकों को अपनी तरफ आकर्षित किया। इसमें जयप्रकाश, नरेंद्र देव, अशोक मेहता शरीक हुए। आचार्य नरेंद्र देव पर राष्ट्रवाद, मार्क्सवाद और खुशहाल किसान वर्ग का प्रभाव था। संपूर्णानन्द और अच्युत पटवर्धन पर वेदांती समाजवाद का प्रभाव था जो सदैव इन लोगों द्वारा अस्पष्ट अपरिभाषित ही रखा गया। लोहिया पर हिटलर और गांधी का प्रभाव था। इस पार्टी में नेहरू-सुभाष शरीक नहीं हुए। स्वामी सहजानन्द के सहयोगी कार्यानन्द शर्मा, किशोरी प्रसन्न सिंह, गंगा शरण सिंह, पंडित रामनन्दन मिश्रा, बसावन सिंह इत्यादि इसमें शरीक हुए पर स्वामी जी इसमें शरीक नहीं हुए। वर्ग-संघर्ष के मामले पर स्वामी जी इन्हें साथ रखने के पक्षधर थे। 1938 के कोमिल्ला अधिवेशन के बाद से स्वामी जी का इनसे मतभेद प्रारंभ हो गया जो 1941 के डुमराँव अधिवेशन में फरवरी में अलगाव में अन्त हुआ।

स्वामी जी के पास अतीत के अनुभव, वर्तमान का संकल्प और भविष्य की आशा थी। इसी पूँजी पर स्वामी जी ने समय के द्वार पर थपथपी दी। स्वामी जी को कछुआ चाल पसंद नहीं थी। वे तीव्रता, ऊर्जस्विता, तेजस्विता, आकुलता के मूर्तिमान रूप थे जो किसी भी अन्याय का मुँहतोड़ जवाब दिए बिना चैन से बैठनेवाला न था। उनकी प्रतिबद्धता पक्की थी, आक्रामकता टक्करदार थी। जब गांधी अपने ट्रस्टीशिप द्वारा क्रांति को गूँगा और अहिंसा द्वारा बहरा करने का काम जारी रखते थे तब स्वामी जी क्रांति को वर्ग-संघर्ष की वाणी दे कर और पूर्ण आजादी का श्रवण दे कर चलायमान, दोलायमान कर प्रकंपित, जलजला बना देते थे।

अखिल भारतीय किसान सभा का गठन

17 नवंबर 1929 को गठित बिहार प्रान्तीय किसान सभा का रूप विस्तारित हो कर 11 अप्रैल 1936 में अखिल भारतीय किसान सभा के रूप में पुनर्गठित हुआ। इसके गठन में पंडित यदुनन्दन शर्मा, कार्यानन्द शर्मा, मोहन लाल गौतम, पुरुषोत्तम दास टंडन, इंदुलाल यागनिक, कमलादेवी चट्टोपाध्याय, जयप्रकाश, करम सिंह मान, निहारेंद्र दत्त मजूमदार, कमल सरकार, सुधीन प्रामाणिक, आचार्य नरेंद्र देव, एन.जी. रंगा का हाथ रहा। बिहटा का सीताराम आश्रम, नियामतपुर (गया) का यदुनन्दन शर्मा का आश्रम इस संघर्ष का केंद्र बना। दिल्ली से प्रकाशित अंग्रेजी बुलेटिन 'किसान बुलेटिन' के संपादक इंदुलाल यागनिक हुए। इस सभा ने अपने लाल झंडे के बैनर तले शानदार लड़ाइयाँ लड़ीं जिसमें टेकारी, मंझियावाँ, भोरी, रेवड़ा, बड़हिया टाल, अमवारी, पंडौल, देकुसी, इत्यादि प्रसिद्ध हैं। स्वामी सहजानन्द और इंदुलाल यागनिक ने गुजरात में गरीब किसान जातियाँ रानी परजा-दुबला-हाली इत्यादि को संगठित कर पटेल की चुनौती को सर कर एक लाख किसान वालंटियर का जुलूस परेड कर निकाल हरिपुरा कांग्रेस के समय पटेल की साख धूल में मिला दी। पटेल ने विषय समिति में स्वामी को 'डर्टी स्वामी' कहा जिस पर तत्कालीन कांग्रेस अध्यक्ष सुभाष की डाँट उन्हें खानी पड़ी। अन्यत्र स्वामी जी को टेरिबुल (भयंकर) स्वामी कह कर संबोधित किया। किसान सभा को नेहरू का नैतिक समर्थन प्राप्त था पर जब नियामतपुर की बैठक में किसान सभा का झंडा लाल तय हुआ तब नेहरू किनारा कर गए। समाजवाद के नायक बन कर नेहरू 1936-37 में कांग्रेस अध्यक्ष बने थे पर गांधी की भावना का एवं अपने राजनीतिक कैरियर का ध्यान नेहरू को हमेशा रहा जो गांधी की सदस्यता पर ही टिकी हुई थी। नेहरू ने किसान सभा का इस्तेमाल पटेल ग्रुप को दबाने में किया पर गांधी से टकराने का आत्मविश्‍वास नेहरू में नहीं था। पटेल को दबाने में जयप्रकाश नेहरू के हथियार खुशी-खुशी बन जाते थे। स्वामी जी ने जयप्रकाश नारायण को यदुनन्दन शर्मा के आश्रम में रख कर वर्ग-संघर्ष की व्यावहारिक शिक्षा दी। जयप्रकाश नारायण को गया जिला कांग्रेस कमेटी का अध्यक्ष बनवाया और अखिल भारतीय कांग्रेस का महासचिव बना कर गया से ही भेजा। जयप्रकाश पर मार्क्सवादी का ठप्पा उस समय था एवं छपरा जिला से राजनीति राजेंद्र प्रसाद की चलती में चलाना जयप्रकाश के लिए दुष्कर था। जयप्रकाश ने इस समय पुस्तक लिखी थी - 'समाजवाद क्यों?' इसमें गांधी और गांधीवाद को चुन-चुन कर गालियाँ दी गई है पर 1939 के त्रिपुरी अधिवेशन के बाद जयप्रकाश नारायण ने कायाकल्प कर गांधी का खेमा पकड़ लिया। जयप्रकाश नारायण 1936 ई. में विहपुर प्रान्तीय किसान सभा के अध्यक्ष चुने गए थे। यह चौथा सम्मेलन था। 1939 ई. में नवादा जिला के रेवड़ा गाँव में सांबे स्टेट के जमींदार रामेश्‍वर बाबू के खिलाफ चलाए गए सफल किसान संघर्ष में पंडित यदुनन्दन शर्मा के मातहत सबसे बड़े नेता जयप्रकाश ही थे जिसमें बसावन सिंह भी शिरकत किए थे। 1938 ई. में मसौढ़ी, बिहार शरीफ बड़हिया की किसान सभा में स्वामी जी के साथ लोहिया भी घूमते थे पर आश्‍चर्य की बात यह है कि किसी भी जीवनीकार ने इन सारे प्रसंगों की चर्चा तक नहीं की है। समाजवादियों की किसान सभा संगठित करने में बड़ी अच्छी भूमिका रही है, पर इन लोगों ने अपने वर्ग-संघर्ष में शरीकदारी के अतीत को इतिहास से हटा दिया है। जयप्रकाश नारायण बाद में बिरला के नियमित पेरोल पर एवं गोयनका के अनियमित पेरोल पर आ गए और लोहिया के थैलीशाह जमना लाल बजाज तथा चार मिनार सिगरेट के मालिक बद्री विशाल पित्ती थे। लोहिया ने अपने 'विभाजन के गुनहगार' पुस्तक में जयप्रकाश को नेहरू का एजेंट कहा, नागार्जुन ने सागर के भाषण में जयप्रकाश को नेपाल के राणा से कोइराला के संघर्ष को शिथिल करने के लिए पैसा लेने का आरोप लगाया है। विभाजन के गुनहगार में बँटवारा के प्रस्ताव को पास कराने में सहयोग के लिए अपने बड़े भाई जयप्रकाश को दोषी करार दिया है एवं अपने को जयप्रकाश का छोटा भाई कह कर, अनुयायी कह कर अपना कलंक धो लिया। नागार्जुन सागर के भाषण में राणा से स्वयं पैसा लेने की बात, उद्देश्य की जानकारी न रहने के कारण कबूल की है। अन्य जमनालाल बजाज द्वारा पैसा ऑफर की चर्चा है। बेनीपुरी ने जयप्रकाश को अपने विरोधी दानी सर गणेशदत्त के घर जा कर पैसा प्राप्त करने की चर्चा की है (मुझे याद है)। अन्य बातें रामनाथ गोयनका की पुस्तक जयप्रकाश और बिरला की लिखी किताब में ब्यौरेवार हैं।

सवाल उठता है सेठ आखिर समाजवादियों को पैसा क्यों देते थे? भारत का पूँजीवाद नवोदित एवं कमजोर था। दौलत सामंतों के हाथ थी। सामंत स्वेच्छाचारी थे। उनके प्रभाव में रहते पूँजी का विकास संभव न था। इस हेतु उन्हें हटाना जरूरी था। दूसरे, जब जमींदारी-रजवाड़ी उन्मूलित हो जाती तभी सामंत अपनी जीविका के नए स्रोत हेतु अपनी दौलत बाजार में शेयर या ऋण के रूप में उतारते। सामंतों को कमजोर करने में सेठ अकेले सक्षम नहीं थे। इस कार्य में उन्होंने समाजवादियों की मदद ली। रंगा आक्सफोर्ड से पढ़ कर आए थे, जयप्रकाश अमेरिका से पढ़े थे, लोहिया जर्मनी से पढ़े थे। ये गाँव में वर्ग-संघर्ष की आँच ज्यादा सह नहीं सकते थे। इन्हें मीडिया में शोहरत की जरूरत थी। सेठों ने इन्हें पैसा, शोहरत दोनों दिया और दिलाया। इनका समाजवाद रोमांसवादी और एडवेंचरिस्ट था। वर्ग-संघर्ष के प्रति ये पूरे प्रतिबद्ध न थे। संपूर्णानन्द, अशोक मेहता कांग्रेस में आजादी के बाद चले गए। अच्युत पटवर्द्धन संन्यासी ऐसा वीतराग हो गए। आचार्य नरेंद्र देव विश्‍वविद्यालय के कुलपति बन गए। जयप्रकाश सर्वोदय में चले गए। पार्टी अन्तत: बिखर गई।

अखिल भारतीय किसान सभा

अधिवेशन प्रांत स्थान अध्यक्ष महासचिव ईस्वी

प्रथम यू.पी. लखनऊ स्वामी सहजानन्द एन.जी. रंगा 11-4-1936

द्वितीय महाराष्ट्र फैजपुर एन.जी. रंगा स्वामी सहजानन्द 26-12-1936

तृतीय पूर्वी बंगाल कोमिल्ला स्वामी सहजानन्द एन.जी. रंगा 14-15 मई, 1938

चतुर्थ बिहार गया आचार्य नरेंद्र देव स्वामी सहजानन्द 9-10 अप्रैल, 1940

पंचम महाराष्ट्र पलासा सोहन सिंह भखना स्वामी सहजानन्द मार्च, 1940

षष्ठ बिहार बिहटा इंदुलाल यागनिक स्वामी सहजानन्द 29-31 मई, 1942

सप्तम पंजाब भखना बंकिम मुखर्जी स्वामी सहजानन्द 2-4 अप्रैल, 1943

अष्टम आंध्र बैजवाड़ा स्वामी सहजानन्द बंकिम मुखर्जी 14-15 मार्च, 1944

नवम पूर्वी बंगाल नेत्राकोना - - -

नोट - पंचम अधिवेशन के मनोनीत राष्ट्रपति राहुल सांकृत्यायन थे। पर उस समय वे जेल में थे। अत: भाषण राहुल का पढ़ा गया एवं अध्यक्षता अनुपस्थिति में गदर पार्टी के क्रांतिकारी बाबा सोहन सिंह भखना ने की। नवम अधिवेशन में नेत्रकोना (मैमन सिंह) स्वामी सहजानन्द कम्युनिस्ट पार्टी से अलगाव के कारण शरीक न हुए। षष्ठ अधिवेशन में बिहटा से फारवर्ड ब्लाक किसान सभा से मतभेद के कारण निकल गए। इसके पूर्व 1941 ईस्वी में आठवाँ प्रान्तीय अधिवेशन से कांग्रेस समाजवादी किसान सभा से अलग हो गए थे। कार्यालय सदैव स्वामी सहजानन्द के ही साथ रहा। ये ही सर्वे-सर्वा होल टाइमर-पूर्णकालिक थे, शेष लोगों को अन्य काम भी थे।

बिहार प्रान्तीय किसान सभा

अधिवेशन सं. ईस्वी स्थान सभापति

1. 1929 सोनपुर स्वामी सहजानन्द

2. 1934-35 गया पुरुषोत्तम दास टंडन

3. 1935 हाजीपुर स्वामी सहजानन्द

4. 1936 बीहपुर जयप्रकाश नारायण

5. 1937 बछवाड़ा पंडित यदुनन्दन शर्मा

6. 1939 बैनी दरभंगा पंडित कार्यानन्द शर्मा

7. 1940 फरवरी मोतिहारी महापंडित राहुल सांकृत्यायन

8. 1941 फरवरी डुमराँव पंडित यमुना कार्यी

9. 4-5 अप्रैल, 1942 शेरघाटी स्वामी सहजानन्द सरस्वती

10. 12-13 जून, 1943 सोनपुर स्वामी सहजानन्द सरस्वती

11. ----- ------ ------

12. ----- -------- ------

13. ------ -------- ------

14. 21 जून, 1947 जहानाबाद स्वामी सहजानन्द सरस्वती

15. ------ ---------- ----------

16. 12-13 मार्च, 1949 ढकाइच (शाहाबाद) स्वामी सहजानन्द

1941-46 में अखिल भारतीय किसान सभा की सदस्य सूची

क्रम संख्या प्रांत 1941-42 1943 1944 1945 1946

1. बिहार 54,200 27,168 69,309 80,004 26,369

2. बंगाल 35,120 83,160 1,77,626 2,55,104 -----

3. आंध्र 36,993 55,560 1,01,502 1,68,384 -----

4. पंजाब 52,354 56,004 1,09,608 1,36,800 -----

5. उत्तर प्रदेश 9,600 12,096 27,848 34,368 -----

6. अन्य प्रांत 37,514 47,995 79,431 53,026 -----

2,25,781 2,81,983 5,53,427 8,27,686 7,54,345

ऊपर के डाटा से पहला निष्कर्ष यह निकलता है कि सोशलिस्ट और फारवर्ड ब्लाक ग्रुप के किसान सभा 1941-42 में छोड़ने से अखिल भारतीय स्तर पर गिरावट सदस्य संख्या में नहीं आई। यह गिरावट बिहार में पचास प्रतिशत हो गई। स्वामी सहजानन्द और किसान सभा में मतभेद होने पर बिहार में सदस्य संख्या कम्युनिस्ट पार्टी वाली किसान सभा में अस्सी हजार से गिर कर छब्बीस हजार हो गई। यह स्वामी जी के बिहार किसान सभा पर प्रभाव को दर्शाता है। तीसरा निष्कर्ष यह है कि स्वामी जी के वर्ग-संघर्ष के सिद्धांत अपनाने से किसान सभा कमजोर नहीं हुई, उल्टे यह संख्या जो 1941-42 में 2,25,781 थी बढ़ कर 1945 में 8,27,686 हो गई। अत: बाल्टर हौजर का यह निष्कर्ष कि जैसे-जैसे स्वामी जी सिद्धांत से लैस अर्थात मार्क्सवादी होते गए, वैसे-वैसे किसान सभा कमजोर होती गई - तथ्य की कसौटी पर सही नहीं है। अरविंद नारायण दास का यह मत कि स्वामी जी ने किसान सभा को राजनीतिक दल के अधीन नहीं संचालित किया, अत: सभा कमजोर हो गई, तथ्य से परे है। आजादी के बाद फिर कोई पार्टी स्वामी जी की मृत्यु के उपरांत अपने बूते देश स्तर पर व्यापक आंदोलन नहीं खड़ा कर पाई। स्वामी जी को साम्राज्यवाद और सामंतवाद के अन्तर्विरोध का शमन करना था। इसमें किसान के सभी वर्ग धनी किसान, मध्यम किसान, गरीब किसान, मजदूर किसान शरीकदार थे। ये वर्ग अलग-अलग पार्टियों के वर्गाधार थे। अत: स्वामी जी की मजबूरी थी कि सभी किसान वर्ग अर्थात सभी पार्टियों के किसान तत्वों को आजादी की लड़ाई और जमींदारी उन्मूलन तक साथ रखते। वह वक्‍त नया ढाँचा बनाने का नहीं था। अत: जी.पी. शर्मा एवं इकोनोमिक एंड पॉलिटिकल वीकली का स्वामी जी पर खेत मजदूर को नेतृत्व में न लाने की तोहमत सही नहीं है। स्वामी जी गरीब किसान खेत मजदूर ही असली किसान हैं सूत्र तक पहुँच चुके थे। उस समय की परिस्थिति, सभा का पुराना ढाँचा, मृत्यु के असामयिक हस्तक्षेप (26 जून 1950) स्वयं अपना वर्गाधार सभी के कारण स्वामी जी की अपनी सीमाबद्धता थी। नया ढाँचा बनाने का उन्हें वक्‍त नहीं मिला पर मृत्यु के पूर्व उनकी सभाओं के श्रोता जर्जर किसान और खेत मजदूर ही होते थे।

जमींदारी उन्मूलन की स्पष्ट संभावना देख कर धनी किसान-मध्यम किसान आजादी मिलते ही किसान सभा से विरत हो गए। कांग्रेस, समाजवादी, फारवर्ड ब्लॉक, रेडिकल, कम्युनिस्ट के किसान सभा से अलगाव से स्वामी जी पोरस की तरह युद्ध भूमि में अकेले बगैर फौज के हो गए। राहुल, कार्यानन्द, नक्षत्र मालाकार, किशोरी प्रसन्न सिंह, इंद्रदीप सिन्हा, चंद्रशेखर सभी कम्युनिस्ट पार्टी में चले गए। रामनन्दन मिश्रा, बसावन सिंह, गंगाशरण सिंह, दिनकर, बेनीपुरी, योगेंद्र शुक्ला, सूरज नारायण सिंह सोशलिस्ट पार्टी में चले गए। धानराज शर्मा, के.एन. शांडिल्य, शीलभद्र जी, रामायण सिंह इत्यादि क्रमश: कम्युनिस्ट, क्रांतिकारी सोशलिस्ट, सोशलिस्ट पार्टी में चले गए। मोहन लाल गौतम, अर्जुन सिंह भदौरिया, सोशलिस्ट पार्टी में चले गए। मुजफ्फर अहमद, जेड.ए. अहमद, एम.ए. रसूल, कुँवर अशरफ, नंबूदरीपाद इत्यादि नेता कम्युनिस्ट पार्टी में चले गए। एन.जी. रंगा सोशलिस्ट पार्टी में चले गए। स्वामी जी के पास केवल इंदुलाल यागनिक और यदुनन्दन शर्मा ही रह गए। जनाधार टूटने से, सामाजिक आधार बिखरने से, महँगी के कारण, आजादी के कारण, जमीन उन्मूलन की संभावना के कारण, स्वामी जी की अचानक मृत्यु के कारण किसान आंदोलन कमजोर पड़े। अरुण कुमार शोधार्थी का कहना है कि स्वामी ने गीता को माध्यम बना कर मार्क्सवाद का प्रचार कर राजनीति को नई भाषा तो दी पर वर्ण संघर्ष को तवज्जह न दे कर और संन्यास को न छोड़ कर इस कार्य को अधूरा छोड़ दिया। वर्ण संघर्ष जाति संघर्ष के मसीहा लोहियावाद आज पिछड़ा, अति पिछड़ा, सर्वाधिक पिछड़ा, कुलीन पिछड़ा के चक्कर में बिखर कर स्वयं अपनी प्रासंगिकता खो रहा है, इसकी तुलना में ठोस कार्यक्रम के कारण अंबेडकरवाद का भविष्य अभी के भारत में है जिसने प्रखर राष्ट्रवाद और हिंदू शास्त्रों का गहन अनुशीलन कर सूत्रीकरण किया है जिसमें हरिजन का वर्ग-वर्ण लगभग एक ही रहने के कारण संघर्ष वर्गीय रूप लेता है और अंबेडकर का वर्ण-संघर्ष जाति-संघर्ष का रूप नहीं लेता - जाति में उच्चतर संस्तर पाने की केवल आकांक्षा जगाता है। अंबेडकर ऐसे विचार को लोहिया ने जलन का प्रतीक कह कर अपना कद छोटा किया है। अत: स्वामी सहजानन्द पर वर्ण संघर्ष न करने का आरोप लोहियावाद की शव परीक्षा करने पर व्यर्थ प्रतीत होता है। किसान सभा के आय का स्रोत सदस्यता शुल्क का था जो पचास पैसे प्रति सदस्य था।

क्रम सं. किसान नेता का नाम सामाजिक आधार घर शिक्षा

1. स्वामी सहजानन्द सरस्वती छोटा किसान, गाजीपुर स्वाध्याय से बहुपठित

2. जयप्रकाश नारायण शहरी मध्यम वर्ग सिताव दियारा विदेश पठित

3. एन.जी. रंगा धनाढ्‌य किसान गुंटुर ऑक्सफोर्ड

4. नरेंद्र देव शहरी मध्यमवर्ग यू.पी. बुद्धिजीवी

5. मुजफ्फर अहमद निर्धन कृषक नोआखाली संपादक गणवाणी

6. एम.ए. रसूल मध्यमवर्ग वर्द्धवान, मुस्लिम राजनीति से प्रवेश

7. इंदुलाल यागनिक संपन्न गुजरात बुद्धिजीवी

8. कार्यानन्द शर्मा निर्धन किसान बिहार मार्क्सवादी

9. यदुनन्दन शर्मा निर्धन किसान गया स्नातक

10. किशोरी प्रसन्न सिंह ------- मुजफ्फरपुर बुद्धिजीवी

11. जी सुंदरैया धनी किसान नेलोर -------

12. सी. राजेश्‍वर राव धनी किसान आंध्र -------

13. नंबूदरीपाद जमींदार केरल बुद्धिजीवी

14. रामनन्दन मिश्रा जमींदार दरभंगा -------

15. कुमार बद्रीनारायण सिंह छोटा जमींदार औरंगाबाद राष्ट्रवादी

16. ए.के. गोपालन शिक्षक उत्तरी मालाबार -------

17. योगेंद्र शुक्ला ------- हाजीपुर, क्रांतिकारी-राष्ट्रवादी

18. राहुल सांकृत्यायन छोटा किसान आजमगढ़- महापंडित

19. बसावन सिंह मध्यम किसान हाजीपुर- क्रांतिकारी राष्ट्रवादी

20. धनराज शर्मा धनी किसान पटना- क्रांतिकारी राष्ट्रवादी

21. सूरज नारायण सिंह मध्यम किसान दरभंगा ,, ,,

22. रामचंद्र शर्मा मध्यम किसान जहानाबाद --------

23. रामजी सिंह --------- अमहारा --------

24. शत्रुघ्नशरण सिंह छोटा जमींदार -------- क्रांतिकारी राष्ट्रवादी

25. शीलभद्र याजी ------ ------- क्रांतिकारी राष्ट्रवादी

26. गंगाशरण सिंह ------- -------- नरम समाजवादी

27. डॉ. भूपेंद्रनाथ दत्त ----- ------- समाजशास्त्री, साहित्यकार

28. गोपाल हलदर ------- ------- पत्रकार

29. खेरी बर्मन ------ -------- मार्क्सवादी विद्वान

30. भूपाल पंडा ------- मिदनापुर क्रांतिकारी राष्ट्रवादी

31. अवनी लाहिड़ी मध्यमवर्ग --------- ' '

32. सोहन सिंह जोश --------- ------- ' '

33. सोहन सिंह भखना ------- -------- ' '

34. बंकिम मुखर्जी मध्यमवर्ग -------- मार्क्सवादी

35. हरे कृष्ण कोनार धान व्यापारी -------- क्रांतिकारी राष्ट्रवादी

36. विनय चौधारी ------ -------- क्रांतिकारी राष्ट्रवादी

37. इंद्रदीप सिंह छोटा जमींदार ---------- बुद्धिजीवी

38. नक्षत्र मालाकार भूमिहीन किसान --------- क्रांतिकामी

किसान सभा का चरित्र तत्कालीन बदलती परिस्थितियाँ, किसान की तदनुरूप बदलती परिभाषा, नेतृत्व की बदलती अवधारणा, बदलते मुद्दे, बदलते संघर्ष के तरीकों द्वारा निर्धारित हुआ। 1936 ई. में छोटे जमींदार भी गृहस्थ अर्थात किसान की कोटि में थे और वे नेतृत्व में भी थे पर 1938 में जमींदार के समस्त वर्ग प्रहार के लक्ष्य हो गए और 1941 से जर्जर किसान और खेत-मजदूर ही किसान की कोटि में शुमारित हुए।

1936 - 'किसान एक गृहस्थ है वह अपनी जीविका के लिए खेती पर निर्भर है चाहे वह छोटा जमींदार हो, रैयत हो या खेत-मजदूर हो।'

1941 - 'किसान सभा उन शोषित और पीड़ित समूह के लिए है जो खेती से संबंधित हैं जो इसी पर जीते हैं। जितना ही वे सताए हुए हैं और पीड़ित हैं उतना ही वे किसान संगठन के नजदीक हैं और यह सभा उतने ही उनके नजदीक है।'

(खेत-मजदूर पृष्ठ 10 पर हस्तलिखित महारुद्र का महातांडव 1949, बैजवाड़ा 1944)

स्वामी जी मानते थे गरीब किसान और खेत-मजदूर के बीच कोई विभाजन रेखा नहीं खींची जा सकती। हारा हुआ किसान ही खेत-मजदूर है, थोड़ा खुशहाल खेत-मजदूर ही किसान है।


नियामतपुर की बैठक

अखिल भारतीय किसान समिति की बैठक 14 एवं 15 जुलाई 1937 को नियामतपुर गाँव, बेला स्टेशन, गया, पंडित यदुनन्दन शर्मा के आश्रम पर संपन्न हुई। इसमें स्वामी सहजानन्द एन.जी. रंगा, इंदुलाल यागनिक, बंकिम मुखर्जी, अवधेश्‍वर प्रसाद सिन्हा, रामवृक्ष बेनीपुरी, गंगाशरण सिन्हा एवं यदुनन्दन शर्मा शरीक हुए। इसमें शरीक होने नेहरू भी ट्रेन से आए। गाड़ी गाँव में पहुँची तब तक उन्हें खबर प्राप्त हुई कि झंडा तिरंगा की जगह लाल मंजूर हुआ है, वे वहीं से खिन्न मन से लौट गए।

समिति की बैठक

क्रम सं. केंद्रीय किसान तिथि अध्यक्ष विशेषता

1. नियामतपुर 14-15 जुलाई, 1937 एन.जी. रंगा लाल झंडा की स्वीकृति

2. कलकत्ता 27-28 अक्टूबर, 1937 ------- कर्ज की मंसूखी

3. हरिपुरा 17-18-20 जनवरी, 1938 एन.जी. रंगा पटेल को जवाब

4. पलाका अक्टूबर, 1941 गोपालहलधर -----------

5. बंबई 24-27 सितंबर, 1942 -------- ----------

1939 ई. में गया में चतुर्थ सम्मेलन के स्वागत अध्यक्ष यदुनन्दन शर्मा थे। इसमें प्रस्ताव पास हुआ -

'प्रान्तीय किसान सभा उनसे खेत-मजदूर यूनियन जहाँ बन गई हो मित्रतापूर्ण सम्बन्ध रखे तथा किसानों और खेत-मजदूरों के मध्य उमड़ते विवादों का समाधान कराए।'

अधिवेशन के अध्यक्ष नरेंद्र देव थे। अध्यक्षीय भाषण पर स्वामी जी के ऐतराज के मद्देनजर भाषण का मसविदा पी.सी. जोशी एवं जयप्रकाश ने तैयार किया था।


किसानसभा के कांग्रेस से मतभेद -

(i) कांग्रेस पर जमींदार वर्ग का प्रभुत्व था। किसान जमींदार से पैमाल थे।

(ii) कांग्रेस साम्राज्यवाद से हर पग पर समझौता चाहती थी, संघर्ष पंगु हो जाता था। इरविन समझौता, लिनलिथगो समझौता, क्रिप्स समझौता, कैबिनेट मिशन समझौता, बैवल प्लान, माउंटबेटन फार्मूला इसके उदाहरण हैं।

(iii) साम्राज्यवाद से मिली-जुली कुश्ती की अवधि में कांग्रेसी सामंत विरोधी संघर्ष को औपनिवेशिक स्वराज्य तक मुल्तवी रखना चाहते थे।

(iv) स्वामी जी डोमिनियन स्टेट्स को पूर्ण आजादी की फाँसी कहते थे।


समाजवादी पार्टी से मतभेद के कारण -

(i) कांग्रेस समाजवादी पार्टी अन्ततोगत्वा कांग्रेस की ही दुमछल्ला बनी रही।

(ii) इसने गांधीवाद द्वारा स्वीकृत लक्ष्मण रेखा के अधीन ही काम किया।

(iii) वर्ग-संघर्ष की जगह तोड़-फोड़, शोहरत, दुस्साहस, मीडिया में प्रचार का रास्ता अपनाया।

(iv) इसके कार्यकर्ता शहरी मध्यम वर्ग थे, किसान कम थे।

(v) पार्टी का खर्च, सामग्री सेठ देते थे।

(vi) क्रांतिकारी चरित्र खोकर व्यक्‍तिवादी कारनामों में लिप्त हो गया।

(vii) कार्यकर्ताओं से नेताओं का संवाद गैप हो गया।

(viii) वर्ग-संघर्ष त्यागने के कारण क्रांतिकारी परिप्रेक्ष्य समाप्त हो गया।

(ix) किसान सभा को अपना जन संगठन बनाना चाहा एवं विफल होने पर सभा पर कब्जा करना चाहा, विफल होने पर सभा में विभाजन करा दिया।

(x) संयुक्‍त वामपक्षी मोर्चा का नेता सुभाष को मानने से इनकार कर दिया और गांधी को नेता माना।

(xi) गांधी के संरक्षण में और सुभाष विरोध के नाम पर अंग्रेजों के कोप से बचाव किया।

(xii) यह कांग्रेस की बी टीम साबित हुई। नेहरू ही इस ग्रुप के आराध्य देव थे। 1946 तक लोहिया का निवास आनन्द भवन इलाहाबाद ही था।

कम्युनिस्ट पार्टी से किसान सभा के मतभेद के कारण -

(i) किसान सभा को अपनी पार्टी का जन संगठन बनाने का पार्टी का उपक्रम।

(ii) पाकिस्तान को समर्थन।

(iii) राष्ट्रवादी परिप्रेक्ष्य का अभाव।

(iv) सुभाष को वाम-मोर्चा का नेता मानने से इनकार।

(v) गांधी को ही आजादी की लड़ाई भर नेता समझना।

(vi) कांग्रेस को संयुक्‍त मोर्चा समझने की भूल करना।

(vii) वाम-मोर्चे के गठन से आना-कानी।

(viii) जन संस्कृति से टकराव।

(ix) अन्तर्राष्ट्रीयता का महत्व ज्यादा।

(x) धर्म की प्रवंचना की जगह धर्म से ही टक्कर।

(xi) द्वितीय विश्‍वयुद्ध काल में 'अधिक अन्न उपजाओ' आंदोलन में क्रांति का काम छोड़ कर लगना।

(xii) कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा स्वामी जी पर व्यक्‍तिवाद, निम्न पूँजीवादी मनोवृत्ति एवं तानाशाही का आरोप।

(xiii) गरीब किसानों के साथ सम्मिलित नेतृत्व मान कर न एकताबद्ध होना।

(xiv) सर्वहारा के यूनियन के साथ किसान सभा भी खुद के हाथ रखना, स्वामी जी स्वतन्त्रता और बराबर की हैसियत की किसान सभा सर्वहारा वर्ग की पार्टी के समकक्ष चाहते थे। यह बराबरी कम्युनिस्ट पार्टी को मंजूर नहीं थी। स्वामी जी किसान सभा को पार्टी के अधीन नहीं चाहते थे।

(xv) द्वितीय विश्‍वयुद्ध को कम्युनिस्ट पार्टी जनता की लड़ाई कहती थी। स्वामी जी 1943 ई. से इसे जनता की लड़ाई नहीं मानते थे।

(xvi) स्वामी जी का विचार था कि अंग्रेजों के युद्ध प्रयत्‍नों की न तो मुखालफत करनी है और न मदद करनी है। कम्युनिस्ट पार्टी मदद के पक्ष में थी। इस अवधि को जमींदार विरोधी संघर्ष पर पार्टी विराम चाहती थी। स्वामी जी 1943 से किसान फ्रंट पर गति चाहते थे। कम्युनिस्ट रूस की रक्षा के नाम पर रूस के दोस्त अंग्रेजों के खिलाफ किसी किस्म की हड़ताल नहीं चाहते थे। भारत की कम्युनिस्ट पार्टी पर इंगलैंड एवं रूस की कम्युनिस्ट पार्टी का आदेश चलता था। देशी हित गौण हो गया था।

(xvii) कम्युनिस्ट पार्टी जिन्ना की वकालत करती थी (स्वामी जी का 15 अप्रैल 1945 का शकूराबाद का भाषण, 1945 मैमन सिंह का भाषण, बैजवाड़ा 1944 का भाषण)

अंग्रेजी हुकूमत के समय भारत में कम्युनिस्ट पार्टी के विफल होने के निम्न कारण थे -

(i) देश हित की कीमत पर अन्तर्राष्ट्रीय नीति को तरजीह।

(ii) राष्ट्रवादी परिप्रेक्ष्य से मरहूम रहना।

(iii) भारत में क्रांति के लिए रूस पर निर्भर करना।

(iv) रूस-ब्रिटेन संधि का भारत के किसान-मजदूर आंदोलन की गति पर विपरीत प्रभाव पड़ना।

(v) जन संस्कृति, लोकभाषा, परम्परा, धर्म से टकरा कर अलोकप्रिय होना।

(vi) राष्ट्र के अंदर कई राष्ट्र की पश्‍चिमी अवधारणा से अभिभूत होना।

(vii) जनसंघर्ष के सैलाब को आधुनिक राष्ट्रवाद का कारण नहीं समझ विदेश पठित बाबू वर्ग को ही राष्ट्रीयता का कारण समझने की गलत दृष्टि।

(viii) इतिहास की भौतिकवादी व्याख्या से भारतीय असहमति।

(ix) किसान को क्रांति का प्रधान बल, गाँव को समरभूमि न समझना।

(x) पाकिस्तान का समर्थन।

(xi) सुभाष की शिकस्त में गांधी का साथ देना। सुभाष की शिकस्त भारत में वाम की शिकस्त साबित हुई।

(xii) अन्तत: गांधी के हाथ देशद्रोही का खिताब पाना, ठगा जाना।

(xiii) गांधी के समझौतावादी रुख का पर्दाफाश न करना।

(xiv) वाम मोर्चा न बनाना।

(xv) शासक वर्ग का ठीक-ठीक चरित्र-चित्रण न करना। 1940 के दशक का शासक वर्ग निश्‍चय ही दलाल अपने चरित्र में था। इसे राष्ट्रीय बुर्जुआ समझने से ही गांधी का नेतृत्व कम्युनिस्ट पार्टी को कबूल हुआ।

(xvi) चीनी क्रांति का न तो खुद मूल्यांकन करना और न स्वामी जी की किताब 'क्रांति और संयुक्‍त मोर्चा' के चीनी क्रांति के वर्णन एवं सीख से सबक लेना।

फारवर्ड ब्लाक से मतभेद के कारण -

सुभाषचंद्र बोस आजादी की लड़ाई के दरम्यान सबसे अधिक इज्जत स्वामी सहजानन्द को ही प्रदान किए। वे अन्त तक यह मानते रहे कि 1940 के दशक में पूरे देश को यदि कोई नेतृत्व क्रांति की सफलता के निमित्त दे सकता है तो वह हैं स्वामी सहजानन्द। जब गांधी अंग्रेजों से हिले-मिले थे सुभाष और स्वामी सहजानन्द ने 19-20 मार्च को रामगढ़ में एक विशाल समझौता विरोधी सम्मेलन किया जिसमें बकौल मथुरा मिश्र एवं रामविलास शर्मा इस सभा में दो लाख व्यक्‍ति शरीक हुए। डालमिया, गया काटन मिल मालिक, राजा कामाख्या नारायण रामगढ़, आदिवासी जयपाल सिंह के समर्थन और बेइंतहा खर्च के बावजूद गांधी की सभा सूनी हो गई। सारी भीड़ सुभाष की सभा में आ गई। 'अंग्रेजो भारत छोड़ो' संघर्ष की शुरुआत रामगढ़ से 19 मार्च 1940 से की गई, बंबई, 9 अगस्त, 1942 की बात बेतुकी है। देश सुभाष के नेतृत्व में अंग्रेजों से 1940 से ही लड़ रहा था। इस सभा के बाद स्वामी जी के तीन भाषण पटना सिटी मंगल तालाब, बिहार शरीफ और बाँकीपुर पटना में क्रमश: 7, 10 और 19 अप्रैल को हुए। अंग्रेजों से तुरंत भिड़ जाने के स्वामी जी के आह्वान पर उन्हें राष्ट्रद्रोह के अपराध में तीन साल की सजा हुई।

अपनी पत्रिका फारवर्ड ब्लॉक में 20 अप्रैल 1940 को सुभाष ने अग्र लेख लिखा - (एलायड पृष्ठ 194 खण्ड 10 नेहरू म्युजियम)

'स्वामी सहजानन्द सरस्वती इस धरती पर एक जादुई नाम हैं। ये भारत के किसान-आंदोलन के नि:संदेह सर्वोपरि नेता हैं। ये आज के समय में जनता के आराध्य देव हैं। लाखों लोगों के हीरो हैं। रामगढ़ के समझौता विरोधी अध्यक्ष के रूप में इन्हें प्राप्त करना हम लोगों के लिए वाकई दुर्लभ भाग्य की बात थी। फारवर्ड ब्लाक के लिए यह एक गौरवपूर्ण विशेषाधिकार एवं सम्मान की बात थी कि हम उन्हें वामपंथ के सबसे अग्रणी नेता, मित्र, चिंतक, सिद्धांतकार एवं पथ-प्रदर्शक के रूप में प्राप्त कर सके। उनकी गिरफ्तारी की खबर सुनते ही हम लोगों ने आनन-फानन में ही 28 अप्रैल को अखिल भारतीय स्वामी सहजानन्द दिवस के रूप में मनाने का निश्‍चय किया ताकि उनकी कैद का विरोध कर सकें। हम स्वामी जी को इस नजरबंदी और राजबंदी से अर्जित शिष्ट सम्मान प्राप्त करने के लिए बधाई देते हैं। स्वामी जी की गिरफ्तारी का हमें स्वागत है। स्वामी जी की जेल के सीखचों के पीछे कैद लाखों लोगों को दुविधा एवं गतिरोध, जकड़न तोड़ने के लिए उत्प्रेरित करेगा और इसमें वे तहे दिल से जुट जाएँगे। कोई भी व्यक्‍ति अब किनारे नहीं रह सकेगा। यह समय युद्ध में भिड़ंत का है और हम अवश्य भिड़ेंगे।

'स्वामी जी सीखचों के भीतर हैं, पर उन्होंने एक वसीयत छोड़ी है। हमें उनसे एवं उनके जीवन संघर्ष से सबक सीखना चाहिए; उनसे सेवा का सबक सीखना चाहिए, समाजवाद की उनकी गंभीर अन्तश्‍चेतना से सबक सीखना चाहिए। स्वामी जी मूलत: भिड़ंत और कर्म के श्‍लाका पुरुष हैं। इन्होंने अपनी गिरफ्तारी के समय देशवासियों से अपील की है कि टालमटोल और विलंब न करें और तुरंत आनन-फानन में भिड़ जाएँ। स्वामी जी की गिरफ्तारी अभिनव भारत के लिए एक चुनौती है। इस चुनौती को हमें स्वीकार करना है? ब्रिटिश सरकार देखे और अंकित करे कि देश दृढ़ता से स्वामी जी के पीछे खड़ा है। हमें चाहिए कि हम अपना कार्य 'चाहे आजादी दो या मौत दो' निश्‍चय के साथ जारी रखें, तभी सभी अवरोध हटकर रहेंगे। इस तिमिरग्रस्त तमस आक्रांत भारत-भूमि पर आजादी अवश्य आएगी।'

19 मार्च 1940 को रामगढ़ की सभा में सुभाष ने दहाड़ा था (जन गर्जन ई. 1985)

'...इस प्रकार के सम्मेलन की अध्यक्षता करना कोई साधारण काम नहीं है और यह काम तब और मुश्किल हो जाता है, जब स्वागत समिति के अध्यक्ष स्वामी सहजानन्द सरीखा साथी हो। यह स्वामी जी का ही स्पष्ट आह्वान है जिसके फलस्वरूप हम लोग यहाँ एकत्रित हुए हैं...'

फिर 1942 अगस्त का बर्लिन ब्रॉडकास्ट पर नजर करे (गिरिजा कुमार मुखर्जी)

'मुझे पूरा विश्‍वास है कि जिन स्वामी सहजानन्द सरस्वती तथा अन्य किसान नेताओं ने फारवर्ड ब्लाक से मिलकर महात्मा गांधी से बहुत पहले ही संघर्ष शुरू कर दिया था, वे अब आंदोलन को सफल बनाने में नेतृत्व प्रदान करेंगे। अत: स्वामी सहजानन्द और किसान आंदोलन के अन्य नेताओं से मेरी अपील है कि वे आगे आएँ और संघर्ष की इस अंतिम स्थिति में उसे नेतृत्व देने की भूमिका निभाएँ।...'

