भूमिका / दीवाना-ए-आज़ादी: करतारसिंह सराभा / रूपसिंह चंदेल

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इतिहास से गुज़रते हुए

कल का वर्तमान आज का इतिहास है और आज का वर्तमान कल का इतिहास होगा। इतिहास एक दृष्टि-दिशा देता है और प्रेरणा भी। अतः उसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती। उससे शिक्षा लेकर हम वर्तमान को उन त्रुटियों से बचा सकते हैं जो इतिहास ने कीं और उसकी अच्छाइयों से सबक लेकर वर्तमान को सुखद बनाया जा सकता है। इतिहास साहित्य नहीं है, लेकिन साहित्य में उसने महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। विश्व की कितनी ही महान कृतियां ऎतिहासिक घटनाओं और पात्रों को लेकर लिखी गयीं। लियो तोल्स्तोय का उपन्यास "युद्ध और शांति', हावर्ड फ़ास्ट का" स्पार्टकस", डॉ। शिवप्रसाद सिंह का" नीला चांद", वृन्दावन लाल वर्मा का" महाद जी सिन्धिया"और' झांसी की रानी" , आचार्य चतुरसेन शास्त्री के "वयं रक्षामः" और "वैशाली की नगर वधू" , वीरेन्द्र कुमार गुप्त का "चाणक्य" ——लंबी श्रृखंला है ऎसे उपन्यासों की। अंग्रेज़ी में हावर्ड फ़ास्ट और हिन्दी में वृन्दावन लाल वर्मा और आचार्य चतुरसेन शास्त्री प्रभृति साहित्यकारों ने केवल इतिहास को आधार बना कर ही उपन्यास लिखे।

नई कहानी के दौर में और उसके पश्चात हिन्दी के कई कथाकारों ने ऎतिहासिक लेखन को वर्तमान विद्रूपताओं से पलायन कहते हुए उसे खारिज किया, लेकिन उनका ऎसा कहने के पीछे मुख्य कारण ऎसे लेखन की उनकी अक्षमता थी। उन्हीं नई कहानीकारों के बीच कई रचनाकार ऎसे थे जिन्होंने बाद में इतिहास से अपने विषयों का चयन किया था। मोहन राकेश और कमलेश्वर के नाम लिए जा सकते हैं। इस बात की सचाई से इंकार नहीं किया जा सकता कि इतिहास स्वयं को दोहराता है। वह दोहराव समय और स्तिथियों के अनुसार होता है और जागरूक समाज अतीत से सबक लेकर वर्तमान स्थितियों से संघर्ष करता उसे अपने अनुकूल बनाता है।

इतिहास का विद्यार्थी न रहते हुए भी मुझे आठवीं कक्षा से ही इतिहास के प्रति आकर्षण रहा। लेखन के शुरूआती दौर में मैंने दस ऎतिहासिक कहानियां लिखीं और उन कहानियों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य के अनुसार लिखा। तीन किशोर उपन्यास (ऎसे थे शिवाजी, अमर बलिदान और क्रान्तिदूत अज़ीमुल्ला खां) लिखे और इन उपन्यासों के लिखने का मूल उद्देश्य देश के किशोरों को उन पात्रों से प्रेरणा प्रदान करना रहा। 'खुदीराम बोस' उपन्यास में उस महान शहीद को याद किया जिसने उन्नीस वर्ष की आयु में अपने को देश के लिए कुर्बान कर दिया था। देश में युवाओं में जो भयानक भटकाव की स्थिति है इस उपन्यास की रचना का उद्देश्य उन युवाओं को सही दिशा देना था। 'करतार सिंह सराभा' उपन्यास का भी यही उद्देश्य है।

यहां यह बताना आवश्यक है कि ऎतिहासिक पात्रों या घटनाओं को कथा का आधार बनाते हुए लेखक को मूल विषय में छेड़-छाड़ करने, उनमें परिवर्तन करने आदि की छूट लेने का अधिकार नहीं होता। इतिहास और कथा में जो अंतर होता है उस अंतर को समझना होता है और इतिहास को किंचित भी क्षति पहुंचाए बिना पात्रों और घटनाओं को इस प्रकार प्रस्तुत करना होता है कि वे साहित्य का अंग बन जाती हैं। अधिकांश लोग इतिहास को नीरस विषय मानते हैं और मूल रूप में इतिहास पढ़ने से बचते हैं, लेकिन वहीं इतिहास की विशेष घटना या पात्र जब साहित्य के रूप में प्रस्तुत होते हैं वह उनके लिए ग्राह्य भी होतें हैं और प्रेरणास्पद भी। निश्चित ही कथा को गति देने और पाठक की पठनीयता को ध्यान में रखते हुए कुछ पात्र, थटनाएं, प्राकृतिक विवरण आदि की कल्पना लेखक को करनी होती है, लेकिन यह ध्यान रखते हुए कि इतिहास बाधित न हो।

देश की आज़ादी के लिए खुदीराम बोस से पहले भी कितने ही क्रान्तिकारी शहीद हुए लेकिन इतिहास ने उन्हें या तो भुला दिया या इतिहास के एक पन्ने में एक पंक्ति में उनका उल्लेख कर छोड़ दिया गया। ऎसा नहीं कि ऎसा किसी निहित कारणों से हुआ। इसके पीछे प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष कई कारण रहे। उदाहरण के लिए खुदीराम बोस को ले सकते हैं। उनका संपूर्ण जीवन ही अर्थात किशोर वय शुरू होने से लेकर शहादत तक केवल समाज सेवा और क्रान्तिकारी कार्यों के लिए समर्पित रहा। उन्हें एक महत्त्वपूर्ण कार्य सौंपा गया, जिसे उन्होंने अंजाम दिया। लक्ष्य चूकने के लिए वह दोषी नहीं थे। उस महत्कार्य ने ही उन्हें अमर किया।