इस तरह के श्रद्धाशील, श्रद्धावनत व्यक्‍ति से आखिर मतभेद किस बिना पर हुए।

(i) क्रांति की परिभाषा पर पूर्ण सहमति होते हुए भी क्रांति के एकमुश्त या दो चरण में होने पर वैचारिक मतभेद थे। स्वामी जी एक ही झटके में साम्राज्यवाद और सामंतवाद से मुक्‍ति चाहते थे। सुभाष आजादी को पहली तरजीह देते थे।

(ii) स्वामी जी की क्रांति की मंजिल संप्रति जनवादी थी, सुभाष की समाजवादी थी।

(iii) स्वामी जी नहीं चाहते थे सुभाष विदेश जाएँ। स्वामी जी वर्ग-संघर्ष के जरिए सुभाष के नेतृत्व में क्रांति चाहते थे। मगर रेडिकल, कांग्रेस समाजवादी और कम्युनिस्ट इस पर तैयार न हुए। इनके असहयोग एवं गांधी के षड्यंत्र के कारण सुभाष विवश होकर देश छोड़ दिए।

(iv) स्वामी जी जापान को भी साम्राज्यवादी समझते थे। जापान का चीन पर अत्याचार इसका नमूना था। स्वामी जी इस ओर सुभाष का ध्यान खींच रहे थे, सुभाष स्वामी जी को आंतरिक विद्रोह के लिए उकसा रहे थे। जब वे खुद बाहर से आक्रमण करनेवाले थे।

(v) स्वामी जी धर्म और मार्क्स के सकारात्मक सहअस्तित्व पर सुभाष की सोच के नजदीक थे पर इसमें अस्थायी तौर पर फासिज्म जोड़ने के सुभाष की अवधारणा के खिलाफ थे।

अगस्त क्रांति का रहस्य

अगस्त क्रांति के वास्तविक नायक बिहार में योगेंद्र शुक्ला, सियाराम सिंह और सूरजनारायण सिंह थे। अखिल भारतीय स्तर पर अरुणा आसफ अली, उषा मेहता, अच्युत पटवर्द्धन थे। हनुमान नगर और हजारीबाग जेल से लोहिया-जयप्रकाश जोड़ी और जयप्रकाश को (क्रमश:) भगानेवाले क्रांतिकारी योगेंद्र शुक्ला ही थे। मीडिया ने लोहिया-जयप्रकाश को मशहूर कर दिया। अगस्त की तोड़-फोड़ कार्रवाई मात्र तीन माह ही चली। इसमें बिहार के एवं पूर्वी यू.पी. के किसानों ने जबरदस्त शिरकत एवं साहस दिखलाया। पर, उचित नेतृत्व के अभाव में यह कारगर न हो सका। सुभाष की प्रतिद्वंदिता की काट में यह किया गया था और सुभाष विरोध के कारण ही अंग्रेजों ने लोहिया-जयप्रकाश को जिंदा रहने दिया। अंग्रेजों ने इनका इस्तेमाल सुभाष की चढ़ाई को विफल करने में किया पर लोकमत को देख कर नेहरू आजाद हिंद की रिहाई के लिए वकील का चोंगा पहन प्रचार लूटे पर आजाद भारत में इन सभी देशभक्‍तों को बर्खास्त कर दिए। गांधी ने अगस्त क्रांति को हुल्लड़ों का काम कहा।

गांधी ने 15 जुलाई, 1943 को होम डिपार्टमेंट को लिखा -

'कांग्रेस ने कोई आंदोलन शुरू नहीं किया।'

गांधी ने 23 सितंबर, 1942 को लार्ड लिनलिथगो वायसराय को लिखा -

'जिन दु:खद हुल्लड़ात्मक-ध्वंसात्मक कार्यों के समाचार मिले हैं, उनसे भी सुनिश्‍चित रूप से बचा जा सकता था यदि वायसराय के पास मैंने जो पत्र लिखना चाहा था, उसके लिए और उसके परिणाम के लिए अगर सरकार ने जरा भी इंतजार किया होता...'

गांधी जी ने 19 जनवरी, 1943 को लिखा -

'गत 9 अगस्त के बाद जो कुछ भी हुआ है, उसके लिए अवश्य ही मैं पश्‍चाताप कर रहा हूँ।'

गांधी ने भारत सरकार के सचिव टोटेन हेम को लिखा -

'कांग्रेस ने कोई भी आंदोलन शुरू न किया था और वे अगर बाहर होते तो भी जी-जान से 1942 की घटनाओं को रोकते। मैंने यह दिखाने की कोशिश की है कि मेरा अंग्रेजों को हटाने का प्रस्ताव जन-आंदोलन आरंभ करने की कोई विशेष तैयारी या योजना सूचित नहीं करता। ...मैंने जन-आंदोलन कदापि नहीं शुरू किया... अत: यह स्पष्ट है कि अगर हमें गिरफ्तार न किया जाता तो यह गोलमाल न होता जो 9 अगस्त और उसके बाद हुआ। पहले मैं वार्तालाप को सफल बनाने की कोशिश करता और फिर सफल न होने पर गोलमाल-हुल्लड़ को रोकने की कोशिश करता।'

14 अगस्त 1943 को गांधी ने भारत सरकार को लिखा -

'भारत सरकार के घोषित उद्देश्य और हम लोगों के उद्देश्य एक ही हैं।'

नेहरू-पटेल-पंत ने कांग्रेस की तरफ से 21 सितंबर 1945 को संयुक्‍त वक्‍तव्य दिया -

'कोई भी आंदोलन आल इंडिया कांग्रेस कमेटी या गांधी जी ने आरंभ नहीं किया था।'

(स्रोत - रजनी पामदत्त पृष्ठ 502-503 इंडिया टुडे)

अंग्रेजों ने गांधी और कांग्रेस को महान बनाने के लिए, जनता में इनकी छवि अंग्रेज विरोधी देशभक्‍त गढ़ने के लिए अपने हित में इन्हें जेल दिया। 1945 के बाद कांग्रेसी जब जेल से निकले और जनता में 42 के लिए आदर देखा तो बड़े ही बेहयायी से बोले -

'यह मेरा आंदोलन न था तो किसका था?'

गांधी की यह परले दरर्जे की अवसरवादिता थी। अंग्रेजों ने गांधी को समय-समय पर जेल देकर गांधी की छवि को चमकाया ताकि जनता भ्रम में रहे, सुभाष को एकल नेता न माने, विभक्‍त रहे।

अत: अंग्रेजों भारत छोड़ो आंदोलन 1942 से नहीं 1940 से 9 अगस्त से नहीं 19 मार्च से बंबई से नहीं रामगढ़ से गांधी द्वारा नहीं सहजानन्द सुभाष द्वारा शुरू किया गया - यही इतिहास की सच्चाई है शेष काव्य विनोद है।

गांधी के समझौतावादी रुख पर स्वामी सहजानन्द ने अपने मित्र रघुनाथ मिश्र ग्राम पतौर को पत्र में लिखा -

'क्रिप्स मिशन की घोषणा चातुर्यपूर्ण जाल है...

वंशी ने ढील पाई है लुफ्ते वैशाद है

सैयाद मुतमइन है, कि काटा निगल गई

...जो ट्रैक्टर की ओर हमें बलात घसीट रहा है। उधर तो हमें जाना ही है, पर देर होने से बंटाधार होगा।'

गांधी के विपरीत स्वामी जी अंग्रेजों के कपट जाल को साफ देख रहे थे कि उसने समझौते के बहाने मछली के मुँह में चारा की जगह काँटा डाला है। मछली शिकारी की वंशी में फँसने ही वाली है। ट्रैक्टर को अवश्यंभावी हितकर बतला कर गांधी के विपरीत वैज्ञानिक खेती के महत्व को स्वामी जी रेखांकित कर रहे थे।

हिंसा के सवाल पर स्वामी जी का रुख साफ था -

'किसान कभी आक्रामक न हों, लेकिन अगर उन पर कोई आक्रमण हो तो उन्हें अपनी सुरक्षा का पूरा अधिकार है।' (किसानों के फँसाने की तैयारियाँ)

स्वामी सहजानन्द सरस्वती 1945-46 में कम्युनिस्ट पार्टी से बिदककर फिर कांग्रेस समाजवादी पार्टी की ओर मुड़े पर नरेंद्र देव, संपूर्णानन्द, मोहनलाल गौतम, पुरुषोत्तम दास टंडन, किसान की स्वामी जी की परिभाषा और लाल झंडा पर सहमत न हुए। स्वामी जी ने किसान को 1944 बैजवाड़ा में इस तरह परिभाषित किया था -

'हमारे विचार से किसान वही हैं जो या तो बिलकुल भूमिहीन हैं या जिनके पास बहुत कम जमीन है' '...ऐसे ही सर्वहारा, अर्द्ध-सर्वहारा का संगठन किसान सभा है।'

नरेंद्र देव का किसान खाता-पीता धनी किसान था। ये लोग किसी सूरत में किसी तरह की हिंसा नहीं चाहते थे। किसान सभा का झंडा तिरंगा समझते थे। स्वामी जी को कम्युनिस्ट पार्टी का 'फैलो ट्रेवलर' कहते थे। जनवरी 1947 में स्वामी जी फिर चाहे कि किसी तरह वाम दलों का कांग्रेस पर कब्जा हो जावे और कांग्रेस को वाम दिशा दिया जावे पर जब यह संभव नहीं हुआ और आजादी की लड़ाई से बाहर रहनेवाले जिनमें अधिकांश यूनियन जैक जिंदाबादवाले थे - मथाई, चेट्टी, देशमुख, मुखर्जी, भाभा सिंह, अंबेडकर, नेहरू सरकार में महत्वपूर्ण मन्त्री बने। तब स्वामी जी फिर एक बार संयुक्‍त वाम मोर्चे की ओर आकुल हो कर दौड़े। स्वामी जी ने कांग्रेस से 6 दिसंबर 1948 को इस्तीफा दे दिया।


भारत के विभाजन के गुनहगार

भारत के विभाजन का प्रस्ताव गोपालाचारी, राजेंद्र प्रसाद, पटेल, नेहरू द्वारा समर्पित था एवं यह आसानी से कांग्रेस कार्यकारिणी में पास भी हो गया। इस बैठक में गांधी ने बँटवारे का विरोध किया था। मगर इसके बाद बिरला-टाटा-पुरुषोत्ताम दास ग्रुप ने दबाव बनाया कि यदि बँटवारा मंजूर नहीं होता है तब लियाकत अली खान वित्तमन्त्री हम हिंदुओं को बजट के जरिए भारी टैक्स लगा कर गरीब बना देंगे और लियाकत अली खान समाजवादी बजट बतलाकर नेहरू की बोलती बंद कर देगा - अत: हिंदुओं का हित बँटवारे में है। पटेल इस पर सहमत हो गए। गोपालाचारी-राजेंद्र प्रसाद पहले ही से इसके पक्ष में थे - पटेल ने अपनी प्रधानमन्त्री की दावेदारी वापस ले कर नेहरू को भी खंडित पर समाजवादी भारत सत्ता के शीर्ष पर बैठ कर बनाने की खुली छूट दे दी। नेहरू की दुविधा अब समाप्त हो गई। वे भी पटेल के साथ हो गए। वर्किंग कमिटी की बैठक के बाद गांधी ने भी हिंदू पूँजीपतियों की चीख को शक्‍ति से सुना। जब माउंटबेटन ने संभावित किसान क्रांति या सैनिक क्रांति का भय गांधी को दिखलाया तब गांधी की दुविधा भी समाप्त हो गई। यह सारी बात पूर्व मन्त्री एन.बी. गाडगिल की पुस्तक 'इनसाइड दी गवर्नमेंट' में वर्णित है। गांधी ने मैनचेस्टर और लंकाशायर के पूँजीपति वर्ग के एक हिस्से को आश्‍वस्त किया कि हमारा स्वदेशी आंदोलन आपके मुनाफा के प्रतिकूल नहीं है। आखिर तकनीक, इंजीनियर, कारखाने की मशीन तो हम आपसे ही लेंगे। इस तरह आपको डरने की जरूरत नहीं है। जनता के विद्रोह से मुस्लिम लीग, अंग्रेज कांग्रेस, समाजवादी, रिपब्लिकन, दलित वर्ग संघ सभी भयभीत थे। विद्रोह सफल होने के पूर्व अंग्रेज अपने मातहतों के हाथ देश जिम्मा लगाना चाहते थे। सुभाष के लापता होने से विद्रोह को नायक नहीं मिल रहा था। देर होने पर संभावना थी कोई इब्राहिम लिंकन आ जाता जो देश को बँटने नहीं देता, कोई वाशिंगटन आ जाता जो अंग्रेजों को लॉक स्टॉक बैरेल विदा कर देता और स्वतन्त्रता अर्थ नीति, शिक्षा नीति, उद्योग नीति, युद्ध नीति का अनुसरण करता। अंग्रेज भी इस संभावना से भयभीत और जल्दी में थे। भारत के समस्त बाबू वर्ग को बँटवारे पर अंग्रेजों ने सहमत कराया। जिन्ना के पास नौकरशाह मुहम्मद अली चौधारी, पटेल के घर नौकरशाह वी.पी. मेनन, गांधी की प्रार्थना में अपनी पुत्रियां, नेहरू के यहाँ पत्‍नी एडविना भेज कर माउंटबेटन सभी को नजर में रखे थे एवं सब उनकी धुन पर थिरक रहे थे। आखिर माउंटबेटन सफल हो गए। 14 जून 1947 को कांग्रेस महासमिति की बैठक हुई। बैठक में बँटवारे का प्रस्ताव पंत जी ने रखा। बँटवारे का विरोध गफ्फार खान, गोपीनाथ वारदोलई, चौथराम मिडवानी, डॉ. किचलु, पुरुषोत्ताम दास टंडन, स्वामी सहजानन्द, मौलाना हफीजुर्रहमान इत्यादि ने किया। कुल 161 व्यक्‍ति बँटवारे के समर्थन के खिलाफ थे। पंत का प्रस्ताव गिर गया। तब, ऐसी हालत में गांधी ने हस्तक्षेप किया। बँटवारे के पक्ष में वकील गांधी ने दलील पर दलील दे कर प्रस्ताव पुन: रखा गांधी ने प्रस्ताव स्वीकार करने की सलाह दी और फरमाया -

'विभाजन पर कार्य समिति के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देना या उसमें संशोधन करना आप लोगों के लिए अनुचित होगा। ...आपका यह कर्तव्य है कि आप कार्य समिति का समर्थन करें...देश के सब पक्षों ने विभाजन की योजना को मान लिया है। अतएव कांग्रेस के लिए अपनी बात से मुकर जाना ठीक नहीं होगा। ...मैं आपके सामने प्रस्ताव स्वीकार करने का अनुरोध करने आया हूँ। जो लोग देश में तुरंत क्रांति या उथल-पुथल होने की दृष्टि से बात करते हैं, वे यह ध्येय तो इस प्रस्ताव को ठुकरा कर पूरा कर सकेंगे। लेकिन, मुझे इसमें यह संदेह है कि उनमें कांग्रेस की और सरकार की बागडोर सँभालने की शक्‍ति है या नहीं... (गांधी के आप्त सचिव प्यारेलाल, नवजीवन प्रेस - पूर्णाहुति तीसरा खण्ड)

बँटवारे के सवाल पर फिर वोट हुए। जयप्रकाश-लोहिया गुट ने गांधी को मदद किया। प्रस्ताव पास हो गया। फिर भी गफ्फार खान, स्वामी सहजानन्द इत्यादि उपरोक्‍त नामित सभी व्यक्‍ति अन्त तक विरोध में डटे रहे।

15 अगस्त 1947 की आजादी को स्वामी जी ने पूर्ण आजादी का फाँसी दिवस कहा। जनता से बालिग मताधिकार के आधार पर संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव नहीं होने दिया गया। संविधान बन कर तैयार हुआ 26 जनवरी 1950 को और जनता को वोट का अधिकार मिला 1952 से। आप स्वयं विचारें इसे किस वर्ग ने बनाया? इस संविधान में सुखराम, लालू, जयललिता, वोफर किसी को कोई असुविधा नहीं है। बेइंतहा मुनाफा पर भी रोक नहीं है और न अकूत धन के स्रोत बताने की दाऊद या किसी को बाध्यता है पर रोजगार गारंटी की कोई बात नहीं है। बाबू वर्ग ने संपत्ति को मौलिक अधिकार में रखा पर रोजगार, कहीं नहीं है। शिक्षा, स्वास्थ्य, पीने का पानी यह सब कुछ नीति निर्देशक में है। संविधान में लार्ड, सर, नवाब, महाराज, साहूकार, नौकरशाह, दलाल, भ्रष्ट के संरक्षण की पूरी व्यवस्था है। सुखराम प्रकरण सामने है। दूसरी बात यह हुई कि भारत-पाकिस्तान का भूगोल किसी को 15 अगस्त 1947 तक नहीं पता था। रेड क्लिफ एवार्ड 15 अगस्त के बाद आया। नतीजा हुआ जान और माल का स्थानांतरण समय पर न हो सका। अन्त तक लोगों का विश्‍वास बना रहा कि लाहौर भारत में रहेगा। करीब एक लाख हिंदू सिक्ख औरतें अपहृत हुईं और दस हजार मुस्लिम औरतें अपहृत हुईं। कोहाट, रावलपिंडी, मीरपुर, पेशावर में औरतों को नंगी कर जुलूस निकाला गया, उसी हाल में कबायलियों के हाथ महज पचास से डेढ़ सौ रुपए में बेच दिया गया। जान की क्षति मुसलमानों की ज्यादा हुई, औरत धन की क्षति हिंदुओं सिक्खों की ज्यादा हुई। करीब डेढ़ करोड़ आबादी प्रभावित हुई। लाखों मारे गए।

यह हुआ गांधी की हिंसा और उथल-पुथल से बचने का अंजाम। वस्तुत: बँटवारा की नीति में ही हिंसा के बीज छिपे थे। इतने भोले भारत के नेता न थे जो आँखों देखी हालातों की जानकारी से अनभिज्ञ थे। मगर, इसी रास्ते वे क्रांति की संभावना को दंगे में धूल-धूसरित करने में सफल हो सके और उनकी शासक वर्ग की गद्दी बच गई। आज तक बची हुई है। जनता धर्म और जाति के नाम पर बँटने-लड़ने को अभिशप्त है आज भी। ये बातें मौलाना आजाद की पुस्तक 'इंडिया विंस फ्रीडम' में भी उनके शब्दों में वर्णित हैं। गांधी की अहिंसा 1922 में, 1942 में, 1947 में हिंसा के सैलाब में डूब गई, खुद गांधी और लियाकत अली खान भी इसी के शिकार हो गए। गांधी को मरवानेवाला भी गांधी से कम प्रतिष्ठित नहीं था - वीर सावरकर। (नाइन आवरर्स टु रामा फिल्म एवं गोपाल गोडसे किताब)

स्वामी सहजानन्द सरस्वती ने सांस्कृतिक नव जागरण में भी अग्रणी भूमिका निभाई। दरिद्र नारायण, बलचनमा, कहीं धूप कहीं छाया, अग्निगर्भ, मैला आँचल के केंद्र में स्वामी सहजानन्द और उनके साथी हैं। स्वामी जी के साथ अज्ञेय मेरठ में (1936), माचवे बागपत में (1938), मुल्कराज आनन्द त्रिपुरी में (1939), नागार्जुन-राहुल-दिनकर-बेनीपुरी 1930 से 1945 तक स्वामी जी के साथ कार्यरत रहे। बेनीपुरी स्वामी जी से संबंधित पत्रिका योगी, लोकसंग्रह, जनता, किसान मित्र के संपादक थे। राहुल हुंकार के संपादक थे।

स्वामी जी का देहावसान मुजफ्फरपुर के मशहूर डॉक्टर सी.पी.एन. ठाकुर के श्‍वसुर मुचकुंद शर्मा वकील के आवास पर 26 जून, 1950 को अत्यधिक तनाव, एकाकीपन, अथक परिश्रम, किसान विद्रोह की आकुलता की स्थिति में हुआ। मृत्युपूर्व अट्ठारह दलों का पटना में संयुक्‍त वाम मोर्चा बनाकर उन्होंने सफलता पाई पर इसमें जे.पी. लोहिया शरीक न हुए और 1949 के कलकत्ता सम्मेलन में रणदिबे गुट ने बहिष्कार किया। यह मोर्चा बना पर मजबूती नहीं आई। स्वामी जी कुछ कर दिखाते तब तक मृत्यु ने यह मौका उन्हें नहीं दिया। फिर भी स्वामी जी बागियों के बीच अपनी अलग पहचान, किसान हित के प्रति कट्टर प्रतिबद्धता एवं अन्याय के खिलाफ अलग अंदाज के लड़ाई के तरीके, विशिष्ट भाषा शैली, क्रांति के लिए आकुल छटपटाहट के लिए सदैव स्मरण किए जाएँगे। स्वामी जी का उदय, अस्त और मध्याह्न तीनों गौरवमय हैं। स्वामी जी का संन्यास और मार्क्सवाद की खाटी देशी समझ अन्त तक बनी रही। सूर्य उदय के समय भी लाल, डूबते भी लाल और दुपहर में तो प्रचंड तेज पुंज के साथ रहता ही है। स्वामी जी के उत्तरोत्तर विकास की थीसिस उनके प्रकांड शास्त्राज्ञ को अनदेखा करती है। जूझने की वृत्ति प्रारंभ से ही उनके स्वभाव का अंग रही है। बगैर प्रबल पराक्रम के 'ब्रह्मर्षि वंश विस्तार' और 'कर्मकलाप' की रचना संभव नहीं है। 'कर्मकलाप' में सारी पूजा विधियाँ, संध्या वंदन, सोलह संस्कार एक जगह सुबोध ढंग से संकलित हैं।

(1) स्वामी जी की शोधपूर्ण सामाजिक रचनाएँ -

(क) भूमिहार ब्राह्मण परिचय

(ख) झूठा भय मिथ्या अभिमान

(ग) ब्राह्मण कौन?

(घ) ब्राह्मण समाज की स्थिति

(ङ) ब्रह्मर्षि वंश विस्तार

(च) कर्मकलाप

(2) आत्मकथात्मक रचनाएँ -

(क) मेरा जीवन संघर्ष

(ख) किसान सभा के संस्मरण

(ग) महारुद्र का महातांडव

(घ) जंग और राष्ट्रीय आजादी

(ङ) अब क्या हो?

(च) गया जिले में सवा मास

(छ) संयुक्‍त किसान सभा, संयुक्‍त समाजवादी सभा के दस्तावेज

(ज) किसानों के दावे

(झ) ढकाइच का भाषण

मेरा जीवन संघर्ष ऐसी आत्मकथा है जिसमें अपनी कथा बहुत ही कम कही गई है। इसमें परिवेश, पातगण, भौतिक मौजूदा परिस्थितियाँ, युग चित्रण, तथ्य निरूपण, तथ्यों का आकलन, समस्या, निदान, निष्कर्ष, सत्य का अन्वेषण, लड़ाई के विभिन्न चरण, विभिन्न मोड़, विभिन्न पड़ाव, विभिन्न घुमाव, वर्गों की भूमिका सबका चित्रण सरल पर सटीक और बेबाक ढंग से हुआ। सुभाष से मतभेद 'जंग और राष्ट्रीय आजादी' में वर्णित है। कम्युनिस्ट पार्टी से मतभेद का खुलासा एवं जयप्रकाश से खटपट का वर्णन किसान सभा के संस्मरण में है। हजारीबाग जेल में स्वामी जी जयप्रकाश पर क्रोध से किसानों की तरफ से कैडर, पैसा, सामग्री प्रदान में अवहेलना पर बिफर पड़े। महारुद्र का महातांडव में वर्गीय आधार पर इतिहास की व्याख्या है एवं कांग्रेस छोड़ने का कारण बयान है। लिखने का ढंग द्वंदात्मक नहीं है, सरल एवं सपाट है। मार्क्सवाद से प्रभावित किसान क्रांति को पौराणिक शैली में कहा गया है। स्वामी जी वामदलों के संयुक्‍त मोर्चे के लिए कितने विकल थे, यह ढकाइच के भाषण, अब क्या हो से विदित होता है।

(3) विचारधारात्मक रचनाएँ -

(क) क्रांति और संयुक्‍त मोर्चा

(ख) गीता हृदय

(ग) किसानों के दावे

(घ) महारुद्र का महातांडव

(ङ) कल्याण में छपे लेख

स्वामी जी और सुभाष में क्रांति की परिभाषा पर कोई मतभेद नहीं है। लगता है, यह अध्याय संयुक्‍त चिंतन का नतीजा है। दोनों क्रांति को एकमुश्त एवं मौलिक परिवर्तन से जोड़ कर देखते हैं। अन्तर क्रांति की मंजिल पर है। स्वामी जी किसान क्रांतिकारी थे। अत: स्वाभाविक है कि इनका जोर जनवादी पर है एवं सुभाष का समाजवादी मंजिल पर है, पर स्वामी जी इसे बाल की खाल निकालने की विषय वस्तु नहीं बनाना चाहते हैं - यह पुस्तक के अन्त में स्पष्ट है। स्वामी जी अपने को बार-बार मार्क्सवादी घोषित करते हैं पर धर्म के सकारात्मक योगदान के प्रति उनका जुड़ाव, राष्ट्रवाद के प्रति निष्ठा, किसान प्रेम उन्हें कट्टर एकेडमिक मार्क्सवाद से बाहर कर देता है। स्वामी जी के मार्क्स के भारतीय संस्करण एक किस्म के थे। यह मार्क्सवाद देशी है जिसमें गाँव के मिट्टी की बास है। स्वामी जी की जमीन वेदांत की थी, इस पर मार्क्स के महल थे। कुछ लोग महल देखने में जमीन पर ध्यान नहीं दे पाते हैं। गीता धर्म के अंदर मार्क्स की बातें आ जाती है बहुत कुछ मार्क्स के अंदर गीता के तत्व स्वामी जी नहीं खोजते। स्वामी जी मार्क्स के भक्‍त थे। मार्क्स के ऐतिहासिक भौतिकवाद द्वंदात्मक भौतिकवाद से स्वामी जी को लेना-देना न था। स्वामी जी मार्क्स से सिर्फ वर्ग-संघर्ष लिए थे, शेष उनका अपना स्वाध्याय और जीवन संघर्ष से सीखा ज्ञान था।

स्वामी जी चीनी क्रांति का मूल्यांकन कर किसान का महत्व भारतीय क्रांति के संदर्भ में रेखांकित करते हैं। अपनी बात की पुष्टि में लेनिन की फरवरी क्रांति के सोसाइटल नारे एवं माओ के चार वर्गीय मोर्चा की याद दिलाते हैं। जिसमें किसान भूमिका पर जोर बराबर है। सर्वहारा का नायकत्व मानने पर भी स्वामी जी किसान के सम्मिलित नेतृत्व को एक क्षण भी नहीं भूलते हैं। (किसान सभा के संस्मरण)

सर्वहारा के बराबर गरीब किसान की हैसियत किसी भी क्रांति में देना उस समय के कम्युनिस्टों को मंजूर नहीं हुई। स्वामी जी अधीनता पर राजी नहीं हुए। फिर भी स्वामी जी किसान मजदूर वर्ग की एकता और वामदलों की एकता को संयुक्‍त मोर्चा मानते थे। कम्युनिस्ट पार्टी साम्राज्यवाद विरोधी संघर्ष में कांग्रेस को ही नेशनल बुर्जुआ का प्रतिनिधि मान कर नेशनल फ्रंट का प्लेटफार्म मानती थी। इसी कारण गांधी से उनका जुड़ाव था। इसी 'नेशनल फ्रंट' की लाइन के खिलाफ स्वामी जी ने 'यूनाइटेड फ्रंट' की लाइन दी और 'जनता के जनवाद' की वकालत की। कम्युनिस्ट पार्टी की लाइन राष्ट्रीय जनवाद और नेशनल फ्रंट की थी। ऐसा प्रतीत होता है रूस की अक्टूबर क्रांति के प्रतिकूल चीनी लाइन की तरफ चीनी लाइन को भारतीय परिस्थिति लायक पुनर्निर्मित कर अपनाने के छिपे इशारे से भारत की रूस पंथी कम्युनिस्ट पार्टी भड़क गई। स्वामी जी को चीनी या रूसी क्रांति लाइन की भयंकर हिंसा कबूल न थी। स्वामी जी की हिंसा आत्मरक्षार्थ मीलिशिया एवं गरम वर्ग-संघर्ष तक ही सीमित थी - मार काट के स्वामी जी विरोधी थे। मार्क्स में धर्म और किसान और अहिंसा का संशोधन भारतीय कम्युनिस्टों को रास नहीं आया, यह किताब बहस की इसी कारण तलबगार न बन सकी।

गीता हृदय में स्वामी जी ने ज्ञान और कर्म के बीच सेतु बना कर लोक संग्रह जनहित हेतु किए गए कर्म, अकर्म, विकर्म, सुकर्म सभी को संन्यास की कोटि का माना है। यह शंकर के अद्वैत वेदांत का उच्चतम विकास है। जिसमें तिलक महाराज की सारी शंकाओं का माकूल उत्तर दे कर कर्म के रास्ते ज्ञान योग की पूर्णता प्राप्ति की बात कही गई-शर्त केवल एक है - कर्म संसार के हित में हो। सार्वभौम, सार्वकालिक, सार्वदेशिक गीता धर्म में मार्क्स, इस्लाम, क्रिस्तान सबको समेटने की क्षमता स्वामी जी देखते हैं यदि कर्मकांड में बात को उलझा कर लोक संग्रह की कसौटी रख कर गीता धर्म का पालन किया जावे।

(4) किसान जमींदार से संबंधित रचनाएँ -

(क) किसान कैसे लड़ते हैं?

(ख) किसान क्या करें?

(ग) जमींदारों का खात्मा कैसे हो

(घ) किसान के दोस्त और दुश्मन

(ङ) बिहार प्रान्तीय किसान सभा का घोषणा पत्र

(च) किसानों की फँसाने की तैयारियाँ

(छ) आन दी अदर साइड

(ज) रेंट रीडक्शन इन बिहार, हाउ इट वर्क्स

(झ) जमींदारी क्यों उठा दी जावे

(ञ) खेत मजदूर

(ट) झारखण्ड के किसान

(ठ) भूमि व्यवस्था कैसी हो?

(ड) किसान आंदोलन क्यों और क्या?

(ढ) गया जिले के किसानों की करुण कहानी

(ण) अब क्या हो?

(त) कांग्रेस तब और अब

(थ) कांग्रेस ने किसानों के लिए क्या किया?

(द) महारुद्र का महातांडव

(ध) स्वामी जी की डायरी

(न) किसान सभा के दस्तावेज

(प) स्वामी जी के पत्राचार

(फ) लोक संग्रह के छपे लेख

(ब) जनता में छपे लेख

(भ) हुंकार में छपे लेख

(म) विशाल भारत में छपे लेख

(य) बागी में छपे लेख

(र) भूमिहार ब्राह्मण में छपे लेख

(ल) स्वामी जी की भाषण माला

(व) कृषक में छपे लेख

(श) योगी में छपे लेख

(ष) किसान सेवक

(स) अन्य लेख

भारत में यथार्थ एवं संगठित किसान आंदोलन की नींव स्वामी सहजानन्द ने ही रखी थी। औपनिवेशिक सत्ता की पकड़ ढीली करने एवं स्वाधीनता का पक्ष प्रबल करने में किसान आंदोलन ने किसान चेतना विकसित कर सर्वाधिक भूमिका अदा की। फौज के सिपाही भी आखिर किसान ही के बेटे थे जिन्होंने नभ सेना, नौसेना, आजाद हिंद फौज, सिपाही विद्रोह में भाग लिया था जिनके डर से अंग्रेज 1947 में पलायित हो गए।

किसान सभा के संस्मरण, किसान कैसे लड़ते हैं, महारुद्र का महातांडव, मेरा जीवन संघर्ष, अब क्या हो? गया जिले में सवा मास, सब मिला कर स्वामी जी की जीवनी पूरी हो जाती है। ये पुस्तकें शिक्षाप्रद एवं ओजपूर्ण हैं जो आजादी की लड़ाई के विविध पक्षों पर किसान दृष्टिकोण से पूरा प्रकाश डालती हैं। किसान सभा द्वारा चलाए गए संघर्षों का वृत्तांत अनूठा और प्रेरणाप्रद तथा भविष्य की राह दिखानेवाला है। पुस्तक का विन्यास, प्रस्तुतीकरण मौलिक है। किसान को जगाने की, आंदोलित करने की, जुझारू बनाने की, संगठित करने की पूरी जानकारी उस काल की प्राप्त होती है।

'किसान क्या करें' में अप्रकाशित भाग भी दिए जा रहे हैं। छोटे-छोटे दृष्टांत, कहानी के माध्यम से किसान चेतना जगाने हेतु यह पुस्तक सरलतम भाषा में लिखी हुई है। यह किसान क्रांतिकारियों के काम की पुस्तक है। यह किसान एक्टिविस्टों के लिए खासकर आज भी उपयोगी हैं। यह समझने में अति सुगम। स्वामी सहजानन्द ने किसानों को अपने विशिष्ट तरीके से पंचतन्त्र की कहानी की तरह कम पढ़े किसानों को जरूरी ज्ञान पूरी तरह देने की इसमें कोशिश की है।

स्वामी जी भारतीय धर्मनिरपेक्षतावादियों के राष्ट्र के भीतर कई राष्ट्र की कल्पना से सिहर जाते थे। ये झारखण्ड को कम्युनिस्ट पार्टी की तरह 'उत्पीड़ित राष्ट्रीयता' नहीं कह कर झारखण्ड के किसान उनके जीविका के साधन के आधार पर कहते हैं। मामले को देखने की यह दृष्टि अनूठी है। स्वामी जी इसे नस्ल का मामला नहीं मानते थे। इसे वर्ग का मामला मान कर राष्ट्रव्यापी आंदोलन से इसे एकताबद्ध करते थे। शोषण के तमाम रूपों का जमीनी विवरण है। जमींदार द्वारा शोषण, ओझा द्वारा शोषण, ट्रेड यूनियन के मजदूर नेता द्वारा शोषण सभी संक्षिप्त पर सटीक यथायोग्य है। 'किसान की करुण कहानी' उन वास्तविक स्थितियों का चित्रण है जिनके कारण भविष्य में किसानों के आक्रोश का भयंकर विस्फोट हुआ।

15 अगस्त 1947 को स्थापित राजसत्ता के चरित्र का चित्रण स्वामी जी ने यों किया है -

'यह सरकार मालदारों की है, जमींदारों की है... जहाँ ऐसी एसेंबली है वहाँ किसानों का खुदा हाफिज।' (हुंकार में मृत्यु उपरांत 16 जुलाई, 1950 को प्रकाशित)

इस ग्रंथावली की रचनाओं को एकत्रित करने में मुझे करीब चालीस साल लगे जिस दौरान मेरी अन्त:क्रिया हजारों लोगों से हुई। फिर भी प्रमुख तौर पर रामचंद्र शर्मा गाजीपुर, त्रिवेणी शर्मा सुधाकर गया से मुझे अपार सहयोग प्राप्त हुआ है। उन लोगों ने यदि प्रचुर सामग्री समय पर नहीं इकट्ठा की होती तब मेरे ऐसे व्यक्‍ति को और न मालूम कितने बरस इसमें खपाने पड़ते। ए.के. राय, बी.एच.यू. केंद्रीय पुस्तकालय का भी मैं आभारी हूँ जिनके सौजन्य से वहाँ की पूरी लायब्रेरी मेरे लिए सदैव सुलभ बनी हुई है। इस बृहत रचनावली के प्रकाशन का सारा श्रेय प्रसन्न चौधरी देवघर, पुष्पेंद्र सिंह हजियापुर गोपालगंज, और कर्मेंदु शिशिर पटना को है। सर्वाधिक आभारी मैं अपनी मँझली चाची-मँझला चाचा का हूँ जिन्होंने मुझे किसान संघर्ष के क्रांतिकारी गीत सुना कर - संस्मरण सुना कर मेरी किसान चेतना को परिपुष्ट किया। स्वामी सहजानन्द सरस्वती द्वारा सुझाया गया किसान-मजूर संश्रय का रास्ता यदि मध्य बिहार की हिंसा का समाधान करा सकता है तब मैं प्रकाशन का उद्देश्य सफल समझूँगा। आज की बदली परिस्थिति में जोत के विखण्डन से एवं बढ़ती आबादी तथा बेरोजगारी के कारण संघर्ष का रूप सरकार विरोधी तय साबित होता है एवं किसान क्रांतिकारी लोग इस दिशा में किसान-मजूर संश्रय बना कर उन्मुख होते हैं तब प्रकाशन का मकसद पूरा समझा जावेगा। किसानों को चाहिए कि बढ़ी हुई खेत-मजदूरी के लिए सरकार से सब्सिडी की माँग करते हुए संघर्ष करें एवं मजदूर को भी चाहिए कि किसान की उपज का वाजिब दाम हेतु संघर्षशील हो। खेत-मजदूर को मजदूरी का बड़ा हिस्सा जिंस के ही रूप में प्राप्त होता है। यह आधार बनता है संश्रय का। प्रकाशन में नैतिक सहयोग के लिए आल इंडिया स्वामी सहजानन्द सरस्वती फाउंडेशन के अध्यक्ष सांसद अरुण कुमार के प्रति आभार व्यक्‍त करता हूँ। 15 अगस्त, 1947 को गांधी-नेहरू-लोहिया-जयप्रकाश की आधी आजादी की बाबू वर्गीय धारा ने अपना लक्ष्य प्राप्त कर लिया पर बिरसा मुंडा, भगतसिंह, सुभाष, सहजानन्द की पूर्ण आजादी की धारा अपना लक्ष्य प्राप्त न कर सकी - जग जाहिर है - समर शेष है...

स्व. कुबेरनाथ राय के अनुसार - 'अथर्ववेद कहता है कि जो क्षुधित है, वही रुद्र है। रुद्र परमात्मा का वह रूप है जो नित्य क्षुधित है और अन्त में समस्त सृष्टि का भक्षण कर के स्वयं का भी भक्षण कर निर्गुण निराकार परम संवित के रूप में स्थित हो जाता है, साथ ही नई सृष्टि की तैयारी करने के लिए योग निद्रा धारण कर लेता है। यह एक उच्च आइडिया है भारतीय दर्शन का।'

स्वामी जी का मन तो शास्त्र निष्णात विदग्ध मन है, अत: उनकी भाषा और मुहावरे में शास्त्रीय भाषा के संस्कार किसान क्रांति के ललकार भरे स्वर के साथ ओज और तेजोमय रूप में टपक ही जाते हैं। उन्होंने महारुद्र को प्रलयंकारी किसान विस्फोट के प्रतीक के रूप में लिया है ताकि किसान जागरण बल और तेज से संपन्न होता रहे।

'तांडव रुद्र का बिंब वे पुष्पदंत के महिम्न: स्रोत से लेते हैं। यह शीर्षक बिंब है।'

स्वामी का आत्म कथ्य है - 'मैं कमानेवाली जनता के हाथ में ही, सारा शासन सूत्र औरों से छीनकर देने का पक्षपाती हूँ। उनसे लेकर या उन पर दबाव डालकर देने दिलवाने की बात मैं गलत मानता हूँ। हमें लड़कर छीनना होगा। तभी हम उसे रख सकेंगे। यों आसानी से मिलने पर वह छिन जावेगा। यह ध्रुव सत्य है। यों मिले हुए को मैं सपने की संपत्ति मानता हूँ। मैं उस जीत को अगर वह हो भी जावे, हार ही मानता हूँ। क्योंकि किसान उसमें स्वावलंबी बनेंगे नहीं, और यही लड़ाई का असली उद्देश्य है। वह हक तो कभी फिर छिन जावेगा जो आज गैरों के बल से मिला। जनसमूह का काम करने वालों को जनता में, अपने लक्ष्य में और अपने आप में अपार विश्‍वास रहना चाहिए, तभी सफलता मिलती है। मुझे तो किसानों में अमिट विश्‍वास है।'

अफगानिस्तान में कम्युनिस्ट सरकार के पतन और भारत में बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बढ़ती पकड़ से स्वामी जी की बात खरी उतरती है।

स्वामी जी पुन: लिखते हैं - 'मैं किताबी ज्ञान नहीं चाहता। केवल किताबी ज्ञान से धोखा होता है। मैं लड़ाई और लड़नेवाला चाहता हूँ। जो किसानों, मजदूरों आदि को आर्थिक प्रोग्राम के आधार पर कहीं न कहीं उनका संगठन कर के उनकी लड़ाई में सीधे शामिल न हों, वे लोग उनके और हमारे नेता या कार्यकर्ता नहीं हो सकते।'

स्वामी जी की बात जयप्रकाश-लोहिया ने अनसुनी कर दी जिन्होंने अजगर (अहीर, जाट, गूजर, राजपूत) की राजनीति को बढ़ावा दिया और लोहिया ने त्रिवेणी संघ (अहीर, कोयरी, कुर्मी) को बढ़ावा दिया और वर्ग की जगह जाति को राजनीति का आधार बनाया। जाति में विभक्‍ति किसानों की दुर्दशा का आज भी कारण है। यही कारण है किसान आधारित स्वामी सहजानन्द की राजनीति आज भी समय की माँग है ताकि किसान जाति-धर्म के चक्रव्यूह से बाहर आ सकें। किसान सवाल को देश की राजनीति का पुन: केंद्र बनाना ही स्वामी जी की विरासत और वसीयत है।

राघव शरण शर्मा

बृज इन्क्लेव एक्सटेंशन

सुंदरपुर वाराणसी