'खुदीराम बोस' की भांति करतार सिंह सराभा ने मुझे इसलिए प्रेरित किया क्योंकि चौदह वर्ष की आयु से साढ़े अठारह वर्ष की आयु के दौरान उन्होंने देश की आज़ादी के लिए जो कार्य किए वह साधारण व्यक्ति के लिए तो अकल्पनीय हैं ही बल्कि किसी क्षमताशील के लिए भी असंभव से प्रतीत होते हैं। करतार सिंह दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण करके अमेरिका की कैलीफोर्निया के बर्कले शहर के "कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय" में केमेस्ट्री पढ़ने के लिए गए थे, लेकिन सान्फ्रासिस्को बन्दरगाह में उतरने के साथ इमीग्रेशन विभाग के अधिकारियों से उन्हें जिस प्रकार के प्रश्नों का सामना करना पड़ा था उसने उनके मन में देश की आज़ादी के संकल्प को और दृढ़ किया था। उन्हें साथ यात्रा कर रहे एक यात्री ने बताया था कि केवल भारतीयों से ही गहन पूछताछ की जाती है। "क्यों?" के उत्तर में उसने कहा था, "क्योंकि वे एक गुलाम देश के नागरिक हैं" । यद्यपि करतार सिंह देश की आज़ादी का स्वप्न तभी से देखने लगे थे जब वह लुधियाना में नवीं में पढ़ रहे थे, लेकिन अमेरिका जाकर यह भाव बढ़ता गया था। वहाँ भारतीयों को दूसरे-तीसरे दर्जे का नागरिक समझा जाता था। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में पढ़ते हुए वह 'नालंदा क्लब' से जुड़े, जहां कई भारतीय छात्र क्रान्तिकारी विचारों के थे। उसके बाद उनकी मुलाकात क्रान्तिकारी सोहन सिंह से हुई, जो क्रान्ति की दिशा में उनको प्रेरित करने के लिए निर्णायक सिद्ध हुई. वह 'युगान्तर आश्रम' से जुड़े। फिर लाला हरदयाल से और 'गदर' संस्था की स्थापना में अहम भूमिका निभाते हुए उसके लिए कार्य करने लगे। उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी। सोहन सिंह के साथ और कभी अकेले वह कैलीफोर्निया के अनेक शहरों में देश की आज़ादी के लिए होने वाली सभाओं में शामिल होने लगे। लाला हरदयाल और सोहन सिंह ने जब 'गदर' अखबार प्रकाशित करने का विचार किया तब करतार सिंह सराभा ने पंजाबी संस्मरण का भार स्वयं पर लिया। वह ऎसे उत्साही किशोर क्रान्तिकारी थे जो अपने भाषणों से लोगों को क्रान्ति के लिए आकर्षित करते थे। लगभग डेड़ वर्ष तक धुंआधार प्रचार के बाद 'गदर' संस्था की ओर से निर्णय हुआ कि करतार सिंह सराभा के नेतृत्व में कुछ लोगों का दल देश की आज़ादी के लिए भारतभेजा जाए. उनके सहित १०२ क्रान्तिकारी उस दल में थे, जिनमें महान क्रान्तिकारी विष्णु गणेश पिंगले और सत्येन सेन भी थे। सभी कोलंबों होते हुए कलकत्ता पहुंचे। वहाँ वे बंगाल के महान क्रान्तिकारी जतिन मुखर्जी से मिले। उनसे रासबिहारी बोस के नाम पत्र लेकर वह और पिंगले बनारस पहुंचे, जहां उन दिनों बोस अंडर ग्राण्ड रह रहे थे। सत्येन सेन कलकत्ता में ही रुक गए थे।

रासबिहारी बोस से परामर्श करके करतार सिंह सराभा और पिंगले ने उत्तर भारत के अनेक शहरों की यात्राएं की। वे छावनियों में गए और स्थानीय क्रान्तिकारियों से संपर्क किया। अंततः उन लोगों ने लाहौर को अपना केन्द्र बनाया। इस दौरान धन एकत्र करने के लिए सरकारी खज़ाने लूटे, जमींदारों के यहाँ डकैतियां डालीं, बम बनाए, जिसमें उनके दो साथियों की मृत्यु हो गयी और रासबिहारी बोस के लाहौर आने के बाद सेना और जनता में बगावत की तिथि निश्चित की गई, लेकिन एक सरकारी जासूस, कृपाल सिंह, जो एक क्रान्तिकारी के रूप में उनसे मिला हुआ था, के कारण उनकी योजना असफल हुई और १६ नवंबर, १९१५ को करतार सिंह सराभा और पिंगले को लाहौर जेल में फांसी दे दी गयी थी। उनके साथ बाइस अन्य क्रान्तिकारियों को भी फांसी दी गयी थी।

सरदार भगत सिंह करतार सिंह सराभा को अपना गुरु मानते थे। वह उनसे बहुत प्रेरित थे। इतने महानातापूर्ण कार्य करने के बावजूद आश्चर्यजनक तथ्य यह है कि करतार सिंह सराभा को देश में बहुत कम जाना गया। लेकिन आज जिस प्रकार देश में युवा भटकाव का शिकार हैं, हमारा यह दायित्व है कि हम इन महान क्रान्तिकारियों से उन युवकों को परिचित करवाएं। आशा है कि 'दीवाना-ए-आज़ादी: करतार सिंह सराभा' उपन्यास उस दिशा में महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगा।